Ekadashi (एकादशी)

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एकादशी सभी व्रतों में सबसे महत्त्वपूर्ण व्रत है। एकादशी यह संस्कृत भाषा का पद है जिसका अर्थ है ग्यारह। सनातनीय चांद्रादि मानों के अनुसार प्रत्येक पक्ष के ग्यारहवें दिन में एकादशी तिथि प्राप्त होती है। हर महीने दो एकादशी तिथियां मनाई जाती हैं प्रत्येक शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष में। जिस प्रकार शिव और विष्णु दोनों आरध्य हैं उसी प्रकार कृष्ण और शुक्ल दोनों पक्षों की एकादशी उपोष्य है।

एकादशी का परिचय

'व्रत' शब्द संकल्प का पर्याय है। मन को निश्चित दिशा देने के लिये दृढता लाने का जो विधि विधान है वही संकल्प व्रत है। व्रतों का विधान बहुधा आध्यात्मिक अथवा मानसिक शक्ति की प्राप्ति के लिये, ईश्वर की भक्ति और श्रद्धा के विकास के लिये, वातावरण की पवित्रता के लिये, अपने विचारों को उच्च एवं परिष्कृत करने के लिये तथा प्रकारान्तर से स्वास्थ्य की प्रगति के लिये किया जाता है। सनातनीय संस्कृति में व्रतों की लम्बी शृंघला है। सभी व्रतों का विधान अलग होते हुए भी ध्येय सबका समान ही है। मनपर नियन्त्रण और शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक स्वास्थ्य की प्राप्ति व्रत का प्रतिफल है।

षड्विंशती (छब्बीस) एकादशियों के नाम-

सूत जी शौनकादि ऋषियोंसे कहते हैं कि हे ऋषियों ! मैं एकादशी माहात्म्यको कहता हूँ। तुम इसे ध्यानपूर्वक सुनो। सम्पूर्ण द्वादश मासों में चौबीस एकादशियाँ होती हैं और दो अधिक मासमें होती हैं। इस प्रकार ये सब मिलकर २६ एकादशियाँ होती हैं। इनके नाम मैं बतलाता हूँ। तुम सावधान होकर सुनो-

सूत उवाच। अथ द्वादशमासेषु एकादश्यो भवन्ति याः। अधिके मासि चाप्यन्ये ये च द्वे भवतः शुभे ॥ १ ॥

एवं षड्विंशसंख्याका एकादश्यो भवन्ति हि। तासां नामान्यहं वच्मि शृणुध्वं सुसमाहिताः ॥ २ ॥

उत्पन्ना मोक्षदा चापि सफला पुत्रदा तथा। षट्तिलाख्या जयाख्या च विजयाऽऽमलकीति च ॥ ३ ॥

पापमोचनिकाख्या च कामदा च वरूथिनी। मोहिनी चापराख्या च निर्जला योगिनी तथा ॥४॥

विष्णोदेवस्य शयनी पवित्रा पुत्रदा त्वजा। परिवर्तिनीन्दिराख्या तथा पाशांकुशा रमा ॥ ५ ॥

देवोत्थानीति च प्रोक्ताश्चतुर्विंशतिनामभिः । द्वे चाप्यधिकमासस्य पद्मिनी परमेति च ॥ ६॥

अन्वर्थानि च नामानि सर्वासां विद्धि निश्चितम् । तद्धि सर्वं कथाभिस्तु स्फुटतां यास्यति ध्रुवम् ॥ ७॥

व्रतमुद्यापनं चासां यदि कर्तुं न शक्नुयात् । तदा संकीर्त्तनान्नाम्नां सद्यस्तत्फलमाप्नुयात् ॥ ८ ॥ (एकादशीमाहात्म्यम् पृ०२/३)

उत्पन्ना, मोक्षदा, सफला, पुत्रदा, पतिला, जया, विजया, आमलकी, पापमोचनी, कामदा, वरूथिनी, मोहिनी, अपरा, निर्जला, योगिनी, देवशयनी, पुत्रदा, पवित्रा, अजा, परिवर्तिनी, इन्दिरा, पाशांकुशा, रमा, और देवोत्थानी ये २४ नामोंसे कही गई हैं। और पद्मिनी तथा परमा ये दो अधिक मासमे होती हैं। इनके जैसे नाम हैं वैसे ही गुण भी हैं ये अपने अपने नामके अनुसार निश्चय ही फलको देने वाली हैं । यह वात इन सबकी कथा सुननेसे अवश्य ही स्पष्ट हो जायगी। यदि मनुष्य इन एकादशियोंके व्रत तथा उद्यापन करनेको समर्थ न हो तो इनके नामोंके कीर्त्तन मात्रसे ही शीघ्र उनके फलोंको प्राप्त कर लेता है ॥ ८ ॥ [1]

अधोलिखित विवरण पूर्णिमान्त पक्ष के अनुसार प्रस्तुत किया जा रहा है-
संख्या वैदिक मास पालक देवता कृष्णपक्ष एकादशी शुक्लपक्ष एकादशी
1 चैत्र(मार्च-अप्रैल) विष्णु पापमोचिनी कामदा
2 वैशाख (अप्रैल-मई ) मधुसूदन वरुथिनी मोहिनी
3 ज्येष्ठ (मई-जून) त्रिविक्रम अपरा(अचला) निर्जला
4 आषाढ़ (जून-जुलाई) वामन योगिनी देवशयनी
5 श्रावण (जुलाई-अगस्त) श्रीधर कामिका (कामदा) पुत्रदा
6 भाद्रपद (अगस्त-सितंबर) हृशीकेश जया (अजा) पद्मा(परिवर्तिनी)
7 आश्विन (सितंबर-अक्टूबर) पद्मनाभ इंदिरा पापांकुशा
8 कार्तिक (अक्टूबर-नवंबर) दामोदर रमा (रम्भा) प्रबोधनी
9 मार्गशीर्ष (नवंबर-दिसम्बर) केशव उत्पन्ना मोक्षदा
10 पौष (दिसम्बर-जनवरी) नारायण सफला पुत्रदा
11 माघ (जनवरी-फरवरी) माधव षटतिला जया
12 फाल्गुन (फरवरी-मार्च) गोविन्द विजया आमलकी
13 अधिक (3 वर्ष में एक बार) पुरुषोत्तमा परमा(कमला) पद्मिनी(सुमद्रा)

चैत्र मासान्तर्गत एकादशी

पापमोचिनी एकादशी

राज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से चैत्र कृष्ण (गुजरात, महाराष्ट्र के अनुसार फाल्गुन कृष्ण ) एकादशी के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की।

भगवान कृष्ण ने कहा : राजेन्द्र ! पुराणों के अनुसार चैत्र कृष्ण पक्ष की एकादशी पाप मोचिनी है। मैं तुम्हें इस विषय में एक पापनाशक उपाख्यान सुनाऊँगा, जिसे चक्रवर्ती नरेश मान्धाता के पूछने पर महर्षि लोमश ने कहा था ।

कथा के अनुसार राजा मान्धाता ने एक समय में लोमश ऋषि से जब पूछा कि प्रभु यह बताएं कि मनुष्य जो जाने अनजाने पाप कर्म करता है उससे कैसे मुक्त हो सकता है ।

लोमश ऋषि ने राजा को एक कहानी सुनाई कि चैत्ररथ नामक सुन्दर वन में च्यवन ऋषि के पुत्र मेधावी ऋषि तपस्या में लीन थे । इस वन में एक दिन मंजुघोषा नामक अप्सरा की नज़र ऋषि पर पड़ी तो वह उनपर मोहित हो गयी और उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने हेतु यत्न करने लगी । कामदेव भी उस समय उधर से गुजर रहे थे कि उनकी नजर अप्सरा पर गयी और वह उसकी मनोभावना को समझते हुए उसकी सहायता करने लगे । अप्सरा अपने यत्न में सफल हुई और ऋषि कामपीड़ित हो गये ।

काम के वश में होकर ऋषि शिव की तपस्या का व्रत भूल गये और अप्सरा के साथ रमण करने लगे । कई वर्षों के बाद जब उनकी चेतना जगी तो उन्हें एहसास हुआ कि वह शिव की तपस्या से विरत हो चुके हैं उन्हें तब उस अप्सरा पर बहुत क्रोध हुआ और तपस्या भंग करने का दोषी जानकर ऋषि ने अप्सरा को श्राप दे दिया कि तुम पिशाचिनी बन जाओ । श्राप से दु:खी होकर वह ऋषि के पैरों पर गिर पड़ी और श्राप से मुक्ति के लिए अनुनय करने लगी ।

मेधावी ऋषि ने तब उस अप्सरा को विधि सहित चैत्र कृष्ण एकादशी का व्रत करने के लिए कहा । भोग में निमग्न रहने के कारण ऋषि का तेज भी लोप हो गया था अत: ऋषि ने भी इस एकादशी का व्रत किया जिससे उनका पाप नष्ट हो गया। उधर अप्सरा भी इस व्रत के प्रभाव से पिशाच योनि से मुक्त हो गयी और उसे सुन्दर रूप प्राप्त हुआ व स्वर्ग के लिए प्रस्थान कर गयी।

इस व्रत के विषय में भविष्योत्तर पुराण में विस्तार से वर्णन किया गया है। इस व्रत में भगवान विष्णु के चतुर्भुज रूप की पूजा की जाती है । व्रती दशमी तिथि को एक बार सात्विक भोजन करे और मन से भोग विलास की भावना को निकालकर हरि में मन को लगाएं । एकादशी के दिन सूर्योदय काल में स्नान करके व्रत का संकल्प करें । संकल्प के उपरान्त षोड्षोपचार सहित श्री विष्णु की पूजा करें। पूजा के पश्चात भगवान के समक्ष बैठकर भग्वद् कथा का पाठ अथवा श्रवण करें । एकादशी तिथि को जागरण करने से कई गुणा पुण्य मिलता है अत: रात्रि में भी निराहार रहकर भजन कीर्तन करते हुए जागरण करें । द्वादशी के दिन प्रात: स्नान करके विष्णु भगवान की पूजा करें फिर ब्रह्मणों भोजन करवाकर दक्षिणा सहित विदा करें पश्चात स्वयं भोजन करें ।[2]

कामदा एकादशी

युधिष्ठिर ने पूछा: वासुदेव ! चैत्र शुक्लपक्ष में कौन सी एकादशी होती है ? उसकी क्या विधि है तथा उसमें किस देवता का पूजन किया जाता है? स्वामिन् ! यह सब यथार्थ रुप से बताइये ।

भगवान कृष्ण ने कहा : राजन ! चैत्र शुक्ल पक्ष में ‘कामदा’ नाम की एकादशी होती है। कहा गया है कि ‘कामदा एकादशी' ब्रह्महत्या आदि पापों तथा पिशाचत्व आदि दोषों का नाश करनेवाली है। एकाग्रचित्त होकर यह पुरातन कथा सुनो, जिसे वशिष्ठजी ने राजा दिलीप के पूछने पर कहा था ।

प्राचीन काल में भोगीपुर नामक एक नगर था। वहाँ पर अनेक ऐश्वर्यों से युक्त पुण्डरीक नाम का एक राजा राज्य करता था। भोगीपुर नगर में अनेक अप्सरा, किन्नर तथा गन्धर्व वास करते थे। उनमें से एक जगह ललिता और ललित नाम के दो स्त्री-पुरुष अत्यंत वैभवशाली घर में निवास करते थे । उन दोनों में अत्यंत स्नेह था, यहाँ तक कि अलग-अलग हो जाने पर दोनों व्याकुल हो जाते थे ।

एक दिन गन्धर्व ललित दरबार में गान कर रहा था कि अचानक उसे अपनी पत्नी की याद आगई। इससे उसका स्वर, लय एवं ताल बिगडने लगे । इस त्रुटि को कर्कट नामक नाग ने जान लिया और यह बात राजा को बता दी । राजा को ललित पर क्रोध आया। राजा ने ललित राक्षस होने का श्राप दे दिया।

जब उसकी प्रियतमा ललिता को यह वृत्तान्त मालूम हुआ तो उसे अत्यंत खेद हुआ। ललित वर्षों तक राक्षस योनि में घूमता रहा। उसकी पत्नी भी उसी का अनुकरण करती रही । अपने पति को इस हालत में देखकर वह बडी दुःखी होती थी ।

वह श्रृंगी ऋषि के आश्रम में जाकर विनीत भाव से प्रार्थना करने लगी । उसे देखकर श्रृंगी ऋषि बोले कि हे सुभगे! तुम कौन हो और यहाँ किस लिए आई हो? ललिता बोली कि हे मुने! मेरा नाम ललिता है । मेरा पति राजा पुण्डरीक के श्राप से विशालकाय राक्षस हो गया है। इसका मुझको महान दु:ख है । उसके उद्धार का कोई उपाय बतलाइए ।

श्रृंगी ऋषि बोले हे गंधर्व कन्या ! अब चैत्र शुक्ल एकादशी आने वाली है, जिसका नाम कामदा एकादशी है । इसका व्रत करने से मनुष्य के सब कार्य सिद्ध होते हैं। यदि तू कामदा एकादशी का व्रत कर उसके पुण्य का फल अपने पति को दे तो वह शीघ्र ही राक्षस योनि से मुक्त हो जाएगा और राजा का श्राप भी अवश्यमेव शांत हो जाएगा।

ललिता ने मुनि की आज्ञा का पालन किया और एकादशी का फल देते ही उसका पति राक्षस योनि से मुक्त होकर अपने पुराने स्वरूप को प्राप्त हुआ। फिर अनेक सुंदर वस्त्राभूषणों से युक्त होकर ललिता के साथ विहार करते हुए वे दोनों विमान में बैठकर स्वर्गलोक को प्राप्त हुए।

ऐसी मान्यता है कि इस व्रत को विधि पूर्वक करने से समस्त पाप नाश हो जाते हैं तथा राक्षस आदि की योनि भी छूट जाती है। संसार में इसके बराबर कोई और दूसरा व्रत नहीं है। इसकी कथा पढ़ने या सुनने से वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त होता है।[3]

वैशाख मासान्तर्गत एकादशी

वरुथिनी एकादशी

वरूथिनी एकादशी

के युधिष्ठिर ने पूछा : हे वासुदेव ! वैशाख मास की कृष्ण एकादशी (गुजरात, महाराष्ट्र चैत्र कृष्ण एकादशी) का क्या नाम है, कृपया उसकी महिमा बताइये । अनुसार

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा : राजन् ! वैशाख कृष्णपक्ष की एकादशी वरुथिनी के नाम से प्रसिद्ध है। यह इस लोक और परलोक में भी सौभाग्य प्रदान करने वाली है। वरूथिनी के व्रत से सदा सौख्य का लाभ तथा पाप की हानि होती है । यह सबको भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली है । वरूथिनी के व्रत से मनुष्य दस हजार वर्षो तक की तपस्या का फल प्राप्त कर लेता है ।

नृपश्रेष्ठ ! घोड़े के दान से हाथी का दान श्रेष्ठ है। भूमिदान उससे भी बड़ा है। भूमिदान से भी अधिक महत्त्व तिलदान का है। तिलदान से बढ़कर स्वर्णदान और स्वर्णदान से बढ़कर अन्नदान है, क्योंकि देवता, पितर तथा मनुष्यों को अन्न से ही तृप्ति होती है । विद्वान पुरुषों ने कन्यादान को भी इस दान के ही समान बताया है । कन्यादान के तुल्य ही गाय का दान है, यह साक्षात् भगवान का कथन है । इन सब दानों से भी बड़ा विद्यादान है। मनुष्य ‘वरुथिनी एकादशी' का व्रत करके विद्यादान का भी फल प्राप्त कर लेता है । जो लोग पाप से मोहित होकर कन्या के धन से जीविका चलाते हैं, वे पुण्य का क्षय होने पर यातनामक नरक में जाते हैं । अत: सर्वथा प्रयत्न करके कन्या के धन से बचना चाहिए उसे अपने काम में नहीं लाना चाहिए । जो अपनी शक्ति के अनुसार अपनी कन्या को आभूषणों से विभूषित करके पवित्र भाव से कन्या का दान करता है, उसके पुण्य की संख्या बताने में चित्रगुप्त भी असमर्थ हैं। ‘वरुथिनी एकादशी’ करके भी मनुष्य उसी के समान फल प्राप्त करता है ।

इस व्रत को करने वाला वैष्णव दशमी के दिन काँसे के पात्र, उडद, मसूर, चना, कोदो, शाक, शहद, दूसरे का अन्न, दो बार भोजन तथा रति- इन दस बातों को त्याग दे । एकादशी को जुआ खेलना, सोना, पान खाना, दातून करना, परनिन्दा, चुगली, चोरी, हिंसा, रति, क्रोध तथा असत्य भाषण- इन ग्यारह बातों का परित्याग करे । द्वादशी को काँसे का पात्र, उडद, मदिरा, मधु, तेल, दुष्टों से वार्तालाप, व्यायाम, परदेश-गमन, दो बार भोजन, रति, सवारी और मसूर को त्याग दे ।

इस प्रकार संयम पूर्वक वरूथिनी एकादशी का व्रत किया जाता है । इस एकादशी की रात्रि में जागरण करके भगवान मधुसूदन का पूजन करने से व्यक्ति सब पापों से मुक्त होकर परमगति को प्राप्त होता है। मानव को इस पतितपावनी एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए । इस व्रत के माहात्म्य को पढने अथवा सुनने से भी पुण्य प्राप्त होता है। वरूथिनी एकादशी के अनुष्ठान से मनुष्य सब पापों से मुक्ति पाकर वैकुण्ठ में प्रतिष्ठित होता है । जो लोग एकादशी का व्रत करने में असमर्थ हों, वे इस तिथि में अन्न का सेवन कदापि न करें । वरूथिनी एकादशी महाप्रभु वल्लभाचार्य की जयंती-तिथि है। पुष्टिमार्गीय वैष्णवों के लिये यह दिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।[4]

मोहिनी एकादशी

युधिष्ठिर ने पूछा : जनार्दन ! वैशाख मास के शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है? उसका क्या फल होता है? इस व्रत की क्या विधि है ? यह सब विस्तारपूर्वक बताइए।

श्रीकृष्ण ने कहा "हे धर्मराज! मैं एक कथा कहता हूँ, जिसे गुरू वसिष्ठ ने रामजी से कही थी । एक समय श्रीराम बोले कि, "हे गुरुदेव! कोई ऐसा व्रत बताइए, जिससे समस्त पाप और दु:ख का नाश हो जाए । मैंने सीताजी के वियोग में बहुत दु:ख भोगे हैं ।

महर्षि वशिष्ठ बोले- "हे राम! आपने बहुत सुंदर प्रश्न किया है । वैशाख मास के शुक्लपक्ष की एकादशी को मोहिनी एकादशी कहा जाता हैं। इसका व्रत करने से मनुष्य सब पापों तथा दु:खों से छूटकर मोह-जाल से भी मुक्त हो जाता है।

इस तिथि और व्रत के विषय में एक कथा कही जाती है। सरस्वती नदी के रमणीय तट भद्रावती नाम की सुंदर नगरी है। वहां धृतिमान नामक राजा, जो चन्द्रवंश में उत्पन और सत्यप्रतिज्ञ थे, राज्य करते थे। उसी नगर में एक वैश्य रहता था जो धन-धान्य से परिपूर्ण समृद्धिशाली था, उसका नाम था धनपाल वह सदा पुण्यकर्म में ही लगा रहता था दूसरों के लिए पौसला (प्याऊ), कुआँ, मठ, बगीचा, पोखरा और घर बनवाया करता था । भगवान विष्णु की भक्ति में उसका हार्दिक अनुराग था । उसके पाँच पुत्र थे । सुमना, द्युतिमान, मेधावी, सुकृत तथा धृष्ट्बुद्धि | धृष्ट्बुद्धि सदा बड़े-बड़े पापों में संलग्न रहता था । जुये आदि दुर्व्यसनों में उसकी बड़ी आसक्ति थी । वह वेश्याओं से मिलने के लिये लालायित रहता और अन्याय के मार्ग पर चलकर पिता का धन बरबाद किया करता ।

एक दिन उसके पिता ने तंग आकर उसे घर से निकाल दिया और वह दर-दर भटकने लगा। इसी प्रकार भटकते हुए भूख-प्यास से व्याकुल वह महर्षि कौंन्डिन्य के आश्रम जा पहुँचा । शोक के भार से पीड़ित वह मुनिवर कौंन्डिन्य से हाथ जोड़ कर बोला ब्रह्मन ! द्विजश्रेष्ट ! मुझ पर दया करके कोई ऐसा व्रत बताइये, जिसके पुण्य के प्रभाव से मेरी मुक्ति हो ।

कौण्डिन्य बोले - वैशाख शुक्ल पक्ष कि 'मोहिनी' एकादशी का व्रत करो । 'मोहिनी' को उपवास करने पर प्राणियों के अनेक जन्मों के किए हुए मेरु पर्वत जैसे महापाप भी नष्ट हो जाते हैं।

वशिष्ठजी कहते है : श्रीरामचन्द्रजी ! मुनि का यह वचन सुनकर धृष्ट्बुद्धि का चित्त प्रसन्न हो गया। उसने कौण्डिन्य के उपदेश से विधिपूर्वक 'मोहिनी एकादशी का व्रत किया। इस व्रत के करने से वह निष्पाप हो गया और दिव्य देह धारण कर गरुड़ पर आरूढ़ हो सब प्रकार के उपद्रवों से रहित श्रीविष्णु धाम को चला गया । इस प्रकार यह 'मोहिनी' का व्रत बहुत उत्तम है। इसके पढने और सुनने से सहस्र गौदान का फल मिलता है।[5]

ज्येष्ठ मासान्तर्गत एकादशी

अपरा(अचला)एकादशी

• अपरा (अचला) एकादशी

युधिष्ठिर ने पूछा : हे वासुदेव ! ज्येष्ठ मास, कृष्णपक्ष की एकादशी (गुजरात, महाराष्ट्र के अनुसार वैशाख कृष्ण एकादशी) का क्या नाम है ? उसका माहात्म्य क्या है ? यह सब बताने की कृपा कीजिये । भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! ज्येष्ठ मास के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम 'अपरा’ है। यह बहुत पुण्य प्रदान करनेवाली और बड़े-बड़े पातकों का नाश करने वाली है। ब्रह्मा हत्या से दबा हुआ, गोत्र की हत्या करने वाला, गर्भस्थ शिशु को मारने वाला, परनिन्दक, परस्त्रीगामी भी अपरा एकादशी का व्रत रखने से पापमुक्त होकर श्री विष्णु लोक में प्रतिष्ठित हो जाता है।

जो झूठी गवाही देता है, माप तौल में धोखा देता है, बिना जाने ही नक्षत्रों की गणना करता है और कूटनीति से आयुर्वेद का ज्ञाता बनकर वैध का काम करता है। ये सब नरक में निवास करनेवाले प्राणी हैं। परन्तु ‘अपरा एकादशी' के सवेन से ये भी पापरहित हो जाते हैं।

यदि कोई क्षत्रिय अपने क्षात्रधर्म का परित्याग करके युद्ध से भागता है तो वह क्षत्रियोचित धर्म से भ्रष्ट होने के कारण घोर नरक में पड़ता है। जो शिष्य विद्या प्राप्त करके स्वयं ही गुरुनिन्दा करता है, वह भी महापातकों से युक्त होकर भयंकर नरक में गिरता है । किन्तु 'अपरा एकादशी' के सेवन से ऐसे मनुष्य भी सद्गति को प्राप्त होते हैं ।

माघ में सूर्य के मकर राशि में होने पर प्रयाग में स्नान, शिवरात्रि में काशी में रहकर व्रत, गया में पिंडदान, वृष राशि में गोदावरी में स्नान, बद्रिकाश्रम में भगवान केदार के दर्शन या सूर्यग्रहण में कुरुक्षेत्र में स्नान और दान के बराबर जो फल मिलता है, वह अपरा एकादशी के मात्र एक व्रत से मिल जाता है । अपरा एकादशी को उपवास करके भगवान वामन की पूजा से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है । इसकी कथा से सुनने और पढ़ने से सहस्र गोदान का फल मिलता है।

प्राचीन काल में महीध्वज नामक एक धर्मात्मा राजा था। राजा का छोटा भाई वज्रध्वज बड़ा ही क्रूर, अधर्मी तथा अन्यायी था । वह अपने बड़े भाई से द्वेष रखता था । एक दिन अवसर पाकर अपने बड़े भाई की हत्या करके उसकी देह को जंगल में एक पीपल के नीचे गाड़ दिया। अकाल मृत्यु होने के कारण राजा की आत्मा प्रेत बनकर पीपल पर रहने लगी। मार्ग से गुजरने वाले हर व्यक्ति को आत्मा परेशान करती। एक दिन एक धौम्य नामक ऋषि उधर से गुजर रहे थे । इन्होंने प्रेत को देखा और अपने तपोबल से उसके प्रेत बनने का कारण जाना ।

ऋषि ने पीपल के पेड़ से राजा की प्रेतात्मा को नीचे उतारा और परलोक विद्या का उपदेश दिया । राजा को प्रेत योनी से मुक्ति दिलाने के लिए ऋषि ने स्वयं अपरा (अचला) एकादशी का व्रत रखा और द्वादशी के दिन व्रत पूरा होने पर व्रत का पुण्य प्रेत को दे दिया। इस पुण्य के प्रभाव से राजा की प्रेत योनि से मुक्ति हो गई । वह ऋषि को धन्यवाद देता हुआ दिव्य देह धारण कर पुष्पक विमान में बैठकर स्वर्ग को चला गया ।[6]

निर्जला एकादशी

निर्जला एकादशी

युधिष्ठिर ने पूछा : जनार्दन ! ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है? उसका क्या फल होता है? इस व्रत की क्या विधि है ? यह सब विस्तारपूर्वक बताइए।

भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! इसका वर्णन परम धर्मात्मा सत्यवतीनन्दन व्यासजी करेंगे, क्योंकि ये सम्पूर्ण शास्त्रों के तत्त्वज्ञ और वेद वेदांगों के पारंगत विद्वान हैं।

वेदव्यास जी ने कहा : ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को निर्जला एकादशी कहते है। इस व्रत में भोजन एवं पानी का पीना वर्जित है। इसिलिये इसे निर्जला एकादशी कहते है। राजन् ! जननाशौच और मरणाशौच में भी एकादशी को भोजन नहीं करना चाहिए ।

यह सुनकर भीमसेन बोले पितामह युधिष्ठर, अर्जुन, नकुल, सहदेव, माता कुन्ती और द्रौपदी सभी एकादशी का व्रत करते है और मुझसे भी व्रत रखने को कहते है परन्तु मैं बिना खाए रह नही सकता है इसलिए चौबीस एकादशियो पर निरहार रहने का कष्ट साधना से बचाकर मुझे कोई ऐसा व्रत बताईये जिसे करने में मुझे विशेष असुविधा न हो और सबका फल भी मुझे मिल जाये ।

महर्षि व्यास जानते थे कि भीम के उदर में बृक नामक अग्नि है इसलिए अधिक मात्रा में भोजन करने पर भी उसकी भूख शान्त नही होती है महर्षि ने भीम से कहा तुम ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी का व्रत रखा करो । केवल कुल्ला या आचमन करने के लिए मुख में जल डाल सकते हो, उसको छोड़कर किसी प्रकार का जल विद्वान पुरुष मुख में न डाले, अन्यथा व्रत भंग हो जाता है । एकादशी को सूर्योदय से लेकर दूसरे दिन के सूर्योदय तक मनुष्य जल का त्याग करे तो यह व्रत पूर्ण होता है । तदनन्तर द्वादशी को प्रभातकाल में स्नान करके ब्राह्मणों को विधिपूर्वक जल और सुवर्ण का दान करे। इस प्रकार सब कार्य पूरा करके जितेन्द्रिय पुरुष ब्राह्मणों के साथ भोजन करे। वर्षभर में जितनी एकादशीयाँ होती हैं, उन सबका फल निर्जला एकादशी के सेवन से मनुष्य प्राप्त कर लेता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

व्यास जी ने कहा तुम जीवन पर्यन्त इस व्रत का पालन करो वृकोदर भीम ने बडे साहस के साथ निर्जला एकादशी व्रत किया, जिसके परिणाम स्वरूप प्रातः होते होते वह सज्ञाहीन हो गया तब पांडवो ने गंगाजल, तुलसी चरणामृत प्रसाद, देकर उनकी मुर्छा दूर की। इसलिए इसे पांडव या भीमसेन एकादशी भी कहते हैं।

निर्जला एकादशी के दिन अन्न, वस्त्र, गौ, जल, शैय्या, सुन्दर आसन, कमण्डलु तथा छाता दान करने चाहिए । इस दिन जो स्वयं निर्जल रहकर ब्राह्मण या जरूरतमंद व्यक्ति को शुद्ध पानी से भरा घड़ा इस मंत्र के साथ दान करता है। उसे परम गति की प्राप्ति होती है।[7]

■ मन्त्र

देवदेव ह्रषीकेश संसारार्णवतारक ।

उदकुम्भप्रदानेन नय मां परमां गतिम् ॥

आषाढ मासान्तर्गत एकादशी

योगिनी एकादशी

योगिनी एकादशी

युधिष्ठिर ने पूछा : हे वासुदेव ! आषाढ कृष्ण एकादशी (गुजरात, महाराष्ट्र के अनुसार ज्येष्ठ कृष्ण एकादशी) का क्या नाम है ? उसका माहात्म्य क्या है ? यह सब बताने की कृपा कीजिये।

भगवान श्रीकृष्ण बोले : नृपश्रेष्ठ! पद्मपुराण के उत्तरखण्ड के अनुसार आषाढ़ कृष्ण एकादशी को "योगनी" एकादशी कहते है । यह बड़े बड़े पातकों का नाश करनेवाली है । यह इस लोक में भोग और परलोक में मुक्ति देने वाली है। यह तीनों लोकों में प्रसिद्ध है। मैं तुमसे पुराणों में वर्णन की हुई कथा कहता हूँ । ध्यानपूर्वक सुनो ।

स्वर्गधाम की अलकापुरी नामक नगरी में कुबेर नाम का एक राजा रहता था । वह शिव भक्त था और प्रतिदिन शिव की पूजा किया करता था। हेम नाम का एक माली पूजन के लिए उसके यहाँ फूल लाया करता था । हेम की विशालाक्षी नाम की सुंदर स्त्री थी । एक दिन वह मानसरोवर से पुष्प तो ले आया लेकिन कामासक्त होने के कारण वह अपनी स्त्री से हास्य-विनोद तथा रमण करने लगा ।

इधर राजा उसकी दोपहर तक राह देखता रहा। अंत में राजा ने सेवकों को आज्ञा दी कि तुम लोग जाकर माली के न आने का कारण पता करो । सेवकों ने कहा कि महाराज वह पापी अपनी स्त्री के साथ हास्य-विनोद और रमण कर रहा होगा। यह सुनकर कुबेर ने क्रोधित होकर उसे बुलाया।

हेम माली राजा के भय से काँपता हुआ उपस्थित हुआ। राजा कुबेर ने क्रोध में आकर कहा- ‘अरे पापी! नीच! कामी! तूने मेरे ईश्वर श्री शिवजी का अनादर किया है, इसिलए मैं तुझे शाप देता हूँ कि तू स्त्री का वियोग सहेगा और मृत्युलोक में जाकर कोढ़ी होगा ।

कुबेर के शाप से हेम माली का स्वर्ग से उसी क्षण पृथ्वी पर गिर गया । पृथवी पर आते ही उसके शरीर में कोढ़ हो गया । उसकी स्त्री भी उसी समय अंतर्ध्यान हो गई। मृत्युलोक में आकर माली दु:ख भोगे, बिना अन्न-जल के भटकता रहा । किन्तु शिवजी की पूजा के प्रभाव से उसको पिछले जन्म की स्मृति थी । घूमते-घूमते एक दिन वह मार्कण्डेय ऋषि के आश्रम में पहुँच कर उनके पैरों में पड़ गया।

उसे देखकर मारर्कंडेय ऋषि बोले तुमने ऐसा कौन-सा पाप किया है, जिसके प्रभाव से यह हालत गई । हेम माली ने सारा वृत्तांत कह सुनाया। यह सुनकर ऋषि बोले- निश्चित ही तूने मेरे सम्मुख सत्य वचन कहे हैं, इसलिए तेरे उद्धार के लिए मैं एक व्रत बताता हूँ । यदि तू आषाढ मास के कृष्ण पक्ष की योगिनी नामक एकादशी का विधिपूर्वक व्रत करेगा तो तेरे सब पाप नष्ट हो जाएँगे।

यह सुनकर हेम माली ने अत्यंत प्रसन्न होकर मुनि को साष्टांग प्रणाम किया। मुनि ने उसे स्नेह के साथ उठाया । हेम माली ने मुनि के कथनानुसार विधिपूर्वक योगिनी एकादशी का व्रत किया । इस व्रत के प्रभाव से अपने पुराने स्वरूप में आकर वह अपनी स्त्री के साथ सुखपूर्वक रहने लगा।

भगवान कृष्ण ने कहा हे राजन! यह योगिनी एकादशी का व्रत ८८ हजार ब्राह्मणों को भोजन कराने के बराबर फल देता है । इसके व्रत से समस्त पाप हो जाते हैं और अंत में स्वर्ग प्राप्त होता है।[8]

देवशयनी एकादशी

देवशयनी एकादशी

युधिष्ठिर ने पूछा : जनार्दन ! आषाढ मास के शुक्लपक्ष में किस नाम की एकादशी होती है? उसका क्या फल होता है? इस व्रत की क्या विधि है ? कृपया यह सब विस्तार पूर्वक बताइए।

भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! आषाढ़ शुक्ल एकादशी को ही देवशयनी / शयनी / पद्मनाभा एकादशी कहा जाता है । मिथुन के सूर्य में आने पर ये एकादशी आती है। इसी दिन से चातुर्मास का आरंभ माना जाता है । इस दिन से भगवान श्री विष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं और फिर लगभग चार माह बाद तुला के सूर्य में उन्हें उठाया जाता है। उस दिन को देवोत्थानी एकादशी कहते है। इस बीच के अंतराल को ही चातुर्मास कहा गया है । इसके माहात्म्य का वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण में किया गया है।

पुराणों में वर्णन आता है कि भगवान विष्णु इस दिन से चार मासपर्यन्त (चातुर्मास) पाताल में राजा बलि के द्वार पर निवास करके कार्तिक शुक्ल एकादशी को लौटते हैं। इसी प्रयोजन से इस दिन को 'देवशयनी' तथा कार्तिकशुक्ल एकादशी को प्रबोधिनी एकादशी कहते हैं । इस काल में यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह, दीक्षाग्रहण, यज्ञ, गृहप्रवेश, गोदान, प्रतिष्ठा एवं जितने भी शुभ कर्म है, वे सभी त्याज्य होते हैं । भविष्य पुराण, पद्म पुराण तथा श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार हरिशयन को योगनिद्रा कहा गया है।

संस्कृत में धार्मिक साहित्यानुसार हरि शब्द सूर्य, चन्द्रमा, वायु, विष्णु आदि अनेक अर्थो में प्रयुक्त है । हरिशयन का तात्पर्य इन चार माह में बादल और वर्षा के कारण सूर्य-चन्द्रमा का तेज क्षीण हो जाना उनके शयन का ही द्योतक होता है। इस समय में पित्त स्वरूप अग्नि की गति शांत हो जाने के कारण शरीरगत शक्ति क्षीण या सो जाती है । आधुनिक युग में वैज्ञानिकों ने भी खोजा है कि कि चातुर्मास्य में (मुख्यतः वर्षा ऋतु में) विविध प्रकार के कीटाणु अर्थात सूक्ष्म रोग जंतु उत्पन्न हो जाते हैं, जल की बहुलता और सूर्य-तेज का भूमि पर अति अल्प प्राप्त होना ही इनका कारण है।

धार्मिक शास्त्रों के अनुसार आषाढ़ शुक्ल पक्ष में एकादशी तिथि को शंखासुर दैत्य मारा गया । पुराण के अनुसार भगवान हरि ने वामन रूप में दैत्य बलि के यज्ञ में तीन पग दान के रूप में मांगे। भगवान ने पहले पग में संपूर्ण पृथ्वी, आकाश और सभी दिशाओं को ढक लिया। अगले पग में सम्पूर्ण स्वर्ग लोक ले लिया । तीसरे पग में बलि ने अपने आप को समर्पित करते हुए सिर पर पग रखने को कहा । इस प्रकार के दान से भगवान ने प्रसन्न होकर पाताल लोक का अधिपति बना दिया और कहा वर मांगो। बलि ने वर मांगते हुए कहा कि भगवान आप मेरे महल में नित्य रहें। बलि के बंधन में बंधा देख उनकी भार्या लक्ष्मी ने बलि को भाई बना लिया और भगवान से बलि को वचन से मुक्त करने का अनुरोध किया । तब इसी दिन से भगवान विष्णु जी द्वारा वर का पालन करते हुए तीनों देवता ४-४ माह सुतल में निवास करते हैं । विष्णु देवशयनी एकादशी से देवउठानी एकादशी तक, शिवजी महाशिवरात्रि तक और ब्रह्मा जी शिवरात्रि से देवशयनी एकादशी तक निवास करते हैं ।

शयनी और बोधिनी के बीच में जो कृष्णपक्ष की एकादशीयाँ होती हैं, गृहस्थ के लिए वे ही व्रत रखने योग्य हैं - अन्य मासों की कृष्णपक्षीय एकादशी गृहस्थ के रखने योग्य नहीं होती । शुक्लपक्ष की सभी एकादशी करनी चाहिए । इस व्रत से प्राणी की समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। सारे पाप नष्ट होते हैं।[9]

श्रावण मासान्तर्गत एकादशी

कामिका(कामदा)एकादशी

कामिका (कामदा) एकादशी

धर्मराज युधिष्ठिर ने पूछा हे भगवन, श्रावण मास की कृष्ण एकादशी (गुजरात, महाराष्ट्र के अनुसार आषाढ कृष्ण एकादशी) का क्या नाम है, कृपया उसका वर्णन कीजिये ।

श्रीकृष्ण भगवान कहने लगे कि हे युधिष्ठिर! इस एकादशी की कथा एक समय स्वयं ब्रह्माजी ने देवर्षि नारद से कही थी, वही मैं तुमसे कहता हूँ । नारदजी ने ब्रह्माजी से पूछा था कि हे पितामह! श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी की कथा सुनने की मेरी इच्छा है, उसका क्या नाम है? क्या विधि है और उसका माहात्म्य क्या है, सो कृपा करके कहिए।

नारदजी के ये वचन सुनकर ब्रह्माजी ने कहा- हे नारद! लोकों के हित के लिए तुमने बहुत सुंदर प्रश्न किया है । श्रावण मास की कृष्ण एकादशी का नाम कामिका है। उसके सुनने मात्र से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है । इस दिन शंख, चक्र, गदाधारी विष्णु भगवान का पूजन होता है, जिनके नाम श्रीधर, हरि, विष्णु, माधव, मधुसूदन हैं। उनकी पूजा करने से जो फल मिलता है सो सुनो।

जो फल गंगा, काशी, नैमिषारण्य और पुष्कर स्नान से मिलता है, वह विष्णु भगवान के पूजन से मिलता है । जो फल सूर्य व चंद्र ग्रहण पर कुरुक्षेत्र और काशी में स्नान करने से, समुद्र, वन सहित पृथ्वी दान करने से, सिंह राशि के बृहस्पति में गोदावरी और गंडकी नदी में स्नान से भी प्राप्त नहीं होता वह भगवान विष्णु के पूजन से मिलता है।

जो मनुष्य श्रावण में भगवान का पूजन करते हैं, उनसे देवता, गंधर्व और सूर्य आदि सब पूजित हो जाते हैं । अत: पापों से डरने वाले मनुष्यों को कामिका एकादशी का व्रत और भगवान का पूजन अवश्य करना चाहिए । पापरूपी कीचड़ में फँसे हुए और संसार रूपी समुद्र में डूबे मनुष्यों के लिए इस एकादशी का व्रत और भगवान का पूजन अत्यंत आवश्यक है। इससे बढ़कर पापों के नाशों का कोई उपाय नहीं है ।

हे नारद! स्वयं भगवान ने कहा है कि कामिका व्रत से जीव कुयोनि को प्राप्त नहीं होता । जो मनुष्य एकादशी के दिन भक्तिपूर्वक तुलसी दल भगवान विष्णु को अर्पण करते हैं, वे इस संसार के समस्त पापों से दूर रहते हैं । भगवान रत्न, मोती, मणि तथा आभूषण आदि से इतने प्रसन्न नहीं होते जितने तुलसी दल से । तुलसी दल पूजन का फल चार भार चाँदी और एक भार स्वर्ण के दान के बराबर होता है। हे नारद! स्वयं भगवान की अतिप्रिय तुलसी को सदैव नमस्कार करता हूँ। तुलसी के पौधे को सींचने से मनुष्य की सब यातनाएँ नष्ट हो जाती हैं। दर्शन मात्र से सब पाप नष्ट हो जाते हैं और स्पर्श से मनुष्य पवित्र हो जाता है। कामिका एकादशी की रात्रि को जो लोग भगवान के मंदिर में घी या तेल का दीपक जलाते हैं उनके पितर स्वर्गलोक में अमृतपान करते हैं तथा वे सौ करोड़ दीपकों से प्रकाशित होकर सूर्यलोक जाते हैं। ब्रह्माजी कहते हैं कि हे नारद! ब्रह्महत्या तथा भ्रूण हत्या आदि पापों को नष्ट करने वाली इस कामिका एकादशी का व्रत मनुष्य को यत्न के साथ करना चाहिए । कामिका एकादशी के व्रत का माहात्म्य श्रद्धा से सुनने और पढ़ने वाला मनुष्य सभी पापों से मुक्त होकर विष्णु लोक को जाता है।[10]

पुत्रदा एकादशी

युधिष्ठिर ने पूछा हे मधुसूदन ! श्रावण शुक्ल एकादशी का क्या नाम है? व्रत करने की विधि तथा इसका माहात्म्य कृपा करके कहिए।

भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! इस एकादशी का नाम पुत्रदा है। अब आप शांतिपूर्वक इसकी कथा सुनिए । इसके सुनने मात्र से ही वायपेयी यज्ञ का फल मिलता है।

द्वापर युग के आरंभ में महिष्मतिपुर नाम की एक नगरी थी, जिसमें महीजित नाम का राजा राज्य करता था, लेकिन पुत्रहीन होने के कारण राजा को राज्य सुखदायक नहीं लगता था। उसका मानना था कि जिसके संतान न हो, उसके लिए यह लोक और परलोक दोनों ही दुःख दायक होते हैं । पुत्र सुख की प्राप्ति के लिए राजा ने अनेक उपाय किए परंतु राजा को पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई ।

वृद्धावस्था आती देखकर राजा ने प्रजा के प्रतिनिधियों को बुलाया और कहा- हे प्रजाजनों ! मेरे खजाने में अन्याय से उपार्जन किया हुआ धन नहीं है । न मैंने कभी देवताओं तथा ब्राह्मणों का धन छीना है । किसी दूसरे की धरोहर भी मैंने नहीं ली, प्रजा को पुत्र के समान पालता रहा। मैं अपराधियों को पुत्र तथा बाँधवों की तरह दंड देता रहा । कभी किसी से घृणा नहीं की। सबको समान माना है। सज्जनों की सदा पूजा करता हूँ । इस प्रकार धर्मयुक्त राज्य करते हुए भी मेरे पुत्र नहीं है । सो मैं अत्यंत दु:ख पा रहा हूँ, इसका क्या कारण है?

राजा महीजित की इस बात को विचारने के लिए मंत्री तथा प्रजा के प्रतिनिधि वन को गए। वहाँ बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के दर्शन किए। राजा की उत्तम कामना की पूर्ति के लिए किसी श्रेष्ठ तपस्वी मुनि को देखते-फिरते रहे । एक आश्रम में उन्होंने एक अत्यंत वयोवृद्ध धर्म के ज्ञाता, बड़े तपस्वी, परमात्मा में मन लगाए हुए निराहार, जितेंद्रीय, जितात्मा, जितक्रोध, सनातन धर्म के गूढ़ तत्वों को जानने वाले, समस्त शास्त्रों के ज्ञाता महात्मा लोमश मुनि को देखा, जिनका कल्प के व्यतीत होने पर एक रोम गिरता था ।

सबने जाकर ऋषि को प्रणाम किया । उन लोगों को देखकर मुनि ने पूछा कि आप लोग किस कारण से आए हैं? नि:संदेह मैं आप लोगों का हित करूँगा । मेरा जन्म केवल दूसरों के उपकार के लिए हुआ है, इसमें संदेह मत करो ।

लोमश ऋषि के ऐसे वचन सुनकर सब लोग बोले- हे महर्षे ! आप हमारी बात जानने में ब्रह्मा से भी अधिक समर्थ हैं । अत: आप हमारे इस संदेह को दूर कीजिए। महिष्मति पुरी का धर्मात्मा राजा महीजित प्रजा का पुत्र के समान पालन करता है। फिर भी वह पुत्रहीन होने के कारण दु:खी है ।

उन लोगों ने आगे कहा कि हम लोग उसकी प्रजा हैं । अत: उसके दुःख से हम भी दु:खी हैं। आपके दर्शन से हमें पूर्ण विश्वास है कि हमारा यह संकट अवश्य दूर हो जाएगा क्योंकि महान पुरुषों के दर्शन मात्र से अनेक कष्ट दूर हो जाते हैं। अब आप कृपा करके राजा को पुत्र होने का उपाय बतलाएँ ।

यह वार्ता सुनकर ऋषि ने थोड़ी देर के लिए नेत्र बंद किए और राजा के पूर्व जन्म का वृत्तांत जानकर कहने लगे कि यह राजा पूर्व जन्म में एक निर्धन वैश्य था । निर्धन होने के कारण इसने कई बुरे कर्म किए। यह एक गाँव से दूसरे गाँव व्यापार करने जाया करता था। एक समय ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी के दिन मध्याह्न के समय वह जबकि वह दो दिन से भूखा-प्यासा था, एक जलाशय पर जल पीने गया । उसी स्थान पर एक तत्काल की ब्याही हुई प्यासी गौ जल पी रही थी ।

राजा ने उस प्यासी गाय को जल पीते हुए हटा दिया और स्वयं जल पीने लगा, इसीलिए राजा को यह दु:ख सहना पड़ा । एकादशी के दिन भूखा रहने से वह राजा हुआ और प्यासी गौ को जल पीते हुए हटाने के कारण पुत्र वियोग का दु:ख सहना पड़ रहा है। ऐसा सुनकर सब लोग कहने लगे कि हे ऋषि! शास्त्रों में पापों का प्रायश्चित भी लिखा है। अत: राजा का यह पाप नष्ट हो जाए, आप ऐसा उपाय बताइए ।

लोमश मुनि कहने लगे कि श्रावण शुक्ल पक्ष की एकादशी को जिसे पुत्रदा एकादशी भी कहते हैं, तुम सब लोग व्रत करो और रात्रि को जागरण करो तो इससे राजा का यह पूर्व जन्म का पाप अवश्य नष्ट हो जाएगा, साथ ही राजा को पुत्र की अवश्य प्राप्ति होगी । लोमश ऋषि के ऐसे वचन सुनकर मंत्रियों सहित सारी प्रजा नगर को वापस लौट आई और जब श्रावण शुक्ल एकादशी आई तो ऋषि की आज्ञानुसार सबने पुत्रदा एकादशी का व्रत और जागरण किया ।

इसके पश्चात द्वादशी के दिन इसके पुण्य का फल राजा को दिया गया। उस पुण्य के प्रभाव से रानी ने गर्भ धारण किया और प्रसव-काल समाप्त होने पर उसके एक बड़ा तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ । इसलिए हे राजन! इस श्रावण शुक्ल एकादशी का नाम पुत्रदा पड़ा । अत: संतान सुख की इच्छा हासिल करने वाले इस व्रत को अवश्य करें। इसके माहात्म्य को सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है और इस लोक में संतान सुख भोगकर परलोक में स्वर्ग को प्राप्त होता है ।[11]

भाद्रपद मासान्तर्गत एकादशी

जया (अजा) एकादशी

• जया (अजा) एकादशी

धर्मराज युधिष्ठिर ने पूछा हे भगवन, भाद्रपद मास की कृष्ण एकादशी (गुजरात, महाराष्ट्र के अनुसार श्रावण कृष्ण एकादशी) का क्या नाम है? व्रत करने की विधि तथा इसका माहात्म्य कृपा करके कहिए । भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! इस एकादशी का नाम अजा है। यह सब प्रकार के समस्त पापों का नाश करने वाली है। जो मनुष्य इस दिन भगवान ऋषिकेश की पूजा करता है । उसको वैकुंठ की प्राप्ति अवश्य होती है। अब आप इसकी कथा सुनिए ।

प्राचीन काल में हरिशचन्द्र नामक एक चक्रवर्ती राजा राज्य करता था । उसने किसी कर्म के वशीभूत होकर अपना सारा राज्य व धन त्याग दिया, साथ ही अपनी स्त्री, पुत्र तथा स्वयं को बेच दिया । वह राजा चांडाल का दास बनकर सत्य को धारण करता हुआ मृतकों का वस्त्र ग्रहण करता रहा। मगर किसी प्रकार से सत्य से विचलित नहीं हुआ। कई बार राजा चिंता के समुद्र में डूबकर अपने मन में विचार करने लगता कि मैं कहाँ जाऊँ, क्या करूँ, जिससे मेरा उद्धार हो ।

इस प्रकार राजा को कई वर्ष बीत गए । एक दिन राजा इसी चिंता में बैठा हुआ था कि गौतम ऋषि आ गए। राजा ने उन्हें देखकर प्रणाम किया और अपनी सारी दु:खभरी कहानी कह सुनाई। यह बात सुनकर गौतम ऋषि कहने लगे कि राजन तुम्हारे भाग्य से आज से सात दिन बाद भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अजा नाम की एकादशी आएगी, तुम विधिपूर्वक उसका व्रत करो ।

गौतम ऋषि ने कहा कि इस व्रत के पुण्य प्रभाव से तुम्हारे समस्त पाप नष्ट हो जाएँगे । इस प्रकार राजा से कहकर गौतम ऋषि उसी समय अंतर्ध्यान हो गए । राजा ने उनके कथनानुसार एकादशी आने पर विधिपूर्वक व्रत व जागरण किया । उस व्रत के प्रभाव से राजा के समस्त पाप नष्ट हो गए । स्वर्ग से बाजे बजने लगे और पुष्पों की वर्षा होने लगी। उसने अपने मृतक पुत्र को जीवित और अपनी स्त्री को वस्त्र तथा आभूषणों से युक्त देखा । व्रत के प्रभाव से राजा को पुन: राज्य मिल गया। अंत में वह अपने परिवार सहित स्वर्ग को गया ।

हे राजन! यह सब अजा एकादशी के प्रभाव से ही हुआ । अतः जो मनुष्य यत्न के साथ विधिपूर्वक इस व्रत को करते हुए रात्रि जागरण करते हैं, उनके समस्त पाप नष्ट होकर अंत में वे स्वर्गलोक को प्राप्त होते हैं । इस एकादशी की कथा के श्रवण मात्र से अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है ।[12]

पद्मा (परिवर्तिनी) एकादशी

भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! इस विषय में मैं तुम्हें एक कथा सुनाता हूँ, जिसे ब्रह्माजी ने महात्मा नारद से कहा था ।

नारदजी ने पूछा : चतुर्मुख ! आपको नमस्कार है ! मैं भगवान विष्णु की आराधना के लिए आपके मुख से यह सुनना चाहता हूँ कि भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष में कौन सी एकादशी होती है ?

ब्रह्माजी ने कहा : मुनिश्रेष्ठ ! आपने बहुत उत्तम बात पूछी है। भादों के शुक्लपक्ष की एकादशी परिवर्तिनी (पद्मा) के नाम से विख्यात है। उस दिन भगवान ह्रषीकेश की पूजा होती है। इस का यज्ञ करने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है। पापियों के पाप नाश करने के लिए इससे बढ़कर कोई उपाय नहीं ।

जो कमलनयन भगवान का कमल से पूजन करते हैं, वे अवश्य भगवान के समीप जाते हैं। जिसने यह व्रत और पूजन किया, उसने ब्रह्मा, विष्णु सहित तीनों लोकों का पूजन किया। अत: हरिवासर अर्थात एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए । अत: मोक्ष की इच्छा करने वाले मनुष्य इस व्रत को अवश्य करें । इस दिन भगवान करवट लेते हैं, इसलिए इसको परिवर्तिनी एकादशी भी कहते हैं।

ब्रह्माजी ने कहा : मुनिश्रेष्ठ ! सूर्यवंश में मान्धाता नामक एक चक्रवर्ती, सत्यप्रतिज्ञ और प्रतापी राजर्षि हो गये हैं। वे अपने औरस पुत्रों की भाँति धर्मपूर्वक प्रजा का पालन किया करते थे । उनके राज्य में अकाल नहीं पड़ता था, मानसिक चिन्ताएँ नहीं सताती थीं और व्याधियों का प्रकोप भी नहीं होता था । उनकी प्रजा निर्भय तथा धन धान्य से समृद्ध थी । महाराज के कोष में केवल न्यायोपार्जित धन का ही संग्रह था। उनके राज्य में समस्त वर्णों और आश्रमों के लोग अपने अपने धर्म में लगे रहते थे । मान्धाता के राज्य की भूमि कामधेनु के समान फल देनेवाली थी। उनके राज्यकाल में प्रजा को बहुत सुख प्राप्त होता था । ।

एक समय किसी कर्म का फलभोग प्राप्त होने पर राजा के राज्य में तीन वर्षों तक वर्षा नहीं हुई। इससे उनकी प्रजा भूख से पीड़ित हो नष्ट होने लगी। तब सम्पूर्ण प्रजा ने महाराज के पास आकर कहा नृपश्रेष्ठ ! इस समय अन्न के बिना प्रजा का नाश हो रहा है, अत: ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे हमारे योगक्षेम का निर्वाह हो ।

राजा ने कहा : आप लोगों का कथन सत्य है, किन्तु जब मैं बुद्धि से विचार करता हूँ तो मुझे अपना किया हुआ कोई अपराध नहीं दिखायी देता । फिर भी मैं प्रजा का हित करने के लिए पूर्ण प्रयत्न करुँगा ।

ऐसा निश्चय करके राजा अपने मन्त्रीयों को साथ ले, विधाता को प्रणाम करके सघन वन की ओर

चल दिये। वहाँ पर घुमते-घुमते एक दिन उन्हें ब्रह्मपुत्र अंगिरा ऋषि के दर्शन हुए। उन पर दृष्टि पड़ते ही राजा अपने वाहन से उतर पड़े और दोनों हाथ जोड़कर मुनि के चरणों में प्रणाम किया । राजा मुनि के समीप बैठे तो मुनि ने राजा से आगमन का कारण पूछा ।

राजा ने कहा : भगवन् ! मैं धर्मानुकूल प्रणाली से पृथ्वी का पालन कर रहा था। फिर भी मेरे राज्य में वर्षा का अभाव हो गया । इसका क्या कारण है इस बात को मैं नहीं जानता। ऋषि बोले : राजन् ! इस युग में केवल ब्राह्मण ही तपस्वी होते हैं, दूसरे लोग नहीं । किन्तु आपके राज्य में एक शूद्र तपस्या करता है, इसी कारण मेघ पानी नहीं बरसाते । तुम इसके प्रतिकार का यत्न करो, जिससे यह अनावृष्टि का दोष शांत हो जाय ।

राजा ने कहा : मुनिवर ! एक तो वह तपस्या में लगा है और दूसरे, वह निरपराध है। अत: मैं उसका अनिष्ट नहीं करूँगा। आप उक्त दोष को शांत करने वाले किसी धर्म का उपदेश कीजिये ।

ऋषि बोले : राजन् ! यदि ऐसी बात है तो भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष में जो ‘पधा' नाम से विख्यात एकादशी होती है, उसके व्रत के प्रभाव से निश्चय ही उत्तम वृष्टि होगी । नरेश ! तुम अपनी प्रजा और परिजनों के साथ इसका व्रत करो । ।

ऋषि के वचन सुनकर राजा अपने घर लौट आये। उन्होंने चारों वर्णों की समस्त प्रजा के साथ भादों शुक्लपक्ष की ‘पधा एकादशी का व्रत किया । इस व्रत के प्रभाव से पानी बरसाने लगे । पृथ्वी जल से आप्लावित हो गयी और हरी भरी खेती से सुशोभित होने लगी। सभी प्रजा सुखी एवं समृध हो गये । भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजन् ! इस कारण इस उत्तम व्रत का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिए । ‘पधा एकादशी के दिन जल से भरे हुए घड़े को वस्त्र से ढकँकर दही और चावल के साथ ब्राह्मण को दान देना चाहिए, साथ ही छाता और जूता भी देना चाहिए। दान करते समय निम्नांकित मंत्र का उच्चारण करें।

• मन्त्र

नमो नमस्ते गोविन्द बुधश्रवणसंज्ञक ॥ अघौघसंक्षयं कृत्वा सर्वसौख्यप्रदो भव । भुक्तिमुक्तिप्रदश्चैव लोकानां सुखदायकः ॥

'बुधवार और श्रवण नक्षत्र के योग से युक्त द्वादशी के दिन बुद्धश्रवण नाम धारण करने वाले भगवान गोविन्द ! आपको नमस्कार है... नमस्कार है ! मेरी पापराशि का नाश करके आप मुझे सब प्रकार के सुख प्रदान करें । आप पुण्यात्माजनों को भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले तथा सुखदायक हैं। राजन् ! इसके पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है।[13]

आश्विन मासान्तर्गत एकादशी

इंदिरा एकादश

युधिष्ठिर ने पूछा : हे भगवान ! आश्विन कृष्ण एकादशी (गुजरात, महाराष्ट्र के अनुसार भाद्रपद कृष्ण एकादशी) का क्या नाम है? इसकी विधि तथा फल क्या है? सो कृपा करके कहिए ।

भगवान श्रीकृष्ण कहने लगे कि इस एकादशी का नाम इंदिरा एकादशी है। यह एकादशी पापों को नष्ट करने वाली तथा पितरों को अधोगति से मुक्ति देने वाली होती है । हे राजन! ध्यानपूर्वक इसकी कथा सुनो । इसके सुनने मात्र से ही वायपेय यज्ञ का फल मिलता है।

प्राचीनकाल में सतयुग के समय में महिष्मतिपुरी नाम की एक नगरी में इंद्रसेन नाम का एक प्रतापी राजा धर्मपूर्वक अपनी प्रजा का पालन करते हुए शासन करता था । वह राजा पुत्र, पौत्र और धन आदि से संपन्न और विष्णु का परम भक्त था । एक दिन जब राजा सुखपूर्वक अपनी सभा में बैठा था तो आकाश मार्ग से महर्षि नारद उतरकर उसकी सभा में आए । राजा उन्हें देखते ही हाथ जोड़कर खड़े हो गये और विधिपूर्वक आसन व अर्घ्य दिया।

बैठकर मुनि ने राजा से पूछा कि हे राजन! आपके सातों अंग कुशलपूर्वक तो हैं? तुम्हारी बुद्धि धर्म में और तुम्हारा मन विष्णु भक्ति में तो रहता है? देवर्षि नारद की ऐसी बातें सुनकर राजा ने कहा- हे महर्षि! आपकी कृपा `कृपा से मेरे राज्य में सब कुशल है तथा मेरे यहाँ यज्ञ कर्मादि सुकृत हो रहे हैं। आप कृपा करके अपने आगमन का कारण कहिए ।

नारद जी ने कहा हे राजन! मैं एक समय ब्रह्मलोक से यमलोक को गया, वहाँ श्रद्धापूर्वक यमराज से पूजित होकर मैंने धर्मशील और सत्यवान धर्मराज की प्रशंसा की। उसी यमराज की सभा में महान ज्ञानी और धर्मात्मा तुम्हारे पिता को एकादशी का व्रत भंग होने के कारण देखा। उन्होंने संदेशा दिया सो मैं तुम्हें कहता हूँ। उन्होंने कहा कि पूर्व जन्म में कोई विघ्न हो जाने के कारण मैं यमराज के निकट रह रहा हूँ, सो हे में पुत्र यदि तुम आश्विन कृष्णा इंदिरा एकादशी का व्रत मेरे निमित्त करो तो मुझे स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है। इतना सुनकर राजा कहने लगा कि हे महर्षि आप इस व्रत की विधि मुझसे कहिए । नारदजी कहने लगे- आश्विन माह की कृष्ण पक्ष की दशमी के दिन प्रात:काल श्रद्धापूर्वक स्नानादि से निवृत्त होकर पुन: दोपहर को नदी आदि में जाकर स्नान करें। फिर श्रद्धापूर्व पितरों का श्राद्ध करें और एक बार भोजन करें । प्रात:काल होने पर एकादशी के दिन दातून आदि करके स्नान करें, फिर व्रत के नियमों को भक्ति पूर्वक ग्रहण करता हुआ प्रतिज्ञा करें कि 'मैं आज संपूर्ण भोगों को त्याग कर निराहार एकादशी का व्रत करूँगा ।

मन्त्र

अघ स्थित्वा निराहारः सर्वभोगविवर्जितः । श्वो भोक्ष्ये पुण्डरीकाक्ष शरणं मे भवाच्युत ॥

हे अच्युत! हे पुंडरीकाक्ष! मैं आपकी शरण हूँ, आप मेरी रक्षा कीजिए, इस प्रकार नियमपूर्वक शालिग्राम की मूर्ति के आगे विधिपूर्वक श्राद्ध करके योग्य ब्राह्मणों को फलाहार का भोजन कराएँ और दक्षिणा दें । पितरों के श्राद्ध से जो बच जाए उसको सूँघकर गौ को दें तथा धूप, दीप, गंध, पुष्प, नैवेद्य आदि सब सामग्री से ऋषिकेश भगवान का पूजन करें।

रात में भगवान के निकट जागरण करें। इसके पश्चात द्वादशी के दिन प्रातः काल होने पर भगवान का पूजन करके ब्राह्मणों को भोजन कराएँ । भाई-बंधुओं, स्त्री और पुत्र सहित आप भी मौन होकर भोजन करें । नारदजी कहने लगे कि हे राजन! इस विधि से यदि तुम आलस्य रहित होकर इस एकादशी का व्रत करोगे तो तुम्हारे पिता अवश्य ही स्वर्गलोक को जाएँगे। इतना कहकर नारदजी अंतर्ध्यान हो गए । नारदजी के कथनानुसार राजा द्वारा अपने बाँधवों तथा दासों सहित व्रत करने से आकाश से पुष्पवर्षा हुई और उस राजा का पिता गरुड़ पर चढ़कर विष्णुलोक को गया । राजा इंद्रसेन भी एकादशी के व्रत के प्रभाव से निष्कंटक राज्य करके अंत में अपने पुत्र को सिंहासन पर बैठाकर स्वर्गलोक को गया । हे

युधिष्ठिर! यह इंदिरा एकादशी के व्रत का माहात्म्य मैंने तुमसे कहा । इसके पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से छूट जाते हैं और सब प्रकार के भोगों को भोगकर बैकुंठ को प्राप्त होते हैं।[14]

पापांकुशा एकादशी

धर्मराज युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवान! आश्विन शुक्ल एकादशी का क्या नाम है? आप कृपा करके इसकी विधि तथा फल कहिए ।

भगवान श्रीकृष्ण कहने लगे कि हे युधिष्ठिर! पापों का नाश करने वाली इस एकादशी का नाम पापांकुशा एकादशी है । हे राजन! इस दिन मनुष्य को विधि पूर्वक भगवान पद्मनाभ की पूजा करनी चाहिए । यह एकादशी मनुष्य को मनवांछित फल एवं स्वर्ग को प्राप्त कराने वाली है।

मनुष्य को बहुत दिनों तक कठोर तपस्या से जो फल मिलता है, वह फल भगवान गरुड़ध्वज को नमस्कार करने से प्राप्त हो जाता है । जो मनुष्य अज्ञानवश अनेक पाप करते हैं परंतु हरि को नमस्कार करते हैं, वे नरक में नहीं जाते । विष्णु के नाम के कीर्तन मात्र से संसार के सब तीर्थों के पुण्य का फल मिल जाता है । जो मनुष्य शार्ंग धनुषधारी भगवान विष्णु की शरण में जाते हैं, उन्हें कभी भी यम यातना भोगनी नहीं पड़ती ।

जो मनुष्य वैष्णव होकर शिव की और शैव होकर विष्णु की निंदा करते हैं, वे अवश्य नरकवासी होते हैं। सहस्रों वाजपेय और अश्वमेध यज्ञों से जो फल प्राप्त होता है, वह एकादशी के व्रत के सोलहवें भाग के बराबर भी नहीं होता है। संसार में एकादशी के बराबर कोई पुण्य नहीं । इस व्रत के बराबर पवित्र तीनों लोकों में कुछ भी नहीं । जब तक मनुष्य पद्मनाभ की एकादशी का व्रत नहीं करते हैं, तब तक उनकी देह में पाप वास कर सकते हैं।

हे राजेन्द्र! यह एकादशी स्वर्ग, मोक्ष, आरोग्यता, सुंदर स्त्री तथा अन्न और धन को देने वाली है। एकादशी के व्रत के बराबर गंगा, गया, काशी, कुरुक्षेत्र और पुष्कर भी पुण्यवान नहीं हैं। हरिवासर तथा एकादशी का व्रत करने और जागरण करने से सहज ही में मनुष्य विष्णु पद को प्राप्त होता है । हे युधिष्ठिर! इस व्रत के करने वाले दस पीढ़ी मातृ पक्ष, दस पीढ़ी पितृ पक्ष, दस पीढ़ी स्त्री पक्ष तथा दस पीढ़ी मित्र पक्ष का उद्धार कर देते हैं। वे दिव्य देह धारण कर चतुर्भुज रूप हो, पीताम्बर पहने और हाथ में माला लेकर गरुड़ पर चढ़कर विष्णुलोक को जाते हैं।

हे नृपोत्तम! बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था में इस व्रत को करने से पापी मनुष्य भी दुर्गति को प्राप्त न होकर सद्गति को प्राप्त होता है । आश्विन मास की शुक्ल पक्ष की इस पापांकुशा एकादशी का व्रत जो मनुष्य करते हैं, वे अंत समय में हरिलोक को प्राप्त होते हैं तथा समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं। सोना, तिल, भूमि, गौ, अन्न, जल, छतरी तथा जूती दान करने से मनुष्य यमराज को नहीं देखता ।

जो मनुष्य किसी प्रकार के पुण्य कर्म किए बिना जीवन के दिन व्यतीत करता है, वह लोहार की भट्टी की तरह साँस लेता हुआ निर्जीव के समान ही है। निर्धन मनुष्यों को भी अपनी शक्ति के अनुसार दान करना चाहिए तथा धनवालों को सरोवर, बाग, मकान आदि बनवाकर दान करना चाहिए। ऐसे मनुष्यों को यम का द्वार नहीं देखना पड़ता तथा संसार में दीर्घायु होकर धनाढ्य, कुलीन और रोगरहित रहते हैं ।[15]

कार्तिक मासान्तर्गत एकादशी

रमा (रम्भा) एकादशी

रमा (रम्भा) एकादशी

धर्मराज युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवान! कार्तिक कृष्ण एकादशी (गुजरात, महाराष्ट्र के अनुसार आश्विन कृष्ण एकादशी) का क्या नाम है? इसकी विधि तथा फल क्या है? सो कृपा करके कहिए। भगवान श्रीकृष्ण बोले कि कार्तिक कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम रमा है। यह बड़े-बड़े पापों का नाश करने वाली है। इसका माहात्म्य मैं तुमसे कहता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो ।

हे राजन! प्राचीन काल में मुचुकुंद नाम का एक राजा था । उसकी इंद्र, यम, कुबेर, वरुण और विभीषण के साथ मित्रता थी। यह राजा बड़ा धर्मात्मा, विष्णुभक्त और न्याय के साथ राज करता था। उस राजा की एक कन्या थी, जिसका नाम चंद्रभागा था। उस कन्या का विवाह चंद्रसेन के पुत्र शोभन के साथ हुआ था। एक बार शोभन दशमी के दिन अपने ससुर के घर आये और उसी दिन समूचे नगर में पूर्ववत् ढिंढोरा पिटवाया गया कि एकादशी के दिन कोई भी भोजन न करे। इसे सुनकर शोभन ने अपनी प्यारी पत्नी चन्द्रभागा से कहा प्रिये ! अब मुझे इस समय क्या करना चाहिए, इसकी शिक्षा दो ।

चन्द्रभागा बोली : प्रभो ! मेरे पिता के घर पर एकादशी के दिन मनुष्य तो क्या कोई पालतू पशु आदि भी भोजन नहीं कर सकते । प्राणनाथ ! यदि आप भोजन करेंगे तो आपकी बड़ी निन्दा होगी। इस प्रकार मन में विचार करके अपने चित्त को दृढ़ कीजिये ।

शोभन ने कहा : प्रिये ! तुम्हारा कहना सत्य है । मैं भी उपवास करुँगा । दैव का जैसा विधान है, वैसा ही होगा ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके शोभन ने व्रत के नियम का पालन किया किन्तु सूर्योदय होते होते उनका प्राणान्त हो गया। राजा मुचुकुन्द ने शोभन का राजोचित दाह संस्कार कराया । चन्द्रभागा भी पति का पारलौकिक कर्म करके पिता के ही घर पर रहने लगी ।

नृपश्रेष्ठ ! उधर शोभन इस व्रत के प्रभाव से मन्दराचल के शिखर पर बसे हुए परम रमणीय देवपुर को प्राप्त हुए । वहाँ शोभन द्वितीय कुबेर की भाँति शोभा पाने लगे। एक बार राजा मुचुकुन्द के नगरवासी विख्यात ब्राह्मण सोमशर्मा तीर्थयात्रा के प्रसंग से घूमते हुए मन्दराचल पर्वत पर गये, जहाँ उन्हें शोभन दिखायी दिये। राजा के दामाद को पहचानकर वे उनके समीप गये। शोभन भी उस समय द्विजश्रेष्ठ सोमशर्मा को आया हुआ देखकर शीघ्र ही आसन से उठ खड़े हुए और उन्हें प्रणाम किया। फिर क्रमश : अपने ससुर राजा मुचुकुन्द, प्रिय पत्नी चन्द्रभागा तथा समस्त नगर का कुशलक्षेम पूछा ।

ब्राह्मण ने कहा कि राजा मुचुकुंद और आपकी पत्नी कुशल से हैं। नगर में भी सब प्रकार से कुशल हैं, परंतु हे राजन! हमें आश्चर्य हो रहा है। आप अपना वृत्तांत कहिए कि ऐसा सुंदर नगर जो न कभी देखा, न सुना, आपको कैसे प्राप्त हुआ ।

मैंने शोभन बोला कि कार्तिक कृष्ण की रमा एकादशी का व्रत करने से मुझे यह नगर प्राप्त हुआ, परन्तु से इस व्रत को श्रद्धारहित होकर किया है । अत: यह सब कुछ अस्थिर है। यदि आप मुचुकुंद की कन्या चंद्रभागा को यह सब वृत्तांत कहें तो यह स्थिर हो सकता है। शोभन की बात सुनकर ब्राह्मण मुचुकुन्दपुर में गये और वहाँ चन्द्रभागा के सामने उन्होंने सारा वृत्तान्त कह सुनाया।

सोमशर्मा बोले : शुभे ! मैंने तुम्हारे पति को प्रत्यक्ष देखा । इन्द्रपुरी के समान उनके दुर्द्धर्ष नगर का भी अवलोकन किया, किन्तु वह नगर अस्थिर है । तुम उसको स्थिर बनाओ ।

चन्द्रभागा ने कहा : ब्रह्मर्षे ! मेरे मन में पति के दर्शन की लालसा लगी हुई है। आप मुझे वहाँ ले है चलिये । मैं अपने व्रत के पुण्य से उस नगर को स्थिर बनाऊँगी ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजन् ! चन्द्रभागा की बात सुनकर सोमशर्मा उसे साथ ले मन्दराचल पर्वत के निकट वामदेव मुनि के आश्रम पर गये । वहाँ ऋषि के मंत्र की शक्ति तथा एकादशी सेवन के प्रभाव से चन्द्रभागा का शरीर दिव्य हो गया तथा उसने दिव्य गति प्राप्त कर ली । इसके बाद वह पति के समीप गयी । अपनी प्रिय पत्नी को आया हुआ देखकर शोभन को बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्होंने उसे बुलाकर अपने वाम भाग में सिंहासन पर बैठाया । तदनन्तर चन्द्रभागा ने अपने प्रियतम से कहा: नाथ ! मैं हित की बात कहती हूँ, सुनिये। जब मैं आठ वर्ष से अधिक उम्र की हो गयी, तबसे लेकर आज तक मेरे द्वारा किये हुए एकादशी व्रत से जो पुण्य संचित हुआ है, उसके प्रभाव से यह नगर कल्प के अन्त तक स्थिर रहेगा तथा सब प्रकार के मनोवांछित वैभव से समृद्धिशाली रहेगा। इस प्रकार चंद्रभागा ने दिव्य आभूषणों और वस्त्रों से सुसज्जित होकर अपने पति के साथ आनंदपूर्वक रहने लगी ।

हे राजन! यह मैंने रमा एकादशी का माहात्म्य कहा है, जो मनुष्य इस व्रत को करते हैं, उनके ब्रह्म हत्यादि समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष दोनों की एकादशियाँ समान हैं, इनमें कोई भेदभाव नहीं है। दोनों समान फल देती हैं। जो मनुष्य इस माहात्म्य को पढ़ते अथवा सुनते हैं, वे समस्त पापों से छूटकर विष्णुलोक को प्राप्त होता हैं । इति शुभम् ।

कार्तिक मास में तो प्रात: सूर्योदय से पूर्व उठने, स्नान करने और दानादि करने का विधान है। इसी कारण प्रात: उठकर केवल स्नान करने मात्र से ही मनुष्य को जहां कई हजार यज्ञ करने का फल मिलता है, वहीं इस मास में किए गए किसी भी व्रत का पुण्यफल हजारों गुणा अधिक है। रमा एकादशी व्रत में भगवान विष्णु के पूर्णावतार भगवान जी के केशव रूप की विधिवत धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प एवं मौसम के फलों से पूजा की जाती है ।

व्रत में एक समय फलाहार करना चाहिए तथा अपना अधिक से अधिक समय प्रभु भक्ति एवं हरिनाम संकीर्तन में बिताना चाहिए । शास्त्रों में विष्णुप्रिया तुलसी की महिमा अधिक है इसलिए व्रत में तुलसी पूजन करना और तुलसी की परिक्रमा करना अति उत्तम है । ऐसा करने वाले भक्तों पर प्रभु अपार कृपा करते हैं जिससे उनकी सभी मनोकामनाएं सहज ही पूरी हो जाती हैं।[16]

प्रबोधिनी एकादशी

प्रबोधिनी एकादशी

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा : हे अर्जुन ! मैं तुम्हें मुक्ति देनेवाली कार्तिक शुक्लपक्ष की ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के सम्बन्ध में नारद और ब्रह्माजी के बीच हुए वार्तालाप को सुनाता हूँ । एक बार नारादजी ने ब्रह्माजी से पूछा : ‘हे पिता ! ‘प्रबोधिनी एकादशी' के व्रत का क्या फल होता है, आप कृपा करके मुझे यह सब विस्तार पूर्वक बतायें ।

ब्रह्माजी बोले : हे पुत्र ! जिस वस्तु का त्रिलोक में मिलना दुष्कर है, वह वस्तु भी कार्तिक शुक्ल ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के व्रत से मिल जाती है । इस व्रत के प्रभाव से पूर्व जन्म के किये हुए अनेक बुरे कर्म क्षणभर में नष्ट हो जाते है । हे पुत्र ! जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक इस दिन थोड़ा भी पुण्य करते हैं, उनका वह पुण्य पर्वत के समान अटल हो जाता है । उनके पितृ विष्णुलोक में जाते हैं । ब्रह्महत्या आदि महान पाप भी ‘प्रबोधिनी एकादशी के दिन रात्रि को जागरण करने से नष्ट हो जाते हैं।

आषाढ शुक्ल एकादशी को देव-शयन हो जाने के बाद से प्रारम्भ हुए चातुर्मास का समापन कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन देवोत्थान-उत्सव होने पर होता है । इस दिन वैष्णव ही नहीं, स्मार्त श्रद्धालु भी बडी आस्था के साथ व्रत करते हैं ।

भगवान विष्णु को चार मास की योग-निद्रा से जगाने के लिए घण्टा, शंख, मृदंग आदि वाद्यों की मांगलिक ध्वनि के बीचये श्लोक पढकर जगाते हैं

• मन्त्र

उत्तिष्ठोत्तिष्ठगोविन्द त्यजनिद्रांजगत्पते । त्वयिसुप्तेजगन्नाथ जगत् सुप्तमिदंभवेत् ॥ उत्तिष्ठोत्तिष्ठवाराह दंष्ट्रोद्धृतवसुन्धरे । हिरण्याक्षप्राणघातिन्त्रैलोक्येमंगलम्कुरु ॥

संस्कृत बोलने में असमर्थ सामान्य लोग उठो देवा, बैठो देवा कहकर श्रीनारायण को उठाएं। श्रीहरि को जगाने के पश्चात् उनकी षोडशोपचार विधि से पूजा करें। अनेक प्रकार के फलों के साथ नैवेद्य निवेदित करें। संभव हो तो उपवास रखें अन्यथा केवल एक समय फलाहार ग्रहण करें। इस एकादशी में रातभर जागकर हरि नाम संकीर्तन करने से भगवान विष्णु अत्यन्त प्रसन्न होते हैं । विवाहादि समस्त मांगलिक कार्यो के शुभारम्भ में संकल्प भगवान विष्णु को साक्षी मानकर किया जाता है । अतएव चातुर्मास में प्रभावी प्रतिबंध देवोत्थान एकादशी के दिन समाप्त हो जाने से विवाहादि शुभ कार्य प्रारम्भ हो जाते हैं।

पद्मपुराण के उत्तरखण्ड में वर्णित एकादशी-माहात्म्य के अनुसार श्री हरि प्रबोधिनी (देवोत्थान) - एकादशी का व्रत करने से एक हजार अश्वमेध यज्ञ तथा सौ राजसूय यज्ञों का फल मिलता है। इस परम पुण्य प्रदा एकादशी के विधिवत व्रत से सब पाप भस्म हो जाते हैं तथा व्रती मरणोपरान्त बैकुण्ठ जाता है । इस एकादशी के दिन भक्त श्रद्धा के साथ जो कुछ भी जप-तप, स्नान-दान, होम करते हैं, वह सब अक्षय फलदायक हो जाता है। देवोत्थान एकादशी के दिन व्रतोत्सव करना प्रत्येक सनातन धर्मी का आध्यात्मिक कर्तव्य है। इस व्रत को करने वाला दिव्य फल प्राप्त करता है।[17]

मार्गशीर्ष मासान्तर्गत एकादशी

उत्पन्ना एकादशी

धर्मराज युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवान! मार्गशीर्शष कृष्ण एकादशी (गुजरात, महाराष्ट्र के अनुसार कार्तिक कृष्ण एकादशी) का क्या नाम है? इसकी विधि तथा फल क्या है? सो कृपा करके कहिए। पद्मपुराण में धर्मराज युधिष्ठिर के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण से पुण्यमयी एकादशी तिथि की उत्पत्ति के विषय पर पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि पूर्वकाल में ब्रह्माजी के वंश में तालजंघ नामक एक महान असुर उत्पन्न हुआ था, जो अत्यन्त भयंकर था। उसका पुत्र सत्ययुग में मुर नामक भयंकर दानव ने समस्त देवताओं एवं देवराज इन्द्र को पराजित करके स्वर्ग पर अपना आधिपत्य जमा लिया ।

सभी देवता महादेव जी के पास पहुंचे। महादेव जी देव-गणों को साथ लेकर क्षीर-सागर गए। वहां शेषनाग की शय्या पर योग-निद्रा लीन भगवान विष्णु को देखकर देवराज इन्द्र ने उनकी स्तुति की । देवताओं के अनुरोध पर श्रीहरिने उस अत्याचारी दैत्य पर आक्रमण कर दिया ।

सैकडों असुरों का संहार करके नारायण बदरिकाश्रम चले गए । वहां वे बारह योजन लम्बी सिंहावती गुफा में निद्रालीन हो गए । दानव मुर ने भगवान विष्णु को मारने के उद्देश्य से जैसे ही उस गुफा में प्रवेश किया, वैसे ही श्रीहरि के शरीर से दिव्य अस्त्र-शस्त्रों से युक्त एक अति रूपवती कन्या उत्पन्न हुई। उस कन्या ने अपने हुंकार से दानव मुर को भस्म कर दिया ।

नारायण ने जगने पर पूछा तो कन्या ने उन्हें सूचित किया कि आतातायी दैत्य का वध उसी ने किया है । इससे प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने एकादशी नामक उस कन्या को मनोवांछित वरदान देकर उसे अपनी प्रिय तिथि घोषित कर दिया । श्रीहरि के द्वारा अभीष्ट वरदान पाकर परम पुण्य प्रदा एकादशी बहुत खुश हुई। जो मनुष्य जीवन पर्यन्त एकादशी को उपवास करता है, वह मरणोपरांत वैकुण्ठ जाता है। एकादशी के समान पाप-नाशक व्रत दूसरा कोई नहीं है। एकादशी-माहात्म्य को सुनने मात्र से सहस्र गोदानों का पुण्यफल प्राप्त होता है। एकादशी में उपवास करके रात्रि जागरण करने से व्रती श्रीहरि की अनुकम्पा का भागी बनता है। उपवास करने में असमर्थ एकादशी के दिन कम से कम अन्न का परित्याग अवश्य करें। एकादशी में अन्न का सेवन करने से पुण्य का नाश होता है तथा भारी दोष लगता है। ऐसे लोग एकादशी के दिन एक समय फलाहार कर सकते हैं। एकादशी का व्रत समस्त प्राणियों के लिए अनिवार्य बताया गया है। मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष में एकादशी के उत्पन्न होने के कारण इस व्रत का अनुष्ठान इसी तिथि से शुरू करना उचित रहता है। इस व्रत को करने वाला दिव्य फल प्राप्त करता है ।[18]

मोक्षदा एकादशी

युधिष्ठिर बोले : देवदेवेश्वर ! मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष में कौन सी एकादशी होती है ? उसकी क्या विधि है तथा उसमें किस देवता का पूजन किया जाता है? स्वामिन् ! यह सब यथार्थ रुप से बताइये ।

श्रीकृष्ण ने कहा : नृपश्रेष्ठ ! मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का वर्णन करुँगा, जिसके श्रवण मात्र से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है। उसका नाम 'मोक्षदा एकादशी' है जो सब पापों का अपहरण करनेवाली है । इस दिन तुलसी की मंजरी, धूप-दीप आदि से भगवान दामोदर का पूजन करना चाहिए । मोक्षदा एकादशी बडे-बडे पातकों का नाश करने वाली है। इस दिन उपवास रखकर श्रीहरि के नाम का संकीर्तन, भक्तिगीत, नृत्य करते हुए रात्रि में जागरण करें।

पूर्वकाल में चम्पक नगर में वैखानस नामक राजा रहते थे। वे अपनी प्रजा का पुत्र की भाँति पालन करते थे । इस प्रकार राज्य करते हुए राजा ने एक दिन रात को स्वप्न में अपने पितरों को नीच योनि में पड़ा हुआ देखा । उन सबको इस अवस्था में देखकर राजा के मन में बड़ा विस्मय हुआ और प्रात: काल ब्राह्मणों से उन्होंने उस स्वप्न का सारा हाल कह सुनाया ।

राजा बोले : ब्रह्माणो ! मैने अपने पितरों को नरक में गिरा हुआ देखा है। वे बारंबार रोते हुए मुझसे कह रहे थे कि : तुम हमारे तनुज हो, इसलिए इस नरक समुद्र से हम लोगों का उद्धार करो । द्विजोत्तमो ! कोई व्रत, तप और योग, जिससे मेरे पूर्वज तत्काल नरक से छुटकारा पा जायें, बताने की कृपा करें ।

ब्राह्मण बोले : राजन् ! यहाँ से निकट ही पर्वत मुनि का महान आश्रम है। वे भूत और भविष्य के भी ज्ञाता हैं । नृपश्रेष्ठ ! आप उन्हींके पास चले जाइये । ब्राह्मणों की बात सुनकर राज शीघ्र ही पर्वत मुनि के आश्रम पर गये और मुनिश्रेष्ठ को देखकर उन्हें दण्डवत् प्रणाम करके अपनी सारी स्वप्न व्यथा बताई ।

राजा की बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ पर्वत एक मुहूर्त तक ध्यानस्थ रहे। इसके बाद वे राजा से बोले महाराज! मार्गशीर्ष के शुक्लपक्ष में जो ‘मोक्षदा' नाम की एकादशी होती है, तुम सब लोग उसका व्रत करो और उसका पुण्य पितरों को दे डालो । उस पुण्य के प्रभाव से उनका नरक से उद्धार हो जायेगा ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : युधिष्ठिर ! मुनि की यह बात सुनकर राजा पुन: अपने घर लौट आये। जब मार्गशीर्ष मास आया, तब राजा ने मुनि के कथनानुसार 'मोक्षदा एकादशी' का व्रत करके उसका पुण्य समस्त पितरों सहित पिता को दे दिया । पुण्य देते ही क्षणभर में आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी । वैखानस के पिता पितरों सहित नरक से छुटकारा पा गये और आकाश में आकर राजा के प्रति यह पवित्र वचन बोले: बेटा ! तुम्हारा कल्याण हो। यह कहकर वे स्वर्ग में चले गये ।

जो इस कल्याणमयी मोक्षदा एकादशी का व्रत करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। प्राणियों को भवबंधन से मुक्ति देने वाली यह एकादशी चिन्तामणि के समान समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली है। मोक्षदा एकादशी की पौराणिक कथा पढने-सुनने से वाजपेय यज्ञ का पुण्य फल मिलता है।

मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी के दिन ही कुरुक्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को श्री मद्भगवद्गीता का उपदेश दिया था । अत:यह तिथि गीता जयंती के नाम से विख्यात हो गई। इस दिन से गीता-पाठ का अनुष्ठान प्रारंभ करें तथा प्रतिदिन थोडी देर गीता अवश्य पढें । गीतारूपी सूर्य के प्रकाश से अज्ञानरूपी अंधकार नष्ट हो जाएगा। इस व्रत को करने वाला दिव्य फल प्राप्त करता है।[19]

पौष मासान्तर्गत एकादशी

सफला एकादशी

धर्मराज युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवान! पौष कृष्ण एकादशी (गुजरात, महाराष्ट्र के अनुसार मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी) का क्या नाम है? इसकी विधि तथा फल क्या है? सो कृपा करके कहिए । भगवान श्रीकृष्ण बोले पौष कृष्ण पक्ष में सफला नाम की एकादशी होती है । इस दिन भगवान नारायण की विधि पूर्वक पूजा करनी चाहिए। यह एकादशी कल्याणकारी एवं समस्त व्रतों में श्रेष्ठ है।

सफला एकादशी के दिन श्रीहरि के विभिन्न नाम-मंत्रों का उच्चारण करते हुए फलों के द्वारा उनका पूजन करें । धूप-दीप से श्रीहरि की अर्चना करें । सफला एकादशी के दिन दीप-दान जरूर करें । एकादशी का रात्रि में जागरण करने से जो फल प्राप्त होता है, वह हजारों वर्ष तक तपस्या करने पर भी नहीं मिलता।

नृपश्रेष्ठ ! पद्मपुराण के उत्तरखण्ड में सफला एकादशी की कथा सुनो । चम्पावती पुरी जो कभी राजा माहिष्मत की राजधानी थी । राजा के पाँच पुत्र थे। उनमें ज्येष्ठ पुत्र सदा पापकर्म में ही लगा रहता था। परस्त्रीगामी और वेश्यासक्त था । तथा वैष्णवों और देवताओं की निन्दा किया करता था । अपने । पुत्र को ऐसा देखकर राजा ने उसका नाम लुम्भक रख दिया। फिर पिता और भाईयों ने मिलकर उसे राज्य से निकाल दिया। लुम्भक गहन वन में चला गया। एक दिन रात में चोरी करते हुए सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया। किन्तु अपने को राजा का पुत्र बताने पर सिपाहियों ने उसे छोड़ दिया। फिर वह वन में लौट आया और मांस तथा वृक्षों के फल खाकर जीवन निर्वाह करने लगा। उस दुष्ट का विश्राम स्थान पीपल वृक्ष बहुत वर्षों पुराना था । उस वन में वह वृक्ष एक महान देवता माना जाता था। पापबुद्धि लुम्भक वहीं निवास करता था । एक दिन किसी संचित पुण्य के प्रभाव से उसके द्वारा एकादशी के व्रत का पालन हो गया। पौष

कृष्ण दशमी के दिन लुम्भक ने फल खाये और रातभर जाड़े के कारण नींद नहीं आयी । सूर्योदय होने पर भी उसे होश नहीं आया । सफला एकादशी के दिन भी लुम्भक बेहोश पड़ा रहा। दोपहर होने पर किसी तरह लड़खड़ाता हुआ वन के भीतर गया। राजन् लुम्भक बहुत से फल लेकर विश्राम स्थल पर लौटा, तब तक सूर्यदेव अस्त हो गये। लुम्भक ने पीपल वृक्ष की जड़ में फल रखते हुए कहा भगवन आप संतुष्ट हों । यों कहकर लुम्भक ने रातभर नींद नहीं ली। इस प्रकार अनायास ही उसने इस व्रत का पालन कर लिया।

उस समय सहसा आकाशवाणी हुई: राजकुमार तुम सफला एकादशी के प्रसाद से राज्य और पुत्र प्राप्त करोगे । इसके बाद उसका रुप दिव्य हो गया। उसकी बुद्धि भगवान विष्णु के भजन में लग गयी । ईश्वर की कृपा से निष्कण्टक राज्य प्राप्त किया और पंद्रह वर्षों तक उसका संचालन करता रहा । उसको मनोज्ञ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । जब वह बड़ा हुआ, तब लुम्भक ने तुरंत ही राज्य की ममता छोड़कर उसे पुत्र को सौंप दिया और वह स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के समीप चला गया ।

सफला एकादशी का व्रत अपने नामानुसार मनोनुकूल फल प्रदान करने वाला है। इस एकादशी के व्रत से व्यक्ति को जीवन में उत्तम फल की प्राप्ति होती है और वह जीवन का सुख भोगकर मृत्यु पश्चात विष्णु लोक को प्राप्त होता है । यह व्रत अति मंगलकारी और पुण्यदायी है। एकादशी के माहात्म्य को सुनने से राजसूय यज्ञ का फल प्राप्त होता है।[20]

पुत्रदा एकादशी

एक बार की बात है, श्री युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवान! पौष शुक्ल एकादशी का क्या नाम है? व्रत करने की विधि तथा इसका माहात्म्य कृपा करके कहिए।

मधुसूदन कहने लगे कि इस एकादशी का नाम पुत्रदा है। अब आप शांतिपूर्वक इसकी कथा सुनिए । इसके सुनने मात्र से ही वायपेयी यज्ञ का फल मिलता है।

पूर्वकाल की बात है, भद्रावतीपुरी में राजा सुकेतु राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम चम्पा था । राजा को बहुत समय तक कोई वंशधर पुत्र नहीं प्राप्त हुआ । इसलिए दोनों पति पत्नी सदा चिन्ता और शोक में डूबे रहते थे । राजा के पितर उनके दिये हुए जल को शोकोच्छवास से गरम करके पीते थे। ‘राजा के बाद और कोई ऐसा नहीं दिखायी देता, जो हम लोगों का तर्पण करेगा यह सोच सोचकर पितर दु:खी रहते थे ।

एक दिन राजा घोड़े पर सवार हो गहन वन में चले गये। पुरोहित आदि किसी को भी इस बात का पता न था । उस वन में राजा भ्रमण करते हुए वन की शोभा देख रहे थे, इतने में दोपहर हो गयी। राजा को भूख और प्यास सताने लगी । वे जल की खोज में इधर उधर भटकने लगे। किसी पुण्य के प्रभाव से उन्हें एक उत्तम सरोवर दिखायी दिया, जिसके समीप मुनियों के बहुत से आश्रम थे । सरोवर के तट पर बहुत से मुनि वेदपाठ कर रहे थे। उन्हें देखकर राजा को बड़ा हर्ष हुआ । वे घोड़े से उतरकर मुनियों के सामने खड़े हो गये और पृथक्-पृथक् उन सबकी वन्दना करने लगे। वे मुनि उत्तम व्रत का पालन करनेवाले थे । जब राजा ने हाथ जोड़कर बारंबार दण्डवत् किया, तब मुनि बोले : 'राजन् ! हम लोग तुम पर प्रसन्न हैं। राजा ने कहा आप लोग कौन हैं ? आपके नाम क्या हैं तथा आप लोग किसलिए यहाँ एकत्रित कृपया यह सब बताइये ।

हुए हैं?

मुनि बोले: राजन् ! हम लोग विश्वेदेव हैं। यहाँ स्नान के लिए आये हैं। आज से पाँचवें दिन माघ का स्नान आरम्भ हो जायेगा । आज ही ‘पुत्रदा’ एकादशी है, जो व्रत करने वाले मनुष्यों को पुत्र देती है। राजा ने कहा विश्वेदेवगण ! यदि आप लोग प्रसन्न हैं तो मुझे पुत्र दीजिये ।

मुनि बोले: राजन्! आज ‘पुत्रदा' नाम की एकादशी है । इसका व्रत बहुत विख्यात है। इस उत्तम व्रत का पालन करो । महाराज! भगवान केशव के प्रसाद से तुम्हें पुत्र अवश्य प्राप्त होगा ।

तुम आज

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं: युधिष्ठिर! इस प्रकार उन मुनियों के कहने से राजा ने उक्त उत्तम व्रत का पालन किया । महर्षियों के उपदेश के अनुसार विधिपूर्वक ‘पुत्रदा एकादशी' का अनुष्ठान किया । फिर द्वादशी को पारण करके मुनियों के चरणों में बारंबार मस्तक झुकाकर राजा अपने घर आये । तदनन्तर रानी ने गर्भधारण किया। प्रसवकाल आने पर पुण्यकर्मा राजा को तेजस्वी पुत्र प्राप्त हुआ, जिसने अपने गुणों से पिता को संतुष्ट कर दिया । वह प्रजा का पालक हुआ।

इसलिए राजन्! ‘पुत्रदा’ का उत्तम व्रत अवश्य करना चाहिए। मैंने लोगों के हित के लिए तुम्हारे सामने इसका वर्णन किया है। जो मनुष्य एकाग्रचित्त होकर ‘पुत्रदा एकादशी' का व्रत करते हैं, वे इस लोक में पुत्र पाकर मृत्यु के पश्चात् स्वर्गगामी होते हैं। इस माहात्म्य को पढ़ने और सुनने से अग्निष्टोम यज्ञ का फल मिलता है।[21]

माघ मासान्तर्गत एकादशी

षट्तिला एकादशी

• षटतिला एकादशी

धर्मराज युधिष्ठिर कहने लगे कि हे भगवान! माघ कृष्ण एकादशी (गुजरात, महाराष्ट्र के अनुसार पौष कृष्ण एकादशी) का क्या नाम है? इसकी विधि तथा फल क्या है? सो कृपा करके कहिए । नारद मुनि त्रिलोक भ्रमण करते हुए भगवान विष्णु के धाम वैकुण्ठ पहुंचे। वहां पहुंच कर उन्होंने वैकुण्ठ पति को प्रणाम करके उनसे अपनी जिज्ञास व्यक्त करते हुए प्रश्न किया कि प्रभु षट्तिला एकादशी की क्या कथा है और इस एकादशी को करने से कैसा पुण्य मिलता है।

देवर्षि द्वारा विनित भाव से इस प्रकार प्रश्न किये जाने पर भगवान विष्णु ने कहा प्राचीन काल में पृथ्वी पर एक ब्राह्मणी रहती थी । ब्राह्मणी मुझमें बहुत ही श्रद्धा एवं भक्ति रखती थी । यह स्त्री मेरे निमित्त सभी व्रत रखती थी। एक बार इसने एक महीने तक व्रत रखकर मेरी आराधना की । व्रत के प्रभाव से स्त्री का शरीर तो शुद्ध हो गया परंतु यह स्त्री कभी ब्राह्मण एवं देवताओं के निमित्त अन्न दान नहीं करती थी अत: मैंने सोचा कि यह स्त्री बैकुण्ड में रहकर भी अतृप्त रहेगी अत: मैं स्वयं एक दिन भिक्षा लेने पहुंच गया ।

स्त्री से जब मैंने भिक्षा मांगी तब उसने एक मिट्टी का पिण्ड उठाकर मेरे हाथों पर रख दिया। मैं वह पिण्ड लेकर अपने धाम लौट आया। कुछ दिनों पश्चात वह स्त्री भी देह त्याग कर मेरे लोक में आ गयी । यहां उसे एक कुटिया और आम का पेड़ मिला। खाली कुटिया को देखकर वह स्त्री घबराकर मेरे समीप आई और बोली की मैं तो धर्मपरायण हूं फिर मुझे खाली कुटिया क्यों मिली है । तब मैंने उसे बताया कि यह अन्नदान नहीं करने तथा मुझे मिट्टी का पिण्ड देने से हुआ है।

मैंने फिर उस स्त्री से बताया कि जब देव कन्याएं आपसे मिलने आएं तब आप अपना द्वार तभी खोलना जब वे आपको षट्तिला एकादशी के व्रत का विधान बताएं । स्त्री ने ऐसा ही किया और जिन विधियों को देवकन्या ने कहा था उस विधि से ब्रह्मणी ने षट्तिला एकादशी का व्रत किया । व्रत के प्रभाव से उसकी कुटिया अन्न धन से भर गयी । इसलिए हे नारद इस बात को सत्य मानों कि जो व्यक्ति इस एकादशी का व्रत करता है और तिल एवं अन्न दान करता है उसे मुक्ति और वैभव की प्राप्ति होती है, हलाकि हमारे शास्त्रों में कहीं भी व्रत करने का प्रावधान नहीं है।

व्रत विधान के विषय में जो पुलस्य ऋषि ने दलभ्य ऋषि को बताया वह यहां प्रस्तुत है। ऋषि कहते हैं माघ का महीना पवित्र और पावन होता है इस मास में व्रत और तप का बड़ा ही महत्व है। इस माह में कृष्ण पक्ष में आने वाली एकादशी को षट्तिला कहते हैं । षट्तिला एकादशी के दिन मनुष्य को भगवान विष्णु के निमित्त व्रत रखना चाहिए। व्रत करने वालों को गंध, पुष्प, धूप दीप, ताम्बूल सहित विष्णु भगवान की षोड्षोपचार से पूजन कर अर्घ्य देना चाहिए। उड़द और तिल मिश्रित खिचड़ी बनाकर भगवान को भोग लगाना चाहिए । रात्रि के समय तिल से 108 बार ॐ नमो भगवते वासुदेवाय स्वाहा इस मंत्र से हवन करना चाहिए। अर्घ्य मंत्र-

कृष्ण कृष्ण कृपालुस्त्वमगतीनां गतिर्भव । संसारार्णवमग्नानां प्रसीद पुरुषोत्तम ॥

नमस्ते पुण्डरीकाक्ष नमस्ते विश्वभावन । सुब्रह्मण्य नमस्तेऽस्तु महापुरुष पूर्वज ॥

गृहाणार्ध्यं मया दत्तं लक्ष्म्या सह जगत्पते ।

सच्चिदानन्दस्वरुप श्रीकृष्ण ! आप बड़े दयालु हैं। हम आश्रयहीन जीवों के आप आश्रयदाता होइये । हम संसार समुद्र में डूब रहे हैं, आप हम पर प्रसन्न होइये । कमलनयन ! विश्वभावन ! सुब्रह्मण्य ! महापुरुष ! सबके पूर्वज ! आपको नमस्कार है ! जगत्पते ! मेरा दिया हुआ अर्ध्य आप लक्ष्मीजी के साथ स्वीकार करें ।

तत्पश्चात् ब्राह्मण की पूजा करें । उसे जल का घड़ा, छाता, जूता और वस्त्र दान करें । दान करते समय ऐसा कहें इस दान के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण मुझ पर प्रसन्न हों। अपनी शक्ति के अनुसार श्रेष्ठ ब्राह्मण को काली गौ का दान करें । द्विजश्रेष्ठ विद्वान पुरुष को चाहिए कि वह तिल से भरा हुआ पात्र भी दान करे ।

इस व्रत में तिल का छ: रूप में दान करना उत्तम फलदायी होता है। जो व्यक्ति जितने रूपों में तिल का दान करता है उसे उतने हज़ार वर्ष स्वर्ग में स्थान प्राप्त होता है । ऋषिवर ने जिन 6 प्रकार के तिल दान की बात कही है वह इस प्रकार हैं

१. तिल मिश्रित जल से स्नान

२. तिल का उबटन

३. तिल का तिलक

४. तिल मिश्रित जल का सेवन

५. तिल का भोजन

६. तिल से हवन ।

इन चीजों का स्वयं भी प्रयोग करें और किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण को बुलाकर उन्हें भी इन चीज़ों का दान

दें।

इस प्रकार जो षट्तिला एकादशी का व्रत रखते हैं भगवान उनको अज्ञानता पूर्वक किये गये सभी अपराधों से मुक्त कर देते हैं और पुण्य दान देकर स्वर्ग में स्थान प्रदान करते हैं। कथन को सत्य मानकर जो भग्वत् भक्त यह व्रत करता हैं उनका निश्चित ही प्रभु उद्धार करते हैं ।[22]

जया एकादशी

युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा : भगवन् ! कृपा करके यह बताइये कि माघ शुक्लपक्ष में कौन सी एकादशी होती है, उसकी विधि क्या है तथा उसमें किस देवता का पूजन किया जाता है ?

श्री कृष्ण कहते हैं माघ शुक्ल पक्ष की एकादशी को "जया एकादशी" कहते हैं। यह एकादशी बहुत ही पुण्यदायी है, इस एकादशी का व्रत करने से व्यक्ति नीच योनि जैसे भूत, प्रेत, पिशाच की योनि से मुक्त हो जाता है। श्री कृष्ण ने इस संदर्भ में एक कथा भी युधिष्ठिर को सुनाई।

नंदन वन में उत्सव चल रहा था । इस उत्सव में सभी देवता, सिद्ध संत और दिव्य पुरूष वर्तमान थे । उस समय गंधर्व गायन कर रहे थे और गंधर्व कन्याएं नृत्य प्रस्तुत कर रही थीं। सभा में माल्यवान नामक एक गंधर्व और चित्रसेन मालिनी की गंधर्व कन्या पुष्पवती का नृत्य चल रहा था । इसी बीच पुष्यवती की नज़र जैसे ही माल्यवान पर पड़ी वह उस पर मोहित हो गयी । पुष्यवती सभा की मर्यादा को भूलकर ऐसा नृत्य करने लगी कि माल्यवान उसकी ओर आकर्षित हो । माल्यवान गंधर्व कन्या की भंगिमा को देखकर सुध बुध खो बैठा और गायन की मर्यादा से भटक गया जिससे सुर ताल उसका साथ छोड़ गये ।

इन्द्र को पुष्पवती और माल्यवान के अमर्यादित कृत्य पर क्रोध हो आया और उन्होंने दोनों को श्राप दे दिया कि आप स्वर्ग से वंचित हो जाएं और मृत्यु लोक में पिशाच योनि आप दोनों को प्राप्त हों । इस श्राप से तत्काल दोनों पिशाच बन गये और हिमालय पर्वत पर एक वृक्ष पर दोनों का निवास बन गया। यहां पिशाच योनि में इन्हें अत्यंत कष्ट भोगना पड़ रहा था। एक बार माघ शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन दोनो अत्यंत दु:खी थे उस दिन वे केवल फलाहार रहे । रात्रि के समय दोनों को बहुत ठंढ़ लग रही थी अत: दोनों रात भर साथ बैठ कर जागते रहे। ठंढ़ के कारण दोनों की मृत्यु हो गयी और अनजाने में जया एकादशी का व्रत हो जाने से दोनों को पिशाच योनि से मुक्ति भी मिल गयी । अब माल्यवान और पुष्पवती पहले से भी हो गयी और स्वर्ग लोक में उन्हें स्थान मिल गया । सुन्दर

देवराज ने जब दोनों को देखा तो चकित रह गये और पिशाच योनि से मुक्ति कैसी मिली यह पूछा। माल्यवान के कहा यह भगवान विष्णु की जया एकादशी का प्रभाव है । हम इस एकादशी के प्रभाव से पिशाच योनि से मुक्त हुए हैं । इन्द्र इससे अति प्रसन्न हुए और कहा कि आप जगदीश्वर के भक्त हैं इसलिए आप अब से मेरे लिए आदरणीय है आप स्वर्ग में आनन्द पूर्वक विहार करें । से

श्री कृष्ण ने कहा कि जया एकादशी के दिन भगवान विष्णु ही पूजनीय हैं। जो भक्त इस एकादशी का व्रत रखते हैं उन्हें दशमी तिथि को एक समय सात्विक आहार करना चाहिए। एकादशी के दिन श्री विष्णु का ध्यान, संकल्प, धूप, दीप, चंदन, फल, तिल, एवं पंचामृत से पूजा करे। पूरे दिन व्रत रखें संभव हो तो रात्रि में भी व्रत रखकर जागरण करें। अगर रात्रि में व्रत संभव न हो तो फलाहार कर सकते हैं। द्वादशी के दिन ब्राह्मणों को भोजन करवाकर उन्हें जनेऊ सुपारी देकर विदा करें फिर भोजन करें। ,

इस प्रकार नीयम निष्ठा से जया व्रत रखने से व्यक्ति ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है। उसने सब प्रकार के दान दे दिये और सम्पूर्ण यज्ञों का अनुष्ठान कर लिया। इस माहात्म्य के पढ़ने और सुनने से अग्निष्टोम यज्ञ का फल मिलता है।[23]

फाल्गुन मासान्तर्गत एकादशी

विजया एकादशी

युधिष्ठिर एवं अर्जुन कहने लगे कि हे भगवान ! फाल्गुन कृष्ण एकादशी (गुजरात, महाराष्ट्र के अनुसार माघ कृष्ण एकादशी) का क्या नाम है? इसकी विधि तथा फल क्या है? सो कृपा करके कहिए ।

विजया एकादशी अपने नामानुसार विजय प्रादन करने वाली है। भयंकर शत्रुओं से जब आप घरे हों और पराजय सामने खड़ी हो उस विकट स्थिति में विजया नामक एकादशी आपको विजय दिलाने की क्षमता रखता है। प्राचीन काल में कई राजे महाराजे इस व्रत के प्रभाव से अपनी निश्चित हार को जीत में बदल चुके हैं । इस महाव्रत के विषय में पद्म पुराण और स्कन्द पुराण में अति सुन्दर वर्णन मिलता है ।

भगवान कृष्ण कहते हैं प्रिय अर्जुन फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी विजया एकादशी के नाम से जानी जाती है । इस एकादशी का व्रत करने वाला सदा विजयी रहता है । हे अर्जुन तुमसे पूर्व केवल देवर्षि नारद ही इस कथा को ब्रह्मा जी से सुन पाए हैं। तुम मेरे प्रिय हो इसलिए तुम मुझसे यह कथा सुनो ।

त्रेतायुग की बात है श्री रामचन्द्र जी जो विष्णु के अंशावतार थे अपनी पत्नी सीता को ढूंढते हुए सागर तट पर पहुंचे। सागर तट पर भगवान का परम भक्त जटायु नामक पक्षी रहता था । उस पक्षी ने बताया कि सीता माता को सागर पार लंका नगरी का राजा रावण ले गया है और माता इस समय आशोक वाटिका

में हैं। जटायु द्वारा सीता का पता जानकर श्रीराम चन्द्र जी अपनी वानर सेना के साथ लंका पर आक्रमण की तैयारी करने लगे परंतु सागर के जल जीवों से भरे दुर्गम मार्ग से होकर लंका पहुंचना प्रश्न बनकर खड़ा था । भगवान श्री राम को जब सागर पार जाने का कोई मार्ग नहीं मिल रहा था तब उन्होंने लक्ष्मण से पूछा कि हे लक्ष्मण इस सागर को पार करने का कोई उपाय मुझे सूझ नहीं रहा अगर तुम्हारे पास कोई उपाय है तो बताओ । श्री रामचन्द्र जी की बात सुनकर लक्ष्मण बोले प्रभु आपसे तो कोई भी बात छिपी नहीं है आप स्वयं सर्वसामर्थवान है फिर भी मैं कहूंगा कि यहां से आधा योजन दूर परम ज्ञानी वकदाल्भ्य मुनि का निवास हैं हमें उनसे ही इसका हल पूछना चाहिए । ।

भगवान श्रीराम लक्ष्मण समेत वकदाल्भ्य मुनि के आश्रम में पहुंचे और उन्हें प्रणाम करके अपना प्रश्न उनके सामने रख दिया। मुनिवर ने कहा हे राम आप अपनी सेना समेत फाल्गुन कृष्ण एकादशी का व्रत रखें, इस एकादशी के व्रत से आप निश्चित ही समुद्र को पार कर रावण को पराजित कर देंगे। श्री रामचन्द्र जी ने अपनी सेना समेत मुनिवर के बताये विधान के अनुसार एकादशी का व्रत रखा और सागर पर पुल का निर्माण कर लंका पर चढ़ाई की। राम और रावण का युद्ध हुआ जिसमें रावण मारा गया ।

हे अर्जुन दशमी के दिन एक वेदी बनाकर उस पर सप्तधान रखें फिर अपने सामर्थ्य के अनुसार स्वर्ण, रजत, ताम्बा अथवा मिट्टी का कलश बनाकर उस पर स्थापित करें। एकदशी के दिन उस कलश में पंचपल्लव रखकर श्री विष्णु की मूर्ति स्थापित करें और विधि सहित धूप, दीप, चंदन, फूल, फल एवं तुलसी से प्रभु का पूजन करें। व्रती पूरे दिन भगवान की कथा का पाठ एवं श्रवण करें और रात्रि में कलश के सामने बैठकर जागरण करे । द्वादशी के दिन कलश को योग्य ब्राह्मण अथवा पंडित को दान कर दें ।[24]

आमलकी एकादशी

आमलकी एकादशी

युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा : श्रीकृष्ण ! मुझे फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम और माहात्म्य बताने की कृपा कीजिये ।

भगवान विष्णु जी ने जब सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा को जन्म दिया उसी समय भगवान विष्णु के थूकने पर उनके मुख से चन्द्रमा के समान कान्तिमान एक बिन्दु प्रकट होकर पृथ्वी पर गिरा। उसीसे आमलकी (आँवले) का महान वृक्ष उत्पन्न हुआ, जो सभी वृक्षों का आदिभूत कहलाता है।

आंवले को भगवान विष्णु ने आदि वृक्ष के रूप में प्रतिष्ठित किया है । इसके हर अंग में ईश्वर का स्थान माना गया है । इसके स्मरण मात्र से गोदान का फल मिलता है। स्पर्श करने से इससे दुगना और फल भक्षण करने से तिगुना पुण्य प्राप्त होता है। यह सब पापों को हरनेवाला वैष्णव वृक्ष है। इसके मूल में विष्णु, उसके ऊपर ब्रह्मा, स्कन्ध में परमेश्वर भगवान रुद्र, शाखाओं में मुनि, टहनियों में देवता, पत्तों में वसु, फूलों में मरुद्गण तथा फलों में समस्त प्रजापति वास करते हैं। आमलक सर्वदेवमय है। अत: विष्णुभक्त पुरुषों के लिए यह परम पूज्य है । इसलिए सदा प्रयत्नपूर्वक आमलक का सेवन करना चाहिए।'

भगवान विष्णु ने कहा है जो प्राणी स्वर्ग और मोक्ष प्राप्ति की कामना रखते हैं उनके लिए फाल्गुन शुक्ल पक्ष में जो पुष्य नक्षत्र में एकादशी हो तो वह महान पुण्य देनेवाली और बड़े बड़े पातकों का नाश करनेवाली होती है । इस एकादशी को आमलकी एकादशी के नाम से जाना जाता है ।

स्नान करके भगवान विष्णु की प्रतिमा के समक्ष हाथ में तिल, कुश, मुद्रा और जल लेकर संकल्प करें कि मैं भगवान विष्णु की प्रसन्नता एवं मोक्ष की कामना से आमलकी एकादशी का व्रत रखता हूं । मेरा यह व्रत सफलता पूर्वक पूरा हो इसके लिए श्री हरि मुझे अपनी शरण में रखें। संकल्प के पश्चात षोड्षोपचार सहित भगवान की पूजा करें।

भगवान की पूजा के पश्चात पूजन सामग्री लेकर आंवले के वृक्ष की पूजा करें । सबसे पहले वृक्ष के चारों की भूमि को साफ करें और उसे गाय के गोबर से पवित्र करें। पेड़ की जड़ में एक वेदी बनाकर उस पर कलश स्थापित करें । इस कलश में देवताओं, तीर्थों एवं सागर को आमंत्रित करें। कलश में सुगन्धी और पंच रत्न रखें । इसके ऊपर पंच पल्लव रखें फिर दीप जलाकर रखें। कलश के कण्ठ में श्रीखंड चंदन का लेप करें और वस्त्र पहनाएं। अंत में कलश के ऊपर श्री विष्णु के छठे अवतार परशुराम की स्वर्ण मूर्ति स्थापित करें और विधिवत रूप से परशुराम जी की पूजा करें । रात्रि में भगवत कथा व भजन कीर्तन करते हुए प्रभु का स्मरण करें।

द्वादशी के दिन प्रात: ब्राह्मण को भोजन करवाकर दक्षिणा दें साथ ही परशुराम की मूर्ति सहित कलश ब्राह्मण को भेंट करें। इन क्रियाओं के पश्चात परायण करके अन्न जल ग्रहण करें। पश्चिमी राजस्थान में आंवला वृक्ष नही होने पर औरते खेजड़ी वृक्ष की पुजा करती हैं।[25]

अधिक मासान्तर्गत एकादशी

परमा(कमला) एकादशी

अधिक (मलमास) (3 वर्ष में एक बार) - पुरुषोत्तम ॥

• परमा (कमला / हरिवल्लभा) एकादशी

अर्जुन बोले : हे जनार्दन ! आप अधिक (लौंद/मल/पुरुषोत्तम) मास के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम तथा उसके व्रत की विधि बतलाइये। इसमें किस देवता की पूजा की जाती है तथा इसके व्रत से क्या फल मिलता है?

अधिक मास में दो एकादशी होती है जो परमा और पद्मिनी के नाम से जानी जाती है। अधिक मास में कृष्ण पक्ष में जो एकादशी आती है वह हरिवल्लभा अथवा परमा एकदशी के नाम से जानी जाती है ऐसा श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है। परमा एकादशी का जो महात्मय है आइये पहले हम उसे देखते हैं।

काम्पिल्य नगरी में सुमेधा नामक एक ब्राह्मण अपनी पत्नी के साथ निवास करता था । ब्रह्मण धर्मात्मा था और उसकी पत्नी पतिव्रता । यह परिवार स्वयं भूखा रह जाता परंतु अतिथियों की सेवा हृदय से करता । धनाभाव के कारण एक दिन ब्राह्मण ने ब्राह्मणी से कहा कि धनोपार्जन के लिए मुझे परदेश जाना चाहिए क्योंकि अर्थाभाव में परिवार चलाना अति कठिन है।

ब्राह्मण की पत्नी ने कहा कि मनुष्य जो कुछ पाता है वह अपने भाग्य से पाता है। हमें पूर्व जन्म के फल के कारण यह ग़रीबी मिली है अत: यहीं रहकर कर्म कीजिए जो प्रभु की इच्छा होगी वही होगा । ब्रह्मण को पत्नी की बात ठीक लगी और वह परदेश नहीं गया। एक दिन संयोग से कौण्डिल्य ऋषि उधर से गुजर रहे थे तो उस ब्रह्मण के घर पधारे। ऋषि को देखकर ब्राह्मण और ब्राह्मणी अति प्रसन्न हुए। उन्होंने ऋषिवर की खूब आवभगत की ।

ऋषि उनकी सेवा भावना को देखकर काफी खुश हुए और ब्राह्मण एवं ब्राह्मणी द्वारा यह पूछे जाने पर की उनकी गरीबी और दीनता कैसे दूर हो सकती है, उन्होंने कहा मल मास में जो शुक्ल पक्ष की एकादशी होती है वह परमा एकादशी के नाम से जानी जाती है, इस एकादशी का व्रत आप दोनों रखें । ऋषि ने कहा यह एकादशी धन वैभव देती है तथा पाप का नाश कर उत्तम गति भी प्रदान करने वाली है। किसी समय में धनाधिपति कुबेर ने इस व्रत का पालन किया था जिससे प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें धनाध्यक्ष का पद प्रदान किया ।

समय आने पर सुमेधा नामक उस ब्राह्मण ने विधि पूर्वक इस एकादशी का व्रत रखा जिससे उनकी गरीबी का अंत हुआ और पृथ्वी पर काफी समय तक सुख भोगकर वे पति पत्नी श्री विष्णु के उत्तम लोक को प्रस्थान कर गये ।

इस एकादशी व्रत की विधि बड़ी ही कठिन है । इस व्रत में पांच दिनों तक निराहार रहने का व्रत लिया जाता है। व्रती को एकादशी के दिन स्नान करके भगवान विष्णु के समक्ष बैठकर हाथ में जल एवं फूल लेकर संकल्प करना चाहिए। इसके पश्चात भगवान की पूजा करनी चाहिए। इसके बाद पांच दिनों तक श्री हरि में मन लगाकर व्रत का पालन करना चाहिए। पांचवें दिन ब्रह्मण को भोजन करवाकर दान दक्षिणा सहित विदा करने के पश्चात व्रती को स्वयं भोजन करना चाहिए। गरीबी का अंत हुआ और पृथ्वी पर काफी समय तक सुख भोगकर वे पति पत्नी श्री विष्णु के उत्तम लोक को प्रस्थान कर गये ।

इस एकादशी व्रत की विधि बड़ी ही कठिन है। इस व्रत में पांच दिनों तक निराहार रहने का व्रत लिया जाता है। व्रती को एकादशी के दिन स्नान करके भगवान विष्णु के समक्ष बैठकर हाथ जल एवं फूल लेकर संकल्प करना चाहिए। इसके पश्चात भगवान की पूजा करनी चाहिए। इसके बाद पांच दिनों तक श्री हरि में मन लगाकर व्रत का पालन करना चाहिए। पांचवें दिन ब्रह्मण को भोजन करवाकर दान दक्षिणा सहित विदा करने के पश्चात व्रती को स्वयं भोजन करना चाहिए ।[26]

पद्मिनी(समुद्रा) एकादशी

पद्मिनी (समुद्रा) एकादशी

अर्जुन ने कहा: हे भगवन् ! अब आप अधिक (लौंद/ मल/ पुरुषोत्तम) मास की शुक्लपक्ष की एकादशी के विषय में बतायें, उसका नाम क्या है तथा व्रत की विधि क्या है? इसमें किस देवता की पूजा की जाती है और इसके व्रत से क्या फल मिलता है?

श्रीकृष्ण बोले : हे पार्थ ! अधिक मास की एकादशी अनेक पुण्यों को देनेवाली है, उसका नाम ‘पद्मिनी’ है। इस एकादशी के व्रत से मनुष्य विष्णुलोक को जाता है। यह अनेक पापों को नष्ट करनेवाली तथा मुक्ति और भक्ति प्रदान करनेवाली है। इस व्रत के पालन से व्यक्ति सभी प्रकार के यज्ञों, व्रतों एवं तपस्चर्या का फल प्राप्त कर लेता है । इस व्रत की कथा के अनुसार:

श्री कृष्ण कहते हैं त्रेता युग में एक परम पराक्रमी राजा कीतृवीर्य था । इस राजा की कई रानियां थी परन्तु किसी भी रानी से राजा को पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई। संतानहीन होने के कारण राजा और उनकी रानियां तमाम सुख सुविधाओं के बावजूद दु:खी रहते थे। संतान प्राप्ति की कामना से तब राजा अपनी रानियों के साथ तपस्या करने चल पड़े । हजारों वर्ष तक तपस्या करते हुए राजा की सिर्फ हड्रियां ही शेष रह गयी परंतु उनकी तपस्या सफल न रही । रानी ने तब देवी अनुसूया से उपाय पूछा। देवी ने उन्हें मल मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करने के लिए कहा। अनुसूया ने रानी को व्रत का विधान भी बताया ।

रानी ने तब देवी अनुसूया के बताये विधान के अनुसार पद्मिनी एकादशी का व्रत रखा । व्रत की समाप्ति पर भगवान प्रकट हुए और वरदान मांगने के लिए कहा। रानी ने भगवान से कहा प्रभु आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरे बदले मेरे पति को वरदान दीजिए । भगवान ने तब राजा से वरदान मांगने के लिए कहा। राजा ने भगवान से प्रार्थना की कि आप मुझे ऐसा पुत्र प्रदान करें जो सर्वगुण सम्पन्न हो जो तीनों लोकों में आदरणीय हो और आपके अतिरिक्त किसी से पराजित न हो। भगवान तथास्तु कह कर विदा हो गये। कुछ समय पश्चात रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया जो कार्तवीर्य अर्जुन के नाम से जाना गया। कालान्तर में यह बालक अत्यंत पराक्रमी राजा हुआ जिसने रावण को भी बंदी बना लिया था ।

भगवान श्री कृष्ण ने एकादशी का जो व्रत विधान बताया है वह इस प्रकार है । एकादशी के दिन स्नानादि से निवृत होकर भगवान विष्णु की विधि पूर्वक पूजन करें। निर्जल व्रत रखकर पुराण का श्रवण अथवा पाठ करें। रात्रि में भी निर्जल व्रत रखें और भजन कीर्तन करते हुए जागरण करें। रात्रि में प्रति पहर विष्णु और शिव की पूजा करें। प्रत्येक प्रहर में भगवान को अलग-अलग भेंट प्रस्तुत करें जैसे प्रथम प्रहर में नारियल, दूसरे प्रहर में बेल, तीसरे प्रहर में सीताफल और चौथे प्रहर में नारंगी और सुपारी निवेदित करें ।

द्वादशी के दिन प्रात: भगवान की पूजा करें फिर ब्राह्मण को भोजन करवाकर दक्षिणा सहित विदा करें इसके पश्चात स्वयं भोजन करें।

इस प्रकार इस एकादशी का व्रत करने से मनुष्य जीवन सफल होता है, व्यक्ति जीवन का सुख भोगकर श्री हरि के लोक में स्थान प्राप्त करता है।[27]

उद्धरण

  1. श्री प्रेमदत्तशर्मा, एकादशीमाहात्म्यम् , चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस,वाराणसी सन् १९५८ (पृ० सं०२/३)।
  2. संक्षिप्त पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, (पृ०सं०६५८/ ६५९)।
  3. संक्षिप्त पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, (पृ०सं०६५९/ ६६०)।
  4. संक्षिप्त पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, (पृ०सं०६६०/ ६६२)।
  5. संक्षिप्त पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, (पृ०सं०६६१/ ६६२)।
  6. संक्षिप्त पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, (पृ०सं०६६२)।
  7. संक्षिप्त पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, (पृ०सं०६६३/ ६६४)।
  8. संक्षिप्त पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, (पृ०सं०६६५/ ६६६)।
  9. संक्षिप्त पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, (पृ०सं०६६६)।
  10. संक्षिप्त पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, (पृ०सं०६६७/ ६६८)।
  11. संक्षिप्त पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, (पृ०सं०६६९/ ६७०)।
  12. संक्षिप्त पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, (पृ०सं०६७०)।
  13. संक्षिप्त पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, (पृ०सं०६७१)।
  14. संक्षिप्त पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, (पृ०सं०६७२ )।
  15. संक्षिप्त पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, (पृ०सं०६७३)।
  16. संक्षिप्त पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, (पृ०सं०६७४)।
  17. संक्षिप्त पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, (पृ०सं०६७५)।
  18. संक्षिप्त पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, (पृ०सं०६७६)।
  19. संक्षिप्त पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, (पृ०सं० ६४७)।
  20. संक्षिप्त पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, (पृ०सं०६४९)।
  21. संक्षिप्त पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, (पृ०सं०६४९)।
  22. संक्षिप्त पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, (पृ०सं०६५१)।
  23. संक्षिप्त पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, (पृ०सं०६५१)।
  24. संक्षिप्त पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, (पृ०सं०६५३/ ६५४)।
  25. संक्षिप्त पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, (पृ०सं०६५४/ ६५५)।
  26. संक्षिप्त पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, (पृ०सं०६७७)।
  27. संक्षिप्त पद्मपुराण, उत्तर खण्ड, गीता प्रेस गोरखपुर, (पृ०सं०६७८/६७९)।