कट्टरता
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अध्याय २९
पश्चिम की साम्राज्यवादी मानसिकता
वर्तमान विश्व की स्थिति का आकलन करने के लिये हमें बहुत प्राचीन सन्दर्भो तक जाने की आवश्यकता नहीं है। विगत पाँच सौ वर्षों की विश्व की विशेष रूप से यूरोप की गतिविधियों पर दृष्टिपात करने से वर्तमान स्थिति तक पहँचने के कारणों का पता चल जायेगा।
पाँच सौ वर्ष पूर्व यूरोप के देशों ने विश्वप्रवास करना शुरू किया। नये नये भूभागों को खोजने और देखने की जिज्ञासा, समुद्र में सफर करने का साहस, नये अनुभवों की चाह आदि अच्छी बातों की प्रेरणा उसमें होगी यह मान्य करने के बाद भी समृद्धि प्राप्त करने की और साम्राज्य स्थापित करने की ललक मुख्य प्रेरक तत्त्व था यह भी मानना ही पडेगा।
पन्द्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में यूरोप के विभिन्न देशों के यात्रियों ने अमेरिका, आफ्रिका और एशिया के देशों में जाना शुरू किया। अब तो यह प्रसिद्ध घटना है कि भारत आने के लिये निकला हुआ कोलम्बस भारत पहुँचा ही नहीं । भारत के स्थान पर वर्तमान अमेरिका पहुँचा । अपनी मृत्यु तक कोलम्बस उसे भारत और वहां के मूल निवासियों को भारतीय ही मानता रहा। आल्झाडोर एमेरिगो नामक व्यक्ति ने जाना कि जिसे सब भारत मानते हैं वह भारत नहीं है। उसके नाम से उस भूखण्ड का नाम अमेरिका हुआ । उसी अवधि में वाक्सो-डी-गामा भारत भी पहुँचा ।
यूरोप के विभिन्न देशों ने अमेरिका में अपने उपनिवेश स्थापित किये। आफ्रिका के लोगों को गुलाम बनाकर अमेरिका ले आये। अमेरिका के वर्तमान नीग्रो मूल आफ्रिका के हैं।
यूरोप के लोगों ने अमेरिका के मूल निवासियों को भी गुलाम बनाया और धीरे धीरे उनका नाश होने लगा। वर्तमान ऑस्ट्रेलिया भी यूरोप के ही लोगों द्वारा आक्रान्त है। वहाँ के मूल निवासी भी अत्यन्त अल्पसंख्या में हैं। वे भारत में भी आये । भारत में अंग्रेजों के कारनामे अब प्रसिद्ध हैं । लूट, लूट के लिये व्यापार और व्यापार के लिये राज्य ऐसा उनका कम रहा।
इस काल में इंग्लैण्ड की बडी गर्वोक्ति रही कि ब्रिटीश साम्राज्य में सूर्य कभी अस्त नहीं होता ।
यूरोप विश्व के अनेक देशों पर आधिपत्य जमाने में यशस्वी हुआ। उसने अन्य देशों पर आधिपत्य जमाया परन्तु उन देशों की प्रजा को अपना नहीं माना । इसलिये यूरोप का आधिपत्य गुलामी, अत्याचार और इसाई मतमें मतान्तरण का पर्याय बना । जहाँ इतने से भी काम नहीं चला वहाँ शिक्षा के माध्यम से यूरोपीकरण का प्रयास हुआ । भारत जैसे देश के लिये यह विशेष रूप से अपनाया गया मार्ग था । आफ्रिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे महाद्वीपों में इसाईकरण से ही उनका काम चल गया ।
यूरोपीय जीवनदृष्टि मुख्य रूप से कामनापूर्ति के लक्ष्य को लेकर व्यवहार में अर्थकेन्द्री रही है । अतः जहाँ जहाँ भी वे गये वहाँ की समृद्धि को हस्तगत करना उनका प्रथम उद्देश्य रहा । इस दृष्टि से व्यापार करना उनका मुख्य काम था। व्यापार में मुनाफा कमाना ही उनकी नीति रही। इसलिये अधिक से अधिक कर वसूलना, अधिक से अधिक मजदूरी करवाकर कम से कम वेतन देना, सारे आर्थिक सूत्र अपने हाथ में रखना उनकी मुख्य प्रवृत्ति रही । अपने यूरोयीप होने का घमण्ड, जिन प्रजाओं पर राज्य करते थे उनकी संस्कृति के विषय में अज्ञान और उपेक्षा तथा उन प्रजाओं को अपने से कम दर्जे की मानने की वृत्ति-प्रवृत्ति उनके आधिपत्य का प्रमुख लक्षण रहा । विश्व के अनेक देशों को इस प्रकार के आधिपत्य की कल्पना भी नहीं थी। भारत को तो नहीं ही थी । भारत में राजा और प्रजा के सम्बन्ध की जो कल्पना रही
इससे तो यह सर्वथा विपरीत था। इसलिये इन लोगों के तरीके भारत के लोग समझ नहीं सके । संक्षेप में लूट, शोषण, अत्याचार और अन्यायपूर्वक उन्होंने विश्व के अनेक देशों पर राज्य किया।
जिन आधारों पर राज्य चल रहा था वह लम्बा चलना सम्भव नहीं होता। दो ढाई सौ वर्षों के अन्दर अन्दर यूरोप के देशों का आधिपत्य सिमट गया। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक सारे देश स्वाधीन हो गये। अमेरिका तो अठारहवीं शताब्दी में ही स्वाधीन हो गया था । परन्तु विश्व का यूरोपीकरण करने में उन्हें यश मिला। वर्तमान अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया तो यूरोप वासियों का ही बना है। एशिया और आफ्रीका तान्त्रिक दृष्टि से तो अब आफ्रीकी और एशियाई लोगों का हैं परन्तु राष्ट्रजीवन को संचालित करनेवाली सारी व्यवस्थायें यूरोपीय हैं। इस दृष्टि से विगत पाँच सौ वर्ष सम्पूर्ण विश्व के लिये बहुत महँगे सिद्ध हुए है।
इन पाँचसौ वर्षों के इतिहास के विषय में अनेक विद्वानों ने लिखा है । उसे पढने पर ध्यान में आता है कि सांस्कृतिक दृष्टि से यह काल विनाशकारी हलचल मचाने वाला रहा है। विश्व आज भी इससे उबरने का प्रयास कर रहा है। विश्व के इन प्रयासों में भारत को नेतृत्व लेना है। इस दृष्टि से अध्ययन और चिंतन की आवश्यकता है।
साम्प्रदायिक कट्टरवाद
विश्व में विविध स्वभाव के, क्षमता के, रुचि के, वृत्तिप्रवृत्ति के लोग रहते हैं । विश्व में मनुष्य के साथ साथ पशु-पक्षी-प्राणी-वृक्ष-वनस्पति-पंचमहाभूत भी होते हैं। इन सबका सहअस्तित्व होना स्वाभाविक भी है और अनिवार्य भी । सृष्टि की धारणा का यह आधारभूत सिद्धान्त है। परन्तु विश्व मानवसमुदाय का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो सहअस्तित्व के सिद्धान्त का स्वीकार नहीं करता है।
सहअस्तित्व को नकारने का इस वर्ग का तरीका मानसिक धरातल पर पैदा होता है और कृति में परिणत होता है। सहअस्तित्व को नकारना ही साम्प्रदायिक कट्टरता है।
जगत में अनेक सम्प्रदायों का होना स्वाभाविक है। विभिन्न प्रजाओं के लिये अपनी आस्थाओं तथा भावनाओं के लिये किसी न किसी इष्टदेवता की आवश्यकता होती है। इष्टदेवता तत्त्व के रूप में, विचारधारा के रूप में, मूर्ति के रूप में, ग्रन्थ के रूप में, व्यक्ति के रूप में, वास्तु के रूपमें हो सकते हैं। कोई भी पदार्थ इष्टदेवता नहीं हो सकता ऐसा निषेध नहीं है। भारत के पूर्वोत्तर में ऐसी कई जातियाँ हैं जिनके मन्दिर तो होते हैं परन्तु मन्दिर में कोई मूर्ति नहीं होती। अपनी श्रद्दा से ही वे मान लेते हैं कि वहाँ उनके इष्टदेवता हैं। वेदान्ती निर्गुण निराकार ब्रह्म को ही इष्टदेवता मानते हैं, सिख गुरु ग्रन्थसाहब को, जैन भगवान
References
भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे