Difference between revisions of "Groundwater (भूगर्भ जल)"

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== परिचय॥ Introduction==
 
== परिचय॥ Introduction==
भारतीय जलविज्ञान का सैद्धांतिक स्वरूप अन्तरिक्षगत मेघविज्ञान और वृष्टिविज्ञान के स्वरूप को जाने समझे बिना अधूरा ही है.मैंने अपने पिछ्ले दो लेखों में अन्तरिक्षगत मेघ विज्ञान, वृष्टि विज्ञान और वर्षा के पूर्वानुमानों से सम्बद्ध भारतीय मानसून विज्ञान के विविध पक्षों पर चर्चा की.अब इस लेख में विशुद्ध भूमिगत जलविज्ञान के बारे में प्राचीन भारतीय जलविज्ञान के महान् वराहमिहिर प्रतिपादित भूगर्भीय जलान्वेषण विज्ञान के बारे में विशेष चर्चा की जा रही है। जल वैज्ञानिक वराहमिहिर ने पृथिवी, समुद्र और अन्तरिक्ष तीनों क्षेत्रों के प्राकृतिक जलचक्र को संतुलित रखने के उद्देश्य से ही भूमिगत जलस्रोतों को खोजने और वहां कुएं, जलाशय आदि निर्माण करने वाली पर्यावरण मित्र जलसंग्रहण विधियों का भूगर्भीय परिस्थितियों के अनुरूप निरूपण किया है।
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भारतीय जलविज्ञान का सैद्धांतिक स्वरूप अन्तरिक्षगत मेघविज्ञान और वृष्टिविज्ञान के स्वरूप को जाने समझे बिना अधूरा ही है.मैंने अपने पिछ्ले दो लेखों में अन्तरिक्षगत मेघ विज्ञान, वृष्टि विज्ञान और वर्षा के पूर्वानुमानों से सम्बद्ध भारतीय मानसून विज्ञान के विविध पक्षों पर चर्चा की.अब इस लेख में विशुद्ध भूमिगत जलविज्ञान के बारे में प्राचीन भारतीय जलविज्ञान के महान् वराहमिहिर प्रतिपादित भूगर्भीय जलान्वेषण विज्ञान के बारे में विशेष चर्चा की जा रही है। जल वैज्ञानिक वराहमिहिर ने पृथिवी, समुद्र और अन्तरिक्ष तीनों क्षेत्रों के प्राकृतिक जलचक्र को संतुलित रखने के उद्देश्य से ही भूमिगत जलस्रोतों को खोजने और वहां कुएं, जलाशय आदि निर्माण करने वाली पर्यावरण मित्र जलसंग्रहण विधियों का भूगर्भीय परिस्थितियों के अनुरूप निरूपण किया है।<ref>निर्भय  कुमार पाण्डेय, [https://egyankosh.ac.in/handle/123456789/93133 दकार्गलादि विचार], सन् २०२३, इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मुक्‍त विश्‍वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २१२)।</ref>
  
 
==भूमिगत जलशिराओं का सिद्धान्त==
 
==भूमिगत जलशिराओं का सिद्धान्त==
  
== जल-स्रोतों का पता लगाना ==
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==जल-स्रोतों का पता लगाना==
जल स्रोतों का पता लगाने के लिये दीमकों के मार्ग का पता लगाना अत्युत्तम साधन है।<ref>डॉ० कपिलदेव द्विवेदी, [https://ia903201.us.archive.org/21/items/wg1141/WG1141-2004%20-Vedo%20Mein%20Vigyan%20-Positive%20Sciences%20In%20The%20Vedas.pdf वेदों में विज्ञान], सन् २०००, विश्वभारती अनुसंधान परिषद, भदोही (पृ० ३११)।</ref>
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ज्योतिष शास्त्र के संहिता स्कन्ध में जो क्षेत्र-विभाग बतलाए गए हैं उन क्षेत्रों में विभिन्न लक्षणों के आधार पर जल की स्थिति, शिरा व मात्रा का ज्ञान भी बतलाया गया है। भूमि को हमारे आचार्यों ने प्रायः चार क्षेत्रों में विभक्त कर जल की रीति बतलाई है। जल स्रोतों का पता लगाने के लिये दीमकों के मार्ग का पता लगाना अत्युत्तम साधन है।<ref>डॉ० कपिलदेव द्विवेदी, [https://ia903201.us.archive.org/21/items/wg1141/WG1141-2004%20-Vedo%20Mein%20Vigyan%20-Positive%20Sciences%20In%20The%20Vedas.pdf वेदों में विज्ञान], सन् २०००, विश्वभारती अनुसंधान परिषद, भदोही (पृ० ३११)।</ref>  
  
== जल विज्ञान का लक्षण व स्वरूप ==
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==जल विज्ञान का लक्षण व स्वरूप==
 
अमरकोष के अनुसार आप, अंभ, वारि, तोय, सलिल, जल, अमृत, जीवन, पेय, पानी, उदक इत्यादि जल के ही पर्यायवाची शब्द हैं। वराहमिहिर ने जल विज्ञान को उदकार्गल कहा है। उदक जल को कहते हैं, अर्गला जल के ऊपर आई हुई रुकावट को कहते हैं। वराहमिहिर के ही शब्दों में जिस विद्या से भूमिगत जल का ज्ञान होता है उस धर्म और यश को देने वाले ज्ञान को उदकार्गल कहते हैं - <blockquote>धर्म्यं यशस्यं च वदाम्यतोsहं दकार्गल येन जलोपलब्धिः। पुंसां यथांग्रेषु शिरास्तथैव क्षितावपि प्रोन्नतनिम्नसंस्थाः॥ (बृहत्संहिता)<ref>डॉ० जितेन्द्र व्यास, [https://www.allresearchjournal.com/archives/2022/vol8issue5/PartB/8-5-33-660.pdf जल विज्ञान व वनस्पति विज्ञानः प्राकृतिक संसाधन शास्त्र की ज्योतिषीय प्रासंगिकता], सन् २०२२, इन्टरनेशनल जर्नल ऑफ अप्लाईड रिसर्च (पृ० १३४)।</ref></blockquote>जिस तरह मनुष्यों के अंग में नाडियाँ है उसी तरह भूमि में ऊँची नीची जल की शिरायें (धारायें) बहती हैं। आकाश से केवल एक स्वाद वाला जल पृथ्वी पर गिरता है। किन्तु वही जल पृथ्वी की विशेषता से तत्तत्स्थान में अनेक प्रकार के रस और स्वाद वाला हो जाता है। भूमि के वर्ण और रस के समान, जल का रस और वर्ण और रस व स्वाद का परीक्षण करना चाहिए।   
 
अमरकोष के अनुसार आप, अंभ, वारि, तोय, सलिल, जल, अमृत, जीवन, पेय, पानी, उदक इत्यादि जल के ही पर्यायवाची शब्द हैं। वराहमिहिर ने जल विज्ञान को उदकार्गल कहा है। उदक जल को कहते हैं, अर्गला जल के ऊपर आई हुई रुकावट को कहते हैं। वराहमिहिर के ही शब्दों में जिस विद्या से भूमिगत जल का ज्ञान होता है उस धर्म और यश को देने वाले ज्ञान को उदकार्गल कहते हैं - <blockquote>धर्म्यं यशस्यं च वदाम्यतोsहं दकार्गल येन जलोपलब्धिः। पुंसां यथांग्रेषु शिरास्तथैव क्षितावपि प्रोन्नतनिम्नसंस्थाः॥ (बृहत्संहिता)<ref>डॉ० जितेन्द्र व्यास, [https://www.allresearchjournal.com/archives/2022/vol8issue5/PartB/8-5-33-660.pdf जल विज्ञान व वनस्पति विज्ञानः प्राकृतिक संसाधन शास्त्र की ज्योतिषीय प्रासंगिकता], सन् २०२२, इन्टरनेशनल जर्नल ऑफ अप्लाईड रिसर्च (पृ० १३४)।</ref></blockquote>जिस तरह मनुष्यों के अंग में नाडियाँ है उसी तरह भूमि में ऊँची नीची जल की शिरायें (धारायें) बहती हैं। आकाश से केवल एक स्वाद वाला जल पृथ्वी पर गिरता है। किन्तु वही जल पृथ्वी की विशेषता से तत्तत्स्थान में अनेक प्रकार के रस और स्वाद वाला हो जाता है। भूमि के वर्ण और रस के समान, जल का रस और वर्ण और रस व स्वाद का परीक्षण करना चाहिए।   
  

Revision as of 10:57, 31 January 2025

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भूगर्भ जल (संस्कृतः उदकार्गल) का तात्पर्य- भूस्तर के नीचे प्रवाहित सभी प्रकार के जल स्रोत से है। वराहमिहिर ने बृहत्संहिता में भूगर्भीय जल अन्वेषण पद्धति का वर्णन किया है।[1]

परिचय॥ Introduction

भारतीय जलविज्ञान का सैद्धांतिक स्वरूप अन्तरिक्षगत मेघविज्ञान और वृष्टिविज्ञान के स्वरूप को जाने समझे बिना अधूरा ही है.मैंने अपने पिछ्ले दो लेखों में अन्तरिक्षगत मेघ विज्ञान, वृष्टि विज्ञान और वर्षा के पूर्वानुमानों से सम्बद्ध भारतीय मानसून विज्ञान के विविध पक्षों पर चर्चा की.अब इस लेख में विशुद्ध भूमिगत जलविज्ञान के बारे में प्राचीन भारतीय जलविज्ञान के महान् वराहमिहिर प्रतिपादित भूगर्भीय जलान्वेषण विज्ञान के बारे में विशेष चर्चा की जा रही है। जल वैज्ञानिक वराहमिहिर ने पृथिवी, समुद्र और अन्तरिक्ष तीनों क्षेत्रों के प्राकृतिक जलचक्र को संतुलित रखने के उद्देश्य से ही भूमिगत जलस्रोतों को खोजने और वहां कुएं, जलाशय आदि निर्माण करने वाली पर्यावरण मित्र जलसंग्रहण विधियों का भूगर्भीय परिस्थितियों के अनुरूप निरूपण किया है।[2]

भूमिगत जलशिराओं का सिद्धान्त

जल-स्रोतों का पता लगाना

ज्योतिष शास्त्र के संहिता स्कन्ध में जो क्षेत्र-विभाग बतलाए गए हैं उन क्षेत्रों में विभिन्न लक्षणों के आधार पर जल की स्थिति, शिरा व मात्रा का ज्ञान भी बतलाया गया है। भूमि को हमारे आचार्यों ने प्रायः चार क्षेत्रों में विभक्त कर जल की रीति बतलाई है। जल स्रोतों का पता लगाने के लिये दीमकों के मार्ग का पता लगाना अत्युत्तम साधन है।[3]

जल विज्ञान का लक्षण व स्वरूप

अमरकोष के अनुसार आप, अंभ, वारि, तोय, सलिल, जल, अमृत, जीवन, पेय, पानी, उदक इत्यादि जल के ही पर्यायवाची शब्द हैं। वराहमिहिर ने जल विज्ञान को उदकार्गल कहा है। उदक जल को कहते हैं, अर्गला जल के ऊपर आई हुई रुकावट को कहते हैं। वराहमिहिर के ही शब्दों में जिस विद्या से भूमिगत जल का ज्ञान होता है उस धर्म और यश को देने वाले ज्ञान को उदकार्गल कहते हैं -

धर्म्यं यशस्यं च वदाम्यतोsहं दकार्गल येन जलोपलब्धिः। पुंसां यथांग्रेषु शिरास्तथैव क्षितावपि प्रोन्नतनिम्नसंस्थाः॥ (बृहत्संहिता)[4]

जिस तरह मनुष्यों के अंग में नाडियाँ है उसी तरह भूमि में ऊँची नीची जल की शिरायें (धारायें) बहती हैं। आकाश से केवल एक स्वाद वाला जल पृथ्वी पर गिरता है। किन्तु वही जल पृथ्वी की विशेषता से तत्तत्स्थान में अनेक प्रकार के रस और स्वाद वाला हो जाता है। भूमि के वर्ण और रस के समान, जल का रस और वर्ण और रस व स्वाद का परीक्षण करना चाहिए।

सारांश॥ Summary

उद्धरण॥ References

  1. डॉ० मोहन चंद तिवारी, वराहमिहिर की ‘बृहत्संहिता’ में भूमिगत जलशिराओं का सिद्धान्त, सन् २०१४, हिमांतर ई-मैगज़ीन (पृ० १)।
  2. निर्भय कुमार पाण्डेय, दकार्गलादि विचार, सन् २०२३, इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मुक्‍त विश्‍वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २१२)।
  3. डॉ० कपिलदेव द्विवेदी, वेदों में विज्ञान, सन् २०००, विश्वभारती अनुसंधान परिषद, भदोही (पृ० ३११)।
  4. डॉ० जितेन्द्र व्यास, जल विज्ञान व वनस्पति विज्ञानः प्राकृतिक संसाधन शास्त्र की ज्योतिषीय प्रासंगिकता, सन् २०२२, इन्टरनेशनल जर्नल ऑफ अप्लाईड रिसर्च (पृ० १३४)।