Graha (ग्रह)
भारतीय ज्योतिष में सात प्रमुख ग्रहों के अतिरिक्त राहु व केतु को दो छाया ग्रहों के रूप में मान्यता प्राप्त है। आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा नैपच्यून, प्लूटो आदि को भी ग्रह की मान्यता दी गई है। किन्तु भारतीय ज्योतिष में राशियों के साथ इनका सामंजस्य नहीं स्थापित किया जा सका है एवं राशियों के साथ संयोग से ही ग्रह भू-वासियों को प्रभावित करते है और उसी के आधार पर ही भारतीय होरा शास्त्र भी शुभाशुभत्व का विवेचन प्रदान करता है। इस प्रकार इस लेख में ग्रहों के शुभाशुभ प्रभाव, प्राच्य और पाश्चात्य मतों का समीक्षण, एवं भारतीय ज्योतिष में प्रतिपादित नवग्रहों के वैशिष्ट्य का वर्णन किया जा रहा है।
परिचय
सूर्य या किसी अन्य तारे के चारों ओर परिक्रमा करने वाले खगोलपिंडों को ग्रह कहते हैं। अंतर्राष्ट्रीय खगोलीयसंघ के अनुसार हमारे सौर मण्डल में आठ ही ग्रह हैं। प्राचीन खगोलशास्त्रियों ने तारों और ग्रहों के बीच में अंतर इस प्रकार से किया कि रात में आकाश में चमकने वाले अधिकतर पिंड हमेशा पूरब दिशा से उठते हैं, एक निश्चित गति को प्राप्त करते हैं। इन पिंडों को तारा कहा जाता है। याज्ञवल्क्यस्मृति में नौ ग्रहों का स्पष्ट वर्णन है। जैसे -
सूर्यः सोमो महीपुत्रः सोमपुत्रो बृहस्पतिः। शुक्रः शनैश्चरो राहुः केतुश्चेति ग्रहाः स्मृताः॥ (या० स्मृ०)[1]
उक्त श्लोक से सात वारों और नौ ग्रहों आ अनुमान सहज ही हो जाता है।
महर्षि पाराशर जी ने ग्रहों को जन्म रहित परमात्मा का अवतार माना है –
अवताराण्यनेकानि हृदयस्य परमात्मनः । जीवानां कर्म फलदो ग्रह रूपी जनार्दनः॥
महर्षि लगध ने इसे काल विधान
परिभाषा
गृहयते इति ग्रहः।
गच्छतीति ग्रहः।
भारतीय ज्योतिष में सात प्रमुख ग्रहों के अतिरिक्त राहु व केतु को दो छाया ग्रहों के रूप में मान्यता प्राप्त है। आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा नैपच्यून, प्लूटो आदि को मान्यता दी गई है। किन्तु भारतीय ज्योतिष में राशियों के साथ इनका सामंजस्य नहीं स्थापित किया जा सका है। ग्रहों और राशियों के संयोग से ही भू-वासियों को प्रभावित करता है और उसी के आधार पर भारतीय होरा शास्त्र शुभाशुभत्व प्रदान करता है। जैसा कि हम जानते हैं कि 30० अंश की राशि का भोगकाल होता है। इसी क्रम से 360० अंशों को 12 राशियों में विभाजित किया गया है जिसके फलस्वरूप सूर्य और चंद्रमा को छोड़कर प्रत्येक ग्रह को दो राशियों का अधिपति ग्रह माना गया है।
ग्रहों का वैज्ञानिक विवेचन
भारतीय ज्योतिष में ग्रहों की संख्या 9 मानी जाती है। सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु। यद्यपि कुल ग्रहों की संख्या 9 ही नहीं हैं, अपितु इससे और भी अधिक ग्रहों की संख्या हो सकती हैं, जो हमें ज्ञात नहीं परंतु ज्योतिष शास्त्र में मूल रूप से ये नवग्रह को स्थान दिया गया है, अतः इससे संबंधित विषयों को हम यहां देखते हैं।
सूर्य और चंद्र तारा तथा उपग्रह हैं इसी प्रकार राहु और केतु छाया ग्रह हैं। छाया ग्रह अर्थात सूर्य तथा चंद्र के (पृथ्वी से देखने पर) पथों के मिलन के दो बिंदु हैं। मंगल, बुध, गुरु, शुक्र व शनि यह पांच ग्रह हैं , लेकिन ग्रंथों में कहीं – कहीं इन्हें पंच तारा ग्रह भी कहा गया है।
भारतीय फलित ज्योतिष में प्लूटो आदि को ग्रहों का स्थान नहीं दिया गया है। इसमें प्रमुख कारण है उनकी दूरी, प्रकाश की कमी या धीमा होना नहीं है, क्योंकि अन्य ग्रहों की तुलना में शनि बहुत दूर और धीमा ग्रह होते हुए भी अनुपात में अधिक प्रभावशाली है। राहु – केतु तो हैं ही नहीं फिर भी प्रभावित करते हैं।
ग्रह एवं उपग्रह
उपग्रह
उपग्रह ऐसी खगोलीय वस्तु को कहा जाता है जो किसी ग्रह, क्षुद्रग्रह या अन्य वस्तु के आस-पास परिक्रमा करता हो। जुलाई 2009 तक हमारे सौर मण्डल में 336 वस्तुओं को इस श्रेणी में पाया गया था, जिसमें से 168 ग्रहों की, 6 बौने ग्रहों की, 104 क्षुद्रग्रहों की और 58 वरुण (नैपच्यून) से आगे पाई जाने वाली बड़ी वस्तुओं की परिक्रमा कर रहे थे। हमारे सौर मण्डल से बाहर मिले ग्रहों के आस-पास अभी कोई उपग्रह नहीं मिला है लेकिन वैज्ञानिकों का विश्वास है की ऐसे उपग्रह भी बड़ी संख्या में जरूर मौजूद होंगे।
जो उपग्रह बड़े होते हैं वे अपने अधिक गुरुत्वाकर्षण की वजह से अंदर खिचकर गोल आकार के हो जाते हैं, जबकि छोटे चंद्रमा टेढ़े-मेढ़े भी होते हैं।
ग्रहों एवं उपग्रहों का महत्व
समस्त ज्योतिष का मूलाधार ग्रह ही है, जिसके आधार पर हम ज्योतिष में कहे गए फलादेश आदि कर्तव्य करते हैं। स्कन्धत्रय में सिद्धांत स्कन्ध का मूल आधार ग्रह ही हैं। ग्रहों का उपग्रह होता है।
ग्रहस्य समीपं उपग्रहम् ।
वस्तुतः उपग्रहों की चर्चा अर्वाचीन ज्योतिर्विदों ने की हैं। चंद्रमा का कोई उपग्रह नहीं होता। ग्रहों का प्रभाव मानव जीवन पर भी पड़ता है, जिसका उदाहरण हम सूर्य एवं चंद्रमा से प्रत्यक्ष रूप में प्राप्त कर सकते हैं। ग्रहों का महत्व न की केवल मानव जीवन के लिए अपितु समस्त चराचर प्राणियों के लिए है।
क्षुद्र एवं वामनग्रह
क्षुद्र ग्रह - पथरीले और धातुओं के ऐसे पिंड हैं जो सूर्य की परिक्रमा करते हैं लेकिन इतने लघु हैं कि इन्हैं ग्रह नहीं कहा जा सकता। इन्हैं लघु ग्रह या क्षुद्र ग्रह कहते हैं।
उल्का - जो क्षुद्र ग्रह पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी के वातावरण में उससे आकर टकरा जाते हैं, उसे उल्का कहते हैं।
खगोल विज्ञान के अंतर्गत आकाश से जुड़ा एक भाग क्षुद्र एवं वामन ग्रह भी हैं, जिसको हम यहां देखते हैं –
क्षुद्र ग्रह (Asteroids)
पथरीले और धातुओं के ऐसे पिंड हैं जो सूर्य की परिक्रमा करते हैं लेकिन इतने लघु हैं कि इन्हैं ग्रह नहीं कहा जा सकता। इन्हैं लघु ग्रह या क्षुद्र ग्रह या ग्रहिका कहते हैं। हमारी सौर प्रणाली में लगभग 100,000 क्षुद्रग्रह हैं लेकिन उनमें से अधिकतर इतने छोटे हैं कि उन्हैं पृथ्वी से नहीं देखा जा सकता। प्रत्येक क्षुद्रग्रह की अपनी कक्षा होती है, जिसमें ये सूर्य के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं,
यम (प्लूटो)
हमारे सौर मण्डल के इस नौवें ग्रह की खोज भी नेपच्यून की ही तरह सन् 1930 में हुई। यूरेनस की कक्षा में गति एवं स्थिति की गड़बड़ी ने ही पुनः वैज्ञानिकों को यह विचार करने को विवश किया कि नेपचून के परे भी कोई पिंड हो सकता है।
वरुण और यम ग्रह के अन्वेषण के ही अनुरूप यम की कक्षा से बाहर एक और ग्रह हो सकता है। कुछ भारतीयों एवं कुछ पाश्चात्य ज्योतिर्विदों की स्पष्ट अवधारणा है कि दसवां ग्रह अवश्य है, मात्र दूरी अधिक होने के कारण उसकी खोज करना कठिन है। आज भी वैज्ञानिक इस दसवें ग्रह एवं अन्य ग्रहों, उपग्रहों के अन्वेषण में निरंतर अध्ययन एवं अनुसंधान कार्य में संलग्न हैं।
ग्रह कक्षा – प्राच्य एवं पाश्चात्य
ग्रह कक्षा का स्पष्ट उल्लेख तो वैदिक साहित्य में नहीं है, किन्तु तैत्तिरीय ब्राह्मण के कई मन्त्रों से सिद्ध होता है कि पृथ्वी, अन्तरिक्ष, द्यौ, सूर्य और चन्द्रमा ये क्रमशः ऊपर-ऊपर हैं। तैत्तिरीय संहिता के निम्न मन्त्र से ग्रहकक्षा के ऊपर पर्याप्त प्रकाश पडता है -
यथाग्निः पृथिव्यां समनमदेवं मह्यं भद्रा, सन्नतयः सन्नमन्तु वायवे समनमदन्तरिक्षाय समनमद् यथा वायुरन्तरिक्षेण सूर्याय समनभद् दिवा समनमद् यथा सूर्यो दिवा चन्द्रमसे समनमन्नक्षत्रेभ्यः समनमद् यथा चन्द्रमा नक्षत्रैर्वरुणाय समनमत्। (तै०सं० 7. 5. 23)
अर्थात् - सूर्य आकाश की, चंद्रमा नक्षत्र-मण्डल की, वायु अंतरिक्ष की परिक्रमा करते हैं और अग्निदेव पृथ्वी पर निवास करते हैं। सारांश यह है कि सूर्य, चंद्र और नक्षत्र क्रमशः ऊपर-ऊपर की कक्षा वाले हैं।
वैदिक काल की वैदिक ज्योतिष गणना या मान्यता में दक्षिण व उत्तर ध्रुवों से बद्ध भचक्र वायु द्वारा भ्रमण करता हुआ स्वीकार किया गया है। सूर्य प्रदक्षिणा की गति उत्तरायण तथा दक्षिणायन दो भागों में विभक्त है। यह कहा जा सकता है कि ईसापूर्व 500-400 में भारतीय ज्योतिष में ग्रहों के भ्रमण के संबंध में मुख्यतः दो ही सिद्धान्त प्रचलन में थे -
- प्रथम सिद्धान्त के अनुसार पृथ्वी केन्द्र थी तथा वायु के कारण ग्रहों का भ्रमण होता था।
- दूसरे सिद्धान्त के अनुसार सुमेरू को केन्द्र मानकर स्वाभाविक रूप से ग्रहों का भ्रमण मानते थे।
ग्रहाणां कक्षा ग्रहकक्षा।
अर्थात ग्रह जिस पथ पर विचरण करते हैं, वह उनकी कक्षा होती है। ज्योतिष शास्त्र का मूल आधार ग्रह है। सभी ग्रह अपनी – अपनी कक्षा में स्व-स्व गति अनुसार भ्रमण करते हैं। प्राच्य मत में ज्योतिर्विदों ने एवं पाश्चात्य मत में वैज्ञानिकों ने ग्रहकक्षा को अलग – अलग प्रकार से कहा है। सूर्य सिद्धांत के अनुसार कक्षा क्रम -
ब्रह्माण्ड मध्ये परिधिर्व्योम कक्षाsभिधीयते। तन्मध्ये भ्रमणं भानामधोsधः क्रमशस्तथा॥ मंदामरेज्य भूपुत्र सूर्य शुक्रेन्दुजेन्दवः। परिभ्रमन्त्यधोsधः स्थाः सिद्धा विद्याधरा घनाः॥
अर्थात ब्रह्माण्ड की भीतरी (परिधि) खकक्षा या आकाश कक्षा काही गई है। उसके मध्य में अधोधः (एक दूसरे के नीचे) क्रम से नक्षत्रादि भ्रमण करते हैं। नक्षत्रों के नीचे क्रमशः शनि, गुरु, भौम, सूर्य, शुक्र, बुध और चंद्रमा की कक्षाएं हैं जिनमें वे भ्रमण करते हैं। और ग्रहों के नीचे क्रमशः सिद्ध, विद्याधर और घन (मेघ) है। सुगमता के लिए ग्रह कक्षाक्रम –
शनि की कक्षा
बृहस्पति की कक्षा
मंगल की कक्षा
सूर्य की कक्षा
शुक्र की कक्षा
बुध की कक्षा
चंद्र की कक्षा
सिद्ध
विद्याधर
मेघ
पृथ्वी
प्राच्य एवं पाश्चात्य मत के अनुसार ग्रह कक्षा
ग्रह कक्षा का विचार दो प्रकार से किया जाता है –
1. भू केंद्रिक 2. सूर्य केंद्रिक
भू-केंद्रीक कक्षा का व्यवहार भारतीय ज्योतिष शास्त्र के प्राचीन ग्रंथों में किया गया है। यद्यपि इसे भू – केंद्रिक कहा जाता है किन्तु ग्रहों की कक्षाओं के मध्य केंद्र में पृथ्वी नहीं है। इसी प्रकार सूर्य केंद्रिक कक्षा में ग्रहों की कक्षाओं के केंद्र में सूर्य नहीं है।
सूर्य केंद्रीक कक्षा इस प्रकार है –
प्लूटो
नेपच्यून
यूरेनस
शनि
बृहस्पति
मंगल
चंद्र
पृथ्वी
शुक्र
बुध
सूर्य
इस प्रकार प्राच्य ग्रहों में तथा प्राचीन ग्रहों में भी कुछ अंतर है उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार से है –
प्राच्य मत में पाश्चात्य मत में
शनि की कक्षा
बृहस्पति की कक्षा
मंगल की कक्षा
सूर्य की कक्षा
शुक्र की कक्षा
बुध की कक्षा
चंद्र की कक्षा
सिद्ध
विद्याधर
मेघ
पृथ्वी
वराहमिहिर जी के अनुसार ग्रह कक्षा –
चंद्रादूर्ध्वं बुधसितरविकुज जीवार्कजास्ततो भानि। प्राग्गतयस्तुल्यजवा ग्रहास्तु सर्वे स्वमण्डलगाः॥
तैलिकचक्रस्य यथा विवरमराणां घनं भवति नाभ्याम्। नेभ्यां स्यान्महदेवं स्थितानि राश्यन्तराण्यूर्ध्वम्॥
पर्येति शशी शीघ्रं स्वल्पं नक्षत्रमण्डलमधः स्थः। ऊर्ध्वस्थस्तुल्य जवो विचरति तथा न महदर्कसुतः॥
अर्थ – चंद्रमा से ऊपर – ऊपर बुध, शुक्र, रवि, मंगल, गुरू तथा सूर्यपुत्र शनि की कक्षायें है तथा उसके आगे तारागण है। सभी ग्रह अपनी – अपनी कक्षा मण्डल में पूर्व की ओर समान गति से भ्रमण करते हैं। नक्षत्र मण्डल के नीचे चंद्रमा छोटी कक्षा में स्थित होने के कारण सबसे शीघ्रता से भ्रमण करता है तथा शनि सबके ऊपर स्थित होने के कारण उसकी सबसे बड़ी कक्षा में होने से वह सबसे धीमी गति से चलता है।
सारांश
ज्योतिष शास्त्र में ग्रह मूलाधार हैं, जिसके माध्यम से सम्पूर्ण ज्योतिष शास्त्र अपने सिद्धांतों को कहता है। सभी ग्रह अपने – अपने कक्षाओं में भ्रमण करते है। उनके भ्रमण पथ का नाम ही ग्रह कक्षा है। अपनी – अपनी गति के अनुसार ग्रह अपने – अपने कक्षा पथ में भ्रमण करते हैं। सर्वाधिक तीव्र गति वाला ग्रह चंद्रमा, एवं सबसे न्यून गति वाला ग्रह शनि होता है। इसलिए शनि की कक्षा सबसे बड़ी है और चंद्रमा की सबसे छोटी है।
भूकेंद्रिक एवं सूर्यकेंद्रिक गणना के आधार पर प्राच्य एवं पाश्चात्य मत में ग्रहों के कक्षाओं का वर्णन किया गया है।
उद्धरण
- ↑ वासुदेव शर्म, याज्ञवल्क्य स्मृति, मिताक्षरा व्याख्या टिप्पणी आदि सहित, सन् 1909, निर्णय सागर प्रेस मुम्बई, अध्याय-12, श्लोक- 296 (पृ० 94)