कुटुम्ब में शिक्षा
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सीखा कैसे जाता है इसकी चर्चा जब होती है तब. में होती है । इस दृष्टि से कुटुम्ब में शिक्षा यह Pama
आपग्रहपूर्वक कहा जाता है कि साथ रहकर सीखना अथवा... का एक महत्त्वपूर्ण विषय है । इसलिए यह देखना महत्त्वपूर्ण
सीखने के लिये साथ रहना यह उत्तम पद्धति है [1]। गुरुकुलों .. होगा कि कुटुम्ब में शिक्षा होती कैसे है, और Hers की
में गुरुगृहबास होता है इसलिये भी यह उत्तम पद्धति है।. शिक्षा की विषयवस्तु कौन सी होगी ।
परन्तु शत प्रतिशत छात्र गुरुकुल में नहीं रह सकते । साथ कुछ मुद्दों को लेकर ही विचार करना उपयुक्त होगा ।
ही कोई भी व्यक्ति आजीवन गुरुकुल में नहीं रह सकता ।
केवल अध्यापक ही आजीवन गुरुकुल में रहता है । इस
दृष्टि से देखें तो कुटुम्ब लगभग शतप्रतिशत लोग आजीवन शिक्षा का यह महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है । इस पृथ्वी पर
घर में रहते हैं । गुरुकुल में शास्त्रों का अध्ययन होता है यह... जन्म लेने से पूर्व ही मनुष्य का सीखना शुरु हो जाता है
उसकी विशेषता है । इसके अलावा शेष सारी शिक्षा कुटुम्ब SI जन्म के बाद आजीवन उसका शिक्षाक्रम चलता रहता
कुटुम्ब में आजीवन शिक्षा
जिस प्रकार मनुष्य एक क्षण भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता उसी प्रकार वह कुछ न कुछ सीखे बिना भी नहीं रह सकता । मनुष्य के जीवन की अवस्थायें इस प्रकार होती हैं: १. गर्भावस्था, 2. शिशुअवस्था, ३. किशोरअवस्था, ४. तरुण अवस्था, ५. युवावस्था, ६. प्रौढावस्था और ७. वृद्धावस्था ।
इन सभी अवस्थाओं में उसकी सीखने की पद्धति और विषयवस्तु भिन्न रहेंगे, तथापि सीखना तो चलता ही रहता है । शिक्षा को विद्यालय के साथ ही जोडने का हमारा अभ्यास इतना पक्का हो गया है कि हम पुस्तकों के पठन और परीक्षों में उत्तीर्ण होकर पदवी प्राप्त करने को ही शिक्षा कहने लगे हैं। परन्तु पुस्तकों और परीक्षाओं से परे जाकर शिक्षा होती है इसको स्वीकार करने की मानसिकता बनानी होगी । ऐसी मानसिकता बनने से आज शिक्षा को लेकर जो चिन्तायें एवं कठिनाइयाँ पैदा हो गई हैं उनसे हमें मुक्ति मिलेगी।
विद्यालयीन शिक्षा जानकारी की शिक्षा होती है, शास्त्रों की शिक्षा होती है, ज्ञानार्जन के करणों के विकास की शिक्षा होती है। कुटुम्ब की शिक्षा आजीवन शिक्षा होती है । प्रथम दृष्टि से ही विद्यालयीन शिक्षा आजीवन शिक्षा का एक अंग ही है । शास्त्रों के अध्ययन को एक ओर रखें तो विद्यालयों में होने वाली शिक्षा घर में भी हो सकती है । गुरुकुल में भी जब शास्त्रों के ज्ञान के साथ साथ घर की व्यावहारिक शिक्षा दी जाती है तभी वह सम्पूर्ण होती है । बहुत स्पष्ट है कि गुरुकुलों में यदि घर के कामों की सम्यक् शिक्षा न दी जाय तो गुरुकुल भी आज के समय के छात्रावासों के समान ही होंगे ।
कुटुम्ब में आजीवन शिक्षा सम्भव होने का स्वाभाविक कारण है । घर में सब परिवार भावना से अर्थात् आत्मीयता से रहते हैं। आत्मीयता अथवा अपनापन सिखाने की आवश्यकता नहीं होती । वह स्वाभाविक होती है। पति को पत्नी, पत्नी को पति, मातापिता को संतानें, संतानों को मातापिता, भाइयों को बहनें, बहनों को भाई स्वाभाविक ही प्रिय होते हैं । यह प्रेम निर्हेतुक होता है । साथ रहने के लिये इस प्रेम के अलावा और किसी प्रयोजन की आवश्यकता नहीं होती । हम शिक्षक और विद्यार्थी में परस्पर ऐसा ही सम्बन्ध बने ऐसी अपेक्षा करते हैं । ऐसे सम्बन्ध को ही हम ज्ञानार्जन प्रक्रिया का आधार मानते हैं । यह कुटुम्ब में सहज ही होता है ।
दूसरा महत्त्वपूर्ण आयाम यह है कि कुटुम्ब में आयु की सभी अवस्थाओं के विद्यार्थी एक साथ रहते हैं । सब एकदूसरे के शिक्षक होते हैं । सीखना और सिखाना साथ साथ चलता है । विद्यालयों में विद्यार्थी-शिक्षक की संख्या का अनुपात कभी कभी चिन्ता का विषय बनता है । एक शिक्षक कितने विद्यार्थियों को पढ़ा सकता है इसकी चर्चा होती है । बड़े विद्यार्थी शिक्षक के सहायक बनकर अपने से छोटे विद्यार्थियों को पढ़ाते हैं ऐसी व्यवस्था को अच्छी व्यवस्था माना गया है । कुटुम्ब में हर आयु के लोग एक साथ रहते हैं, उनकी संख्या का अनुपात भी आदर्श ही रहता है । कुटुम्ब अच्छा शिक्षा केन्द्र होने का यह दूसरा कारण है ।
आवश्यकता के अनुसार शिक्षा
कुटुंब में जिसे जिस बात की आवश्यकता होती है,
जब जिस बात की आवश्यकता होती है उसे उस समय उस
बात की शिक्षा प्राप्त होती है । विद्यालय में जो नियत
किया गया है वह पढना है, घर में जो आवश्यक है वह
पढ़ना है । विद्यार्थी को किस बात की आवश्यकता है यह
जानने वाले उसके स्वजन होते हैं । उन्हें समझ भी होती है
और सरोकार भी होता है । नित्य साथ रहने के कारण
उसकी सीखने की प्रगति देखना भी उनके लिये सम्भव
होता है । सिखाने वाले भी एक से अधिक होते हैं इसलिये
योग्य शिक्षक भी अपने आप उपलब्ध हो जाते हैं ।
कुटुम्ब में क्या क्या सीखने की आवश्यकता होती
है ? इस प्रश्न को दूसरे शब्दों में He a Hera में क्या
क्या सीखना चाहिये ?
e जीवन जीने की आत्यन्त प्राथमिक स्वरूप की बातें,
जैसे कि खाना, सोना, नहाना, चलना, बोलना,
उठना, बैठना, खेलना, गाना आदि । यह सब हमारे
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पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा
लिये इतना सहज हो गया है कि यह सीखना भी साथ, अपने से छोटों के साथ,
होता है यह बात ध्यान में ही नहीं आती । सीखना अपनों के और परायों के साथ, सज्जनों और दुर्जनों
और सिखाना सहज ही होता रहता है । विशेष रूप के साथ, धनवानों और सत्तावानों के साथ, विद्वानों
से विचार करने पर ही ध्यान में आता है कि कुटुम्ब और सन्तों के साथ, नौकरों और चाकरों के साथ
नहीं होता तो भाषा नहीं सीखी जाती है, नहाना, कैसा व्यवहार किया जाता है इसकी शिक्षा भी घर में
धोना, खाना, पीना आदि नहीं सीखा जाता है । मिलती है । यह कम मिलती है या अधिक, पर्याप्त
०"... घर के छोटे से लेकर बड़े काम सीखने होते हैं । घर मात्रा में मिलती है या अधूरी, अच्छी मिलती है या
में यदि खानापीना है तो खाना बनाना भी है, पानी कम अच्छी, सही मिलती है या गलत इसका आधार
भरना भी है, बर्तनों की सफाई करनी है, उन्हें aera के चरित्र पर है । जैसा कुटुम्ब वैसी शिक्षा ।
जमाकर रखने भी हैं । यदि सोना है तो बिस्तर. *. मन की शिक्षा का मुख्य केन्द्र कुटुम्ब ही है । सारे
लगाना और समेटना भी है । घर में रहना है तो घर सदूगुण यहीं सीखे जाते हैं । झूठ नहीं बोलना,
की साफसफाई करनी है और साजसज्जा भी करनी अनीति नहीं करना, सफलताओं से फूल नहीं जाना,
है। नहाना धोना है तो कपड़े धोने भी हैं और उपलब्धियों से मदान्वित नहीं होना, लालच में
स्नानगृह की स्वच्छता भी करनी है। संक्षेप में tea नहीं, आपत्तियों में धैर्य नहीं खोना, धमकियों
असंख्य छोटी बड़ी बातें हैं जो घर के लिये से भयभीत नहीं होना, कष्टीं से नहीं धबड़ाना, स्वार्थ
आवश्यक होती हैं और वे सब सीखनी होती हैं । साधने के लिये किसीकी खुशामद नहीं करना, किसी
© घर में बच्चों का संगोपन करना, उन्हें संस्कार देना, की सफलताओं के प्रति मत्सर नहीं होना, स्वमान
घर के लोगों की शुश्रूषा करना, वृद्धों की ओर नहीं खोना आदि मूल्यवान बातों के लिये दृढ़
बीमार लोगों की परिचर्या करना, अतिथिसत्कार मनोबल की आवश्यकता होती है । यही व्यक्ति का
करना, ब्रत-उत्सव-त्योहार मनाना, कौट्म्बिक और चरित्र है । यह सब सीखने का प्रमुख eg Hers
सामुदायिक सम्बन्धों के अनुसार विवाह-जन्म-मृत्यु ही है।
आदि अवसरों में सहभागी होना, समाजसेवा के
कार्यों में सहभागी होना आदि अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य... *'
कौटुम्बिक परिचय
घर में ही सीखे जाते हैं। यह सीखना भी अन्य सभी मनुष्यों के जीवन में pers sc अनिवार्य
विषयों के ही समान क्रियात्मक, भावात्मक और... बना हुआ है कि हम उसे गृहीत मानकर चलते हैं । जिस
ज्ञानात्मक पद्धति से होता है । विशेष बात यह है कि... प्रकार श्वासप्रश्चास जीवित रहने के लिये अनिवार्य है परन्तु
वह इसी क्रम में होता है । यहाँ सबकुछ पहले किया... हम उसे गृहीत ही मानते हैं, उसके लिये खास पुरुषार्थ
जाता है, करना सीखने के बाद और सीखने के साथ... करने की आवश्यकता हमें लगती नहीं है, उसी प्रकार
साथ उसे मन से स्वीकार करना भी सिखाया जाता है... कुटुम्ब में रहने के लिये भी खास कुछ करने की
और बाद में उसका ज्ञानात्मक पक्ष सीखा जाता है।... आवश्यकता हमें नहीं लगती है । परन्तु वह लगनी चाहिये
ज्ञानात्मक पक्ष सीखने-सिखाने में विद्यालय, ग्रन्थ, .... ऐसा वर्तमान स्थिति देखकर ध्यान में आता है |
सन्त आदि अन्य लोगों की सहायता अवश्य होती हर व्यक्ति की एक व्यक्तिगत पहचान होती है ।
है परन्तु इस क्रियात्मक शिक्षा का केन्द्र तो कुटुम्ब eT या गोरा होना, लम्बा या नाटा होना, बुद्धिमान या
ae | बुद्ध होना, मूर्ख या समझदार होना, दुर्बल या बलवान
०. अपने से बड़ों के साथ, समान आयु के लोगों के... होना, सुन्दर या कुरूप होना व्यक्तिगत पहचान के आयाम
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हैं। परन्तु कुटुम्ब के सन्दर्भ में हर
व्यक्ति की विशेष पहचान होती है । वह किसी का पुत्र
होता है, किसी का भाई, किसी का पिता होता है, किसी
का दादा, किसी का भतीजा होता है किसी का भानजा,
किसीका देवर होता है, किसी का बहनोई । यह पहचान
कुटुम्ब से ही प्राप्त होती है यह तो स्पष्ट ही है । कौट्म्बिक
सम्बन्धों की यह शृंखला बहुत लम्बी चौड़ी होती है । यह
भारत की विशेषता है, अन्यत्र नहीं देखी जाती |
दूसरों के सन्दर्भ में ही पहचान बनना बहुत बड़ी बात
है । इसका सांस्कृतिक मूल्य बहुत ऊँचा है । हर व्यक्ति को
अपना जीवन इस पहचान के अनुरूप बनाना होता है।
अपने सम्बन्ध को जानना और उसे निभाना शिक्षा का
महत्त्वपूर्ण आयाम है । इस भूमिका को निभाने में कर्तव्यों
की एक लम्बी मालिका बनती है | मातापिता का सन्तानों
के प्रति, सन्तानों का मातापिता के प्रति, भाईबहनों का
एकदूसरे के प्रति विभिन्न रिश्तेदारों के प्रति क्या कर्तव्य है
यह सीखना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इसके कौशलात्मक
और भावात्मक दोनों पक्ष समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं ।
भारत में इसे सीखने को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है ।
इन सम्बन्धों के स्वरूप के महत्त्व को दर्शाने वाले कुछ सूत्र
ध्यान देने योग्य हैं ।
०... गृहिणी गृहमुच्यते । गृहिणी ही घर है ।
© माता प्रथमो गुरु: । माता प्रथम गुरु है ।
०". माता शत्रुः पिता बैरी येन बालो न पाठितः । बच्चों
को नहीं पढ़ाने वाली माता शत्रु और पिता बैरी के
समान है ।
०... बड़ी भाभी माता समान । छोटे देवर-ननद पुत्र-पुत्री
समान ।
०. मातृ देवो भव । पितृ देवो भव । माता और पिता के
प्रति देवत्व का भाव रखो ।
इन सब सूत्रों को सीखकर आत्मसात् करना Hers
में प्राप्त होने वाली शिक्षा का महत्त्वपूर्ण कदाचित सर्वाधिक
महत्त्वपूर्ण आयाम है ।
व्यक्ति के व्यक्तिगत परिचय से भी इस कौट्म्बिक
परिचय का महत्त्व विशेष है । व्यक्ति कैसा भी हो तब भी
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
कुटुम्ब में उस का स्वीकार होता है । कुटुम्ब में सबका
समान रूप से अधिकार है । व्यक्ति को आपत्ति में आधार,
दुर्गुणों और दोषों का परिष्कार, दुःखों में आश्वस्ति, संकटों
में सहायता कुटुम्ब में सहज प्राप्त होते हैं । न इसका पैसा
देना पड़ता है न इसके लिये विज्ञप्ति करनी पड़ती है ।
लेनदेन का हिसाब नहीं होता ।
एक पीढी की शिक्षा
कुट्म्बजीवन परम्परा निर्माण करने का, उसे बनाये
रखने का, परम्परा को परिष्कृत और समृद्ध बनाने का एक
महत्त्वपूर्ण केन्द्र है । जब ज्ञान, कौशल, संस्कार, दृष्टिकोण,
मानस आदि पूर्व पीढ़ी से प्राप्त किये जाते हैं और आगामी
पीढ़ी को दिये जाते हैं तब परम्परा बनती है और परिष्कृत
तथा समृद्ध भी बनती है । इस दृष्टि से एक पीढ़ी को
शिक्षित और दीक्षित किया जाता है । हम सहज ही समझ
सकते हैं कि कुटुम्ब का यह कार्य कितना महत्त्वपूर्ण है ।
संस्कृति रक्षा का यह कार्य कुटुम्ब के अलावा और कहीं
नहीं हो सकता । इसके छोटे छोटे हिस्से तो अन्यत्र अन्य
लोगों द्वारा हो सकते हैं परन्तु वे सब कुटुम्ब नामक मुख्य
केन्द्र के पोषक होते हैं । बिना कुटुम्ब के सब अनाश्रित हो
जाते हैं ।
एक सम्पूर्ण पीढ़ी की शिक्षा का क्रम कुछ इस
प्रकार बनता है -
०... गर्भाधान से नई पीढ़ी का प्रारम्भ होता है । आगे नौ
मास तक व्यक्ति गर्भावस्था में होता है । उस समय
चस्त्रिनिर्माण की नींव डाली जाती है ।
०. जन्म समय के संस्कारों का भावी जीवन के लिये
बहुत महत्त्व है । ज्ञानेन्द्रियों की ग्रहणक्षमता की दृष्टि
से इसका महत्त्व है ।
०". जन्म से पाँच वर्ष की आयु सर्वाधिक संस्कारक्षम
होती है । वह चखिनिर्माण की नींव को पक्की करने
का समय है । भावी जीवन की सारी सम्भावनायें
गर्भाधान से पाँच वर्ष की आयु तक बीज रूप में
पोषित होती है ।
०. पाँच से पन्द्रह वर्ष की आयु चरित्रगठन की आयु
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पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा
है । बीज अब अंकुरित और पल्लवित होता है । बीज
की गुणवत्ता और सम्भावनायें अब प्रकट होने लगती
हैं। अंकुरित और पल्लवित होने में जिन बातों का
ध्यान रखना चाहिये उन बातों का ध्यान रखने से
बीज का विकास सम्यक् रूप से होता है ।
पन््द्रह वर्ष के बाद गृहस्थाश्रम स्वीकार करने तक का
अगला चरण होता है । औसत रूप में दस वर्षका
यह चरण बीज के पुष्पित होने का चरण है । विकास
की सारी सम्भावनायें प्रायोगशील रूप में परिपक्क
होती है ।
गृहस्थाश्रमी बनते ही एक पीढ़ी की शिक्षा पूर्ण होकर
भावी पीढ़ी के निर्माण की दम्पति को दीक्षा मिलती
है। भावी पीढ़ी के स्वागत हेतु पतिपत्नी अच्छी
तैयारी करते हैं और शुभ क्षण में गर्भाधान से नई
पीढ़ी का प्रारम्भ होता है ।
गर्भाधान से दूसरी पीढ़ी के गर्भाधान तक एक पीढ़ी
का चक्र चलता रहता है। परन्तु दूसरी पीढ़ी का
गर्भाधान होकर पीढ़ी की शरुआत होने पर पूर्व पीढ़ी
के लोग क्या करेंगे ?
भावी पीढ़ी के निर्माण में ये सर्व प्रकार से संरक्षक
और मार्गदर्शक होंगे। साथ ही aera a
सांस्कृतिक चरित्र बनाने की दृष्टि से इन का
aera, fae, wares, .. मोक्षसाधन,
समाजसेवा आदि चलता रहेगा । कुट्म्बजीवन में इन
सभी बातों का बहुत महत्त्व है ।
इसी बात को ध्यान में लेकर हमारे यहाँ आश्रम-
संकल्पना बनी है । ब्रह्मचर्याश्रम और गृहस्थाश्रम
पीढ़ी निर्माण की दृष्टि से अध्ययन और अध्यापन का
काल है. वानप्रस्थाश्रम सहयोग, संरक्षण, मार्गदर्शन,
चिन्तन, मनन और अनुसन्धान का काल है । इससे
ही काल के प्रवाह के अनुरूप परम्पराओं के
परिष्कार का काम होता रहता है । सन्यास्ताश्रम के
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काल में व्यक्ति चाहे संन्यास ले
या न ले, चाहे घर में रहे या बाहर, सबसे अलग
रहकर तपश्चर्या का ही समय है । संन्यासियों की
तपश्चर्या से संस्कार का भला होता है, Heese at भी
अपना हिस्सा मिलता 2 |
इस प्रकार कुटुम्ब शिक्षा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण
केन्द्र है । मातापिता शिक्षक हैं और सन्तानें विद्यार्थी,
सिखाने वाले और सीखने वाले का यह सम्बन्ध
इतना उत्तम माना गया है कि गुरुकुल में भी गुरु और
शिष्य को पिता-पुत्र ही कहा जाता है । कुटुम्ब के
सम्बन्धों का. आदर्श समाजजीवन के पहलू में
स्वीकृत हुआ है । राजा प्रजा का पालक पिता है,
ग्राहक व्यापारी के लिये भगावान है, कृषक जगतू्
का तात अर्थात् पिता है, स्वयं भगवान जगत्पिता है,
सभी देवियाँ माता हैं । इतना ही नहीं तो हम सम्पूर्ण
ST के साथ कौटूंम्बिक सम्बन्ध बनाकर ही जुड़ते
हैं। बच्चों के लिये चिड़ियारानी, बन्दरमामा,
चन्दामामा, बिल्ली मौसी, हाथीदादा के रूप में
पशुपक्षी स्वजन हैं। बड़ों के लिये नदी, धरती,
गंगा, तुलसी आदि माता है । प्रत्यक्ष Heras के घेरे
के बाहर की हर स्त्री माता, बहन, पुत्री है और हर
पुरुष पिता, भाई, पुत्र है । Hera रक्तसम्बन्ध से
शुरू होता है और भावात्मक स्वरूप में उसका
विस्तार होता है तब उसे वसुधैव कुट्म्बकम् कहा
जाता है ।
आज इन बातों की उपेक्षा हो रही है, यह तो हम
देख ही रहे हैं । इससे कितनी सांस्कृतिक हानि होती
है इसका हमें अनुमान भी नहीं हो रहा है । परन्तु इस
विमुखता को छोडकर कुटुम्ब में होने वाली पीढ़ी की
शिक्षा की ओर हमें सक्रिय रूप से ध्यान देना होगा
इसमें कोई सन्देह नहीं ।
References
- ↑ धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे