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===== आज की विडम्बना =====
 
===== आज की विडम्बना =====
आज स्थिति ऐसी है । विडम्बना यह है कि आज भी हम शिक्षक को गुरु कहते हैं । आचार्य कहते हैं । आज भी गुरुपूर्णिमा जैसे उत्सव मनाये जाते हैं । आज भी गुरुदक्षिणा दी जाती है। आज भी कहीं कहीं शिक्षक को सम्मानित किया जाता है। छोटी कक्षाओं में विद्यार्थी शिक्षक के सम्मान में खडे होते हैं । आज भी शिक्षक के चरण स्पर्श किये जाते हैं। परन्तु ये केवल उपचार है। युगों से भारतीयों के अन्तःकरण में गुरुपद्‌ का जो सम्माननीय स्थान है उसका स्मरण है, उस व्यवस्था के प्रति प्रेम है उसका स्वीकार है। वह इस रूप में व्यक्त होता है परन्तु वास्वतिकता ऐसी नहीं है । वही गुरुपद से शोभायमान व्यक्ति अब कर्मचारी है । उसे नियुक्त करनेवाले के सामने वह खडा हो जाता है, उसकी ताडें सुन लेता है । शासन के समक्ष घुटने टेकता है, सरकार पुरस्कार देती है तो खुश हो जाता है। विधायक, सांसद, मंत्री उसके विविध देवता हैं और प्रशासन के अधिकारियों से वह डरता है । वह विद्यार्थियों और अभिभावकों से सहमा सहमा रहता है । वह सर्वव्र सर्व प्रकार के खुलासे देने के लिये बाध्य हो जाता है । वह ज्ञाननिष्ठा, विद्याप्रीति और समाजसेवा से प्रेरित होकर नहीं पढ़ाता है, वेतन के लिये ही पढ़ाता है ।
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आज स्थिति ऐसी है । विडम्बना यह है कि आज भी हम शिक्षक को गुरु कहते हैं । आचार्य कहते हैं । आज भी गुरुपूर्णिमा जैसे उत्सव मनाये जाते हैं । आज भी गुरुदक्षिणा दी जाती है। आज भी कहीं कहीं शिक्षक को सम्मानित किया जाता है। छोटी कक्षाओं में विद्यार्थी शिक्षक के सम्मान में खडे होते हैं । आज भी शिक्षक के चरण स्पर्श किये जाते हैं। परन्तु ये केवल उपचार है। युगों से भारतीयों के अन्तःकरण में गुरुपद्‌ का जो सम्माननीय स्थान है उसका स्मरण है, उस व्यवस्था के प्रति प्रेम है उसका स्वीकार है। वह इस रूप में व्यक्त होता है परन्तु वास्तविकता ऐसी नहीं है । वही गुरुपद से शोभायमान व्यक्ति अब कर्मचारी है । उसे नियुक्त करनेवाले के सामने वह खडा हो जाता है, उसकी ताडें सुन लेता है । शासन के समक्ष घुटने टेकता है, सरकार पुरस्कार देती है तो खुश हो जाता है। विधायक, सांसद, मंत्री उसके विविध देवता हैं और प्रशासन के अधिकारियों से वह डरता है । वह विद्यार्थियों और अभिभावकों से सहमा सहमा रहता है । वह सर्व प्रकार के खुलासे देने के लिये बाध्य हो जाता है । वह ज्ञाननिष्ठा, विद्याप्रीति और समाजसेवा से प्रेरित होकर नहीं पढ़ाता है, वेतन के लिये ही पढ़ाता है ।
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वह क्या पढ़ाता है, क्यों पढ़ाता है उससे उसे कोई अंतर नहीं पडता । शासन कहता है कि भगतसिंह हत्यारा है तो वह वैसा पढायेगा, शासन कहता है कि शिवाजी पहाड का चूहा है तो वह वैसा पढायेगा । शासन कहता है कि अफझलखान दुष्ट है तो वह वैसा पढायेगा। उसे कोई अंतर नहीं पडता । उसके हाथ में दी गई पुस्तक में लिखा है कि अंग्रेजों ने भारत में अनेक सुधार किये तो वह वैसा पढायेगा, आर्य बाहर से भारत में आये तो वैसा पढायेगा, छोटा परिवार सुखी परिवार तो वैसा पढायेगा । उसे कोई परक नहीं पडता । अर्थात्‌ वह बेपरवाह है । और क्यों नहीं होगा ? नौकर की क्या कभी अपनी मर्जी, अपना मत होता है ? वह किसी दूसरे का काम कर रहा हैं, उसे बताया काम करना है, वह चिन्ता क्यों करेगा ?
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वह क्या पढ़ाता है, क्यों पढ़ाता है उससे उसे कोई अंतर नहीं पडता । शासन कहता है कि भगतसिंह हत्यारा है तो वह वैसा पढायेगा, शासन कहता है कि शिवाजी पहाड का चूहा है तो वह वैसा पढायेगा । शासन कहता है कि अफझल खान दुष्ट है तो वह वैसा पढायेगा। उसे कोई अंतर नहीं पडता । उसके हाथ में दी गई पुस्तक में लिखा है कि अंग्रेजों ने भारत में अनेक सुधार किये तो वह वैसा पढायेगा, आर्य बाहर से भारत में आये तो वैसा पढायेगा, छोटा परिवार सुखी परिवार तो वैसा पढायेगा । उसे कोई अंतर नहीं पडता । अर्थात्‌ वह बेपरवाह है । और क्यों नहीं होगा ? नौकर की क्या कभी अपनी मर्जी, अपना मत होता है ? वह किसी दूसरे का काम कर रहा हैं, उसे बताया काम करना है, वह चिन्ता क्यों करेगा ?
    
आज शिक्षक अपना विद्यालय शुरू नहीं कर सकता । उसे नौकरी ही करना है । और वह क्यों करे ? सब कुछतो शासन तय करता है। अब शिक्षा कैसी है उसके आधार पर विद्यालय नहीं चलेगा, भवन, भौतिक सुविधाओं, अर्थव्यवस्था के आधार पर मान्यता मिलती है, शिक्षकों की पदवियों और संख्या के आधार पर मूल्यांकन होता है, पढाने की इच्छा, तत्परता, नीयत, चरित्र, विद्यार्थियों का. गुणविकास, सही ज्ञान, सेवाभाव, विद्याप्रीति, निष्ठा आदि के आधार पर नहीं । मान्यता नहीं तो प्रमाणपत्र नहीं, प्रमाणपत्र नहीं तो नौकरी नहीं, नौकरी नहीं तो पैसा नहीं ।
 
आज शिक्षक अपना विद्यालय शुरू नहीं कर सकता । उसे नौकरी ही करना है । और वह क्यों करे ? सब कुछतो शासन तय करता है। अब शिक्षा कैसी है उसके आधार पर विद्यालय नहीं चलेगा, भवन, भौतिक सुविधाओं, अर्थव्यवस्था के आधार पर मान्यता मिलती है, शिक्षकों की पदवियों और संख्या के आधार पर मूल्यांकन होता है, पढाने की इच्छा, तत्परता, नीयत, चरित्र, विद्यार्थियों का. गुणविकास, सही ज्ञान, सेवाभाव, विद्याप्रीति, निष्ठा आदि के आधार पर नहीं । मान्यता नहीं तो प्रमाणपत्र नहीं, प्रमाणपत्र नहीं तो नौकरी नहीं, नौकरी नहीं तो पैसा नहीं ।

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