धार्मिक शिक्षा का स्वरुप
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अध्याय ४०
भारत में भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा
विश्वगुरु बनने के लिये, विश्व का कल्याण चाहने के लिये प्रथम भारत में भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा करनी चाहिये ऐसा कहकर इस प्रस्तुति का प्रारम्भ किया था । हमने देखा कि शिक्षा अपने आपमें, अकेले में कार्यरत नहीं हो सकती। उसका सम्बन्ध राष्ट्रजीवन के सभी आयामों के साथ है। आज तो विश्वस्थिति भी शिक्षा को प्रभावित करती है। इसलिये जब तक अर्थव्यवस्था, राज्य की भूमिका और समाज की स्थिति नहीं बदलती। तब तक शिक्षा में परिवर्तन नहीं हो सकता।
परन्तु इन सभी व्यवस्थाओं में परिवर्तन होगा कैसे ? परिवर्तन की संकल्पना और स्वरूप, परिवर्तन की प्रक्रिया निश्चित कौन करेगा ? शासन और प्रशासन तो चाहकर भी यह नहीं कर सकता। यह उनका विषय ही नहीं है। निश्चित ही विश्वविद्यालयों को इस कार्य का दायित्व लेना होगा।
इससे एक दुविधा निर्माण होती है। जब तक अन्य व्यवस्थायें नहीं बदलती हैं तब तक शिक्षा में परिवर्तन नहीं हो सकता और जब तक शिक्षा नहीं बदलती तब तक अन्य व्यवस्थायें नहीं बदलतीं । यह परिवर्तन परस्परावलम्बी है। ऐसी स्तिति में पहल शिक्षा को ही करनी होगी। अन्य व्यवस्थाओं के परिवर्तन की आवश्यकता बताते हुए इन व्यवस्थाओं का प्रारूप तैयार करना होगा। इसकी एक राष्ट्रव्यापी बहस छेडनी होगी। इन व्यवस्थाओं से सम्बन्धित विषयों के नये पाठ्यक्रम बनाने होंगे। उनके लिये सामग्री तैयार करनी होगी। इन्हें पढाने की व्यवस्था करनी होगी। राज्य और समाज का सहयोग प्राप्त कर अपनी जिम्मेदारी से अध्ययन और अध्यापन करना होगा। इस अद्ययन के अनुसार नई रचनायें खडी करनी होंगी। धीरे धीरे इन व्यवस्थाओं में परिवर्तन होगा तब व्यापक रूप में शिक्षा में भी परिवर्तन होगा।
एक सुलभ उपाय है परिवार को शिक्षा का केन्द्र बनाने का । वास्तव में परिवार एक महत्त्वपूर्ण शिक्षा केन्द्र है भी। इसे विकसित करने में व्यवधान कम होंगे और अनुकूलता अधिक । इस दृष्टि से एक व्यापक योजना बन सकती है।
वैसे भी भारतीय परिवार विश्व के लिये आकर्षण का विषय है। भारत में आज इस व्यवस्था का क्षरण हो रहा है । इसे पुनः सुदृढ बनाने के लिये सर्व प्रकार की शक्ति लगाने की आवश्यकता है । अर्थशास्र और समाजशास्त्र को परिवारकेन्द्रित बनाकर विस्तार किया जा सकता है। संस्कृति से सम्बन्धित सभी बातों का गृहशास्र के रूप में अध्ययन हो सकता है। नई पीढी को समर्थ बनाने हेतु अधिजननशास्त्र, बच्चों के संगोपन का शास्त्र, आहारशास्र, आरोग्यशास्र, उद्योग आदि अनेक विषयों की पुनर्रचना की जा सकती है।
परिवार के शिक्षा केन्द्र के रूप में विवाह के साथ साथ लोकशिक्षा की व्यापक योजना बनाई जा सकती है। भारतीयता की आवश्यकता, भारतीयता का स्वरूप, भारतीय शिक्षा का स्वरूप, भारतीय शिक्षा की आवश्यकता आदि विषयों पर व्यापक जनमानस प्रबोधन की योजना की जा सकती है।
इस प्रकार सीधे सीधे शिक्षा में परिवर्तन करने के स्थान पर व्यापक सन्दर्भो को अनुकूल बनाना चाहिये ।
आज देशभर में ऐसे असंख्य प्रयोग चल रहे हैं। ये प्रयोग ऐसे हैं जिनमें सरकारी मान्यता, परीक्षा, प्रमाणपत्र, नौकरी आदि कुछ भी नहीं हैं। लोग अपनी सन्तानों को स्वयं पढाते हैं। वे इस आसुरी शिक्षा व्यवस्था में अपनी सन्तानों को भेजना नहीं चाहते । अनेक लोग झुग्गीझोंपडियों के बच्चों को पढ़ाने की सेवा करते हैं। अनेक धार्मिक सम्प्रदाय संस्कार केन्द्रों के रूप में धर्मशिक्षा दे रहे हैं। अनेक संगठन वनवासी और ग्रामीण बच्चों के लिये एकल शिक्षक विद्यालय चलाते हैं। ये सब निःशुल्क शिक्षा के प्रयोग हैं। ये समाज की और शिक्षा की सेवा के रूप में चलते हैं।
अनेक धार्मिक संगठन उपनिषदों का अध्ययन करवाते हैं। यह उपदेश नहीं शिक्षा होती है । वेद पाठशालाओं में वेद अभी भी जीवित हैं । स्थान स्थान पर गुरुकुलों के प्रयोग शुरु हो रहे हैं।
ये सारे प्रयोग वर्तमान शिक्षा की मुख्य धारा से बाहर हैं। शिक्षा की मुख्य धारा यूरोपीय है परन्तु ये सभी प्रयोग कमअधिक मात्रा में भारतीय है । इन्हें यदि एक साथ रखा जाय तो इनका पलडा मुख्य धारा की शिक्षा के पलडे से भारी होगा । ये सरकार के नहीं, समाज के भरोसे चलते हैं। समाज इनका सम्मान करता है क्योंकि वे समाज की सांस्कृतिक आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। भारत इन के भरोसे भारत है । भारत अभी जीवित है मरा नहीं है इसका श्रेय इन प्रयोगों को है । इन प्रयासों के साथ विश्वविद्यालयों
References
भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे