Difference between revisions of "विद्यालय की भौतिक व्यवस्थाएँ"
m (Text replacement - "अभारतीय" to "अधार्मिक") |
m (Text replacement - "भारतीय" to "धार्मिक") Tags: Mobile edit Mobile web edit |
||
Line 6: | Line 6: | ||
=== विद्यालय की भौतिक एवं आर्थिक व्यवस्थाएँ === | === विद्यालय की भौतिक एवं आर्थिक व्यवस्थाएँ === | ||
− | शिक्षा का भौतिकीकरण यह आज की समस्या है । भौतिक पक्ष सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बन जाते हैं और प्राणवान प्रक्रियाओं और तत्त्वों को भी अपने ही जैसा जड बनाने का प्रयास करते हैं । इस तथ्य को लेकर आज सब त्रस्त हो गये हैं । | + | शिक्षा का भौतिकीकरण यह आज की समस्या है । भौतिक पक्ष सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बन जाते हैं और प्राणवान प्रक्रियाओं और तत्त्वों को भी अपने ही जैसा जड बनाने का प्रयास करते हैं । इस तथ्य को लेकर आज सब त्रस्त हो गये हैं । धार्मिक मानस शिक्षा को जिस रूप में समझता है, जिस रूप की अपेक्षा करता है इससे यह वर्तमान स्थिति सर्वथा विपरीत है । आवश्यकता है शिक्षा का प्राणतत्त्व कैसे बलवान बने इसका विचार करने की । इसके लिये हमें भौतिक व्यवस्थाओं को भी शैक्षिक दृष्टि से देखना होगा । भौतिक |
व्यवस्थाओं को शैक्षिक प्रक्रियाओं से अलग कर उनका स्वतन्त्र विचार करने से बात नहीं बनेगी । भौतिक व्यवस्थाओं का शैक्षिक दृष्टि से निरूपण करने का प्रयास इस पर्व में किया गया है । | व्यवस्थाओं को शैक्षिक प्रक्रियाओं से अलग कर उनका स्वतन्त्र विचार करने से बात नहीं बनेगी । भौतिक व्यवस्थाओं का शैक्षिक दृष्टि से निरूपण करने का प्रयास इस पर्व में किया गया है । | ||
Line 120: | Line 120: | ||
शोध कहते हैं कि सीधी सपाट छत वाले कमरे में रखी खाद्य वस्तु बहुत जल्दी खराब हो जाती है, जबकि पिरामिड आकार वाले कमरे में रखी खाद्य वस्तु अधिक समय तक खराब नहीं होती। | शोध कहते हैं कि सीधी सपाट छत वाले कमरे में रखी खाद्य वस्तु बहुत जल्दी खराब हो जाती है, जबकि पिरामिड आकार वाले कमरे में रखी खाद्य वस्तु अधिक समय तक खराब नहीं होती। | ||
− | ==== (१०) विद्यालय में ध्वनि व्यवस्था | + | ==== (१०) विद्यालय में ध्वनि व्यवस्था धार्मिक शिल्पशास्त्रानुसार हो ==== |
आज के भवनों में निर्माण के समय ध्वनि शास्त्र का विचार नहीं किया जाता । निर्माण पूर्ण होने के पश्चात् उसे ध्वनि रोधी (ड्रीपव झीष) बनाया जाता है। ऐसा करने से समय, शक्ति व आर्थिक व्यय अतिरिक्त लगता है। | आज के भवनों में निर्माण के समय ध्वनि शास्त्र का विचार नहीं किया जाता । निर्माण पूर्ण होने के पश्चात् उसे ध्वनि रोधी (ड्रीपव झीष) बनाया जाता है। ऐसा करने से समय, शक्ति व आर्थिक व्यय अतिरिक्त लगता है। | ||
Line 168: | Line 168: | ||
४. विद्यालय भवन की दीवारें कोरी-रोती हुई न हों, वरन् चित्रों से, सुभाषितों से, जानकारियों से भरी हुईं अर्थात् हँसती हुई होनी चाहिए । | ४. विद्यालय भवन की दीवारें कोरी-रोती हुई न हों, वरन् चित्रों से, सुभाषितों से, जानकारियों से भरी हुईं अर्थात् हँसती हुई होनी चाहिए । | ||
− | निष्कर्ष : विद्यालय की सम्पूर्ण व्यवस्थाएँ एवं वातावरण में | + | निष्कर्ष : विद्यालय की सम्पूर्ण व्यवस्थाएँ एवं वातावरण में धार्मिक संस्कृति एवं आध्यात्मिकता झलकनी |
चाहिए । विद्यालय भवन की वास्तुकला, साज-सज्जा, | चाहिए । विद्यालय भवन की वास्तुकला, साज-सज्जा, | ||
शिष्टाचार, भाषा, रीति-नीति, पर्म्पराएँ, छात्रों एवं शिक्षकों | शिष्टाचार, भाषा, रीति-नीति, पर्म्पराएँ, छात्रों एवं शिक्षकों | ||
− | की वेशभूषा व्यवहार आदि | + | की वेशभूषा व्यवहार आदि धार्मिक संस्कृति से ओत-प्रोत |
चाहिए । वातावरण में छात्र यह अनुभूति करें कि वे महान | चाहिए । वातावरण में छात्र यह अनुभूति करें कि वे महान | ||
ऋषियों की सन्तान हैं, उनकी संस्कृति एवं परम्परा महान | ऋषियों की सन्तान हैं, उनकी संस्कृति एवं परम्परा महान | ||
हैं तथा वे भारतमाता के अमृत पुत्र हैं। वर्तमान में | हैं तथा वे भारतमाता के अमृत पुत्र हैं। वर्तमान में | ||
− | + | धार्मिक जीवन पर पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता का प्रभाव | |
बढ़ रहा है। ऐसे में विद्यालय की व्यवस्थाओं और | बढ़ रहा है। ऐसे में विद्यालय की व्यवस्थाओं और | ||
− | वातावरण से | + | वातावरण से धार्मिक संस्कृति के सहज संस्कार छात्रों को |
मिलना परम आवश्यक है । | मिलना परम आवश्यक है । | ||
Line 256: | Line 256: | ||
विद्यालय भवन का वातावरण और बनावट सरस्वती के मन्दिर का ही होना चाहिए । इस भाव को व्यक्त करते हुए भवन में मन्दिर भी होना चाहिए । | विद्यालय भवन का वातावरण और बनावट सरस्वती के मन्दिर का ही होना चाहिए । इस भाव को व्यक्त करते हुए भवन में मन्दिर भी होना चाहिए । | ||
− | + | धार्मिक शिक्षा की संकल्पना का मूर्त रूप विद्यालय है और उसका एक अंग भवन है । विद्यालय में विविध विषयों के माध्यम से जो सिद्धांत, व्यवहार, परंपरा आदि की बातें होती हैं वे सब विद्यालय के भवन में दिखाई देनी चाहिए । भवन स्वयं शिक्षा का माध्यम बनाना चाहिए । | |
=== विद्यालय का कक्षाकक्ष === | === विद्यालय का कक्षाकक्ष === | ||
Line 304: | Line 304: | ||
भवन निर्माण के समय शिक्षकों की कोई भूमिका नहीं रहती, वे तो मात्र इतना चाहते हैं कि सभी व्यवस्थाओं से | भवन निर्माण के समय शिक्षकों की कोई भूमिका नहीं रहती, वे तो मात्र इतना चाहते हैं कि सभी व्यवस्थाओं से | ||
− | युक्त बना बनाया कक्ष उन्हें मिल जाय । संस्थाचालक ही सभी निर्णय करते हैं । कक्षा का उपस्कर (फर्निचर) भी संस्था चालकों की आर्थिक स्थिति व उनकी पसन्द का ही होता है । बड़े छात्रों के लिए डेस्क व बेंच अथवा टेबल व कुर्सी और छोटे छात्रों के लिए नीचे जमीन पर बैठने की व्यवस्था में शैक्षिक चिन्तन का अभाव ही दिखाई देता है । कम आयु या छोटी कक्षाओं के लिए अलग व्यवस्था तथा बड़ी आयु या बड़ी कक्षाओं के छात्रों के लिए अलग व्यवस्था करने के पीछे कोई तार्किक दृष्टि नहीं है। माध्यमिक कक्षाओं के छात्र भी | + | युक्त बना बनाया कक्ष उन्हें मिल जाय । संस्थाचालक ही सभी निर्णय करते हैं । कक्षा का उपस्कर (फर्निचर) भी संस्था चालकों की आर्थिक स्थिति व उनकी पसन्द का ही होता है । बड़े छात्रों के लिए डेस्क व बेंच अथवा टेबल व कुर्सी और छोटे छात्रों के लिए नीचे जमीन पर बैठने की व्यवस्था में शैक्षिक चिन्तन का अभाव ही दिखाई देता है । कम आयु या छोटी कक्षाओं के लिए अलग व्यवस्था तथा बड़ी आयु या बड़ी कक्षाओं के छात्रों के लिए अलग व्यवस्था करने के पीछे कोई तार्किक दृष्टि नहीं है। माध्यमिक कक्षाओं के छात्र भी धार्मिक बैठक व्यवस्था में अच्छा ज्ञानार्जन कर सकते हैं इसका आज्ञान है । |
पर्यावरण सुरक्षा हेतु प्लास्टिक का उपयोग वर्जित करने की बात किसी को भी ध्यान में नहीं आई । स्वच्छता हेतु प्रत्येक कक्षा के लिए स्वतन्त्र पायदान, कचरा पात्र तथा स्वच्छता सम्बन्धी आदतें यथा-चप्पल-जूते कक्षा के बाहर व्यवस्थित रखने की व्यवस्था आदि छोटी छोटी बातों को अब लोग भूलने लगे हैं । और संस्थाएँ विद्यालय की स्वच्छता बड़ी बड़ी सफाई कम्पनियों को ठेके पर दे रही हैं । ठेके पर देने के कारण छात्रों में स्वच्छता व पवित्रता के संस्कार नहीं बन पाते । पहले छात्रों को यह संस्कार दिया जाता था कि यह मेरी कक्षा है, मेरी कक्षा मुझे ज्ञानवान बनाने वाला पवित्र स्थान है, इसे स्वच्छ एवं पवित्र बनाये रखना यह मेरा दायित्व है । स्वच्छता का दायित्व बोध जाग्रत करना ही सच्ची शिक्षा है । | पर्यावरण सुरक्षा हेतु प्लास्टिक का उपयोग वर्जित करने की बात किसी को भी ध्यान में नहीं आई । स्वच्छता हेतु प्रत्येक कक्षा के लिए स्वतन्त्र पायदान, कचरा पात्र तथा स्वच्छता सम्बन्धी आदतें यथा-चप्पल-जूते कक्षा के बाहर व्यवस्थित रखने की व्यवस्था आदि छोटी छोटी बातों को अब लोग भूलने लगे हैं । और संस्थाएँ विद्यालय की स्वच्छता बड़ी बड़ी सफाई कम्पनियों को ठेके पर दे रही हैं । ठेके पर देने के कारण छात्रों में स्वच्छता व पवित्रता के संस्कार नहीं बन पाते । पहले छात्रों को यह संस्कार दिया जाता था कि यह मेरी कक्षा है, मेरी कक्षा मुझे ज्ञानवान बनाने वाला पवित्र स्थान है, इसे स्वच्छ एवं पवित्र बनाये रखना यह मेरा दायित्व है । स्वच्छता का दायित्व बोध जाग्रत करना ही सच्ची शिक्षा है । | ||
Line 337: | Line 337: | ||
क्या महाविद्यालय में विद्यार्थी भूमि पर बैठ सकते हैं ? सामने डेस्क रखकर बैठ सकते हैं ? क्या महाविद्यालय में विद्यार्थी जूते उतारकर बैठ सकते हैं ? हमें लगता है कि नहीं, इतने बडे विद्यार्थी नीचे कैसे बैठेंगे ? लाख रुपये कमाने वाले अध्यापक आसन पर बैठ कर व्याख्यान कैसे दे सकते हैं ? | क्या महाविद्यालय में विद्यार्थी भूमि पर बैठ सकते हैं ? सामने डेस्क रखकर बैठ सकते हैं ? क्या महाविद्यालय में विद्यार्थी जूते उतारकर बैठ सकते हैं ? हमें लगता है कि नहीं, इतने बडे विद्यार्थी नीचे कैसे बैठेंगे ? लाख रुपये कमाने वाले अध्यापक आसन पर बैठ कर व्याख्यान कैसे दे सकते हैं ? | ||
− | परन्तु हमारे तर्क का दोष हम नहीं देख सकते हैं क्या ? नीचे या ऊपर बैठने का आयु या दर्ज के साथ क्या सम्बन्ध है ? सम्बन्ध तो | + | परन्तु हमारे तर्क का दोष हम नहीं देख सकते हैं क्या ? नीचे या ऊपर बैठने का आयु या दर्ज के साथ क्या सम्बन्ध है ? सम्बन्ध तो धार्मिक और अधार्मिक होने का है ? क्या महाविद्यालय के विद्यार्थी और प्राध्यापक अधार्मिक हैं ? या सबके सब घुटने के दर्द से परेशान हैं ? या कभी ऐसा विचार ही नहीं किया हैं ? |
कक्षाकक्ष की ये तो तान्त्रिक बातें हुईं । कक्षाकक्ष का शैक्षिक अर्थ कया है ? | कक्षाकक्ष की ये तो तान्त्रिक बातें हुईं । कक्षाकक्ष का शैक्षिक अर्थ कया है ? | ||
Line 353: | Line 353: | ||
अध्ययन अध्यापन जिन्दा व्यक्तियों के द्वारा किया जाने वाला जीवमान कार्य है। इसी प्रकार से सारी रचनायें होना अपेक्षित है। | अध्ययन अध्यापन जिन्दा व्यक्तियों के द्वारा किया जाने वाला जीवमान कार्य है। इसी प्रकार से सारी रचनायें होना अपेक्षित है। | ||
− | + | धार्मिक शिक्षा की पुनर्रचना में यह भी एक महत्त्वपूर्ण आयाम है। | |
=== विद्यालयों में स्वच्छता === | === विद्यालयों में स्वच्छता === | ||
Line 388: | Line 388: | ||
स्वच्छता और पवित्रता में भी भिन्नता है । जो-जो पवित्र है वह स्वच्छ है । परन्तु जो जो स्वच्छ है, वह पवित्र होगा ही ऐसा आवश्यक नहीं है । विद्यालय में स्वच्छता बनाये रखने हेतु स्थान स्थान पर कूडादान रखने होंगे। सफाई करने के पर्याप्त साधन झाडू, बाल्टियाँ, पुराने कपड़े आदि विद्यालय में कक्षाशः अलग उपलब्ध होने चाहिए। जिस किसी छात्र या आचार्य को एक छोटा सा तिनका भी दिखाई दे वह तुरन्त उस तिनके को उठाकर कूड़ादान में डाले, ऐसी आदत सबकी बनानी चाहिए। कोई भी खिड़की से कचरा बाहर न फेंके, गन्दगी करने वाले छात्रों के नाम बताने के स्थान पर स्वच्छता रखने वाले छात्रों के नाम बताना उनको गौरवान्वित करना __ अधिक प्रेरणादायी होता है। | स्वच्छता और पवित्रता में भी भिन्नता है । जो-जो पवित्र है वह स्वच्छ है । परन्तु जो जो स्वच्छ है, वह पवित्र होगा ही ऐसा आवश्यक नहीं है । विद्यालय में स्वच्छता बनाये रखने हेतु स्थान स्थान पर कूडादान रखने होंगे। सफाई करने के पर्याप्त साधन झाडू, बाल्टियाँ, पुराने कपड़े आदि विद्यालय में कक्षाशः अलग उपलब्ध होने चाहिए। जिस किसी छात्र या आचार्य को एक छोटा सा तिनका भी दिखाई दे वह तुरन्त उस तिनके को उठाकर कूड़ादान में डाले, ऐसी आदत सबकी बनानी चाहिए। कोई भी खिड़की से कचरा बाहर न फेंके, गन्दगी करने वाले छात्रों के नाम बताने के स्थान पर स्वच्छता रखने वाले छात्रों के नाम बताना उनको गौरवान्वित करना __ अधिक प्रेरणादायी होता है। | ||
− | अनेक बार बड़े लोग विदेशों में स्वच्छता व भारत में गन्दगी का तुलनात्मक वर्णन बच्चों के सामने ऐसे शब्दों में बताते हैं कि जैसे | + | अनेक बार बड़े लोग विदेशों में स्वच्छता व भारत में गन्दगी का तुलनात्मक वर्णन बच्चों के सामने ऐसे शब्दों में बताते हैं कि जैसे धार्मिकों को गन्दगी ही पसन्द है, ये स्वच्छता के बारे में कुछ नहीं जानते । जैसे भारत में स्वच्छता को कोई महत्त्व ही नहीं है । ऐसा बोलने से अपने देश के प्रति हीनता बोध ही पनपता है, जो उचित नहीं है । भारत में तो सदैव से ही स्वच्छता का आचरण व व्यवहार रहा है। एक गृहिणी उठते ही सबसे पहले पूरे घर की सफाई करती है । घर के द्वार पर रंगोली बनाती है, पहले पानी छिड़कती है । ऐसी आदतें जिस देश के घर घर में हो भला वह भारत कभी स्वच्छता की अनदेखी कर सकता है ? केवल घर व शरीर की शुद्धि ही नहीं तो चित्त शुद्धि पर परम पद प्राप्त करने की इच्छा जन जन में थी, आज फिर से उसे जगाने की आवश्यकता है। |
==== स्वच्छता के सम्बन्ध में इस प्रकार विचार करना चाहिये... ==== | ==== स्वच्छता के सम्बन्ध में इस प्रकार विचार करना चाहिये... ==== | ||
− | * सार्वजनिक स्थानों को स्वच्छ नहीं रखना यह आज के समय का सामान्य प्रचलन हो गया है। इसका कारण जरा व्यापक और दूरवर्ती है । अंग्रेजों के भारत की सत्ता के अधिग्रहण से पूर्व | + | * सार्वजनिक स्थानों को स्वच्छ नहीं रखना यह आज के समय का सामान्य प्रचलन हो गया है। इसका कारण जरा व्यापक और दूरवर्ती है । अंग्रेजों के भारत की सत्ता के अधिग्रहण से पूर्व धार्मिक समाज स्वायत्त था। स्वायत्तता का एक लक्षण स्वयंप्रेरणा से सामाजिक दायित्वों का निर्वाहण करने का भी था । परन्तु अंग्रेजों ने सत्ता ग्रहण कर लेने के बाद समाज धीरे धीरे शासन के अधीन होता गया। इस नई व्यवस्था में ज़िम्मेदारी सरकार की और काम समाज का ऐसा विभाजन हो गया। सरकार जिम्मेदार थी परन्तु स्वयं काम करने के स्थान पर काम करवाती थी । जो काम करता था उसका अधिकार नहीं था, जिसका अधिकार था वह काम नहीं करता था । धीरे धीरे काम करना हेय और करवाना श्रेष्ठ माना जाने लगा । आज ऐसी व्यवस्था में हम जी रहे हैं । यह व्यवस्था हमारी सभी रचनाओं में दिखाई देती है। |
* विद्यालय की स्वच्छता विद्यालय के आचार्यों और छात्रों के नित्यकार्य का अंग बनाना चाहिए क्योंकि यह शिक्षा का ही क्रियात्मक अंग है। आज ऐसा माना नहीं जाता है । आज यह सफाई कर्मचारियों का काम माना जाता है और पैसे देकर करवाया जाता है। छात्र या आचार्य इसे अपने लायक नहीं मानते हैं। इससे ऐसी मानसिकता पनपती है कि अच्छे पढेलिखे और अच्छी कमाई करने वाले स्वच्छताकार्य करेंगे नहीं। समय न हो और अन्य लोग करने वाले हो और किसीको स्वच्छताकार्य न करना पड़े यह अलग विषय है परन्तु पढेलिखे हैं और प्रतिष्ठित लोग ऐसा काम नहीं करते यह मानसिकता अलग विषय है। प्रायोगिक शिक्षा का यह अंग बनने की आवश्यकता है। | * विद्यालय की स्वच्छता विद्यालय के आचार्यों और छात्रों के नित्यकार्य का अंग बनाना चाहिए क्योंकि यह शिक्षा का ही क्रियात्मक अंग है। आज ऐसा माना नहीं जाता है । आज यह सफाई कर्मचारियों का काम माना जाता है और पैसे देकर करवाया जाता है। छात्र या आचार्य इसे अपने लायक नहीं मानते हैं। इससे ऐसी मानसिकता पनपती है कि अच्छे पढेलिखे और अच्छी कमाई करने वाले स्वच्छताकार्य करेंगे नहीं। समय न हो और अन्य लोग करने वाले हो और किसीको स्वच्छताकार्य न करना पड़े यह अलग विषय है परन्तु पढेलिखे हैं और प्रतिष्ठित लोग ऐसा काम नहीं करते यह मानसिकता अलग विषय है। प्रायोगिक शिक्षा का यह अंग बनने की आवश्यकता है। | ||
* स्वच्छता स्वभाव बने यह भी शिक्षा का आवश्यक अंग है। आजकल इस विषय में भी विपरीत अवस्था है। सार्वजनिक स्थानों पर, मार्गों पर, कार्यालयों में कचरा जमा होना और दिनों तक उसे उठाया नहीं जाना सहज बन गया है। आने जाने वाले लोगों को, वहीं पर काम करने वाले लोगों को इससे परेशानी भी नहीं होती है। इस स्वभाव को बदलना शिक्षा का विषय बनाना चाहिये । इसे बदले बिना यदि स्वच्छता का काम किया भी तो वह केवल विवशता से अथवा अंकों के लिए होगा, करना चाहिये इसलिए नहीं होगा। | * स्वच्छता स्वभाव बने यह भी शिक्षा का आवश्यक अंग है। आजकल इस विषय में भी विपरीत अवस्था है। सार्वजनिक स्थानों पर, मार्गों पर, कार्यालयों में कचरा जमा होना और दिनों तक उसे उठाया नहीं जाना सहज बन गया है। आने जाने वाले लोगों को, वहीं पर काम करने वाले लोगों को इससे परेशानी भी नहीं होती है। इस स्वभाव को बदलना शिक्षा का विषय बनाना चाहिये । इसे बदले बिना यदि स्वच्छता का काम किया भी तो वह केवल विवशता से अथवा अंकों के लिए होगा, करना चाहिये इसलिए नहीं होगा। | ||
Line 430: | Line 430: | ||
स्वच्छता और पवित्रता में भी भिन्नता है । जो-जो पवित्र है वह स्वच्छ है । परन्तु जो जो स्वच्छ है, वह पवित्र होगा ही ऐसा आवश्यक नहीं है । विद्यालय में स्वच्छता बनाये रखने हेतु स्थान स्थान पर कूडादान रखने होंगे। सफाई करने के पर्याप्त साधन झाडू, बाल्टियाँ, पुराने कपड़े आदि विद्यालय में कक्षाशः अलग उपलब्ध होने चाहिए। जिस किसी छात्र या आचार्य को एक छोटा सा तिनका भी दिखाई दे वह तुरन्त उस तिनके को उठाकर कूड़ादान में डाले, ऐसी आदत सबकी बनानी चाहिए। कोई भी खिड़की से कचरा बाहर न फेंके, गन्दगी करने वाले छात्रों के नाम बताने के स्थान पर स्वच्छता रखने वाले छात्रों के नाम बताना उनको गौरवान्वित करना __ अधिक प्रेरणादायी होता है। | स्वच्छता और पवित्रता में भी भिन्नता है । जो-जो पवित्र है वह स्वच्छ है । परन्तु जो जो स्वच्छ है, वह पवित्र होगा ही ऐसा आवश्यक नहीं है । विद्यालय में स्वच्छता बनाये रखने हेतु स्थान स्थान पर कूडादान रखने होंगे। सफाई करने के पर्याप्त साधन झाडू, बाल्टियाँ, पुराने कपड़े आदि विद्यालय में कक्षाशः अलग उपलब्ध होने चाहिए। जिस किसी छात्र या आचार्य को एक छोटा सा तिनका भी दिखाई दे वह तुरन्त उस तिनके को उठाकर कूड़ादान में डाले, ऐसी आदत सबकी बनानी चाहिए। कोई भी खिड़की से कचरा बाहर न फेंके, गन्दगी करने वाले छात्रों के नाम बताने के स्थान पर स्वच्छता रखने वाले छात्रों के नाम बताना उनको गौरवान्वित करना __ अधिक प्रेरणादायी होता है। | ||
− | अनेक बार बड़े लोग विदेशों में स्वच्छता व भारत में गन्दगी का तुलनात्मक वर्णन बच्चों के सामने ऐसे शब्दों में बताते हैं कि जैसे | + | अनेक बार बड़े लोग विदेशों में स्वच्छता व भारत में गन्दगी का तुलनात्मक वर्णन बच्चों के सामने ऐसे शब्दों में बताते हैं कि जैसे धार्मिकों को गन्दगी ही पसन्द है, ये स्वच्छता के बारे में कुछ नहीं जानते । जैसे भारत में स्वच्छता को कोई महत्त्व ही नहीं है । ऐसा बोलने से अपने देश के प्रति हीनता बोध ही पनपता है, जो उचित नहीं है । भारत में तो सदैव से ही स्वच्छता का आचरण व व्यवहार रहा है। एक गृहिणी उठते ही सबसे पहले पूरे घर की सफाई करती है । घर के द्वार पर रंगोली बनाती है, पहले पानी छिड़कती है । ऐसी आदतें जिस देश के घर घर में हो भला वह भारत कभी स्वच्छता की अनदेखी कर सकता है ? केवल घर व शरीर की शुद्धि ही नहीं तो चित्त शुद्धि पर परम पद प्राप्त करने की इच्छा जन जन में थी, आज फिर से उसे जगाने की आवश्यकता है। |
==== स्वच्छता के सम्बन्ध में इस प्रकार विचार करना चाहिये... ==== | ==== स्वच्छता के सम्बन्ध में इस प्रकार विचार करना चाहिये... ==== | ||
− | * सार्वजनिक स्थानों को स्वच्छ नहीं रखना यह आज के समय का सामान्य प्रचलन हो गया है । इसका कारण जरा व्यापक और दूरवर्ती है। अंग्रेजों के भारत की सत्ता के अधिग्रहण से पूर्व | + | * सार्वजनिक स्थानों को स्वच्छ नहीं रखना यह आज के समय का सामान्य प्रचलन हो गया है । इसका कारण जरा व्यापक और दूरवर्ती है। अंग्रेजों के भारत की सत्ता के अधिग्रहण से पूर्व धार्मिक समाज स्वायत्त था। स्वायत्तता का एक लक्षण स्वयंप्रेरणा से सामाजिक दायित्वों का निर्वाहण करने का भी था । परन्तु अंग्रेजों ने सत्ता ग्रहण कर लेने के बाद समाज धीरे धीरे शासन के अधीन होता गया। इस नई व्यवस्था में ज़िम्मेदारी सरकार की और काम समाज का ऐसा विभाजन हो गया। सरकार जिम्मेदार थी परन्तु स्वयं काम करने के स्थान पर काम करवाती थी । जो काम करता था उसका अधिकार नहीं था, जिसका अधिकार था वह काम नहीं करता था । धीरे धीरे काम करना हेय और करवाना श्रेष्ठ माना जाने लगा। आज ऐसी व्यवस्था में हम जी रहे हैं । यह व्यवस्था हमारी सभी रचनाओं में दिखाई देती है। |
* विद्यालय की स्वच्छता विद्यालय के आचार्यों और छात्रों के नित्यकार्य का अंग बनाना चाहिए क्योंकि यह शिक्षा का ही क्रियात्मक अंग है। आज ऐसा माना नहीं जाता है । आज यह सफाई कर्मचारियों का काम माना जाता है और पैसे देकर करवाया जाता है। छात्र या आचार्य इसे अपने लायक नहीं मानते हैं। इससे ऐसी मानसिकता पनपती है कि अच्छे पढेलिखे और अच्छी कमाई करने वाले स्वच्छताकार्य करेंगे नहीं। समय न हो और अन्य लोग करने वाले हो और किसीको स्वच्छताकार्य न करना पड़े यह अलग विषय है परन्तु पढेलिखे हैं और प्रतिष्ठित लोग ऐसा काम नहीं करते यह मानसिकता अलग विषय है। प्रायोगिक शिक्षा का यह अंग बनने की आवश्यकता है। | * विद्यालय की स्वच्छता विद्यालय के आचार्यों और छात्रों के नित्यकार्य का अंग बनाना चाहिए क्योंकि यह शिक्षा का ही क्रियात्मक अंग है। आज ऐसा माना नहीं जाता है । आज यह सफाई कर्मचारियों का काम माना जाता है और पैसे देकर करवाया जाता है। छात्र या आचार्य इसे अपने लायक नहीं मानते हैं। इससे ऐसी मानसिकता पनपती है कि अच्छे पढेलिखे और अच्छी कमाई करने वाले स्वच्छताकार्य करेंगे नहीं। समय न हो और अन्य लोग करने वाले हो और किसीको स्वच्छताकार्य न करना पड़े यह अलग विषय है परन्तु पढेलिखे हैं और प्रतिष्ठित लोग ऐसा काम नहीं करते यह मानसिकता अलग विषय है। प्रायोगिक शिक्षा का यह अंग बनने की आवश्यकता है। | ||
* स्वच्छता स्वभाव बने यह भी शिक्षा का आवश्यक अंग है। आजकल इस विषय में भी विपरीत अवस्था है। सार्वजनिक स्थानों पर, मार्गों पर,कार्यालयों में कचरा जमा होना और दिनों तक उसे उठाया नहीं जाना सहज बन गया है। आने जाने वाले लोगों को, वहीं पर काम करने वाले लोगों को इससे परेशानी भी नहीं होती है। इस स्वभाव को बदलना शिक्षा का विषय बनाना चाहिये । इसे बदले बिना यदि स्वच्छता का काम किया भी तो वह केवल विवशता से अथवा अंकों के लिए होगा, करना चाहिये इसलिए नहीं होगा। | * स्वच्छता स्वभाव बने यह भी शिक्षा का आवश्यक अंग है। आजकल इस विषय में भी विपरीत अवस्था है। सार्वजनिक स्थानों पर, मार्गों पर,कार्यालयों में कचरा जमा होना और दिनों तक उसे उठाया नहीं जाना सहज बन गया है। आने जाने वाले लोगों को, वहीं पर काम करने वाले लोगों को इससे परेशानी भी नहीं होती है। इस स्वभाव को बदलना शिक्षा का विषय बनाना चाहिये । इसे बदले बिना यदि स्वच्छता का काम किया भी तो वह केवल विवशता से अथवा अंकों के लिए होगा, करना चाहिये इसलिए नहीं होगा। | ||
Line 586: | Line 586: | ||
==References== | ==References== | ||
− | <references /> | + | <references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे |
− | [[Category:Bhartiya Shiksha Granthmala( | + | [[Category:Bhartiya Shiksha Granthmala(धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला)]] |
[[Category:Education Series]] | [[Category:Education Series]] | ||
− | [[Category: | + | [[Category:धार्मिक शिक्षा : धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम]] |
Revision as of 14:34, 18 June 2020
This article needs editing.
Add and improvise the content from reliable sources. |
This article relies largely or entirely upon a single source. |
पर्व ४
विद्यालय की भौतिक एवं आर्थिक व्यवस्थाएँ
शिक्षा का भौतिकीकरण यह आज की समस्या है । भौतिक पक्ष सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बन जाते हैं और प्राणवान प्रक्रियाओं और तत्त्वों को भी अपने ही जैसा जड बनाने का प्रयास करते हैं । इस तथ्य को लेकर आज सब त्रस्त हो गये हैं । धार्मिक मानस शिक्षा को जिस रूप में समझता है, जिस रूप की अपेक्षा करता है इससे यह वर्तमान स्थिति सर्वथा विपरीत है । आवश्यकता है शिक्षा का प्राणतत्त्व कैसे बलवान बने इसका विचार करने की । इसके लिये हमें भौतिक व्यवस्थाओं को भी शैक्षिक दृष्टि से देखना होगा । भौतिक व्यवस्थाओं को शैक्षिक प्रक्रियाओं से अलग कर उनका स्वतन्त्र विचार करने से बात नहीं बनेगी । भौतिक व्यवस्थाओं का शैक्षिक दृष्टि से निरूपण करने का प्रयास इस पर्व में किया गया है ।
शिक्षा जिसका नियमन करती है ऐसे अर्थ ने स्वयं शिक्षा को ही कैसे जकड लिया है इसका विचार करने पर स्थिति अत्यन्त विषम है यह बात ध्यान में आती है । अतः शिक्षा को प्रथम तो अर्थ के नियमन से मुक्त करना होगा, बाद में वह मुक्ति का मार्ग दिखायेगी । अर्थ के चंगुल से शिक्षा को कैसे मुक्त किया जा सकता है इसका विचार यहाँ किया गया है । इस विचार को अधिक मुखर, अधिक व्यापक बनाने की आवश्यकता है इसका भी संकेत किया गया है ।
अनुक्रमणिका
१३. विद्यालय की भौतिक व्यवस्थाएँ
१४. विद्यालय की आर्थिक व्यवस्थाएँ
१५. सम्पूर्ण शिक्षा क्षेत्र का विचार
विद्यालय की भौतिक व्यवस्थाएँ
विद्यालय की भौतिक व्यवस्थाएँ एवं वातावरण
(१) विद्यालय सरस्वती का पावन मंदिर है
विद्यालय ईंट और गारे का बना हुआ भवन नहीं है, विद्यालय आध्यात्मिक संगठन है । विद्यालय पतित्र मन्दिर है, जहाँ विद्या की देवी सरस्वती की निरन्तर आराधना होती है । विद्यालय साधनास्थली है, जहाँ चरित्र का विकास होता है । विद्यालय ज्ञान-विज्ञान, कला और संस्कृति का गतिशील केन्द्र है, जो समाज में जीवनीशक्ति का संचार करता है ।
(२) विद्यालय परिसर प्रकृति की गोद में हो
सरस्वती के पावन मंदिर की अवधारणा गुरुकुलों, आश्रमों एवं प्राचीन विश्व विद्यालयों में पुष्पित एवं पट्लवित होती थी । ये विद्याकेन्द्र नगरों से दूर वन में नदी या जलाशय के समीप स्थापित किये जाते थे, जिससे नगरों का कोलाहल और कुप्रभाव छात्रों को प्रभावित न कर सके ।
आकाश, अग्नि, वायु, जल तथा मिट्टी इन पंचमहाभूतों से बने जगत को ध्यान पूर्वक देखना तथा उसके महत्त्व को समझना ही वास्तविक शिक्षा है । ऐसी शिक्षा नगरों के अप्राकृतिक वातावरण में स्थित विद्यालयों में नहीं दी जा सकती । अतः हम आदर्श विद्यालय स्थापित करना चाहते हैं तो हमें प्रकृति माता की गोद में खुले आकाश के नीचे, विशाल मैदान में, वृक्षों के मध्य उसका प्रबन्ध करना चाहिये ।
सांख्यदर्शन के अनुसार, “गुरु अथवा आचार्य को भवन या मठ आदि बनाने के चक्कर में न पड़कर प्रकृति एवं जंगल, नदीतट या समाज का कोई स्थान चुनकर शिक्षण कार्य करना चाहिए । इसी प्रकार योगदर्शन कहता है कि विद्यालय गुरुगृह ही होता था । योग दर्शन के आचार्य शान्त, एकान्त, प्राकृतिक स्थानों पर रहते थे । उनके आश्रम ही विद्यालय कहे जा सकते हैं ।
(३) चार दीवारी के विद्यालय कल कारखाने हैं
प्रकृति माता की गोद से वंचित और अंग्रेजी दासता के प्रतीक चार दीवारों के भीतर स्थापित विद्यालयों को शान्तिनिकेतन के जन्मदाता रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कारखाना कहा है । वे इनका सजीव चित्रण कहते हुए कहते हैं, “हम विद्यालयों को शिक्षा देने का कल या कारखाना समझते हैं । अध्यापक इस कारखाने के पुर्ज हैं । दस बजे घंटा बजाकर कारखाने खुलते हैं । अध्यापकों की जबान रूपी पुर्ज चलने लगते हैं । चार बजे कारखाने बन्द हो जाते हैं । अध्यापक भी पुर्ज रूपी अपनी जबान बन्द कर लेते हैं । उस समय छात्र भी इन पुर्जों की कटी-छटी दो चार पृष्ठों की शिक्षा लेकर अपने-अपने घरों को वापस चले जाते हैं ।'
विदेशों में विद्यालयों और महाविद्यालयों के साथ चलने वाले छात्रावासों की नकल हमारे देश में करने वालों के लिए वे कहते हैं कि इस प्रकार के विद्यालयों को एक प्रकार के पागलखाने, अस्पताल या बन्दीगृह ही समझना चाहिए ।
रवीन्ट्रनाथजी तो कहते हैं कि “शिक्षा के लिए अब भी हमें जंगलों और वनों की आवश्यकता है । समय के हेर फेर से स्थितियाँ चाहे कितनी ही क्यों न बदल जायें, परन्तु इस गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के लाभदायक सिद्ध होने में कदापि तनिक भी अन्तर नहीं पड़ सकता । कारण यह है कि यम नियम मनुष्य के चरित्र के अमर सत्य पर निर्भर हैं ।
(४) विद्यालयीन व्यवस्था शास्त्रानुसार हो
हमारे शास्त्रों ने किसी भी व्यवस्था के प्रमुख मार्गदर्शक सिद्धान्त बताएँ हैं । व्यवस्था निर्माण करते समय उन सिद्धान्तों का पालन अपेक्षित है :
(अ) व्यवस्था व्यक्ति के स्वास्थ्य का पोषण करने वाली हो ।
(आ) व्यवस्था पर्यावरण का संरक्षण करने वाली हो।
(इ) व्यवस्था कम से कम खर्चीली हो ।
(ई) व्यवस्था संस्कारक्षम हो ।
(उ) व्यवस्था सुविधापूर्ण हो ।
आजकल विद्यालयों की स्थापना के समय यूरोप व अमरीका के धनी देशों के कान्वेंट स्कूल हमारे सम्मुख आदर्श होते हैं । उनके मार्गदर्शक सिद्धान्त भिन्न होते हैं, वहाँ सुविधापूर्ण व्यवस्था पर सर्वाधिक बल रहता है । पैसा भले ही अधिकाधिक लगे। किन्तु व्यवस्था आधुनिक उपकरणों से युक्त उच्च स्तर की हो । ऐसे विद्यालयों में भवन, उपस्कर व आधुनिक उपकरणों में ७५ प्रतिशत अनावश्यक वस्तुएँ होती हैं । हम जितनी अधिक अनावश्यक वस्तुओं को आवश्यक और अनिवार्य बनाते जायेंगे उतनी ही अधिक हमारी शक्तियाँ व्यर्थ नष्ट होती रहेंगी । यही कारण है कि आज हमारी अधिकांश शक्ति विद्यालय भवन और फर्निचर की व्यवस्था में ही समाप्त हो जाती है । व्यक्ति का स्वास्थ्य और पर्यावरण संरक्षण के सिद्धान्त तो उनके पाठ्यक्रम से बाहर की बातें होती हैं ।
(५) विद्यालयीन व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु बालक
हमारे यहाँ विद्यालय बालक को शिक्षित करने का केन्द्र है, इसलिए विद्यालय का केन्द्र बिन्दु बालक है । उस बालक के लिए जैसी व्यवस्थाएँ होंगी, वैसा ही उसका निर्माण होगा । अत्यधिक सुविधापूर्ण व्यवस्थाएँ बालक को सुविधाभोगी ही बनायेंगी । अगर हम चाहते हैं कि हमारा बालक परिश्रमी हो, तपस्वी हो, साधक हो तथा उसमें तितिक्षा हो अर्थात् सर्दी, गर्मी, वर्षा, भूख- प्यास आदि को सहन करने की क्षमता हो, तो ऐसी व्यवस्था जिसमें उसको अपने हाथ से पानी की गिलास भी नहीं भरता हो तो वह योगी कैसे बनेगा, भोगी अवश्य बन जायेगा । अतः आवश्यक है कि व्यवस्थाएँ विद्यार्थी को केन्द्र में रखकर की जाय ।
(६) विद्यालय भवन निर्माण वास्तुशास्त्र के अनुसार हो
वास्तुशास्त्र कहता है कि भवन पूर्व तथा उत्तर में नीचा तथा पश्चिम व दक्षिण में ऊँचा होना चाहिए। मत्स्यपुराण के अनुसार दक्षिण दिशा में ऊँचा भवन मनुष्य की सब कामनाओं को पूर्ण करता है । ये बातें भी ध्यान में रखने योग्य हैं :
(क) भवन निर्माण में वास्तु के साथ साथ हवा एवं सूर्य प्रकाश की उपलब्धता का ध्यान रखा जाना चाहिए । जिस भवन में सूर्य किरण एवं वायु प्रवेश नहीं करतीं वह शुभ नहीं होता ।
(ख) हमारे जैसे गरम प्रदेशों में सिमेन्ट और लोहे का अत्यधिक प्रयोग. करके. बनाये. गये. भवन अस्वास्थ्यकर होते हैं ।
(ग) विद्यालय भवन में तड़कभड़क नहीं, स्वच्छता, सुन्दरता एवं पवित्रता होनी चाहिए ।
(घ) विद्यालय में पर्याप्त खुला मैदान हो, ताकि अवकाश के समय बालक खेलकूद सके ।
(ड) कक्षा कक्षों में हवादान (वेन्टीलेटर) होने चाहिए । खिड़कियाँ अधिक ऊँची नहीं होनी चाहिए ।
(च) भवन रचना का मन पर संस्कार एवं प्रभाव होता है।
(छ) हमारी सरकार केवल पक्के मकानों को ही मान्यता देती है, कच्चे को नहीं । लोहा व सिमेन्ट से बना मकान पक्का, इंट-गारे से बना कच्चा माना जाता है। पक्के की औसत आयु ३५-४० वर्ष जबकि कच्चे की औसत आयु ६५-७० वर्ष फिर भी बैंक कच्चे को मोर्टगेज नहीं करेगा । यह व्यवस्था का दोष है । स्वदेशी तकनीक की उपेक्षा और विदेशी. झुकी हो, प्रकाश बायीं ओर से पीछे तकनीक को प्रात्सहन देने के कारण हमारे कारीगर बेकार होते है और धीरे -धीरे स्वदेशी तकनीक लुप्त होती जाती है।
(७) कक्षा कक्ष में बैठक व्यवस्था योग के अनुसार हो
वर्तमान में कक्षा कक्ष में बिना उपस्कर नीचे बैठना गरीबी का सूचक बना दिया गया है। इसलिए दो तीन वर्ष के बालकों के लिए भी टेबल-कुर्सी अथवा डेस्क और बेंच की व्यवस्था है। भले ही वह उनके ज्ञानार्जन के प्रतिकूल है किन्तु विद्यालय को उच्च स्तर का बताने के लिए फर्नीचर आवश्यक हो गया है।
जबकि वास्तविकता यह है कि पढ़ते समय बालक के मस्तिष्क को उर्जा की अधिक आवश्यकता रहती है। टेबल-कुर्सी पर पैर लटका कर बैठने से वह ऊर्जा अधोगामी होकर पैरों के माध्यम से पृथ्वी में समा जाती है। इसलिए बालक अधिक समय तक नहीं पढ़ पाते, उनका सिर दुखने लगता है। ग्रहण शीलता कम हो जाती है। इसके स्थान पर बैठने की व्यवस्था नीचे करने पर बालक सिद्धासन या सुखासन में बैठता है तो दोनों पैरों में बंध लगने से उर्जा अधोगामी न होकर उर्ध्वगामी हो जाती है, जिससे बालक अधिक समय तक अध्ययन में लगा रहता है। मन एकाग्र रहता है और ग्रहणशीलता बनी रहती है। अर्थात् फर्नीचर पर पैर लटकाकर बैठना ज्ञानार्जन के प्रतिकूल है और सुखासन में नीचे बैठना ज्ञानार्जन के अनुकूल है । हमें चाहिए कि हम फर्नीचर के स्थान पर कक्षा कक्ष में कोमल सूती व मोटे आसन की व्यवस्था बालकों के लिए करें ।
बडी कक्षाओं में जहाँ फर्नीचर आवश्यक हो वहाँ भी हल्का फर्नीचर हो ताकि उसे आवश्यकता पड़ने पर समेट कर एक और रखा जा सके और कक्षा कक्ष में अन्य गतिविधियाँ या प्रयोग करवाये जा सके। अन्यथा भारी लोहे का फर्नीचर कक्षा में अन्य गतिविधियाँ करवाने में बाधक अधिक बनता है, साधक तो बिल्कुल नहीं । मेज की ऊपरी सतह सपाट न हो, तिरछी आगे की ओर
झुकी हो, प्रकाश बायीं ओर से पीछे से आता हो । श्यामपट्ट पूर्व दिशा की दीवार में हो जिससे विद्यार्थी पूर्वाभिमुख बैठ सके। गुरु का स्थान ऊपर व शिष्य का स्थान नीचे होना चाहिए ।
(८) विद्यालय में जल व्यवस्था स्वास्थ्य के अनुकूल हो
आजकल विद्यालयों में जल व्यवस्था का आधार वाटर कूलर बन गये हैं। वाटर कूलर का कोल्ड अथवा चिल्ड पानी बालकों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है ।
पानी पर हुए सभी शोध एवं हमारा अपना अनुभव यही सिद्ध करता है कि मिट्टी के घड़े का पानी सर्वाधिक शुद्ध एवं शीतल होता हैं । इसी जल से तृप्ति होती है। कोल्ड या चिल्ड पानी से प्यास नहीं बुझती।
इसी प्रकार आजकल प्लास्टिक बोतलों में पानी सर्वत्र सुलभ बना दिया गया है। हर कोई व्यक्ति यात्रा में इन बोतलों का पानी बिना विचार के पीता रहता है। जबकि शोध तो यह सिद्ध करते हैं कि मिट्टी के घड़े में रखा पानी ६ घंटों में किटाणु रहित होकर शुद्ध हो जाता है। तांबे के कलश में रखा पानी १२ घंटों मे किटाणु रहित होता है। काँच के बर्तन में रखा पानी जैसा है, वैसा ही रहता है परन्तु प्लास्टिक के बर्तन में रखे पानी में १२ घंटे बाद किटाणु नष्ट होने के स्थान पर वृद्धि कर लेते हैं।
इसलिए जल व्यवस्था आधुनिक उपकरणों एवं प्लास्टिक के बर्तनों के स्थान पर मिट्टी के घड़ो में ही करनी चाहिए । विद्यालयों में बहुत अच्छी प्याऊ बनानी चाहिए और वाटर कूलर हटा देने चाहिए ।
(९) विद्यालय में तापमान नियन्त्रण की प्राकृतिक व्यवस्था हो
विद्यालय भवनों में सबसे बड़ी समस्या तापमान नियन्त्रण की रहती है। आजकल तापमान नियन्त्रित करने के लिए अप्राकृतिक उपकरणों का सहारा लिया जाता है, जैसे पंखें, कूलर, ए.सी. आदि ।
विज्ञान कहता है कि ठंडी हवा नीचे रहती है और गर्म हवा हल्की होकर ऊपर उठती है । आज के कमरों में हवादान बनाये ही नहीं जाते, इसलिए गर्म हवा बाहर नहीं निकल पाती । कमरों में पंखे चलते हैं, वे पंखे गर्म हवा को ऊपर आने ही नहीं देते और गर्म हवा को ही फेंकते रहते हैं जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है । इसलिए तापमान का नियंत्रण प्राकृतिक उपायों से ही करना चाहिए । हमारे देश में यह तकनीक थी।
कुछ प्राकृतिक उपाय इस प्रकार हैं
१. कमरों की दीवारें अधिक मोटाई की हों । निर्माण में प्रयुक्त सामग्री लोहे-सीमेन्ट के स्थान पर चूना व लकड़ी आदि हो ।
२. कमरों में हवादान (वेन्टीलेटर) अवश्य बनायें जायें । हवादान आमने-सामने होने से क्रॉस वेन्टीलेशन होता है।
३. दीवारें सूर्य की रोशनी से तपती हों तो दो तीन फीट की दूरी पर मेंहदी की दीवार बनाई जाय ।
४. स्थान-स्थान पर नीम के पेड़ लगाने चाहिए, ताकि उनकी छाया छत को गरम न होने दे ।
५. कमरों की छतें सीधी-सपाट होने से छत पर सूर्य किरणें सीधी और अधिक पड़ती हैं, जिससे छतें बहुत तपती हैं। इसलिए सपाट छतों के स्थान पर पिरॅमिड आकार की छतें बनाने से वे कम गर्म होती हैं। हमारे गाँवों में झोंपडियों का आकार यही होता है, इसलिए वे ठंडी रहती हैं।
शोध कहते हैं कि सीधी सपाट छत वाले कमरे में रखी खाद्य वस्तु बहुत जल्दी खराब हो जाती है, जबकि पिरामिड आकार वाले कमरे में रखी खाद्य वस्तु अधिक समय तक खराब नहीं होती।
(१०) विद्यालय में ध्वनि व्यवस्था धार्मिक शिल्पशास्त्रानुसार हो
आज के भवनों में निर्माण के समय ध्वनि शास्त्र का विचार नहीं किया जाता । निर्माण पूर्ण होने के पश्चात् उसे ध्वनि रोधी (ड्रीपव झीष) बनाया जाता है। ऐसा करने से समय, शक्ति व आर्थिक व्यय अतिरिक्त लगता है।
हमारे शिल्पशास्त्र के ऐसे उदाहरण आज भी हैं, जहाँ न तो उसे साउन्ड प्रुफ बनाने की आवश्यकता है, और ना ही माइक लगाने की आवश्यकता पडती है। गोलकोंडा का किला ध्वनिशास्त्र का अद्भुत उदाहरण है। किले के मुख्य द्वार का रक्षक ताली बजाता है तो किले की सातवीं मंजिल में बैठे व्यक्ति को वह ताली स्पष्ट सुनाई देती है।
हमारे यहाँ निर्मित प्राचीन रंगशालाएँ जहाँ नाटक मंचित होते थे, उस विशाल सभागार में ध्वनि व्यवस्था ऐसी उत्तम रहती थी कि मंच से बोलने वाले नट की आवाज बिना माइक के ७० फिट तक बैठे हुए दर्शकों को समान रूप से एक जैसी सुनाई देती थी, चाहे वह आगे बैठा है या पीछे ।
आज के विद्यालय भवनों में इसका अभाव होने के कारण कक्षा-कक्षों में आचार्य को माइक का सहारा लेना पड़ता है अथवा चिल्लाना पड़ता है। कुछ भवन तो ऐसे बन जाते हैं जहाँ सदैव बच्चों का हो हल्ला ही गूंजता रहता है मानो वह विद्यालय न होकर मछली बाजार हो । अतः व्यवस्था करते समय ताप नियंत्रण की भाँति ध्वनि नियंत्रण की ओर भी ध्यान देना नितान्त आवश्यक है।
(११) विद्यालय वेश मौसम के अनुसार हो
वेश का सीधा सम्बन्ध व्यक्ति के स्वास्थ्य से है। शरीर रक्षा हेतु वेश होना चाहिए। किन्तु आज प्रमुख बिन्दु हो गया है सुन्दर दिखना अर्थात् फैशन । आज विद्यालयों में वेश का निर्धारण दुकानदार करता है जिसमें उसका व संचालकों का आर्थिक हित जुड़ा रहता है।
गर्म जलवायु वाले प्रदेश में छोटे-छोटे बच्चों को बूट-मोजों से लेकर टाई से बाँधने की व्यवस्था उनके साथ अन्याय है। इसलिए वेश सदैव सादा व शरीर रक्षा करने वाला होना चाहिए, अंग्रेज बाबू बनाने वाला नहीं, स्वदेशी भाव जगाने वाला होना चाहिए ।
(१२) विद्यालय वातावरण संस्कारक्षम हो
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - “समस्त ज्ञान मनुष्य के अन्तर में स्थित है । आवश्यकता है उसके जागरण के लिए उपयुक्त वातावरण निर्माण करने की ।' यह वातावरण निर्माण करने के लिए आवश्यक है कि विद्यालय घर जैसा होना चाहिए, जिसमें प्रेम, आत्मीयता एवं सद्भाव का वातावरण हो । प्रेम, आत्मीयता और सदूभावना की तसगों से वायुमंडल पवित्र एवं आध्यात्मिक बनता है जो ज्ञान की साधना के लिए आवश्यक है ।
इसी प्रकार विद्यालय के वातावरण को संस्कारक्षम बनाने के लिए स्वच्छता एवं साज-सज्ञा आवश्यक है । जहाँ स्वच्छता होती है, वहीं पवित्रता का निर्माण होता है ।
प्राचीन विद्यालयों को “गुरुकुल' कहा जाता था | गुरुकुल अर्थात् गुरु का घर, घर के सभी सदस्यों (शिष्यों ) का घर । इसी गृह में निवास करना इसलिए इस घर पर अधिकार भी था तो घर के प्रति स्वाभाविक कर्तव्य भी थे। कुल का एक विशेष अर्थ भी था । जैसे गोकुल अर्थात् १० हजार गायों वाला घर, कुलपति अर्थात् १० हजार छात्रों का आचार्य आदि । गुरुकुल की इस महत्ता को हमें समझना चाहिए ।
विद्यालय वातावरण को संस्कारक्षम एवं पवित्र बनाने के लिए अधोलिखित बिन्दु भी ध्यान रखने योग्य हैं :
१. विद्यालय में प्रवेश करते ही माँ सरस्वती एवं भारत माता का मंदिर होना चाहिए । प्रतिदिन की वन्दना यहीं हो।
२. विद्यालय प्रारम्भ होने से पूर्व, मध्यावकाश में एवं अन्त में मधुर संगीत बजने की व्यवस्था हो । मधुर संगीत के स्वरों से वातावरण में पतरित्रता एवं दिव्यता घुल जाती है |
३. विद्यालयों में दैनिक यज्ञ सम्भव हो तो बहुत अच्छा अन्यथा उत्सव विशेष पर यज्ञ अवश्य हो । इससे वेद मंत्रों की ध्वनि विद्यालय के वातावरण में गूंजेगी तो सारा वायु मंडल सुगंधित एवं पवित्रता से परिपूर्ण हो जायेगा ।
४. विद्यालय भवन की दीवारें कोरी-रोती हुई न हों, वरन् चित्रों से, सुभाषितों से, जानकारियों से भरी हुईं अर्थात् हँसती हुई होनी चाहिए ।
निष्कर्ष : विद्यालय की सम्पूर्ण व्यवस्थाएँ एवं वातावरण में धार्मिक संस्कृति एवं आध्यात्मिकता झलकनी चाहिए । विद्यालय भवन की वास्तुकला, साज-सज्जा, शिष्टाचार, भाषा, रीति-नीति, पर्म्पराएँ, छात्रों एवं शिक्षकों की वेशभूषा व्यवहार आदि धार्मिक संस्कृति से ओत-प्रोत चाहिए । वातावरण में छात्र यह अनुभूति करें कि वे महान ऋषियों की सन्तान हैं, उनकी संस्कृति एवं परम्परा महान हैं तथा वे भारतमाता के अमृत पुत्र हैं। वर्तमान में धार्मिक जीवन पर पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता का प्रभाव बढ़ रहा है। ऐसे में विद्यालय की व्यवस्थाओं और वातावरण से धार्मिक संस्कृति के सहज संस्कार छात्रों को मिलना परम आवश्यक है ।
विद्यालय का भवन
१ . विद्यालय का भवन बनाते समय सुविधा की दृष्टि से किन किन बातों का ध्यान रकना चाहिये ?
२. विद्यालय के भवन में विद्यालय की शैक्षिक दृष्टि किस प्रकार से प्रतिबिम्बित होती है ?
३. विद्यालय का भवन एवं पर्यावरण
४. विद्यालय का भवन एवं शरीरस्वास्थ्य इन सब बातों का क्या सम्बन्ध हैं ?
५. विद्यालय का भवन एवं मनोस्वास्थ्य
६. विद्यालय का भवन एवं संस्कृति
७. विद्यालय का भवन कम खर्च में एवं अधिक टिकाऊ बने इस दृष्टि से कौन कौन सी बातों का ध्यान रखना चाहिये ?
८. विद्यालय के भवन में वास्तुविज्ञान, भूमिचयन, स्थानचयन आदि का क्या महत्त्व है ?
९. विद्यालय के भवन की आन्तरिक रचना कैसी होनी चाहिये ?
१०. भवन निर्माण में प्रयुक्त सामग्री के विषय में किन बातों का ध्यान रखना चाहिये ?
प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर
इस प्रश्नावली मे कुल १० प्रश्न थे। राजस्थान एवं गुजरात के आचार्यों ने इनके उत्तर लिखे थे।
१. सुविधा की दृष्टि से भवन दो मांजिल से अधिक बड़ा नहीं होना चाहिये । कक्षा में बाजू की कक्षा का कोलाहल न सुनाई दे इस प्रकार की रचना हो । पेयजल की व्यवस्था भवन के अंतर्गत तथा शैचालय आदि भवन के दूर हो ।
२. विषयानुसार कक्ष रचना से लेकर सूचना फलक पर लिखी हई लिखावट इत्यादि सब बातें विद्यालय की शैक्षिक दृष्टि प्रकट करती है।
३. विद्यालय बनाते समय नीम, पीपल, बरगद जैसे वृक्ष भी पर्याप्त मात्रा में उचित स्थानो पर लगाने का प्रावधान हो। इससे पर्यावरण की सुरक्षा होगी, छाँव मिलेगी, पेड के नीचे अध्ययन, अध्यापन भी हो सकेगा। खुली हवा प्रकाश का शरीर स्वास्थ्य पर असर होगा । शरीरस्वास्थ्य अच्छा हो तो मन भी एकाग्र शांत होगा । विद्यालय में गौशाला रहेगी तो गोसेवा का अनुभव छात्रों को प्राप्त होगा।
विद्यालय के भवन मे कवेलू बाँस की जाली, पत्थर की दीवारे कम खर्चे मे टिकाऊ बनेगी।
अभिमत
विद्यालय का भवन छात्रों के लिए ज्ञानसाधना स्थली है। अतः वास्तुविज्ञान का ध्यान अवश्य रहे । भूमि एवं स्थानचयन के बाबत वह निसर्ग के सान्निध्य मे रहे तो अच्छा । सिन्थेटिक रंग, प्लास्टिक फायबर आदि चीजों का उपयोग न हो इसका ध्यान रखें ।
आचार्य का संबंध नित्य विद्यालय भवन से होता है उसमें सुविधा असुविधा कौनसी है इससे वे परिचित होते हैं। परंतु पढाना शिक्षक का काम और भवन बनाना संस्थाचालकों का काम यह निश्चित है अतः दोनों एक दूसरे के काम में दखल नही देते । भवन संबंधी योग्य बातें संस्थाचालको से करना मेरा कर्तव्य है, ऐसा शिक्षक मानता नहीं और संस्थाचालक भी अधिकारी के रूप में शिक्षकों से भवनसंदर्भ में कुछ सुझाव अपेक्षित नहीं करते । अतः भवन तो निर्माण होते हैं परंतु उसके पीछे विचारैक्य नहीं होता । दोनों मिलकर अच्छा भवन निर्माण होना आवश्यक है ।
विद्यालय भवन : शिक्षा संकल्पना का मूर्त रूप
आजकल हम भौतिक दृष्टि से जगत को और जीवन को देखने लगे हैं इसलिए घटनाओं, व्यक्तियों और वस्तुओं का मूल्यांकन भौतिक दृष्टि से करते हैं। शिक्षा अत्यन्त अभौतिक प्रक्रिया है तो भी उसका मूल्यांकन भौतिक दृष्टि से करने का प्रचलन बढ़ गया है।
हम यहाँ भौतिक और अभौतिक दोनों दृष्टि से विद्यालय भवन की चर्चा करेंगे।
विद्यालय भवन का भौतिक पक्ष
सबसे प्रथम बात विद्यालय के भवन एवं प्रयुक्त सामग्री के विषय में ही करनी चाहिए । आजकल सामान्य रूप से हम सिमेन्ट और लोहे का प्रयोग करते हैं। सनमाइका, एल्यूमिनियम, फेविकोल, प्लास्टर ऑफ पेरिस आदि का प्रयोग धीरे धीरे बहुत बढ़ने लगा है । कभी तो इसमें सुन्दरता लगती है, कभी वह सस्ता लगता है तो कभी मजबूत लगता है । इन तीनों पक्षों के संबंध में सही पद्धति से विचार करें तो तीनों हमें अनुचित ही लगेंगी । सिमेन्ट ईंटों को जोड़ने वाला पदार्थ है परन्तु वह अविघटनीय है । उसका स्वभाव प्लासिक जैसा ही होता है। तीस या पैंतीस वर्षों में उसका जोड़ने वाला गुण नष्ट होने लगता है और वह बिखर जाता है। बिखरने पर उसका पूनरूपयोग नहीं हो सकता है। वह पर्यावरण का भी नाश करता है क्योंकि उसके कचरे का निकाल नहीं हो सकता। उसी प्रकार से सनमाइका,
फेविकोल आदि सामाग्री भी पर्यावरण का नाश करने वाली ही है । पर्यावरण के नाश के साथ साथ वे मनुष्यों के स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक हैं । रोज रोज उसमें ही रहते रहते हम उस अस्वास्थ्यकर वातावरण के आदि हो जाते हैं परन्तु कुल मिलाकर आज जो शरीर और मन की दुर्बलता अनुभव में आती है उसका कारण यह भी है।
इन पदार्थों के कारण तापमान बढ़ता है। वह अप्राकृतिक रूप में बढ़ता है । प्राकृतिक गर्मी शरीर को इस प्रकार का नुकसान नहीं करती, यह कृत्रिम गर्मी नुकसान करती है । बढ़े हुए तापमान से बचने हेतु हम पंखे चलाते हैं, कहीं वातानुकूलन का प्रयोग करते हैं। इससे फिर तापमान बढ़ता है । वातानुकूलन में बिजली का उपयोग अधिक होता है,जिससे खर्च तो बढ़ता ही जाता है। इस प्रकार आर्थिक विषचक्र चलता रहता है और हम उसकी चपेट में आ जाते हैं । स्वास्थ्य का नाश तो होता ही है।
हम कहते हैं की इसमें बहुत सुविधा है और यह दिखाता भी सुंदर है। परन्तु सुविधा और सुन्दरता बहुत आभासी है । वास्तविक सुविधा और सुंदरता विनाशक नहीं होती । यदि वह विनाशक है तो सुंदर नहीं है, और सुविधा तो वह हो ही कैसे सकती है ?
तो फिर भवनों में कौनसी सामग्री प्रयुक्त होनी चाहिए ? पहला नियम यह है की जिंदा लोगों को रहने के लिए, सुख से रहने के लिए प्राकृतिक सामग्री का प्रयोग होना चाहिए । मिट्टी, चूना, लकड़ी, पत्थर आदि सामग्री प्राकृतिक है । यह सामग्री पर्यावरण और स्वास्थ्य के अविरोधी होती है । आज अनेक लोगों की धारणा हो गई है की ऐसा घर कच्चा होता है परन्तु यह धारणा सही नहीं है । वैज्ञानिक परीक्षण करें या पारम्परिक नमूने देखें तो इस सामग्री से बने भवन अधिक पक्के होते हैं । इस सामग्री का उपयोग कर विविध प्रकार के भवन बनाने का स्थापत्यशास्त्र भारत में बहुत प्रगत है । स्थपतियोंने विस्मयकारक भवन निर्माण किए हैं । आज भी यह कारीगरी जीवित है परन्तु वर्तमान शिक्षा के परिणामस्वरूप हमारी पद्धतियाँ और नीतियाँ विपरीत ही बनी हैं इसलिए शिक्षित लोगों को इसकी जानकारी नहीं है, अज्ञान, विपरीतज्ञान और हीनताबोध के कारण हमें उसके प्रति आस्था नहीं है, हमारी
सौंदर्यदृष्टि भी बदल गई है इसलिए हम बहुत अविचारी ढंग से अप्राकृतिक सामग्री से अप्राकृतिक रचना वाले भवन बनाते हैं और संकटों को अपने ऊपर आने देते हैं । संकटों को निमंत्रण देने की यह आधुनिक पद्धति है ।
यह सामग्री ठंड के दिनों में अधिक ठंड और गर्मी के दिनों में अधिक गर्मी का अनुभव करवाती है । दीवारों में हवा की आवनजावन नहीं होती है इसलिए भी कक्षों का तापमान और वातावरण स्वास्थ्यकर नहीं रहता।
भवन के कक्षाकक्षों में हवा की आवनजावन की स्थिति अनेक प्रकार से विचित्र रहती है । भौतिक विज्ञान का नियम कहता है कि ठंडी हवा नीचे रहती है और गरम हवा ऊपर की ओर जाती है । इस दृष्टि से पुराने स्थापत्य में कमरे में आमनेसामने खिड़कियाँ होती थीं तथा दीवार में ऊपर की ओर गरम हवा जाने की व्यवस्था होती थी। अब ऐसी व्यवस्था नहीं होती । छत से लटकने वाले पंखे हवा नीचे की ओर फेंकते हैं और गरम हवा ऊपर की ओर जाती है । हवा की स्थिति कैसी होगी ? इन सादी परन्तु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बातों की ओर हमारा ध्यान नहीं रहता है।
भवन की रचना में वास्तुशास्त्र के नियमों का ध्यान रखना चाहिए ऐसा अब सब कहने लगे हैं तो भी अधिकांश भवन इसकी ओर ध्यान दिये बिना ही बनाए जाते हैं । ऐसा अज्ञान और गैरजिम्मेदारी के कारण ही होता है ।
भवन का भावात्मक पक्ष
विद्यालय का भवन भावात्मक दृष्टि से शिक्षा के अनुकूल होना चाहिए । इसका अर्थ है वह प्रथम तो पवित्र होना चाहिए । पवित्रता स्वच्छता की तो अपेक्षा रखती ही है साथ ही सात्त्विकता की भी अपेक्षा रखती है। आज सात्त्विकता नामक संज्ञा भी अनेक लोगों को परिचित नहीं है यह बात सही है परन्तु वह मायने तो बहुत रखती है । भवन बनाने वालों का और बनवाने वालों का भाव अच्छा होना महत्त्वपूर्ण है। इसके लिए पैसा खर्च करने वाले. भवन बनते समय ध्यान रखने वाले, प्रत्यक्ष भवन बनाने वाले और सामग्री जहाँ से आती है वे लोग विद्यालय के प्रति यदि अच्छी भावना रखते हैं तो विद्यालय भवन के वातावरण में
पवित्रता आती है। पवित्रता हम चाहते तो हैं । इसलिए तो हम भूमिपूजन, शिलान्यास, वास्तुशांति, यज्ञ, भवनप्रवेश जैसे विधिविधानों का अनुसरण करते हैं । ये केवल कर्मकाण्ड नहीं हैं। इनका भी अर्थ समझकर पूर्ण मनोयोग से किया तो बहुत लाभ होता है । परन्तु समझने का अर्थ क्रियात्मक भी होता है। उदाहरण के लिए ग्रामदेवता. वास्तुदेवता आदि की प्रार्थना और उन्हें सन्तुष्ट करने की बात मंत्रों में कही जाती है । तब सन्तुष्ट करने का क्रियात्मक अर्थ वह होता है कि हम सामग्री का या वास्तु का दुरुपयोग नहीं करेंगे, उसका उचित सम्मान करेंगे, उसका रक्षण करेंगे आदि । यह तो हमेशा के व्यवहार की बातें हैं। भारत की पवित्रता की संकल्पना भी क्रियात्मक ही होती है ।
पवित्रता के साथ साथ भवन में शान्ति होनी चाहिए । उसकी ध्वनिव्यवस्था ठीक होना यह पहली बात है। कभी कभी कक्ष की रचना ऐसी बनती है कि पचीस लोगों में कही हुई बात भी सुनाई नहीं देती, तो अच्छी रचना में सौ लोगों को सनने के लिए भी ध्वनिवर्धक यन्त्र की आवश्यकता नहीं पडती। ऐसी उत्तम ध्वनिव्यवस्था होना अपेक्षित है। यह शान्ति का प्रथम चरण है । साथ ही आसपास के कोलाहल के प्रभाव से मुक्त रह सकें ऐसी रचना होनी चाहिए । कोलाहल के कारण अध्ययन के समय एकाग्रता नहीं हो सकती । कभी कभी पूरे भवन की रचना कुछ ऐसी बनती है कि लोग एकदूसरे से क्या बात कर रहे हैं यह समझ में नहीं आता या तो धीमी आवाज भी बहुत बड़ी लगती है । यह भवन की रचना का ही दोष होता है ।
भवन की बनावट पक्की होनी चाहिए । व्यवस्थित और सुन्दर होनी चाहिए । पानी, प्रकाश, हवा आदि की अच्छी सुविधा उसमें होनी चाहिए। हम इन बिंदुओं की चर्चा स्वतन्त्र रूप से करने वाले हैं इसलिए यहाँ केवल उल्लेख ही किया है। कभी कभी भवन की बनावट ऐसी होती है कि __ उसकी स्वच्छता रखना कठिन हो जाता है । यह भी बनावट __ का ही दोष होता है।
विद्यालय का भवन वैभव और विलास के दर्शन कराने वाला नहीं होना चाहिए। विद्यालय न महालय है न कार्यालय । वह न कारख़ाना है न चिकित्सालय । इन सभी स्थानों की रचना भिन्न भिन्न होती है और वह बाहर और अंदर भी दिखाई देती है। विद्यालय के भवन में सुंदरता तो होती है परन्तु सादगी अनिवार्य रूप से होती है । सादगीपूर्ण और सात्त्विक रचना भी कैसे सुन्दर होती है इसका यह नमूना होना चाहिए । सादा होते हुए भी वह हल्की सामग्री का बना सस्ता नहीं होना चाहिए। उत्कृष्टता तो सर्वत्र होनी ही चाहिए।
विद्यालय भवन का वातावरण और बनावट सरस्वती के मन्दिर का ही होना चाहिए । इस भाव को व्यक्त करते हुए भवन में मन्दिर भी होना चाहिए ।
धार्मिक शिक्षा की संकल्पना का मूर्त रूप विद्यालय है और उसका एक अंग भवन है । विद्यालय में विविध विषयों के माध्यम से जो सिद्धांत, व्यवहार, परंपरा आदि की बातें होती हैं वे सब विद्यालय के भवन में दिखाई देनी चाहिए । भवन स्वयं शिक्षा का माध्यम बनाना चाहिए ।
विद्यालय का कक्षाकक्ष
१. विद्यालय का कक्षाकक्ष कैसा होना चाहिये ?
२. कितना बड़ा होना चाहिये ?
३. उसका आकार कैसा होना चाहिये ?
४. कितने प्रकार के कक्षाकक्ष हो सकते हैं ?
५. कक्षाकक्ष में किस प्रकार की सुविधायें होनी चाहिये ?
६. कक्षाकक्ष का फर्नीचर कैसा होना चाहिये ?
७. कक्षाकक्ष की खिडकियाँ, दरवाजे, श्यामपट्ट, अलमारी आदि के विषय में किस प्रकार से विचार होना चाहिये ?
८. कक्षाकक्ष की बैठक व्यवस्था कैसी होनी चाहिये ?
९. हवा, प्रकाश, ध्वनि, तापमान, दिशायें आदि व्यवस्थायें कैसी होनी चाहिये ?
१०. कक्षाकक्ष का वातावरण शैक्षिक एवं संस्कारक्षम कैसे बन सकता है ?
११. स्वच्छता, पर्यावरण एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से कक्षाकक्ष कैसा होना चाहिये ?
१२. साजसज्जा, सुविधा एवं आर्थिक दृष्टि से कक्षाकक्ष के सम्बन्ध में हम क्या विचार कर सकेत है ?
प्रश्नावली से पाप्त उत्तर
विद्यालय के कक्षा-कक्ष के सम्बन्ध में अपना मंतव्य इस प्रश्नावली में प्रकट हुआ है। १२ प्रश्नों की इस प्रश्नावली के उत्तर नागपुर के १३ शिक्षकों, २ प्रधानाचार्यों व एक संस्था चालक अर्थात् कुल १७ लोगों ने दिये हैं । इस कार्य में सौ. वैशालीताई नायगावकरने सहयोग दिया ।
प्रश्न १, २, ३ व ५ - ५० से ६० विद्यार्थी आराम से बैठ सके इतना बड़ा कक्ष होना आवश्यक है। कक्षा कक्ष चौरस, आयातकार या अर्धवर्तुलाकार हो सकते हैं । कमरों में भरपूर प्रकाश एवं वायु आती हो, तथा पास के कक्षों की आवाज इस कक्ष में चल रहे कार्य में बाधक न हो, इस प्रकार की कक्षा की रचना विद्यालय में करनी चाहिये।
प्रश्न ४ - विद्यालय में विषय अनुसार कक्ष रचना अत्यन्त लाभकारी रहती है । गणित कक्ष, भाषा कक्ष, उद्योग कक्ष, भूगोल कक्ष, विज्ञान कक्ष होने से अध्ययन और वातावरण अच्छा रहता है, ऐसा सबका कहना था ।
प्रश्न ६ - उपस्कर (फर्निचर) के सम्बन्ध में, प्राथमिक कक्षाओं में नीचे बैठना और माध्यमिक कक्षाओं के लिए डेस्क व बेंच होनी चाहिए, सबका मत यही था ।
प्रश्न ७ - कमरों के दरवाजे लोहे के हों, खिडकियाँ जमीन से साढ़े तीन फीट की ऊँचाई पर हो ऐसा मत कुछ लोगों का था । बाहर खड़े निरीक्षक को पता चल सके उतनी ऊँचाई पर खिड़कियाँ हों, यह मत भी कुछ लोगों का था । कक्षा में फलक काँच के अथवा व्हाइट बोर्ड के होने चाहिए । शैक्षिक सामग्री व अन्य वस्तुएँ रखने के लिए अलमारी होनी चाहिए ।
प्रश्न १० - कक्षा का वातावरण शैक्षिक एवं संस्कारक्षम बने इसलिए कक्षाओं की दीवारों पर चार्टस, नक्शा, अच्छे चित्र आदि लगे हों ऐसा सबका मत था । प्रश्नावली के अन्तिम दोनों प्रश्नों के उत्तर नहीं मिले ।
अभिमत -
लगभग सभी उत्तर देने वाले नित्य कक्षा कक्षों में पढ़ाने वाले ही थे । फिर भी प्रश्नों के उत्तर केवल शब्दार्थ को ध्यान में रखकर ही दिये गये हैं । कक्षा कक्ष यह स्थान केवल भौतिक वस्तुओं का संच है, परन्तु विद्यार्थी और शिक्षक यह जीवमान ईकाई है तथा इनके बीच चलने वाली अध्ययन अध्यापन प्रक्रिया भी जीवन्त ही होती है। अतः इस जीवन्तता को बनाये रखना चाहिए । भौतिक व्यवस्थाओं को हावी नहीं होने देना चाहिए |
भवन निर्माण के समय शिक्षकों की कोई भूमिका नहीं रहती, वे तो मात्र इतना चाहते हैं कि सभी व्यवस्थाओं से युक्त बना बनाया कक्ष उन्हें मिल जाय । संस्थाचालक ही सभी निर्णय करते हैं । कक्षा का उपस्कर (फर्निचर) भी संस्था चालकों की आर्थिक स्थिति व उनकी पसन्द का ही होता है । बड़े छात्रों के लिए डेस्क व बेंच अथवा टेबल व कुर्सी और छोटे छात्रों के लिए नीचे जमीन पर बैठने की व्यवस्था में शैक्षिक चिन्तन का अभाव ही दिखाई देता है । कम आयु या छोटी कक्षाओं के लिए अलग व्यवस्था तथा बड़ी आयु या बड़ी कक्षाओं के छात्रों के लिए अलग व्यवस्था करने के पीछे कोई तार्किक दृष्टि नहीं है। माध्यमिक कक्षाओं के छात्र भी धार्मिक बैठक व्यवस्था में अच्छा ज्ञानार्जन कर सकते हैं इसका आज्ञान है ।
पर्यावरण सुरक्षा हेतु प्लास्टिक का उपयोग वर्जित करने की बात किसी को भी ध्यान में नहीं आई । स्वच्छता हेतु प्रत्येक कक्षा के लिए स्वतन्त्र पायदान, कचरा पात्र तथा स्वच्छता सम्बन्धी आदतें यथा-चप्पल-जूते कक्षा के बाहर व्यवस्थित रखने की व्यवस्था आदि छोटी छोटी बातों को अब लोग भूलने लगे हैं । और संस्थाएँ विद्यालय की स्वच्छता बड़ी बड़ी सफाई कम्पनियों को ठेके पर दे रही हैं । ठेके पर देने के कारण छात्रों में स्वच्छता व पवित्रता के संस्कार नहीं बन पाते । पहले छात्रों को यह संस्कार दिया जाता था कि यह मेरी कक्षा है, मेरी कक्षा मुझे ज्ञानवान बनाने वाला पवित्र स्थान है, इसे स्वच्छ एवं पवित्र बनाये रखना यह मेरा दायित्व है । स्वच्छता का दायित्व बोध जाग्रत करना ही सच्ची शिक्षा है ।
विमर्श
विद्यालयों और महाविद्यालयों का अध्ययन वर्षों में विभाजित की जाने वाली यान्त्रिक प्रक्रिया बन गई है। विद्यार्थी बारह वर्ष तक विद्यालय में पढ़ता है तो वह पहली से बारहवीं कक्षा तक पढता है । महाविद्यालय में पढता है तो वह प्रथम से तृतीय कक्षा तक पढ़ता है । परास्नातक में पढता है तो वह प्रथम और द्वितीय कक्षा में पढ़ता है । एक एक वर्ष को एक एक कक्षा कहा जाता है । एक वर्ष तक विद्यार्थी उसी कक्षा में पढ़ता है । पढने के लिये इसे एक स्थान चाहिये, एक कमरा चाहिये । कमरा ही कक्ष है । उस कक्ष को कक्षाकक्ष कहते हैं। यह अंग्रेजी के शब्द क्लासरूप का हिन्दी अनुवाद है । भारत की लगभग सभी भाषाओं में क्लासरूम का ही अनुवाद चलता है ।
कक्षाकक्ष के लिये शासन द्वारा नाप निश्चित कर के दिया जाता है । एक कक्षा में विद्यार्थियों की संख्या भी निश्चित की जाती है और उसके अनुपात में कक्षाकक्ष की लम्बाई चौडाई या क्षेत्रफल निश्चित किया जाता है । यह नियम महाविद्यालयों के लिये भी है । इसी प्रकार से प्रयोगशाला आदि का भी आकार प्रकार निश्चित किया जाता है ।
इन कक्षा कक्षों की रचना और व्यवस्था के विषय में कैसे विचार करना चाहिये इसकी बात करेंगे ।
१. कक्षाकक्ष कक्षा के विद्यार्थियों की संख्या के अनुपात में होना चाहिये । खाली बैठे हों तब भी भीड़ लगें ऐसे तो नहीं होने चाहिये ।
कुछ और क्रियाकलाप न करते हों और केवल अध्यापक द्वारा बोला जा रहा सुनते हों तब भी, भूमि पर, कुर्सी पर या बेन्च पर बैठे हों तब भी, सीधी पंक्तियों में या बिना पंक्तियों के बैठे हों तब भी एक दूसरे का स्पर्श न हो इतनी दूरी बनाकर तो बैठना ही चाहिये । बिना स्पर्श किये कुछ हलचल कर सर्के इतना अन्तर भी अपेक्षित है । बीच में से उठकर जाना हो तब भी बिना स्पर्श किये जा सकें इतनी दूरी चाहिये । कक्ष में बैठे विद्यार्थियों से उचित अन्तर रखकर शिक्षक बैठ सके इतना स्थान होना चाहिये । उचित अन्तर किसे कहते हैं ? विद्यार्थियों के सामने, मध्य में, कुछ ऊँचाई पर बैठकर शिक्षक एक दृष्टिक्षेप में कक्षा के सभी विद्यार्थियों को देख सके इतने अन्तर को समुचित अन्तर कहते हैं ।
कक्षा में विद्यार्थियों को केवल एक स्थान पर बैठना ही नहीं होता है। घूमना चलना भी होता है । लिखना पढना होता है, सामग्री लेकर काम करना होता है, एक दूसरे के साथ वार्तालाप करना होता है, गटों में बैठकर चर्चा करनी होती है । तब विभिन्न रचनाओं में बैठ सकें, सामने डेस्क रखकर बैठ सकें, बगल में बस्ता या अन्य सामग्री रख सकें इतना स्थान होना चाहिये । कक्षा में कक्षा पुस्तकालय की पुस्तकें, कक्षा के लिये दैनन्दिन उपयोग की सामग्री, विद्यार्थियों के भोजन के डिब्बे आदि रखने का स्थान होना चाहिये । उसी प्रकार कक्ष के बाहर पादत्राण रखने की व्यवस्था, पानी की व्यवस्था, कचरे का डिब्बा भी होना चाहिये । कचरे का डिब्बा, झाड़ू, फर्निचर पॉंछने का कपडा आदि रखने के लिये स्थान और व्यवस्था चाहिये ।
खिड़कियों की ऊँचाई
कक्षाकक्ष में बैठने की व्यवस्था कैसी है उसके आधार पर अन्य बातों की भी व्यवस्था की जायेंगी । अधिकांश कक्षाकक्षों में बैठने की व्यवस्था टेबल कुर्सी और बेन्च डेस्क पर की जाती है । इस हिसाब से खिडकियों की ऊंचाई ढाई या तीन फीट की रखी जाती है । नीचे भूमि पर बैठकर अध्ययन, भोजन आदि करना है तो खिड़कियों की भूतल से ऊंचाई १० से १२ इंच होनी चाहिये । नियम यह है कि कक्ष में बैठे हुए लोगों को खिड़की से बाहर का दृश्य दिख सके । कई बार तो बाहर का दिखाई न दे इसी उद्देश्य से खिड़कियाँ और भी ऊँचाई पर बनाई जाती हैं । बाहर की दखल न हो और विद्यार्थी भी बाहर न झाँक सर्के ऐसा दुहरा उद्देश्य होता है परन्तु यह उचित नहीं है, शास्त्रीय नहीं है ।
बैठने की दिशा
कक्षाकक्ष में सब विद्यार्थी पूर्व की ओर मुँह करके बैठ सकें ऐसी रचना बनानी चाहिये । शिक्षक विद्यार्थियों से कुछ ऊँचाई पर बैठ सके ऐसा मंच बनाना चाहिये । बैठने वालों की ऊँचाई के अनुपात में दीवार पर श्याम फलक होना चाहिये । नकशा, आलेख, चित्र आदि टाँगने की व्यवस्था चाहिये । पृथ्वी का गोला या अन्य सामग्री दिखानी हो तो उसे रखने के लिये उचित स्थान होना चाहिये । घर में हम जिस प्रकार बैठक कक्ष, भोजन कक्ष, रसोई आदि में आवश्यकता और सुविधा के अनुसार रचना और व्यवस्था करते हैं उसी प्रकार विद्यालय के कक्षा कक्षों में तथा अन्य कक्षों में भी करनी चाहिये । छात्र आदि अपने बस्ते विद्यालय में ही रखकर जाने वाले हैं तो उन्हें रखने की भी व्यवस्था चाहिये ।
हवा, प्रकाश, ध्वनि व तापमान
कक्षाकक्ष में हवा की आवनजावन, तापमान नियन्त्रण, प्रकाश आदि की समुचित व्यवस्था होना अपेक्षित है। कक्षाकक्ष की दीवारों और छतों की चूने से पुताई होना ही अपेक्षित है, सिन्थेटिक रंगों से रंगाई नहीं । दीवारों पर ध्येय वाक्य, चित्र, उपयोगी जानकारी के आलेख लगाने की व्यवस्था चाहिये ।
सबसे महत्त्वपूर्ण है ध्वनिव्यवस्था । कक्षा में एक ने बोला सबको सुनाई दे ऐसा तो होना ही चाहिये परन्तु आसपास के कक्षों में उससे व्यवधान न हो यह भी देखना चाहिये । फिर भी कम कमाने वाले का घर छोटा होता है और उस छोटे घर में भी कुशल, बुद्धिमान और गृहप्रेमी लोग आवश्यक व्यवस्थायें बना लेते हैं और आनन्द से सारे व्यवहार करते हैं उसी प्रकार विद्यालय यदि सम्पन्न नहीं है तब भी बुद्धिमान शिक्षक जितने भी संसाधन प्राप्त होते हैं उतने में अच्छी से अच्छी व्यवस्था बना लेते हैं ।
कठिनाई केवल एक है, और वह बड़ी है । घर में घर के मालिक, कमाई करनेवाले और घर में रहनेवाले लोग अलग अलग नहीं होते, एक ही होते हैं, घरवाले होते हैं । विद्यालय में पैसा खर्च करनेवाले, नौकरी में रखनेवाले और पढाने वाले एक ही नहीं होते, पराये होते हैं । मालिकी भाव से विद्यालय संचालकों का होता है, नौकरी भाव से शिक्षकों का होता है । इसलिये बुद्धिमानी, कुशलता और आत्मीयता का आलम्बन ही नष्ट हो जाता है। सत्य तो यह है कि इस एक व्यवस्था ने अनेक उत्तम स्चनाओं को तहसनहस कर दिया है ।
क्या महाविद्यालय में विद्यार्थी भूमि पर बैठ सकते हैं ? सामने डेस्क रखकर बैठ सकते हैं ? क्या महाविद्यालय में विद्यार्थी जूते उतारकर बैठ सकते हैं ? हमें लगता है कि नहीं, इतने बडे विद्यार्थी नीचे कैसे बैठेंगे ? लाख रुपये कमाने वाले अध्यापक आसन पर बैठ कर व्याख्यान कैसे दे सकते हैं ?
परन्तु हमारे तर्क का दोष हम नहीं देख सकते हैं क्या ? नीचे या ऊपर बैठने का आयु या दर्ज के साथ क्या सम्बन्ध है ? सम्बन्ध तो धार्मिक और अधार्मिक होने का है ? क्या महाविद्यालय के विद्यार्थी और प्राध्यापक अधार्मिक हैं ? या सबके सब घुटने के दर्द से परेशान हैं ? या कभी ऐसा विचार ही नहीं किया हैं ?
कक्षाकक्ष की ये तो तान्त्रिक बातें हुईं । कक्षाकक्ष का शैक्षिक अर्थ कया है ?
जहाँ शिक्षक और विद्यार्थी बैठकर अध्यापन और अध्ययन करते हों वह कक्षाकक्ष है । यह अध्यापक का घर हो सकता है, मन्दिर का बरामदा हो सकता है या वृक्ष की छाया भी हो सकती है । अध्ययन अध्यापन के तरीके के अनुसार कक्षाकक्ष का स्थान बदल सकता है । कहानी सुनना है, इतिहास पढ़ना है, मिट्टी से काम करना है तो वृक्ष के नीचे, बरामदे में या मैदान में कक्षा लग सकती है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के कक्षाकक्ष वृक्षों के नीचे ही होते थे । प्राचीन ऋषिमुनि वृक्षों के नीचे बैठकर ही पढ़ाते थे ।
विषयानुसार कक्ष रचना
यह तथ्य इस बात की ओर संकेत करता है कि अध्ययन काल का विभाजन वर्ष और कक्षाओं के अनुसार नहीं अपितु विषयों और गतिविधियों के अनुसार होना चाहिये और कक्षों की रचना विषयों की आवश्यकताओं का ध्यान रखकर होनी चाहिये।
अर्थात् विद्यालय में कक्षाकक्ष नहीं अपितु विषय कक्ष होने चाहिये । समय सारिणी विषयों के अनुसार होनी चाहिये । विद्यार्थियों का विभाजन भी विषयों के अनुसार होना चाहिये।
विषयकक्ष की अधिक चर्चा स्वतन्त्र रूप से करेंगे परन्तु यहाँ इतना कहना आवश्यक है कि सर्व प्रकार की रचनाओं के लिये यान्त्रिक आग्रह छोड देना चाहिये, मानवीय अर्थात् जीवमानता के अनुकूल रचनायें करनी चाहिये।
अध्ययन अध्यापन जिन्दा व्यक्तियों के द्वारा किया जाने वाला जीवमान कार्य है। इसी प्रकार से सारी रचनायें होना अपेक्षित है।
धार्मिक शिक्षा की पुनर्रचना में यह भी एक महत्त्वपूर्ण आयाम है।
विद्यालयों में स्वच्छता
१. स्वच्छता का अर्थ क्या है ?
२. स्वच्छता एवं पर्यावरण का सम्बन्ध क्या है ?
३. स्वच्छता एवं स्वास्थ्य का सम्बन्ध क्या है ?
४. विद्यालय की स्वच्छता में किस किस का सहभाग होना चाहिये ?
५. विद्यालय की स्वच्छता में किस प्रकार की सामग्री वर्जित होनी चाहिये ?
६. स्वच्छता एवं पवित्रता का क्या सम्बन्ध है ?
७. स्वच्छता बनाये रखने के लिये कौन कौन से उपाय कर सकते हैं ?
८. स्वच्छता बनाये रखने के लिये सम्बन्धित सभी लोगों की मानसिकता, आदतें एवं व्यवहार कैसा होना चाहिये ?
९. आन्तरिक स्वच्छता एवं बाह्य स्वच्छता में क्या अन्तर है ?
१०. स्वच्छता का आग्रह कितनी मात्रा में रखना चाहिये?
प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर
यह प्रश्नावली संस्थाचालक, शिक्षक, अभिभावक ऐसे तीनों गटों के सहयोग से भरकर प्राप्त हुई है।
प्रश्न १ : स्वच्छता का अर्थ लिखते समय तन की स्वच्छता, मन की स्वच्छता, पर्यावरण की स्वच्छता का विचार एक अभिभावक ने रखा । कुछ लोगों ने आसपास का परिसर साफ रखना यह विचार भी रखा।
प्रश्न २-३ : स्वच्छता एवं पर्यावरण ये सब एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । इसी प्रकार के संक्षिप्त उत्तर स्वच्छता और स्वास्थ्य के विषय में प्राप्त हुए। इनमें विद्यार्थी, अभिभावक, सफाई कर्मचारी इन सबकी सहभागिता अपेक्षित है। पानी के पाउच, बाजारी चीजों के रेपर्स, फूड पेकेट्स के कवर आदि जो गन्दगी फैलाते हैं उन्हें वर्जित करना चाहिए ऐसा सभी चाहते हैं । प्रश्न ६ के उत्तर में स्वच्छता एवं पवित्रता के परस्पर सम्बन्धों का योग्य उत्तर नहीं मिला । प्रश्न ७ में स्वच्छता बनाये रखने के लिए स्थान-स्थान पर 'कचरापात्र' रखें जायें, यह सुझाव मिला। प्र. ८ स्वच्छता का आग्रह शतप्रतिशत होना ही चाहिए ऐसा सर्वानुमत था। गन्दगी फैलाने वाले पर आर्थिक दण्ड और कानूनी कार्यवाही करने की बात भी एक के उत्तर में आई।
अभिमत :
प्रश्नावली के दस प्रश्नों में से दो-तीन प्रश्न छोडकर शेष सारे प्रश्न सरल एवं अनुभवजन्य थे । परन्तु उनके उत्तर उतने गहरे व समाधानकारक नहीं थे । सदैव ध्यान में रहना चाहिए । कक्षा में बेचों के नीचे पड़े हुए कागज के टुकडे, फर्निचर पर जमी हुई धूल, दीवारों पर चिपकी हुई टेप, टूटे फर्निचर का ढेर, उद्योग के कालांश में फेला हुआ कचरा, प्रश्नपत्र एवं उत्तर पुस्तिकाओं के बंडल, जमा हुआ पानी, शौचालयों की दुर्गन्ध तथा जगह-जगह पड़ा हुआ कचरा आदि सबको प्रतिदिन दिखाई तो देता है परन्तु यह मेरा घर नहीं है ऐसा विचार सब करते हैं। ऐसे गन्दगी से भरे वातावरण में छात्रों का मन पढ़ने में नहीं लगता । एक बार एक मुख्याध्यापक ने अतिथि को विद्यालय देखने के लिए बुलाया। विद्यालय दिखाने ले जाते समय सीढ़ियों पर कागज के टुकडे पडे हुए थे । टुकडों को देखते ही मुख्याध्यापक ने निकट की चलती कक्षा में से दो छात्रों को बाहर बुलाया । छात्र बाहर आये उससे पहले ही अतिथि ने वे टुकड़े उठा लिये । स्वच्छता आदेश से या निर्देश से नहीं होती, स्वयं करने से होती है। यह सन्देश अतिथि महोदय ने बिना बोले दे दिया।
स्वच्छता और पवित्रता में भी भिन्नता है । जो-जो पवित्र है वह स्वच्छ है । परन्तु जो जो स्वच्छ है, वह पवित्र होगा ही ऐसा आवश्यक नहीं है । विद्यालय में स्वच्छता बनाये रखने हेतु स्थान स्थान पर कूडादान रखने होंगे। सफाई करने के पर्याप्त साधन झाडू, बाल्टियाँ, पुराने कपड़े आदि विद्यालय में कक्षाशः अलग उपलब्ध होने चाहिए। जिस किसी छात्र या आचार्य को एक छोटा सा तिनका भी दिखाई दे वह तुरन्त उस तिनके को उठाकर कूड़ादान में डाले, ऐसी आदत सबकी बनानी चाहिए। कोई भी खिड़की से कचरा बाहर न फेंके, गन्दगी करने वाले छात्रों के नाम बताने के स्थान पर स्वच्छता रखने वाले छात्रों के नाम बताना उनको गौरवान्वित करना __ अधिक प्रेरणादायी होता है।
अनेक बार बड़े लोग विदेशों में स्वच्छता व भारत में गन्दगी का तुलनात्मक वर्णन बच्चों के सामने ऐसे शब्दों में बताते हैं कि जैसे धार्मिकों को गन्दगी ही पसन्द है, ये स्वच्छता के बारे में कुछ नहीं जानते । जैसे भारत में स्वच्छता को कोई महत्त्व ही नहीं है । ऐसा बोलने से अपने देश के प्रति हीनता बोध ही पनपता है, जो उचित नहीं है । भारत में तो सदैव से ही स्वच्छता का आचरण व व्यवहार रहा है। एक गृहिणी उठते ही सबसे पहले पूरे घर की सफाई करती है । घर के द्वार पर रंगोली बनाती है, पहले पानी छिड़कती है । ऐसी आदतें जिस देश के घर घर में हो भला वह भारत कभी स्वच्छता की अनदेखी कर सकता है ? केवल घर व शरीर की शुद्धि ही नहीं तो चित्त शुद्धि पर परम पद प्राप्त करने की इच्छा जन जन में थी, आज फिर से उसे जगाने की आवश्यकता है।
स्वच्छता के सम्बन्ध में इस प्रकार विचार करना चाहिये...
- सार्वजनिक स्थानों को स्वच्छ नहीं रखना यह आज के समय का सामान्य प्रचलन हो गया है। इसका कारण जरा व्यापक और दूरवर्ती है । अंग्रेजों के भारत की सत्ता के अधिग्रहण से पूर्व धार्मिक समाज स्वायत्त था। स्वायत्तता का एक लक्षण स्वयंप्रेरणा से सामाजिक दायित्वों का निर्वाहण करने का भी था । परन्तु अंग्रेजों ने सत्ता ग्रहण कर लेने के बाद समाज धीरे धीरे शासन के अधीन होता गया। इस नई व्यवस्था में ज़िम्मेदारी सरकार की और काम समाज का ऐसा विभाजन हो गया। सरकार जिम्मेदार थी परन्तु स्वयं काम करने के स्थान पर काम करवाती थी । जो काम करता था उसका अधिकार नहीं था, जिसका अधिकार था वह काम नहीं करता था । धीरे धीरे काम करना हेय और करवाना श्रेष्ठ माना जाने लगा । आज ऐसी व्यवस्था में हम जी रहे हैं । यह व्यवस्था हमारी सभी रचनाओं में दिखाई देती है।
- विद्यालय की स्वच्छता विद्यालय के आचार्यों और छात्रों के नित्यकार्य का अंग बनाना चाहिए क्योंकि यह शिक्षा का ही क्रियात्मक अंग है। आज ऐसा माना नहीं जाता है । आज यह सफाई कर्मचारियों का काम माना जाता है और पैसे देकर करवाया जाता है। छात्र या आचार्य इसे अपने लायक नहीं मानते हैं। इससे ऐसी मानसिकता पनपती है कि अच्छे पढेलिखे और अच्छी कमाई करने वाले स्वच्छताकार्य करेंगे नहीं। समय न हो और अन्य लोग करने वाले हो और किसीको स्वच्छताकार्य न करना पड़े यह अलग विषय है परन्तु पढेलिखे हैं और प्रतिष्ठित लोग ऐसा काम नहीं करते यह मानसिकता अलग विषय है। प्रायोगिक शिक्षा का यह अंग बनने की आवश्यकता है।
- स्वच्छता स्वभाव बने यह भी शिक्षा का आवश्यक अंग है। आजकल इस विषय में भी विपरीत अवस्था है। सार्वजनिक स्थानों पर, मार्गों पर, कार्यालयों में कचरा जमा होना और दिनों तक उसे उठाया नहीं जाना सहज बन गया है। आने जाने वाले लोगों को, वहीं पर काम करने वाले लोगों को इससे परेशानी भी नहीं होती है। इस स्वभाव को बदलना शिक्षा का विषय बनाना चाहिये । इसे बदले बिना यदि स्वच्छता का काम किया भी तो वह केवल विवशता से अथवा अंकों के लिए होगा, करना चाहिये इसलिए नहीं होगा।
- विद्यालय की स्वच्छता में केवल भवन की स्वच्छता ही नहीं होती। पुस्तकें, शैक्षिक सामग्री,बगीचा, मैदान, उपस्कर आदि सभी बातों की स्वच्छता भी होनी चाहिये । छात्रों का वेश, पदवेश, बस्ता आदि भी स्वच्छ होना अपेक्षित है।
- स्वच्छता के लिए प्रयोग में ली जाने वाली सामग्री चिन्ता का विषय है। साबुन, डीटेर्जेंट, एसिड, फिनाइल आदि सफाई की जो सामग्री होती है वह कृत्रिम और पर्यावरण का प्रदूषण करने वाली ही होती है। इससे होने वाली सफाई सुन्दर दिखाई देने वाली ही होती है परन्तु इसके पीछे व्यापक अस्वच्छता जन्म लेती है जो प्रदूषण पैदा करती है। ऐसी सुन्दर अस्वच्छता की संकल्पना छात्रों को समझ में आए ऐसा करने की आवश्यकता है। विद्यालय की स्वच्छता छात्रों का सरोकार बने यही शिक्षा है। स्वच्छता अपने आपमें साध्य भी है और छात्रों के विकास का माध्यम भी है । यह व्यावहारिक शिक्षा है, कारीगरी की शिक्षा है, विज्ञान की शिक्षा है, सामाजिक शिक्षा भी है।
विद्यालय का बगीचा
१. विद्यालय में बगीचा अनिवार्य है क्या ?
२. विद्यालय में बगीचा क्यों होना चाहिये ?
३. विद्यालय में कितना बड़ा बगीचा होना चाहिये ?
४. विद्यालय में खुला अथवा सुरक्षित स्थान ही न हो तो बगीचा कैसे बनायें ?
५. विद्यालय में बगीचा कैसा होना चाहिये ?
६. बगीचा और पर्यावरण, बगीचा और सुन्दरता, बगीचा एवं स्वास्थ्य, बगीचा एवं संस्कारक्षमता का क्या सम्बन्ध है ?
७. विद्यालय में घास, पौधे, वृक्ष एवं लता के विषय में किन किन बातों का विचार करना चाहिये ?
विद्यालय में फूल, फल आदि के विषय में क्या क्या विचार करना चाहिये ?
९. छात्रों एवं आचार्यों की वनस्पति सेवा में सहभागिता कैसे बने ?
१०. बगीचा तैयार करते समय खर्च, सुविधा, उपयोगिता, सुन्दरता, प्रसन्नता, प्राकृतिकता एवं व्यावहारिकता का ध्यान कैसे रखें ?
प्रश्नावली से पाप्त उत्तर
यह प्रश्नावली संस्थाचालक, शिक्षक, अभिभावक ऐसे तीनों गटों के सहयोग से भरकर प्राप्त हुई है।
प्रश्न १ : स्वच्छता का अर्थ लिखते समय तन की स्वच्छता, मन की स्वच्छता, पर्यावरण की स्वच्छता का विचार एक अभिभावक ने रखा । कुछ लोगों ने आसपास का परिसर साफ रखना यह विचार भी रखा ।
प्रश्न २-३ : स्वच्छता एवं पर्यावरण ये सब एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । इसी प्रकार के संक्षिप्त उत्तर स्वच्छता और स्वास्थ्य के विषय में प्राप्त हुए। इनमें विद्यार्थी, अभिभावक, सफाई कर्मचारी इन सबकी सहभागिता अपेक्षित है। पानी के पाउच, बाजारी चीजों के रेपर्स, फूड पेकेट्स के कवर आदि जो गन्दगी फैलाते हैं उन्हें वर्जित करना चाहिए ऐसा सभी चाहते हैं । प्रश्न ६ के उत्तर में स्वच्छता एवं पवित्रता के परस्पर सम्बन्धों का योग्य उत्तर नहीं मिला । प्रश्न ७ में स्वच्छता बनाये रखने के लिए स्थान-स्थान पर 'कचरापात्र' रखें जायें, यह सुझाव मिला । प्र. ८ स्वच्छता का आग्रह शतप्रतिशत होना ही चाहिए ऐसा सर्वानुमत था। गन्दगी फैलाने वाले पर आर्थिक दण्ड और कानूनी कार्यवाही करने की बात भी एक के उत्तर में आई।
अभिमत :
प्रश्नावली के दस प्रश्नों में से दो-तीन प्रश्न छोडकर शेष सारे प्रश्न सरल एवं अनुभवजन्य थे । परन्तु उनके उत्तर उतने गहरे व समाधानकारक नहीं थे । सदैव ध्यान में रहना चाहिए । कक्षा में बेचों के नीचे पड़े हुए कागज के टकडे, फर्निचर पर जमी हुई धूल, दीवारों पर चिपकी हुई टेप, टूटे फर्निचर का ढेर, उद्योग के कालांश में फेला हुआ कचरा, प्रश्नपत्र एवं उत्तर पुस्तिकाओं के बंडल, जमा हुआ पानी, शौचालयों की दुर्गन्ध तथा जगह-जगह पड़ा हुआ कचरा आदि सबको प्रतिदिन दिखाई तो देता है परन्तु यह मेरा घर नहीं है ऐसा विचार सब करते हैं। ऐसे गन्दगी से भरे वातावरण में छात्रों का मन पढ़ने में नहीं लगता । एक बार एक मुख्याध्यापक ने अतिथि को विद्यालय देखने के लिए बुलाया । विद्यालय दिखाने ले जाते समय सीढ़ियों पर कागज के टुकडे पडे हुए थे । टुकडों को देखते ही मुख्याध्यापक ने निकट की चलती कक्षा में से दो छात्रों को बाहर बुलाया । छात्र बाहर आये उससे पहले ही अतिथि ने वे टुकड़े उठा लिये । स्वच्छता आदेश से या निर्देश से नहीं होती, स्वयं करने से होती है। यह सन्देश अतिथि महोदय ने बिना बोले दे दिया।
स्वच्छता और पवित्रता में भी भिन्नता है । जो-जो पवित्र है वह स्वच्छ है । परन्तु जो जो स्वच्छ है, वह पवित्र होगा ही ऐसा आवश्यक नहीं है । विद्यालय में स्वच्छता बनाये रखने हेतु स्थान स्थान पर कूडादान रखने होंगे। सफाई करने के पर्याप्त साधन झाडू, बाल्टियाँ, पुराने कपड़े आदि विद्यालय में कक्षाशः अलग उपलब्ध होने चाहिए। जिस किसी छात्र या आचार्य को एक छोटा सा तिनका भी दिखाई दे वह तुरन्त उस तिनके को उठाकर कूड़ादान में डाले, ऐसी आदत सबकी बनानी चाहिए। कोई भी खिड़की से कचरा बाहर न फेंके, गन्दगी करने वाले छात्रों के नाम बताने के स्थान पर स्वच्छता रखने वाले छात्रों के नाम बताना उनको गौरवान्वित करना __ अधिक प्रेरणादायी होता है।
अनेक बार बड़े लोग विदेशों में स्वच्छता व भारत में गन्दगी का तुलनात्मक वर्णन बच्चों के सामने ऐसे शब्दों में बताते हैं कि जैसे धार्मिकों को गन्दगी ही पसन्द है, ये स्वच्छता के बारे में कुछ नहीं जानते । जैसे भारत में स्वच्छता को कोई महत्त्व ही नहीं है । ऐसा बोलने से अपने देश के प्रति हीनता बोध ही पनपता है, जो उचित नहीं है । भारत में तो सदैव से ही स्वच्छता का आचरण व व्यवहार रहा है। एक गृहिणी उठते ही सबसे पहले पूरे घर की सफाई करती है । घर के द्वार पर रंगोली बनाती है, पहले पानी छिड़कती है । ऐसी आदतें जिस देश के घर घर में हो भला वह भारत कभी स्वच्छता की अनदेखी कर सकता है ? केवल घर व शरीर की शुद्धि ही नहीं तो चित्त शुद्धि पर परम पद प्राप्त करने की इच्छा जन जन में थी, आज फिर से उसे जगाने की आवश्यकता है।
स्वच्छता के सम्बन्ध में इस प्रकार विचार करना चाहिये...
- सार्वजनिक स्थानों को स्वच्छ नहीं रखना यह आज के समय का सामान्य प्रचलन हो गया है । इसका कारण जरा व्यापक और दूरवर्ती है। अंग्रेजों के भारत की सत्ता के अधिग्रहण से पूर्व धार्मिक समाज स्वायत्त था। स्वायत्तता का एक लक्षण स्वयंप्रेरणा से सामाजिक दायित्वों का निर्वाहण करने का भी था । परन्तु अंग्रेजों ने सत्ता ग्रहण कर लेने के बाद समाज धीरे धीरे शासन के अधीन होता गया। इस नई व्यवस्था में ज़िम्मेदारी सरकार की और काम समाज का ऐसा विभाजन हो गया। सरकार जिम्मेदार थी परन्तु स्वयं काम करने के स्थान पर काम करवाती थी । जो काम करता था उसका अधिकार नहीं था, जिसका अधिकार था वह काम नहीं करता था । धीरे धीरे काम करना हेय और करवाना श्रेष्ठ माना जाने लगा। आज ऐसी व्यवस्था में हम जी रहे हैं । यह व्यवस्था हमारी सभी रचनाओं में दिखाई देती है।
- विद्यालय की स्वच्छता विद्यालय के आचार्यों और छात्रों के नित्यकार्य का अंग बनाना चाहिए क्योंकि यह शिक्षा का ही क्रियात्मक अंग है। आज ऐसा माना नहीं जाता है । आज यह सफाई कर्मचारियों का काम माना जाता है और पैसे देकर करवाया जाता है। छात्र या आचार्य इसे अपने लायक नहीं मानते हैं। इससे ऐसी मानसिकता पनपती है कि अच्छे पढेलिखे और अच्छी कमाई करने वाले स्वच्छताकार्य करेंगे नहीं। समय न हो और अन्य लोग करने वाले हो और किसीको स्वच्छताकार्य न करना पड़े यह अलग विषय है परन्तु पढेलिखे हैं और प्रतिष्ठित लोग ऐसा काम नहीं करते यह मानसिकता अलग विषय है। प्रायोगिक शिक्षा का यह अंग बनने की आवश्यकता है।
- स्वच्छता स्वभाव बने यह भी शिक्षा का आवश्यक अंग है। आजकल इस विषय में भी विपरीत अवस्था है। सार्वजनिक स्थानों पर, मार्गों पर,कार्यालयों में कचरा जमा होना और दिनों तक उसे उठाया नहीं जाना सहज बन गया है। आने जाने वाले लोगों को, वहीं पर काम करने वाले लोगों को इससे परेशानी भी नहीं होती है। इस स्वभाव को बदलना शिक्षा का विषय बनाना चाहिये । इसे बदले बिना यदि स्वच्छता का काम किया भी तो वह केवल विवशता से अथवा अंकों के लिए होगा, करना चाहिये इसलिए नहीं होगा।
- विद्यालय की स्वच्छता में केवल भवन की स्वच्छता ही नहीं होती। पुस्तकें, शैक्षिक सामग्री,बगीचा, मैदान, उपस्कर आदि सभी बातों की स्वच्छता भी होनी चाहिये । छात्रों का वेश, पदवेश, बस्ता आदि भी स्वच्छ होना अपेक्षित है।
- स्वच्छता के लिए प्रयोग में ली जाने वाली सामग्री चिन्ता का विषय है। साबुन, डीटेर्जेंट, एसिड, फिनाइल आदि सफाई की जो सामग्री होती है वह कृत्रिम और पर्यावरण का प्रदूषण करने वाली ही होती है। इससे होने वाली सफाई सुन्दर दिखाई देने वाली ही होती है परन्तु इसके पीछे व्यापक अस्वच्छता जन्म लेती है जो प्रदूषण पैदा करती है। ऐसी सुन्दर अस्वच्छता की संकल्पना छात्रों को समझ में आए ऐसा करने की आवश्यकता है। विद्यालय की स्वच्छता छात्रों का सरोकार बने यही शिक्षा है। स्वच्छता अपने आपमें साध्य भी है और छात्रों के विकास का माध्यम भी है । यह व्यावहारिक शिक्षा है, कारीगरी की शिक्षा है, विज्ञान की शिक्षा है, सामाजिक शिक्षा भी है।
विद्यालय का बगीचा
१. विद्यालय में बगीचा अनिवार्य है क्या ?
२. विद्यालय में बगीचा क्यों होना चाहिये ?
३. विद्यालय में कितना बड़ा बगीचा होना चाहिये ?
४. विद्यालय में खुला अथवा सुरक्षित स्थान ही न हो तो बगीचा कैसे बनायें ?
५. विद्यालय में बगीचा कैसा होना चाहिये ?
६. बगीचा और पर्यावरण, बगीचा और सुन्दरता, बगीचा एवं स्वास्थ्य, बगीचा एवं संस्कारक्षमता का क्या सम्बन्ध है ?
७. विद्यालय में घास, पौधे, वृक्ष एवं लता के विषय में किन किन बातों का विचार करना चाहिये ?
८. विद्यालय में फूल, फल आदि के विषय में क्या क्या विचार करना चाहिये ?
९. छात्रों एवं आचार्यों की वनस्पति सेवा में सहभागिता कैसे बने ?
१०. बगीचा तैयार करते समय खर्च, सुविधा, उपयोगिता, सुन्दरता, प्रसन्नता, प्राकृतिकता एवं व्यावहारिकता का ध्यान कैसे रखें ?
प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर
हिमाचल के पहाड़ी प्रदेश के शिक्षकों ने इस प्रश्नावली के उत्तर भेजे हैं । दस प्रश्नोवाली यह प्रश्नावली सदैव हरी भरी वृक्ष-संपदा और फलोफूलों से समृद्ध प्रदेशों के शिक्षकों की सहभागिता के कारण उत्तर अधिक सकारात्मक मिले हैं।
- विद्यालय मे बगीचा अनिवार्य ही है ऐसा दृढ मत सब का प्रथम प्रश्न का रहा। मुंबई जैसे महानगरों के शिक्षक भी विद्यालय मे बगीचा चाहिये यह मान्य तो करते हैं परंतु असंभव है ऐसा भी लिखते हैं । स्थान स्थान की परिस्थिति अनुसार विचार बदलता है यह हम सबका अनुभव है।
- बगीचा क्यों चाहिये ? इस प्रश्न के उत्तर में बालको में सौंदर्यदृष्टि बढे, विद्यालय का सौंदर्य बढे, उनको वृक्षवनस्पती फूल पौधों की जानकारी मिले इस प्रकार के विविध उत्तर प्राप्त हुए .
- बगीचा कितना बड़ा हो ? इस प्रश्न के लिए उसका क्षेत्र (एरिया)कितना हो इस बाबत स्पष्ट उल्लेख नहीं था। जितनी जगह उतना बगीचा आवश्यक है ऐसा आग्रह रहा । विद्यालय में खुली जगह न हो तो गमले में ही पौधे लगाकर बगीचा तो बनवाना ही चाहिये । बगीचा कैसा होना चाहिये इस प्रश्न के उत्तर मे सुंदर, सुशोभित, बहुत बडी हरियाली रंगबिरंगी फूलों के पौधे, बडे बडे वृक्ष इन सबका समावेश बगीचा संकल्पना में दिखाई दिया। ६ पर्यावरण, सुंदरता, स्वास्थ्य, संस्कारक्षमता और बगीचा परस्परपूरक बातें हैं यह तो लिखा परंतु किस प्रकार से यह किसी ने भी स्पष्ट नहीं किया। प्र. ७ से १० तक के प्रश्न वैचारिक थे उनके उत्तर वैसे नहीं थे । केवल मुलायम घास, फूलों से भरे वृक्ष इस प्रकार के सीमित शब्दों में जवाब थे ।
अभिमत :
वास्तव में जैसे आंगन बिना घर अधूरा वैसे ही बगीचा बिना विद्यालय अधूरा यह विचार मन मे दृढ हो । विद्यालय का बगीचा यह जैसा रमणीय स्थान है वैसा हि शैक्षिक स्थान भी है। निसर्ग की गोद में पढना माने शुद्ध प्राकृतिक वातावरण में पढना है। जैसे वातावरण में शुद्ध सात्त्विक भाव जागृत होते हैं जो विद्यार्थी को ज्ञानार्जन में सहायता करते हैं।
हरीभरी लताएँ फल और पुष्पों से भरे पौधे इनके माध्यम से सृष्टि के विविध रूपों का अनुभव होता है । उनको संरक्षण और संवर्धन के संस्कार मिलते हैं, उनकी सेवा करने से आत्मीयता और आनंद प्राप्त होता हैं; ज्ञान मिलता है, प्रसन्नता मिलती है इस कारण ही ऋषिमुनीयों के आश्रम शहरों से दूरी पर निसर्ग की गोद में रहते थे । बडे वृक्षों पर रहनेवाले प्राणी-पक्षिओं का जीवन परिचय होता है, वृक्ष के आधार से बढती हुई लताएँ देखकर आधार देने का अर्थ समझ में आने लगता । वृक्षों की पहचान और उनके उपकार समझते है।
विद्यालय के बगीचे में देसी फूल, सुगंधित फूल योजना से लगाएँ। क्रोटन जैसे, जिनकी विशेष देखभाल नहीं करनी पड़ती इसलिए उनको ही लगाना यह विचार बहुत ही गलत संस्कार करता है। उल्टा किसी की देखभाल करने से हमारा भी मन कोमल और प्रसन्न बनता है । फलों के वृक्ष से उनकी सुरक्षा करना, उन्हें स्वयं क्षति नहीं पहुँचाना इस वृत्ति का पोषण होता है । आज बडे बडे शहरो में विद्यालय की भव्य इमारत तो दिखती है परंतु वहाँ हरियाली नहीं, पौधे नहीं, फलों से भरे । वृक्ष नहीं दिखते हैं तो केवल चारों और सिमेंट की निर्जीवता । ऐसे रुक्ष एवं यांत्रिक निर्जीव वातावरण में शिक्षा भी निरस होती है। संवेदना, भावना जागृत नहीं होती। विद्यालय का भवन बनाते समय यह बात ध्यान में रखना आवश्यक है। ज्ञान जड नही चेतन है इसकी अनुभूति बगीचे के माध्यम से निश्चित होगी।
विमर्श
विद्यालय के प्रांगण में आँवला, जामुन, बेर, इमली, इस प्रकार से वृक्ष लगाने से छाँव और फल दोनों मिलेंगे।
- विद्यालय में बगीचा होना ही चाहिये ।
- विद्यालय छोटा हो और स्थान न हो तो छोटा सा ही सही लेकिन बगीचा अवश्य होना चाहिये ।
- बगीचा दर्शनेन्द्रीय और घ्राणेंद्रिय के संतर्पण के लिये आवश्यक होता है। संतर्पण का अर्थ है ज्ञानेन्द्रियों को उनका आहार देकर तुष्ट और पुष्ट करना । रंग दर्शनेन्द्रिय का और सुगंध घ्राणेंद्रिय का आहार है। अत: बगीचा रंगो और सुगन्ध की दृष्टि से सुन्दर होना चाहिये। विभिन्न प्रकार के रंगों के फल और पत्तों से रंगों की संदरता निर्माण होती है। परन्तु फूलों के रंगों से भी सुगन्ध की सुंदरता का अधिक महत्त्व है। रंग सुन्दर है परन्तु सुगन्ध नहीं है तो ऐसे फूलों का कोई महत्त्व नहीं । ये फूल नकली फूलों के बराबर होते हैं। इसलिए सुगन्ध वाले फूल ही बगीचे में होने चाहिये ।
- आजकल बगीचे में रंगों की शोभा को अधिक महत्त्व देकर नकली फूलों के पौधे ही लगाये जाते हैं। क्रोटन और अन्य विदेशी फूल जो दिखने में तो बहुत सुन्दर होते हैं परन्तु उनमें सुगन्ध नहीं होती ऐसे लगाये जाते हैं। ऐसे फल लगाना व्यर्थ है। वे इंद्रियों का संतर्पण नहीं करते।
- आजकल घास भी विदेशी लगाई जाती है। वास्तव में घास के रूप में दूर्वा ही उत्तम है। इसका सम्बन्ध आरोग्य के साथ है। दर्वा में शरीर और मन का ताप हरण करने की अद्भुत शक्ति होती है। इसलिए दूर्वा के ऊपर खुले पैर चलने का परामर्श दिया जाता है । उसी प्रकार से देशी मेंहदी भी आरोग्य की दृष्टि से ताप हरण करने वाली होती है।
- बगीचे में नीम, तुलसी, चंपा, औदुम्बर, अशोक, अमलतास, हरसिंगार जैसे वृक्ष, गुलाब, बेला, जासूद जैसे पौधे, जूही, चमेली जैसी लतायें होनी चाहिये । ये सब सात्त्विक सुगंधी वाले और आरोग्य प्रदान करने वाले होते हैं।
- बगीचा केवल मनोरंजन के लिए नहीं है, केवल शोभा के लिए नहीं है। वह बहुत बड़ा शिक्षा का केंद्र है। उसी प्रकार से उसका उपयोग होना चाहिये । वह शिशुकक्षाओं से लेकर बड़ी कक्षाओं तक वनस्पतिविज्ञान का केंद्र हो सकता है। उसी प्रकार से उसकी योजना करनी चाहिये । इस अर्थ में वह विज्ञान की प्रयोगशाला ही है।
- बगीचा जिस प्रकार विज्ञान की प्रयोगशाला है उसी प्रकार कृषिशास्त्र की भी प्रयोगशाला है। इसलिए विद्यालय का बगीचा आचार्यों और छात्रों ने मिलकर बनाया हुआ होना चाहिये । बगीचा बनाने के इस कार्य में बड़ी से छोटी कक्षाओं तक के सभी छात्रों के लिये काम होना आवश्यक है। शिक्षकों को इस कार्य में रुचि और कौशल दोनों होने चाहिये ।
- मिट्टी कुरेदना, मिट्टी को कूटना, छानना, उसे पानी में भिगोना, गूंधना, गमले तैयार करना, बुवाई करना, पौधे लगाना, क्यारियाँ साफ करना, पानी देना, पौधों की कटाई करना,फूल चुनना, फल तोड़ना आदि सभी काम विद्यालय की शिक्षा के महत्त्वपूर्ण अंग है। इन कामों के लिये बगीचे की आवश्यकता होती है।
- बगीचे के कारण ही पौधा कैसे बड़ा होता है, जीवन का विकास कैसे होता है इसका अनुभूत ज्ञान प्राप्त होता है।
- वनस्पति हमारे लिये कितनी उपकारक है, भूमि कैसे हमारा पोषण करती है, पेड़पौधों के स्वभाव कैसे होते है, उन्हें क्या अच्छा लगता है और किससे उन्हें दुःख होता है आदि का मनोवैज्ञानिक पक्ष भी इसके साथ जुड़ा हुआ है।
- बगीचा है तो उसके साथ आयुर्वेद का ज्ञान, औषधिविज्ञान का ज्ञान, औषधि वनस्पति को पहचानना आदि भी सिखाया जा सकता है।
- बगीचे में ही सागसब्जी उगाकर उसका नाश्ते में उपयोग करना, उसके साथ आरोग्यशास्त्र और आहारशास्त्र को जोड़ना भी महत्त्वपूर्ण आयाम है।
- विद्यालयों में बगीचे के लिये स्थान ही नहीं होना, समयसारिणी में बगीचे के लिये प्रावधान ही नहीं होना, उसे सिखाने वाले शिक्षक ही नहीं मिलना, इसे अभिभावकों ने स्वीकार ही नहीं करना आदि अनेक अवरोध निर्माण हो जाते हैं। ये अवरोध शिक्षा के सम्यक दृष्टिकोण के अभाव के कारण होते हैं । इन अवरोधों को दूर करने के लिये शिक्षक शिक्षा का और अभिभावक प्रबोधन का प्रबन्ध विद्यालय में ही होना चाहिये।
- जहां विद्यालय के साथ थोड़ी अधिक भूमि है वहाँ विद्यालय के निभाव के लिये बागवानी विकसित करना भी विद्यालय का कार्य है ।
- यह प्रश्नावली संस्थाचालक, शिक्षक, अभिभावक ऐसे तीनों गटों के सहयोग से भरकर प्राप्त हुई है।
विद्यालय की वाहनव्यवस्था
- छात्रों, आचार्यों, अन्य कर्मचारियों को विद्यालय में आने के लिये वाहन होना चाहिये क्या ? यदि हां, तो क्यों ?
- घर से विद्यालय की दूरी कितनी होनी चाहिये ?
- दूरी के अनुसार वाहन किस प्रकार का होना चाहिये ?
- कौन सा वाहन किस प्रकार का होना चाहिये ? (१) बस (२) कार (३) टैम्पो (४) ऑटोरिक्षा (५) साईकिल रिक्षा (६) स्कूटर (७) साईकिल (८) तांगा (९) बैलगाडी (१०) ऊँटगाडी (११) अन्य।
- घर से विद्यालय कितनी दूरी पर हो तो पैदल जाना चाहिये ?
- सुविधा, खर्च एवं पर्यावरण की दृष्टि से वाहनव्यवस्था के सम्बन्ध में क्या विचार करना चाहिये ?
- वाहनव्यवस्था के साथ प्रतिष्ठा का भी सम्बन्ध जुड़ गया है। इसके सम्बन्ध में उचित विचार एवं व्यवस्था कैसे करें ?
- कभी कभी छात्रों को नौकर या अभिभावक छोड़ने आते हैं। उसका क्या प्रभाव होता है ?
- वाहनव्यवस्था से असुविधा भी हो सकती है क्या ? यदि हां, तो किस प्रकार की ?
- वाहन के कारण से क्या क्या समस्यायें निर्माण हो सकती हैं ?
प्रश्नावली से प्राप्त उत्तर
इस प्रश्नावली को भरवाने में गाँधीनगर की विद्याबहन पसारी का सहयोग रहा । दस प्रश्नों की इस प्रश्नावली में प्राचार्य, प्राध्यापक, संस्थाचालक, गृहिणी एवं शिक्षक भी सम्मिलित हुए । उनके उत्तर इस प्रकार थे :
- छात्र-कर्मचारी, आचार्य आदि सबको लाने के लिए वाहन व्यवस्था आवश्यक है। इस व्यवस्था से पैसे व समय दोनों की बचत होती है । ऐसा सबका मत था ।
- घर से विद्यालय की दरी जितनी कम उतना ही। अच्छा, यह बात तत्त्वतः सबको ही मान्य है।
- विद्यालय की दूरी को ध्यान में रखकर वाहन का चयन करना चाहिए । साँझा वाहन अच्छा, ऐसा अभिप्राय तीसरे प्रश्न के उत्तर में प्राप्त हुआ।
- पर्यावरण की हानि न हो, ऐसे वाहनों का ही। उपयोग होना चाहिए। यह उत्तर बहन मीनाक्षी सोमानी तथा पूजा राठीने दिया है। शेष सबने स्कूल बस का ही। पर्याय सुझाया है।
- दो किमी दूर तक विद्यालय में पैदल ही जाना चाहिए। ऐसा सबका मत था ।
- जो बच्चे कार से विद्यालय आते हैं, उनके प्रति छात्रों एवं आचार्यों में यह धारणा बनती हैं कि वे तो अमीर घर के हैं। जो उचित नहीं है। अतः सभी छात्रों को विद्यालय वाहन से ही आना चाहिए। यह सबका मत था ।
- विद्यालय की वाहन व्यवस्था से निर्माण होने वाली असुविधाएँ एवं समस्याएँ सब जानते हैं। वाहनों के कारण होने वाली दुर्घटनाएँ, वाहन चालकों की लापरवाही, वाहन के खराब हो जाने पर विद्यालय में अनुपस्थिति, एक ही वाहन में अपेक्षा से अधिक संख्या, वाहन के कारण घर से जल्दी आना व देर से घर पहँचना आदि कठिनाइयाँ खड़ी होती हैं।
अभिमत :
सभी उत्तरों को पढने से ऐसा लगा कि हम स्वयं समस्या निर्माण करने वाले हैं और हम ही उनका समर्थन करने वाले हैं। सबसे अच्छी व्यवस्था तो यही है कि जिस आयु का बालक जितनी दूर पैदल जा सकता है, उतनी दूर पर ही उसका विद्यालय होना चाहिए । पैदल जाते समय मित्रों का साथ उन्हें आनन्ददायी लगता है। शारीरिक स्वस्थता एवं स्वावलम्बन दोनों ही सहज में मिलते हैं। आते जाते मार्ग के दृश्य, घटनाएँ बहुत कुछ अनायास ही सिखा देती है। ऐसी अनुकूलता की अनेक बातें छोड़कर हम प्रतिकूल परिस्थिति में जीवन जीते हैं, ऐसा क्यों ? तो ध्यान में आता है कि अपने बालक को केजी से पीजी तक की शिक्षा एक ही अच्छी संस्था में हो वही भेजना ऐसे दुराग्रह रखने से होता है। इसके स्थान पर जो विद्यालय पास में है, उसे ही अच्छा बनाने में सहयोगी होना । ऐसा विचार यदि अभिभावक रखेंगे तो शिक्षा आनन्द दायक व तनावमुक्त होगी। छोटे छोटे गाँवों में बैलगाडी, ऊँटगाडी, घोडागाडी से विद्यालय जाना कितना सुखकर होता था, यह हम भूल गये हैं। इन वाहनों की गति कम होने से दुर्घटना होने की सम्भावना भी कम और मार्ग में निरीक्षण करते जाने का आनन्द अधिक मिलता है। निर्जीव वाहनों में यात्रा करने के स्थान पर जीवित प्राणियों के साथ प्रवास करने से उन प्राणियों के प्रति संवेदना जाग्रत होती है और उनसे आत्मीयता बढती है।
बच्चों का आनन्द बड़ों की समझ में नहीं आता । हम उन्हें भी अपने जैसा अव्यवहारिक तथा असंवेदनशील बनाते जाते हैं । इसी प्रकार २ किमी से लेकर ५ किमी तक की दूरी है तो साइकिल का उपयोग हर दृष्टि से लाभदायक रहता है। पर्याप्त शारीरिक व्यायाम हो जाता है, किसी भी प्रकार का प्रदूषण नहीं होता और साथ ही साथ पैसा व समय दोनों बचते हैं । इसलिए स्थान स्थान पर अच्छे व छोटे छोटे विद्यालय खड़ें करने चाहिए।
वर्तमान समय में अनेक भ्रान्त धारणाओं के कारण हमने अपने लिये अनेक समस्याओं को मोल लिया है। उनमें एक वाहन की समस्या है। अपनी सन्तानों को विद्यालय भेजना अथवा बड़े विद्यार्थी हों तो विद्यालय जाना महँगा हो रहा है उसमें एक हिस्सा वाहन का खर्च है।
विमर्श
वाहन की व्यवस्था क्यों करनी पडती है ?
विद्यालय घर से इतना दर है कि बालक पैदल चलकर नहीं जा सकते ।
यदि पैदल चलकर जा भी सकते हैं तो सड़कों पर वाहनों का यातायात इतना अधिक है कि उनकी सुरक्षा के विषय में भय लगता है।
पैदल चलकर जा भी सकते हैं तो अब छोटे या बडे विद्यार्थियों में इतनी शक्ति नहीं रही कि वे चल सकें। उन्हें थकान होती है।
पैदर चलने की शक्ति है तो मानसिकता नहीं है। पैदल चलना अच्छा नहीं लगता। पैदल चलने में प्रतिष्ठा नहीं लगती।
पैदल चलकर यदि सम्भव भी है तो लगता है कि आने जाने में ही इतना समय बरबाद हो जायेगा की पढने का समय कम हो जायेगा । थक जायेंगे तो पढेंगे कैसे ?
इन कारणों से वाहन की आवश्यकता निर्माण होती है। विद्यालय जाने के लिये जिन वाहनों का प्रयोग होता है वे कुछ इस प्रकार के हैं...
- ऑटोरिक्षा : शिशु से लेकर किशोर आयु के विद्यार्थी इस व्यवस्था में आतेजाते हैं ।
- साइकिलरिक्षा : क्वचित इनका भी प्रयोग होता है और शिशु और बाल आयु के विद्यार्थी इनमें जाते हैं ।
- स्कूटर और मोटर साइकिल : महाविद्यालयीन विद्यार्थियों का यह अतिप्रिय वाहन है। छोटी आयु के छात्रों को उनके अभिभावक लाते ले जाते हैं।
- साइकिल : बाल और किशोर साइकिल का भी प्रयोग करते हैं।
- कार : धनाढ्य परिवारों के बालकों के लिये मातापिता कार की सुविधा देते हैं। महाविद्यालयीन विद्यार्थी स्वयं भी कार लेकर आते हैं।
- स्कूल बस : महाविद्यालयों में जिस प्रकार मोटरसाइकिल बहुत प्रचलित है उस प्रकार शिशु से किशोर आयु के विद्यार्थियों के लिये स्कूल बस अत्यन्त प्रचलित वाहन है। इसकी व्यवस्था विद्यालय द्वारा ही की जाती है । कभी विद्यालयों की ओर से ऑटोरिक्षा का प्रबन्ध भी किया जाता है।
हमें एक दृष्टि से लगता है कि वाहन के कारण सुविधा होती है। परन्तु वाहन के कारण अनेक प्रकार की समस्यायें भी निर्माण होती हैं।
कैसे ?
- सबसे बड़ी समस्या है प्रदषण की । झट से कोई कह देता है कि सीएनजी के कारण अब उतना प्रदूषण नहीं होता जितना पहले होता था। यह तो ठीक है परन्तु ईंधन की पैदाइश से लेकर प्रयोग तक सर्वत्र वह प्रदूषण का ही स्रोत बनता है। अनदेखी की जा सके इतनी सामान्य समस्या यह नहीं है।
- यातायात की भीड : वाहनों की संख्या इतनी बढ़ गई है कि सडकों पर उनकी भीड हो जाती है। ट्रैफिक की समस्या महानगरों में तो विकट बन ही गई है, अब वह नगरों की ओर गति कर रही है। इससे कोलाहल अर्थात् ध्वनि प्रदूषण पैदा होता है। हम जानते ही नहीं है कि यह हमारी श्रवणेन्द्रिय पर गम्भीर अत्याचार है और इससे हमारी मानसिक शान्ति का नाश होता है, विचारशक्ति कम होती है।
- वाहनों की भीड के कारण सडकें चौडी से अधिक चौडी बनानी पडती हैं। सडक के बहाने फिर प्राकृतिक संसाधनों के नाश का चक्र शुरू होता है। सडकें चौडी बनाने के लिये खेतों को नष्ट किया जाता है, पुराने रास्तों के किनारे लगे वृक्षों को उखाडा जाता है । यह संकट कोई सामान्य संकट नहीं है।
- ट्रेफिक जेम होने के कारण समय की और बरबादी होती है। समय की बरबादी का तो और भी एक कारण है। एक बस में यदि २० से ५० विद्यार्थी आते जाते हैं तो उन्हें आने जाने में एक से ढाई घण्टे खर्च करने पडते हैं । समय एक ऐसी सम्पत्ति है जो अमीर-गरीब के पास समान मात्रा में ही होती है, और एक बार गई तो किसी भी उपाय से न पुनः प्राप्त हो सकती है न उसका खामियाजा भरपाई किया जा सकता है।
- वाहन से यात्रा का प्रभाव शरीरस्वास्थ्य पर भी विपरीत ही होता है। वाहन के चलने से उसकी गति से, उसकी आवाज से, उसकी ब्रेक से शरीर पर आघात होते हैं और दर्द तथा थकान उत्पन्न होते हैं । हमारी विपरीत सोच के कारण से हमें समझ में नहीं आता कि चलने से व्यायाम होता है और शरीर स्वस्थ बनता है जबकि वाहन से अस्वास्थ्य बढ़ता है और खर्च भी होता है। वाहन से समय बचता है ऐसा हमें लगता है परन्तु उसकी कीमत पैसा नहीं, स्वास्थ्य है।
- वाहन के कारण खर्च बढता है । पढाई के शुल्क से भी वाहन का खर्च अधिक होता है। परिस्थिति और मानसिकता के कारण यह खर्च हमें अनिवार्य लगता है।
- वाहनों की अधिकता के कारण केवल व्यक्तिगत सम्पदाओं का नाश नहीं होता है, राष्ट्रीय सम्पत्ति का भी नाश होता है। सुखद जलवायु, समशीतोष्ण तापमान, खेती, स्वस्थ शरीर और मन वाले मनुष्य राष्ट्रीय सम्पत्ति ही तो है। वाहनों के अतिरेक से इस सम्पत्ति का ह्रास होता है। यह समस्या लगती है उससे कहीं अधिक है।
इन समस्याओं का समाधान क्या है इसका विचार हमें शान्त चित्त से, बुद्धिपूर्वक, मानवीय दृष्टिकोण से और व्यावहारिक धरातल पर करना होगा।
कुछ इस प्रकार से उपाय करने होंगे...
- हमें मानसिकता बनानी पडेगी कि पैदल चलना अच्छा है। उसमें स्वास्थ्य है, खर्च की बचत है, अच्छाई है और इन्हीं कारणों से प्रतिष्ठा भी है।
- यह केवल मानसिकता का ही नहीं तो व्यवस्था का भी विषय है। हमें बहुत व्यावहारिक होकर विचार करना होगा।
- विद्यालय घर से इतना दूर नहीं होना चाहिये कि विद्यार्थी पैदल चलकर न जा सकें । शिशुओं के लिये और प्राथमिक विद्यालयों के विद्यार्थियों के लिये तो वह व्यवस्था अनिवार्य है। यहाँ फिर मानसिकता का प्रश्न अवरोध निर्माण करता है । अच्छे विद्यालय की हमारी कल्पनायें इतनी विचित्र हैं कि हम इन समस्याओं का विचार ही नहीं करते । वास्तव में घर के नजदीक का सरकारी प्राथमिक विद्यालय या कोई भी निजी विद्यालय हमारे लिये अच्छा विद्यालय ही माना जाना चाहिये । अच्छे विद्यालय के सर्वसामान्य नियमों पर जो विद्यालय खरा नहीं उतरता वह अभिभावकों के दबाव से बन्द हो जाना चाहिये । वास्तविक दृश्य यह दिखाई देता है कि अच्छा नहीं है कहकर जिस विद्यालय में आसपास के लोग अपने बच्चों को नहीं भेजते उनमें दूर दूर से बच्चे पढने के लिये आते ही हैं। निःशुल्क सरकारी प्राथमिक विद्यालयों को अभिभावक ही अच्छा विद्यालय बना सकते हैं। इस सम्भावना को त्याग कर दूर दूर के विद्यालयों में जाना बुद्धिमानी नहीं है ।
- साइकिल पर आनाजाना सबसे अच्छा उपाय है । वास्तव में विद्यालय ने ऐसा नियम बनानाचाहिये किघरसे विद्यालय की दूरी एक किलोमीटर है तो पैदल चलकर ही आना है, साइकिल भी नहीं लाना है और पाँच से सात किलोमीटर है तो साइकिल लेकर ही आना है । विद्यालय में पेट्रोल-डीजल चलित वाहन की अनुमति ही नहीं है । अभिभावक अपने वाहन पर भी छोडने के लिये न आयें।
- देखा जाता है कि जहाँ ऐसा नियम बनाया जाता है वहाँ विद्यार्थी या अभिभावक पेट्रोल-डिजल चलित वाहन तो लाते हैं, परन्तु उसे कुछ दूरी पर रखते हैं और बाद में पैदल चलकर विद्यालय आते हैं । यह तो इस बात का निदर्शक है कि विद्यार्थी और उनके मातापिता अप्रामाणिक हैं, नियम का पालन करते नहीं हैं इसलिये अनुशासनहीन हैं और विद्यालय के लोग यह जानते हैं तो भी कुछ नहीं कर सकते इतने प्रभावहीन हैं। वास्तव में इस व्यवस्था को सबके मन में स्वीकृत करवाना विद्यालय का प्रथम दायित्व है।
- महाविद्यालयों में मोटर साइकिल एक आर्थिक, पर्यावरणीय और सांस्कृतिक अनिष्ट बन गया है। मार्गों पर दुर्घटनायें युवाओं के बेतहाशा वाहन चलाने के कारण होती हैं । महाविद्यालय के परिसर में और आसपास पार्किंग की समस्या इन्हीं के कारण से होती है। पिरीयड बंक करने का प्रचलन इसी के आकर्षण से होता है। मित्रों के साथ मजे करने का एक माध्यम मोटरसाइकिल की सवारी । वह दस प्रतिशत उपयोगी और नब्बे प्रतिशत अनिष्टकारी वाहन बन गया है। महाविद्यालयों का किसी भी प्रकार का नैतिक प्रभाव विद्यार्थियों पर नहीं है इसलिये वे उन्हें मोटरसाइकिल के उपयोग से रोक नहीं सकते । परन्तु इसका एकमात्र उपाय नैतिक प्रभाव निर्माण करने का, विद्यार्थियों का प्रबोधन करने का और महाविद्यालय में साइकिल लेकर आने की प्रेरणा देने का है। इसके बाद मोटरसाइकिल लेकर नहीं आने का नियम बनाया जा सकता है।
- वास्तव में साइकिल संस्कृति का विकास करने की आवश्यकता है । सडकों पर साइकिल के लिये अलग से व्यवस्था बन सकती है। पैदल चलनेवालों और साइकिल का प्रयोग करने वालों की प्रतिष्ठा बढनी चाहिये। विद्यालयों ने इसे अपना मिशन बनाना चाहिये । सरकार ने आवाहन करना चाहिये । समाज के प्रतिष्ठित लोगों ने नेतृत्व करना चाहिये ।
जिस दिन वाहनव्यवस्था और वाहनमानसिकता में परिवर्तन होगा उस दिन से हम स्वास्थ्य, शान्ति और समृद्धि की दिशा में चलना शुरू करेंगे।
विद्यालय में धनव्यवस्था
- ध्वनि प्रदूषण का क्या अर्थ है ?
- विद्यालय में ध्वनि प्रदूषण किन किन स्रोतों से होता है ?
- अच्छी ध्वनिव्यवस्था का क्या अर्थ है ?
- ध्वनि का शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव होता है ?
- ध्वनि व्यवस्था की दृष्टि से निम्नलिखित बातों में क्या क्या सावधानियां रखनी चाहिये ? १. ध्वनिवर्धक यंत्र २. ध्वनिमुद्रण यंत्र एवं ध्वनमुद्रिकायें ३. ध्वनिक्षेपक यंत्र ४. विद्यालय की विभिन्न प्रकार की घण्टियां ५. कक्षाकक्ष की रचना ६. संगीत के साधन ७. लोगों का बोलने का ढंग
- ध्वनिप्रदूषण का निवारण करने के क्या उपाय है ?
- अच्छी ध्वनिव्यवस्था के शैक्षिक लाभ क्या हैं ?
- ध्वनिप्रदूषण निवारण के एवं अच्छी ध्वनिव्यवस्था बनाये रखने के आर्थिक एवं मानवीय प्रयास क्या हो सकते हैं ?
प्रश्नावली से पाप्त उत्तर
जल प्रदूषण, वायु प्रदुषण जैसे शब्दों से हम सुपरिचित हैं। वैसा ही खतरनाक शब्द ध्वनि प्रदूषण भी है। विद्यालयों में इस ध्वनि प्रदूषण को रोकने के लिए व्यवस्थयें कैसी हों, यह जानने के लिए प्रश्नावली बनी है। विद्यालयों में होने वाले कोलाहल का नित्य अनुभव करने वाले आचार्यों ने इन आठ प्रश्नों के उत्तर भेजे हैं।
१. छात्रों के सतत कोलाहल से होने वाले शोर से ही ध्वनि प्रदूषण होता है। ऐसा उनका मत है। २. ध्वनि प्रदूषण के स्रोत में छात्रों का जोर जोर से चिल्लाना, दर के मित्र को चिल्लाकर बुलाना, आस पास की कक्षाओं से ऊँचे स्वर में पढ़ाने की आवाजें आना, सूचनाएँ देने के लिए ध्वनिवर्धक यन्त्र का उपयोग करना आदि । इन सबके साथ साथ जब विद्यालय शहर के मध्य में अथवा मुख्य सड़क पर स्थित है तो आने जाने वाले वाहनों की कर्णकर्कश आवाजों के कारण विद्यार्थी ठीक से सुन नहीं पाते, परिणाम स्वरूप शिक्षकों का उच्चस्वर में बोलना, शिक्षकों द्वारा डस्टर को जोर से टेबल पर मारना आदि बातों से अत्यधिक शोर मचता है। इस ध्वनि प्रदूषण को रोकने हेतु विद्यालय का मुख्य सडक से दूर होना, छात्रों व आचार्यों का चिल्ला कर न बोलना, ध्वनि वर्धक यन्त्र का अनावश्यक उपयोग न करना आदि उपाय सूचित किये हैं।
अभिमत :
विद्यार्थियों को शान्त स्वर में बोलने का अभ्यास करवाना चाहिए। शिक्षकों का शान्त स्वर में बोलना भी इसमें सहायक होता है। अति उत्तेजना से अशान्ति बढती है, अतः बार-बार उत्तेजित न हो, इसलिए ब्रह्मनाद व ध्यान करवाना चाहिए । अत्यधिक कोलाहल होने से शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर विपरीत परिणाम होता है। सीखते समय एकाग्रता नहीं बन पाती। आकलन शक्ति व स्मरणशक्ति क्षीण होती है। विद्यालय में अध्ययन-अध्यापन प्रक्रिया में ध्वनि तो होगी ही, परन्तु तेज, कर्कश व आवेशपूर्ण ध्वनि के स्थान पर शांत, मधुर व आत्मीयता पूर्ण ध्वनि बोलने से शोर भी नहीं होता और छात्रों की एकाग्रता भी बढती है, शान्तवातावरण का मन पर अनुकूल प्रभाव पडता हैं। छात्रों की ग्रहणशीलता व धारणाशक्ति बढती है, आकलन जल्दी होता है, बुद्धि कुशाग्र होती है और इन सभी बातों से ज्ञानार्जन भी अधिक होता है।
ध्वनि प्रदूषण रोकने हेतु आर्थिक उपायों से अधिक कारगर मानवीय प्रयास ही उपयोगी होंगे। नीरव शांतता और भयप्रद शांतता के अन्तर को समझना होगा। एक समाचार पत्र में पढ़ा था कि दिल्ली के एक विद्यालय में मौनी अमावस्या के दिन मौनाभ्यास होता है। विद्यालय के सारे कार्य यथावत होते हैं, परन्तु प्रधानाचार्य, शिक्षक, विद्यार्थी व कर्मचारी मौन पालन करते हैं। यह प्रयोग जीवन का संस्कार बनता है, मौन का महत्त्व समझ में आता है। वर्ष में एक दिन सबकी ऊर्जा बड़ी मात्रा में बचती है, श्रवणशक्ति भी बढ़ती है।
References
धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे