Difference between revisions of "Vrikshayurveda (वृक्षायुर्वेद)"
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==परिभाषा॥ Definition== | ==परिभाषा॥ Definition== | ||
− | आयुर्वेद का अर्थ है- आयु को देने वाला वेद या शास्त्र। वृक्षायुर्वेद वृक्षों को दीर्घायुष्य एवं स्वास्थ्य प्रदान करने वाला शास्त्र है - <blockquote>वृक्षस्य आयुर्वेदः - वृक्षायुर्वेदः, अर्थात् तरुचिकित्सादिशास्त्रम्। (शब्दकल्पद्रुम)</blockquote> | + | आयुर्वेद का अर्थ है- आयु को देने वाला वेद या शास्त्र। वृक्षायुर्वेद वृक्षों को दीर्घायुष्य एवं स्वास्थ्य प्रदान करने वाला शास्त्र है - <blockquote>वृक्षस्य आयुर्वेदः - वृक्षायुर्वेदः, अर्थात् तरुचिकित्सादिशास्त्रम्। (शब्दकल्पद्रुम)</blockquote>वृक्षायुर्वेद का सामान्य अर्थ उस विद्या से है जो वृक्षों और पौधों की सम्यक वृद्धि तथा पर्यावरण की सुरक्षा से सम्बन्धित चिन्तन है। वृक्षायुर्वेद यह ग्रन्थ के रूप में सुरपाल की रचना एवं वराहमिहिर द्वारा रचित बृहत्संहिता में वृक्षायुर्वेद पर भी एक अध्याय और पण्डित चक्रपाणि मिश्र द्वारा रचित विश्ववल्लभ वृक्षायुर्वेद प्राप्त होता है। |
==पेड़-पौधों में भेद॥ Difference between trees and plants== | ==पेड़-पौधों में भेद॥ Difference between trees and plants== | ||
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5. बीजकंद भव – जो वनस्पति बीज और कंद दोनों से उत्पन्न होते हैं वह इस श्रेणी में आते हैं – इलायची, कमल प्याज आदि | 5. बीजकंद भव – जो वनस्पति बीज और कंद दोनों से उत्पन्न होते हैं वह इस श्रेणी में आते हैं – इलायची, कमल प्याज आदि | ||
− | ==वृक्ष रोग॥ Tree Disease == | + | ==वृक्ष रोग॥ Tree Disease== |
ज्योतिषशास्त्र एवं भारतीय कृषि शास्त्र में वृक्षों में लगने वाले रोगों तथा उन रोगों से निदान पाने का वर्णन बहुत ही सरल तरीके से किया गया है। बृहत्-संहिता में वृक्षों में लगने वाले रोगों के ज्ञान के बारे में वर्णन मिलता है कि - <blockquote>शीतावातातपै रोगो जायते पाण्डुपत्रता। अवृद्धिश्च प्रवालानां शाखाशोषो रसस्रुतिः॥ (बृहत्संहिता)</blockquote> | ज्योतिषशास्त्र एवं भारतीय कृषि शास्त्र में वृक्षों में लगने वाले रोगों तथा उन रोगों से निदान पाने का वर्णन बहुत ही सरल तरीके से किया गया है। बृहत्-संहिता में वृक्षों में लगने वाले रोगों के ज्ञान के बारे में वर्णन मिलता है कि - <blockquote>शीतावातातपै रोगो जायते पाण्डुपत्रता। अवृद्धिश्च प्रवालानां शाखाशोषो रसस्रुतिः॥ (बृहत्संहिता)</blockquote> | ||
वृक्षों में अधिक शीत, वायु और धूप लगने से रोगों की उत्पत्ति होती है। रोगी वृक्षों के पत्ते पीले पड जाते हैं अर्तात सूखने लगते हैं। उनके अंकुर नहीं बढते हैं डालियाँ सूख जाती हैं और उनसे रस टपकने लगता है। सभी वृक्षों में दो प्रकार के व्याधियाँ (रोग) पाए जाते हैं - | वृक्षों में अधिक शीत, वायु और धूप लगने से रोगों की उत्पत्ति होती है। रोगी वृक्षों के पत्ते पीले पड जाते हैं अर्तात सूखने लगते हैं। उनके अंकुर नहीं बढते हैं डालियाँ सूख जाती हैं और उनसे रस टपकने लगता है। सभी वृक्षों में दो प्रकार के व्याधियाँ (रोग) पाए जाते हैं - | ||
− | #आन्तरिक रोग - वृक्षों की रचना के आधार पर वात, पित्त एवं कफ जन्य व्याधियाँ मुख्य हैं। | + | # आन्तरिक रोग - वृक्षों की रचना के आधार पर वात, पित्त एवं कफ जन्य व्याधियाँ मुख्य हैं। |
− | #बाह्य रोग - कीट, पतंगों के साथ ही शीत, ग्रीष्म एवं वर्षा आदि ऋतु के प्रभाव से वृक्षों में बाह्य व्याधियां होती हैं। | + | # बाह्य रोग - कीट, पतंगों के साथ ही शीत, ग्रीष्म एवं वर्षा आदि ऋतु के प्रभाव से वृक्षों में बाह्य व्याधियां होती हैं। |
वृक्षों को विभिन्न रोगों से बचाने के लिए उचित उपचार और पौधों की सुरक्षा का प्रावधान किया गया है - <blockquote>पल्लवप्रसवोत्साहानां व्याधीनामाश्रमस्य च। रक्षार्थं सिद्धिकामानां प्रतिषेधो विधीयते॥ (वृक्षायुर्वेद)</blockquote>इन श्लोकों में वृक्षों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए पर्यावरणीय और जैविक उपायों पर जोर दिया गया है। <blockquote>श्रीफलं वातलं वातात् शीतलं च बृहस्पतेः। चन्दनं च जलं चैव ह्लादयेदभिषेचने॥ (वृक्षायुर्वेद)<ref>प्रो० एस०के० रामचन्द्र राव, [https://archive.org/details/vrkshayurvedas/page/n8/mode/1up वृक्षायुर्वेद], सन् 1993, कल्पतरु रिसर्च अकादमी, बैंगलूरू (पृ० 13)।</ref></blockquote>वृक्षों की सिंचाई के समय ठंडे जल, चन्दन, और औषधियों के उपयोग से उन्हें शीतलता और जीवन मिलता है। मिट्टी हटाकर नई मिट्टी भर दें और वृक्ष को दूध मिश्रित जल से सिञ्चित करें इससे वह वृक्ष पुनः हरा-भरा हो जाएगा। | वृक्षों को विभिन्न रोगों से बचाने के लिए उचित उपचार और पौधों की सुरक्षा का प्रावधान किया गया है - <blockquote>पल्लवप्रसवोत्साहानां व्याधीनामाश्रमस्य च। रक्षार्थं सिद्धिकामानां प्रतिषेधो विधीयते॥ (वृक्षायुर्वेद)</blockquote>इन श्लोकों में वृक्षों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए पर्यावरणीय और जैविक उपायों पर जोर दिया गया है। <blockquote>श्रीफलं वातलं वातात् शीतलं च बृहस्पतेः। चन्दनं च जलं चैव ह्लादयेदभिषेचने॥ (वृक्षायुर्वेद)<ref>प्रो० एस०के० रामचन्द्र राव, [https://archive.org/details/vrkshayurvedas/page/n8/mode/1up वृक्षायुर्वेद], सन् 1993, कल्पतरु रिसर्च अकादमी, बैंगलूरू (पृ० 13)।</ref></blockquote>वृक्षों की सिंचाई के समय ठंडे जल, चन्दन, और औषधियों के उपयोग से उन्हें शीतलता और जीवन मिलता है। मिट्टी हटाकर नई मिट्टी भर दें और वृक्ष को दूध मिश्रित जल से सिञ्चित करें इससे वह वृक्ष पुनः हरा-भरा हो जाएगा। | ||
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शुक्रनीति में चौंसठ कलाओं के अंतर्गत वृक्षायुर्वेद के लिए वृक्षादिप्रसवारोपपालनादिकृतिः शब्द के द्वारा पेड़-पौधों की देखभाल, रोपाई, सिंचाई का ज्ञान आदि के रूप में व्यवहार किया गया है। | शुक्रनीति में चौंसठ कलाओं के अंतर्गत वृक्षायुर्वेद के लिए वृक्षादिप्रसवारोपपालनादिकृतिः शब्द के द्वारा पेड़-पौधों की देखभाल, रोपाई, सिंचाई का ज्ञान आदि के रूप में व्यवहार किया गया है। | ||
− | ==पर्यावरण का संकट और वृक्षायुर्वेद॥ Environmental crisis and Vriksha Ayurveda== | + | ==पर्यावरण का संकट और वृक्षायुर्वेद॥ Environmental crisis and Vriksha Ayurveda == |
पर्यावरणीय संकट वर्तमान समय में वैश्विक स्तर पर एक गंभीर समस्या बन चुका है। वनस्पति और वृक्षों की घटती संख्या ने पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव डाला है, जिससे जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण जैसी समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। वृक्षायुर्वेद पर्यार्णीय संकट के लिए अनेक प्रकार से लाभप्रद है - | पर्यावरणीय संकट वर्तमान समय में वैश्विक स्तर पर एक गंभीर समस्या बन चुका है। वनस्पति और वृक्षों की घटती संख्या ने पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव डाला है, जिससे जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण जैसी समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। वृक्षायुर्वेद पर्यार्णीय संकट के लिए अनेक प्रकार से लाभप्रद है - | ||
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*प्राकृतिक उपचार विधियाँ | *प्राकृतिक उपचार विधियाँ | ||
*वनों का संरक्षण एवं पुनर्वनीकरण | *वनों का संरक्षण एवं पुनर्वनीकरण | ||
− | *वृक्षों के लिए जल प्रबंधन एवं जल संचयन | + | * वृक्षों के लिए जल प्रबंधन एवं जल संचयन |
वर्तमान समय में पर्यावरणीय संकट का समाधान अत्यंत महत्वपूर्ण है, और इसके लिए प्राचीन भारतीय ज्ञान, विशेषकर वृक्षायुर्वेद, अत्यधिक उपयोगी साबित हो सकता है। वृक्षों की घटती संख्या ने जलवायु परिवर्तन, जैवविविधता की हानि और पारिस्थितिकी तंत्र के असंतुलन जैसी समस्याएँ उत्पन्न की हैं। वृक्षायुर्वेद के अनुसार वृक्षारोपण, वनों की रक्षा, और प्राकृतिक उपचार के तरीकों का पालन करके इन समस्याओं का समाधान संभव है। आधुनिक तकनीकों के साथ वृक्षायुर्वेद के सिद्धांतों का मेल करके हम पर्यावरण की सुरक्षा और पुनर्स्थापना के लिए एक स्थायी और प्रभावी समाधान पा सकते हैं। | वर्तमान समय में पर्यावरणीय संकट का समाधान अत्यंत महत्वपूर्ण है, और इसके लिए प्राचीन भारतीय ज्ञान, विशेषकर वृक्षायुर्वेद, अत्यधिक उपयोगी साबित हो सकता है। वृक्षों की घटती संख्या ने जलवायु परिवर्तन, जैवविविधता की हानि और पारिस्थितिकी तंत्र के असंतुलन जैसी समस्याएँ उत्पन्न की हैं। वृक्षायुर्वेद के अनुसार वृक्षारोपण, वनों की रक्षा, और प्राकृतिक उपचार के तरीकों का पालन करके इन समस्याओं का समाधान संभव है। आधुनिक तकनीकों के साथ वृक्षायुर्वेद के सिद्धांतों का मेल करके हम पर्यावरण की सुरक्षा और पुनर्स्थापना के लिए एक स्थायी और प्रभावी समाधान पा सकते हैं। |
Latest revision as of 16:47, 8 October 2024
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भारतीय ज्ञान परंपरा में चौंसठ कलाओं के अन्तर्गत वृक्षायुर्वेद का वर्णन प्राप्त होता है। वृक्षायुर्वेद एक प्राचीन भारतीय ग्रंथ है जो विशेष रूप से वृक्षों, पौधों और उनकी देखभाल से संबंधित है। यह ग्रंथ कृषि और वनस्पति विज्ञान पर आधारित है और इसमें वृक्षों की देखभाल, रोपण, संरक्षण, और उपचार के विभिन्न पहलुओं का उल्लेख मिलता है। वृक्षायुर्वेद का प्रमुख उद्देश्य वृक्षों की आयुर्वृद्धि और स्वास्थ्य को बनाए रखना है।
परिचय॥ Introduction
ज्योतिष शास्त्र एवं आयुर्वेद एक दूसरे के पूरक शास्त्र हैं। ज्योतिष शास्त्र में वृक्षायुर्वेद का विवेचन बहुत ही विस्तार पूर्वक किया गया है। बृहत्संहिता में वृक्षायुर्वेद अध्याय में वृक्षों के रोपण के लिए अच्छी भूमि तथा कौन से वृक्ष को कहाँ और कब लगाना चाहिए और वृक्षों के आन्तरिक एवं बाह्य रोगों के पहचान और निदान का वर्णन मिलता है। बृहत्संहिता में कहा गया है कि -
प्रान्तच्छायाविनिर्मुक्ता न मनोज्ञा जलाशयाः। यस्मादतो जलप्रान्तेष्वारामान् विनिवेशयेत्॥ (बृहत्संहिता)
यदि वापी, कूप, तालाब आदि जलाशयों के प्रान्त वृक्षों के छाया से रहित हो तो सुन्दर नहीं लगते हैं अर्थात जलाशयों के किनारों पर बहुत सारे वृक्ष लगाने चाहिए।
वेदों में वृक्ष-वनस्पतियों की उपयोगिता के विषय में विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। वृक्ष मानवमात्र को प्राणवायु देते हैं एवं मनुष्य प्राणवायु के बिना जीवित नहीं रह सकता है, अतः वृक्ष, वनस्पतियों और औषधियों को रक्षक बताया गया है। वृक्ष-वनस्पति मात्र प्राणवायु के साधन नहीं हैं, अपितु उनके समस्त अंग उपयोगी हैं। ये पाँच अंग हैं - मूल, स्कन्ध, पत्र, पुष्प और फल। काष्ठ की प्राप्ति का एक मात्र साधन वृक्ष हैं।[1]
यह वृक्षों के रोपण, पोषण, चिकित्सा एवं दोहद आदि के द्वारा मनचाहे फल, फूलों की समृद्धि को प्राप्त करने की कला है। इस कला का उद्देश्य है-मनोरम उद्यान या उपवन की रचना। प्राचीन भारत में उद्यान, नगरनिवेश एवं भवन-वास्तु के अनिवार्य अंग माने गये थे। वराहमिहिर जी के अनुसार उद्यानों से युक्त नगरों में देवता सर्वदा निवास करते हैं -[2]
रमन्ते देवता नित्यं पुरेषूद्यानवत्सु च॥ (बृहत्संहिता)[3]
इस कला के अन्तर्गत निम्न विषयों का निरूपण हुआ है -
- उपवनयोग्य भूमि का चयन॥ Selection of suitable land for cultivation
- वृक्षरोपण के लिये भूमि तैयार करना॥ Preparing land for tree planting
- मांगलिक वृक्षों का प्रथम रोपण॥ First planting of auspicious trees
- पादप-संरोपण॥ Planting
- पादप-सिंचन॥ plant irrigation
- वृक्ष-चिकित्सा॥ Tree therapy
- बीजोपचार॥ Seed Treatment
- वृक्षदोहद॥ Tree cutting
कतिपय अलौकिक प्रयोग आदि। वस्तुतः वृक्षायुर्वेदयोग विज्ञान और कला, प्रयोग और चमत्कार का रोचक समन्वय है। श्री वराहमिहिर जी ने बृहत्संहिता में 55वें अध्याय के रूप में वृक्षायुर्वेद का वर्णन किया है , जिसमें वर्णनीय विषय इस प्रकार हैं।[4]
परिभाषा॥ Definition
आयुर्वेद का अर्थ है- आयु को देने वाला वेद या शास्त्र। वृक्षायुर्वेद वृक्षों को दीर्घायुष्य एवं स्वास्थ्य प्रदान करने वाला शास्त्र है -
वृक्षस्य आयुर्वेदः - वृक्षायुर्वेदः, अर्थात् तरुचिकित्सादिशास्त्रम्। (शब्दकल्पद्रुम)
वृक्षायुर्वेद का सामान्य अर्थ उस विद्या से है जो वृक्षों और पौधों की सम्यक वृद्धि तथा पर्यावरण की सुरक्षा से सम्बन्धित चिन्तन है। वृक्षायुर्वेद यह ग्रन्थ के रूप में सुरपाल की रचना एवं वराहमिहिर द्वारा रचित बृहत्संहिता में वृक्षायुर्वेद पर भी एक अध्याय और पण्डित चक्रपाणि मिश्र द्वारा रचित विश्ववल्लभ वृक्षायुर्वेद प्राप्त होता है।
पेड़-पौधों में भेद॥ Difference between trees and plants
प्रकृति से उत्पन्न सभी वस्तुएँ परिवर्तनशील हैं। जिस अवस्था में निर्मित होते हैं उस अवस्था के अग्रिम चरणों से गुजरते हुए ये अन्तिम अवस्था के पडाव को पार करते हैं। वृक्ष की यात्रा भी प्रथम बीज से आरंभ होकर तना, टहनियाँ एवं पौधे की अन्तिम वृक्ष की अवस्था तक चलती है। इन सभी अवस्था में परिणत होते हुए वह अपनी उत्पत्ति यात्रा को समाप्त करता है तथा पुनः बीज के रूप में परिवर्तित हो जाता है।
भारतीय वाग्मय में ऋषि-मुनियों ने पौधों को कुछ वर्गों में विभजित किया है -
पौधों के नाम | पादप |
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वनस्पति | पुष्प के अभाव में फल (ये पुष्पं विना फलन्ति) |
औषधि | फल पकाने पर विनाश (फलपाकान्त) |
लता | वल्लरी - आरोहणापेक्षा |
त्वकसार | वेणु, बांस और बरु |
द्रुम | पुष्प - ये पुष्पै फलन्ति |
चक्रपाणि मिश्र जी ने अपने ग्रंथ विश्ववल्लभ वृक्षायुर्वेद में पांच प्रकारों का उल्लेख किया है –[5]
बीजोद्भवाः काण्डभवाश्च चान्ये कंदोद्भवागुल्म लता द्रुमाद्याः। उक्तास्तथान्येsपि च बीजकाण्डभवाविभेदं कथयामि तेषाम् ॥ (विश्ववल्लभ वृक्षायुर्वेद 3/13)
1. बीजोद्भव -जो वृक्ष या वनस्पति मात्र बीज से उत्पन्न होते हैं।
2. काण्डभव - शाखा अर्थात डाली से जो उत्पन्न होते हैं वे वृक्ष या वनस्पति काण्डभव के अंतर्गत आते हैं।
3. कंदोद्भव – जो वृक्ष मात्र कंद अर्थात अपने मूल से उत्पन्न होते हैं उन्हें कंदोद्भव वनस्पति कहा जाता है। जैसे – अदरक, शूरण, हल्दी, आलू आदि।
4. बीज काण्ड भव – जो वनस्पति बीज से भी उत्पन्न होते हैं और काण्ड अर्थात डाली से भी उत्पन्न हो जाते हैं उन्हें बीजकाण्ड भव वनस्पति कहा जाता है – पीपल, बरगद , अनार , बांस आदि।
5. बीजकंद भव – जो वनस्पति बीज और कंद दोनों से उत्पन्न होते हैं वह इस श्रेणी में आते हैं – इलायची, कमल प्याज आदि
वृक्ष रोग॥ Tree Disease
ज्योतिषशास्त्र एवं भारतीय कृषि शास्त्र में वृक्षों में लगने वाले रोगों तथा उन रोगों से निदान पाने का वर्णन बहुत ही सरल तरीके से किया गया है। बृहत्-संहिता में वृक्षों में लगने वाले रोगों के ज्ञान के बारे में वर्णन मिलता है कि -
शीतावातातपै रोगो जायते पाण्डुपत्रता। अवृद्धिश्च प्रवालानां शाखाशोषो रसस्रुतिः॥ (बृहत्संहिता)
वृक्षों में अधिक शीत, वायु और धूप लगने से रोगों की उत्पत्ति होती है। रोगी वृक्षों के पत्ते पीले पड जाते हैं अर्तात सूखने लगते हैं। उनके अंकुर नहीं बढते हैं डालियाँ सूख जाती हैं और उनसे रस टपकने लगता है। सभी वृक्षों में दो प्रकार के व्याधियाँ (रोग) पाए जाते हैं -
- आन्तरिक रोग - वृक्षों की रचना के आधार पर वात, पित्त एवं कफ जन्य व्याधियाँ मुख्य हैं।
- बाह्य रोग - कीट, पतंगों के साथ ही शीत, ग्रीष्म एवं वर्षा आदि ऋतु के प्रभाव से वृक्षों में बाह्य व्याधियां होती हैं।
वृक्षों को विभिन्न रोगों से बचाने के लिए उचित उपचार और पौधों की सुरक्षा का प्रावधान किया गया है -
पल्लवप्रसवोत्साहानां व्याधीनामाश्रमस्य च। रक्षार्थं सिद्धिकामानां प्रतिषेधो विधीयते॥ (वृक्षायुर्वेद)
इन श्लोकों में वृक्षों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए पर्यावरणीय और जैविक उपायों पर जोर दिया गया है।
श्रीफलं वातलं वातात् शीतलं च बृहस्पतेः। चन्दनं च जलं चैव ह्लादयेदभिषेचने॥ (वृक्षायुर्वेद)[6]
वृक्षों की सिंचाई के समय ठंडे जल, चन्दन, और औषधियों के उपयोग से उन्हें शीतलता और जीवन मिलता है। मिट्टी हटाकर नई मिट्टी भर दें और वृक्ष को दूध मिश्रित जल से सिञ्चित करें इससे वह वृक्ष पुनः हरा-भरा हो जाएगा।
लक्षण एवं उपचार॥ Symptoms and treatment
यह चिकित्सा विज्ञान परम उपयोगी यशवर्द्धक, आयुरक्षक तथा पौष्टिक है। चिकित्साशास्त्र का प्रमुख लक्ष्य है रोग निवारण। प्राचीन काल में रोग निवारण से अधिक ध्यान रोग न हो इस पर था। प्राचीन वैदिक संहिता में मानव जीवन के दीर्घायु के लिए लता-वन-वनस्पति-वृक्षादि का महत्व प्रतिपादित है।[7]
वृक्षायुर्वेद की उपयोगिता॥ Usefulness of Vriksha Ayurveda
पर्यावरण की सुरक्षा के लिये वृक्ष सम्पत्ति की अनिवार्यता बहुत आवश्यक है। वैदिक ऋषियों ने भूमि में सन्तुलन स्थापित करने के लिये वृक्षारोपण करने पर जोर दिया है। वृक्षों में भी कुछ देव वृक्ष, कुछ याज्ञिक , औषधीय आदि वृक्षों का वर्गीकरण देखा गया है।[8]
शुक्रनीति में चौंसठ कलाओं के अंतर्गत वृक्षायुर्वेद के लिए वृक्षादिप्रसवारोपपालनादिकृतिः शब्द के द्वारा पेड़-पौधों की देखभाल, रोपाई, सिंचाई का ज्ञान आदि के रूप में व्यवहार किया गया है।
पर्यावरण का संकट और वृक्षायुर्वेद॥ Environmental crisis and Vriksha Ayurveda
पर्यावरणीय संकट वर्तमान समय में वैश्विक स्तर पर एक गंभीर समस्या बन चुका है। वनस्पति और वृक्षों की घटती संख्या ने पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव डाला है, जिससे जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण जैसी समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। वृक्षायुर्वेद पर्यार्णीय संकट के लिए अनेक प्रकार से लाभप्रद है -
- भूमि और जलवायु के अनुसार वृक्षों का चयन
- बीज चयन और समय
- प्राकृतिक उपचार विधियाँ
- वनों का संरक्षण एवं पुनर्वनीकरण
- वृक्षों के लिए जल प्रबंधन एवं जल संचयन
वर्तमान समय में पर्यावरणीय संकट का समाधान अत्यंत महत्वपूर्ण है, और इसके लिए प्राचीन भारतीय ज्ञान, विशेषकर वृक्षायुर्वेद, अत्यधिक उपयोगी साबित हो सकता है। वृक्षों की घटती संख्या ने जलवायु परिवर्तन, जैवविविधता की हानि और पारिस्थितिकी तंत्र के असंतुलन जैसी समस्याएँ उत्पन्न की हैं। वृक्षायुर्वेद के अनुसार वृक्षारोपण, वनों की रक्षा, और प्राकृतिक उपचार के तरीकों का पालन करके इन समस्याओं का समाधान संभव है। आधुनिक तकनीकों के साथ वृक्षायुर्वेद के सिद्धांतों का मेल करके हम पर्यावरण की सुरक्षा और पुनर्स्थापना के लिए एक स्थायी और प्रभावी समाधान पा सकते हैं।
निष्कर्ष॥ Summary
ज्योतिषशास्त्र में वृक्षों के रोपण, उन वृक्षों के रोग एवं निदान, वृक्षों को किस क्रम से लगाना चाहिए तथा वृक्षों को गृह के कौन-कौन से भाग (दिशा) में लगाना शुभ एवं अशुभ होता है। इस विषय पर अर्थात वृक्षायुर्वेद पर स्मस्त संहिता आचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थों में बहुत ही सुन्दर रूप में प्रतिपादित किया है।
वृक्ष इस संसार को नाना प्रकार के कष्टों, आपदाओं से बचाते हैं इसीलिए इन्हें इस संसार का मूलरक्षक भी कहा जाता है। यदि वृक्षों की उचित रूप से देखभाल की जाए तो वे अपनी छाया, पुष्प और फलों के माध्यम से हमारे लिए धर्म, अर्थ और मोक्ष की साधना में अत्यन्त सहायक होते हैं।
- वृक्षों पर तिल की खली और विडंग का आलेपन करना चाहिए ये उन वृक्षों को कीट से सुरक्षित रखते हैं।
- वृक्षों के लिए दूध, पानी और कुणप जल आदि का प्रयोग करते रहना चाहिए।
- वृक्षों को आवश्यकता अनुसार घृत कि धूप देकर उपचारित करना
इस उपायों से वृक्ष हमेशा रोग मुक्त एवं सुन्दर, स्वादिष्ट फूल और फलों से युक्त रहते हैं।
उद्धरण॥ Reference
- ↑ डॉ० कपिलदेव द्विवेदी, वेदों में विज्ञान, सन् 2004, विश्वभारती अनुसंधान परिषद,भदोही (पृ० 56)।
- ↑ सी० के० रामचंद्रन, वृक्षायुर्वेद, सन् 1984, रिसर्चगेट पब्लिकेशन (पृ० 5)।
- ↑ बृहत्संहिता, अध्याय-55, श्लोक-08।
- ↑ वराहमिहिर, बृहत्संहिता-वृक्षायुर्वेद, सन् 2014, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी (पृ०110)।
- ↑ डॉ० श्रीकृष्ण जुगनू, वृक्षायुर्वेद, सन् २०१८, चौखम्बा संस्कृत सीरीज, वाराणसी (पृ० २३)।
- ↑ प्रो० एस०के० रामचन्द्र राव, वृक्षायुर्वेद, सन् 1993, कल्पतरु रिसर्च अकादमी, बैंगलूरू (पृ० 13)।
- ↑ डॉ० उर्मिला श्रीवास्तव - वेदविज्ञानश्रीः , डॉ० उमारमण झा-वैदिक संहिता में चिकित्सा विज्ञान, आर्य कन्या डिग्री कॉलेज, इलाहाबाद (पृ० 92)।
- ↑ शोधगंगा-अमित कुमार झा, ज्योतिष शास्त्र के प्रकाश में वृक्षायुर्वेद का विश्लेषणात्मक अध्ययन, सन् 2022, शोधकेंद्र - केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुरम् (पृ० 184)।