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===== विद्यालय के प्रति कृतज्ञता का भाव जगाना =====
 
===== विद्यालय के प्रति कृतज्ञता का भाव जगाना =====
विद्यालय ने ही इसका विचार करना चाहिए । विद्यार्थियों के साथ का व्यवहार ऐसा ही होना चाहिए कि इनके विद्यालय के साथ आत्मीय सम्बन्ध बने । जिस प्रकार घर के साथ घर के सदस्यों का सम्बन्ध हमेशा के लिए होता है, कहीं पर भी जाएँ तो भी मिटता नहीं है उसी प्रकार विद्यालय के साथ का सम्बन्ध भी मिटना नहीं चाहिए । जिस प्रकार मातापिता और संतानों का सम्बन्ध आजीवन रहता है उसी प्रकार शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध भी आजीवन रहेगा। कोई कह सकता है कि एक शिक्षक के पास वर्षों तक असंख्य विद्यार्थी पढ़ते हैं। कभी विद्यालय बदल बदल कर अनेक विद्यालयों में पढ़ाया या अनेक नगरों में पढ़ाया या विद्यार्थी ही अनेक नगरों में बसे तो यह सम्बन्ध कैसे रहेगा ? हम आज की स्थिति में ही विचार कर रहे हैं अतः ऐसी बातें मन में आती हैं। यदि हम यह निश्चित करें कि विद्यालय और विद्यार्थियों का सम्बन्ध आजीवन रहना स्वाभाविक बनाना चाहिए तो हम उसके अनुकूल व्यवस्था बनाएँगे।
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विद्यालय ने ही इसका विचार करना चाहिए । विद्यार्थियों के साथ का व्यवहार ऐसा ही होना चाहिए कि इनके विद्यालय के साथ आत्मीय सम्बन्ध बने । जिस प्रकार घर के साथ घर के सदस्यों का सम्बन्ध सदा के लिए होता है, कहीं पर भी जाएँ तो भी मिटता नहीं है उसी प्रकार विद्यालय के साथ का सम्बन्ध भी मिटना नहीं चाहिए । जिस प्रकार मातापिता और संतानों का सम्बन्ध आजीवन रहता है उसी प्रकार शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध भी आजीवन रहेगा। कोई कह सकता है कि एक शिक्षक के पास वर्षों तक असंख्य विद्यार्थी पढ़ते हैं। कभी विद्यालय बदल बदल कर अनेक विद्यालयों में पढ़ाया या अनेक नगरों में पढ़ाया या विद्यार्थी ही अनेक नगरों में बसे तो यह सम्बन्ध कैसे रहेगा ? हम आज की स्थिति में ही विचार कर रहे हैं अतः ऐसी बातें मन में आती हैं। यदि हम यह निश्चित करें कि विद्यालय और विद्यार्थियों का सम्बन्ध आजीवन रहना स्वाभाविक बनाना चाहिए तो हम उसके अनुकूल व्यवस्था बनाएँगे।
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ये सारी भावात्मक बातें हैं । विद्यालय के प्रति स्नेह होना, शिक्षकों का स्मरण करना, विद्यालय के कार्यक्रमों में सहभागी होना आदि सबकी अपनी अपनी रुचि और स्थिति के अनुसार होता रहता है। परन्तु एक बार का विद्यार्थी हमेशा का विद्यार्थी इस रूप में विद्यालय के साथ सम्बन्ध बनना अपेक्षित है।  
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ये सारी भावात्मक बातें हैं । विद्यालय के प्रति स्नेह होना, शिक्षकों का स्मरण करना, विद्यालय के कार्यक्रमों में सहभागी होना आदि सबकी अपनी अपनी रुचि और स्थिति के अनुसार होता रहता है। परन्तु एक बार का विद्यार्थी सदा का विद्यार्थी इस रूप में विद्यालय के साथ सम्बन्ध बनना अपेक्षित है।  
    
===== विद्यालय चलाने की जिम्मेदारी साँझी =====
 
===== विद्यालय चलाने की जिम्मेदारी साँझी =====
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महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों और शोधसंस्थानों में स्वतन्त्र छात्रालयों में रहनेवाले विद्यार्थी अनेक प्रकार के सांस्कृतिक संकटों से घिर जाते हैं, अनेक सांस्कृतिक संकट निर्माण भी करते हैं जिन्हें वे मुक्तता और सुख मानते हैं। धूम्रपान करने वाली लडकियाँ, युवक युवतियों की मित्रता और पराकाष्ठा की उनकी निकटता, शराब जैसे व्यसन इस प्रकार के छात्रावासों में सहज होता है। इनमें गम्भीर अध्ययन करने वाले विद्यार्थी भी होते ही हैं परन्तु इन दूषणों से बचना अत्यन्त कठिन हो जाता है । इन युवाओं के लिये सारे उत्सव सांस्कृतिक नहीं अपितु मनोरंजन के साधन ही होते हैं ।
 
महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों और शोधसंस्थानों में स्वतन्त्र छात्रालयों में रहनेवाले विद्यार्थी अनेक प्रकार के सांस्कृतिक संकटों से घिर जाते हैं, अनेक सांस्कृतिक संकट निर्माण भी करते हैं जिन्हें वे मुक्तता और सुख मानते हैं। धूम्रपान करने वाली लडकियाँ, युवक युवतियों की मित्रता और पराकाष्ठा की उनकी निकटता, शराब जैसे व्यसन इस प्रकार के छात्रावासों में सहज होता है। इनमें गम्भीर अध्ययन करने वाले विद्यार्थी भी होते ही हैं परन्तु इन दूषणों से बचना अत्यन्त कठिन हो जाता है । इन युवाओं के लिये सारे उत्सव सांस्कृतिक नहीं अपितु मनोरंजन के साधन ही होते हैं ।
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आवासीय विद्यालय यदि गुरुकुलों के समान और विशेष सांस्कृतिक उद्देश्य और पद्धति से नहीं चलाये गये तो दो पीढियों में अन्तर निर्माण करने के निमित्त बन जाते हैं । वैसे भी वर्तमान वातावरण में मातापिता और सन्तानों में दूरत्व निर्माण करने वाले अनेक साधन उत्पन्न हो ही गये हैं उनमें यह एक बडा निमित्त जुड़ जाता है। दो पीढियों में समरस सम्बन्ध निर्माण नहीं होने से सांस्कृतिक परम्परा खण्डित होती है । परम्परा खण्डित होना किसी भी समाज के लिये घाटे का ही सौदा होता है । इसलिये समाज हितचिन्तक हमेशा परम्परा को बनाये रखने हेतु हर सम्भव प्रयास करने का ही परामर्श देते हैं।
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आवासीय विद्यालय यदि गुरुकुलों के समान और विशेष सांस्कृतिक उद्देश्य और पद्धति से नहीं चलाये गये तो दो पीढियों में अन्तर निर्माण करने के निमित्त बन जाते हैं । वैसे भी वर्तमान वातावरण में मातापिता और सन्तानों में दूरत्व निर्माण करने वाले अनेक साधन उत्पन्न हो ही गये हैं उनमें यह एक बडा निमित्त जुड़ जाता है। दो पीढियों में समरस सम्बन्ध निर्माण नहीं होने से सांस्कृतिक परम्परा खण्डित होती है । परम्परा खण्डित होना किसी भी समाज के लिये घाटे का ही सौदा होता है । इसलिये समाज हितचिन्तक सदा परम्परा को बनाये रखने हेतु हर सम्भव प्रयास करने का ही परामर्श देते हैं।
    
आज समाज में धनवान लोगों की यह मानसिकता भी बढने लगी है कि अच्छी पढाई हेतु अपनी सन्तानों को बड़े नगरों में या विदेशों में भेजना अच्छा है। ऐसा नहीं है कि ऐसी पढाई हेतु अपने ही स्थान पर कोई महाविद्यालय नहीं है। परन्तु महानगरों, दूर स्थित महानगरों और विदेशों का दोनों पीढियों को आकर्षण है । बड़ों को उसमें प्रतिष्ठा का अनुभव होता है और युवाओं को प्रतिष्ठा के साथ साथ मुक्ति का भी अनुभव होता है । अपनी सन्तानों के भले के लिये ही यह सब कर रहे हैं ऐसा बड़ों का भाव होता है । अनेक बार तो सामान्य आर्थिक स्थिति के मातापिता ऋण लेकर भी अपनी सांतानों के इस प्रकार के अध्ययन की व्यवस्था करते है परन्तु यह शैक्षिक दॄष्टि से भी उचित होता है ऐसा अनुभव तो नहीं आता। सामाजिक सांस्कृतिक दॄष्टि से यह हानिकारक है।  
 
आज समाज में धनवान लोगों की यह मानसिकता भी बढने लगी है कि अच्छी पढाई हेतु अपनी सन्तानों को बड़े नगरों में या विदेशों में भेजना अच्छा है। ऐसा नहीं है कि ऐसी पढाई हेतु अपने ही स्थान पर कोई महाविद्यालय नहीं है। परन्तु महानगरों, दूर स्थित महानगरों और विदेशों का दोनों पीढियों को आकर्षण है । बड़ों को उसमें प्रतिष्ठा का अनुभव होता है और युवाओं को प्रतिष्ठा के साथ साथ मुक्ति का भी अनुभव होता है । अपनी सन्तानों के भले के लिये ही यह सब कर रहे हैं ऐसा बड़ों का भाव होता है । अनेक बार तो सामान्य आर्थिक स्थिति के मातापिता ऋण लेकर भी अपनी सांतानों के इस प्रकार के अध्ययन की व्यवस्था करते है परन्तु यह शैक्षिक दॄष्टि से भी उचित होता है ऐसा अनुभव तो नहीं आता। सामाजिक सांस्कृतिक दॄष्टि से यह हानिकारक है।  
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इनमें बच्चों के प्रवेश हों, उन्हें प्रोत्साहन मिले इस हेतु से प्रवेशोत्सव मनाये जाते हैं । विद्यार्थी मध्य में ही विद्यालय छोड़कर न जाय इसका भी ध्यान रखा जाता है । गरीबों को अपने बच्चों को पढ़ाने की सुविधा हो इस दृष्टि से मद्यत्ह्य भोजन योजना चलाई जाती है । बच्चों को पुस्तकें, गणवेश, बस्ता आदि भी दिया जाता है । सरकार अनेक प्रयास करती है। सर्व शिक्षा अभियान चलता है। तो भी सरकारी विद्यालयों की हालत अत्यन्त दयनीय और चिन्ताजनक है । आँकडे भी दयनीय स्थिति दर्शाते हैं जबकि वास्तविक स्थिति आँकडों से अधिक दयनीय होती है यह सब जानते हैं ।
 
इनमें बच्चों के प्रवेश हों, उन्हें प्रोत्साहन मिले इस हेतु से प्रवेशोत्सव मनाये जाते हैं । विद्यार्थी मध्य में ही विद्यालय छोड़कर न जाय इसका भी ध्यान रखा जाता है । गरीबों को अपने बच्चों को पढ़ाने की सुविधा हो इस दृष्टि से मद्यत्ह्य भोजन योजना चलाई जाती है । बच्चों को पुस्तकें, गणवेश, बस्ता आदि भी दिया जाता है । सरकार अनेक प्रयास करती है। सर्व शिक्षा अभियान चलता है। तो भी सरकारी विद्यालयों की हालत अत्यन्त दयनीय और चिन्ताजनक है । आँकडे भी दयनीय स्थिति दर्शाते हैं जबकि वास्तविक स्थिति आँकडों से अधिक दयनीय होती है यह सब जानते हैं ।
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सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की कोई प्रतिष्ठा नहीं है । प्रजा को इन विद्यालयों पर कोई भरोसा नहीं है । अब ऐसा कहा जाता है कि सरकारी विद्यालयों में अच्छे लोगों के बच्चे पढ़ते ही नहीं हैं, झुग्गी झोंपडियों में रहनेवाले, नशा करने वाले, असंस्कारी मातापिता के बच्चे पढते हैं जिनकी संगत में हमारे बच्चें बिगड जायेंगे । परन्तु यह तो परिणाम है । “अच्छे' घर के लोगों ने अपने बच्चों को भेजना बन्द किया इसलिये अब 'पिछडे' बच्चे रह गये हैं । दो पीढ़ियों पूर्व आज के विद्वान लोग भी सरकारी विद्यालयों में पढ़े हुए ही हैं । धीरे धीरे पढ़ाना बन्द हुआ इसलिये लोगों ने अपने बच्चों को भेजना बन्द किया । झुग्गी झॉंपडियों में नहीं रहनेवाले सुसंस्कृत और झुग्गी झेंपडियों में रहनेवाले पिछडे यह वर्गीकरण तो बडी भ्रान्ति है परन्तु इस भ्रान्ति को दूर करने की चिन्ता कोई नहीं करता, उल्टे उसका ही लोग फायदा उठाने का प्रयास करते हैं । सरकारी विद्यालयों के शिक्षक हमेशा शिकायत करते हैं कि हमारे यहाँ बच्चे पढने के लिये आते ही नहीं हैं, केवल खाने के लिये ही आते हैं, अच्छे घर के आते ही नहीं है तो हम किसे पढायें । यह भी सत्य नहीं है परन्तु इस सम्बन्ध में कोई प्रयास नहीं किया जाता ।
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सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की कोई प्रतिष्ठा नहीं है । प्रजा को इन विद्यालयों पर कोई भरोसा नहीं है । अब ऐसा कहा जाता है कि सरकारी विद्यालयों में अच्छे लोगों के बच्चे पढ़ते ही नहीं हैं, झुग्गी झोंपडियों में रहनेवाले, नशा करने वाले, असंस्कारी मातापिता के बच्चे पढते हैं जिनकी संगत में हमारे बच्चें बिगड जायेंगे । परन्तु यह तो परिणाम है । “अच्छे' घर के लोगों ने अपने बच्चों को भेजना बन्द किया इसलिये अब 'पिछडे' बच्चे रह गये हैं । दो पीढ़ियों पूर्व आज के विद्वान लोग भी सरकारी विद्यालयों में पढ़े हुए ही हैं । धीरे धीरे पढ़ाना बन्द हुआ इसलिये लोगों ने अपने बच्चों को भेजना बन्द किया । झुग्गी झॉंपडियों में नहीं रहनेवाले सुसंस्कृत और झुग्गी झेंपडियों में रहनेवाले पिछडे यह वर्गीकरण तो बडी भ्रान्ति है परन्तु इस भ्रान्ति को दूर करने की चिन्ता कोई नहीं करता, उल्टे उसका ही लोग फायदा उठाने का प्रयास करते हैं । सरकारी विद्यालयों के शिक्षक सदा शिकायत करते हैं कि हमारे यहाँ बच्चे पढने के लिये आते ही नहीं हैं, केवल खाने के लिये ही आते हैं, अच्छे घर के आते ही नहीं है तो हम किसे पढायें । यह भी सत्य नहीं है परन्तु इस सम्बन्ध में कोई प्रयास नहीं किया जाता ।
    
अनेक बार लोगों द्वारा शिकायतें की जाती हैं, अखबारों में सचित्र समाचार छपते हैं कि गाँवों में विद्यालय के भवन अच्छे नहीं हैं, बैठने की, शौचालयों की सुविधा नहीं है, शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हुई है, यदि हुई है तो वे शिक्षक आते नहीं हैं, अपने स्थान पर अन्य किसी नौसीखिये को भेजकर स्वयं दूसरा व्यवसाय करते हैं । इस बात में सचाई होने पर भी इस कारण से शिक्षा नहीं दी जा सकती ऐसा नहीं है । नगरों और महानगरों के प्राथमिक विद्यालयों में अच्छा भवन, अच्छा मैदान, शिक्षक, साधनसामग्री, विद्यार्थी सबकुछ है तो भी शिक्षा की स्थिति तो वैसी ही दयनीय है । इसका क्या कारण है ?
 
अनेक बार लोगों द्वारा शिकायतें की जाती हैं, अखबारों में सचित्र समाचार छपते हैं कि गाँवों में विद्यालय के भवन अच्छे नहीं हैं, बैठने की, शौचालयों की सुविधा नहीं है, शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हुई है, यदि हुई है तो वे शिक्षक आते नहीं हैं, अपने स्थान पर अन्य किसी नौसीखिये को भेजकर स्वयं दूसरा व्यवसाय करते हैं । इस बात में सचाई होने पर भी इस कारण से शिक्षा नहीं दी जा सकती ऐसा नहीं है । नगरों और महानगरों के प्राथमिक विद्यालयों में अच्छा भवन, अच्छा मैदान, शिक्षक, साधनसामग्री, विद्यार्थी सबकुछ है तो भी शिक्षा की स्थिति तो वैसी ही दयनीय है । इसका क्या कारण है ?

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