श्री रामानुजाचार्यः - महापुरुषकीर्तन श्रंखला
सुभक्तः श्रीरामानुजाचार्यः
(१०१७-११३७ ई०)
जातो ऽपि यो विप्रकुले ऽभिमानं, त्यक्त्वा समान् धर्ममुपादिदेश।
हितं जनानां हृदये दधानं, रामानुजाचार्यमहं नमामि।।17॥
जिन्होंने ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होकर भी अभिमान का परित्याग
करके सब को धर्म का उपदेश दिया, ऐसे हदय में सब लोगों के हित को
धारण करने वाले श्री रामानुजाचार्य जी को मैं नमस्कार करता हूँ।
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स्वर्यान्तु लोका यदि मन्त्रदीक्षाहेतोरहं चेन्नरक' व्रजेयम्।
न तत्र चिन्तेति मुदा वदन्तं, रामानुजाचार्यमहं नमामि।।18॥।
यदि मन्त्र-दीक्षा देने से लोग स्वर्ग को जाएं और मैं नरक को जाऊं
तो भी मुझे इस की कोई चिन्ता नहीं। इस प्रकार प्रसन्नता पुर्वक कथन करते
हुए श्री रामानुजाचार्य को मैं नमस्कार करता हूँ।
यो विष्णुभक्तः स हि पूजनीयो, जातेर्विचारो नहि जातु युक्तः।
औदार्यमित्थं प्रतिपादयन्तं, रामानुजाचार्यमहं नमामि।।19॥
जो विष्णु (परमेश्वर ) का भक्त है वह पूजनीय है। इस विषय में
जाति का विचार नहीं है, इस प्रकार की उदारता का प्रतिपादन करने वाले
श्री रामानुजाचार्य को मैं नमस्कार करता हूँ।
ये ह्यन्त्यजा इत्यभिधानवाच्याः, तेभ्योऽपि दीक्षामददादुदारः।
अस्पृश्यतावारणदत्तचित्तं, रामानुजाचार्यमहं नमामि।।20॥
जिन को अन्त्यज माना जाता है उन को भी जिस उदार महानुभाव
ने दीक्षा दी, इस प्रकार अस्पृश्यता वा अछूतपन हटने में जिन का चित्त लगा
हुआ था, ऐसे भी रामानुजाचार्य को मैं नमस्कार करता हूँ।