Difference between revisions of "अपने देश के विषय में घोर अज्ञान"
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कुछ उदाहरण
१. उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में पढाने वाली अंग्रेजी माध्यम में पढ़ी शिक्षिका को लक्ष्मी और सरस्वती अलग अलग देवियों के नाम हैं इसका पता नहीं है । फिर शुभलक्ष्मी, वैभवलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, अलक्ष्मी आदि का पता कैसे चलेगा । कमला, पद्मा, श्री, नारायणी या लक्ष्मीकान्त, लक्ष्मीनन्दन, श्रीकान्त, श्रीपति आदि का अर्थ कैसे समज में आयेगा ?
२. आईएएस कक्षा के शिक्षा विभाग का अधिकारी प्रामाणिकता से कहता है कि अंग्रेज भारत में आये तब भारत में शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी, अंग्रेजों ने ही शिक्षा का विस्तार और विकास किया । महात्मा गाँधी और धर्मपाल जैसे बीसवीं शताब्दी के जानकारों ने अठारहवीं शताब्दी में भारत में बहुत अच्छी शिक्षा थी और बहुत अधिक संख्या में विद्यालय थे इसके प्रमाण दिये हैं उसकी भी जानकारी देश चलाने वालों के पास नहीं है । बीसवीं शताब्दी में दी गई जानकारी भी नहीं है तो दो सौ वर्ष पूर्व की, पाँच सौ या पाँच हजार वर्ष पूर्व की अधिकृत जानकारी होने की तो सम्भावना ही नहीं है ।
३. देश के बौद्धिकों में वेद, उपनिषद्, गीता आदि ग्रन्थों को खोले बिना या देखे बिना ही उसकी आलोचना करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। इन ग्रन्थों में वास्तव में क्या है इसकी लेशमात्र भी जानकारी पढ़े लिखे लोगों को नहीं होती है ।
४. भारत के इतिहास के विषय में ऐसा ही अज्ञान है । कौन पाँच हजार वर्ष पूर्व का, कौन तीन हजार वर्ष पूर्व का, कौन एक हजार और कौन तीन सौ वर्ष पूर्व का है इसका कोई पता नहीं । पाँच हजार और पाँच सौ वर्षों के अन्तर का कोई अहेसास नहीं, वर्तमान युग का उससे कुछ नाता है इससे कुछ लेनादेना नहीं और हमारा अपना उनसे कोई सम्बन्ध है इसकी कोई अनुभूति नहीं । इसे अज्ञान की परिसीमा ही मानना चाहिये ।
५. पदार्थविज्ञान के क्षेत्र की जितनी भी खोजें आज तक हुई हैं वे सब भारत में हुईं और भारत से सारे विश्व में गईं इसका कोई पता उच्चविद्याविभूषितों को भी नहीं होता ।
६. हमें कोलम्बस और वास्को-डी-गामा दुनिया के प्रवास पर निकले और कोलम्बस अमेरिका गया और वास्को-डी-गामा भारत आया इसका तो पता है परन्तु भारत के अगस्त्य, चौलराज कौण्डिल्य, महेन्द्र और संघमित्रा तथा गुजरात के अनेक व्यापारी विश्व के लगभग सभी देशों में गये इस की गन्ध तक नहीं है।
कारण
७. इस प्रकार की भारत विषयक जानकारी देने में पूरा ग्रन्थ भर सकता है । प्रश्न यह है कि भारत के लोग वास्को-द-गामा को तो जानते हैं परन्तु कौण्डिल्य को नहीं, युक्लिड को तो जानते हैं परन्तु भास्कराचार्य को नहीं, सोफ्रेटीस को तो जानते हैं परन्तु याज्ञवल्क्य को नहीं इसका कारण क्या है ?
८. यही कि यह सब पढ़ाया नहीं जाता । ब्रिटीशों ने शिक्षा का अंग्रेजीकरण अर्थात् यूरोपीकरण अर्थात् पश्चिमीकरण किया उसका एक आयाम यह है कि भारत के विद्यार्थियों को युरोप की जानकारी दी जाय और भारत विषयक जानकारी नहीं दी जाय जिससे वे अपना गौरव भूल जाय और यूरोप को महान मानें । दस पीढ़ियों के बाद भारत विषयक अज्ञान होना स्वाभाविक है ।
९. प्रश्न यह उठ सकता है कि ब्रिटीशों ने भारत की प्रजा को भारत के विषय में अज्ञान रखना अपना स्वार्थ समझा यह समझ में आता है परन्तु स्वतन्त्र भारत में इसमें परिवर्तन क्यों नहीं किया गया ? यह कितना विचित्र है कि भारत के विश्वविद्यालय दुनिया का ज्ञान तो देते हैं परन्तु भारत का नहीं देते । भारत विषयक जानकारी भी भारतीय नहीं है ऐसे लोग ही देते हैं ।
१०. सामान्य बुद्धि को विचित्र लगने वाली बातें और उठने वालें प्रश्नों का उत्तर यह है कि सन १९४७ में जब सत्ता का हस्तान्तरण हुआ और ब्रिटीशों ने भारत की सत्ता भारत के लोगों के हाथ में सौंपी तब सत्ता का केवल हस्तान्तरण हुआ । देश को चलाने वाला तन्त्र ब्रिटीश ही रहा । लोग बदले व्यवस्था नहीं । अतः विश्वविद्यालय वही रहे, संचालन वही रहा, स्कूलों कोलेजों में पाठ्यपुस्तक वही रहे, जानकारी वही रही । विश्वविद्यालयों से लेकर प्राथमिक विद्यालयों तक की संख्या बढी, शिक्षा तो वही रही ।
११. अंग्रेज जो सिखाते थे, उनसे शिक्षा प्राप्त किये हुए भारतीय भी वही सिखाते थे । सत्ता के हस्तान्तरण से इसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ । अंग्रेजी शिक्षा का यह वटवृक्ष बहुत फैला है, उसकी शाखायें भूमि में जाकर नये वृक्ष के रूप में पनप रही हैं । उस वृक्ष का जीवनरस युरोप है । फिर उसमें वेद उपनिषद आदि कैसे आयेंगे ?
१२. सत्ता प्राप्त किये हुए भारतीयों ने पर-तन्त्र छोडकर शिक्षा में अपना तन्त्र क्यों नहीं अपनाया ? इसलिये कि भारत के पढेलिखे लोग मानते थे कि युरोपीय ज्ञान से ही देश का विकास हो सकता है । जब सरकार ही ऐसा मानती है तब शिक्षा अपने qa वाली अर्थात् भारतीय कैसे बनेगी । फिर भारत के लोगों को भारत का ज्ञान कैसे मिलेगा ?
१३. तथ्य तो यह है कि आज दुनिया के पास जितना ज्ञान है उतना तो भारत के पास था ही और आज भी ग्रन्थों में और कुछ लोगों के मस्तिष्क में और हृदय में है ही, परन्तु दुनिया के पास नहीं है वह भी भारत के पास है । केवल उसे सिखाने की आवश्यकता है । सिखाने लगें तो बहुत अल्प समय में खोई हुई अस्मिता पुनः वापस प्राप्त कर लेंगे । सरकार, देशभक्तों और बौद्धिकों को यह करने की आवश्यकता है ।
'विजातीय पदार्थों की खिचडी का प्रयास
१४, एक व्यक्ति को तेज बुखार आया है। वह आयुर्वेदाचार्य के पास जाता है । वह उसे कुछ भी नहीं खाने का परामर्श देता है। ठण्डे पानी का उपचार कर पहले शरीर की उष्णता कम करता है, बाद में दवाई देता है और आराम करने को कहता है । एलोपथी का डॉक्टर पहले अनेक प्रकार की जाँच करवाता है, साथ ही दवाई देकर शरीर को उष्णता को दबा देता है, शरीर का तापमान सामान्य कर देता है और पथ्य की कोई आवश्यकता नहीं है, जो चाहे खा सकते हैं ऐसा कहता है ? दोनों का परामर्श और उपचार एकदूसरे से इतना विरुद्ध है जितनी पूर्व और पश्चिम दिशायें । रुगण क्या करे ? किसकी माने ? किस आधार पर ?
१५, एक कहता है कि खिचडी बनानी है तो चावल और मूँग की दाल, चावल और अरहर की दाल या चावल और चने की दाल की बन सकती है तो बात समझ में आती है, परन्तु जो कहता है कि केवल चावल और मूँग की दाल की ही बन सकती है और किसी दाल की नहीं, तो उसका क्या करेंगे ? और जो कहता है कि चावल और कंकड की बनाओ तो उसका क्या करें ? यही न कि बनाकर देख लें । चावल और कंकड की खिचडी का क्या प्रभाव होता है वह भी देख लें ?
१६, एक कहता है कि तुम अहमदाबाद से बडौदा - कोटा - मथुरा मार्ग से दिल्ली जा सकते हो और आबूरोड- जयपुर-रेवाडी मार्ग से भी जा सकते हो तो बात समझ में आ सकती है, परन्तु जो कहे कि तुम जयपुर मार्ग से ही जा सकते हो, बडोदा-कोटा से नहीं, और तुम जाओगे तो पछताओगे, हम तुम्हें जाने ही नहीं देंगे, उसका क्या करें ?
१७. जिसे अहमादृबाद से दिल्ली जाना है, जिसे अहमदाबाद से नागपुर जाना है और जिसे अहमदाबाद से गोवा जाना है उन तीनों को अहमदाबाद से राजकोट जाने वाली गाडी में बिठा देने से क्या होगा ? एक का भी गन्तव्य तो आयेगा ही नहीं । परन्तु नियमों का प्रावधान इसी मार्ग से जाने को मान्यता देता है इसलिये इससे अलग कुछ हो ही नहीं सकता ।
१८. ये सारे उदाहरण हास्यास्पद हैं, विचित्र हैं, सम्ध्रम पैदा करनेवाले हैं, मार्ग से भटकाने वाले हैं। जो उदाहरण दिये हैं उनमें से प्रथम तो रोज रोज होता है, शेष तीन लाक्षणिक है । रेल की यात्रा में या खिचडी बनाने में भले ही ऐसा न होता हो तो भी अनेक बातों में, अनेक प्रश्न सुलझाने में ऐसी ही पद्धति अपनाई जाती है ।
१९. स्वतन्त्रता, समानता, सहिष्णुता, समन्वय आदि ऐसे ही अराजक स्थिति निर्माण करनेवाले शब्द बन गये हैं । मूल आशय, वास्तविक सन्दर्भ, क्रियान्वयन की प्रक्रिया, सम्भवित परिणाम आदि की कोई स्पष्टता न होने से कोलाहल तो होता है परन्तु आशय सिद्ध नहीं होता ।
२०. स्वतन्त्रता का अर्थ स्पष्ट नहीं होने से सर्व प्रकार के स्वैराचार पनपते हैं । युवक युवतियों के सम्बन्धों से लेकर साम्यवादी - गांधीवादी - राष्ट्रवादी की बहस तक स्वतन्त्रता के नाम पर कुछ भी कह सकते हैं, कुछ भी कर सकते हैं, देश की व्यवस्था का चाहे कुछ भी हो ।
२१. समन्वय के नाम पर कंकड - चावल की खिचडी बनाने का प्रयास होता है । सहिष्णुता के नाम पर पराकोटी की असहिष्णुता का व्यवहार होता है। समानता के नाम पर हास्यजनक स्थिति निर्माण होती है । उदाहरण के लिये पुरुष क्यों शिशुसंगोपन नहीं कर सकता ऐसा पूछा जाता है और महिला क्यों ट्रक नहीं चला सकती ऐसा पूछा जाता है । महिला ट्रक चलाकर और पुरुष शिशुसंगोपन कर सिद्ध कर देते है कि वे कर सकते हैं परन्तु परिवार टुट जाता है ।
२२. जिसके पास ज्ञान है उसके पास प्रमाणपत्र नहीं और जिसके पास प्रमाणपत्र है उसके पास ज्ञान नहीं इसके हजारों उदाहरण सभी क्षेत्रों में मिल सकते हैं । मान्यता और प्रतिष्ठा प्रमाणपत्र को है । नौकरी प्रमाणपत्र वाले को मिलती है, ज्ञानवान को नहीं । बिना प्रमाणपत्र के ज्ञान का प्रयोग अपराध माना जायेगा । यह किस बात का उदाहरण है यह कहना भी कठिन है ।
२३. सरकारी कानून वर्ण, जाति, सम्प्रदाय के भेद नहीं मानता है परन्तु चुनाव इसके आधार पर ही लडे जाते हैं। भारत को सार्वभौम प्रजासत्ताक देश कहा जाता है परन्तु सभी क्षेत्रों के विकास के मानक युरोप और अमेरिका के अपनाये जाते हैं ।
२४. सरकार भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा बढाना चाहती है परन्तु अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों को प्रतिष्टा देती है । सरकार के प्रशासनिक अधिकारी अंग्रेजी में ही बात करते हैं । सरकारी पत्रव्यवहार अंग्रेजी में चलता है । प्रशासनिक अधिकारी मानो अंग्रेजों के प्रतिनिधि हैं क्योंकि सत्तान््तरण के समय अंग्रेज सत्ता इनके हाथों में सौंप कर गये थे । सरकार प्रजा की प्रतिनिधि है जबकि अधिकारी अंग्रेजों के दोनों के बीच में किस प्रकार का समन्वय होता है यह तो भुक्तभोगी ही अच्छी तरह से बता सकते हैं ।
२५. विचारधाराओं का, मतमतान्तरों का, अपेक्षाओं का, आकांक्षाओं का संघर्ष चलता ही रहता है और आशान्ति और असुरक्षा का वातावरण बनता है । निश्चयात्मिका बुद्धि का अभाव दिखाई देता है। सम्पूर्ण देश मानो प्रवाह पतित बनकर घसीटा जा रहा है। गन्तव्य क्या है इसका भी पता नहीं, मार्ग कौनसा है इसकी भी निश्चिति नहीं । बिना नियमन के देश चल रहा है ।
२६. पश्चिमी शिक्षा के ऐसे भीषण परिणाम होंगे इसकी तो स्वयं ब्रिटीशों ने भी कल्पना नहीं की होगी । उन्होंने निश्चित की थी उसी दिशा में आगे चलकर हम यहाँ तक पहुँचे हैं ।
२७. इसी दिशा में आगे नहीं बढा जा सकता, विनाश तो दीख ही रहा है । दिशा परिवर्तन करना ही होगा, चलने की गति बदलनी होगी, पद्धति भी बदलनी होगी । क्या यह सम्भव होगा ?