Panchamahayajna (पञ्चमहायज्ञ)
गृहस्थ प्रतिदिन झाडू-पोंछा, अग्निकुण्ड, चक्की, स्वाध्यायेन व्रतैर्लोमैस्त्रविद्येनेज्यया सुतैः। सूप, जलघट आदि स्थान या सामग्रीके द्वारा प्राणियोंको महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः॥ आहत करता है, उन्हें मारता है। अन्न तैयार करते समय
(२।२८) अथवा भोजन-निर्माणार्थ कई क्रियाएँ की जाती हैं, जिनसे अर्थात् वेदाध्ययनसे, मधु-मांसादिके त्यागरूप व्रतसे, जीव-जन्तुओंकी हिंसा हो जाती है। शास्त्रोंमें ऐसा कहा गया है गृहस्थके घर में पॉंच स्थल ऐसे हैं जहां प्रतिदिन न चाहने पर भी जीव हिंसा होने की सम्भावना रहती है-
पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः । कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन् ।।
तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थं महर्षिभिः । पञ्च क्लृप्ता महायज्ञाः प्रत्यहं गृहमेधिनाम् ।।
चूल्हा(अग्नि जलानेमें) , चक्की(पीसने में), झाडू (सफाईकरने में), ऊखल (कूटनेमें) तथा घड़ा (जल रखनेके स्थान, जलपात्र रखनेपर नीचे जीवोंके दबने) से जो पाप होते हैं इस तरहकी क्रियाओंके माध्यमसे सूक्ष्म जीव-जन्तुओंकी हिंसा हो जाती है। ऐसी हिंसाको जिसे कि जीवनमें टाला नहीं जा सकता, शास्त्रों में 'सूना' कहा गया है। इसकी संख्या पाँच होनेसे ये 'पंचसूना' कहलाते हैं।उन पापोंसे मुक्त होनेके लिये ब्रह्मयज्ञ-वेद-वेदाङ्गादि तथा पुराणादि आर्षग्रन्थोंका स्वाध्याय, पितृयज्ञ-श्राद्ध तथा तर्पण, देवयज्ञ-देवताओंका पूजन एवं हवन, भूतयज्ञ-बलिवैश्वदेव तथा पञ्चबलि, मनुष्ययज्ञ-अतिथिसत्कार-इन पाँचों यज्ञोंको प्रतिदिन अवश्य करना चाहिये।
इसलिए उन पापों की निवृत्ति के लिए नित्य क्रमश: निम्नलिखित पांच यज्ञ करने का विधान किया गया है- (१) ब्रह्मयज्ञ (२) पितृयज्ञ(३) देवयज्ञ(४) भूतयज्ञ और (५) नृयज्ञ।
अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तुतर्पणम् । होमो देवो बलिभौं तो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् ॥
पढ़ना-पढ़ाना ब्रह्मयज्ञ, तर्पणादि पितृयज्ञ, हवन दैवयज्ञ, बलि भूतयज्ञ और अतिथि-पूजन मनुष्ययज्ञ कहलाते हैं।
परिचय
कण्डनी पेषणी चुल्ली उदकुम्भी च मार्जनी। पञ्चसूना गृहस्थस्य पञ्चयज्ञात्प्रणश्यति ।।
अर्थात् कूटना, पीसना, चूल्हा, जल भरना और झाडू लगाना-इन सभी पापोंका नाश पंचमहायज्ञसे ही होता है।
इन्हीं पाँच सूनासे विमुक्त्यर्थ अथवा झाड़ना-कूटना-पीसना आदि क्रियाओंके द्वारा होनेवाले पापोंसे मुक्तिके लिए भूतयज्ञकी व्यवस्था दी गयी है। केवल समाजका ही नहीं खाना चाहिये, उन्हें खिलाना भी चाहिये। इसी बातको ध्यानमें रखकर नृयज्ञ अथवा मनुष्ययज्ञ किया है। जो व्यक्ति अपने सामर्थ्यके अनुसार यह पंचमहायज्ञ करता है, सुतरां सभी पापोंसे वह मुक्ति पा लेता है। तैत्तिरीय आरण्यक (११।१०)-के मतमें जहाँ ये पंचमहायज्ञ अजस्ररूपसे गृहस्थोंको धन-समृद्धिसे परिपूर्ण करते हैं; वहीं आश्वलायनगृह्यसूत्र (३ । १ । १-४)-ने इसे प्रतिदिन करनेका विधान बताया है।
इन पंचमहायज्ञोंका संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जा रहा है-
ब्रह्मयज्ञ
पॉंचों महायज्ञमें ब्रह्मयज्ञ प्रथम और सर्वश्रेष्ठ है इसके करनेसे स्वर्गकी प्राप्ति तो होती ही है साथ ही विविध प्रकारके अभ्युदयकी सिद्धि भी कही गयी है। सर्वप्रथम उल्लेख शतपथब्राह्मणमें शतपथ (११ । ५। ६।३-८)और सबसे विस्तृत वर्णन तैत्तिरीय आरण्यकमें देखा जाता है। शतपथ के अनुसार प्रतिदिन किया जानेवाला स्वाध्याय ही ब्रह्मयज्ञ कहलाता है। इस यज्ञके माध्यमसे देवताओंको दूध-घी-सोम आदि अर्पित किये जाते हैं, प्रतिफलमें देवता प्रसन्न होकर उन्हें सुरक्षा, सम्पत्ति, दीर्घ आयु, दीप्ति- तेज, यश, बीज, सत्त्व, आध्यात्मिक उच्चता तथा सभी प्रकारके मंगलमय पदार्थ प्रदान करते हैं। साथ ही इनके पितरोंको घी एवं मधुकी धारासे सन्तुष्ट करते हैं। यहाँतक कि स्वाध्याय करनेवालेको लोकमें त्रिगुण फल प्राप्त होते हैं। शतपथब्राह्मणमें यह स्पष्ट कहा गया है कि जो व्यक्ति प्रतिदिन स्वाध्याय (वेदाध्ययन तथा आर्ष ग्रन्थोंका अध्ययन) करता है उसे उस व्यक्तिसे तिगुना फल प्राप्त होता है जो दान देने या पुरोहितोंको धन-धान्यसे पूर्ण सारा संसार देनेसे प्राप्त होता है।
ब्रह्मचर्यपूर्वक आचरण करते हुए पिता-माता गुरु आदि श्रेष्ठजनोंकी सेवा शुश्रूषा, उनकी आज्ञाओंका पालन गुरुजनोंके श्रीचरणोंमें बैठकर निष्ठापूर्वक वेदाध्ययन तथा स्वाध्याय करना ब्रह्मयज्ञका अंग माना गया है।
स्वाध्याय-ग्रन्थोंमें यद्यपि चारों वेद-ब्राह्मण-कल्प-पुराण आदि लिये जाते हैं, परंतु यह भी कहा गया है कि मनोयोगपूर्वक जितना ही स्वाध्याय किया जा सके करना चाहिये।
ब्रह्मयज्ञ में वेदादि सच्छास्त्रों का स्वाध्याय होने से विद्या तथा ज्ञान प्राप्त होता है परमात्मा से आध्यात्मिक संबंध दृढ़ होता है और ऋषिऋण से छुटकारा मिल जाता है, कर्तव्याकर्त्तव्य सम्बन्धी निर्णय के साथ साथ इहलोक और परलोक के लिए कल्याणमय निष्कण्टक पथ का अनुसन्धान हो जाता है और सदाचार की वृद्धि होती है । ज्ञानवृद्धि के कारण तेज तथा ओज की भी वृद्धि होती है।
पितृयज्ञ
पितृयज्ञ में अर्यमादि नित्यपितर तथा परलोकगामी पितरों का तर्पण करना होता है जिससे उनके आत्मा की तृप्ति होती है। तर्पण में कहा जाता है कि-
आब्रह्मभुवनाल्लोका देवर्षिपितृमानवः । तृप्यन्तु पितरः सर्वे मातृमाता महादयः ।।
नरकेषु समस्तेषु यातनासु च ये स्थिताः । तेषामाप्यायनायैतद्दीयते सलिलं मया ॥
अर्थात् ब्रह्मलोक से लेकर देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य तथा पिता, माता और मातामहादि पितरों की समस्त नरकों में जितने भी यातनाभोगी जीव हैं उनके उद्धार के लिए मैं यह जल प्रदान करता हूं। इससे पितृ जगत् से सम्बन्ध होता है ।
देवयज्ञ
गृह्यसूत्र एवं धर्मसूत्रोंके अनुसार विभिन्न देवताओंके लिये यह यज्ञ किया जाता है। जिन देवताओंके निमित्त यह यज्ञ सम्पादित होता है उनके नाम अलग-अलग ग्रन्थों में अलग-अलग दिये गये हैं परंतु जो नाम मुख्य हैं वह इस प्रकार हैं-
सूर्य, अग्नि, प्रजापति, सोम, इन्द्र, वनस्पति, द्यौ, पृथिवी, धन्वन्तरि, विश्वेदेव, ब्रह्मा आदि । यहाँ यह स्मरणीय है कि मदनपारिजात और स्मृतिचन्द्रिकाके अनुसार वैश्वदेवके देवता दो प्रकारके कहे गये हैं। प्रथम वे जो सबके लिये एक जैसे हैं और जिनके नाम मनुस्मृतिमें पाये जाते हैं। जबकि दूसरे देवता वे हैं, जिनके नाम अपने-अपने गृह्यसूत्रमें पाये जाते हैं। देवता-विशेषका नाम लेकर 'स्वाहा' शब्दके उच्चारणके साथ अग्निमें जब हवि या न्यूनातिन्यून एक भी समिधा डाली जाती है तो वह देवयज्ञ होता है। मनु (२।१७६) और याज्ञवल्क्य (१।१००)के अनुसार देवयजन देव पूजान्के पश्चात् किया जाता है।
इसके माध्यमसे देवताओंको प्रसन्न किया जाता है और उनके प्रसन्न होनेसे आत्माभ्युदय तथा सभी मंगलमय अभीष्ट पदार्थोंकी सिद्धि होती है। यज्ञमुखसे गृहस्थ देवताओंका सान्निध्य अनुभव करते हैं जिससे उनके व्यक्तित्वका विकास होता है। वैदिक धारणाके अनुसार देवता सत्यपरायण, उदार, पराक्रमी और सहायशील होते हैं और उनके सान्निध्यानुभवसे मनुष्य भी अपनी आत्मा और शरीरमें इन गुणोंको प्रतिष्ठित करते हैं।
देवयज्ञ में हवन का विधान किया है । हवन से केवल वायु ही शुद्ध नहीं होता दैवी जगत् से मन्त्रों द्वारा सम्बन्ध भी होता है और वे देवगण उससे तृप्त होकर बिना मांगे ही जीवों को इष्ट फल प्रदान करते हैं। इस सम्बन्ध में गीता(३ । १०-१२) में बतलाया गया है।
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः । परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥
यज्ञ के द्वारा तुम लोग देवताओं की उन्नति करो और वे तुम्हारी उन्नति करेंगे इस प्रकार परस्पर उन्नति करते हुए परम कल्याण को प्राप्त होंगे। इसके अतिरिक्त मनुस्मृति (३१७६) में बतलाया गया है कि अग्नि में डाली हुई आहुति सूर्य को प्राप्त होती है सूर्य से वृष्टि होती है और वृष्टि से अन्न एवं अन्न से प्रजा होती है
अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते । आदित्याज्जायते वृष्टिवष्टेरन्नं ततः प्रजाः॥
और भी
अन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः । यज्ञाद् भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥(गीता ३।१४)
अर्थात् अन्न से प्राणी उत्पन्न होते हैं अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है वर्षा यज्ञ से होती है और यज्ञ कर्म से होता है। इस प्रकार देवयज्ञरूपी नित्य कर्म में सम्पूर्ण प्राणियों का व्यापक हित निहित है।
भूतयज्ञ
भूतयज्ञ में बलि-वैश्वदेव का विधान किया गया है जिससे कीट, पक्षी, पशु आदि की तृप्ति एवं सेवा होती है।
भूतयज्ञ एक ऐसा व्रत है, जिसमें सभी प्रकराके जीवों का पोषण हो जाता है।मनुष्य चाण्डाल गाय, बैल, कुत्ता, कीट-पतंग आदि जितने भी भूत (प्राणी) हैं, उन सभीको सावधानीपूर्वक अन्न, जल, पास आदि भोज्य देना इस यजका उद्देश्य है। भूतयज्ञका यह सोश्य उपनिषद्के 'सर्वे भवन्तु सुखिन: ' वाक्यमे ही सन्निहित है। सभी प्राणियोंके पोषक होने के कारण 'पुरुष' शब्दकी सार्थकता कही गयी है-'पूरयति सर्वमिति पुरुषः।'
नृयज्ञ
मनुष्ययज्ञ अतिथि-सेवा-रूप है। अतिथि सेवा करने का बड़ा ही महत्त्व कहा गया है। जिसके आने की कोई तिथि निश्चित न हो वह अतिथि कहा जाता है।यदि कोई अतिथि किसी के घर से असन्तुष्ट होकर जाता है तो उसका सब संचित पुण्य नष्ट हो जाता है
आशाप्रतीक्षे संगतं सूनृतां चेष्टापूर्ते पुत्रपशूश्च सर्वान् । एतद् वृडते पुरुषस्याल्पमेधसो यस्यानश्नन् वसति ब्राह्मणो गृहे ॥(कठो०१।१८)
जिसके घर में ब्राह्मण अतिथि बिना भोजन किये रहता है, उस पुरुष की आशा, प्रतीक्षा, संगत एवं प्रिय वाणी से प्राप्त होने वाले समस्त इष्टापूर्तफल तथा पुत्र, पशु आदि नष्ट हो जाते हैं। अथर्ववेद के अतिथिसूक्त में कहा गया है कि-
एते वै प्रियाश्चाप्रियाश्च स्वर्गलोकं गमयन्ति यदतिथयः।सर्वो वा एष जग्धपाप्मा यस्यान्नमश्नन्ति ॥(अथर्ववेद ५८)
अतिथिप्रिय होना चाहिए भोजन कराने पर वह यजमान को स्वर्ग पहुंचा देता है और उसका पाप नष्ट कर देता है।