सनातन धर्म में समाजसेवा का स्थान

From Dharmawiki
Revision as of 17:50, 12 December 2020 by Adiagr (talk | contribs) (Text replacement - "पडे" to "पड़े")
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search
ToBeEdited.png
This article needs editing.

Add and improvise the content from reliable sources.

अध्याय ४६

काका कालेलकर

निरोगी समाज में वैद्य को स्थान नहीं यह कहना जितना ठीक है, उतना ही हिन्दुधर्म में समाजसेवा का आदर्श नहीं था, कहना ठीक होगा ऐसा एक प्रकार से कह सकते हैं। हिन्दु समाज व्यवस्था सम्पूर्ण नहीं थी इसका तो स्वीकार करना ही पड़ेगा। परन्तु तुम्हें समाजसेवा के मुख्य मुख्य अंग कौन से हैं, इसकी एक सूची पहले तैयार करनी होगी, फिर उन उन अंगों की हमारे यहाँ क्या क्या व्यवस्था की गई थी, उन्हें खोजना होगा।

शिक्षा, यह समाजसेवा का प्रथम अंग जो न्याति के आधार पर भिन्न होते हए भी सभी वर्गों को समान शिक्षा नहीं मिलती थी, ऐसा नहीं था। प्लेटो कहता है कि सामान्यजन को परम्परा का ज्ञान होना अति आवश्यक है। आज की भाषा में कहेंगे तो प्रत्येक व्यक्ति को समाजशास्त्र का प्राथमिक ज्ञान होना चाहिए। हमारे यहाँ वर्णधर्म की चर्चा में एवं पुराणश्रवण में यह ज्ञान बराबर मिलता था। समाजशिक्षा की Popular National School उस गाँव का मंदिर था। जहाँ संगीत, चित्रकला, स्थापत्य, पूजा विधि, उत्सव, सभा का विवेक, सामाजिक Hierachy (सामाजिक वर्गों की सा, रे, ग, म)

समाज सेवा का दूसरा महत्त्व का अंग रुग्ण की शुश्रूषा और अपंग-असहायों का पालन करना है। यह दूसरा अंग हमारे यहाँ नहीं था ऐसा कोई कह सकता है क्या ? क्या हमारे यहाँ बड़े बड़े कोष स्थापित कर चिकित्सालय नहीं खोले जाते थे, किन्तु प्रत्येक वैद्य के कर्तव्य बड़े कठोर रखे हुए थे। वैद्य रोगी को देखने हेतु भोजन छोड़कर दौड़ता था, ऐसा नहीं करता तो धर्मभ्रष्ट कहलाता। वैद्य की दवायें पैसे देने वाले लोगोंं के लिए तैयार की हुई परन्तु गरीब लोगोंं को बिना पैसे दिये मिलती थी। पक्षपात तो आज भी होता है। लोकमत का प्रभाव प्राचीनकाल में अधिक था। ब्राह्मण वर्ग के Higher Studies हेतु कांची (कांजीवरम्), मदुराई, वाई, पैठन और अन्त में काशी जाना अभी भी है। वहाँ के अन्नसत्र और सदाव्रत ये हमारे Educational endowments | यह प्रशासन सदैव शिथिल ही रहता था। ऐसा मानने का कोई कारण नहीं, और तेश्रींपी। रिरींळेप इस संस्कृति की उच्चता को सूचित करते हैं।

समाजसेवा का तीसरा महत्त्वपूर्ण अंग है Cooperation (सामाजिक सहकार) है। अविभक्त कुटुम्ब पद्धति, गंगाजली रखने का रिवाज, जातिव्यवस्था, महाजन व्यवस्था और विवाह आदि खर्च के प्रसंगो पर सगेसम्बन्धियों द्वारा सहयोग Contribution देने की पद्धति आज भी चल रही है। यह सारा हमारा अपनों को Cooperation. किसी को बुवाई के लिए अनाज या बीज दिया जाये तो उसका व्याज नहीं लिया जाता। यह Social Co-operation का ही एक तत्त्व है। विवाह अथवा मृत्यु के समय उस कुटुम्ब की आवश्यकतानुसार सहयोग भी न्यात या सगा-सम्बन्धी एकत्र होकर करते हैं, यह भी Cooperative Justice की कितनी सुंदर व्यवस्था है। Cooperative Justice की कल्पना भी आधुनिक लोगोंं को अभी तक नहीं सूझी है। Trial by peers or 'Judges' इसके साथ तुलना की जा सकती है। तीर्थयात्रा यह Travelling Fellowships 1 Tours of Culture कहलाता है। Comparative Study की इससे अधिक अच्छी कौनसी राष्ट्रीय योजना आप बता सकते हो ?

समाजसेवा का चौथा महत्त्वपूर्ण है, Public Works इस विषय में राजा की जवाबदारी पक्की परन्तु धर्मशास्त्रों में पुण्य के लिए अपनी इच्छा से भलाई करने में यह works of Public utility हैं। मार्गों, धर्मशालाओं, नहरों और तालाबों, जैसे ही Load-rest (राहतस्थल) ये सभी पूर्ण कहलाते हैं। तीर्थक्षेत्र जबतक Centres of Culture थे, तब तक वहाँ किया हुआ खर्च सार्थक था। शास्त्रार्थ यह प्रजा की बुद्धि और सामाजिक रीतिरिवाजों के साथ साथ ही धार्मिक मान्यताओं को कसने के साधन थे। गुरुकुलों और आश्रमों के विषय में यहाँ लिखने की आवश्यकता नहीं। गोरक्षा, वृषोत्सर्ग, वृक्षारोपण, पर्यावरण शुद्धि करनेवाला तुलसी का पुरस्कार आदि भी समाजसेवी ही मानी जाती है।

हमारे यहाँ की विशेषता यह थी कि Public utilities उत्पन्न करने वाले का पुण्य मिलता है। बिना आवश्यकता इसका लाभ लेने वाले को सत्त्व क्षय होता है, ऐसी मान्यता थी। अर्थात् Social dependences पर अंकुश था। सम्पूर्ण जीवन जिसका समाजसेवामय हो, वहाँ समाजसेवा का अलग से प्रचार कैसे होगा ? आज Socialservice, Baby week, Free maternity hospital, welfare work व ये सभी वस्तुएँ यही सूचित करती है कि समाज का ढाँचा ही बिगड़ गया है। Industrial Civilization के साथ में Individual की Anarchy आई, इसके कारण यूरोप में समाजसेवा का यह स्वरूप पकड़ में आया। यह Failure of Society बताता है। उपनिषद का अश्वपति जैसा योग्य अभिमान से कहता है : न मे स्तेनो जनपदे न कदयों न मद्यपः। नानाहिताग्नि विद्वान न स्वैरी स्वैरिणीकुतः ।।

(छान्दोग्य ५, ११, ५)

उसी प्रकार हमारे समाजधुरीण अभिमान से कह सकते हैं कि वहाँ समाजसेवा की योजना कोई बताता नहीं जबकि हमारे यहाँ इसकी कोई आवश्यकाता ही नहीं है।

प्राचीन पंचवार्षिक सत्र और कुंभ जैसे मेलों में तो हमारी बड़ी बड़ी परिषदों में धर्मसंस्करण होता है। संन्यासी धर्मप्रचारकों का एक बड़ा संघ ही तो है। बाद में वे आलसी हो गये और उधार लिए हुए गूढवाद में फँस गये, यह बात अलग है। अश्वमेध, दिग्विजय आदि संस्थाएँ भी एक प्रकार से Cultural Missions जैसी ही थीं, ऐसा मानने के कारण उपलब्ध हैं।

ये चाहे जैसी हों पुरानी व्यवस्था आदर्श थी, ऐसा मैं नहीं कहता। आज की व्यवस्था उत्तम है, ऐसा तुम भी नहीं कह सकते । वस्तुतः प्राचीन संस्कृति ही अधिक योग्य थी। आज की तो मल्हमपट्टी जैसी है। भक्तों ने-सन्तों ने लोगोंं के हृदयविकास का मार्ग बताया, प्रभु प्रीति हेतु लोकसेवा बताई, इस समाज ने स्वीकार नहीं किया, ऐसा दूसरा कोई कहता तो उसे मैं blasphemy मानता। आज समाज में से यह वस्तु लुप्त हुई हो, उससे __ क्या ? समाज जीवन्त होता है, तब तक सद्गुण टिके रहते हैं। ज्ञानेश्वर की पालकी, पंढरपुर की यात्रा आदि की व्यवस्था क्या बताती है ?

बौद्धकाल के इतिहास को मैंने सोच समझकर नहीं छेड़ा। यह तो समाजसेवामय ही है। इसका जोड़ पूरी दुनियाँ में नहीं मिलेगा। हम अपने समाज को जानथे, राज्य को जानथे, आज के अर्थ में भले ही राष्ट्र को नहीं जानते होंगे। इस सम्बन्ध में रवीन्द्रनाथ ठाकुर का 'Greater India' (स्वदेशी समाज), विशेष रूप से इसमें पहला निबन्ध पढ़ने योग्य है।

पाश्चात्य Classification भिन्न, इसके Thought Units भिन्न, Social Units भिन्न अतः Institutions भी भिन्न । इसकी कसौटी पर अपने समाज को कसने से पूर्व प्रत्येक वस्तु का Re-valuation अथवा Transvaluation (मूल्यपरिवर्तन) करने की बहुत आवश्यकता है। पाश्चात्य कल्पना से जो फल प्राप्त होते हैं, उन फलों से हमारा समाज वंचित हो तो कह सकते हैं कि अपने यहाँ यह वस्तु ही नहीं थी। और तुलना करनी ही हो तो समान ऐतिहासिककाल कीतुलना होनी चाहिए; और तारतम्य निश्चित करना हो तो Efficiency की दृष्टि से भी कर सकते हैं। Inherent Superiority of Conception और Scientific Aptitude की दृष्टि से भी कर सकते हैं।

वानप्रस्थ आश्रम का मूल उपद्देश्य समाजसेवा का ही है, ऐसा लगता नहीं है। जो सामाजिक व्यवहार में से निकल गये हैं, वे समाज पर अपना भार कम से कम डालते हैं। अपनी निराशा, निरुत्साह अथवा वैराग्यवृत्ति से कौटुम्बिक वातावरण को बिगाडते नहीं, और गृहस्थाश्रम में आयी हुई सुविधाभोगी वृत्तियो को झाड़कर दूर कर दी जाती हैं। इस उद्देश्य से वानप्रस्थ आश्रम की योजना हुई है, ऐसा मेरा मानना है। व्यावहारिक कर्म का अन्त अपने परिपक्व अनुभव को चिन्तन की भट्टी में डालने के निश्चय से वानप्रस्थ की रचना सरल बनाई हुई है, जिससे हिम्मत आने पर मनुष्य संन्यास भी ले सकता है।

तुलनात्मक टिप्पणी लिखनी थी अतः इसमें जानबूझकर अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग किया गया है, जिससे कल्पना शीघ्र ही समझ में आ जाये।

सार रूप में यही कहूँगा कि तत्त्वतः हमारे यहाँ समाज सेवा थी और है भी। वह आज के हिन्दु धर्म में वह अलग से नहीं ही है, ऐसा आप कह सकते हैं; जबकि मैं तो कहूँगा कि इसीलिए हिन्दुधर्म श्रेष्ठ है।

समाजसेवा की हिन्दवी मीमांसा

आस्तिक हो अथवा नास्तिक, प्रत्येक समझदार मनुष्य इतना तो समझता ही है कि स्वयं जिस समाज में रहता है, उस समाज की सेवा करना उसका कर्तव्य है। अनाथों की सहायता करना, निराश्रितों को आश्रय देना आदि बातें सभी धर्मों में कही हुई हैं। हिन्दु धर्म में भी परहित में लगे रहने का उपदेश दिया हुआ है। परन्तु प्राचीन ग्रन्थों को पढ़ते समय अथवा सामान्य धर्मचुस्त मनुष्य के विचारों को समझते समय हमारे और पाश्चात्य लोगोंं की समाजसेवा की कल्पना में पर्याप्त भेद दिखाई देगा। भूखे को अन्न देना, प्यासे को पानी पिलाना, जलाशय खुदवाना अथवा धर्मशालाएं बनवाना, ब्रह्मभोजन करवाना अथवा मंदिर निर्माण करवाना - इतने से ही अधिकतर हमारी समाजसेवा पूर्ण होती है। (गोरक्षा जैसे विषय तो जीवदया में गिने जाते हैं। समाजसेवा में उसका समावेश कैसे किया जायेगा ?) यूरोप में मध्ययुग में समाजसेवा की यही कल्पना थी। बीमार की सेवा करने के व्यवस्थित प्रयत्न तो उनके साधु-सन्तों ने हमसे भी अधिक किये होंगे।

रोमन केथोलिक धर्म में सुधार हुए और विद्या प्रारम्भ हुई तब से हमारे देश में समाजसेवा की कल्पना को नई दिशा मिली है। विद्यालय स्थापित करना, प्रवास में सहायता करना, गरीबों की स्थिति सुधारना, पतितों का उद्धार करना और धार्मिक मान्यताओं में सुधार करना - ऐसा बहुविध कार्यक्रम आजकल समाजसेवा में सम्मिलित किया गया है। इस नई कल्पना की चर्चा हमारे समाज में रात-दिन होते रहने के कारण यहाँ उसका विस्तारपूर्वक वर्णन करने की आवश्यकता नहीं।

कोम्ट जैसे नास्तिक विद्वान के लेखों से यूरोप में समाज सेवा का नया सम्प्रदाय उत्पन्न हुआ और नास्तिक और आस्तिक सब कोई कहने लगे कि समाजसेवा ही मोक्ष का द्वार है।

अपने यहाँ भी इसी विचारका अनुवाद होकर कहावत बनी, 'जनता से अलग जनार्दन नहीं।' 'हमारे आसपास के करोड़ों जीते-जागते नारायणों का दुःख दूर करना ही मोक्ष का मार्ग हैं, 'नरसेवा-नारायणसेवा' आदि विचार लोगोंं के मन में अधिक से अधिक जाग्रत होने लगे हैं। हिन्दु धर्म में ये कल्पनाएँ नई नहीं है। परन्तु दूसरी बातों को गौण मानकर सेवा की इन बातों को महत्त्वपूर्ण मानने का आग्रह नया अवश्य है। इस आग्रह का एक परिणाम यह हुआ है कि कुछ लोगोंं को मनुष्य का ध्येय क्या होना चाहिए - आत्मोन्नति अथवा समाजोन्नति - इस विषय में शंका होने लगी है। हमारा देश एक यूरोपीय राष्ट्र के अधिकार में है, अतः उस राष्ट्र की राष्ट्रीयता की और राष्ट्राभिमान की कल्पना ऊपरी शंका के साथ पढ़ी जाने से ऊपर का विवाद उलझन भरा हो गया है। इस स्थिति में सभी सामाजिक प्रयत्नों को किस दिशा में मोड़ना, यह निश्चित करने से पहले समाज सेवा के ध्येय के बारे में सहज विवेचन करने की आवश्यकता है।

समाजसेवा में मेरा मोक्ष होना है ऐसा मानना अर्थात् पहले तो समाज की सेवा करने का मुझे अवसर मिलना चाहिए और ऐसा अवसर मुझे मिले इसके लिए समाज सदैव पांगला ही रहना चाहिए यह सिद्ध होता है। परन्तु कम या अधिक लोगोंं की अपंग दशा पर मेरे मोक्ष का आधार रहे यह स्थिति ईष्ट भी नहीं और युक्तिपूर्ण भी नहीं। और समाज की सेवा करके उसका पंगुपना कुछ अंशों में दूर करना हो तो भी समाज हित सदैव सामने रहता है, इसका मुझे पूरापूरा भान होना चाहिए। और भार उठाने से समाज का भला ही होने वाला है, बुरा नहीं होगा ऐसी दृढ श्रद्धा भी होनी चाहिए। अर्थात् हो या न हो परन्तु अधिकांश युरोपीयन समाजसेवकों में यह श्रद्धा होती है। इसीलिए वे अपना काम इतने उत्साह से करते हैं और उनके काम के अनुपात में कमअधिक लोग अधिक सुखी हुए दिखाई देते हैं। परन्तु व्यापक दृष्टि से देखने वाले को कुलमिलाकर समाज की उन्नति होने के कुछ भी लक्षण दिखाई नहीं देते। युरोप में सारा काम व्यवस्थित होता है। समाज सेवा का और परोपकार का काम भी इतना व्यवस्थित हुआ है कि अनेक का तो यह एक धंधा ही बन गया है।

हमारी प्राचीन कल्पना के आधार पर परोपकार करने में जितना पुण्य मिलता है उतनी ही दूसरों की सेवा लेने में सत्त्वहानि होती है। शेक्सपियर का 'मर्चेन्ट ऑफ वेनिस' पढ़ते समय एक कठिनाई आई। 'Mercy is twice blessed; It blesseth him that gives' यहाँ तक तो गाड़ी सीधी चली परन्तु and him that takes' का पहाड़ कूद पड़ना सरल नहीं रहा, कारण सहायता लेने से गरज मिटती है। परन्तु गरज के साथ साथ सत्त्व भी मिटता है यह कल्पना हमारे जीवन के साथ बनाई हुई है। फिर कठिनाई में किसीकी सहायता करना वह एक बात है और मुसीबत के मारे को सहायता करने का धन्धा बना लेना यह दूसरी बात है। समाज सेवा का नौकरीपेशा वाला वर्ग जब खड़ा हुआ तब ऐसी सहायता पर ही पेट भरने वालों का एक वर्ग खड़ा होना स्वाभाविक ही है। और इस वर्ग में सत्त्व और पराक्रम के नाम पर भीरू होते हैं, यह सिद्ध करके बताने की कोई आवश्यकता नहीं। आजकल की सामाजिक हलचल का सूक्ष्म निरीक्षण करने वाले को इसका कटु अनुभव है ही। पुराने लोगोंं को भी यजमान के पास सफेद को काला बनाने वाले अनपढ़ भटभिक्षुक की श्वानवृत्ति देखकर उपर्युक्त कथन की यथार्थता सहज ही ध्यान में आ जायेगी। हम कॉलेज में पढ़ते थे तब हमारे अर्थशास्त्र के अध्यापक एक बात कहा करते थे कि आज की समाज व्यवस्था ऐसी है कि गरीब लोग और अधिक गरीब होते जा रहे हैं और अमीर अधिक से अधिक अमीर होते जा रहे हैं।

नीतिवादी अर्थशास्त्री कहते हैं कि इन सभी दुःखो का कारण श्रम विभाग है। स्वावलम्बन समाप्त होकर परस्परावलम्बन आ जाय तो यही परिणाम आता है। सम्पत्ति को जो तत्त्व लागू होते हैं वे ही तत्त्व सत्त्व को भी लागू होते हैं। समाजसेवा करने के लिए सर्वस्व अर्पण करनेवाले का सत्त्व बढ़ता है, इसमें तनिक भी शंका नहीं है। परन्तु साथ ही साथ ऐसे सत्पुरुष की एहिक सम्पत्ति पर अपना गुजारा करनेवाले का सत्त्व निर्मूल हो जाता है, यह नहीं भूलना चाहिए। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि समाज सेवा के मार्ग पर जाने वाला मनुष्य जब स्वर्ग का अधिकारी बनता है, तब उसके सामने ऐसे मनुष्य के दान पर ही अपनी जिन्दगी गुजारने वाला मनुष्य नरक में जाता है। ख्रिस्ती धर्म के मूल में ही इस श्रमविभाग का तत्त्व ही निहीत है। प्रभु इशु ने सम्पूर्ण मानव जाति का पाप स्वयं के माथे ओढ़कर अपना बलिदान किया इसीलिए जितने श्रद्धावान लोग थे, वे सभी पाप मुक्त हो गये।

ख्रिस्ती धर्म का सच्चा रहस्य ख्रिस्त का बलिदान देकर क्षमा प्राप्त करने में नहीं परन्तु आत्मार्पण करने में ख्रिस्त का अनुकरण करने में है। और यह सत्य जो कम अधिक लोग देख सके हैं उनकी ही उन्नति होनी है यह स्पष्ट है। परन्तु अगर यह बात सबके गले उतर जाय तो फिर किसे किसके लिए आत्मार्पण करना ? दूसरे के पापों के लिए अपना बलिदान देने के दृष्टान्त हिन्दु आदर्श में एक नहीं अनेक हैं। हिन्दी प्रजा की दन्तकथाओं द्वारा सूचित मध्ययुग के हिन्द के इतिहास से यह जानकारी मिलती है कि राष्ट्र पर आये हुए संकट को टालने के लिए राष्ट्रलक्ष्मी का आदेश होते ही काली माता के चरणों में स्वयं का मस्तक चढानेवाले राजाओं, प्रधानों, सेनापतियों आदि की एक लम्बी शृंखला बनी हुई है। उनके प्रत्येक के नाम से एक एक धर्म की स्थापना नहीं हुई बस इतनी ही कमी रही है। समाज पर आया हुआ संकट ऐसे आत्मयज्ञों से तत्काल

टल जाता है यह पक्की बात है परन्तु उससे समाज की स्थिर एवं स्थायी उन्नति नहीं होती। अगर ऐसा नहीं होता तो भगवान तथागत ने लोगोंं को स्वावलम्बन से निर्मित अष्टांगिक मार्ग का उपदेश नहीं दिया होता।

पुराने समय में हमारे यहाँ गाँव का कोई धनिक गृहस्थ परोपकार के लिए कुआँ खुदवाता तो गाँव के सत्त्वशील गृहस्थ उस कुएं का पानी नहीं पीते थे। वे कहते, 'इस प्रकार हम तुम्हें अपना सत्त्व लूटने नहीं देंगे।' गाँव के प्रत्येक मनुष्य की कमाई के अनुपात में अंशदान कर एक सार्वजनिक कुआँ बाँधना वे अधिक श्रेयस्कर मानते थे। समाजकार्य का अपने हिस्से आने वाला बोझ यदि हम नहीं उठा सकते तो हमारे सत्त्व का नाश होगा, अपने समाज के गले में भाररूप होकर पड़े रहने और हमारे कारण दगुने भार से दबे समाज को डुबाने में कारण बनने की भावना उस काल के लोगोंं में जाग्रत थी, आज के समाज व्यवस्थापकों के मन में जाग्रत नहीं हुई है। वर्तमानकाल के ताजे उदाहरण लूँगा तो जल्दी समझ में आयेगा कि प्रत्येक नागरिक अपने अधिकार और कर्तव्य के विषय में जाग्रत न रहने से कुछ व्यक्तियों को असाधारण भोग देने पड़ते हैं। देश का प्रत्येक व्यक्ति अगर धर्म और तेजस्विता की रक्षा करने हेतु तत्पर रहे तो अधिकारियों की जुल्म करने की वृत्ति ही न हो, अत्याचारी अत्याचार करने के मोह में ही न पड़े, और दूसरे अनेक लोगोंं को स्वार्थत्याग करने का जोश चढ़े यह बात बिल्कुल सच्ची है और महत्त्वपूर्ण है। सहायता करने से पंगु लोग अधिक पंगु होंगे इस डर से यदि कोई स्वार्थत्याग नहीं करता है तो वह ठीक नहीं है। यहाँ तात्पर्य अपना आदर्श अथवा अपना ध्येय क्या होना चाहिए यही बताने का है, निश्चित ही प्रत्येक व्यक्ति की, समाज की अथवा राष्ट्र की आत्मोन्नति यह एक ही ध्येय हो सकता है। मात्र हमारे आसपास दैन्य और दुर्गति छाई हुई रहे तब उस निराशा को दूर करने के लिए भगीरथ प्रयत्न करके मर मिटने के बिना सच्ची आत्मोन्नति हो नहीं सकती, यह बात ध्यान में रखेंगे तो पर्याप्त है।

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे