संकटों का मूल
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अध्याय २५
जीवनदृष्टि
जीवन और जगत को देखने की पश्चिम की दृष्टि ही विश्व के वर्तमान संकटों की जड है। पश्चिम विश्व को भौतिक मानता है। जो दिखाई देता है वही सत्य है। इस विश्व के सारे भौतिक पदार्थों और उन्हें संचालित करनेवाली ऊर्जा ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। पदार्थ और ऊर्जा को समझने का विज्ञान भौतिक विज्ञान है । भौतिक विज्ञान को ही विज्ञान कहने का आज प्रचलन है। इस भौतिक जीवनदृष्टि में मन, बुद्धि, आत्मा आदि का अस्तित्व तो है परन्तु उन्हें भौतिक जीवन के लिये भौतिक विज्ञान के मानकों पर ही परखा और समझा जाता है।
इस जीवनदृष्टि के कुछ प्रमुख आयाम इस प्रकार हैं...
१. भौतिक जगत में जितने भी पदार्थ हैं वे सब एकदूसरे से अलग हैं । वे एक दूसरे को प्रभावित तो करते हैं परन्तु उनमें एकत्व नहीं है। यह भेद ही मूल है। इस भेद को बनाये रखना स्वतन्त्रता है।
२. इस विश्व में जन्मजन्मान्तर जैसा कुछ नहीं है। जन्म के साथ जीवन शुरू होता है और मृत्यु के साथ पूरा होता है। इसलिये पूर्वजन्म के संस्कार जैसी शब्दावली को विचारधारा में कोई स्थान नहीं है ।
मन की सारी इच्छाओं की पूर्ति करना मनुष्यजीवन का लक्ष्य है। कामनाओं की पूर्ति हेतु प्रयास करना जीवन का मुख्य कार्य है। अधिक से अधिकतर कामनायें होना ऊँचा जीवनमान है। अधिकतम कामनाओं की पूर्ति कर पाना यश है। इसी दिशा में गति करना विकास है। विकास की दिशा में यात्रा अनन्त है । कभी भी विकास पूर्ण नहीं होता।
४. विश्व में मनुष्य सबसे श्रेष्ठ है । मनुष्य के उपभोग के लिये यह सृष्टि बनी है। अपने सुख के लिये मनुष्य सृष्टि के सारे पदार्थों का किसी बी हद तक उपयोग कर सकता है। सृष्टि उसकी दास है। उसका पूरा रसकस निकालना उसका अधिकार है।
मनुष्य मनुष्य का सम्बन्ध भी व्यक्ति केन्द्री है। हर व्यक्ति स्वतन्त्र है। हर व्यक्ति को अपने हित और सुख की चिन्ता स्वयं करनी है। यह एक व्यावहारिक सत्य है कि व्यक्तियों को अपनी सभी आवश्यकताओं और कामनाओं की पूर्ति के लिये एकदूसरे की सहायता लेनी ही पड़ती है । लेनदेन के बिना जीवनव्यवहार चलता नहीं है। लेनदेन के समय स्वयं के हित की हानि न हो इसकी सावधानी हर व्यक्ति को रखनी है। अपने अपने हित की रक्षा की व्यवस्था हेतु समाज की विभिन्न व्यवस्थायें बनाई जाती हैं । मनुष्यों के परस्पर सम्बन्धों के स्वरूप को सामाजिक करार का सिद्धान्त कहा जाता है।
पश्चिम की जीवनदृष्टि के इन सूत्रों के आधार पर विश्व की असंख्य रचनायें बनी हैं। इसकी बडी और छोटी शाखाप्रशाखाओं का एक बडा जाल बना है जिसमें विश्व फँस गया है। यह जाल अब बुरी तरह से उलझ भी गया है। इस जाल से विश्व को मुक्त करना है।
पश्चिम की यह जीवनदृष्टि भारत के लिये नई नहीं है। वास्तव में पहले कहा है उस प्रकार भारत पूर्व और पश्चिम का भेद नहीं करता है। आज जिसे पश्चिमी जीवनदृष्टि कहा जाता है उसे भारतने आसुरी जीवनदृष्टि कहा है। आसुरी जीवनदृष्टि से देखने वाला मनुष्य इस जगत के विषय में कहता है,
असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् ।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यद् कामहैतुकम् ।।
अर्थात्
यह जगत सत्य है, इसकी कोई प्रतिष्ठा नहीं है,
इस जगत में ईश्वर जैसा कुछ नहीं है। जगत के अन्यान्य पदार्थों का एक दूसरे के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता। उसका अस्तित्व केवल कामनाओं की पूर्ति के लिये ही है।
ये आसुरी प्रकृति के लोग कम प्रभावी नहीं होते । वे बलवान, धनवान, सत्तावान, सौन्दर्यवान होते हैं। वे बुद्धिमान, चतुर, दक्ष, कार्यकुशल होते हैं। अपनी शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक सम्पदा के आधार पर वे वैभव और समृद्धि प्राप्त करते हैं । विशेषता केवल यही है कि वे सज्जन नहीं होते । दूसरों की परवाह नहीं करते । दमन, उत्पीडन, शोषण, अत्याचार करने में उन्हें कुछ भी अनुचित नहीं लगता।
भारत के इतिहास में ऐसे अनेक महासमर्थ असुर हुए हैं। रावण इनमें खास उदाहरण है। रावण विद्वान था, कवि था, भक्त था । उसकी लंका सुवर्ण की थी। अपने सामर्थ्य के आधार पर उसका दक्षिण के छोर से भारत के उत्तरतम प्रदेश में स्थित कैलास तक मुक्त संचार था । वह पराक्रमी भी था। उसके वैभव और उपभोग की कोई सीमा नहीं थी।
आसुरी सम्पद् और दैवी सम्पद् में केवल दर्जन और सज्जन का ही अन्तर है, सर्व प्रकार का सामर्थ्य तो दोनों में समान है।
सज्जनता और दुर्जनता भी दूसरों के साथ के व्यवहार द्वारा ही निश्चित होती है । दूसरों के हित की चिन्ता और रक्षा करता है वह सज्जन है और नहीं करता वह दुर्जन है । अर्थात् भारत की दृष्टि से पश्चिम की जीवनदृष्टि आसुरी है, दुर्जन की शक्ति है।
विश्व में आसुरी सम्पदावाले लोग हमेशा होते ही हैं ऐसा भारत मानता है। उनके अस्तित्व का स्वीकार कर भारत ने उनकी विचारधारा को दर्शन का दर्जा भी दिया है। वह चार्वाक दर्शन है। चार्वाक दर्शन देहात्मवादी है। उसका केन्द्रवर्ती सूत्र है,
यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वां घृतं पिबेत् ।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥
अर्थात्
जब तक जीना है सुख से जीयें, ऋण करके भी घी पियें (घी पीने का अर्थ है पूर्ण उपभोगपूर्वक जीना) क्योंकि यह देह (मृत्यु के बाद) भस्मीभूत हो जाने पर फिरसे नहीं आने वाला है।
चार्वाकवदी ये लोग हमेशा से समाज में रहे हैं परन्तु सुसंस्कृत और श्रेष्ठ समाज में उनकी प्रतिष्ठा नहीं रही है। वैसे तो अविकसित व्यक्ति में चार्वाक हमेशा रहता है परन्तु उसका त्याग करने को ही विकास कहा जाता है।
पश्चिम में आसुरी विचारधारा की ही प्रतिष्ठा रही है। परन्तु भारत का इतिहास दर्शाता है कि आसुरी समृद्धि नाश के लिये ही होती है। आसुरी शक्ति प्रथम स्वयं के सुख के लिये, दूसरों पर अत्याचार करती है, दूसरों का नाश करने पर तुली रहती है परन्तु अन्ततोगत्वा स्वयं नष्ट होती है।
पश्चिम भी यदि अपनी विचारधारा और व्यवहार बदलता नहीं है तो उसका विनाश निश्चित है।
भारत का कर्तव्य है कि इस विनाश से पश्चिम को बचाये।
References
भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे