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आपके बिना यह कार्य और कौन कर सकता हैं ? आपको छोड़कर हम किससे निवेदन कर सकते हैं ? आप इस संकट का निवारण करने की कृपा करें ।
 
आपके बिना यह कार्य और कौन कर सकता हैं ? आपको छोड़कर हम किससे निवेदन कर सकते हैं ? आप इस संकट का निवारण करने की कृपा करें ।
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८. यह कोई साधारण कार्य नहीं है । इसके लिए सामर्थ्य चाहिए । यह सामर्थ्य धन या सत्ता या बल का सामर्थ्य नहीं है। यह सामर्थ्य तप और ज्ञान का है । यह सामर्थ्य निष्ठा का है । ऐसा सामर्थ्य आपके ही पास है। धर्म का अपना ही सामर्थ्य होता है। आप धर्माचार्य हैं । इसलिए आप ही राष्ट्र का यह संकट दूर कर सकते हैं ।
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८. यह कोई साधारण कार्य नहीं है । इसके लिए सामर्थ्य चाहिए । यह सामर्थ्य धन या सत्ता या बल का सामर्थ्य नहीं है। यह सामर्थ्य तप और ज्ञान का है । यह सामर्थ्य निष्ठा का है । ऐसा सामर्थ्य आपके ही पास है। धर्म का अपना ही सामर्थ्य होता है। आप धर्माचार्य हैं । अतः आप ही राष्ट्र का यह संकट दूर कर सकते हैं ।
    
९. धर्म ही जीवन का आधार है । धर्म ही विश्व का आधार है। धर्म से ही राष्ट्रजीवन बना रहता है । धर्म से ही समृद्धि है । धर्म से ही कल्याण है । धर्म से ही सुख है। धर्म से ही यश है । धर्म से ही सार्थकता है । उस धर्म की ही उपेक्षा होने से आधार नष्ट होता है और बिना आधार के सब कुछ नष्ट होता है ।
 
९. धर्म ही जीवन का आधार है । धर्म ही विश्व का आधार है। धर्म से ही राष्ट्रजीवन बना रहता है । धर्म से ही समृद्धि है । धर्म से ही कल्याण है । धर्म से ही सुख है। धर्म से ही यश है । धर्म से ही सार्थकता है । उस धर्म की ही उपेक्षा होने से आधार नष्ट होता है और बिना आधार के सब कुछ नष्ट होता है ।
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१३. यह हमारी शिकायत का नहीं चिन्ता का विषय होना चाहिए । शिकायत करने से समस्या दूर नहीं होती | हमें इस समस्या को कैसे दूर किया जाय इस पर विचार करना चाहिए । समस्या का निराकरण करने का प्रयास करना चाहिए। हमें समस्या का कारण और स्वरूप ठीक प्रकार से समझना चाहिये ।
 
१३. यह हमारी शिकायत का नहीं चिन्ता का विषय होना चाहिए । शिकायत करने से समस्या दूर नहीं होती | हमें इस समस्या को कैसे दूर किया जाय इस पर विचार करना चाहिए । समस्या का निराकरण करने का प्रयास करना चाहिए। हमें समस्या का कारण और स्वरूप ठीक प्रकार से समझना चाहिये ।
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१४. इस समस्या का मूल कारण यह है कि धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध टूट गया है । शिक्षा मनुष्य को दूसरी दिशा में ले जा रही है, धर्म दूसरी दिशा में जाने के लिए निर्देश दे रहा है । ये दोनों दिशायें एकदूसरी से सर्वथा विपरीत हैं । दो विपरीत दिशाओं में मनुष्य एकसाथ नहीं चल सकता । इसलिए एक मार्ग वास्तविक है दूसरा आभासी |
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१४. इस समस्या का मूल कारण यह है कि धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध टूट गया है । शिक्षा मनुष्य को दूसरी दिशा में ले जा रही है, धर्म दूसरी दिशा में जाने के लिए निर्देश दे रहा है । ये दोनों दिशायें एकदूसरी से सर्वथा विपरीत हैं । दो विपरीत दिशाओं में मनुष्य एकसाथ नहीं चल सकता । अतः एक मार्ग वास्तविक है दूसरा आभासी |
    
१५. सामान्य जीवन धर्मविमुख हो जाने का कारण प्रत्यक्ष में तो शासन व्यवस्था, बाजार, विज्ञापन, रासायनिक खाद, मनुष्य का स्वार्थ आदि ही दिखता है । परन्तु इन सबको मान्यता और समर्थन देने वाला कौनसा तत्त्व है इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है ।
 
१५. सामान्य जीवन धर्मविमुख हो जाने का कारण प्रत्यक्ष में तो शासन व्यवस्था, बाजार, विज्ञापन, रासायनिक खाद, मनुष्य का स्वार्थ आदि ही दिखता है । परन्तु इन सबको मान्यता और समर्थन देने वाला कौनसा तत्त्व है इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है ।
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१६. शासन लोकतंत्रात्मक है । लोगों का मत पवित्र होता है। परन्तु अपने मत की पवित्रता लोग क्यों नहीं मानते ? मनुष्य स्वार्थी हैं इसलिए । परन्तु स्वार्थी क्यों हैं ? क्या कलियुग के प्रभाव से ? या उन्हें अपने मत को पवित्र मानना चाहिए इसकी शिक्षा नहीं मिली इसलिए ? पवित्रता क्या होती है यह नहीं सिखाया गया इसलिए ?
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१६. शासन लोकतंत्रात्मक है । लोगों का मत पवित्र होता है। परन्तु अपने मत की पवित्रता लोग क्यों नहीं मानते ? मनुष्य स्वार्थी हैं अतः । परन्तु स्वार्थी क्यों हैं ? क्या कलियुग के प्रभाव से ? या उन्हें अपने मत को पवित्र मानना चाहिए इसकी शिक्षा नहीं मिली अतः ? पवित्रता क्या होती है यह नहीं सिखाया गया अतः ?
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१७. कानून का प्रावधान होने के बाद भी लोग भ्रष्टाचार करते हैं इसका कारण क्या है ? यही कि भ्रष्टाचार नहीं करना चाहिए ऐसा सिखाया नहीं गया है इसलिए । पैसा कम कमाएंगे परन्तु अनीति नहीं करेंगे यह नहीं सिखाया जाता । संतोष गुण की शिक्षा नहीं दी जाती है |
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१७. कानून का प्रावधान होने के बाद भी लोग भ्रष्टाचार करते हैं इसका कारण क्या है ? यही कि भ्रष्टाचार नहीं करना चाहिए ऐसा सिखाया नहीं गया है अतः । पैसा कम कमाएंगे परन्तु अनीति नहीं करेंगे यह नहीं सिखाया जाता । संतोष गुण की शिक्षा नहीं दी जाती है |
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१८. विज्ञापन का झूठ जानते हुए भी वस्तुयें खरीदने से कोई परावृत्त नहीं होता क्योंकि मन को संयम नहीं सिखाया जाता । धर्म के लक्षण प्रसिद्ध हैं । वे शिक्षा का अंग नहीं है । वे केवल उपदेश के लिए हैं । धर्म के बिना परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ जाता है, पैसा कमाया जाता है, जीवनयापन किया जा सकता है । इसलिए लोगों को धर्म की आवश्यकता नहीं लगती ।
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१८. विज्ञापन का झूठ जानते हुए भी वस्तुयें खरीदने से कोई परावृत्त नहीं होता क्योंकि मन को संयम नहीं सिखाया जाता । धर्म के लक्षण प्रसिद्ध हैं । वे शिक्षा का अंग नहीं है । वे केवल उपदेश के लिए हैं । धर्म के बिना परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ जाता है, पैसा कमाया जाता है, जीवनयापन किया जा सकता है । अतः लोगों को धर्म की आवश्यकता नहीं लगती ।
    
१९. असत्य बोलने पर उच्च शिक्षा में प्रवेश नहीं मिलता ऐसा नहीं होता । अपवित्र जीवनशैली के रहते ज्ञान ग्रहण नहीं किया जा सकता ऐसी स्थिति नहीं है । व्यसनी छात्र, बलात्कार करने वाले छात्र परीक्षा में नकल करने वाला छात्र पढ़ नहीं सकता या नौकरी प्राप्त नहीं कर सकता ऐसा नहीं होता । इसका अर्थ यह है कि शिक्षा और अर्थाजन के लिए धर्म कि आवश्यकता नहीं है ।
 
१९. असत्य बोलने पर उच्च शिक्षा में प्रवेश नहीं मिलता ऐसा नहीं होता । अपवित्र जीवनशैली के रहते ज्ञान ग्रहण नहीं किया जा सकता ऐसी स्थिति नहीं है । व्यसनी छात्र, बलात्कार करने वाले छात्र परीक्षा में नकल करने वाला छात्र पढ़ नहीं सकता या नौकरी प्राप्त नहीं कर सकता ऐसा नहीं होता । इसका अर्थ यह है कि शिक्षा और अर्थाजन के लिए धर्म कि आवश्यकता नहीं है ।
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२१. व्यक्तिगत हो या राष्ट्रजीवन हो, काम और अर्थ नियन्त्रक बन गए हैं । होना यह चाहिए कि अर्थ और काम दोनों धर्म के नियमन में रहने चाहिए । तभी सुख और समृद्धि प्राप्त होती है । इसे समर्थन देने वाला अर्थशास्त्र विश्वविद्यालयों में पढाया जाता है । यही सारी समस्याओं की जड है ।
 
२१. व्यक्तिगत हो या राष्ट्रजीवन हो, काम और अर्थ नियन्त्रक बन गए हैं । होना यह चाहिए कि अर्थ और काम दोनों धर्म के नियमन में रहने चाहिए । तभी सुख और समृद्धि प्राप्त होती है । इसे समर्थन देने वाला अर्थशास्त्र विश्वविद्यालयों में पढाया जाता है । यही सारी समस्याओं की जड है ।
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२२. संसद में, विश्वविद्यालयों में, बौद्धिकों में शिक्षा के विषयमें चर्चा तो बहुत होती है । समस्‍यायें बताई जाती हैं । उपाय सुझाए जाते हैं । मंथन तो बहुत चलता है । लोग त्रस्त हैं । परन्तु शिक्षा धर्म नहीं सिखाती इसलिए ये सारी समस्‍यायें हैं और धर्म का सन्दर्भ लेने से तत्काल मार्ग दिखाई देने लगेगा इतनी सीधी सरल बात कहीं पर भी नहीं होती ।
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२२. संसद में, विश्वविद्यालयों में, बौद्धिकों में शिक्षा के विषयमें चर्चा तो बहुत होती है । समस्‍यायें बताई जाती हैं । उपाय सुझाए जाते हैं । मंथन तो बहुत चलता है । लोग त्रस्त हैं । परन्तु शिक्षा धर्म नहीं सिखाती अतः ये सारी समस्‍यायें हैं और धर्म का सन्दर्भ लेने से तत्काल मार्ग दिखाई देने लगेगा इतनी सीधी सरल बात कहीं पर भी नहीं होती ।
    
२३. प्रकट समारोहों में तो लोग धर्म का नाम लेने से भी डरते हैं। वे मूल्यशिक्षा ऐसा शब्द बोलेंगे परन्तु धर्मानुसारी शिक्षा ऐसा नहीं बोलेंगे । प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों तरीके से शिक्षा क्षेत्र से धर्म निष्कासित हो गया है । शिक्षा से ही निष्कासित हो जाएगा तो जीवन के सभी क्षेत्रों से होगा ही ।
 
२३. प्रकट समारोहों में तो लोग धर्म का नाम लेने से भी डरते हैं। वे मूल्यशिक्षा ऐसा शब्द बोलेंगे परन्तु धर्मानुसारी शिक्षा ऐसा नहीं बोलेंगे । प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों तरीके से शिक्षा क्षेत्र से धर्म निष्कासित हो गया है । शिक्षा से ही निष्कासित हो जाएगा तो जीवन के सभी क्षेत्रों से होगा ही ।
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२५. स्वामीजी रुके । उनकी बातों में जानकारी तो नई नहीं थी परन्तु आवाहन का स्वरूप नया था । धर्माचर्यों को जिम्मेदारी की बात नई लगी । आज तक शिक्षा का धर्म के साथ सम्बन्ध नहीं जोडा गया था । आश्चर्य तो उसी बात का होना चाहिए था कि ऐसा कैसे हुआ । धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध इतना स्वाभाविक है कि वह अब नहीं रहा है यही बात ध्यान में नहीं आई ।
 
२५. स्वामीजी रुके । उनकी बातों में जानकारी तो नई नहीं थी परन्तु आवाहन का स्वरूप नया था । धर्माचर्यों को जिम्मेदारी की बात नई लगी । आज तक शिक्षा का धर्म के साथ सम्बन्ध नहीं जोडा गया था । आश्चर्य तो उसी बात का होना चाहिए था कि ऐसा कैसे हुआ । धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध इतना स्वाभाविक है कि वह अब नहीं रहा है यही बात ध्यान में नहीं आई ।
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२६. सब इस नए सन्दर्भ से उत्साह में तो आ गए परन्तु कुछ असमंजस में भी थे । एक तो आवाहन नया और अपरिचित, अश्रुतपूर्व था और साथ ही शिक्षा के बारे में वे बहुत कुछ जानते नहीं थे । इसलिए समस्या की और उसके हल की चर्चा कैसे चलेगी इसकी बहुत कल्पना वे नहीं कर पा रहे थे । अनेक लोगों ने तो केवल श्रोता बनकर विषय को समझने का ही निश्चय किया ।
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२६. सब इस नए सन्दर्भ से उत्साह में तो आ गए परन्तु कुछ असमंजस में भी थे । एक तो आवाहन नया और अपरिचित, अश्रुतपूर्व था और साथ ही शिक्षा के बारे में वे बहुत कुछ जानते नहीं थे । अतः समस्या की और उसके हल की चर्चा कैसे चलेगी इसकी बहुत कल्पना वे नहीं कर पा रहे थे । अनेक लोगों ने तो केवल श्रोता बनकर विषय को समझने का ही निश्चय किया ।
    
२७. इसके साथ ही सभा विसर्जित हुई । आचार्य विश्वावसु और उनके साथ आए हुए प्राध्यापक आश्वस्त दिखाई दे रहे थे । उन्हें लगा कि इस चर्चा का कोई परिणाम अवश्य निकलेगा । उन्होंने कृतज्ञतापूर्वक स्वामीजी को प्रणाम किया और अपने निवास की ओर चले |
 
२७. इसके साथ ही सभा विसर्जित हुई । आचार्य विश्वावसु और उनके साथ आए हुए प्राध्यापक आश्वस्त दिखाई दे रहे थे । उन्हें लगा कि इस चर्चा का कोई परिणाम अवश्य निकलेगा । उन्होंने कृतज्ञतापूर्वक स्वामीजी को प्रणाम किया और अपने निवास की ओर चले |
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२०. आज तो सभी धर्माचार्यों के मठ, मन्दिर, आश्रम वैभव से युक्त दिखाई देते हैं । यह वैभव प्राकृतिक नहीं होता है। वर्तमान समय की प्रदूषण बढ़ाने वाली अनेक स्चनायें यहाँ भी दिखाई देती हैं । इनमें साधनशुद्धि का अंश नहीं होता । समाज में भ्रष्टाचार से जो कमाई होती है उसी धन से ये सब अपनी संस्थायें चलाते हैं । इसका परिणाम इनके कार्य पर हुए बिना नहीं रह सकता । अन्यों को शुद्ध बनाने के स्थान पर ये स्वयं अशुद्ध बन जाते हैं ।
 
२०. आज तो सभी धर्माचार्यों के मठ, मन्दिर, आश्रम वैभव से युक्त दिखाई देते हैं । यह वैभव प्राकृतिक नहीं होता है। वर्तमान समय की प्रदूषण बढ़ाने वाली अनेक स्चनायें यहाँ भी दिखाई देती हैं । इनमें साधनशुद्धि का अंश नहीं होता । समाज में भ्रष्टाचार से जो कमाई होती है उसी धन से ये सब अपनी संस्थायें चलाते हैं । इसका परिणाम इनके कार्य पर हुए बिना नहीं रह सकता । अन्यों को शुद्ध बनाने के स्थान पर ये स्वयं अशुद्ध बन जाते हैं ।
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२१. स्वामीजी बहुत खिन्नता का अनुभव कर रहे थे । वे स्वयं संन्यासी थे । अपने ही प्रकार के लोगों के लिए ये सारी बातें वे कर रहे थे । इसका उन्हें दुःख था परन्तु वे वास्तविक चित्र जानते थे । कल की धर्मसभा में प्रत्यक्ष अनुभव भी हो गया था । इसलिए वे दुःखी हो रहे थे । आचार्य विश्वावसु उनका दुःख समझ रहे थे । वे भी खिन्नता का अनुभव कर ही रहे थे ।
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२१. स्वामीजी बहुत खिन्नता का अनुभव कर रहे थे । वे स्वयं संन्यासी थे । अपने ही प्रकार के लोगों के लिए ये सारी बातें वे कर रहे थे । इसका उन्हें दुःख था परन्तु वे वास्तविक चित्र जानते थे । कल की धर्मसभा में प्रत्यक्ष अनुभव भी हो गया था । अतः वे दुःखी हो रहे थे । आचार्य विश्वावसु उनका दुःख समझ रहे थे । वे भी खिन्नता का अनुभव कर ही रहे थे ।
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२२. परन्तु वे जानते थे कि दुःखी होने से समस्या का हल नहीं प्राप्त होता, कुछ करने से ही परिणाम मिलता है । इसलिए कुछ क्षण मौन रहकर वे अपने विचार बताने लगे । वे मुख्य रूप से धर्माचार्यों का शिक्षा से क्या संबंध है उसकी बात करना चाहते थे । स्वामीजी भी उनकी बात ध्यानपूर्वक सुन रहे थे ।
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२२. परन्तु वे जानते थे कि दुःखी होने से समस्या का हल नहीं प्राप्त होता, कुछ करने से ही परिणाम मिलता है । अतः कुछ क्षण मौन रहकर वे अपने विचार बताने लगे । वे मुख्य रूप से धर्माचार्यों का शिक्षा से क्या संबंध है उसकी बात करना चाहते थे । स्वामीजी भी उनकी बात ध्यानपूर्वक सुन रहे थे ।
    
=== धर्माचार्यों की भूमिका ===
 
=== धर्माचार्यों की भूमिका ===

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