Difference between revisions of "राजनीतिक प्रवाहों का वैश्विक परिदृश्य"
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राजनीतिक जीवन निरन्तर गतिमान है, यद्यपि यह गति मन्द और तीव्र होती रहती है। विश्व-राजनीति राष्ट्रीय राजनीति की अपेक्षा अधिक जटिल और अस्थिर है, क्योंकि यहाँ वैशिष्ट्य और वैभिन्न्य अधिक है। भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं वैचारिक भिन्नता ‘राष्ट्रीय हित' को सापेक्ष बना देती है, जिसकी प्राप्ति के लिए विभिन्न रूपों में शक्ति का अर्जन, संवर्धन एवं प्रदर्शन की आवश्यकता पड़ती है। प्राचीन एवं मध्य युगों में जब सभ्यताओं में स्वपर्याप्तता एवं स्वायत्तता के भाव की प्रबलता थी और उनके बीच छुटपुट आदान-प्रदान और वे भी मुख्यत: व्यापार-वाणिज्य के क्षेत्र में होते थे, ‘अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति' या 'विश्व-राजनीति' जैसी अवधारणाएँ अप्रासंगिक थीं। परन्तु आधुनिक विश्व का स्वरूप भिन्न है । अन्तर्निर्भरता एवं अन्तक्रिया में असाधारण वृद्धि हुई है । जीवन-दृष्टि के विखण्डन ने, ऊर्ध्वगामिता के परित्याग ने राज्यों को अहंवादी, प्रतिस्पर्धात्मक, शक्तिलोलुप और विस्तारवादी बना दिया है। अहंकार व प्रतिस्पर्धा-जनित इस विखण्डन को हम कभी बहुलता, कभी विशिष्टता, तो कभी अस्मिता कहते हैं, और इस संकुचन से उपजे द्वन्द्व एवं संघर्ष को विश्व-राजनीति की स्वाभाविक स्थिति मान लेते हैं।
वैश्विक राजनीति के प्रमुख प्रवाहों पर हमें इस संदर्भ में विचार करना चाहिए। चाहे वैश्विक राजनीति का संरचनात्मक पक्ष हो अथवा उसका वैचारिक पक्ष, उसमें प्रतिस्पर्धा, द्वन्द्व, आधिपत्य, प्रभुत्व के तत्त्वों की निरन्तरता एवं प्रधानता दृष्टिगोचर होती है । वस्तुतः, विद्वत् जगत में इसे सहज-स्वाभाविक मानकर सिद्धान्त-निरूपण किया जाता है । अब यदि वैश्विक राजनीति का संरचनात्मक पक्ष लिया जाए तो वह बहु-ध्रुवीय (Multi-polar) से द्विध्रुवीय (Biopolar) और फिर एक-ध्रुवीय (Unipolar) हुआ है, परन्तु उसका संचालन इन्हीं तत्त्वों के आधार पर होता रहा है। १८१५ की वियना कांग्रसे से १९४५ के द्वितीय विश्वयुद्ध तक का विश्व बहुध्रुवीय था, अर्थात् लगभग समान शक्ति व प्रभाव वाले कई राज्यों के बीच निरन्तर प्रतिस्पर्धाऔर तनाव था जिसके फलस्वरूप नित नए दावे और नित नए गठबन्धन जन्म लेते थे । १८१५ की वियना कांग्रस ने विश्व-व्यवस्था की संरचना ब्रिटेन, रूस, प्रशिया, फ्रांस और आस्ट्रिया-हंगरी को धुरी मान कर की। इन ५ राष्ट्रों की प्रतिस्पर्धा एवं शक्ति-लिप्सा की परिणति दो महायुद्धों में हुई । द्वितीय विश्वयुद्ध ने इस बहुध्रुवीय विश्व को तार-तार कर दिया और विश्व-राजनीति में एक नए युग का सूत्रपात हुआ जिसे हम 'द्विध्रुवीय विश्व' कहते हैं। इस द्विध्रुवीय विश्व का दौर १९८९ तक चला।
इस द्वि-ध्रुवीय विश्व में विश्व-राजनीति सोवियत संघ व संयुक्त राज्य अमेरिका के ईद-गिर्द घूमती रही । ये दोनों महाशक्तियाँ अपनी वैचारिक, राजनीतिक एवं सैनिक श्रेष्ठता के दम्भ से ग्रस्त थीं, और विश्व के अधिकाधिक देशों को अपने खेमे में लाने के लिए साम, दाम, भेद, दण्ड- सभी साधनों का प्रयोग करती थीं। इन महाशक्तियों की प्रभुत्व एवं शक्ति की लिप्सा ने शीत-युद्ध (Cold war) के तनावपूर्ण दौर को जन्म दिया । यद्यपि भारत, यूगोस्लाविया और मिस्र के नेतृत्व में गुटनिरपेक्षता (Non alignment) के दर्शन को एक विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया गया तथापि वह अरण्य रूदन ही सिद्ध हुआ ।
अनेक आन्तरिक एवं बाह्य कारणों के परिणामस्वरूप १९८९ में सोवियत संघ की साम्यवादी व्यवस्था का विघटन हुआ, और द्विध्रुवीय विश्व-व्यवस्था व शीत-बुद्ध के दौर का पटक्षेप हुआ । शीत-युद्धोत्तर काल में संयुक्त राज्य अमेरिका विश्व-राजनीति की एकमात्र धुरी बनकर उभरा, और इस नए दौर को एकध्रुवीय (unipolar) विश्व कहा गया । सोवियत संघ के विघटन को अमेरिका ने उदारवादी-पूंजीवादी व्यवस्था की नैतिक-राजनीतिक श्रेष्ठता का प्रमाण कहा और राजशास्त्रियों ने इसे 'विचारधारा के अन्त' (End of ideology) और 'इतिहास के अन्त' (End of History) की संज्ञा दी। शीत-युद्धोत्तर काल को वैश्वीकरण (Globalization) का आविर्भाव माना गया, जिसका अन्तर्निहित अर्थ सम्पूर्ण विश्व को अमेरिकी वैचारिक एवं सांस्कृतिक साँचे में ढालना है । यद्यपि विश्वराजनीति आज अमेरिका केन्द्रित है, किन्तु यह भी एक तथ्य है कि अमेरिका के राजनीतिक, सांस्कृतिक व सैनिक प्रभुत्व को चीन, जापान, भारत, रूस आदि नवोदित शक्तियों से चुनौतियाँ मिलनी प्रारम्भ हो गयी हैं। प्रश्न यह भी है कि क्या अमेरिका इस वैश्विक भूमिका को ओढ़कर आर्थिक, राजनीतिक एवं सैनिक दृष्टि से बोझिल, दुर्बल और विवादास्पद नहीं बन रहा है? सर्वाधिक शक्तिशाली भी कब तक शक्ति-सम्पन्न रह सकता है? अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के यथार्थवादी और नव-यथार्थवादी व्याख्याकार जिस प्रभुत्व-केन्द्रित विश्व की अनिवार्यता का प्रतिपादन करते हैं और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को मूलतः और तत्त्वतः अराजक (Anarchical) मानते हैं, क्या ऐसा मानकर वे विश्व के राजनीतिक मानचित्र को रक्त-रंजित मानते हुए अमानवीयता का सिंहनाद नहीं कर रहे हैं? विश्व को शक्ति-राजनीति के साँचे में गढ़ने की इस विचार-दृष्टि की भारी कीमत चुकाकर भी क्या हम असंतुष्ट नहीं हैं? विश्व को महाशक्ति, मध्यम-शक्ति व लघु-शक्ति राज्यों में वर्गीकृत करने के पीछे कौन-सी दृष्टि, कौन-सा उद्देश्य है?
वैश्विक राजनीति का वैचारिक मानचित्र एक दूसरे बियावान को दर्शाता है। विचारधाराओं (ideologies) के रूप में जो इहलोकवादी दृष्टिकोण (secular religions) उभरे, उन्होंने एक मानसिक लौह-पिंजर में हमारी बुद्धि एवं स्मृति को कैद कर लिया। वर्तमान विश्व के राजनीतिक दर्शन को उदारवाद, समाजवाद और फासीवाद के छोटे-बड़े संस्करणों ने सजाया-संवारा है। यूरोप व अमेरिका में पली-बढ़ी इन विचारधाराओं ने एशिया-अफ्रीका की प्राचीन सभ्यताओं को अपनी विरासत से विमुख कर इन्हें एक नए रूप में गढ़ने का कार्य किया है। परिणामतः, सम्पूर्ण विश्व इन विचार-प्रवाहों से अनुप्रेरित एवं आक्रान्त है। यह अवश्य है कि विचारधाराओं की उठापटक में कभी कोई तो कभी कोई विचारधारा मानव-मुक्ति का वाहक मानी गयी । १९१७ में सोवियत संघ की बोल्शेविक क्रान्ति के उपरान्त मार्क्सवादी समाजवाद का डंका बजने लगा । परन्तु १९८९ में सोवियत संघ की साम्यवादी व्यवस्था के विघटन के बाद उदारवादी लोकतंत्र को सार्वभौम दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया गया । समकालीन उदारवाद शास्त्रीय उदारवाद की मूल मान्यताओं- व्यक्तिवाद, बुद्धिवाद, सीमित राज्य, मुक्त व्यापार को तो स्वीकार करता है, परन्तु समानता व न्याय की स्थापना हेतु कतिपय मौलिक मान्यताओं को पुनर्व्याख्यायित करता है। जॉन रॉल्स जैसे समतावादी उदारवादियों ने मूलभूत वस्तुओं के पुनर्वितरण का जो सिद्धान्त प्रतिपादित किया उसमें स्वतंत्रता का इस प्रकार विस्तार करने का आग्रह किया गया कि उससे अनौचित्यपूर्ण विषमता का उदय न हो। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह राज्य की सक्रिय भूमिका का समर्थन करता है। परन्तु नॉजिक, हॉयक, मिल्टन फ्रीडमेन जैसे उग्र स्वतंत्रतावादी विचारक शास्त्रीय उदारवाद की मान्यताओं में छेड़छाड़ के विरुद्ध हैं। उनकी दृष्टि में सामाजिक-आर्थिक जीवन एक स्वचालित व्यवस्था (spontaneous order) है, उसके अपने अन्तर्भूत सिद्धान्त हैं, जो मानव-कल्याण का मार्ग प्रशस्त करते है, और इसलिए इन्हें निर्बाध रूप से संचालित होने देना चाहिए । राज्य या कोई अन्य बाह्य हस्तक्षेप मानव-स्वतंत्रता (एवं कल्याण) के लिये विघातक है। स्पष्ट है कि समकालीन उदारवाद मानव-कल्याण को न केवल आर्थिक-सामाजिक परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करता है, वरन् इस संकुचित कल्याण की उपलब्धि के साधन को लेकर भी द्वन्द्वग्रस्त है। वस्तुतः, उदारवाद मानव-कल्याण की कोई सम्यक् अवधारणा प्रस्तुत कर ही नहीं सकता क्योंकि उसकी मनुष्य की अवधारणा ही नितान्त अपरिपक्क और भ्रान्तिपूर्ण है।
वास्तव में प्रबोध काल (Age of Enlightenment) की सम्पूर्ण विरासत, जिसका उदारवादी सार्वभौमवाद (Liberal Universalism) एक प्रधान घटक रहा है, आज सन्देह के घेरे में है, समीक्षा व समालोचना का विषय है। फ्रांसिस फुकुयामा जैसे विचारक उदारवादी लोकतंत्र के सार्वजनीकरण का दावा भले ही करें, उदारवादी विचारदृष्टि के समक्ष नित नई चुनौतियाँ उभर रही हैं। अमेरिका में समुदायवाद विश्व में विभिन्न भागों व देशों में धर्म-केन्द्रित/ प्रजातीयता-केन्द्रित राष्ट्रवाद एवं बहुसंस्कृतिवाद, एशिया-अफ्रीका के देशों में उत्तर-उपनिवेशवाद एवं वैश्विक धरातल पर पर्यावरणवाद उदारवादी विचार-दृष्टि के विरुद्ध प्रतिक्रिया के ही विभिन्न स्वरूप हैं। वे सभी मिलकर उदारवादी सामान्यीकरण और सरलीकरण को क्षत-विक्षत कर देते हैं। अमेरिका में माइकेल सेन्डल, मैकन्टायर, वाल्जर, चार्ल्स टेलर आदि विचारकों ने व्यक्ति व समाज की अणुवादी अवधारणा को गम्भीर चुनौती दी है। उनका विचार है कि व्यक्ति की पहचान, उसके लक्ष्य, अपने परिवेश की व्याख्या स्व-प्रसत्त न होकर सांस्कृतिक, ऐतिहासिक व सामाजिक संदर्भो की उपज होती है। व्यक्ति 'भारमुक्त' (Unencumbered) न होकर अपने संदर्भो से निर्देशित, प्रेरित व व्याख्यायित होता है। हमारे भाव, विचार, मान्यताएँ, उद्देश्य संस्कृति-सापेक्ष हैं। हमारे जीवन में इच्छा एवं चयन की भूमिका सीमित है। राज्य व समाज प्राकृतिक और आवश्यक संस्थाएँ हैं, कृत्रिम या अनावश्यक नहीं। उदारवादी चिन्तन में जिस स्व-पर्याप्त व स्व-प्रेरित व्यक्ति की अवधारणा प्रतिपादित की गयी है वह एक ऐसी कपोलकल्पना मात्र है जो व्यक्ति को अहंवादी व स्वकेन्द्रित बनाकर उसमें सामुदायिकता व सामूहिकता की सम्भावना को ही नकार देती है । संदर्भ और वैशिष्ट्य की यही अपरिहार्यता उत्तर-नारीवाद, बहुसंस्कृतिवाद और धर्म/प्रजातीयता केन्द्रित राष्ट्रवाद को परिभाषित व प्रेरित करती है।
क्या नारीवाद एक छट्म-यथार्थ (Pseudo-reality) गढ़ने का दोषी नहीं है? क्या वह तत्त्वशास्त्रीय भोलेपन, ऐतिहासिक विरूपण और यूरोप-केन्द्रियता का शिकार नहीं है? क्या उसने 'नारी' को उसके ऐतिहासिक, सांस्कृतिक व सामाजिक संदर्भो से विलग कर उसके हित, लक्ष्य, भूमिका आदि पर विचार नहीं किया है? क्या जिस 'नारी' की स्वतंत्रता व कल्याण को लेकर वह चिन्तित है, वह अमूर्त, काल्पनिक नारी नहीं है? अमेरिका की नीग्रो महिलाओं का सांस्कृतिक-ऐतिहासिक संदर्भ, उनकी मान्यताएँ और हित तथा उनकी आवश्यकताएँ यूरोपअमेरिका की श्वेत महिलाओं से भिन्न हैं। एशिया और अफ्रीका की महिलाएँ एक भिन्न सभ्यता व संस्कृति में जी रही हैं और आधुनिक पाश्चात्य सभ्यता की मान्यताएँ उनके जीवन-जगत (Life-World) पर कैसे एवं क्यों आरोपित की जाएं? एक प्रमुख चिन्तक एलिज़ाबेथ स्पेलमैन ने अपनी चर्चित पुस्तक 'इनइसैन्शियल वूमन' में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है- 'यदि हम लिंग को धर्म, प्रजाति या वर्ग से पृथक नहीं कर सकते, यदि मात्र स्त्री के रूप में हम स्त्री के उत्पीड़न की चर्चा नहीं कर सकते, तो क्या नारीवाद के आधार दरक नहीं जाते?' नारीवादी दृष्टिकोण व्यक्तिवादी उदारवाद की एक शाखा है और मूल-दर्शन की भाँति वह भी विखण्डनवादी है। अंग को सम्पूर्ण के संदर्भ और सम्बन्ध में देखने की सामर्थ्य के अभाव के कारण नारी को ईश्वर से, समाज से, परिवार से, यहाँ तक कि अपनी सन्तानों से भी पृथक कर देखने की दृष्टि नैतिक एवं सामाजिक रूप से असत्य और भयावह है। इसी दृष्टि के चलते नारीवाद ने कर्तव्य से सुख और सम्पन्नता को श्रेष्ठ माना, वैवाहिक एवं पारिवारिक जीवन को बोझ और परतंत्रता कहा, यौनसम्बन्धों को शारीरिक सुख व मनोरंजन की दृष्टि से देखा और गर्भपात को अधिकार माना । अहंवाद एवं व्यक्तिवाद के भ्रमजाल में जकड़े स्त्री-पुरुष प्रेम, विवाह, परिवार के उच्चतर एवं पवित्र स्वरूप को कैसे समझ सकते हैं? एक प्रमुख नारीवादी बेट्टी फ्राइडन ने लिखा- 'गृहिणी तो परजीवी है, वह तो एक मानवेतर प्राणी है।'
उदारवादी सार्वभौमवाद को राष्ट्रीयता के पुनरुदय से कड़ी चुनौती मिल रही है। धर्म, प्रजाति, भाषा आदि के आधार पर अस्मिता/राष्ट्रीयता का मुद्दा एकाएक बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। विडम्बना यह है कि एक ओर जहाँ वैश्वीकरण के प्रतिपादक संचारक्रान्ति, सांस्कृतिक संकरता, राजनीतिक व आर्थिक अन्तर्निर्भरता के प्रबल प्रवाह में राष्ट्र-भाव के विगलित होने का सिंहनाद कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीयता का भाव विभिन्न रूपों में और विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में प्रभावी सिद्ध हो रहा है । बहु-सांस्कृतिक एवं बहु-राष्ट्रीय राज्यों में उपराष्ट्रीयताएँ अपनी अस्मिता को लेकर व्यग्र हैं, तो उपनिवेशवाद के शिकार रहे एशिया व अफ्रीका के देश पश्चिम की वैचारिक छाया से उबरने के लिए आतुर हैं। साम्यवादी रूस का अधि-राष्ट्रीय (Supra-national) राज्य बनाने का उपक्रम बुरी तरह विफल हुआ। यूरोपीय संघ, अफ्रीकी संघ, अरब लीग आदि अधि-राष्ट्रीय संगठनों के निर्माण से राष्ट्रीयता का भाव मन्द नहीं पड़ा है। इंग्लैण्ड का यूरोपीय संघ से अलग होना इसका ताजा उदाहरण है। वेनेजुएला में हूगो चावेज़ ने अमेरिकी-यूरोपीय जीवन-शैली व उपभोक्ता संस्कृति का विरोध कर व्यापक जन-समर्थन प्राप्त किया और राष्ट्र-भाव की शक्ति को प्रमाणित किया। भारत में हिन्दुत्व का उभार, अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की 'नव दक्षिणपंथी' राजनीति को मिला जन-समर्थन, जर्मनी की राजनीति में राष्ट्रवादी नीतियों का प्रभाव, मध्यपूर्व में 'राजनीतिक इस्लाम' का बढ़ता प्रभाव राष्ट्रवाद की चिर प्रासंगिकता और प्रभाशीलता को रेखांकित करते हैं।
इस परिप्रेक्ष्य में एरिक हाब्सबाम का तर्क कि राष्ट्र मात्र संरचना (Construct) है, परिस्थिति-जन्य है और इसलिए उसका विखण्डन (Deconstruction) स्वाभाविक व अपरिहार्य है, नितान्त अपरिपक्व और अटकलबाजी है। आज राष्ट्रीयता के अनेक व्याख्याता ऐसी ही भ्रान्ति के शिकार हैं। जॉन ब्रुएली राष्ट्रीयता को 'राजनीति का रूप' (Form of Politics) कहते हैं, तो रोजर्स ब्रूबेकर उसे रिवाज की श्रेणी (Category of Practice) में रखते हैं, और बेनेडिक्ट एंडरसन उसके उदय का कारण 'प्रिन्ट कैपिटलिज्म' मानते हैं। इन सभी के लिए राष्ट्रवाद 'हाशिए की विचारधारा' (ideology of Periphery) है। ये सभी विश्लेषक राष्ट्रीयता के आन्तरिक, सनातन स्रोतों को जाने-अनजाने में अनदेखा करते हैं। राष्ट्रीयता एक धर्म है, आत्म-तत्त्व है, सहज है और शाश्वत है। मानव-इतिहास की घटनाओं ने बार-बार प्रमाणित किया है कि राष्ट्रीयता के प्रबल प्रवाह के आगे राजनीति, अर्थनीति, सैन्य-शक्ति आदि बाह्य संरचनाएँ निष्प्रभ हो जाती हैं। यह राष्ट्रीयता का ज्वार ही था जिसने यूरोपीय साम्राज्यवाद को घुटने टेकने को विवश कर दिया।
आधुनिक विश्व की आर्थिक संरचना पूँजीवाद के आधार पर हुई है जो उदारवादी सार्वभौमवाद का आर्थिक पक्ष है। मनुष्य को मूलतः आर्थिक प्राणी मान कर उसकी भौतिक-आर्थिक आवश्यकताओं की निरन्तर वृद्धि, इसके लिए बड़े पैमाने पर उत्पादन, वितरण व उपभोग के विशाल विश्वव्यापी तंत्र का निर्माण, औद्योगिकीकरण व मशीनीकरण, विश्व के प्राकृतिक संसाधनों पर स्वामित्व की होड़, बाजारों पर नियंत्रण करने की प्रतिस्पर्धा- इन मूल प्रतिस्थापनाओं पर आधारित उदारवादी/नव-उदारवादी परिप्रेक्ष्य ने मनुष्य-मनुष्य और मनुष्य-प्रकृति के सम्बन्धों को दूषित व विरूपित कर दिया है। पर्यावरणवाद (Environmentalism) इसी की उपज है। सम्भवतः विश्व-इतिहास में पहली बार पर्यावरण एक महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रश्न बन गया है। पर्यावरण का संकट एक राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय चिन्ता का विषय है। जल, थल और नभ- सभी गम्भीर प्रदूषण की चपेट में हैं। प्रकृति का संतुलन बिगड़ चुका है। विकास की आधुनिक अवधारणा की परिणति विनाश में होती दिखाई पड़ रही है। विकास और पर्यावरण का सम्बन्ध वैज्ञानिकों एवं विचारकों के लिए गम्भीर चिन्ता और चिन्तन का विषय बन गया है। इस सम्बन्ध में चल रहे विमर्श में दो विचार-प्रवाह उभर कर सामने आए हैं- प्रथम, वे चिन्तक हैं जो विकास और पर्यावरण में कोई विरोधाभास नहीं देखते और, द्वितीय, वे चिन्तक हैं जो विकास और पर्यावरण में परस्पर विरोधी सम्बन्ध मानते हैं।
पर्यावरणवाद की मुख्य धारा सुधारवादी है। सुधारवादी पर्यावरण-संकट की गम्भीरता को तो स्वीकार करते हैं, परन्तु पर्यावरण के संरक्षण के लिए आधुनिक विकास प्रक्रिया में छेड़छाड़ उचित नहीं मानते । उनका तर्क है कि पर्यावरणवाद का अर्थ विकास को विराम देना (Zero Growth) नहीं है, तकनीक और तद्जनित समृद्धि से मुँह फेर लेना नहीं है और आधुनिकता का परित्याग कर पाषाण-युग की ओर वापस जाना नहीं है। बुद्धिशील मानव ने अपने बुद्धि-कौशल से जिस तकनीक का सृजन किया और जिसके उपयोग से असाधारण प्रगति की, वह मानव अपने बुद्धि-कौशल से तकनीक-जन्य बुराईयों व समस्याओं को हल भी कर सकता है। सुधारवादियों का मत है कि तकनीक का परिष्कार कर, पर्यावरण-संरक्षण हेतु कानून बनाकर और उनके क्रियान्वयन हेतु राज्य को आवश्यक शक्तियाँ प्रदान कर तथा जन-जागरण कर पर्यावरण-संकट की चुनौती का मुकाबला किया जा सकता है। ऐसी उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन व उपभोग हो जो कि 'इको-फ्रेन्डली' हों । इस प्रकार विकास एवं पर्यावरण का साहचर्य सम्भव है, प्रकृति व प्रगति में अविरोध है। इस राजनीतिक दृष्टिकोण को 'हलके हरित रंग की राजनीति' (Light Green Politics) कहा जाता है।
लेकिन पर्यावरण की राजनीति का एक दूसरा पक्ष भी है। इससे जुड़े मनीषियों के प्रेरणास्रोत महात्मा गांधी, जर्मन अर्थशास्त्री शूमाकर और एरिक फ्राम हैं। इस 'गहरे हरित रंग की राजनीति' (Politics of Dark Greens) के प्रतिपादक मानते हैं कि पर्यावरण के संकट का स्रोत भौतिकवाद, उपभोगवाद और आर्थिक विकास का उन्माद है जिसकी सुधारवादी उपेक्षा करते हैं। वे यह भी भूल जाते हैं कि विज्ञान और तकनीक की सीमाएँ हैं और वे सभी मानवीय समस्याओं, विशेषतः जीवन-दृष्टि की विद्रूपता से उपजी समस्याओं, को हल नहीं कर सकतीं । महात्मा गाँधी ने कहा है कि प्रकृति हमारी आवश्यकताओं को पूरा करने का सामर्थ्य तो रखती है, परन्तु हमारे लोभ, हमारी लिप्सा को वह संतुष्ट नहीं कर सकती । आधुनिकता के पदार्पण ने हमारी जीवन-दृष्टि को पूर्णतः परिवर्तित कर दिया। हम अपने को स्वयंभू और सर्वश्रेष्ठ मान बैठे और किसी उच्चतर सत्ता व सनातन दैवीय व प्राकृतिक विधान की उपस्थिति को नकारने लगे। फलस्वरूप प्रकृति के प्रति भी हमारा दृष्टिकोण बदला और मनुष्य अपने को प्रकृति व प्राकृतिक संसाधनों का स्वामी (Master and Prossesser of Nature) मान बैठा। अपने भौतिक-आर्थिक सुख की वृद्धि हेतु प्राकृतिक संसाधनों का अनाप-शनाप दोहन होने लगा, और इसी को आर्थिक विकास कहा गया । जीवन व जगत के प्रति साकल्यवादी (Holistic) दृष्टिकोण के अभाव की परिणति गम्भीर असन्तुलन में होनी ही थी । इस प्रकार, पर्यावरण का संकट मूलतः एक नैतिक संकट है और इसका स्थायी समाधान तभी सम्भव है जब हमारी विचार-दृष्टि में एक मौलिक परिवर्तन आए। आज जिस 'पोषणीय' (Sustainable) विकास की चर्चा है, वह तो भौतिकवाद और उपभोगवाद का परित्याग कर आत्मवादी जीवन-दृष्टि को अंगीकार कर ही सम्भव है। 'प्रगति' की आधुनिक अवधारणा न केवल एकांगी, वरन् आत्म-घाती सिद्ध हुई है और इससे पिण्ड छुड़ाए बिना मनुष्य और प्रकृति का योगक्षेम सम्भव नहीं है।
इस विनाशकारी विकास से चिन्तित अनेक पाश्चात्य विद्वान हिन्दू और बौद्ध धर्मों में प्रतिपादित सनातन सिद्धान्तों की ओर आकृष्ट हुए हैं। फ्रिथजॉफ कापरा जैसे भौतिकशास्त्री डेकार्ट और न्यूटन के वैज्ञानिक बुद्धिवाद में पर्यावरण-संकट के बीज देखते हैं और ब्रह्माण्ड की धार्मिक दृष्टि की ओर प्रत्यावर्तन का आग्रह करते है। एरिक फ्राम पर्यावरण-संकट का मूल कारण 'आत्म-बोध' (Being) की अपेक्षा प्राप्ति/उपलब्धि (Having) को वरीयता देने की आधुनिक प्रवृत्ति को मानते हैं। शूमाकर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'स्माल इज ब्यूटीफुल' में बौद्ध परम्परा में प्रतिपादित 'सम्यक् आजीव' (Right Livelihood) की महत्ता व प्रासंगिकता को रेखांकित किया है। आधुनिक अर्थशास्त्र व्यक्ति को आर्थिक प्राणी (Economic Man) और उपयोगिता का संवर्धन करने वाला प्राणी (Utility Maximizer) मानता है। परन्तु शूमाकर इस दृष्टिकोण को अस्वीकार करते हैं और योगमूलक भोग में मनुष्य व समाज का कल्याण मानते हैं। धन नहीं, धन की आसक्ति त्याज्य है। भौतिक सुखों का परिसीमन अपेक्षित है, और यह तभी सम्भव है जब आत्मिक-नैतिक आनन्द को श्रेष्ठतर व श्रेयस्कर माना जाए। सम्यक् अर्थशास्त्र मनुष्य का चतुर्दिक कल्याण करता है, उसे धनपिशाच नहीं बनाता।
पूर्व के विवेचन में राष्ट्रीयता के उभार की चर्चा की गई। लेकिन आधुनिक विश्व में राष्ट्रवाद का आक्रमक और विध्वंसक रूप भी बार-बार प्रकट हुआ है। ऐसा उग्र राष्ट्रवाद, चाहे उसका आधार धर्म हो, प्रजातीयता हो अथवा भाषा हो, मानवता के लिए एक खतरा बनकर ही उभरा है। इसी उग्र/अंध राष्ट्रवाद ने २०वीं सदी में दो भयावह महायुद्धों को जन्म दिया और यही छद्म राष्ट्रवाद समकालीन विश्व में आतंकवाद के रूप में विनाश का कारण बना हुआ है। शीत-युद्धोत्तर काल में कतिपय राज्येतर संगठन (Non-State Actors) अशान्ति व अस्थिरता के नए स्रोतों के रूप में उभरे, और आतंक उनका नया हथियार बन गया । राज्यों द्वारा आतंक को एक प्रभावी हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के अनेक उदाहरण आधुनिक यूरोप के इतिहास में उपलब्ध हैं। १७८९ की फ्रांस की क्रान्ति के उपरान्त राब्सपीयरे ने 'आतंक का राज्य' स्थापित कर क्रान्ति-विरोधी शक्तियों का मुकाबला किया, १९१७ की रूसी क्रान्ति के उपरान्त स्टालिन ने भी यही किया और जर्मनी में हिटलर, इटली में मुसोलिनी व स्पेन में जनरल फ्रांको ने भी आतंक के बलबूते अपने सर्वाधिकारवादी शासन का संचालन किया। परन्तु राज्येतर संगठनों द्वारा अपने राजनीतिक, प्रजातीय अथवा धार्मिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु आतंक का इस्तेमाल एक भिन्न परिदृश्य उपस्थित करता है। समकालीन वैश्विक राजनीति धार्मिक आतंकवाद से त्रस्त है। इस्लाम के नाम पर अल-कायदा, तालिबान, हिजबुल्लाह, आईएसआईएस आदि संगठन गैर-इस्लामी व्यवस्थाओं के लिए गम्भीर चुनौती बन चुके हैं। वे इस्लाम की अपनी व्याख्या को आधिकारिक और प्रामाणिक मानते हैं और ऐसे इस्लामी देशों को भी नेस्तनाबूद करना चाहते हैं जो उनकी व्याख्या से असहमत हैं। यदि वैश्विकरण अमेरिका द्वारा प्रायोजित नव-साम्राज्यवाद है तो ये राज्येतर आतंकवादी संगठन इस्लामी साम्राज्यवाद के प्रवर्तक बन चुके हैं और सम्पूर्ण विश्व-व्यवस्था को अपनी छवि में गढ़ना चाहते हैं।
समकालीन उत्तर-आधुनिक राजनीति भी दिग्भ्रान्ति की उसी प्रकार से शिकार है जिस प्रकार आधुनिक राजनीति रही है। उत्तर-आधुनिकता के प्रभाव से आधुनिकता के वृहत्वृत्तान्तों (Meta-narratives) के प्रति तो सन्देह व अविश्वास के भाव की वृद्धि हुई है परन्तु उत्तर-आधुनिक राजनीति के पास कोई सम्यक् विचार-दृष्टि हो, ऐसा भी नजर नहीं आता । वस्तुतः, सापेक्षता (Relativism) और विशिष्टता (Particularism) के नए नारे गढ़कर राजनीति को कोई दिशा बोध नहीं मिल जाता। नए टुकड़ों को जोड़कर किसी साकल्यवादी दृष्टि की रचना नहीं हो जाती । आवश्यकता आधुनिक राजनीतिक प्रवाहों के मूल-सूत्रों (First Principles) पर विचार करने की है, राजनीति के सनातन संदर्भो की ओर प्रतिगमन करने की है । राजनीतिक प्रश्नों व समस्याओं का समाधान राजनीति से परे जाकर ही सम्भव है; आज हमें राजनीतिज्ञों व अर्थशास्त्रियों से अधिक तत्त्वदर्शियों की आवश्यकता है- क्या हम वह स्वीकार करने को तैयार हैं? धर्म से स्वतंत्र और नीति से विलग राजनीति कभी समाज के अभ्युदय का हेतु नहीं हो सकती । इस संदर्भ में राम-रावण युद्ध का एक प्रसंग अत्यन्त शिक्षाप्रद है । जब भगवान श्रीराम लंका की युद्धभूमि में बिना रथ के पहुंचे तो विभीषण अत्यन्त चिन्ताग्रस्त हो गए और अधीर होकर बोले कि आपके पास न रथ है, न कवच है, न जूते हैं; आप इस बलवान शत्रु को कैसे जीत सकेंगे? इस पर श्रीराम ने कहा कि जिससे विजय प्राप्त होती है वह रथ दूसरा ही है - वह रथ धर्ममय है।
सुनहु सखा कह कृपानिधाना।
जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना ।।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका ।
सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका ।।
बल विवेक दम परहित घोरे ।
छमा कृपा समता रजु जोरे ।।
ईस भजनु सारथी सुजाना।
विरति चर्म सन्तोष कृपाना ।।
दान परसु बुधि शक्ति प्रचंडा।
बर बिग्यान कठिन कोदंडा ।।
अमल अचल मन त्रोन समाना।
सम जम नियम सिलीमुख नाना ।।
कवच अभेद विप्र गुरु पूजा ।
एहि सम विजय उपाय न दूजा ।।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें।
जीतन कहँ न कहतु रिपु तार्के।।
किसी भी देश, समाज और व्यक्ति का उत्थान और पतन धर्म व नीति के पालन अथवा उल्लंघन पर ही निर्भर करता है । संरचनाओं व विचार-प्रवाहों का प्राण-तत्त्व यही है। आज के राजनीतिक चिन्तन, आज की राजनीतिक संस्थाओं को इस प्राण-वायु की अतीव आवश्यकता है।
References
धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५): पर्व २: अध्याय १८, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे