Difference between revisions of "लोकशिक्षा और लोक में शिक्षा"
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== ज्ञान की दो परम्परायें == | == ज्ञान की दो परम्परायें == | ||
− | विद्यालय हो न हो लोक तो होता ही है । शास्त्रों का मार्गदर्शन न हो तो भी लोकव्यवहार चलता ही है । साधन और माध्यम हों न हों कलाओं का आविष्कार होता ही है ।वैद्य और उनका शास्त्र हो न हो बीमारियों का इलाज होता ही है । न्यायालय हों न हों झगडों टंटों के निकाल होते ही हैं। यहाँ तक कि साधु, सन्त, कथाकार हों न हों धर्मसाधना और मोक्षसाधना भी होती है । आदिकाल से भारत में ज्ञान की दो परम्परायें रही हैं । एक है वेदपरम्परा और दूसरी है लोकपरम्परा । दोनों की समानरूप से मान्यता भी रही है । श्रीमद् भगवद्गीता का यह कथन<ref>श्रीमद् भगवद्गीता 15.18</ref> देखें<blockquote>यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।</blockquote><blockquote>अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।।</blockquote>अर्थात् मैं क्षरपुरुष से भी परे हूँ और अक्षरपुरुष से भी उत्तम हूँ इसलिये लोक में और वेद में पुरुषोत्तम कहा जाता हूँ । श्री भगवान के अनुसार ही यह गुद्यतम ज्ञान है । यह ज्ञान जितना और जैसा वेद में है वैसा ही लोक में भी है । जो विद्यालय में पढ़ने हेतु नहीं गया वह अनपढ़ है और जिसे शास्त्रों का पता नहीं वह अज्ञानी है ऐसा समीकरण हमारे मनमस्तिष्क में बैठ गया है परन्तु यह समीकरण ही अज्ञानजनित है ऐसा लोकव्यवहार सिद्ध करता है । उदाहरण के लिये कल्पना करें कि भारत के एक बड़े भूभाग में कोई विद्यालय नहीं है । कोई संचारमाध्यम वहाँ पहुँचे नहीं हैं । कोई साधुसन्त वहाँ बाहर से जाते नहीं हैं । कोई डॉक्टर, वकील, न्यायालय, पंचायत आदि की व्यवस्था नहीं है । व्यापार वाणिज्य आदि कुछ भी नहीं है। तो भी उस भूभाग का जीवन व्यवहार तो चलेगा ही । स्त्रीपुरुष सम्बन्ध होंगे, बच्चों के जन्म होंगे, उनका संगोपन होगा और घर भी बसेगा । | + | विद्यालय हो न हो लोक तो होता ही है । शास्त्रों का मार्गदर्शन न हो तो भी लोकव्यवहार चलता ही है । साधन और माध्यम हों न हों कलाओं का आविष्कार होता ही है ।वैद्य और उनका शास्त्र हो न हो बीमारियों का इलाज होता ही है । न्यायालय हों न हों झगडों टंटों के निकाल होते ही हैं। यहाँ तक कि साधु, सन्त, कथाकार हों न हों धर्मसाधना और मोक्षसाधना भी होती है । आदिकाल से भारत में ज्ञान की दो परम्परायें रही हैं । एक है वेदपरम्परा और दूसरी है लोकपरम्परा । दोनों की समानरूप से मान्यता भी रही है । श्रीमद् भगवद्गीता का यह कथन<ref>श्रीमद् भगवद्गीता 15.18</ref> देखें<blockquote>यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।</blockquote><blockquote>अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।।</blockquote>अर्थात् मैं क्षरपुरुष से भी परे हूँ और अक्षरपुरुष से भी उत्तम हूँ इसलिये लोक में और वेद में पुरुषोत्तम कहा जाता हूँ । श्री भगवान के अनुसार ही यह गुद्यतम ज्ञान है । यह ज्ञान जितना और जैसा वेद में है वैसा ही लोक में भी है । जो विद्यालय में पढ़ने हेतु नहीं गया वह अनपढ़ है और जिसे शास्त्रों का पता नहीं वह अज्ञानी है ऐसा समीकरण हमारे मनमस्तिष्क में बैठ गया है परन्तु यह समीकरण ही अज्ञानजनित है ऐसा लोकव्यवहार सिद्ध करता है । उदाहरण के लिये कल्पना करें कि भारत के एक बड़े भूभाग में कोई विद्यालय नहीं है । कोई संचारमाध्यम वहाँ पहुँचे नहीं हैं । कोई साधुसन्त वहाँ बाहर से जाते नहीं हैं । कोई डॉक्टर, वकील, न्यायालय, पंचायत आदि की व्यवस्था नहीं है । व्यापार वाणिज्य आदि कुछ भी नहीं है। तो भी उस भूभाग का जीवन व्यवहार तो चलेगा ही । स्त्रीपुरुष सम्बन्ध होंगे, बच्चों के जन्म होंगे, उनका संगोपन होगा और घर भी बसेगा ।लोग बीमार होंगे तो पंचमहाभूतों और वृक्ष वनस्पति से उसे औषधि प्राप्त होगी । औषधि पहचानने की और प्राप्त करने की विद्या भी अन्दर से सूझेगी । अन्न के लिये खेती होगी । वस्त्र भी बनेंगे । एकदूसरे के मनोभावो की पहचान भी होगी । उसके अनुसार व्यवहार के सूत्र भी बनेंगे । |
− | + | आनन्द की अभिव्यक्ति के लिये नृत्य और संगीत भी विकसित होंगे और लोभ, द्वेष, मत्सर आदि मनोविकारों का इलाज करने हेतु रक्षमात्मक और उपचारात्मक व्यवस्था भी होगी । सामाजिक जीवन विकसित होगा और शासन की व्यवस्था भी बनेगी । इतिहास कहता है कि सत्ययुग में राज्यव्यवस्था नहीं थी । न कोई दण्ड था न दण्ड देने वाला । प्रजा धर्म के अनुसार ही जीती थी और परस्पर की रक्षा करती थी । त्रेतायुग में बिना दण्ड के, दण्ड देनेवाले के प्रजा का सहज जीवन असम्भव हो गया तो लोगों ने अपने में से ही राजा का चयन किया और राज्य व्यवस्था बनी । राज्यव्यवस्था के बनते ही न्यायव्यवस्था, दण्डविधान, करव्यवस्था आदि भी बनने लगीं । तात्पर्य यह है कि लोग अपनी आवश्यकता के अनुसार, अपनी परिस्थिति के अनुसार अपने में से ही व्यवस्थाओं का निर्माण कर लेते हैं । यह है लोक परम्परा । यह है लोकज्ञान । इस लोकज्ञान का विश्व भी बहुत व्यापक है समावेशक है । इससे ही शास्त्रों की भी रचना होती है । | |
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== वेद परम्परा == | == वेद परम्परा == | ||
− | हम जिसे वेद परम्परा कहते हैं वह कहाँ से उद्भूत | + | हम जिसे वेद परम्परा कहते हैं वह कहाँ से उद्भूत हुई है ? आर्षदृष्टा ऋषियों ने समाधिअवस्था में अपने हृदय में ज्ञान का प्रकाश देखा, इस प्रकाश में उन्होंने सृष्टि को देखा, सृष्टि के व्यवहारों को देखा । यह धर्म था । उसे वाणी प्रदान की । वह सत्य के रूप में आविष्कृत हुआ । उससे शास्त्र बने और शास्त्रों ने हमारे व्यवहार को निर्देशित और नियमित किया । हमारे समस्त व्यवहार के लिये शास्त्र प्रमाण बने । |
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− | देनेवाले विभिन्न पदार्थ मूलतः एक ही हैं । उन्हें मन्त्रों का | + | एक व्यक्ति ऋषि कैसे बनता है ? ऋषि आर्षदृष्टा कैसे बनता है ? आर्षदर्शन प्रमाण कैसे माना जाता है ? सीधे सादे उत्तर यह हैं कि व्यक्ति सज्जन बनता है, तप करता है और ऋषि बनता है। सज्जन अर्थात् अच्छा मनुष्य । अच्छाई क्या है ? दूसरों के साथ के व्यवहार में जो विनम्र है, क्जु है, सहायक है, भला चाहने वाला है वह सज्जन है । तप क्या है ? किसी उपलब्धि के लिये शारीरिक और मानसिक कष्ट सहना ही तप है । मन को भटकने नहीं देना, कुवासनाओं से ग्रस्त नहीं होने देना, क्रोध-लोभ-मोह आदि को जीत लेना तप है । तपश्चर्या के परिणाम स्वरूप उन्हें क्या दिखता है ? अपना स्वरूप दिखता है। हम मूल में आत्मतत्त्व हैं यह दिखता है । तपश्चर्या के परिणाम स्वरूप उन्हें विश्वदर्शन होता है । विश्व के व्यवहारों का दर्शन होता है । व्यवहारों के रहस्यों का दर्शन होता है। उन्हें दिखता है कि संसार में दिखाई देनेवाले विभिन्न पदार्थ मूलतः एक ही हैं । उन्हें मन्त्रों का दर्शन होता है अर्थात् ऋत सत्य के रूप में व्याप्त है उसका ज्ञान होता है । उसे वे लौकिक रूप में व्यक्त करते हैं। वेदी वेद हैं । जिससे सर्वशास्त्र बनते हैं । |
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− | दर्शन होता है अर्थात् ऋत सत्य के रूप में व्याप्त है उसका | ||
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== लोकपरम्परा == | == लोकपरम्परा == | ||
− | जो व्यक्ति वन में रहता है, वहाँ के वृक्ष वनस्पति, | + | जो व्यक्ति वन में रहता है, वहाँ के वृक्ष वनस्पति, नदी, भूमि, प्राणी आदि के साथ जीता है उनके साथ उसका सम्बन्ध बनता है । आवश्यकताओं में से शुरू हुआ सम्बन्ध भावना तक पहुँचता है । भावना गहरी होते होते सम्बन्ध आन्तरिक बनता है । धीरे धीरे तादात्म्य स्थापित होता है और पदार्थों और प्राणियों के स्वभावों और व्यवहारों का ज्ञान होता है । यह ज्ञान तादात्मय से प्रकट होता है । यह अनुभूतज्ञान है । यह लोकज्ञान है । यहाँ दो बातें ध्यान देने योग्य हैं। ऋषि की ज्ञानप्रक्रिया का प्रारम्भ अच्छाई से होता है और अच्छाई का सन्दर्भ लोक ही हैं । सत्य का सन्दर्भ लोकहित है । ज्ञान की परिणति लोकहित है। इधर वनवासियों को, तथाकथित अनपढ़ लोगों को सृष्टि का जो ज्ञान प्राप्त होता है उसका सन्दर्भ भी अच्छाई और लोकहित ही है । |
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− | नदी, भूमि, प्राणी आदि के साथ जीता है उनके साथ उसका | ||
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− | सम्बन्ध बनता है । आवश्यकताओं में से शुरू हुआ सम्बन्ध | ||
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− | ज्ञान होता है । यह ज्ञान तादात्मय से प्रकट होता है । यह | ||
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− | ज्ञानप्रक्रिया का प्रारम्भ अच्छाई से होता है और अच्छाई | ||
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− | तथाकथित अनपढ़ लोगों को सृष्टि का जो ज्ञान प्राप्त होता | ||
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− | है उसका सन्दर्भ भी अच्छाई और लोकहित ही है । | ||
== दोनों परम्पराओं का मूल स्रोत एक == | == दोनों परम्पराओं का मूल स्रोत एक == | ||
− | अतः वेदज्ञान और लोकज्ञान का मूल स्रोत एक ही है | + | अतः वेदज्ञान और लोकज्ञान का मूल स्रोत एक ही है यह कहने में कोई अनौचित्य नहीं है । दोनों का मार्गक्रमण भिन्न है, प्रस्तुति भिन्न है। लोकज्ञान परिष्कृत होते होते शास्त्र बनता है । वेदज्ञान बुद्धि के स्तर पर उतरकर शास्त्र बनता है । दोनों की परिणति लोकहित ही है । जिस प्रकार वेदज्ञान का विस्तार बहुत बडा है उसी प्रकार से लोकज्ञान का भी है । लोकगीत, लोकसंगीत, लोकनृत्य, लोककला, लोक कौशल, लोक पूजापरम्परा, लोक खानपान आदि हैं तो लोक आयुर्वेद, लोक वनस्पतिविज्ञान, लोक मूर्तिविधान, लोककारीगरी, लोकइन्जिनीयरींग आदि आयामों से युक्त भी है । शास्त्र और लोक का स्रोत तो एक ही है यह हमने अभी देखा, केवल अभिव्यक्ति और उसकी प्रक्रिया भिन्न है । |
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− | + | शास्त्र ज्ञान से भी लोकज्ञान अधिक व्यापक है । समाज में केवल पाँच से दस प्रतिशत लोक शास्त्रज्ञान और शास्त्र के अनुसार व्यवहार करने वाले होते हैं । शेष तो लोकज्ञान का ही अनुसरण करते हैं । उनके लिये प्रमाण भी लोकमत ही है । यह उक्ति प्रसिद्ध है - | |
− | + | यद्यपि सत्यम लोक विरुद्धम् नाचरणीयम् | |
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− | बात कितनी भी सत्य हो तो भी लोक का समर्थन | + | बात कितनी भी सत्य हो तो भी लोक का समर्थन नहीं है तो नहीं करनी चाहिये । वैसा आचरण करना चाहिये । दूसरा भी कथन है, 'शास्त्रात् रूढिः बलीयसी' अर्थात् शास्त्र से भी रुढि अधिक प्रभावी है । ये दोनों कथन दर्शाते हैं कि लोक समर्थन कितना आवश्यक है । |
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− | नहीं है तो नहीं करनी चाहिये । वैसा आचरण करना | ||
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− | हैं कि लोक समर्थन कितना आवश्यक है । | ||
== बेदज्ञान और लोकज्ञान के संकट == | == बेदज्ञान और लोकज्ञान के संकट == | ||
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लोक में शिक्षा की बात अब करेंगे । | लोक में शिक्षा की बात अब करेंगे । | ||
+ | <references /> |
Revision as of 17:09, 20 January 2021
ज्ञान की दो परम्परायें
विद्यालय हो न हो लोक तो होता ही है । शास्त्रों का मार्गदर्शन न हो तो भी लोकव्यवहार चलता ही है । साधन और माध्यम हों न हों कलाओं का आविष्कार होता ही है ।वैद्य और उनका शास्त्र हो न हो बीमारियों का इलाज होता ही है । न्यायालय हों न हों झगडों टंटों के निकाल होते ही हैं। यहाँ तक कि साधु, सन्त, कथाकार हों न हों धर्मसाधना और मोक्षसाधना भी होती है । आदिकाल से भारत में ज्ञान की दो परम्परायें रही हैं । एक है वेदपरम्परा और दूसरी है लोकपरम्परा । दोनों की समानरूप से मान्यता भी रही है । श्रीमद् भगवद्गीता का यह कथन[1] देखें
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।।
अर्थात् मैं क्षरपुरुष से भी परे हूँ और अक्षरपुरुष से भी उत्तम हूँ इसलिये लोक में और वेद में पुरुषोत्तम कहा जाता हूँ । श्री भगवान के अनुसार ही यह गुद्यतम ज्ञान है । यह ज्ञान जितना और जैसा वेद में है वैसा ही लोक में भी है । जो विद्यालय में पढ़ने हेतु नहीं गया वह अनपढ़ है और जिसे शास्त्रों का पता नहीं वह अज्ञानी है ऐसा समीकरण हमारे मनमस्तिष्क में बैठ गया है परन्तु यह समीकरण ही अज्ञानजनित है ऐसा लोकव्यवहार सिद्ध करता है । उदाहरण के लिये कल्पना करें कि भारत के एक बड़े भूभाग में कोई विद्यालय नहीं है । कोई संचारमाध्यम वहाँ पहुँचे नहीं हैं । कोई साधुसन्त वहाँ बाहर से जाते नहीं हैं । कोई डॉक्टर, वकील, न्यायालय, पंचायत आदि की व्यवस्था नहीं है । व्यापार वाणिज्य आदि कुछ भी नहीं है। तो भी उस भूभाग का जीवन व्यवहार तो चलेगा ही । स्त्रीपुरुष सम्बन्ध होंगे, बच्चों के जन्म होंगे, उनका संगोपन होगा और घर भी बसेगा ।लोग बीमार होंगे तो पंचमहाभूतों और वृक्ष वनस्पति से उसे औषधि प्राप्त होगी । औषधि पहचानने की और प्राप्त करने की विद्या भी अन्दर से सूझेगी । अन्न के लिये खेती होगी । वस्त्र भी बनेंगे । एकदूसरे के मनोभावो की पहचान भी होगी । उसके अनुसार व्यवहार के सूत्र भी बनेंगे ।
आनन्द की अभिव्यक्ति के लिये नृत्य और संगीत भी विकसित होंगे और लोभ, द्वेष, मत्सर आदि मनोविकारों का इलाज करने हेतु रक्षमात्मक और उपचारात्मक व्यवस्था भी होगी । सामाजिक जीवन विकसित होगा और शासन की व्यवस्था भी बनेगी । इतिहास कहता है कि सत्ययुग में राज्यव्यवस्था नहीं थी । न कोई दण्ड था न दण्ड देने वाला । प्रजा धर्म के अनुसार ही जीती थी और परस्पर की रक्षा करती थी । त्रेतायुग में बिना दण्ड के, दण्ड देनेवाले के प्रजा का सहज जीवन असम्भव हो गया तो लोगों ने अपने में से ही राजा का चयन किया और राज्य व्यवस्था बनी । राज्यव्यवस्था के बनते ही न्यायव्यवस्था, दण्डविधान, करव्यवस्था आदि भी बनने लगीं । तात्पर्य यह है कि लोग अपनी आवश्यकता के अनुसार, अपनी परिस्थिति के अनुसार अपने में से ही व्यवस्थाओं का निर्माण कर लेते हैं । यह है लोक परम्परा । यह है लोकज्ञान । इस लोकज्ञान का विश्व भी बहुत व्यापक है समावेशक है । इससे ही शास्त्रों की भी रचना होती है ।
वेद परम्परा
हम जिसे वेद परम्परा कहते हैं वह कहाँ से उद्भूत हुई है ? आर्षदृष्टा ऋषियों ने समाधिअवस्था में अपने हृदय में ज्ञान का प्रकाश देखा, इस प्रकाश में उन्होंने सृष्टि को देखा, सृष्टि के व्यवहारों को देखा । यह धर्म था । उसे वाणी प्रदान की । वह सत्य के रूप में आविष्कृत हुआ । उससे शास्त्र बने और शास्त्रों ने हमारे व्यवहार को निर्देशित और नियमित किया । हमारे समस्त व्यवहार के लिये शास्त्र प्रमाण बने ।
एक व्यक्ति ऋषि कैसे बनता है ? ऋषि आर्षदृष्टा कैसे बनता है ? आर्षदर्शन प्रमाण कैसे माना जाता है ? सीधे सादे उत्तर यह हैं कि व्यक्ति सज्जन बनता है, तप करता है और ऋषि बनता है। सज्जन अर्थात् अच्छा मनुष्य । अच्छाई क्या है ? दूसरों के साथ के व्यवहार में जो विनम्र है, क्जु है, सहायक है, भला चाहने वाला है वह सज्जन है । तप क्या है ? किसी उपलब्धि के लिये शारीरिक और मानसिक कष्ट सहना ही तप है । मन को भटकने नहीं देना, कुवासनाओं से ग्रस्त नहीं होने देना, क्रोध-लोभ-मोह आदि को जीत लेना तप है । तपश्चर्या के परिणाम स्वरूप उन्हें क्या दिखता है ? अपना स्वरूप दिखता है। हम मूल में आत्मतत्त्व हैं यह दिखता है । तपश्चर्या के परिणाम स्वरूप उन्हें विश्वदर्शन होता है । विश्व के व्यवहारों का दर्शन होता है । व्यवहारों के रहस्यों का दर्शन होता है। उन्हें दिखता है कि संसार में दिखाई देनेवाले विभिन्न पदार्थ मूलतः एक ही हैं । उन्हें मन्त्रों का दर्शन होता है अर्थात् ऋत सत्य के रूप में व्याप्त है उसका ज्ञान होता है । उसे वे लौकिक रूप में व्यक्त करते हैं। वेदी वेद हैं । जिससे सर्वशास्त्र बनते हैं ।
लोकपरम्परा
जो व्यक्ति वन में रहता है, वहाँ के वृक्ष वनस्पति, नदी, भूमि, प्राणी आदि के साथ जीता है उनके साथ उसका सम्बन्ध बनता है । आवश्यकताओं में से शुरू हुआ सम्बन्ध भावना तक पहुँचता है । भावना गहरी होते होते सम्बन्ध आन्तरिक बनता है । धीरे धीरे तादात्म्य स्थापित होता है और पदार्थों और प्राणियों के स्वभावों और व्यवहारों का ज्ञान होता है । यह ज्ञान तादात्मय से प्रकट होता है । यह अनुभूतज्ञान है । यह लोकज्ञान है । यहाँ दो बातें ध्यान देने योग्य हैं। ऋषि की ज्ञानप्रक्रिया का प्रारम्भ अच्छाई से होता है और अच्छाई का सन्दर्भ लोक ही हैं । सत्य का सन्दर्भ लोकहित है । ज्ञान की परिणति लोकहित है। इधर वनवासियों को, तथाकथित अनपढ़ लोगों को सृष्टि का जो ज्ञान प्राप्त होता है उसका सन्दर्भ भी अच्छाई और लोकहित ही है ।
दोनों परम्पराओं का मूल स्रोत एक
अतः वेदज्ञान और लोकज्ञान का मूल स्रोत एक ही है यह कहने में कोई अनौचित्य नहीं है । दोनों का मार्गक्रमण भिन्न है, प्रस्तुति भिन्न है। लोकज्ञान परिष्कृत होते होते शास्त्र बनता है । वेदज्ञान बुद्धि के स्तर पर उतरकर शास्त्र बनता है । दोनों की परिणति लोकहित ही है । जिस प्रकार वेदज्ञान का विस्तार बहुत बडा है उसी प्रकार से लोकज्ञान का भी है । लोकगीत, लोकसंगीत, लोकनृत्य, लोककला, लोक कौशल, लोक पूजापरम्परा, लोक खानपान आदि हैं तो लोक आयुर्वेद, लोक वनस्पतिविज्ञान, लोक मूर्तिविधान, लोककारीगरी, लोकइन्जिनीयरींग आदि आयामों से युक्त भी है । शास्त्र और लोक का स्रोत तो एक ही है यह हमने अभी देखा, केवल अभिव्यक्ति और उसकी प्रक्रिया भिन्न है ।
शास्त्र ज्ञान से भी लोकज्ञान अधिक व्यापक है । समाज में केवल पाँच से दस प्रतिशत लोक शास्त्रज्ञान और शास्त्र के अनुसार व्यवहार करने वाले होते हैं । शेष तो लोकज्ञान का ही अनुसरण करते हैं । उनके लिये प्रमाण भी लोकमत ही है । यह उक्ति प्रसिद्ध है -
यद्यपि सत्यम लोक विरुद्धम् नाचरणीयम्
अर्थात्
बात कितनी भी सत्य हो तो भी लोक का समर्थन नहीं है तो नहीं करनी चाहिये । वैसा आचरण करना चाहिये । दूसरा भी कथन है, 'शास्त्रात् रूढिः बलीयसी' अर्थात् शास्त्र से भी रुढि अधिक प्रभावी है । ये दोनों कथन दर्शाते हैं कि लोक समर्थन कितना आवश्यक है ।
बेदज्ञान और लोकज्ञान के संकट
वेदज्ञान और लोकज्ञान के सामने संकट कौन से हैं ?
R38
वेदज्ञान का प्रारम्भ शास्त्रों से होता है ।
शास्त्र दो प्रकार के होते हैं । एक होते हैं सिद्धान्तशास्त्र और
दूसरे होते हैं व्यवहारशास्त्र । व्यवहारशाख््र सिद्धान्तशास्त्र का
अनुसरण करते हैं । सिद्धान्त देशकाल निरपेक्ष होते हैं,
व्यवहार देशकाल सापेक्ष । देशकाल सापेक्षता को आज की
भाषा में युगानुकूलता कहा जाता है । व्यवहारशास्त्र को
भारतीय परम्परा में स्मृति कहा गया है। स्मृति
देशकालसापेक्ष होने के कारण ही परिवर्तनशील होती है ।
यदि परिवर्तन नहीं हुआ तो वह निरर्थक और अनर्थक बन
जाती है । हर युग को अपनी स्मृति नये से बनानी होती है ।
अर्थात् स्मृति के सामने स्थगित हो जाने का, देशकालानुरूप
नहीं होने का संकट होता है। लोकज्ञान अनुभूति और
प्रयोग a wey होता है। वह भी नित्यनूतन,
नित्यपरिवर्तनशील होना चाहिये । वह यदि परिवर्तनशील
नहीं रहा तो अन्धविश्वास और बिना समझी हुई, बिना
प्रयोजन की रूढ़ि बन जाती है । अर्तात् लोकज्ञान के लिये
रूढ़िवादिता का संकट है । वेदज्ञान और लोकज्ञान दोनों के
लिये नित्यजाग्रत, नित्य चिन्तनशील, नित्य अध्ययनशील,
नित्य व्यवहारदक्ष, नित्य लोकज्ञ विद्वानों की आवश्यकता
होती है । तभी दोनों परम्परायें कल्याणकारी सिद्ध होती है ।
दोनों में समन्वय आवश्यक
ज्ञान के क्षेत्र में दोनों परम्पराओं को एकदूसरे को
समझने की, दोनों का स्वीकार करने की और दोनों में
समन्वय करने की आवश्यकता है । दोनों एकदूसरे को
परखने और परिष्कृत करने में उपयोगी सिद्ध होती हैं । seat
और लोकज्ञ को एकदूसरे का सम्मान करना चाहिये । आज
स्थिति विपरीत है। लोकज्ञान को ज्ञान ही नहीं माना
जाता । उसे जादू टोना, जन्तर-मन्तर, झाड़फूँक, डोरा-
धागा आदि नाम देकर हेय करार दिया जाता है । उसे
आअशास्त्रीय बताकर अनधिकृत माना जाता है और कई
किस्सों में तो दण्डनीय अपराध माना जाता है । भारत में
इसे दुहरी मार पड़ रही है । एक तो यह परम्परा खण्डित हो
रही है । दूसरी ओर यूरोअमेरिकी विचारधारा के प्रभाव में
आकार इसका विरोध किया जाता है । नृत्य, गीत, कला
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आदि को दैनन्दिन जीवन से हटाकर
प्रदर्शन के विषय बनाये जाते हैं । भारत के शास्त्रीय ज्ञान
की परम्परा भी खण्डित हो गई है । युगानुकूल बनाने की
एक स्वाभाविक चुनौती तो है ही, साथ ही परम्परा बचाये
रखने की आपतित चुनौती भी है । पश्चिमी ज्ञान दोनों को
अलग अलग तरीकों से ग्रस रहा है । उस स्थिति में प्रथम
तो इन्हें संकटमुक्त करने की आवश्यकता है । भारतीय
शास्त्रीय ज्ञान और भारतीय लोकज्ञान की परम्परा को प्रथम
परिष्कृत करने के उपाय करने चाहिये । बाद में दोनों में
समन्वय करना चाहिये । शास्त्र को लोकाभिमुख और लोक
को शाख््राभिमुख बनाना चाहिये ।
सर्वसामान्य व्यवहार में लोक का अर्थ होता है
जनसामान्य । जनसामान्य संख्या में बहुत बड़ा है । उसकी
अपनी समझ होती है, आकलन करने की पद्धति होती है ।
वह भला होता है, श्रद्धावान होता है । उसका अन्तःकरण
श्रद्धावान होता है । कुछ तो भारत की मिट्टी और जलवायु
के प्रभाव से, कुछ हजारों वर्षों की परम्परा के संस्कार से,
कुछ अपने पूर्वजों के संस्कार, मातापिता की सीख और
उनके व्यवहार के अनुकरण से और कुछ साधुसन्तों के
उपदेश से उसका मानस और व्यवहार बनता है। इस
जनसामान्य का जो लोक है उसके द्वारा भी शिक्षा दी जाती
है और उसे भी शिक्षा की आवश्यकता होती है । लोक में
शिक्षा और लोक की शिक्षा ऐसे इसके दो आयाम हैं ।
लोक शिक्षा को लोकप्रबोधन, समाजप्रबोधन, लोकजागरण,
लोक मतपरिष्कार आदि विभिन्न नामों से समझा जाता है ।
आज भी उसके प्रयोग हो ही रहे हैं ।
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
लोक में शिक्षा यह एक महत्त्वपूर्ण विषय है
सामान्यरूप से व्यक्ति की शिक्षा विद्यालय में ही होती
है ऐसा समझा जाता है । युवावस्था तक विभिन्न माध्यमों से
विभिन्न विषयों की शिक्षा प्राप्त कर विश्वविद्यालय से
प्रमाणपत्र प्राप्त किया तो पढ़ाई समाप्त हुई ऐसा माना जाता
है। परन्तु यह पर्याप्त नहीं है । विवाह होने तक aera 4
भी अनेक विषयों की शिक्षा प्राप्त करने की आवश्यकता
होती है और यह शिक्षा कैसे देनी चाहिये इसकी चर्चा
हमने पूर्व के अध्यायों में की है । यहाँ भी विवाह सम्पन्न
होकर गृहस्थाश्रम शुरू हुआ तो पढ़ाई पूरी हुई ऐसा माना
जाता है ।
परन्तु वास्तव में अधिक महत्त्वपूर्ण पढ़ाई अब शुरू
होती है । वह है समाज में शिक्षा अथवा लोक में शिक्षा ।
अब तक की शिक्षा और अबकी शिक्षा में अन्तर यह है कि
अबतक केवल पढ़ना था, अब पढ़ना और पढ़ाना दोनों
शुरू हुआ । पंचपदी अध्ययन पद्धति की भाषा में कहें तो
अबतक अधीति से लेकर प्रयोग तक के पद तो थे अब
प्रसार का पद जुड़ गया । अर्थात् अब पाँचों पदों से शिक्षा
होगी जिसमें प्रयोग और प्रसार के पद विशेष रूप से
महत्त्वपूर्ण होंगे । अतः कुट्म्ब में शिक्षा यह विषय तो आगे
भी चलेगा । साथ ही शिक्षा का दायरा अब विस्तृत होता
है । कुट्म्ब समाज में व्यवहार करता है । यह समाज भी
उसे पग पग पर सिखाता ही है । सीखने को मानसिकता
रही तो व्यक्ति निरन्तर सीखता रहता है । लोकशिक्षा और
लोक में शिक्षा की बात अब करेंगे ।
- ↑ श्रीमद् भगवद्गीता 15.18