अनर्थक अर्थ
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अध्याय २७
कामकेन्द्री जीवनव्यवस्था
मनुष्य को जीवन के लिये अनेक पदार्थों की आवश्यकता होती है। उसे अन्न चाहिये, वस्त्र चाहिये, मकान चाहिये, सुविधाओं के लिये भी अनेक प्रकार की वस्तुयें चाहिये । हवा, पानी, प्रकाश, वाहन आदि चाहिये । आवश्यकताओं के साथ साथ मनुष्य की इच्छायें भी होती हैं। आवश्यकतायें जीवित रहने के लिये होती हैं, सुरक्षा के लिये होती हैं, कुछ मात्रा में सुविधा के लिये होती हैं, परन्तु इच्छायें मन को खुश करने के लिये होती हैं। आवश्यकतायें सीमित होती हैं परन्तु इच्छायें अनन्त होती हैं । एक इच्छा पूर्ण करो तो और नई जगती हैं।
पश्चिम इच्छाओं के इस स्वभाव से अवगत नहीं है। अथवा अवगत है भी तो उसे इसमें कुछ गलत नहीं लगता । मन है इसलिये इच्छा है, और इच्छा है तो उसे पूर्ण करना है यह जीवन का स्वाभाविक क्रम है । इच्छाओं की पूर्ति के लिये ही तो सृष्टि के सारे संसाधन बने हुए हैं। अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने के लिये स्पर्धा और संघर्ष करना पडता है वह भी स्वाभाविक है क्योंकि इस विश्व में हरेक को अपनी योग्यता सिद्ध करनी ही होती है। अस्तित्व बनाये रखने के लिये संघर्ष यह प्रकृति का ही नियम है । सृष्टि में वह सर्वत्र दिखाई देता है। इसलिये संघर्ष का स्वीकार करना ही चाहिये । संघर्ष में जीतने में ही आनन्द है। दूसरों को पराजित करने में ही आनन्द है। मनुष्य जीवन की सार्थकता ही इसमें है। कामनाओं की पूर्ति के बिना जीवन में रस ही नहीं है । रस का अनुभव करना ही मनुष्य का परम पुरुषार्थ है।
पश्चिम का जीवनविषयक तर्क इस प्रकार का है इसलिये कामनापूर्ति के लिये आपाधापी करना उसके जीवनयापन का पर्याय बन गया है।
कामनाओं का स्वभाव ऐसा है कि एक कामना पूर्ण करो तो दस जगती है। अतः कामनापूर्ति के प्रयासों का कभी अन्त नहीं होता । इसलिये संसाधन हमेशा कम ही पडते हैं। 'और चाहिये', 'और चाहिये' के मन्त्र का ही रटण निरन्तर चलता है। कामना का दूसरा स्वभाव यह होता है कि एक पदार्थ से मिलनेवाला सुख क्रमशः कम होता जाता है। प्रथम अनुभव में जो पदार्थ अत्यन्त प्रिय और सुखकारक लगता है वही पुराना होते होते कम प्रिय और फिर अप्रिय होने लगता है। इसलिये मन को निरन्तर नये की चाह रहती है। इसमें से पदार्थ के बनावट के, पैकिंग के, प्रस्तुतिकरण के नये नये तरीके निर्माण होते हैं, नये नये फैशन, खाद्य पदार्थों के नये नये स्वाद निर्माण किये जाते हैं। फिर भी अतृप्ति बनी रहती है। इसमें से उन्माद पैदा होता है। उन्माद से गति का जन्म होता है। मन स्वभाव से चंचल भी होता है । चंचलता भी गति को जन्म देती है। इसमें से तेज गति की ललक पैदा होती है। इसलिये तेजगति के वाहन बनाये जाते हैं । गति बढाने के निरन्तर प्रयास चलते हैं। मोटरसाइकिल, कार, ट्रेन, वायुयान आदि की गति बढाना मनुष्य के लिये चुनौती बन जाता है। गति बढाने में सफलता का और तेज गति के वाहन से यात्रा करने में साहस का अनुभव होता है। इसका भी कहीं अन्त नहीं है।
इस उन्माद का दूसरा स्वरूप है ऊँचे स्वर वाला संगीत और उतेजना पूर्ण नृत्य । इसे भी पराकाष्ठा तक पहुँचाने के प्रयास निरन्तर होते रहते हैं । येन केन प्रकारेण कामनाओं की पूर्ति करने की चाह, अधिक से अधिक कामनाओं की पूर्ति के प्रयास उन्हें शान्ति से, स्थिरतापूर्वक बैठने नहीं देते । गति उनके जीवन का मुख्य लक्षण बन गया है।
गति, नित्य नये पदार्थों की खोज, उत्तेजना, ललक आदि के कारण एक और शान्ति नहीं है, दूसरी ओर किसी की चिन्ता या परवाह नहीं है। कानून की बाध्यता के अलावा और कोई शिष्टाचार नहीं होता।
मन की उत्तेजना, आसक्ति, मोह आदि का प्रभाव शरीर पर पड़ता ही है। शरीर असहनशील और अस्वस्थ ही रहता है । ज्ञानेन्द्रिय उपभोग के अतिरेक के कारण शिथिल हो जाती हैं। हृदय दुर्बल होता है। इसलिये मनोकायिक बिमारियाँ पश्चिम में अधिक हैं। एक ओर शरीर और मन की बिमारियों के लिये अस्पतालों और मानसिक अस्वास्थ्य के परिणामस्वरूप बढती हुई गुण्डागर्दी के लिये कैदखानों की संख्या बढ़ती ही रहती है।
जीवन का स्तर अत्यन्त ऊपरी रहता है। किसी के साथ गाढ सम्बन्ध, किसी व्यक्ति या तत्त्व के प्रति समर्पण, किसी तत्त्व के प्रति निष्ठा, आत्मत्याग जैसी भावनायें लगभग अपरिचित ही रहती हैं। ये भावनायें हो सकती है ऐसी उन्हें कल्पना भी नहीं होती। किसी में देखीं तो उन्हें समझ में नहीं आती। ऐसी भावनाओं को या तो वे असम्भव मानते हैं या मूर्खता ।
कामनाओं की पूर्ति के लिये विज्ञान इनका दास बनकर सेवा में खडा रहता है। विज्ञान का उपयोग वे विभिन्न प्रकार के यन्त्र और उपकरण बनाने के लिये करते हैं । गति के लिये वाहन, वाहनों के लिये सड़कें, सड़कों के लिये कारखाने आदि की दुनिया का विस्तार होता है।
इस आसक्तिपूर्ण, उत्तेजना पूर्ण, गतियुक्त छीछली,
References
भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे