धार्मिक शिक्षा का स्वरुप

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अध्याय ४०

भारत में भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा

विश्वगुरु बनने के लिये, विश्व का कल्याण चाहने के लिये प्रथम भारत में भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा करनी चाहिये ऐसा कहकर इस प्रस्तुति का प्रारम्भ किया था । हमने देखा कि शिक्षा अपने आपमें, अकेले में कार्यरत नहीं हो सकती। उसका सम्बन्ध राष्ट्रजीवन के सभी आयामों के साथ है। आज तो विश्वस्थिति भी शिक्षा को प्रभावित करती है। इसलिये जब तक अर्थव्यवस्था, राज्य की भूमिका और समाज की स्थिति नहीं बदलती। तब तक शिक्षा में परिवर्तन नहीं हो सकता।

परन्तु इन सभी व्यवस्थाओं में परिवर्तन होगा कैसे ? परिवर्तन की संकल्पना और स्वरूप, परिवर्तन की प्रक्रिया निश्चित कौन करेगा ? शासन और प्रशासन तो चाहकर भी यह नहीं कर सकता। यह उनका विषय ही नहीं है। निश्चित ही विश्वविद्यालयों को इस कार्य का दायित्व लेना होगा।

इससे एक दुविधा निर्माण होती है। जब तक अन्य व्यवस्थायें नहीं बदलती हैं तब तक शिक्षा में परिवर्तन नहीं हो सकता और जब तक शिक्षा नहीं बदलती तब तक अन्य व्यवस्थायें नहीं बदलतीं । यह परिवर्तन परस्परावलम्बी है। ऐसी स्तिति में पहल शिक्षा को ही करनी होगी। अन्य व्यवस्थाओं के परिवर्तन की आवश्यकता बताते हुए इन व्यवस्थाओं का प्रारूप तैयार करना होगा। इसकी एक राष्ट्रव्यापी बहस छेडनी होगी। इन व्यवस्थाओं से सम्बन्धित विषयों के नये पाठ्यक्रम बनाने होंगे। उनके लिये सामग्री तैयार करनी होगी। इन्हें पढाने की व्यवस्था करनी होगी। राज्य और समाज का सहयोग प्राप्त कर अपनी जिम्मेदारी से अध्ययन और अध्यापन करना होगा। इस अद्ययन के अनुसार नई रचनायें खडी करनी होंगी। धीरे धीरे इन व्यवस्थाओं में परिवर्तन होगा तब व्यापक रूप में शिक्षा में भी परिवर्तन होगा।

एक सुलभ उपाय है परिवार को शिक्षा का केन्द्र बनाने का । वास्तव में परिवार एक महत्त्वपूर्ण शिक्षा केन्द्र है भी। इसे विकसित करने में व्यवधान कम होंगे और अनुकूलता अधिक । इस दृष्टि से एक व्यापक योजना बन सकती है।

वैसे भी भारतीय परिवार विश्व के लिये आकर्षण का विषय है। भारत में आज इस व्यवस्था का क्षरण हो रहा है । इसे पुनः सुदृढ बनाने के लिये सर्व प्रकार की शक्ति लगाने की आवश्यकता है । अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र को परिवारकेन्द्रित बनाकर विस्तार किया जा सकता है। संस्कृति से सम्बन्धित सभी बातों का गृहशास्त्र के रूप में अध्ययन हो सकता है। नई पीढी को समर्थ बनाने हेतु अधिजननशास्त्र, बच्चों के संगोपन का शास्त्र, आहारशास्त्र, आरोग्यशास्त्र, उद्योग आदि अनेक विषयों की पुनर्रचना की जा सकती है।

परिवार के शिक्षा केन्द्र के रूप में विवाह के साथ साथ लोकशिक्षा की व्यापक योजना बनाई जा सकती है। भारतीयता की आवश्यकता, भारतीयता का स्वरूप, भारतीय शिक्षा का स्वरूप, भारतीय शिक्षा की आवश्यकता आदि विषयों पर व्यापक जनमानस प्रबोधन की योजना की जा सकती है।

इस प्रकार सीधे सीधे शिक्षा में परिवर्तन करने के स्थान पर व्यापक सन्दर्भो को अनुकूल बनाना चाहिये ।

आज देशभर में ऐसे असंख्य प्रयोग चल रहे हैं। ये प्रयोग ऐसे हैं जिनमें सरकारी मान्यता, परीक्षा, प्रमाणपत्र, नौकरी आदि कुछ भी नहीं हैं। लोग अपनी सन्तानों को स्वयं पढाते हैं। वे इस आसुरी शिक्षा व्यवस्था में अपनी सन्तानों को भेजना नहीं चाहते । अनेक लोग झुग्गीझोंपडियों के बच्चों को पढ़ाने की सेवा करते हैं। अनेक धार्मिक सम्प्रदाय संस्कार केन्द्रों के रूप में धर्मशिक्षा दे रहे हैं। अनेक संगठन वनवासी और ग्रामीण बच्चों के लिये एकल शिक्षक विद्यालय चलाते हैं। ये सब निःशुल्क शिक्षा के प्रयोग हैं। ये समाज की और शिक्षा की सेवा के रूप में चलते हैं।

अनेक धार्मिक संगठन उपनिषदों का अध्ययन करवाते हैं। यह उपदेश नहीं शिक्षा होती है । वेद पाठशालाओं में वेद अभी भी जीवित हैं । स्थान स्थान पर गुरुकुलों के प्रयोग आरम्भ हो रहे हैं।

ये सारे प्रयोग वर्तमान शिक्षा की मुख्य धारा से बाहर हैं। शिक्षा की मुख्य धारा यूरोपीय है परन्तु ये सभी प्रयोग कमअधिक मात्रा में भारतीय है । इन्हें यदि एक साथ रखा जाय तो इनका पलडा मुख्य धारा की शिक्षा के पलडे से भारी होगा । ये सरकार के नहीं, समाज के भरोसे चलते हैं। समाज इनका सम्मान करता है क्योंकि वे समाज की सांस्कृतिक आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। भारत इन के भरोसे भारत है । भारत अभी जीवित है मरा नहीं है इसका श्रेय इन प्रयोगों को है । इन प्रयासों के साथ विश्वविद्यालयों के अद्यापकों को जुडना चाहिये । इनके आधार पर मुख्य धारा की शिक्षा कैसे भारतीय हो इसका प्रारूप बनाना चाहिये । इन प्रयोगों को मुख्य धारा का बलवान पर्याय बनाने की दिशा में विचार करना चाहिये । मुख्य धारा का विरोध करने के स्थान पर वैकल्पिक व्यवस्था को इतना प्रभावी और परिणामकारी बनाना कि मुख्य धारा का कोई प्रयोजन ही न रहे और वैकल्पिक धारा ही मुख्य धारा बन जाय इस दिशा में प्रयासों को ढालना चाहिये।

यह काम सरल तो नहीं है परन्तु असम्भव भी नहीं है। आज की यह परम आवश्यकता है। एक बार भारत बने, भारत में भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा हो तब भारत विश्वस्थिति ठीक करने के अपने दायित्व की ओर ध्यान दे सकता है।

यह बात भी विचारणीय है कि भारत यदि भारत बनता है तो विश्व की आधी समस्यायें तो अपने आप ठीक हो जायेंगी क्योंकि विश्व को अनुसरण के लिये एक प्रतिमान उपलब्ध होगा। फिर अतीत में जिस प्रकार विदेशों से विद्यार्थी आते थे उसी प्रकार फिर से आयेंगे और लाभान्वित होंगे । आज तो विश्व के समक्ष कोई आदर्श ही नहीं है।

भारत भारत बने यह विश्व की आवश्यकता है और भारत की नियति ।

२.

जगत के कल्याण हेतु शिक्षा का विचार करते समय पहला महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह है कि आज भारत में ही शिक्षा उसकी अपनी नहीं है । इसलिये भारत को प्रथम अपने यहाँ भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा करनी होगी।

इस विषय की चर्चा इससे पूर्व के चार ग्रन्थों में विस्तार से की गई है इसलिये यहाँ हम पुनःस्मरण के लिये भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा हेतु भारत क्या कर सकता है इसका निरूपण करेंगे।

१. हमें सर्वप्रथम यह स्वीकार करना होगा कि भारत में शिक्षा भारतीय होनी चाहिये । इस विषय में सन्देह नहीं होना चाहिये कि वैश्विकता के नाम पर आज जो चल रहा है वह वैश्विक नहीं है, पश्चिमी है, और उसमें कुछ भी शैक्षिक नहीं है, जो है वह सब बाजारीकरण है। शिक्षा बाजार में क्रयविक्रय से प्राप्त होनेवाला एक भौतिक पदार्थ है।

२. भारतीय शिक्षा भारतीय जीवनदृष्टि पर आधारित होगी। हमें भारतीय ज्ञानधारा जिन शास्त्रग्रन्थों में सुरक्षित है ऐसे ग्रन्थों के अध्ययन की योजना बनानी होगी। ऐसा अध्ययन प्रथम चरण में शास्त्रीय होगा अर्थात् वेद, उपनिषद और अन्य ग्रन्थ जीवन और जगत के विषय में क्या कहते हैं वह ठीक से समझना होगा। इस अध्ययन में हमें भगवान वेदव्यास से

लेकर भगवान शंकराचार्य से होकर अर्वाचीन काल के श्री अरविन्द और स्वामी विवेकानन्द जैसे मनीषियों से मार्गदर्शन प्राप्त हो सकता है। इस अध्ययन से हमें अपने आपको आश्वस्त करना होगा और स्वयं को विश्वास, दिलाना होगा कि जितना दस हजार वर्ष पूर्व के काल में यह ज्ञान उपयोगी था उतना ही आज भी है। उसके सम्बन्ध में हम विगतकाल अथवा आउट ऑफ डेट जैसा शब्दप्रयोग नहीं कर सकते, किं बहुना अब यही ज्ञान आज के समय में एकमेव उपाय बचा है। इसका स्वीकार किये बिना विकास के और मुक्ति के सारे मार्ग अवरुद्ध हैं।

३. इसके साथ ही यह बात भी हमें समझनी होगी कि शास्त्रीय अध्ययन को व्यावहारिक बनाना होगा । शास्त्र हमारे व्यवहार को निर्देशित करने वाले होने चाहिये । वे जीवन से अलग नहीं रह सकते । आज हमारी यही समस्या है। भारतीय शास्त्रीय वाङ्य का हमारी दैनन्दिन जीवनशैली से कोई सम्बन्ध नहीं रह गया है। हमारे शासन और प्रशासन को, उद्योग और बाजार को, विद्यालयों और घरों को रामायण, महाभारत, गीता के बिना चलता है, किं बहुना उसका कोई ज्ञान आवश्यक ही नहीं लगता । भारतीय ज्ञान सर्वथा अप्रस्तुत बन गया है । इसे प्रस्तुत बनाने का काम शिक्षाक्षेत्र का महत्त्वपूर्ण कार्य है । अर्थात् व्यावहारिक अनुसन्धान को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय बनाना होगा।

इस दृष्टि से आज जो शास्त्रों के अध्ययन की पद्धति चल रही है उसमें भी युगानुकूल परिवर्तन करने होंगे। उदाहरण के लिये आज जो वेद और वेदांगो का अध्ययन चल रहा है उसे प्राचीन अध्ययन पद्धति को जानने समझने और सुरक्षित रखने के साथ साथ वर्तमान समय में काम आ सके ऐसी अध्ययन पद्धति का भी विकास करना होगा। प्राचीन पद्धति से अध्ययन करने वाले नई किसी भी पद्धति के प्रति साशंक रहते हैं। उन्हें वेदों के नष्ट हो जाने का अथवा ज्ञान के दृषित हो जाने । का भय रहता है। उन्हें पूर्ण रूप से आश्वस्त करते हुए भी हमें नई पद्धतियों का विकास करना होगा। जिन्हें शिशुअवस्था से ही संस्कृत का और शास्त्रों का अध्ययन करने का भाग्य प्राप्त नहीं हुआ है परन्तु जो भारतीय जीवनदृष्टि के पक्षधर हैं, भारतीय भाषाओं में जिनका अच्छा अध्ययन है उनके लिये भारतीय शास्त्रग्रन्थों का अध्ययन सुलभ बनाना चाहिये । जो संस्कृत जानते हैं, शास्त्रीय वाङ्य का अध्ययन करते हैं उन्होंने जो संस्कृत नहीं जानते परन्तु अध्ययन करना चाहते हैं उनके लिये सेतु का कार्य करना चाहिये। इसके लिये विशेष प्रतिभा, शास्त्र और समाज दोनों के प्रति निष्ठा और वर्तमान स्थिति का ज्ञान होने की आवश्यकता है। ऐसा एक वर्ग ज्ञान के क्षेत्र में उभरना आवश्यक है। ऐसा अध्ययन ही वर्तमान समस्या का निराकरण करने में यशस्वी हो सकता है। भारतीय ज्ञान के इतिहास में ऐसे प्रयास पूर्व में भी हुए हैं । शास्त्रीय ज्ञान को व्यावहारिक बनाने हेतु ही तो समय समय पर स्मृतियों की रचना हुई है । अतः निशंक मन से वर्तमान समय के लिये स्मृतियों की रचना करनी होगी।

व्यावहारिक अध्ययन के अन्तर्गत हमें विपुल मात्रा में साहित्य का निर्माण करना होगा। समाजजीवन के हर क्षेत्र के लिये ऐसा विपुल साहित्य चाहिये । भारत की सभी भाषाओं में मिलकर ऐसे ग्रन्थों की संख्या हजारों में जाने से ही कुछ परिणाम मिल सकता है।

४. हमें शिक्षा के सन्दर्भो में क्रान्तिकारी परिवर्तन करने होंगे । शिक्षा का ऐसा एक क्रान्तिकारी सूत्र होगा, 'शिक्षा आजीवन चलनेवाली प्रक्रिया है।' इस सूत्र को क्रान्तिकारी इसलिये कहना चाहिये कि आज हमने शिक्षा को विद्यालय, परीक्षा, प्रमाणपत्र और अर्थार्जन में ही सीमित कर दी है। अर्थार्जन जीवन का एक अंग है। भले ही वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अंग हो तो भी वह जीवन का सार सर्वस्व नहीं है। हमें जीवन के लिये शिक्षा की योजना करनी होगी। हमें जीवनविकास के लिये शिक्षा चाहिये । इसके अन्तर्गत अर्थार्जन की शिक्षा का भी समावेश हो जायेगा । अतः गर्भाधान से अन्त्येष्टि संस्कार तक की शिक्षा का एक प्रारूप बनाना होगा। ऐसा नहीं है कि भारत के लिये यह सर्वथा नई बात है। विविध रूप में, विविध पद्धति से वह भारत में प्रचलन में रही है। केवल मध्य के कालखण्ड में उसका विस्मरण हुआ है, उसमें खण्ड हुआ है और शिक्षा की ही क्यों राष्ट्रजीवन की गाडी उल्टी पटरी पर चढ गई है । इसलिये आज हमें यह क्रान्तिकारी लगता है। नये सिरे से इसका विचार करते समय पूर्व की पद्धतियों की सहायता हम अवश्य लें परन्तु विचार और योजना तो आज के सन्दर्भ की ही करें।

इसी प्रकार से दूसरा सूत्र होगा

'शिक्षा सर्वत्र होती है।

यह भी सीमाओं को लाँघना ही है। हमें विद्यालय का भौतिक अर्थ छोडना होगा। अर्थात् विद्यालय का भवन, नियत पाठ्यक्रम, नियत समय, नियत अवधि, सीमित उद्देश्य आदि को छोडकर आवश्यकता के अनुसार व्यक्ति, स्थान, पद्धति, प्रक्रिया आदि का विचार करना होगा । बन्धनों और स्वनिर्मित सीमाओं से मुक्त होकर यदि विचार करेंगे तो ध्यान में आयेगा कि जीवन के प्रारम्भ के साथ ही शिक्षा का प्रारम्भ होता है । जीवन का प्रारम्भ घर में होता है तो शिक्षा का प्रारम्भ भी घर से ही होगा। जिन जिन के साथ सम्पर्क होता है उन सबसे कुछ न कुछ सीखा जाता है। जीवन के प्रारम्भ में मातापिता से, घर के अन्य सदस्यों से, घर में आनेवाले अतिथि अभ्यागों से सम्पर्क होता है, घर से बाहर पडौसियों से, मित्रों से, सगेसम्बन्धियों से सम्पर्क होता ही है । साधु सन्तों, महात्माओं, विद्वानों से सम्पर्क होता है। यही क्यों, दुर्जनों से, चतुर व्यक्तियों से, शठों से भी पाला पडता ही है। व्यापारी, कर्मचारी, अधिकारी आदि से सम्पर्क होता है। इतना ही नहीं जन्म से सम्बन्धित पूर्वजों के रूप में कुल इकहत्तर कुलों से सम्पर्क स्थापित होने के बाद ही हमारा जन्म होता है। इन सबसे हम जाने अनजाने, चाहे अनचाहे सीखते ही रहते हैं । हम किसी को रोक नहीं सकते । न अपने आपको बचा सकते हैं। शिक्षा की प्रक्रिया का इन सभी बातों से सम्बन्ध है । इस बात की हम उपेक्षा नहीं कर सकते।

इसी विशाल क्षेत्र को इस दृष्टि से हमारे यहाँ प्रमुख तीन केन्द्रों में केन्द्रित किया है । ये तीन केनद्र हैं घर, विद्यालय और समाज । यह बात सही है कि हमने 'शिक्षा' इस संज्ञा को विद्यालय के साथ जोडा है और घर और समाज भी विद्यालय हैं ऐसा कहने का प्रचलन बनाया है। इसी कारण से कदाचित आज घर और समाज विद्याकेन्द्र के रूप में विस्मृत हो गये और विद्यालय बाजार के साथ जुड़ गया । हमें इसे ठीक करना होगा, शिक्षा को ही इन अस्वाभाविक बन्धनों से मुक्त करना होगा।

शिक्षा का तीसरा महत्त्वपूर्ण सूत्र होगा, 'शिक्षा राष्ट्रीय होती है।

आज वैश्विकता के सन्दर्भ में हमारा मानस बहुत उलझ गया है । हमें वैश्विकता का मोह हो गया है, यहाँ तक कि हम प्राथमिक शिक्षा भी आन्तर्राष्ट्रीय बोर्ड से संलग्न होकर लेना चाहते हैं। परन्तु यह व्यावहारिक नहीं है। हमें अपनी समझ को ठीक करने की आवश्यकता है। तात्त्विक दृष्टि से हमें वैश्विक बनना है परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से हमें परिवेश के सन्दर्भो से ही जुड़ना होगा । जैसे कि हमें विश्व की सभी स्त्रियों के प्रति माता और बहन जैसा आदर और स्नेह हो सकता है, किंबहुना होना ही चाहिये परन्तु जैविक दृष्टि से हम जन्म देने वाली स्त्री को ही माता और उस माता की कोख से जन्मी लडकी को ही बहन कह सकते हैं। उस माता और बहन के प्रति जो भावना है उसका विस्तार जगत की त्रियों के प्रति हो सकता है। इसी प्रकार हम सामाजिक सम्बन्धों में कुल, गोत्र जैसे रक्तसम्बन्धों से जुड़े हैं। इसी प्रकार हम विश्वमानस होने पर भी राजकीय दृष्टि से भारत के ही नागरिक हो सकते हैं और सांस्कृतिक दृष्टि से भारत के राष्ट्रीय । हमारा विश्वनागरिकत्व राष्ट्र के माध्यम से ही सिद्ध होता है। यदि हम भारतीय नहीं हैं तो वैश्विक भी नहीं हो सकते । विश्वनागरिकता आर्थिक या राजकीय विषय नहीं है, आध्यात्मिक विषय है और संस्कृति और राष्ट्र को पार करके ही हम वैश्विक हो सकते हैं। इसिलिये सर्व प्रकार के व्यावहारिक सन्दर्भो के लिये राष्ट्रीयता ही हमारे लिये अन्तिम सन्दर्भ है।

राष्ट्र का सम्बन्ध स्वभाव से है, धर्म से हैं, संस्कृति से हैं। इन सब को एक पीढी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित करने का एकमात्र साधन शिक्षा है। इसलिये भी शिक्षा राष्ट्रीय होनी चाहिये इस विषय में हमें कोई सन्देह नहीं होना चाहिये।

५. आजीवन शिक्षा, सार्वत्रिक (घर, विद्यालय और समाज में) शिक्षा और राष्ट्रीय शिक्षा के सूत्रों को लेकर हमें शिक्षा की एक व्यापक और सर्वसमावेशक योजना बनाने की आवश्यकता होगी। इस योजना के कुछ आयाम इस प्रकार हो सकते हैं...

विश्वविद्यालयों का एक ऐसा प्रारूप तैयार करना जो भारत की, भारतीय शिक्षा की आवश्यकताओं को समझकर शिक्षा का स्वरूप विकसित कर सके। भारत के वर्तमान विश्वविद्यालयों का प्रारम्भिक ढाँचा लन्दन युनिवर्सिटी के ढाँचे के नमूने पर बना था। सन १८५७ में आरम्भ हुए कोलकोता, मद्रास और बॉम्बे विश्वविद्यालय उस प्रकार के थे । वे देश में चल रही शिक्षा व्यवस्था का संयोजन, नियमन और निर्देश करने के तथा प्रमाणपत्र देने के लिये बने थे। धीरे धीरे वे ऑक्सफर्ड और कैम्ब्रिज के समान अध्यापन भी करने लगे । वर्तमान में वे हार्वर्ड जैसे विश्वविद्यालयों को भी आदर्श के रूप में मानने की स्थिति में पहुँचे हैं । परन्तु भारतीय विश्वविद्यालय का आदर्श लन्दन, ऑक्सफर्ड या हार्वर्ड तो नहीं हो विकास अवरुद्ध हो जाता है। अतः इस शिक्षा का महत्त्व समझाना होगा, आकर्षण बढाना होगा।

  • वर्तमान में भौतिक विज्ञान, तन्त्रज्ञान, प्रबन्धन, प्रौद्योगिकी, संगणक आदि विद्याशाखाओं का महत्त्व बढ गया है। व्यक्ति के और समाज के जीवन पर इसका गहरा विपरीत प्रभाव होता है। हमें समझना चाहिये कि आज जिन्हें हम सामाजिक विज्ञान कहते हैं, परन्तु भारत की भाषा में जिन्हें सांस्कृतिक कहा जाना चाहिये, ऐसे विषयों का अध्ययन केन्द्रवर्ती बनना चाहिये, विज्ञान आदि सांस्कृतिक अध्ययन के अंग के रूप में ही हो सकते हैं । उदाहरण के लिये भारत में आयुर्विज्ञान (मेडिकल सायन्स) आयुर्वेद है और आत्मा की चर्चा के बिना उसका अध्ययन नहीं होता । राजनीति की चर्चा धर्म के बिना नहीं होती, तन्त्रज्ञान संस्कृति और समाज के अविरोधी होता है । इस प्रकार संस्कृति को केन्द्रस्थान में रखकर समस्त ज्ञानक्षेत्र की रचना करनी होगी।

एक अत्यन्त विचित्र और हास्यास्पद बात को हमें तुरन्त बदलना होगा। वाणिज्य विज्ञान या तन्त्रज्ञान पढने वाले को संस्कृत की गन्ध भी नहीं होती। भारतीय जीवनदृष्टि, संस्कृति, इतिहास, वेद, धर्म, भगवद्गीता, ज्ञान और पराक्रमी पूर्वज आदि के बारे में लेशमात्र जानकारी नहीं होती। वे पूर्णरूप से संस्कृति के कटे हुए रहते हैं। अतः आज का विनयन अथवा कलाशाखा, वाणिज्य, तन्त्रज्ञान, विज्ञान आदि विभाजनों को मिटाकर सभी विषयों का सांस्कृतिक आधार पक्का बनाकर, एकदूसरे के साथ उचित समायोजन कर पुनर्रचना करनी होगी।

  • ऐसा करते समय हमें पश्चिम की शिक्षाक्षेत्र की शब्दावलियों से भी मुक्त होना होगा। उदाहरण के लिये हम क्रमशः प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चशिक्षा ऐसी शब्दावली का प्रयोग करते हैं। इन की आयु सीमा भी लगभग निश्चित है । परन्तु ऐसी शब्दावली का क्या प्रयोजन है ? क्या अर्थ है ? कभी कभी प्राथमिक को प्रारम्भिक भी कहा जाता है। ऐसे सन्दर्भहीन और यान्त्रिक शब्दों के स्थान पर सार्थक शब्दों का प्रयोग करना चाहिये । भारत में आयु की अवस्था के अनुसार शिक्षा योजना होती है। जैसे कि शिशुअवस्था, बालअवस्था, किशोरअवस्था आदि । यह विभाजन मनोवैज्ञानिक है । हर अवस्था के अपने लक्षण, स्वभाव, क्षमतायें आवश्यकतायें होती हैं। उसके अनुसार उस अवस्था की शिक्षा की योजना की जाती है । यह एक सार्थक विभाजन है । यह तो एक उदाहरण हुआ। ऐसे तो अनेक परिवर्तन हमें करने होंगे।

अंग्रेजी और पश्चिमी शब्दप्रयोगों का हिन्दी या भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने मात्र से विचार भारतीय नहीं हो जाता। उदाहरण के लिये 'एकेडेमिक डिस्कोर्स' के स्थान पर हम 'अकादमिक चर्चा' शब्द प्रयोग करते हैं। परन्तु ‘अकादमिक चर्चा' का, क्या वही अर्थ होगा जो एकेडेमिक डिस्कोर्स का है ? और क्या हमें पश्चिमी पद्धति से ही शास्त्रार्थ करना होगा ? शास्त्रार्थ की क्या भारतीय पद्धति नहीं होती ? अनुसन्धान के मापदण्ड क्या वही रहेंगे जो पश्चिम के हैं ? वे हमारी विचार पद्धति के साथ कैसे मेल बिठा सकते हैं ? तात्पर्य यह है कि हमें सम्पूर्ण प्रतिमान ही नये से गढना होगा। प्रतिमान गढते समय हमें मध्य के पाँचसौ वर्ष भुलाकर अपने प्राचीन ज्ञान, पद्धति, प्रक्रिया आदि के साथ सन्धान करना होगा । उस अपने प्रतिमान को समझ कर, उसके साथ सन्धान कर वर्तमान युग में वापस आना होगा जहाँ पश्चिम के प्रभाव का ग्रहण हमें लगा हुआ है। अपने स्रोतों से किया हुआ सन्धान हमें पश्चिम के राहु से मुक्त करेगा।

  • नई और स्वतन्त्र शिक्षा योजना बनाते समय हमें शिक्षा के सार्वत्रिक आलम्बन निश्चित करने होंगे। मुख्य रूप से दो बातों का विचार करना होगा।

एक यह कि हमें चरित्रनिर्माण को समस्त शिक्षायोजना का आधार बनाना होगा । चरित्रनिर्माण जैसी महत्त्वपूर्ण बात वर्तमान शिक्षायोजना से नदारद है । इससे अब लोग चिन्तित तो होने लगे हैं परन्तु कोई परिणामकारी उपाय करने में किसी को यश नहीं मिल रहा है । चरित्रनिर्माण की शिक्षा को भिन्न भिन्न प्रकार से कहते हैं। कोई जीवनमूल्यों की शिक्षा कहते हैं तो कोई मूल्यशिक्षा । यह अंग्रेजी शब्द 'वेल्यू एज्युकेशन' का अनुवाद है । कोई इसे नैतिक शिक्षा कहते हैं । विद्याभारती जैसे संगठन इसे नैतिक आध्यात्मिक शिक्षा कहते हैं। कोई इसे अच्छे मनुष्य बनने की शिक्षा कहते हैं । ये सभी नाम सही होने पर भी भारत में इसके लिये अत्यन्त समर्पक शब्द है 'धर्म शिक्षा' । आज अनेक कारणों से 'धर्म' का नाम लेने में सब संकोच करते हैं इसलिये दूसरे शब्दों का प्रयोग करते हैं । परन्तु धर्मप्राण भारत में धर्म का नाम लेने में संकोच की स्थिति का ही प्रथम तो सामना करना चाहिये । 'धर्म' संज्ञा को विवादों से मुक्त करने का बीडा ज्ञानक्षेत्र को उठाना चाहिये और विवादमुक्त धर्म को शिक्षा का आधार बनाना चाहिये । समग्न जीवन यदि धर्मनिष्ठ बनना है तो शिक्षा का प्रथम आलम्बन धर्मशिक्षा है । धर्मशिक्षा सभी के लिये अनिवार्य है। सभी स्तरों पर अनिवार्य है। सभी ज्ञानशाखाओं का आधार है। धर्म आचरण में उतरेगा तभी धर्मशिक्षा सार्थक होगी यह समझकर उसे सैद्धान्तिक से अधिक व्यावहारिक विषय बनाना चाहिये ।

किसी भी विषय के प्रगत अध्ययन के लिये प्रवेश हेतु अनिवार्य योग्यता होनी चाहिये । विनयी, संयमी, सत्यवादी, सेवाभावी, राष्ट्रभक्त और दायित्वबोध से युक्त नहीं है ऐसे व्यक्तिको उच्च शिक्षा का अधिकार ही नहीं दिया जाना चाहिये । इसका अर्थ यह भी है कि किशोर अवस्था तक इन सारे गुणों की उत्तम शिक्षा विद्यार्थी को घर में और विद्यालय में मिलनी चाहिये।

दूसरा आलम्बन है काम करना सिखाना। इसे कर्मशिक्षा कहते हैं । यद्यपि यह अर्थार्जन से सम्बन्ध रखता है तो भी केवल अर्थार्जन ही इसका उद्देश्य नहीं है। क्रिया के बिना ज्ञान । की सार्थकता नहीं है । क्रिया के बिना कुशलता का विकास नहीं होता है। क्रिया के बिना बदि निर्माणशील और चित्त सृजनशील नहीं बनते हैं। क्रिया के बिना अत्कृष्टता और निपुणता नहीं आती है । अतः केवल कर्मेन्द्रियों की कुशलता हेतु ही नहीं तो ज्ञानेन्द्रियों की संवेदनशक्ति, मन की भावनाशक्ति, बुद्धि की कल्पनाशक्ति और निर्माणक्षमता तथा चित्त की सृजनशीलता का विकास नहीं होता । इन सबके परिणाम स्वरूप जो आत्मसन्तोष, आनन्द, प्रसन्नता आदि का अनुभव होता है उससे ही व्यक्ति वंचित रह जाता है। ऐसे व्यक्तियों का बना समाज यान्त्रिक और रुक्ष बनता है। ऐसे लोगोंं के नृत्य, गीत, संगीत भी निम्न स्तर के ही होते हैं । रसिकता, सौन्दयोध, अभिव्यक्ति भी साधारण ही होते हैं । हाँ, जिसे कभी ऐसी बातों का अनुभव ही न हुआ हो । उसे उससे वंचित रहने का दुःख भी नहीं होता । परन्तु मनुष्य ऐसे उच्चकोटी के अनुभवों के लायक है ही। उसे लायक बनाना भी चाहिये । इसके लिये कर्मशिक्षा आवश्यक है।

कर्मशिक्षा का अर्थ है काम करना सिखाना । जीवन में असंख्य प्रकार के काम होते हैं। उठना, बैठना, खडे रहना, चलना आदि से लेकर सफाई करना, पुडिया बाँधना, बिस्तर लगाना, भोजन बनाना से लेकर फर्नीचर बनाना, रास्ते बनाना, मकान बनाना से लेकर वस्त्र बनाना, खेती करना, विभिन्न प्रकार के पात्र बनाना तक के असंख्य काम होते हैं। अपनी रुचि, आवश्यकता और क्षमता के अनुसार हर व्यक्ति को काम करना चाहिये, काम सीखना चाहिये ।

जिस प्रकार हर व्यक्ति के लिये धर्मशिक्षा अनिवार्य है उस प्रकार अधिकांश लोगोंं के लिये काम करना अनिवार्य है । काम सीखना तो सबके लिये अनिवार्य है परन्तु कुछ व्यक्तियों को काम करने से आवश्यकता के अनुसार मुक्ति मिल सकती है । उदाहरण के लिये घर में युवा सन्तानें हों तो वृद्धों को, गुरुकुल में विद्यार्थी हों तो गुरु को, रुग्णों को, अपाहिजों को, दुर्बलों को काम करने से मुक्ति मिल सकती है । शेष सबको तो काम करना ही है।

व्यक्ति का और राष्ट्र का अर्थार्जन और अर्थोत्पादन काम के अनुपात में ही होना चाहिये । यदि काम कम कर यन्त्रों के सहारे अधिक उत्पादन आरम्भ किया तो सम्पूर्ण विश्व में अर्थसंकट पैदा होता है, इतना ही नहीं तो राष्ट्रों राष्ट्रों में विषमता बढ़ती है। शोषण, भ्रष्टाचार, भुखमरी, बेरोजगारी, दारिद्य जैसे सारे अर्थसंकट निर्माण होते हैं। आज वही हो रहा है। परन्तु धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा के अभाव में यह समझ में ही नहीं आता कि कर्मसंस्कृति के अभाव से ये संकट पैदा हुए हैं। हमारी स्थिति ऐसी है कि हमें कर्म भी नहीं चाहिये और संकट भी नहीं चाहिये । परन्तु ऐसा होना असम्भव है ! कर्म नहीं करेंगे तो संकट बढेंगे ही और संकट से मुक्ति चाहिये तो कर्म अर्थात् काम तो करना ही होगा।

वास्तव में काम करने में ही आनन्द का अनुभव हो ऐसी शिक्षा होनी चाहिये । भारत ने पूर्व में ऐसा अनुभव लिया ही है। कुम्हार, किसान, गारा तैयार करने वाला, वस्र बुनने वाला आदि कारीगर अपने काम के साथ गीत, नृत्य, कथा आदि को जोडते थे और काम का आनन्द लेते थे। जिसकी धर्मशिक्षा और कर्मशिक्षा अच्छी हुई है उसे ही शास्त्रों के अध्ययन का अधिकार है । वास्तव में शास्त्रशिक्षा को लेकर हमें साहस या धृष्टता दिखानी पड़ेगी । धर्मशिक्षा सबके लिये अनिवार्य है, कर्मशिक्षा अधिकांश के लिये अनिवार्य है परन्तु शास्त्रशिक्षा न तो सबके लिये अनिवार्य है न आवश्यक । वास्तव में समाज के पाँच या दस प्रतिशत लोगोंं के लिये ही शास्त्रशिक्षा आवश्यक है। सबके लिये शास्त्रशिक्षा का निषेध नहीं है परन्तु शास्त्रशिक्षा को लेकर कुछ बातों की स्पष्टता होनी चाहिये ।

१. जो जिज्ञासु है, तत्पर है, सब कुछ छोडकर, अर्थात् सुखवैभव को छोडकर शास्त्रों का अध्ययन करने के लिये तैयार होता है वही शास्त्रशिक्षा ग्रहण कर सकता है।

शास्त्रों का अध्ययन करनेवाले उसमें युगानुकूल परिवर्तन करनेवाले, लोकव्यवहार को शास्त्रों के

आधार पर परिष्कृत करने वाले और नये शास्त्रों की रचना हेतु तपश्चर्या करने वाले ही शास्त्रों का अध्ययन करें यह उचित है । वर्तमान में ऐसे लोगोंं के अभाव में उच्च शिक्षा की जो दुर्दशा हमने की है वह समय, शक्ति, बुद्धि, धन, अन्य संसाधन आदि का आपराधिक अपव्यय है । इससे न शास्त्र को लाभ है न समाज को न पढने वाले को । परन्तु हमने मोह की पट्टी बाँध रखी है इसलिये प्राथमिक विद्यालयों की तरह महाविद्यालय भी खोलते जा रहे हैं । देश का युवाधन निष्क्रिय निधार्मिक और अज्ञानी रहकर निरुपयोगी हो जाता है।

इसलिये शास्त्रशिक्षा के बारे में हमें पुनर्विचार करना चाहिये । एक सौ पचीस करोड के देश में दस प्रतिशत के हिसाब से बारह करोड पचास लाख और पाँच प्रतिशत के हिसाब से छ: करोड पचीस लाख लोग शास्त्रों से परिचत होने चाहिये । कुल जनसंख्या के यदि एक चौथाई हम विद्यार्थी मान लें तो लगभग ३६ करोड विद्यार्थी होंगे। उनका पाँच प्रतिशत शास्त्रों की शिक्षा हेतु योग्य समझें तो हमें १ करोड अस्सी लाख और दस प्रतिशत लें तो तीन करोड साठ लाख छात्रों के लिये उच्च शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी। उच्च शिक्षा के लिये इतने छात्र देना किशोर अवस्ता की शिक्षा का दायित्व है। यदि इतने भी छात्र वास्तव में उच्च शिक्षा हेतु न आयें तो आज के प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों की विफलता मानी जानी चाहिये । परन्तु शास्त्रशिक्षा के लिये योग्य नहीं हैं ऐसे लोगोंं ने शास्त्रों का अध्ययन नहीं करना चाहिये।

देश में अध्ययन, अनुसन्धान, शास्त्रपरिष्कृति, शास्त्रों की रचना, साहित्य का निर्माण, ज्ञानक्षेत्र को समृद्ध बनाना, प्रजा और राज्य का परामर्शक बनना, राज्य और समाज के संचालन हेतु नीतियाँ बनाना शास्त्रशिक्षा का काम है। इनके विद्यार्थियों और अध्यापकों को विद्वान कहना चाहिये। ये प्रथम सज्जन हैं, दूसरे क्रम में कार्यकुशल हैं और फिर विद्वान हैं । ये देशकाल परिस्थिति के ज्ञाता हैं । आये हुए और भविष्य में आने वाले संकटों को जानते हैं और उनके लिये उपाययोजना करते हैं। ये शासक और प्रजा को सावधानी भी करते हैं और मार्गदर्शन भी करते हैं। राज्य और प्रजा का हित उनके आश्रमय में सुरक्षित हैं । ये निःस्वार्थी हैं, निराभिमानी हैं और विद्याव्रती हैं। किसी भी राष्ट्र की ये अमूल्य निधि होते हैं।

शास्त्रशिक्षा के केन्द्रों की एक महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी है ज्ञानपरम्परा को खण्डित नहीं होने देना और उत्तरोत्तर समृद्ध बनाना । इसलिये भविष्य के लिये अपने ही जैसे और अपने से भी अधिक योग्य नई पीढी के उत्तराधिकारी तैयार करने का दायित्व उच्चशिक्षा को निभाना है। ज्ञानक्षेत्र की उत्कृष्टता कम नहीं होने देना भी उनका दायित्व है। इसलिये उनकी सोच व्यक्तिगत नहीं, राष्ट्रीय होनी चाहिये ।

समस्त प्रजा का अज्ञान दूर करने हेतु, लोकशिक्षा की योजना करना भी उनका ही काम है। संक्षेप में सम्पूर्ण राष्ट्र का ज्ञान क्षेत्र इन के आश्रय में रहता है । इन्हें साथ, सहकार और मार्गदर्शन या परामर्श मिलता है धर्मक्षेत्र से । वास्तव में धर्मक्षेत्र और शिक्षाक्षेत्र का सम्बन्ध एक सिक्के के दो पहलू जैसा है, एक के बिना दूसरा होता ही नहीं है। शिक्षा का प्रयोजन भी राज्य और प्रजा को धर्म सिखाना है।

इस प्रकार शास्त्रशिक्षा का क्षेत्र संख्या में छोटा परन्तु महत्त्व की दृष्टि से बहुत बड़ा है।

इस दृष्टि से देखें तो वर्तमान भारत में शिक्षा की दुर्गति की परिसीमा है । एक ओर तो हमारी चाह है हम विश्वकल्याणकारी विश्वगुरु बनें, एक और विश्व की यह अनिवार्य आवश्यकता बन गई है और दूसरी ओर हमारी स्थिति अत्यन्त शोचनीय है। पश्चिम के

प्रभाव से मुक्त हुए बिना भारत भारत नहीं बन सकता, अपने में स्थित नहीं हो सकता और ऐसा हुए बिना विश्व के तो क्या उसके अपने संकट भी दूर नहीं हो सकते।

राज्य के या उद्योगों के, सत्तावान या अर्थवान के प्रयासों से यह होने वाला नहीं है। यह तो ज्ञानवान लोगोंं से ही होगा, धर्माचरणी लोगोंं के द्वारा ही होगा।

भारत के विश्वकल्याण के महान अभियान के लिये केवल एक करोड अस्सी लाख लोगोंं की ही आवश्यकता है। देश में अभी ६६५ विश्वविद्यालय हैं। इनमें से दो करोड विद्यार्थियों और अध्यापकों को चयन करना कोई बहुत कठिन तो नहीं है। केवल तय करने की आवश्यकता है।

परन्तु तय कौन करे यह समस्या है। वर्तमान में देश की शिक्षा राज्य के अर्थात् शासन के हाथ में है। राज्य शिक्षाक्षेत्र में ऐसा कोई साहस दिखा नहीं सकता, उसकी अपनी ही अनेक मर्यादायें हैं । बन्धन हैं। यदि राज्य नहीं करता तो उच्च शिक्षा का क्षेत्र ही यह तय करे । इसकी सीमा यह है कि शासन के निर्देश और अनुमति के बिना वे कर नहीं सकते । दोनो होने के बाद अध्यापकों की इच्छाशक्ति चाहिये । आज तो इसकी कल्पना करना कठिन है । विश्वविद्यालयों को साथ में जोडते हुए संगठित करने वाली कोई रचना नहीं है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग सभी विश्वविद्यालयों को अपने साथ जोडे रखता है। परन्तु यह आर्थिक पक्ष ही देखता है । यदि सरकार इसे विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग बनाकर इसे शैक्षिक संगठन का रूप दे और इसका एकमात्र कार्य शिक्षा को भारतीय बनाने का ही निश्चित किया जाय तो स्थिति बदलनी आरम्भ हो सकती है। दूसरी एक आशा है देश में चल रहे अखिल भारतीय स्तर के शैक्षिक और सांस्कृतिक - धार्मिक संगठनों से । धर्म और शिक्षा एक साथ मिलकर भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा करना निश्चित कर लें तो यह कार्य हो सकता है। डेढ सौ वर्षों से राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन विविध स्वरूपों में चल रहा है । सफलता और असफलता के मध्य झूल रहा है । डेढ सौ वर्षों के अनुभवों से सीखकर, वर्तमान समय का आकलन कर यदि संगठित होकर शिक्षा योजना बनाई जाय और इसमें शासन का भी सहयोग प्राप्त हो तो प्रजा का अनुकूल होना कठिन नहीं है, बल्कि प्रजा तो ऐसी किसी योजना का स्वागत करने हेतु तत्पर है। शिक्षा के ज्ञानात्मक पक्ष का संक्षेप में विचार कर अब हम दूसरे व्यवस्थाकीय पहलू का विचार करेंगे।

३. शिक्षा का व्यवसायात्मक पक्ष

भारतीय शिक्षा के विनाश का प्रारम्भ तो ब्रिटीशों के मानस में अठारहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में आने लगा । तब से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध की समाप्ति तक ब्रिटीश राहु ने भारतीय शिक्षा को पूर्ण रूप से ग्रस लिया । इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक के अन्त तक, अर्थात् आज तक वह ग्रहण छूटा नहीं है । स्वाधीन भारत में भी शिक्षा स्वाधीन नहीं है।

शिक्षा के पश्चिमीकरण का एक हिस्सा है शिक्षा का सरकार के हस्तक, सरकार के नियन्त्रण में होना । भारतीय शिक्षा के प्रदीर्घ इतिहास में शिक्षा कभी भी शासन के हस्तक या शासन के नियन्त्रण में नहीं रही। इसीलिये वह राज्य और प्रजा के लिये कल्याणकारी बनी रही। वैसे तो शिक्षा ही क्यों भारतीय समाज भी शासन के अधीन कभी नहीं रहा । व्यापार उद्योग, धर्म संस्कृति, शिक्षा, परिवार शासन के अधीन नहीं होना ही स्वाभाविक था । शासन को इसकी चिन्ता करने की क्या आवश्यकता है ? शासन को केवल व्यवस्था, सुरक्षा, अनुकूलता देखना है, अवरोध दूर करने हैं, प्रजा की स्वतन्त्रता और स्वायत्तता की रक्षा करनी

इस व्यवस्था पर ही आघात हुआ और ब्रिटीश शासनने प्रजा की सम्पूर्ण स्वायत्त व्यवस्था अपने अधीन कर दी। उन्हें स्वायत्त समाज की समझ भी नहीं थी और उनके स्वार्थी उद्देश्यों की पूर्ति हेतु पराई प्रजा को अपने अधीन बनाने की उन्हें आवश्यकता भी थी। जब सारी व्यवस्थायें शासन के अधीन हो गई तो शिक्षा भी हो गई। बल्कि शिक्षा का शासन के अधीन होना उनके लिये सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण था क्योंकि उसके परिणाम स्वरूप ही प्रजा की स्वतन्त्रता की चाह समाप्त हो जाती है ।

ब्रिटीशों ने शिक्षा को अपने अधीन बना लिया और उसी क्रम को स्वाधीन भारत की सरकार ने उत्तराधिकार के रूप में स्वीकार कर लिया। स्वाधीन भारत में भी शिक्षा स्वायत्त और स्वतन्त्र नहीं हुई । केवल शिक्षा ही नहीं तो सम्पूर्ण समाज ही शासन के अधीन बनकर जी रहा है। समाज जीवन को संचालित करनेवाली जो व्यवस्थायें थीं वे सब छिन्वविच्छिन्न कर दी गई, शिक्षा के माध्यम से शिक्षित वर्ग में उनके प्रति तिरस्कार और हीनता का भाव भर गया और परिणाम स्वरूप आज केवल पूर्वजों के पुण्य के भरोसे चल रहा है, उसकी अपनी कोई व्यवस्था नहीं है। व्यवस्था के नाम पर केवल संविधान और कानून हैं जो सरकार के हस्तक हैं । केवल प्रजा के पुण्य कुछ बचे हैं इसलिये परिवारसंस्था अभी कुछ मात्रा में स्वायत्त है । उसमें भी शिक्षा और अर्थार्जन तो स्वायत्त नहीं है। खानपान, वेशभूषा, मनोरंजन, व्रत, उपवास, कथाश्रवण, पर्वत्यौहार, सन्तानों के संगोपन और विवाहादि में, भले ही पश्चिमी प्रभाव से हतबल, परन्तु स्वायत्त है।

प्रजामानस आन्तरिक दन्द्र से ग्रस्त है। यह भारतीय संस्कृति की महत्ता और हमारे मेघावी पूर्वजों की तपश्चर्या और समस्त रचना विषयक गहन मनोवैज्ञानिक समझ का सामर्थ्य ही है कि पश्चिम के भीषण झंझावात में जहाँ अनेक देश नष्ट हो गये, अनेक देश इसाई हो गये, अनेक अपनी संस्कृति बदलकर अस्तित्व टिका रहे हैं, वहाँ भारत क्षतविक्षत होकर भी वही भारत है जो वेदों के समय में था। भारत क्षीणप्राण हुआ है, गतप्राण नहीं। इस क्षीणप्राणता का ही लक्षण है कि भारत का अन्तरंग और बहिरंग निरन्तर संघर्षरत है। भारत का अन्तरंग भारत है और बहिरंग पश्चिम है। अन्तरंग का कहना बहिरंग नहीं मानता और बहिरंग का समर्थन अन्तरंग नहीं करता । इनके निरन्तर संघर्ष में दिनप्रतिदिन संकट तो भीषण होता जा रहा है परन्तु आशा अभी बची है । इस अवस्था में शिक्षा का स्वायत्त होना अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है।

परन्तु यह सरल नहीं है । किसकी इच्छाशक्ति के बल पर शिक्षा स्वायत्त होगी ? शिक्षक शिक्षा के अधिष्ठाता हैं परन्तु वे हार चुके हैं। स्वतन्त्र होने की न चाह है न शक्तिः । सरकार शिक्षा को मुक्त करने में असमर्थ है क्योंकि अब वहाँ जिन्दा व्यक्तियों का नहीं अपितु सिस्टम का आधिपत्य है । सिस्टम जिन्दा नहीं होने के कारण से उसमें न लचीलापन है, न विवेक, न भावना । इस सिस्टम में काम करनेवाले जिन्दा तो हैं परन्तु वे सिस्टम द्वारा जकडे हुए ही हैं। वे सिस्टम के ही आधिपत्य में काम कर रहे हैं । इस देश में स्वतन्त्र होने की सबसे कम चाह यदि किसी वर्ग में हो तो वह है प्रशासकों का वर्ग जिसमें सचिव से लेकर सामान्य बाबू तक के लोगोंं का समावेश है । चाहे संस्कृत विभाग का हो या संस्कृति विभाग का, चाहे वनवासी विभाग का हो चाहे ग्रामीण क्षेत्र का, चाहे मध्यप्रदेश का हो, बिहार का हो या हरियाणा का, यह वर्ग अंग्रेजी में ही बात करता है, अंग्रेजी में ही पत्रव्यवहार करता है और अंग्रेजी नहीं जाननावालों के प्रति उसी दृष्टि से देखता है जैसे ब्रिटीश भारतीयों को देखते थे।

शिक्षा को भारतीय बनाने के अभियान की यह सबसे कठिन श्रेणी है । इसलिये शैक्षिक संगठनों को चाहिये कि वे इस श्रेणी के साथ संवाद स्थापित करें । यह वर्ग बुद्धिमान है, चतुर है, परिस्थिति को समझने वाला है। इस वर्ग के साथ शिक्षा को भारतीय बनाने की अनिवार्यता को लेकर शास्त्रार्थ किया जाय, भावना और बुद्धि दोनों को सम्बोधित किया जाय और जनमानस प्रबोधन से भी अधिक महत्त्वपूर्ण मानकर उनका प्रबोधन किया जाय । उन्हें ही सिस्टम से मुक्त होने का मार्ग बताने के लिये आग्रह किया जाय । शैक्षिक संगठन सरकार से कृपा मांगने के स्थान पर शिक्षा की मुक्ति माँगे । शासकों को भी इस कार्य में साथ में लिया जाय और शासन, प्रशासन, धर्मसंस्थायें और शैक्षिक संगठन मिलकर इस समस्या का समाधान करने का बीडा उठायें।

इस कठिन क्षेत्र को पार किये - बिना विश्वविद्यालयों में ज्ञानसाधना नहीं हो सकती, न समाजप्रबोधन ही हो सकता है । प्रशासकों के साथ बैठकर सिस्टम को किस प्रकार जकडन मुक्त और जिन्दा बनाया जाय, सिस्टम बन्धन में जकडे क्षेत्रों को किस प्रक्रिया को अपना कर मुक्त करे और मुक्त करने के बाद भी उन क्षेत्रों की सुरक्षा की चिन्ता करे इस विषय पर विमर्श होना चाहिये । इसके उपाय संगठनों को भी सोचने चाहिये ।।

उदाहरण के लिये शिक्षा का अर्थार्जन के साथ सम्बन्ध विच्छेद कर दिया जाय । अर्थकरी शिक्षा को अर्थोत्पादन के क्षेत्र के साथ जोडा जाय और अर्थोत्पादन के क्षेत्र को मिलने वाली सरकारी सहायता बन्द कर दी जाय । इस कथन का विचार करने पर भी भय लगने की सम्भावना है परन्तु ऐसा किये बिना शिक्षा की या समाज की मुक्ति होना सम्भव ही नहीं है। बड़े उद्योगों का विकेन्द्रीकरण करने से अर्थक्षेत्र स्वायत्त होने का प्रारम्भ होगा।

अपनी सन्तानों की शिक्षा का दायित्व मातापिता का भी है, अतः उन्हें भी इसमें सहभागी बनाया जाय । जिस प्रकार शिशुसंगोपन और भोजन घर की माता के अधीन होता है उसी प्रकार दस वर्ष तक की आयु की शिक्षा मातापिता के अधीन होनी चाहिये । गृहस्थाश्रम चलाने की शिक्षा घर में ही प्राप्त हो सकती है इसलिये घर की शिक्षा को सम्पूर्ण शिक्षा का महत्त्वपूर्ण अंग मानकर घर को एक विद्यालय के रूप में स्थापित करने का अभियान चलाना चाहिये । इस प्रकार गृहस्थाश्रम की शिक्षा घर में मातापिता के अधीन और अर्थार्जन की शिक्षा अर्थोत्पादन के क्षेत्र के अधीन कर दी जाय तो केवल ज्ञानार्जन की शिक्षा ही बचेगी जिसे विश्वविद्यालयों के अधीन की जा सकती है। विश्वविद्यालय अपने क्षेत्र में जितनी जनसंख्या है उतनी जनसंख्या की सम्पूर्ण शिक्षा की जिम्मेदारी ले और सरकार इन्हें बी कोई सहायता न करें। समाज पर आधारित होकर ही विश्वविद्यालय ज्ञानक्षेत्र के विकास का काम करें । तब ज्ञान, संस्कार और अर्थार्जन तीनों मुक्त श्वास लेंगे ।

यह काम सरल तो नहीं ही है परन्तु असम्भव भी तो नहीं है । एक एक गाँव में ऐसे शिक्षकों से निवेदन किया जाय तो गाँव के बच्चों की शिक्षा की चिन्ता करे और मातापिता को भी अपने बच्चों की शिक्षा की चिन्ता करने में सहयोग करे।

कदाचित प्रथम ऐसा करना पड़ेगा कि मातापिताओं के लिये विद्यालयों का प्रारम्भ करना पड़े क्योंकि बच्चों का संगोपन उनके लिये भी कठिन विषय बन गया है। साथ ही शिक्षकों के लिये विद्यालय आरम्भ किये जाय । शिक्षक और मातापिता को विद्यालय और घर चलाने के बारे में सक्षम बनाया जाय । धर्मकेन्द्र ऐसे विद्यालयों की जिम्मेदारी उठायें ।

यह भारत के अनुरूप व्यवस्था होगी। अभी विचार करने में तो यह विचित्र और असम्भव सा लगता है परन्तु भारत के अन्तरंग में अभी भी भारत ही जिन्दा है इसलिये बहुत जल्दी इसका स्वीकार हो जायेगा । प्रजा के अन्तःकरण को सुख का अनुभव होगा और आशा पल्लवित होगी।

विश्वविद्यालय के अध्यापकों की जिम्मेदारी सबसे अधिक होगी। उनकी वेतन की सुरक्षा समाप्त हो जायेगी। उन्हें समाज पर भरोसा रखना होगा । इतिहास कहता है और वर्तमान भी कहता है कि समाज गुरुओं को सम्मान और समृद्धि देने से कभी चूकता नहीं है परन्तु सरकार के जैसा लिखित करार यह नहीं हो सकता । लिखित करार की चाह रखने वाले के प्रति सम्मान नहीं हो सकता । भरोसा रखना ही एकमात्र उपाय है । परन्तु इससे कच्चे अध्यापक अपने आप क्षेत्र छोड देंगे । तब क्षेत्र की शुद्धि ही होगी।

इस प्रकार अनेक पहलुओं पर एक साथ विचार कर, सम्बन्धित सभी पक्षों ने साथ मिलकर विचार कर शिक्षा को स्वतन्त्र और स्वायत्त बनाने की आवश्यकता है। ब्रिटीश शासन से मुक्ति तो तभी मिलेगी जब शिक्षा मुक्त होगी। तब तक हमारी स्वाधीनता भी तान्त्रिक (टेकनिकल) स्वाधीनता है, सार्थक नहीं।

४. अर्थनिर्पेक्ष शिक्षा

भारत का आदर्श यही रहा है कि अनेक मूल्यवान और जीवन के लिये आवश्यक बातों को अर्थनिरपेक्ष बनाई जाती हैं । भारत मानता है कि सारी प्राकृतिक आवश्यकतायें प्राकृतिक संसाधनों से पूर्ण होती हैं ऐसी प्रकृति की ही योनजा है, उसमें मनुष्य के स्वार्थों का दखल नहीं होना चाहिये । इसलिये हवा, पानी, वर्षा, सूर्यप्रकाश आदि पर किसी का स्वामित्व नहीं होना चाहिये । उनको क्रयविक्रय की वस्तु नहीं बनानी चाहिये । ब्रिटीशों के आने से पूर्व तो भूमि पर भी मनुष्य का स्वामित्व नहीं माना जाता था । गाँव की खेती की भूमि गाँव की होती थी। केवल निवासकी भूमि पर ही व्यक्ति का स्वामित्व होता था। इसी प्रकार नदियों के पानी को रोकने वाले बाँध बनाने की कल्पना भी कोई कर नहीं सकता था। लोग उसे समाजद्रोह मानते थे। अन्न, पानी, हवा आदि प्राप्त करने हेतु परिश्रम करना होता है, खर्च नहीं।

इसी प्रकार जीवन को उन्नत बनानेवाली बातों पर भी अर्थ का प्रभुत्व नहीं होता था, इस विचार से कि पैसा ज्ञान की, कला की, उपदेश की अपेक्षा क्षुद्र है, वह इन श्रेष्ठ बातों को तौलने वाला कैसे हो सकता है। ऐसी सादी समझ को हमने गंवा दिया और अर्थ का बडा जंजाल निर्माण करके जीवन को जटिल और दुःखी बना दिया ।

पश्चिम के प्रभाव से मुक्त होने का एक आयाम है अर्थनिष्ठता से मुक्ति। भारत धर्मनिष्ठ राष्ट्र है। धर्म के अविरोधी अर्थ और काम होने से उपभोग भी श्रेष्ठ होता है और समृद्धि भी बढती है ऐसा हमारा अतीत का अनुभव है । ब्रिटीशों का ऐसा अनुभव नहीं है क्योंकि पश्चिम में धर्म संकल्पना ही नहीं है । जीवन का लक्ष्य कामनाओं की पूर्ति है तो कामनाओं की पूर्ति हेतु अर्थ चाहिये इसलिये व्यवहार जीवन में अर्थ ही परम पुरुषार्थ है । वह धर्म के अविरोधी होने की कल्पना ही नहीं है। इसलिये धर्म के अविरोधी होने पर समृदि बढेगी इस समीकरण उनकी समझ से परे है। बिडम्बना यह है कि वह हमारा भी समीकरण बन गया। अब अर्थनिष्ठता से मुक्ति प्राप्त करना है।

इसका अर्थ यह नहीं है कि अर्थ से ही मुक्ति चाहिये। अर्थ चाहिये,अर्थनिष्ठता नहीं। - इसका अर्थ यह भी नहीं है कि अर्थनिष्ठता के स्थान पर धर्मनिष्ठता अपनाने से अर्थ या समृद्धि बढती है इसलिये धर्मनिष्ठता चाहिये । ऐसा मानना और करना तो अर्थनिष्ठता का ही दूसरा स्वरूप हुआ। धर्मनिष्ठता से समाज की धारणा होती है इसलिये धर्मनिष्ठता चाहिये और अर्थ और काम धर्म के अविरोधी चाहिये।

इस कारण से शिक्षा को अर्थनिरपेक्ष बनाना चाहिये । शिक्षा में अर्थ की आवश्यकता नहीं है ऐसा इस का अर्थ नहीं है। अर्थनिरपेक्ष शिक्षा का सार यह है कि पढने और पढ़ाने का मापदण्ड पैसा नहीं है। पैसा नहीं है इसलिये कोई पढ़ नहीं सकता ऐसा नहीं हो सकता, और पढाया इसलिये पैसा चाहिये अथवा पैसा दो तो पढाऊँगा ऐसा भी नहीं हो सकता । इसी प्रकार से पैसा चाहिये इसलिये पढना है और पैसा चाहिये इसलिये पढते हो तो पढने के पैसे दो ऐसा भी नहीं होना चाहिये।

इसका सीधासादा अर्थ यह है कि ज्ञानक्षेत्र और अर्थक्षेत्र को एकदूसरे से स्वतन्त्र करना चाहिये । अर्थार्जन और ज्ञानार्जन दो अलग बातें हैं, दोनों का घालमेल नहीं करना चाहिये।

इसका अर्थ यह भी नहीं है कि ज्ञानार्जन मुफ्त में होता है। 'मुफ्त' को भी केवल पैसे से ही नहीं जोडा जाता । इसका अर्थ यह है कि ज्ञानार्जन की पात्रता पैसा नहीं है, पैसे के अलावा बहुत कुछ है। ज्ञानार्जन करने वाले में श्रद्धा, विनय, सेवा और विनय परायणता, संयम, सदाचार होना अनिवार्य है। ये बाहरी शर्ते नहीं हैं, मनोवैज्ञानिक आवश्यकतायें हैं। पैसे जैसे भौतिक पदार्थों में रियायत दी जाती हैं, इन गुणों में नहीं । अर्थात् ज्ञानार्जन की पात्रता के मापदण्ड अधिक कठोर हैं। इसमें आरक्षण नहीं है, न ब्राह्मणों का न शूद्रों का। जिस किसी के पास जिज्ञासा, श्रद्धा आदि गुण हैं वह पढ सकता है। पढाने वाले को पढ़ाने के अनुपात में पैसा नहीं मिलता है, आवश्यकता के अनुपात में मिलता है, वह भी पढने वाले से नहीं, पढाई के दौरान भी नहीं, पढता है इसलिये नहीं । पढाने वाला दरिद्र रहता है ऐसा भी नहीं है क्योंकि उसकी आवश्यकता के साथ साथ समाज की क्षमता और सम्मान की भावना के अनुपात में शिक्षक को मिलता है। जिस प्रकार समृद्ध समाज के मन्दिर भी समृद्ध :होते हैं उस प्रकार समृद्ध समाज के शिक्षक भी समृद्ध होते है।

इसका भावात्मक और संस्कारात्मक पक्ष जरा अधिक गहराई से समझना चाहिये। जिस प्रकार पत्नी को पत्नीधर्म निभाने का वेतन नहीं दिया जाता, घरे के लोगोंं को घर के काम करने के बदले में खाना नहीं दिया जाता या पैसा नहीं चुकाया जाता, जिस प्रकार घर के लोगोंं की परिचर्या करने के पैसे नहीं माँगे जाते उसी प्रकार पटाने के भी पैसे नहीं माँगे जाते । घर के काम करने वाले घर के लोग नौकर नहीं होते उसी प्रकार समाज के बाल, किशोर, युवाओं को पढाने वाला समाज का नौकर नहीं होता, उल्टे गुरु होता है। जिस प्रकार गरीब पति से या गरीब पिता से 'मुझे इतना तो चाहिये ही, तुम कुछ भी करों' ऐसा नहीं कहा जाता उसी प्रकार गरीब समाज से भी शिक्षक अधिक अपेक्षा नहीं कर सकता । जिस प्रकार धनवान पति या पिता प्रेम से और आनन्द से पत्नी और बच्चों के लिये नई नई वस्तुयें लाता है उसी प्रकार समृद्ध समाज भी शिक्षक के लिये आदर और सम्मान से आवश्यकता से कहीं अधिक देता है। समाज के भरोसे शिक्षक निश्चिन्त रह सकता है।

ऐसा समाज बनाने का दायित्व भी शिक्षक का ही है इसका भी ध्यान रखना चाहिये।

ऐसे सांस्कृतिक धरातल पर शिक्षा को ले जाना शिक्षा को पश्चिम के प्रभाव से मुक्त करना है। आज स्थिति अत्यन्त विपरीत है। पूर्व प्राथमिक और प्राथमिक शिक्षा के दो छोर दिखाई देते हैं। एक ओर तो सरकारी प्राथमिक विद्यालय निःशुल्क चलते हैं, दूसरी ओर लाख रूपया शुल्क देकर भी लोग अपने बच्चों को पढने के लिये भेजते हैं। जिनमें लाखों के वेतन मिलने की सम्भावना है वहाँ लाखों का शुल्क देना पड़ता है। जहाँ नौकरी मिलने की सम्भावना नहीं वहाँ कोई पढने के लिये नहीं जाता । कौन सा व्यवसाय या नौकरी करने हेतु क्या पढाई करना है इसका भी कोई खास विचार नहीं। प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में गणित, विज्ञान, अंग्रेजी और संगणक के अलावा अन्य सभी विषय निष्प्रयोजन माने जाते हूँ। पैसा नहीं मिलता है तो साहित्य, संगीत, कला, खेल आदि का भी कोई महत्त्व नहीं । ऐसे में शिक्षा को अर्थनिरपेक्ष बनाना कठिन काम है। परन्तु ऐसा किये बिना संस्कार, संस्कृति, धर्म आदि की रक्षा ही नहीं हो सकती।

यह धारणा बलवती बन गई है कि आज के बाजारीकरण के जमाने में अर्थनिरपेक्ष शिक्षा कैसे सम्भव हो सकती है। परन्तु इसे ही तो सम्भव बनाने की अनिवार्यता है।

हमें बाजार चाहिये, बाजारीकरण नहीं चाहिये । इसीलिये तो शिक्षा और बाजार को एकदूसरे से अलग करने की आवश्यकता है। अर्थनिरपेक्ष शिक्षा और अर्थकरी शिक्षा को एकदूसरे से स्वतन्त्र बनाना चाहिये । अर्थार्जन कैसे करना इसकी शिक्षा मिलना अत्यन्त आवश्यक है। परन्तु इसे भारत में शिक्षा के अन्तर्गत रखा नहीं गया ।

अर्थकारी शिक्षा अर्थक्षेत्र के साथ जोडी जा सकती है। उदाहरण के लिये व्यापार कैसे करना इसकी शिक्षा व्यापारी दुकान में और खेती कैसे करना इसकी शिक्षा किसान खेत में देगा। भोजन कैसे बनाना इसकी शिक्षा गृहिणी घर में देगी, पूजा और पौरोहित्य करने की शिक्षा पुरोहित मन्दिर में देंगे । वेदों की शिक्षा बेदपाठी अपने घर में देंगे, जूता बनाने की शिक्षा मोची जूते की दुकान में देगा। अर्थात् अर्थकरी शिक्षा अर्थक्षेत्र के साथ जोडना आवश्यक है। उसके लिये महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की आवश्यकता नहीं है।

जिसे हम सामान्य शिक्षा कहते हैं वह पन्द्रह सोलह वर्ष की आयु तक नहीं चलनी चाहिये । सोलह वर्ष की आयु में तो व्यक्ति अर्थार्जन के लिये पूर्ण सक्षम हो जाना चाहिये । आज अर्थार्जन के लिये शिक्षा है परन्तु अर्थार्जन की शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है। जो है उसे हम व्यवस्था नहीं कह सकते क्योंकि उससे अर्थार्जन होगा ही इसकी कोई निश्चितता नहीं है ।

यदि अर्थकरी शिक्षा को अर्थक्षेत्र के साथ जोड दें तो शिक्षाक्षेत्र में क्या बचेगा ? ऐसा प्रश्न इसलिये उठता है कि हम शिक्षा को अर्थ के साथ ही जोडते हैं । वास्तव में बिना

किसी विशेषण के शिक्षा धर्मकरी शिक्षा है। देश और दुनिया का ज्ञान, अतीत और वर्तमान का ज्ञान, व्यक्तित्व विकास के सारे आयाम तत्त्वज्ञान और मनोविज्ञान, नीति और सदाचार एकात्मता और समग्रता सब धर्म के ही तो अंग है। यह धर्मकरी शिक्षा सबके लिये अनिवार्य होनी चाहिये । परन्तु कानून के तहत अनिवार्य बनाने से वह प्राप्त होना अनिवार्य नहीं बन जाता । कानून के तहत अनिवार्य होने पर भी देश में शतप्रतिशत साक्षरता नहीं है, शिक्षा निःशुल्क होने पर भी अनेक मातापिता अपनी सन्तानों को पढने के लिये नहीं भेजते । शिक्षा अनिवार्य है तो भी आठ वर्ष स्कूल में जाने के बाद लिखना पढ़ना नहीं आता। इसलिये कानून के तहत शिक्षा को अनिवार्य बनाने का कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं है । केवल तन्त्र खडा करने की बाध्यता हो जाती है। धर्म के तहत अनिवार्य बनाने से लोग उसे अन्तःकरण पूर्वक स्वीकार करते हैं और श्रद्दा से ग्रहण करते हैं । स्वायत्त समाज के लिये अर्थकरी शिक्षा का अर्थक्षेत्र के साथ जुडना और अर्थक्षेत्र का स्वायत्त होना आवश्यक है । वहाँ भी धर्मकरी शिक्षा अनिवार्य है । इसका महत्त्वपूर्ण हिस्सा है अर्थक्षेत्र का धर्म के अविरोधी होना । अर्थ को धर्म के अविरोधी और धर्म के अनुकूल बनाने से आधे से अधिक तो धर्मकरी शिक्षा हो ही जाती है। शेष की व्यवस्था करनी होती है।

धर्मकरी शिक्षा को धर्मक्षेत्र के साथ जोड़ने से सारी समस्यायें दूर हो जाती है। परन्तु कठिनाई यह है कि धर्मक्षेत्र ही आज अव्यवस्थित है । वह शिक्षा की जिम्मेदारी लेने में असमर्थ है । उसे निवेदन अवश्य करना चाहिये परन्तु शिक्षाक्षेत्र को ही धर्मकरी शिक्षा की जिम्मेदारी लेनी होगी।

धर्मकरी शिक्षा समाज को सुसंस्कृत बनाती है, अर्थकरी शिक्षा उसे समृद्ध बनाती है । सुसंस्कृत और समृद्ध समाज ही श्रेष्ठ समाज होता है । समृद्धि और संस्कृति एक दूसरे के पूरक है । संस्कृति के बिना समृद्धि आसुरी होती है, समृद्धि के बिना संस्कृति की रक्षा ही नहीं होती । भारत ने सदा दोनों साथ साथ रहें ऐसी व्यवस्था बनाई है ।

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे