Difference between revisions of "Vyakarana (व्याकरण)"
(नया पृष्ठ निर्माण - व्याकरण) |
(सुधार जारी) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
− | + | {{ToBeEdited}} | |
− | + | व्याकरण शास्त्र के विवेचन को दो भागों में बाँटा जा सकता है - लौकिक व्याकरण एवं वैदिक व्याकरण। लौकिक व्याकरण में पाणिनि आदि आचार्य हैं तथा अष्टाध्यायी महाभाष्य आदि ग्रन्थ हैं। वैदिक व्याकरण में प्रातिशाख्य ग्रन्थ हैं। शब्दशास्त्र के लिये व्याकरण शब्द का प्रयोग रामायण, गोपथ ब्राह्मण, मुण्डकोपनिषद् और महाभारत आदि अनेक ग्रन्थों में मिलता है। | |
− | == | + | ==परिचय== |
− | + | भारतीय इतिहास में सब विद्याओं का आदि प्रवक्ता ब्रह्मा जी को कहा गया है। इसके अनुसार व्याकरणशास्त्र के आदि वक्ता भी ब्रह्मा जी ही हैं। ऋक्तन्त्रकार ने लिखा है - <blockquote>ब्रह्मा बृहस्पतये प्रोवाच, बृहस्पतिरिन्द्राय, इन्द्रो भरद्वाजाय, भरद्वाज ऋषिभ्यः, ऋषयो ब्राह्मणेभ्यः॥(१/४)</blockquote>इस वचन के अनुसार व्याकरण के एकदेश अक्षरसमाम्नाय का सर्व प्रथम प्रवक्ता ब्रह्मा जी हैं। | |
− | == व्याकरण के आचार्य == | + | ==परिभाषा== |
+ | जिस शास्त्र के द्वारा शब्दों के प्रकृति-प्रत्यय का विवेचन किया जाता है, उसे व्याकरण कहते हैं - <blockquote>व्याक्रियन्ते विविच्यन्ते शब्दा अनेनेति व्याकरणम्।<ref>डॉ० कपिल देव द्विवेदी, [https://archive.org/details/vedicsahityaevamsanskritidr.kapildevdwivedi/page/n4/mode/1up वैदिक साहित्य एवं संस्कृति], सन् २०००, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी (पृ० २००)।</ref></blockquote>अर्थात् इसमें यह विवेचन किया जाता है कि शब्द कैसे बनता है। इसमें क्या प्रकृति है और क्या प्रत्यय लगा है। उसके अनुसार शब्द का अर्थ निश्चित किया जाता है। इस पाणिनीय व्याकरण के अध्ययन की दो पद्धतियाँ सम्प्रति व्यवहार में प्रयुक्त हैं। एक है - लक्षण प्रधान एवं अन्य है - लक्ष्य प्रधान। | ||
+ | |||
+ | ==प्राचीन व्याकरण== | ||
+ | यह मार्ग महाभाष्य से प्रारंभ होकर काशिकावृत्ति से होता हुआ अद्यावधि अनवरत चल रहा है। | ||
+ | |||
+ | ==नव्य व्याकरण== | ||
+ | प्रक्रिया पद्धति, जिसका सर्वप्रामाणिक ग्रन्थ सिद्धान्तकौमुदी है। इसमें लक्ष्य को मुख्यतया लक्षित करके उस लक्ष्य की सिद्धि के लिये सूत्रों की व्याख्या प्रस्तुत की जाती है। अतः यह पद्धति लक्ष्यप्रधान है। प्रथम पद्धति को प्राचीनव्याकरण तथा नवीन पद्धति को नव्यव्याकरण के नाम से जाना जाता है। | ||
+ | |||
+ | ==व्याकरणशास्त्र परम्परा== | ||
+ | विभिन्न शाब्दिकों द्वारा पाणिनीय व्याकरण से इतर व्याकरण सम्प्रदायों का आविर्भाव भी कालान्तर में हुआ है। कतिपय प्रमुख शब्दानुशासनों का संक्षिप्त विवरण निम्न है - | ||
+ | |||
+ | '''कातन्त्रव्याकरण -''' | ||
+ | |||
+ | '''चान्द्रव्याकरण -''' | ||
+ | |||
+ | '''जैनेन्द्र व्याकरण -''' | ||
+ | |||
+ | '''शाकटायन व्याकरण -''' | ||
+ | |||
+ | '''हेमचन्द्रव्याकरण -''' | ||
+ | |||
+ | '''सारस्वतव्याकरण -''' | ||
+ | |||
+ | == व्याकरण के प्रमुख सिद्धान्त == | ||
+ | |||
+ | * पद साधुत्व के ज्ञान के लिये | ||
+ | * शाब्दबोध हेतु तथा व्याकरण दर्शन के रूप में स्फोटवाद | ||
+ | * शब्द के नित्यत्व का साधन करते हुये, शब्द को ही ब्रह्म स्वीकृत करना | ||
+ | * संसार को शब्दब्रह्म के विवर्त रूप में व्याख्यायित करना | ||
+ | |||
+ | ==सारांश== | ||
+ | इस प्रकार भारतीय वांग्मय में व्याकरण अध्ययन के बृहद् इतिहास का वर्णन, उपर्युक्त परंपरा से हमें प्राप्त होता है। इसका आदि भारतीय परंपरा के अनुसार, ब्रह्मा तथा शिव से प्रारंभ होते हुये आज तक यह परंपरा अविच्छिन रूप में विकसित होते हुये, संस्कृत भाषा को परिनिष्ठित करने हेतु व्याख्यायित है। | ||
+ | |||
+ | व्याकरणनिकायों प्राच्य तथा नव्य विधाओं में लक्ष्य तथा लक्षण उभयतः ग्रन्थों की रचना हुयी है। आचार्य पाणिनि इस समस्त शब्दानुशासन के प्रवर्तक स्वीकृत किये जाते हैं। उअन्के द्वारा रचित पाणिनीय व्याकरण अनुवर्ती सभी शाब्दिकों के अध्ययन का प्रमुख प्रवर्तक ग्रन्थ सिद्ध हुआ है। जिसमें वार्तिककार कात्यायन तथा महाभाष्यकार पतञ्जलि का विशेष महत्त्व है। | ||
+ | |||
+ | इन मुनित्रयों के पश्चात् आचार्य भर्तृहरि, कैयट, वामन-जयादित्य, भट्टोजिदीक्षित, नागेशभट्ट आदि से लेकर अद्यावधि पर्यन्त अनेकों विद्वानों ने स्वरचित ग्रन्थों द्वारा प्रतिष्ठा प्राप्त की है। | ||
+ | |||
+ | ==व्याकरण के आचार्य== | ||
+ | <references /> | ||
+ | [[Category:Hindi Articles]] |
Revision as of 06:58, 16 July 2024
This article needs editing.
Add and improvise the content from reliable sources. |
व्याकरण शास्त्र के विवेचन को दो भागों में बाँटा जा सकता है - लौकिक व्याकरण एवं वैदिक व्याकरण। लौकिक व्याकरण में पाणिनि आदि आचार्य हैं तथा अष्टाध्यायी महाभाष्य आदि ग्रन्थ हैं। वैदिक व्याकरण में प्रातिशाख्य ग्रन्थ हैं। शब्दशास्त्र के लिये व्याकरण शब्द का प्रयोग रामायण, गोपथ ब्राह्मण, मुण्डकोपनिषद् और महाभारत आदि अनेक ग्रन्थों में मिलता है।
परिचय
भारतीय इतिहास में सब विद्याओं का आदि प्रवक्ता ब्रह्मा जी को कहा गया है। इसके अनुसार व्याकरणशास्त्र के आदि वक्ता भी ब्रह्मा जी ही हैं। ऋक्तन्त्रकार ने लिखा है -
ब्रह्मा बृहस्पतये प्रोवाच, बृहस्पतिरिन्द्राय, इन्द्रो भरद्वाजाय, भरद्वाज ऋषिभ्यः, ऋषयो ब्राह्मणेभ्यः॥(१/४)
इस वचन के अनुसार व्याकरण के एकदेश अक्षरसमाम्नाय का सर्व प्रथम प्रवक्ता ब्रह्मा जी हैं।
परिभाषा
जिस शास्त्र के द्वारा शब्दों के प्रकृति-प्रत्यय का विवेचन किया जाता है, उसे व्याकरण कहते हैं -
व्याक्रियन्ते विविच्यन्ते शब्दा अनेनेति व्याकरणम्।[1]
अर्थात् इसमें यह विवेचन किया जाता है कि शब्द कैसे बनता है। इसमें क्या प्रकृति है और क्या प्रत्यय लगा है। उसके अनुसार शब्द का अर्थ निश्चित किया जाता है। इस पाणिनीय व्याकरण के अध्ययन की दो पद्धतियाँ सम्प्रति व्यवहार में प्रयुक्त हैं। एक है - लक्षण प्रधान एवं अन्य है - लक्ष्य प्रधान।
प्राचीन व्याकरण
यह मार्ग महाभाष्य से प्रारंभ होकर काशिकावृत्ति से होता हुआ अद्यावधि अनवरत चल रहा है।
नव्य व्याकरण
प्रक्रिया पद्धति, जिसका सर्वप्रामाणिक ग्रन्थ सिद्धान्तकौमुदी है। इसमें लक्ष्य को मुख्यतया लक्षित करके उस लक्ष्य की सिद्धि के लिये सूत्रों की व्याख्या प्रस्तुत की जाती है। अतः यह पद्धति लक्ष्यप्रधान है। प्रथम पद्धति को प्राचीनव्याकरण तथा नवीन पद्धति को नव्यव्याकरण के नाम से जाना जाता है।
व्याकरणशास्त्र परम्परा
विभिन्न शाब्दिकों द्वारा पाणिनीय व्याकरण से इतर व्याकरण सम्प्रदायों का आविर्भाव भी कालान्तर में हुआ है। कतिपय प्रमुख शब्दानुशासनों का संक्षिप्त विवरण निम्न है -
कातन्त्रव्याकरण -
चान्द्रव्याकरण -
जैनेन्द्र व्याकरण -
शाकटायन व्याकरण -
हेमचन्द्रव्याकरण -
सारस्वतव्याकरण -
व्याकरण के प्रमुख सिद्धान्त
- पद साधुत्व के ज्ञान के लिये
- शाब्दबोध हेतु तथा व्याकरण दर्शन के रूप में स्फोटवाद
- शब्द के नित्यत्व का साधन करते हुये, शब्द को ही ब्रह्म स्वीकृत करना
- संसार को शब्दब्रह्म के विवर्त रूप में व्याख्यायित करना
सारांश
इस प्रकार भारतीय वांग्मय में व्याकरण अध्ययन के बृहद् इतिहास का वर्णन, उपर्युक्त परंपरा से हमें प्राप्त होता है। इसका आदि भारतीय परंपरा के अनुसार, ब्रह्मा तथा शिव से प्रारंभ होते हुये आज तक यह परंपरा अविच्छिन रूप में विकसित होते हुये, संस्कृत भाषा को परिनिष्ठित करने हेतु व्याख्यायित है।
व्याकरणनिकायों प्राच्य तथा नव्य विधाओं में लक्ष्य तथा लक्षण उभयतः ग्रन्थों की रचना हुयी है। आचार्य पाणिनि इस समस्त शब्दानुशासन के प्रवर्तक स्वीकृत किये जाते हैं। उअन्के द्वारा रचित पाणिनीय व्याकरण अनुवर्ती सभी शाब्दिकों के अध्ययन का प्रमुख प्रवर्तक ग्रन्थ सिद्ध हुआ है। जिसमें वार्तिककार कात्यायन तथा महाभाष्यकार पतञ्जलि का विशेष महत्त्व है।
इन मुनित्रयों के पश्चात् आचार्य भर्तृहरि, कैयट, वामन-जयादित्य, भट्टोजिदीक्षित, नागेशभट्ट आदि से लेकर अद्यावधि पर्यन्त अनेकों विद्वानों ने स्वरचित ग्रन्थों द्वारा प्रतिष्ठा प्राप्त की है।
व्याकरण के आचार्य
- ↑ डॉ० कपिल देव द्विवेदी, वैदिक साहित्य एवं संस्कृति, सन् २०००, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी (पृ० २००)।