Difference between revisions of "Chitrakala (चित्रकला)"
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==परिचय॥ Introduction== | ==परिचय॥ Introduction== | ||
− | कामसूत्र में चौंसठ कलाओं का वर्णन किया गया है, जहाँ चित्रकला को महत्वपूर्ण कला के रूप में स्थान दिया गया है - <blockquote>लेख्यादि- | + | चित्रकला कला के सबसे उत्कृष्ट रूपों में से एक है जो रेखाओं और रंगों के माध्यम से मनुष्य के विचारों और भावनाओं को व्यक्त करती है। कामसूत्र में चौंसठ कलाओं का वर्णन किया गया है, जहाँ चित्रकला को महत्वपूर्ण कला के रूप में स्थान दिया गया है -<blockquote>लेख्यादि-ज्ञानम्। (लेखन और चित्रकला का ज्ञान)</blockquote>यह उद्धरण स्पष्ट रूप से चित्रकला को उन कलाओं में सम्मिलित करता है, जिन्हें एक शिक्षित और परिपूर्ण व्यक्ति को सीखना चाहिए। इसके अतिरिक्त, विष्णुधर्मोत्तर पुराण में भी चित्रकला को अन्य कलाओं के साथ महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इसमें चित्रकला के नियमों और सिद्धांतों पर विस्तृत चर्चा की गई है। इसका उल्लेख निम्नलिखित रूप से किया गया है -<blockquote>चित्रकला आत्मज्ञान का स्रोत है और यह ध्यान और साधना की एक विधि भी है। (विष्णुधर्मोत्तर पुराण, तृतीय खंड)</blockquote>इस उद्धरण से यह स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारत में चित्रकला को केवल एक कलात्मक कौशल ही नहीं, बल्कि एक ध्यान और साधना की विधि के रूप में भी देखा जाता था, जो आत्मज्ञान का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। |
− | ==चित्रकला का | + | ==परिभाषा== |
+ | स्मृति, भावना, आनन्द आदि को मूर्त रूप देना तथा समुचित रंगों के उपयोग एवं छाया प्रकाश आदि के कौशलपूर्ण प्रयोग द्वारा उसमें सजीवता, भावाभिव्यक्ति और सादृश्य का बोध कराया जाना चित्र है। जैसे अमरकोश में कहा गया है - <ref>डॉ० श्याम बिहारी अग्रवाल, [https://dn790007.ca.archive.org/0/items/in.ernet.dli.2015.378806/2015.378806.bhaartiiya-chitrakalaa.pdf भारतीय चित्रकला का इतिहास], सन् 1996, रूपशिल्प प्रकाशन, इलाहाबाद (पृ० 17)</ref><blockquote>चीयते इति चित्रम्।<ref>अमरकोश, तृतीय काण्ड - श्लोक 178</ref></blockquote>चित्रकार के चयन की स्वाभाविक परिणति करनेवाली आकृत्रिक षडंग-माला ही चित्र है। | ||
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+ | ==चित्रकला का महत्व॥ Importance of Painting== | ||
संस्कृत शास्त्रों में चित्रकला का स्थान अत्यधिक महत्वपूर्ण और सम्मानजनक है। चित्रकला को केवल एक कला के रूप में नहीं, बल्कि एक साधना और आत्म-अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में देखा गया है। इसका उल्लेख विभिन्न संस्कृत ग्रंथों में मिलता है, जिनमें कामसूत्र, विष्णुधर्मोत्तर पुराण, अग्निपुराण, और अन्य शास्त्र शामिल हैं। इन शास्त्रों में चित्रकला के सिद्धांत, तकनीक और इसके धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व को भी विस्तृत रूप से वर्णित किया गया है।<ref>डॉ० रघुनन्दन प्रसाद तिवारी, भारतीय-चित्रकला और उसके मूल तत्त्व, भारतीय पब्लिशिंग हाऊस, वाराणसी (पृ० १३६)।</ref> | संस्कृत शास्त्रों में चित्रकला का स्थान अत्यधिक महत्वपूर्ण और सम्मानजनक है। चित्रकला को केवल एक कला के रूप में नहीं, बल्कि एक साधना और आत्म-अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में देखा गया है। इसका उल्लेख विभिन्न संस्कृत ग्रंथों में मिलता है, जिनमें कामसूत्र, विष्णुधर्मोत्तर पुराण, अग्निपुराण, और अन्य शास्त्र शामिल हैं। इन शास्त्रों में चित्रकला के सिद्धांत, तकनीक और इसके धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व को भी विस्तृत रूप से वर्णित किया गया है।<ref>डॉ० रघुनन्दन प्रसाद तिवारी, भारतीय-चित्रकला और उसके मूल तत्त्व, भारतीय पब्लिशिंग हाऊस, वाराणसी (पृ० १३६)।</ref> | ||
− | ==विष्णुधर्मोत्तर पुराण में चित्रकला का | + | ==विष्णुधर्मोत्तर पुराण में चित्रकला का स्थान॥ Vishnudharmottar puran men chitrakala ka Sthan == |
− | विष्णुधर्मोत्तर पुराण में चित्रकला का विस्तृत और गहन वर्णन मिलता है। इसमें चित्रकला को विभिन्न कला विधाओं में श्रेष्ठ बताया गया है, और इसके नियमों का विस्तार से वर्णन किया गया है। इसे आत्मज्ञान का साधन और साधना का एक रूप माना गया है - <blockquote>यथा शिल्पे तथा चित्रे यथा चित्रे तथा नरः। (विष्णुधर्मोत्तर पुराण, तृतीय खंड, अध्याय 35)</blockquote>अर्थात | + | विष्णुधर्मोत्तर पुराण में चित्रकला का विस्तृत और गहन वर्णन मिलता है। इसमें चित्रकला को विभिन्न कला विधाओं में श्रेष्ठ बताया गया है, और इसके नियमों का विस्तार से वर्णन किया गया है। इसे आत्मज्ञान का साधन और साधना का एक रूप माना गया है - <blockquote>यथा शिल्पे तथा चित्रे यथा चित्रे तथा नरः। (विष्णुधर्मोत्तर पुराण, तृतीय खंड, अध्याय 35)</blockquote>अर्थात जैसे शिल्प में वैसी ही कला चित्रकला में होती है, और जैसा चित्रकला में होता है, वैसा ही मनुष्य का स्वरूप होता है। यह उद्धरण दर्शाता है कि चित्रकला का प्रभाव मनुष्य के व्यक्तित्व और आत्मा पर पड़ता है, और यह व्यक्ति की आंतरिक भावना और आध्यात्मिकता को प्रकट करने का एक साधन है। |
'''अग्निपुराण में चित्रकला''' | '''अग्निपुराण में चित्रकला''' | ||
− | अग्निपुराण में भी चित्रकला का वर्णन मिलता है, जहाँ इसका संबंध वास्तुकला और शिल्पकला से जोड़ा गया है। इसमें चित्रकला के नियम, रंगों का उपयोग, और विभिन्न आकृतियों के निर्माण की विधियों का वर्णन किया गया है।<blockquote>चित्रं धर्मार्थकामानां साधनं च सदा भवेत्। (अग्निपुराण,अध्याय 38)</blockquote>अर्थात चित्रकला धर्म, अर्थ, और काम (तीन पुरुषार्थों) के साधन के रूप में सदा उपयोगी होती है। यह उद्धरण चित्रकला को जीवन के मुख्य उद्देश्यों | + | अग्निपुराण में भी चित्रकला का वर्णन मिलता है, जहाँ इसका संबंध वास्तुकला और शिल्पकला से जोड़ा गया है। इसमें चित्रकला के नियम, रंगों का उपयोग, और विभिन्न आकृतियों के निर्माण की विधियों का वर्णन किया गया है।<blockquote>चित्रं धर्मार्थकामानां साधनं च सदा भवेत्। (अग्निपुराण,अध्याय 38)</blockquote>अर्थात चित्रकला धर्म, अर्थ, और काम (तीन पुरुषार्थों) के साधन के रूप में सदा उपयोगी होती है। यह उद्धरण चित्रकला को जीवन के मुख्य उद्देश्यों-धर्म, अर्थ और काम-के साथ जोड़ता है, जो कि वैदिक परंपरा का मूल तत्व है। |
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− | नाट्यशास्त्र जैसे ग्रंथों में भी चित्रकला का उल्लेख मिलता है, जहाँ इसे नाट्यकला का एक आवश्यक हिस्सा माना गया है। नाटक के मंच, वस्त्र, और पात्रों की साज-सज्जा में चित्रकला का महत्व बताया गया है। | + | नाट्यशास्त्र जैसे ग्रंथों में भी चित्रकला का उल्लेख मिलता है, जहाँ इसे नाट्यकला का एक आवश्यक हिस्सा माना गया है। नाटक के मंच, वस्त्र, और पात्रों की साज-सज्जा में चित्रकला का महत्व बताया गया है। संस्कृत शास्त्रों में चित्रकला को एक अत्यंत महत्वपूर्ण और सम्मानजनक स्थान दिया गया है। यह कला न केवल सौंदर्य का प्रतीक है, बल्कि यह आध्यात्मिक साधना, आत्म-अभिव्यक्ति, और जीवन के तीन प्रमुख उद्देश्यों-धर्म, अर्थ और काम-को साधने का माध्यम भी है। |
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*कामसूत्र ग्रन्थ में 64 कलाओं के अंतर्गत चित्रकला का भी उल्लेख है और यह भी कहा गया है कि यह कला वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है। | *कामसूत्र ग्रन्थ में 64 कलाओं के अंतर्गत चित्रकला का भी उल्लेख है और यह भी कहा गया है कि यह कला वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है। | ||
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#वर्ली चित्रकला - महाराष्ट्र के जन जातीय प्रदेश में | #वर्ली चित्रकला - महाराष्ट्र के जन जातीय प्रदेश में | ||
#कालीघाट चित्रकला - कलकत्ता में स्थित कालीघाट नामक स्थान में प्रचलित | #कालीघाट चित्रकला - कलकत्ता में स्थित कालीघाट नामक स्थान में प्रचलित | ||
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+ | ==चित्रकला की प्राचीनता॥ Chitrakala ke Prachenata== | ||
+ | वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, भरत के नाट्यशास्त्र, कालिदास के ग्रन्थों में, वात्स्यायन के कामसूत्र तथा बौद्ध एवं जैन कृतियों में चित्रकला के प्रचूर साक्ष्य उपलब्ध हैं जो भारतीय चित्रकला की समृद्धि और प्राचीनता को प्रमाणित करते हैं।<ref name=":0">शोधगंगा-अजीत कुमार त्रिपाठी, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in:8443/jspui/handle/10603/442114 प्राचीन भारत में चित्रकला का विकास], सन् 2022, शोधकेंद्र-दीन दयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय, गोरखपुर (पृ० 2)।</ref> | ||
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+ | भारतीय चित्रकला केवल आनन्द का विषय नहीं है परन्तु भारतीय संस्कृति में कला को धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की प्राप्ति का साधन माना गया है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण के चित्रसूत्र नामक अध्याय में चित्रकला कि विषय में वर्णित है - <blockquote>कलानां प्रवरं चित्रं धर्मकामार्थमोक्षदम्। मांगल्यं प्रथमं चैतद्गृहे यत्र प्रतिष्ठितम्॥ (चित्रसूत्र ४३/३८)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A5%81%E0%A4%A7%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%96%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A4%83_%E0%A5%A9/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%83_%E0%A5%A6%E0%A5%AA%E0%A5%A7-%E0%A5%A6%E0%A5%AA%E0%A5%AB विष्णुधर्मोत्तर पुराण], चित्रसूत्र अध्याय-43, श्लोक-38।</ref></blockquote>भारतीय चित्रकला भाव प्रधान है। यहाँ दृश्य से अधिक भाव को महत्व दिया गया है, भारतीय चित्रकला अपनी कल्पनाशीलता से ही विविध देवी-देवताओं का चित्र बनाकर उन्हें जनमानस के हृदय में स्थापित कर देती है। | ||
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+ | मनुष्य जब अपने हृदय की भावना अथवा आनन्द से प्रेरित होकर अपने भावों को प्रकट करता है, वह कला है। मनुष्य की वह रचना जो उसको आनन्द प्रदान करती है, कला कहलाती है।कला सामाजिक अनुभव एवं सांस्कृतिक रिक्थ के साथ मनुष्य की गहनतम प्रवृत्तियों तथा भावनाओं के संश्लेषण एवं समाधान से युक्त स्वरूप के प्रेषण की अभिव्यक्ति है। कला के मुख्यतः तीन रूप हैं - | ||
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+ | *'''मूर्तिकला -''' पत्थर या पाषाण को तराशकर मूर्ति का रूप प्रदान किया जाता है। मूर्ति धातु अथवा मिट्टी की भी होती है। किसी धातु अथवा पत्थर को फलक पर उकेर कर रूपांकित कर मूर्ति का निर्माण किया जा सकता है। | ||
+ | *'''वास्तुकला -''' इसके अन्तर्गत मन्दिर निर्माण, भवन, स्तूप, चैत्य आदि का निर्माण किया जाता है। | ||
+ | *'''चित्रकला -''' चित्रकला में रेखाओं के सूक्ष्म अंकन से ही दूरी समीपता, लघुता, स्थूलता आदि का चित्रण होता है। चित्रकला में आकृति का महत्वपूर्ण स्थान है। चित्रकला मुख्य रूप से तीन प्रकार की होती है - | ||
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+ | इनके अतिरिक्त धूलि चित्र भी बनते थे, जिसका वर्तमान स्वरूप रंगोली और चौक पूरना है। विभिन्न प्रकार के रंगों और चूर्ण से जमीन पर अनेक प्रकार की आकृतियाँ उकेरी जाती थी। भारतीय धर्म में चित्रकला के नियम एवं विधि-विधान भी विद्यमान थे। चित्रविद्या के साथ चित्रकला के षडंग का भी प्रचलन था। यशोधर ने कामसूत्र की टीका जयमंगला में आलेख्य की टीका करते हुए निम्न श्लोक उद्धृत किया - <blockquote>रूपभेदाः प्रमाणानि भावलावण्ययोजनम्। सादृश्य वर्णिकाभंग इति चित्रं षडंगकम्॥ (कामसूत्र)</blockquote>अर्थात् रूपभेद, प्रमाण, भाव, लावण्ययोजना, सादृश्य और वर्णिकाभंग ये चित्रकला के छह अंग हैं। अवनी बाबू ने चित्रकला के छह अंगों की व्याख्या करने के पहले उनका अंग्रेजी अर्थ निरूपित किया जो इस प्रकार है -<ref>कृष्णदास राय, [https://ia800402.us.archive.org/25/items/in.gov.ignca.18275/18275.pdf भारत की चित्रकला], सन् 2017, भारती भण्डार लीडर प्रेस, इलाहाबाद (पृ० 07)।</ref> | ||
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+ | #'''रूपभेद - Knowledge of Appearance''' | ||
+ | #'''प्रमाण - Correct Perception, Measure and Structure of torms''' | ||
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+ | #'''लावण्य-योजना - Intusion of Grace, artistic representation''' | ||
+ | #'''सादृश्य - Sumitudes''' | ||
+ | #'''वर्णिकाभंग - Artistic Manner of using the brush and colours''' | ||
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+ | ==प्राचीन साहित्य में चित्रकला== | ||
+ | सर्वप्रथम चित्रकला का सन्दर्भ ऋग्वेद में दृष्टिगत होता है। भारतीय कला दर्शन शास्त्रों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि कला शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में भी हुआ है। भारतीय चित्रकला के प्रकाण्ड विद्वान् रामकृष्ण दास जी के अनुसार ऋग्वेद में चमडे पर बने अग्नि चित्र की चर्चा की गयी है।<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%8B%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A4%83_%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%82_%E0%A5%A7.%E0%A5%A7%E0%A5%AA%E0%A5%AB ऋग्वेद] , मण्डल-1, सूक्त-145।</ref> इसके अतिरिक्त चित्रकला के प्रसंग रामायण, महाभारत, वात्स्यायन के कामसूत्र, भरत के नाट्यशास्त्र, कालिदास के अनेक रचनाओं रघुवंश, मेघदूत, अभिज्ञानशाकुन्तलम् आदि हर्षचरित, नैषधचरित, विष्णुधर्मोत्तरपुराण, हरिवंशपुराण, पद्मपुराण, अग्निपुराण आदि मेम देखने को मिलते हैं।<ref name=":0" /> | ||
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+ | पाणिनि ने अष्टाध्यायी में चारु (ललित) एवं कारु (उपयोगी) कलाओं का उल्लेख किया है। | ||
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Revision as of 19:55, 5 October 2024
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भारतीय चौंसठ कलाओं में चित्रकला का विशेष स्थान है। चित्रकला (Painting) प्राचीन भारत की महत्वपूर्ण कलाओं में से एक थी। इसका अभ्यास विभिन्न प्रकार की पद्धतियों से किया जाता था, जिसमें भित्ति चित्र (Fresco), पट्ट चित्र (Canvas Painting) और हस्त चित्रण (Miniature Painting) प्रमुख थे। उदाहरण के लिए, अजन्ता और एलोरा की गुफाओं में बने भित्ति चित्र प्राचीन भारतीय चित्रकला का उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
परिचय॥ Introduction
चित्रकला कला के सबसे उत्कृष्ट रूपों में से एक है जो रेखाओं और रंगों के माध्यम से मनुष्य के विचारों और भावनाओं को व्यक्त करती है। कामसूत्र में चौंसठ कलाओं का वर्णन किया गया है, जहाँ चित्रकला को महत्वपूर्ण कला के रूप में स्थान दिया गया है -
लेख्यादि-ज्ञानम्। (लेखन और चित्रकला का ज्ञान)
यह उद्धरण स्पष्ट रूप से चित्रकला को उन कलाओं में सम्मिलित करता है, जिन्हें एक शिक्षित और परिपूर्ण व्यक्ति को सीखना चाहिए। इसके अतिरिक्त, विष्णुधर्मोत्तर पुराण में भी चित्रकला को अन्य कलाओं के साथ महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इसमें चित्रकला के नियमों और सिद्धांतों पर विस्तृत चर्चा की गई है। इसका उल्लेख निम्नलिखित रूप से किया गया है -
चित्रकला आत्मज्ञान का स्रोत है और यह ध्यान और साधना की एक विधि भी है। (विष्णुधर्मोत्तर पुराण, तृतीय खंड)
इस उद्धरण से यह स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारत में चित्रकला को केवल एक कलात्मक कौशल ही नहीं, बल्कि एक ध्यान और साधना की विधि के रूप में भी देखा जाता था, जो आत्मज्ञान का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
परिभाषा
स्मृति, भावना, आनन्द आदि को मूर्त रूप देना तथा समुचित रंगों के उपयोग एवं छाया प्रकाश आदि के कौशलपूर्ण प्रयोग द्वारा उसमें सजीवता, भावाभिव्यक्ति और सादृश्य का बोध कराया जाना चित्र है। जैसे अमरकोश में कहा गया है - [1]
चीयते इति चित्रम्।[2]
चित्रकार के चयन की स्वाभाविक परिणति करनेवाली आकृत्रिक षडंग-माला ही चित्र है।
चित्रकला का महत्व॥ Importance of Painting
संस्कृत शास्त्रों में चित्रकला का स्थान अत्यधिक महत्वपूर्ण और सम्मानजनक है। चित्रकला को केवल एक कला के रूप में नहीं, बल्कि एक साधना और आत्म-अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में देखा गया है। इसका उल्लेख विभिन्न संस्कृत ग्रंथों में मिलता है, जिनमें कामसूत्र, विष्णुधर्मोत्तर पुराण, अग्निपुराण, और अन्य शास्त्र शामिल हैं। इन शास्त्रों में चित्रकला के सिद्धांत, तकनीक और इसके धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व को भी विस्तृत रूप से वर्णित किया गया है।[3]
विष्णुधर्मोत्तर पुराण में चित्रकला का स्थान॥ Vishnudharmottar puran men chitrakala ka Sthan
विष्णुधर्मोत्तर पुराण में चित्रकला का विस्तृत और गहन वर्णन मिलता है। इसमें चित्रकला को विभिन्न कला विधाओं में श्रेष्ठ बताया गया है, और इसके नियमों का विस्तार से वर्णन किया गया है। इसे आत्मज्ञान का साधन और साधना का एक रूप माना गया है -
यथा शिल्पे तथा चित्रे यथा चित्रे तथा नरः। (विष्णुधर्मोत्तर पुराण, तृतीय खंड, अध्याय 35)
अर्थात जैसे शिल्प में वैसी ही कला चित्रकला में होती है, और जैसा चित्रकला में होता है, वैसा ही मनुष्य का स्वरूप होता है। यह उद्धरण दर्शाता है कि चित्रकला का प्रभाव मनुष्य के व्यक्तित्व और आत्मा पर पड़ता है, और यह व्यक्ति की आंतरिक भावना और आध्यात्मिकता को प्रकट करने का एक साधन है।
अग्निपुराण में चित्रकला
अग्निपुराण में भी चित्रकला का वर्णन मिलता है, जहाँ इसका संबंध वास्तुकला और शिल्पकला से जोड़ा गया है। इसमें चित्रकला के नियम, रंगों का उपयोग, और विभिन्न आकृतियों के निर्माण की विधियों का वर्णन किया गया है।
चित्रं धर्मार्थकामानां साधनं च सदा भवेत्। (अग्निपुराण,अध्याय 38)
अर्थात चित्रकला धर्म, अर्थ, और काम (तीन पुरुषार्थों) के साधन के रूप में सदा उपयोगी होती है। यह उद्धरण चित्रकला को जीवन के मुख्य उद्देश्यों-धर्म, अर्थ और काम-के साथ जोड़ता है, जो कि वैदिक परंपरा का मूल तत्व है।
अन्य ग्रंथों में चित्रकला
नाट्यशास्त्र जैसे ग्रंथों में भी चित्रकला का उल्लेख मिलता है, जहाँ इसे नाट्यकला का एक आवश्यक हिस्सा माना गया है। नाटक के मंच, वस्त्र, और पात्रों की साज-सज्जा में चित्रकला का महत्व बताया गया है। संस्कृत शास्त्रों में चित्रकला को एक अत्यंत महत्वपूर्ण और सम्मानजनक स्थान दिया गया है। यह कला न केवल सौंदर्य का प्रतीक है, बल्कि यह आध्यात्मिक साधना, आत्म-अभिव्यक्ति, और जीवन के तीन प्रमुख उद्देश्यों-धर्म, अर्थ और काम-को साधने का माध्यम भी है।
शिल्प एवं चित्रकला॥ Crafts and Painting
- कामसूत्र ग्रन्थ में 64 कलाओं के अंतर्गत चित्रकला का भी उल्लेख है और यह भी कहा गया है कि यह कला वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है।
- विष्णुधर्मोत्तरपुराण में एक अध्याय चित्रसूत्र चित्रकला पर भी है जिसमें बताया गया है कि चित्रकला के छह अंग हैं -
- आकृति की विभिन्नता, अनुपात, भाव, चमक, रंगों का प्रभाव आदि
- मिथिला चित्रकला - मधुबनी लोक कला
- वर्ली चित्रकला - महाराष्ट्र के जन जातीय प्रदेश में
- कालीघाट चित्रकला - कलकत्ता में स्थित कालीघाट नामक स्थान में प्रचलित
चित्रकला की प्राचीनता॥ Chitrakala ke Prachenata
वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, भरत के नाट्यशास्त्र, कालिदास के ग्रन्थों में, वात्स्यायन के कामसूत्र तथा बौद्ध एवं जैन कृतियों में चित्रकला के प्रचूर साक्ष्य उपलब्ध हैं जो भारतीय चित्रकला की समृद्धि और प्राचीनता को प्रमाणित करते हैं।[4]
भारतीय चित्रकला केवल आनन्द का विषय नहीं है परन्तु भारतीय संस्कृति में कला को धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की प्राप्ति का साधन माना गया है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण के चित्रसूत्र नामक अध्याय में चित्रकला कि विषय में वर्णित है -
कलानां प्रवरं चित्रं धर्मकामार्थमोक्षदम्। मांगल्यं प्रथमं चैतद्गृहे यत्र प्रतिष्ठितम्॥ (चित्रसूत्र ४३/३८)[5]
भारतीय चित्रकला भाव प्रधान है। यहाँ दृश्य से अधिक भाव को महत्व दिया गया है, भारतीय चित्रकला अपनी कल्पनाशीलता से ही विविध देवी-देवताओं का चित्र बनाकर उन्हें जनमानस के हृदय में स्थापित कर देती है।
चित्रकला की अवधारणा
मनुष्य जब अपने हृदय की भावना अथवा आनन्द से प्रेरित होकर अपने भावों को प्रकट करता है, वह कला है। मनुष्य की वह रचना जो उसको आनन्द प्रदान करती है, कला कहलाती है।कला सामाजिक अनुभव एवं सांस्कृतिक रिक्थ के साथ मनुष्य की गहनतम प्रवृत्तियों तथा भावनाओं के संश्लेषण एवं समाधान से युक्त स्वरूप के प्रेषण की अभिव्यक्ति है। कला के मुख्यतः तीन रूप हैं -
- मूर्तिकला - पत्थर या पाषाण को तराशकर मूर्ति का रूप प्रदान किया जाता है। मूर्ति धातु अथवा मिट्टी की भी होती है। किसी धातु अथवा पत्थर को फलक पर उकेर कर रूपांकित कर मूर्ति का निर्माण किया जा सकता है।
- वास्तुकला - इसके अन्तर्गत मन्दिर निर्माण, भवन, स्तूप, चैत्य आदि का निर्माण किया जाता है।
- चित्रकला - चित्रकला में रेखाओं के सूक्ष्म अंकन से ही दूरी समीपता, लघुता, स्थूलता आदि का चित्रण होता है। चित्रकला में आकृति का महत्वपूर्ण स्थान है। चित्रकला मुख्य रूप से तीन प्रकार की होती है -
- भित्ति चित्र - यह दीवारों पर बनाया जाता है अजन्ता के भित्ति चित्र दर्शनीय हैं।
- चित्रपटक - जो चमडे और कपडों से बनाये जाते थे। ये दीवारों पर टाँगे जाते हैं, इन्हें लपेटकर रखा भी जा सकता है।
- चित्रफलक - चित्रफलक को लकडी, हाथीदाँत और कीमती पत्थरों पर बनाया जाता था।
इनके अतिरिक्त धूलि चित्र भी बनते थे, जिसका वर्तमान स्वरूप रंगोली और चौक पूरना है। विभिन्न प्रकार के रंगों और चूर्ण से जमीन पर अनेक प्रकार की आकृतियाँ उकेरी जाती थी। भारतीय धर्म में चित्रकला के नियम एवं विधि-विधान भी विद्यमान थे। चित्रविद्या के साथ चित्रकला के षडंग का भी प्रचलन था। यशोधर ने कामसूत्र की टीका जयमंगला में आलेख्य की टीका करते हुए निम्न श्लोक उद्धृत किया -
रूपभेदाः प्रमाणानि भावलावण्ययोजनम्। सादृश्य वर्णिकाभंग इति चित्रं षडंगकम्॥ (कामसूत्र)
अर्थात् रूपभेद, प्रमाण, भाव, लावण्ययोजना, सादृश्य और वर्णिकाभंग ये चित्रकला के छह अंग हैं। अवनी बाबू ने चित्रकला के छह अंगों की व्याख्या करने के पहले उनका अंग्रेजी अर्थ निरूपित किया जो इस प्रकार है -[6]
- रूपभेद - Knowledge of Appearance
- प्रमाण - Correct Perception, Measure and Structure of torms
- भाव - The action of teelings on torms
- लावण्य-योजना - Intusion of Grace, artistic representation
- सादृश्य - Sumitudes
- वर्णिकाभंग - Artistic Manner of using the brush and colours
प्राचीन साहित्य में चित्रकला
सर्वप्रथम चित्रकला का सन्दर्भ ऋग्वेद में दृष्टिगत होता है। भारतीय कला दर्शन शास्त्रों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि कला शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में भी हुआ है। भारतीय चित्रकला के प्रकाण्ड विद्वान् रामकृष्ण दास जी के अनुसार ऋग्वेद में चमडे पर बने अग्नि चित्र की चर्चा की गयी है।[7] इसके अतिरिक्त चित्रकला के प्रसंग रामायण, महाभारत, वात्स्यायन के कामसूत्र, भरत के नाट्यशास्त्र, कालिदास के अनेक रचनाओं रघुवंश, मेघदूत, अभिज्ञानशाकुन्तलम् आदि हर्षचरित, नैषधचरित, विष्णुधर्मोत्तरपुराण, हरिवंशपुराण, पद्मपुराण, अग्निपुराण आदि मेम देखने को मिलते हैं।[4]
पाणिनि ने अष्टाध्यायी में चारु (ललित) एवं कारु (उपयोगी) कलाओं का उल्लेख किया है।
उद्धरण
- ↑ डॉ० श्याम बिहारी अग्रवाल, भारतीय चित्रकला का इतिहास, सन् 1996, रूपशिल्प प्रकाशन, इलाहाबाद (पृ० 17)
- ↑ अमरकोश, तृतीय काण्ड - श्लोक 178
- ↑ डॉ० रघुनन्दन प्रसाद तिवारी, भारतीय-चित्रकला और उसके मूल तत्त्व, भारतीय पब्लिशिंग हाऊस, वाराणसी (पृ० १३६)।
- ↑ 4.0 4.1 शोधगंगा-अजीत कुमार त्रिपाठी, प्राचीन भारत में चित्रकला का विकास, सन् 2022, शोधकेंद्र-दीन दयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय, गोरखपुर (पृ० 2)।
- ↑ विष्णुधर्मोत्तर पुराण, चित्रसूत्र अध्याय-43, श्लोक-38।
- ↑ कृष्णदास राय, भारत की चित्रकला, सन् 2017, भारती भण्डार लीडर प्रेस, इलाहाबाद (पृ० 07)।
- ↑ ऋग्वेद , मण्डल-1, सूक्त-145।