मनोस्वास्थ्य प्राप्त करें
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अध्याय ३४
मनोस्वास्थ्य प्राप्त करें
१. अंग्रेजी और अंग्रेजियत से मुक्ति
कल्पना करें कि एक ही रात्रि में ऐसा कोई चमत्कार घटित हो जाय कि किसी भी भारतीय को अंग्रेजी जैसा कुछ है इसका लेशमात्र स्मरण न हो । अंग्रेजी अखबार उसे समझ में न आये, अंग्रेजी चैनल उसे बडबड लगे, अंग्रेजी शब्द उसके शब्दकोष से गायब हो जाय, अंग्रेजी पुस्तकें उसे रद्दी में फैंकने लायक लगें।
केवल अपने घर से ही नहीं तो घर के बाहर दकानों के फलक, रेल स्थानकों के नाम, रास्तों के नाम हिन्दी में ही लिखे मिलें । कार्यालय से अंग्रेजी गायब, ग्रन्थालयों से अंग्रेजी पुस्तकें गायब ।
पूरा देश सोलहवीं शताब्दीमें पहुँच जाय जब किसी भारतवासी ने गोरी चमडी वाले व्यक्ति को देखा भी नहीं था और यूरोप का उसके लिये अस्तित्व ही नहीं था। यदि ऐसा हुआ तो क्या होगा?
कौन कौन से क्षेत्र में हमें क्या क्या हानि या लाभ होगा ?
हमें तुरन्त लगेगा कि हम पाँच सौ वर्ष पिछड जायेंगे। आगे बढ़ने की और पिछड जाने की पश्चिम की
और हमारी संकल्पना में पूर्व पश्चिम जैसा ही अन्तर है। हमारा समय सत्ययुग से शुरू होता है और कलियुग की ओर बढता है। बढ़ते बढते सृष्टि के पदार्थों और मनुष्य के सत्त्व का क्षरण होता जाता है । इसलिये पाँच सौ वर्ष पूर्व जाना हमारे लिये तो आज की तुलना में अच्छे समय में जाना होगा । यूरोप के लिये समय के साथ विकास होता जाता है इसलिये पीछे जाने को वे पिछड जाना कहते हैं । हम उनके प्रभाव में पाँच सौ वर्ष पूर्व जाने को पिछड जाना कहते हैं।
हमारे लिये यह पाँचसो वर्ष का काल एक दुःस्वप्न जैसा है, हमारी सारी समृद्धि लुट जाने का है, सारी व्यवस्थाओं के नष्ट हो जाने का है, हीनताबोध से ग्रस्त हो जाने का है, हमारी ज्ञान परम्परा के खण्डित हो जाने का है। क्या इस काल को भूल जाना हम नहीं चाहेंगे ? क्या पाँच सौ वर्ष पूर्व जैसे थे वैसे बनना नहीं चाहेंगे ?
नहीं चाहेंगे, क्योंकि इन पाँच सौ वर्षों में हमें मधुर जहर का चटका लगा है। यह युग जेट विमान का है, मोबाइल और संगणक का है, टीवी और सिनेमा का है, बिजली और वातानुकूलित व्यवस्थाओं का है। हम इन सुविधाओं को छोडकर 'बैलगाडी के युग' में जाना पसन्द नहीं करेंगे । हमें आधुनिक बनना है ।
यही अंग्रेजी और अंग्रेजीयत है जिसके मोह से हम मुक्त नहीं हो सकते हैं।
परन्तु जब तक हम इस मोह से मुक्त नहीं होते तब तक हम गुलामी से भी मुक्त नहीं हो सकते ।
क्या भारतीय ज्ञानधारा जिन ग्रन्थों में सुरक्षित है ऐसे वेद उपनिषद नहीं पढने से तो हमें कोई नुकसान नहीं होता परन्तु पश्चिम के विद्वानों को पढे बिना हमारा ज्ञान अधूरा है ऐसा ही, हमें लगता है ? क्या भगवद्गीता अंग्रेजी में पढना पर्याप्त हैं परन्तु काण्ट, हेगेल, न्यूटन या एरिस्टोटल मूल अंग्रेजी में पढना अनिवार्य है ऐसा ही हम मानते हैं ? क्या अंग्रेजी नहीं जानने वाले भारत के विद्वान विद्वान नहीं माने जाते क्योंकि पश्चिम उन्हें स्वीकार नहीं करता परन्तु संस्कृत नहीं जानने वाले का ज्ञान अधूरा है ऐसा हमें लगता है ?
आज के जमाने में अंग्रेजी के बिना नहीं चलता ऐसा कहने का क्या व्यावहारिक अर्थ है ? क्या काम नहीं चलता ऐसे प्रश्न का कोई बुद्धिगम्य उत्तर हमारे पास नहीं होता तो भी हम अंग्रेजी चाहते हैं ।
विश्वभर के शिक्षाविद एक स्वर में कहते हैं कि शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही होना चाहिये तो भी सरकार और प्रजा अंग्रजी माध्यम चाहती है। सरकार का पत्रव्यवहार भी अंग्रेजी में चलता है । आज तो स्थिति ऐसी है कि अंग्रेजी और अंग्रेजीयत के सामने सब हार गये हैं।
सवाल मात्र भाषा का नहीं है। हमें अंग्रेजी माध्यम के साथ साथ इण्टनेशनल बोर्ड भी चाहिये । इण्टरनेशनल का अर्थ है विदेशी केन्द्र और अंग्रेजी भाषा। हमारी वेशभूषा, शिष्टाचार, खानपान, घरों की बनावट और सजावट, विचार प्रणाली आदि सभी बातों में अंग्रेजी घुस गया है। इससे छुटकारा पाने की बात करते करते भी हम उसमें अधिकाधिक फंसते हैं. अंग्रेजीयत से मुक्त होने की चर्चा भी हम अंग्रेजी पद्धति से करते हैं।
हमारे देश में दो चार प्रतिशत अंग्रेजी जानने वाले हैं। वे अपने आपको श्रेष्ठ मानते हैं। सरकार अंग्रेजी के मोह में फँसी हुई है। विश्वविद्यालय अंग्रेजी का प्रभूत्व मानते हैं। प्रशासन अंग्रेजी परस्त है। ये सब मिलकर देश की जनसंख्या के दो चार प्रतिशत ही होते हैं। परन्तु यह अंग्रेजी परस्त वर्ग अंग्रेजी नहीं जानने वालों पर राज करता है। यह तो स्वाधीनता पूर्व की ही स्थिति हुई।
परन्तु इस दो चार प्रतिशत वाले समूह को तर्क से या भावना से समझाना कठिन ही नहीं, असम्भव है। इसलिये अब कोई दूसरा मार्ग ढूँढना चाहिये ।
क्या हो सकता है दुसरा मार्ग ? देश के नब्बे प्रतिशत लोग बिना अंग्रेजी के अपना काम चला लेते हैं। अनजाने में भी वे भारतीय हैं। वे पिछडे, अनपढ, गँवार, निर्धन, असंस्कारी माने जाते हैं परन्तु भारत की परम्परा, भारत की संस्कृति, भारत का स्वत्व उनका ही आश्रय करके रहता है। वनवासी, चाय के ठेले वाले. रेलवे स्थानक के कुली, रिक्षा चलाने वाले, किसान, मजदूर आदि सब भारतीय जीवनमूल्यों के साथ जी रहे हैं । परम्परा से प्राप्त ज्ञान और कौशल आज भी उनके पास है। आज भी वे भलाई के काम करते हैं। वे संस्कृत नहीं जानते, देश दनिया की स्थिति नहीं जानते, अंग्रेजी भी नहीं जानते, देशभक्ति जैसी संकल्पना नहीं जानते, वे विद्वान नहीं हैं परन्तु आत्मीयता, प्राणियों के प्रति दया, प्रकृति के प्रति कृतज्ञता उनमें है ।
इनके भरोसे भारतीयता की प्रतिष्ठा की जा सकती है । प्रश्न यह है कि हम कहाँ हैं ? कहाँ रहना चाहते हैं ? हम इन दो चार प्रतिशत के लिये हैं या नब्बे प्रतिशत के लिये ? हम इस छोटे वर्ग में रहकर नब्बे के साथ काम करना चाहते हैं कि उनके साथ हो जाना चाहते हैं ?
भारत की भारतीयता और उसकी प्रतिष्ठा चाहने वालों को स्वयं भी स्पष्ट होने की आवश्यकता है। अंग्रेजी और अंग्रेजीयत के आभामण्डल से मुक्त होने पर ही हमारा मार्ग साफ होने वाला है।
२. ज्ञानात्मक हल ढूंढने की प्रवृत्ति
विश्व को संकटों से मुक्त करना है तो भारत को अग्रसर होना होगा, पथप्रदर्शक बनना होगा इसमें न तो विश्व को सन्देह है न भारत को । भारत को सन्देह होना भी नहीं चाहिये । परन्तु आज भारत जैसा है वैसा तो पथप्रदर्शक नहीं बन सकता । आज भारत स्वयं पश्चिम की छाया में जी रहा है, यूरोप बनने की आकांक्षा पाल रहा है, प्रयास कर रहा है। स्वयं के लिये और विश्व के लिये भारत को बदलना पडेगा। भारत को भारत बनना होगा । ऐसा करके ही वह अपनी भूमिका निभा सकेगा।
भारत भारत बने इसका अर्थ क्या है ? वह कैसे होगा ? भारत को क्या करना होगा ?
- भारत ज्ञान का देश है। भारत संज्ञा का अर्थ है भा में रत अर्थात् प्रकाश में रत । ज्ञान के प्रकाश में रत रहना भारत का स्वभाव है। इसलिये भारत को सर्वप्रथम ज्ञान की उपासना करनी चाहिये, ज्ञान की साधना करनी चाहिये । ज्ञानयुक्त व्यवहार कर ज्ञान की प्रतिष्ठा करनी चाहिये। तभी उसका भारत नाम सार्थक होगा।
- भारत को राष्ट्रजीवन की हो या विश्वजीवन की, समस्याओं को, संकटों को ज्ञान के प्रकाश में देखना और समझना चाहिये । ज्ञान ही सर्व उपायों में सर्वश्रेष्ठ है, पवित्र है इसलिये ज्ञानात्मक हल भी सर्वंकष और स्थायी होते हैं, अन्य तत्काल और अधूरे सिद्ध होते है।
- आज भारत के विभिन्न समूह और विश्व के विभिन्न देश किसी भी संकट का या समस्या का हल राजनीतिक या आर्थिक हल ढूँढते हैं। अनेक बार इसका स्वरूप प्रकट या प्रच्छन्न रूप से सामरिक होता है। प्रकट रूप से देशों के बीच युद्ध होते हैं, प्रच्छन्न रूप से घुसपैठ और आतंकवाद का सहारा लिया जाता है। इन सारे उपायों का त्याग कर ज्ञानात्मक हल ढूँढना भारत का काम है, भारत का वह स्वभाव
- ज्ञानात्मक हल बुद्धि से ढूंढा जाता है । बुद्धि के लिये प्रथम आवश्यकता आत्मनिष्ठ बनने की है। आत्मनिष्ठ बुद्धि ही निःस्वार्थ बुद्धि बन सकती है। निःस्वार्थ बुद्धि को हृदय का सहयोग मिलता है। बुद्धि को आत्मनिष्ठ बनाना केवल भारत के लिये सम्भव है । इस कारण से भी संकटों को दूर करने के विषय में भारत अग्रसर बन सकता है।
- बुद्धि और हृदय मिलकर जो कार्य होता है वह सही और उचित ही होता है क्योंकि वह सत्य और धर्म पर आधारित होता है । इस कारण से ज्ञानात्मक हल ढूँढने का कार्य शिक्षक और धर्माचार्य मिलकर कर सकते हैं । विश्वविद्यालय और धर्मस्थान संयुक्त रूप में सत्य और धर्म पर आधारित हल ढूँढने का कार्य कर सकते हैं।
- ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये ज्ञानकेन्द्रों अर्थात् विश्वविद्यालयों को स्वयं से दायित्व लेना चाहिये, स्वयं पहल करनी चाहिये, स्वयं अग्रसर होना चाहिये। ज्ञानात्मक हल तभी सम्भव है जब विश्वविद्यालय में कार्यरत शिक्षक इसे अपना दायित्व माने, स्वेच्छा और स्वतन्त्रता से कार्य शुरू करे और चल रहे कार्य में जुडे यह आवश्यक है।
- ज्ञानात्मक हल का अर्थ है वह सबके लिये कल्याणकारी होगा, किसी पर जबरदस्ती थोपा हुआ नहीं रहेगा, सबको स्वीकार्य होगा।
- सत्य और धर्म पर आधारित होने का अर्थ है राष्ट्रों के निहित स्वार्थ, स्व-पर का भेद, निकृष्ट और क्षुद्र भावनाओं आदि से मुक्त होना । यही बातें सुख और शान्ति की ओर अग्रसर करने वाली होती हैं।
- ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये बुद्धि को तेजस्वी, विशाल और कुशाग्र बनाने की आवश्यकता होती है। ऐसी बुद्धि ही किसी एक विषय के सभी आयामों को साथ रखकर समग्रता में आकलन कर सकती है। अतः प्रथम तो बुद्धि का इस प्रकार से विकास करना विश्वविद्यालयों का अग्रताक्रम बनना चाहिये ।
- साथ ही बुद्धि को उदार भी होना चाहिये । उदारता केवल बुद्धि का नहीं तो सम्पूर्ण चरित्र का गुण है। चरित्र की उदारता के बिना बुद्धि भी उदार नहीं बन सकती। बुद्धि उदार नहीं बनती तबतक सब का कल्याण किसमें है यह भी नहीं देख सकती । उदार बुद्धि उदार अन्तःकरण का ही एक हिस्सा है ।
- भारत के लिये यह कार्य नया नहीं है। अपने दीर्घ इतिहास में अनेक बार ऐसा कार्य भारतने किया है। लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व का तक्षशिला विद्यापीठ और उसके एक सत्यनिष्ठ और धर्मनिष्ठ आचार्य विष्णुगुप्त ने अग्रसर होकर राष्ट्र पर आये संकट का निवारण ज्ञान को कृति में परिणत करके ही किया था।
- विश्व के संकटों का ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये प्रथम ज्ञान पर छाये पश्चिमी मानसिकता के बादलों को दूर करना पड़ेगा। ऐसा करने हेतु पश्चिमी जीवनविचार समझकर भारतीय ज्ञानदृष्टि से उसे परखकर, भारत के मानस पर हुए उसके प्रभाव को तोल कर उपाय योजना करनी होगी। उपाययोजना करने हेतु बुद्धि को व्यावहारिक धरातल पर कार्यरत होना होगा।
- ज्ञान के क्षेत्र में अध्यात्म, धर्म, संस्कृति आदि संकल्पनाओं को जोडना होगा। आज इन सब का नाम लेने में विद्वत्क्षेत्र को डर सा लगता है । डर नहीं तो संकोच तो लगता ही है। । कोई इसे मानेगा कि नहीं, इसका स्वीकार करेगा कि नहीं ऐसी आशंका बनी रहती है । समुचित चिन्तन से इन आशंकाओं को दूर कर इन संकल्पनाओं की प्रतिष्ठा करनी होगी।
- ऐसा करने के लिये दैनन्दिन व्यवहार के साथ इन संकल्पनाओं को जोडना होगा । इस भ्रान्त धारणा का निरसन करना होगा कि अध्यात्म और दैनन्दिन व्यवहार, अध्यात्म और भौतिक विकास का कोई सम्बन्ध नहीं है या है तो विपरीत सम्बन्ध है।
- भारत को यदि ज्ञानात्मक हल ढूँढने हैं तो वह ज्ञान भारतीय ही होगा इसमें तो कोई सन्देह नहीं । इसके चलते आध्यात्मिक समाजशास्त्र, आध्यात्मिक अर्थशास्त्र, आध्यात्मिक भौतिकशास्त्र जैसी संज्ञाओं का प्रयोग करने में भी संकोच नहीं करना चाहिये । अर्थात् यह आवश्यक है कि इसकी सरल भाषा में स्पष्टता तो करनी ही चाहिये ।
- भारत को ज्ञानात्मक हल ढूँढने है तो मनुष्य के व्यवहार और विचारों के स्रोत क्या होते हैं इसका भी विश्लेषण करना होगा । उदाहरण के लिये मनुष्य स्त्री पर बलात्कार क्यों करता है या शिक्षित, बुद्धिमान, सम्पन्न घर का मुसलमान युवक आतंकवादी क्यों बनता है या पर्यावरण का प्रदूषण करने के लिये मनुष्य क्यों संकोच नहीं करता है यह समझने के लिये, इसके मूल में जाकर कारगर उपाय योजना करने के लिये मनोविज्ञान, इतिहास, संस्कृति आदि का अध्ययन करना होगा, केवल कानून बनाने से काम नहीं चलेगा।
- ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये ज्ञान के स्वरूप को भी सम्यक् रूप में जानना होगा । जैसा कि पूर्व के ग्रन्थों में स्पष्ट किया गया है जानकारी, क्रिया, इन्द्रियानुभव, विचार, कल्पना, भावना, विवेक, संस्कार, अनुभूति आदि सब ज्ञान के ही स्वरूप हैं और विभिन्न सन्दर्भो में इनमें से किसी न किसी की प्रमुख भूमिका रहती है। इन सभी स्वरूपों का विनियोग कैसे करना इसका चिन्तन करना चाहिये ।
- ज्ञान के व्यवहार में दो पक्ष होते हैं। एक सिद्धान्त का और दसरा व्यवहार का । सिद्धान्त का पक्ष समझ स्पष्ट करने के लिये और व्यवहार का पक्ष क्रियात्मक योजना बनाने के लिये होता है।
- ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये शास्त्रग्रन्थों को और लोकपरम्पराओं को आधार मानना चाहिये । साथ ही सद्यस्थिति का सम्यक् आकलन भी करना चाहिये । यह सब करते समय उदार, निष्पक्षपाती, करुणापूर्ण अन्तःकरण युक्त परन्तु निश्चयी भी होना चाहिये । करुणा ऐसी नहीं हो सकती कि असत्य के प्रति कठोर न हो सके और उदार ऐसे नहीं कि अपना है इसलिये दण्ड न दे अथवा मृदु दण्ड दे।
- ज्ञानात्मक हल ढूँढ सके ऐसे लोगों को तैयार करना एक आवश्यकता है और समस्त प्रजा सत्य और धर्म का आग्रह रखनेवाली हो यह दसरा पक्ष है। इन दोनों पक्षों की शिक्षा की व्यवस्था करने से संकटों का ज्ञानात्मक निवारण सम्भव होता है।
३. पवित्रता की रक्षा
- भारत का सामान्य जन पवित्रता को जानता और मानता है। उसे समझाने की या उसके लिये व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। परन्तु आधुनिक शिक्षित, प्रगतिशील व्यक्ति को पवित्रता के विषय में समझाने पर भी समझ में नहीं आता। यदि भाग्यवशात् समझ में आ भी गया तो वह उसका पालन नहीं करता।
- भारत के सामान्यजन के लिये भूमि, जल, अग्नि आदि पंचमहाभूत पवित्र हैं। गाय, तुलसी, पीपल, गंगा आदि पवित्र हैं। पुस्तक, लेखनी, बही पवित्र है। अन्न, विद्यालय, औषधि पवित्र हैं। तीर्थस्थान, मन्दिर, घर पवित्र हैं। इनकी पवित्रता की रक्षा करना हर कोई अपना कर्तव्य मानता है।
- थोडा सा विचार करने पर समझ में आता है कि जो भी बात मनुष्य या प्राणियों के जीवन का रक्षण और पोषण करनेवाली है, जो भी पदार्थ, व्यक्ति या स्थान मनुष्य के जीवन को उन्नत बनानेवाला है वह पवित्र है। अर्थात् पवित्रता का सम्बन्ध सुरक्षा और संस्कार के साथ है।
- जो व्यक्ति, पदार्थ, स्थान आदि पवित्र हैं उनके साथ अत्यन्त आदरपूर्ण व्यवहार किया जाता है। उन्हें दूषित होने नहीं दिया जाता है। उनका रक्षण किया जाता है। उनके प्रति श्रद्धा दर्शाई जाती है। उन्हें पूज्य माना जाता है।
- श्रद्धा, आदर आदि दर्शाने के कुछ संकेत हैं। उन्हें स्नान करके शुद्ध हुए बिना स्पर्श नहीं किया जाता । उन्हें गलती से भी पैर लग गया तो तुरन्त क्षमा माँगी जाती है। उन्हें अपवित्र वस्तुओं या व्यक्तियों का स्पर्श नहीं होने दिया जाता । उन्हें अपवित्र स्थान पर रखा नहीं जाता। उन्हें अपने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
- रेल की यात्रा के समय भोजन के डिब्बे को बर्थ के नीचे नहीं रखा जाता । भगवान की मूर्ति के साथ जूते नहीं रखे जाते । पुस्तकों को मस्तक पर रखा जाता हैं, पैरों के नीचे नहीं। यज्ञ की वेदी को कुत्ते स्पर्श न करें इसका ध्यान रखा जाता है। गाय को डण्डा नहीं मारा जाता।
- एक खास बात यह है कि पवित्र वस्तुओं का व्यापार नहीं किया जाता। भारत की यह विशेष परम्परा रही है। अन्न, पानी, हवा, अग्नि आदि क्रियविक्रय के लिये नहीं हैं। ज्ञान, कला, सेवा भी पैसे के लेनदेन से मुक्त हैं । ग्रन्थ का पैसा उसके कागज और मुद्रण का होता है, उसमें संग्रहित ज्ञान का नहीं । कला की प्रस्तुति पैसे के कारण अच्छी या निकृष्ट नहीं होती। पढाना भी पैसे से नहीं होता।
- पवित्र पदार्थों का क्षुद्र हेतुओं के लिये उपयोग नहीं किया जाता। उनके विषय में घटिया बातें नहीं की जातीं। उनके साथ घटिया व्यवहार नहीं किया जाता । उनकी अवमानना नहीं की जाती।
- ऐसे व्यवहार के व्यावहारिक परिणाम बहुत अच्छे होते हैं । पंचमहाभूतों को पवित्र मानने से उन्हें देवता माना जाता है। उनके साथ दुर्व्यवहार नहीं किया जाता है इसलिये पर्यावरण के प्रक्षण का तो प्रश्न ही नहीं पैदा होता । उल्टे हमेशा उनके रक्षण की ही बात सोची जाती है।
- पवित्रता शुद्धता से अलग है और कहीं अधिक है। पवित्र पदार्थ शुद्ध होता ही है परन्तु शद्ध हमेशा पवित्र हो ऐसा नहीं होता। पवित्रता का सन्दर्भ शुद्धता से अलग है। उदाहरण के लिये जब भोजन करना है तब वह शुद्ध ही होना चाहिये ऐसा हमारा आग्रह रहता है परन्तु अन्न का आदर या अनादर करना या नहीं करना है ऐसा विचार नहीं आता। अर्थात् अपने लिये ही विचार करते हैं तब शुद्धता का आग्रह होता है, अन्न के विषय में सोचते हैं तब पवित्रता का भाव होता है। केवल अपना ही नहीं, अन्न का भी विचार करना चाहिये यह संकेत पवित्रता की संकल्पना में निहित हैं।
- भारत को भारत बनना है तो इस पवित्रता की दृष्टि को सार्वत्रिक बनाना होगा। भारत के अशिक्षित, अर्धशिक्षित, अंग्रेजी और अमेरिका को नहीं जानने वाले लोग इसे समझते हैं और आचरण में लाते हैं परन्तु अमेरिका का मानसिक और बौद्धिक चश्मा पहने हुए लोग इसे जानते या मानते नहीं हैं। पवित्रता की संकल्पना को लेकर भारत के इस शिक्षित वर्ग को अपने आपको बदलने की आवश्यकता है।
- एक चाय के ठेलेवाला प्रातःकाल व्यवसाय शुरू करता है तब पहला प्याला धरती को समर्पित करता है। एक रिक्षावाला प्रातःकाल रिक्षे को फूल चढाता है, पहली सवारी के पैसे इमानदारी से लेता है। या कभी कभी नहीं भी लेता। एक व्यापारी अपने हिसाब के पुस्तक की पूजा करता है। किसान हल की, सुथार कुल्हाडी की, कुम्हार चाक की पूजा करता है। यह निर्जीव साधनों । का कृतज्ञतापूर्वक सम्मान करने की भावना पवित्रता है। इस भावना से सुख, समृद्दि और शान्ति पनपती है। यह अभ्युदय और निःश्रेयस की ओर जाने का व्यावहारिक मार्ग है।
- शुद्धता भौतिक है, पवित्रता मानसिक। उसका सम्बन्ध अन्तःकरण के साथ है । जीवन के व्यवहारों में अन्तःकरण की प्रवृत्तियों का प्रभाव और महत्त्व अधिक होते हैं। अन्तःकरण का प्रभाव भौतिक पदार्थों पर भी होता है। इसलिये शुद्धता के साथ साथ, शुद्धता से भी अधिक पवित्रता की चिन्ता करनी चाहिये।
- वर्तमान जगत में शुद्धता और पवित्रता का यह अन्तर विचार में ही नहीं लिया जाता है। इसका कारण सृष्टि को भी केवल भौतिक मानने में है। उदाहरण के लिये पर्यावरण की बात करते समय हम पंचमहाभूतों का ही विचार करते हैं । परन्तु सृष्टि पंचमहाभूतों के साथ साथ सत्त्व, रज और तम ऐसे तीन गुणों की भी बनी है। इन तीन गुणों से मन, बुद्धि और अहंकार बने हैं। इनकी शुद्धि और पवित्रता भी पर्यावरण के विचार का हिस्सा है, वह अधिक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है । वायु की शुद्धि से भी विचारों की शुद्धि अधिक महत्त्वपूर्ण मानी जानी चाहिये।
- एक कुम्हार अपने चाक को, या एक रिक्षेवाला अपनी रिक्षा को केवल इसलिये पवित्र नहीं मानता कि उससे उसे रोजी मिलती है। वह इसे इसलिये पवित्र मानता है क्योंकि उससे वह लोगों की आवश्यकता की पूर्ति कर पायेगा। आज यदि कलियुग के या पश्चिम के प्रभाव से इस बात का विस्मरण हुआ है तो उसे पुनःस्मरण में लाना होगा।
- भारत के सांसद और विधायक, भारत के प्रशासकीय अधिकारी, भारत के उद्योजक, भारत के अध्यापक अपने कार्य के साथ पवित्रता की भावना जोड लें तो कैसा परिवर्तन होगा इसकी हम कल्पना कर सकते हैं। ये सब समस्त प्रजा पर परिणाम करनेवाले क्षेत्र हैं। आज उनमें से पवित्रता की भावना निष्कासित हो गई है। इसके क्या दुष्परिणाम हो रहे हैं यह भी हम देख रहे हैं । हम भुगत भी रहे हैं। अतः भारत के मानस में पवित्रता की भावना को, पवित्रता की दृष्टि को पुनः प्रतिष्ठित करना होगा।
- पवित्र पदार्थ, पवित्र विचार, पवित्र व्यक्ति दूसरों को भी पवित्र बनाते हैं। पवित्रता का यह प्रभाव है। पवित्र अन्तःकरण से किया गया कार्य अधिक प्रभावी होता है क्योंकि उसका प्रभाव अन्तःकरण के स्तर पर होता है। इसलिये भारत में आज अन्तःकरण की पवित्रता की चिन्ता करनी चाहिये । उससे ही हम विश्वस्थिति को प्रभावित कर सकते हैं।
- क्षुद्र दिखनेवाले पदार्थों में भी पवित्रता का भाव आरोपित किया जा सकता है। इससे उस क्षुद्र पदार्थ की महत्ता बढ़ती है और उसमें प्रेरक शक्ति आती है। उदाहरण के लिये महापुरुष जिस रास्ते पर चलकर गये उस रास्ते का धूलिकण पवित्र माना जाता है। अनेक दिवंगत महापुरुषों के वस्त्र, माला, जूते सुरक्षित रखे जाते हैं क्योंकि महापुरुषों के संसर्ग से उनमें प्रेरक शक्ति निर्माण हुई है। हम इन निर्जीव, क्षुद्र पदार्थों को भी प्रेरणा का वाहक मानते हैं।
- तात्पर्य यह है कि भौतिक स्तर पर जीने के स्थान पर भारत को अन्तःकरण के स्तर पर जीने का प्रारम्भ करना चाहिये । यह उन्नत अवस्था है। यह विकास की दिशा है। इससे श्रेष्ठता प्राप्त होती है। इससे प्रभाव निर्माण होता है।
- सामान्य जन में यह भावना है परन्तु उसकी प्रतिष्ठा नहीं है। विद्वज्जन में यह भावना नहीं है इसलिये वह उपेक्षित है। या तो विद्वज्जन को सामान्य और सामान्य को विद्वज्जन बनना चाहिये अथवा विद्वज्जन को पवित्रता की भावना अपने अन्तःकरण में प्रतिष्ठित करनी चाहिये । यह कार्य घरों में, मन्दिरों में और विद्यालयों में एक साथ होने से परिणामकारी पद्धति से हो सकेगा।
४. आत्मविश्वास प्राप्त करना
- भारत विश्व का प्राचीनतम देश है इसमें तो विश्व में किसी को सन्देह नहीं है। ऋग्वेद विश्व की प्रथम ज्ञान की पुस्तक है यह भी विश्वमान्य है। भारत ने सत्रहवीं शताब्दी तक विश्वव्यापार में अग्रक्रम प्राप्त किया है इसमें भी विश्व को सन्देह नहीं है। ऐसा भारत ज्ञान, व्यवहार और समृद्धि में अग्रणी हो सकता है ऐसा विश्वास विश्व के देशों को तो है, भारत को स्वयं को नहीं है। ऐसा आत्मविश्वास भारत को प्राप्त करने की आवश्यकता है।
- जिस भारत को देवतात्मा हिमालय और सिन्धुसागर, रत्नाकर और पूर्वसमुद्र जैसे रक्षक प्राप्त हुए हैं, विश्व में केवल उसे ही छ: ऋतुओं की विविधता प्राप्त हुई है। अत्यन्त सन्तुलित और समृद्ध प्राकृतिक स्थिति प्राप्त हुई है। धर्म और संस्कृति की संकल्पना देने वाली बुद्धि प्राप्त हुई है। ऐसा भारत विश्वकल्याण की क्षमता रखता है इसमें भारत को सन्देह नहीं होना चाहिये।
- भारत आदिकाल से विश्व में संचार करता रहा है। अपना ज्ञान, अपनी सुसंस्कृत जीवनशैली, अपनी कला कारीगरी, अपनी सभ्यता अन्य देशों को सिखाता रहा है। विश्व के सभी देश भारत से लाभान्वित होते रहे हैं और भारत के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते रहे हैं। कोई कारण नहीं कि आज भी भारत विश्व को सुख, समृद्धि और शान्ति का मार्ग न दिखा सके।
- आज भी विश्व के अनेक देशों में भारतीय हैं। विशेष रूप से अमेरिका में भारतीयों का जो योगदान है वह लक्षणीय है। डॉक्टर, इन्जिनीयर, मैनेजर, वैज्ञानिक, संगणक निष्णात आदि विविध रूपों में भारतीयों का योगदान है । एक गिनती के अनुसार अमेरिका की दो सौ कम्पनियों के मुख्य कार्यवाहक अधिकारी भारतीय हैं। नासा में अनेक भारतीय वैज्ञानिक काम कर रहे हैं। ऐसा भारत विश्व में अग्रणी हो सकता है इसमें किसे सन्देह हो सकता है।
- भारत का ज्ञान विज्ञान, सांस्कृतिक परम्परायें, कला, कौशल और जीवनदृष्टि किसी भी राष्ट्र को अभ्युदय और निःश्रेयस की प्राप्ति करवाने में सक्षम है। इन बातों के चलते जो देश अपना विकास कर सकता है वह विश्व को भी मार्ग दिखा सकता है।
- जीवन की श्रेष्ठता किन बातों में है यह भारत जानता है। श्रेष्ठता कैसे प्राप्त की जाती है वह भी भारत जानता है। इस श्रेष्ठता के बल पर भारत विश्व की निकृष्ट बातों को जान सकता है। निकृष्ट बातों का विश्लेषण कर उसे दूर करने हेतु परामर्श देने की क्षमता भारत में है।
- अन्य देशों की तुलना में भारत युवा देश है। भारत का औसत विद्यार्थी अमेरिका के औसत विद्यार्थी की तुलना में अधिक बुद्दिमान है । भारत की जनसंख्या भारत की शक्ति है। समस्याओं को सुलझाने की भारत में सहज बुद्धि है। ऐसा भारत विश्व का पथप्रदर्शक बनने की क्षमता रखता है।
- भारत की आत्मा, एकात्मता और आध्यात्मिकता, पुनर्जन्म, जन्मान्तर और मोक्ष, धर्म, सम्प्रदाय, संस्कृति और सभ्यता, कुटुम्बभावना, संस्कार और विवेक की संकल्पना किसी के पास नहीं है । इन संकल्पनाओं के आधार पर भारत ने अपना सुसंस्कृत जीवन विकसित किया है । ऐसा देश विश्व का अग्रणी होने की पात्रता रखता है इसमें क्या आश्चर्य है ?
- जो लेने से अधिक देने में विश्वास करता हो, अपने से पहले दूसरों का विचार करता हो, अपने से छोटों का रक्षण और पोषण करने को अपना कर्तव्य मानता हो, किसी की भी स्वतन्त्रता को छीनता न हो उस देश को विश्वास होना चाहिये कि वह अन्यों को भी अच्छा जीवन जीने की राह दिखा सकता है।
- जो देश हमेशा चराचर के हित की ही कामना करता हो, सम्पूर्ण पृथ्वी को कुटुम्ब मानता हो, सबको अपना मानता हो वह देश विश्व को हितकारी मार्ग पर चलना सिखा सकता है। जो कभी किसी को पराजित करने की कामना न करता हो, किसी पर अत्याचार न करता हो उससे किसी को भय नहीं हो सकता । उस पर सब भरोसा कर सकते है।
- जिस देश को आत्मज्ञानी पूर्वजोंसे ज्ञान का, तपस्वी ऋषियों से तप का, पराक्रमी राजाओं से शौर्य का, हरिश्चन्द्र जैसे राजओं से सत्यनिष्ठा का, वेदव्यास, याज्ञवल्क्य जैसे शास्त्रज्ञों का उत्तराधिकार प्राप्त हुआ हो उस देश से विश्व के अन्य देश भी लाभान्वित हो सकते हैं, अपने लिये प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं।
- जहाँ धन कमाने वाला अपने लिये बाद में और अपनों के लिये पहले खर्च करता हो, भोजन बनाने वाला सबको खिलाकर खाता हो, अन्न ऊगाने वाला सबके लिये अन्न की चिन्ता करता हो, जहाँ चींटियों से लेकर समस्त प्राणी और वनस्पति के आहार और सुरक्षा की व्यवस्था करना गृहस्थ धर्म का अंग हो वह कैसे पिछडा हो सकता है । कैसे दरिद्र हो सकता है ?
- जो भूमि को माता मानता हों, नदियों को लोकमाता कहता हो, अग्नि को पवित्र मानकर उसकी साक्षी में सारे शुभकार्य करता हो, जो वृक्षों के प्रति स्नेह रखता हो, जो आकाश को पिता मानता हो और सबकी शान्ति की प्रार्थना करता हो वह किसी को भी आतंकित नहीं कर सकता। जो सबका भला चाहता है वही श्रेष्ठ होता है और उसका कभी नाश नहीं होता।
- जो प्रकृति का शोषण कर पर्यावरण का प्रक्षण कर विश्व के अन्य देशों के लिये संकट निर्माण करते हैं, अमर्याद उपयोग के कारण जिनकी मानसिक शान्ति और स्थिर बुद्धि का नाश हुआ है, जिनका जीवन अनीतिमान है, जो सम्पूर्ण पृथ्वी को लूटकर स्वयं उपभोग करना चाहते हैं, जो दुनिया को आतंकवाद से भयभीत ही रखना चाहते हैं वे देश नम्बर वन कैसे हो सकते हैं ? वे सुखी भी कैसे हो सकते हैं ? दूसरों के विनाश के निमित्त बननेवाले स्वयं के विनाश को ही तो निमन्त्रित कर रहे हैं।
- जो धर्म को सम्प्रदाय में सीमित नहीं करता है, जो सभी सम्प्रदायों का आदर करता है, जिसके साम्प्रदायिक कर्मकाण्ड और भौतिक विज्ञान में परस्पर विरोध नहीं है, जो समय के साथ अपने कर्मकाण्डों का स्वरूप भी बदलता है, जो चिरपुरातन के साथ नित्यनूतनता का समन्वय करता है, जो तत्त्व और व्यवहार को एकदूसरे से भिन्न नहीं समझता और तत्त्व के अनुसार व्यवहार करता है वह वास्तव में बुद्धिमान है, संकटों का निवारण करने में सक्षम है।
- जो सत्य को धर्म की ही वाणी मानता हो, सर्वभूतों के हित का पर्याय मानता हो, सत्य के लिये कुछ भी छोड सकता हो, अन्तिम विजय सत्य की ही होती है ऐसा मानता हो वह अपनी कल्याणकारी शक्ति पर क्यों विश्वास नहीं कर सकता ? अपने आपका विस्मरण उसे कैसे हो सकता है ? ।
- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को जो सार्वभौम महाव्रत मानकर अपनी आत्मसाक्षात्कार की साधना का प्रथम चरण मानता हो, जो अपने आपको ब्रह्म ही मानता हो और सृष्टि समस्त उसके लिये ब्रह्म का ही आविष्कार है इसलिये उसके साथ अद्वेत का अनुभव करता हो, जो सबकी स्वतन्त्र सत्ता का स्वीकार और सम्मान करता हो, उससे विश्व आश्वस्त ही हो सकता है, भयभीत नहीं। ऐसे देश को स्वयं भी किसी से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं।
- जो स्वतन्त्रता को स्वैराचार नहीं मानता, समानता के लिये एकरूपता का आग्रह नहीं रखता, जिसका विश्वनागरिकत्व कानून से नहीं, एकात्मभाव से सिद्ध होता है, जिसकी न्यायदेवता अन्धी नहीं विवेक के चक्षु से युक्त है जिसकी बुद्धि आत्मनिष्ठ है, वह विश्व को शास्त्रों से नहीं अपितु प्रेम से जीतता है, उसके सामने जीता गया भी पराजित नहीं होता।
- जिस देश के धर्म और संस्कृति की विश्व के अनेक चिन्तकों ने प्रसंसा की, जिस देश की विज्ञान और तन्त्रज्ञान की उपलब्धियों पर यूरोप के अनेक तन्त्रज्ञान निष्णात विस्मित हुए, जिस देश की कलाकारीगरी की आजतक विश्व में कहीं बराबरी नहीं हो सकी उस देश को दरिद्रता का भय कैसे हो सकता है। ऐसा देश विश्व को चिरन्तर समृद्धि के उपाय बता सकता है।
- भौतिक समृद्धि, कलाकारीगरी, विज्ञान और तत्त्वज्ञान, शौर्य और पराक्रम, नीति और सदाचार, सिद्धान्त और व्यवहार, राजनीति और व्यापार आदि सर्व क्षेत्रों में भारत हमेशा अग्रणी रहा है। आज भी है। विश्व को आज भी वह सर्व क्षेत्रों में पथप्रदर्शन कर सकता है। आवश्यकता है खोया हुआ आत्मविश्वास पुनः प्राप्त करने की।
५. हीनताबोध से मुक्ति
१. आत्मविश्वास के अभाव का एक बड़ा कारण हीनताबोध है। हीनताबोध एक मानसिक रोग है। वर्तमान में इस रोग से मुक्ति प्राप्त किये बिना भारत का विकास नहीं हो सकता है, उसका खोया हुआ आत्मविश्वास भी पुनः प्राप्त नहीं कर सकता है।
२. ब्रिटीश शासन के दौरान उनके द्वारा किय गये शोषण, उत्पीडन, अत्याचार, तिरस्कार, अवमानना, अपमान के चलते और बात बात में अपनी श्रेष्ठता का बखान करने की प्रवृत्ति के चलते हीनता का बोध भारतीय प्रजा के जेहन में उतरगया है । अब भारत को अपनी हर बात में हीनता दिखाई देती है। इसका इलाज करने की आवश्यकता है।
३. ब्रिटीशों द्वारा जब अपनी श्रेष्ठता का बखान किया जाता था तब उसमें कोई तर्क नहीं था, अज्ञान और अहंकार था। उदाहरण के लिये टॉमस बेबिंग्टन मेकाले कहता था कि इंग्लैण्ड के एक प्राथमिक विद्यालय के ग्रन्थालय की एक आलमारी के एक शेल्फ में जो पुस्तकें हैं, उनमें जो ज्ञान है वह भारत के ग्रन्थालयों में रखे सारे ग्रन्थों में समाये हए ज्ञान से श्रेष्ठ है । यह मिथ्या गर्वोक्ति है । मेकाले न तो भारत की ग्रन्थसम्पदा को जानता था न भारतीयों के उन ग्रन्थों के प्रति आदर को । फिर भी वह एसी गर्वोक्ति कर सकता था क्योंकि वह भारत की अवमानना करना चाहता था। उसकी उक्ति कोई तुलनात्मक अध्ययन का निष्कर्ष नहीं था।
४. उसकी गर्वोक्ति का हम पर असर क्यों हुआ ? बौद्धिक प्रतीति के कारण नहीं। कीटभ्रमर न्याय से हम ब्रिटीशों से आतंकित हुए और उनका कहा मानने लगे। हमारे अन्दर का भय और आतंक अभी तक गया नहीं है। उससे प्रेरित होकर आज भी हम अंग्रेजी और यूरोपीय ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं । इलाज इस भय का होना चाहिये ।
५. हीनता बोध से मुक्ति मनोवैज्ञानिक उपायों से ही प्राप्त हो सकती है। तार्किक चर्चाओं से नहीं । दसियों तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करने के बाद भी आतंक समाप्त नहीं होता यह सबका अनुभव है। मनोवैज्ञानिक तरीके अपनाने का साहस बौद्धिक जगत में होता नहीं है।
६. जिससे भय है उससे दूर भागना, दूरी बनाये रखना यह व्यावहारिक समझदारी है। जिसने प्रताडना दी है उसके पास नहीं जाना यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है। परन्तु भयभीत और प्रताडित करने वाले ने अपनी श्रेष्ठता यदि हमारे चित्त में अंकित कर दी है तो उससे बचना कठिन हो जाता है। आज उसी कठिनाई का सामना हम कर रहे हैं।
७. एक नीति और रणनीति के तहत हम तय करें कि हम अंग्रेजी नहीं बोलेंगे, अंग्रेजी में लिखी किसी पस्तक को नहीं पढेंगे, यूरोपीय पदार्थ नहीं खायेंगे, यूरोपीय वेश नहीं पहनेंगे, यूरोपीय व्यवस्थाओं को अपने घरों, विद्यालयों और कार्यालयों में स्थान नहीं देंगे। तो क्या होगा ? क्या ब्रिटीश भारत में नहीं आये थे तब तक देश नहीं चलता था ? कदाचित अच्छे से चलता था।
८. परन्तु ऐसा बोलने की और करने की हिम्मत हम नहीं कर सकते हैं । तुरन्त ही प्रतितर्क शुरू हो जाते हैं । अंग्रेजी में क्या बुराई है ? यूरोपीय वेश पहनने से क्या हम भारतीय नहीं रहते ? पित्झा खाने से क्या हम भ्रष्ट हो जायेंगे ? खानपान, वेशभूषा, शिष्टाचार तो बाह्य बातें हैं । अन्दर से तो हम भारतीय ही हैं। हमें अंग्रेजी से भय कैसा ?
९. परन्तु यह झूठा तर्क है। हमारे अन्दर बैठा हुआ अंग्रेजी हमें ऐसा बोलने के लिये बाध्य करता है। यह तो घोर हीनताबोध का ही लक्षण है। स्थिति ऐसी है कि हम तो नहीं समझेंगे परन्तु कोई हमें इस स्थिति से बलपूर्वक उबारे तभी हम बाहर आ सकते है।
१०. कोई तानाशाह बेरहमी से घोषणा करे कि आज से, इसी क्षण से अंग्रेजी और अंग्रेजी के सभी चिह्न इस देश में प्रतिबन्धित हैं और उसे अपने पास रखने वाले को कठोर दण्ड मिलेगा तभी हम मानेंगे। रोयेंगे, चिल्लायेंगे, विरोध करेंगे, आन्दोलन करेंगे, चुनाव में मत नहीं देंगे परन्तु तानाशाही के आदेश को मानना पडेगा। हमारी नई पीढी अंग्रेजी और अंग्रेजीयत से 'वंचित' रहेगी । तब एक या दो पीढियों के बाद हम हीनताबोध के रोग से मुक्त होंगे । इझरायेलने हिब्रू को लेकर ऐसा किया ही था।
११. या विभिन्न पंथों के धर्माचार्य अपने अनुयायिओं को कठोर प्रतिज्ञा करवायें कि अंग्रेजी और अंग्रेजीयत् का अनुसरण करने वाला धर्मद्रोही माना जायेगा, उसे पाप लगेगा और वह घोर नर्क में जायेगा। तब धर्म के भय से लोग अंग्रेजी को छोडेंगे ।
१२. या कोई चमत्कार हो कि एक दिन सुबह होते ही लोग जागें तब वे अंग्रेजी और अंग्रेजीयत को सर्वथा भूल गये हों, जैसे मृत्यु के बाद पुनर्जन्म होता है और पूर्वजन्म की स्मृति नहीं रहती। या भूतप्रेत की बाधाओं को झाडफूंक के उपायों से दूर भगानेवाला
References
भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे