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एक नौकर का कभी ऐसा सम्मान नहीं होता है। इसका अर्थ है शिक्षक कभी नौकरी करनेवाला नहीं रहा है। शिक्षक यदि धर्म सिखाता है तो वह राज्य का या ट्रस्टियों का नौकर कैसे रह सकता है ? नौकर रहकर वह शिक्षा कैसे दे सकता है ? इस स्वाभाविक प्रश्न से प्रेरित होकर ही नियुक्त होनेवाला, गैरशिक्षक के द्वारा नियन्त्रित होनेवाला शिक्षक भारत में कभी नहीं रहा ।
 
एक नौकर का कभी ऐसा सम्मान नहीं होता है। इसका अर्थ है शिक्षक कभी नौकरी करनेवाला नहीं रहा है। शिक्षक यदि धर्म सिखाता है तो वह राज्य का या ट्रस्टियों का नौकर कैसे रह सकता है ? नौकर रहकर वह शिक्षा कैसे दे सकता है ? इस स्वाभाविक प्रश्न से प्रेरित होकर ही नियुक्त होनेवाला, गैरशिक्षक के द्वारा नियन्त्रित होनेवाला शिक्षक भारत में कभी नहीं रहा ।
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===== प्राचीनभारत में शिक्षा का स्वरूप =====
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===== प्राचीन भारत में शिक्षा का स्वरूप =====
तो फिर भारत में शिक्षा चलती कैसे थी ? छोटे गाँव में किसी ज्ञानवान व्यक्ति को लगता था कि मेरे गाँव के लोग अशिक्षित नहीं रहने चाहिये, मैं उन्हें शिक्षित बनाऊँगा, और वह विद्यालय शुरू करता था । गाँव का मुखिया किसी ज्ञानवान व्यक्ति को प्रार्थना करता था कि हमारे गाँव के बच्चे अनाडी नहीं रहने चाहिये, आप उन्हें ज्ञान दो, और वह व्यक्ति बिना किसी शर्त के विद्यालय शुरू करता था । वह अपने हिसाब से ही पढ़ाता था । विद्यालय कहाँ शुरू होता था ? अपने ही घर में शिक्षक विद्यालय शुरू करता था । यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि भारत में सारे व्यवसाय व्यवसायियों के घरों में ही चलते थे । वे व्यवसाय गृहजीवन के ही अंग होते थे । यदि विद्यार्थियों की संख्या अधिक रही तो किसी वटवृक्ष के नीचे बठ जाते थे, कहीं मन्दिर के अहाते में बैठ जाते थे, कहीं किसी के बडे घर के आँगन में या बरामदे में बैठ जाते थे । गम्भीर से गम्भीर विषयों की शिक्षा भी बिना तामझाम के, बिना पैसे के हो जाती थी । विद्यार्थियों को पढ़ाने में शिक्षक का, उसे अपने घर का कमरा देने में उस घर के मालिक का, उसे गाँव के बच्चों को पढ़ाने की प्रार्थना करने वाले मुखिया का कोई अपना स्वार्थ नहीं था । शिक्षक किसी का नौकर नहीं था । पढने के लिये शुल्क नहीं देना पडता था फिर शिक्षक का निर्वाह कैसे चलता था ? उसकी व्यवस्था भी स्वाभाविक रूप से ही हो जाती थी । जब विद्यार्थी पहली बार पढने के लिये आता था तब कुछ न कुछ लेकर आता था । यह शुल्क नहीं था । कुछ न कुछ लाना अनिवार्य नहीं था । परन्तु देव, गुरु, पण्डित, राजा, बडा व्यक्ति, स्वजन के पास जाते समय खाली हाथ नहीं जाना यह भारत की परम्परा रही है । अतः विद्यार्थी कुछ न कुछ लेकर ही आता था । यह विद्यार्थी के घर्‌ की हैसियत के अनुरूप होता था । गरीब कम और अमीर अधिक मात्रा में लाता था | यह पैसे के रूप में न होकर अनाज, वस्त्र, गाय आदि के रूप में होता था ।
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तो फिर भारत में शिक्षा चलती कैसे थी ? छोटे गाँव में किसी ज्ञानवान व्यक्ति को लगता था कि मेरे गाँव के लोग अशिक्षित नहीं रहने चाहिये, मैं उन्हें शिक्षित बनाऊँगा, और वह विद्यालय शुरू करता था । गाँव का मुखिया किसी ज्ञानवान व्यक्ति को प्रार्थना करता था कि हमारे गाँव के बच्चे अनाडी नहीं रहने चाहिये, आप उन्हें ज्ञान दो, और वह व्यक्ति बिना किसी शर्त के विद्यालय शुरू करता था । वह अपने हिसाब से ही पढ़ाता था । विद्यालय कहाँ शुरू होता था ? अपने ही घर में शिक्षक विद्यालय शुरू करता था । यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि भारत में सारे व्यवसाय व्यवसायियों के घरों में ही चलते थे । वे व्यवसाय गृहजीवन के ही अंग होते थे । यदि विद्यार्थियों की संख्या अधिक रही तो किसी वटवृक्ष के नीचे बठ जाते थे, कहीं मन्दिर के अहाते में बैठ जाते थे, कहीं किसी के बड़े घर के आँगन में या बरामदे में बैठ जाते थे । गम्भीर से गम्भीर विषयों की शिक्षा भी बिना तामझाम के, बिना पैसे के हो जाती थी । विद्यार्थियों को पढ़ाने में शिक्षक का, उसे अपने घर का कमरा देने में उस घर के मालिक का, उसे गाँव के बच्चों को पढ़ाने की प्रार्थना करने वाले मुखिया का कोई अपना स्वार्थ नहीं था । शिक्षक किसी का नौकर नहीं था । पढने के लिये शुल्क नहीं देना पडता था फिर शिक्षक का निर्वाह कैसे चलता था ? उसकी व्यवस्था भी स्वाभाविक रूप से ही हो जाती थी । जब विद्यार्थी पहली बार पढने के लिये आता था तब कुछ न कुछ लेकर आता था । यह शुल्क नहीं था । कुछ न कुछ लाना अनिवार्य नहीं था । परन्तु देव, गुरु, पण्डित, राजा, बडा व्यक्ति, स्वजन के पास जाते समय खाली हाथ नहीं जाना यह भारत की परम्परा रही है । अतः विद्यार्थी कुछ न कुछ लेकर ही आता था । यह विद्यार्थी के घर्‌ की हैसियत के अनुरूप होता था । गरीब कम और अमीर अधिक मात्रा में लाता था | यह पैसे के रूप में न होकर अनाज, वस्त्र, गाय आदि के रूप में होता था ।
    
शिक्षक पूरे गाँव के लिये सम्माननीय था । घर के विवाहादि अवसरों पर शिक्षक का सम्मान किया जाता था और वस्त्र, अलंकार जैसी भौतिक वस्तु के रूप में यह सम्मान होता था । उसे भोजन के लिये भी बुलाया जाता था । विद्यार्थी जब अध्ययन पूर्ण करता था तब गुरुदक्षिणा देता था । यह भी उसके घर की हैसियत से ही होती थी । संक्षेप में गाँव के बच्चों को ज्ञान देने वाले को गाँव कभी भी दृरिद्र और बेचारा नहीं रहने देता था ।
 
शिक्षक पूरे गाँव के लिये सम्माननीय था । घर के विवाहादि अवसरों पर शिक्षक का सम्मान किया जाता था और वस्त्र, अलंकार जैसी भौतिक वस्तु के रूप में यह सम्मान होता था । उसे भोजन के लिये भी बुलाया जाता था । विद्यार्थी जब अध्ययन पूर्ण करता था तब गुरुदक्षिणा देता था । यह भी उसके घर की हैसियत से ही होती थी । संक्षेप में गाँव के बच्चों को ज्ञान देने वाले को गाँव कभी भी दृरिद्र और बेचारा नहीं रहने देता था ।
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===== आज की विडम्बना =====
 
===== आज की विडम्बना =====
आज स्थिति ऐसी है । विडम्बना यह है कि आज भी हम शिक्षक को गुरु कहते हैं । आचार्य कहते हैं । आज भी गुरुपूर्णिमा जैसे उत्सव मनाये जाते हैं । आज भी गुरुदक्षिणा दी जाती है। आज भी कहीं कहीं शिक्षक को सम्मानित किया जाता है। छोटी कक्षाओं में विद्यार्थी शिक्षक के सम्मान में खडे होते हैं । आज भी शिक्षक के चरण स्पर्श किये जाते हैं। परन्तु ये केवल उपचार है। युगों से भारतीयों के अन्तःकरण में गुरुपद्‌ का जो सम्माननीय स्थान है उसका स्मरण है, उस व्यवस्था के प्रति प्रेम है उसका स्वीकार है। वह इस रूप में व्यक्त होता है परन्तु वास्वतिकता ऐसी नहीं है । वही गुरुपद से शोभायमान व्यक्ति अब कर्मचारी है । उसे नियुक्त करनेवाले के सामने वह खडा हो जाता है, उसकी ताडें सुन लेता है । शासन के समक्ष घुटने टेकता है, सरकार पुरस्कार देती है तो खुश हो जाता है। विधायक, सांसद, मंत्री उसके विविध देवता हैं और प्रशासन के अधिकारियों से वह डरता है । वह विद्यार्थियों और अभिभावकों से सहमा सहमा रहता है । वह सर्वव्र सर्व प्रकार के खुलासे देने के लिये बाध्य हो जाता है । वह ज्ञाननिष्ठा, विद्याप्रीति और समाजसेवा से प्रेरित होकर नहीं पढाता है, वेतन के लिये ही पढाता है ।
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आज स्थिति ऐसी है । विडम्बना यह है कि आज भी हम शिक्षक को गुरु कहते हैं । आचार्य कहते हैं । आज भी गुरुपूर्णिमा जैसे उत्सव मनाये जाते हैं । आज भी गुरुदक्षिणा दी जाती है। आज भी कहीं कहीं शिक्षक को सम्मानित किया जाता है। छोटी कक्षाओं में विद्यार्थी शिक्षक के सम्मान में खडे होते हैं । आज भी शिक्षक के चरण स्पर्श किये जाते हैं। परन्तु ये केवल उपचार है। युगों से भारतीयों के अन्तःकरण में गुरुपद्‌ का जो सम्माननीय स्थान है उसका स्मरण है, उस व्यवस्था के प्रति प्रेम है उसका स्वीकार है। वह इस रूप में व्यक्त होता है परन्तु वास्वतिकता ऐसी नहीं है । वही गुरुपद से शोभायमान व्यक्ति अब कर्मचारी है । उसे नियुक्त करनेवाले के सामने वह खडा हो जाता है, उसकी ताडें सुन लेता है । शासन के समक्ष घुटने टेकता है, सरकार पुरस्कार देती है तो खुश हो जाता है। विधायक, सांसद, मंत्री उसके विविध देवता हैं और प्रशासन के अधिकारियों से वह डरता है । वह विद्यार्थियों और अभिभावकों से सहमा सहमा रहता है । वह सर्वव्र सर्व प्रकार के खुलासे देने के लिये बाध्य हो जाता है । वह ज्ञाननिष्ठा, विद्याप्रीति और समाजसेवा से प्रेरित होकर नहीं पढ़ाता है, वेतन के लिये ही पढ़ाता है ।
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वह क्या पढाता है, क्यों पढाता है उससे उसे कोई फरक नहीं पडता । शासन कहता है कि भगतसिंह हत्यारा है तो वह वैसा पढायेगा, शासन कहता है कि शिवाजी पहाड का चूहा है तो वह वैसा पढायेगा । शासन कहता है कि अफझलखान दुष्ट है तो वह वैसा पढायेगा। उसे कोई अंतर नहीं पडता । उसके हाथ में दी गई पुस्तक में लिखा है कि अंग्रेजों ने भारत में अनेक सुधार किये तो वह वैसा पढायेगा, आर्य बाहर से भारत में आये तो वैसा पढायेगा, छोटा परिवार सुखी परिवार तो वैसा पढायेगा । उसे कोई परक नहीं पडता । अर्थात्‌ वह बेपरवाह है । और क्यों नहीं होगा ? नौकर की क्या कभी अपनी मर्जी, अपना मत होता है ? वह किसी दूसरे का काम कर रहा हैं, उसे बताया काम करना है, वह चिन्ता क्यों करेगा ?
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वह क्या पढ़ाता है, क्यों पढ़ाता है उससे उसे कोई अंतर नहीं पडता । शासन कहता है कि भगतसिंह हत्यारा है तो वह वैसा पढायेगा, शासन कहता है कि शिवाजी पहाड का चूहा है तो वह वैसा पढायेगा । शासन कहता है कि अफझलखान दुष्ट है तो वह वैसा पढायेगा। उसे कोई अंतर नहीं पडता । उसके हाथ में दी गई पुस्तक में लिखा है कि अंग्रेजों ने भारत में अनेक सुधार किये तो वह वैसा पढायेगा, आर्य बाहर से भारत में आये तो वैसा पढायेगा, छोटा परिवार सुखी परिवार तो वैसा पढायेगा । उसे कोई परक नहीं पडता । अर्थात्‌ वह बेपरवाह है । और क्यों नहीं होगा ? नौकर की क्या कभी अपनी मर्जी, अपना मत होता है ? वह किसी दूसरे का काम कर रहा हैं, उसे बताया काम करना है, वह चिन्ता क्यों करेगा ?
    
आज शिक्षक अपना विद्यालय शुरू नहीं कर सकता । उसे नौकरी ही करना है । और वह क्यों करे ? सब कुछतो शासन तय करता है। अब शिक्षा कैसी है उसके आधार पर विद्यालय नहीं चलेगा, भवन, भौतिक सुविधाओं, अर्थव्यवस्था के आधार पर मान्यता मिलती है, शिक्षकों की पदवियों और संख्या के आधार पर मूल्यांकन होता है, पढाने की इच्छा, तत्परता, नीयत, चरित्र, विद्यार्थियों का. गुणविकास, सही ज्ञान, सेवाभाव, विद्याप्रीति, निष्ठा आदि के आधार पर नहीं । मान्यता नहीं तो प्रमाणपत्र नहीं, प्रमाणपत्र नहीं तो नौकरी नहीं, नौकरी नहीं तो पैसा नहीं ।
 
आज शिक्षक अपना विद्यालय शुरू नहीं कर सकता । उसे नौकरी ही करना है । और वह क्यों करे ? सब कुछतो शासन तय करता है। अब शिक्षा कैसी है उसके आधार पर विद्यालय नहीं चलेगा, भवन, भौतिक सुविधाओं, अर्थव्यवस्था के आधार पर मान्यता मिलती है, शिक्षकों की पदवियों और संख्या के आधार पर मूल्यांकन होता है, पढाने की इच्छा, तत्परता, नीयत, चरित्र, विद्यार्थियों का. गुणविकास, सही ज्ञान, सेवाभाव, विद्याप्रीति, निष्ठा आदि के आधार पर नहीं । मान्यता नहीं तो प्रमाणपत्र नहीं, प्रमाणपत्र नहीं तो नौकरी नहीं, नौकरी नहीं तो पैसा नहीं ।
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यन्त्र और मनुष्य में क्या अन्तर है ? यन्त्र ऊर्जा से तो चलता है परन्तु अपने विवेक से नहीं चलता । मनुष्य अपने विवेक से चलता है। यन्त्र में भावना नहीं होती। यन्त्र में अहंकार नहीं होता । यन्त्र पर संस्कार नहीं होते । भावना, अहंकार, संस्कार ये सब अन्तःकरण के विषय होते हैं । यन्त्र में अन्तःकरण नहीं होता, मनुष्य में होता है।
 
यन्त्र और मनुष्य में क्या अन्तर है ? यन्त्र ऊर्जा से तो चलता है परन्तु अपने विवेक से नहीं चलता । मनुष्य अपने विवेक से चलता है। यन्त्र में भावना नहीं होती। यन्त्र में अहंकार नहीं होता । यन्त्र पर संस्कार नहीं होते । भावना, अहंकार, संस्कार ये सब अन्तःकरण के विषय होते हैं । यन्त्र में अन्तःकरण नहीं होता, मनुष्य में होता है।
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यन्त्र की शक्ति पंचमहाभूतात्मक शक्ति है । वह बना भी होता है पंचमहाभूतों का ही । उसमें ऊर्जा के कारण कार्यशक्ति आती है। उसके बाद उसे चलाने के लिये मनुष्य की ही आवश्यकता होती है। मनष्य में यन्त्रशक्ति है। मनष्य का शरीर ही एक अद्भुत यन्त्र है। शरीररूपी यन्त्र को चलाने के लिये ऊर्जा भी है। वह ऊर्जा है प्राण । प्राण की ऊर्जा यन्त्र को चलाने वाली सर्व प्रकार की ऊर्जा से श्रेष्ठ और अलग प्रकार की है । यन्त्रों को चलाने वाली सर्व ऊर्जा भी पंचमहाभूतात्मक ही है यद्यपि उसका स्रोत सूर्य है । मनुष्य में जो प्राणरूपी ऊर्जा है वह विशिष्ट इसलिये है कि वह मनुष्य शरीर को सजीव बनाती है और जिससे उसकी वृद्धि होती है और उसके ही जैसे दूसरे सजीव को जन्म देती है । इतना ही यन्त्र और मनुष्य में समान _है। इसके बाद जितने भी प्रकार की शक्ति है वह केवल मनुष्य में है। पूर्व में कहा उसके अनुसार इच्छा, भावना, विचार, संवेदना, विवेक, निर्णय, संस्कार मनुष्य की विशेष शक्तियाँ हैं।
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यन्त्र की शक्ति पंचमहाभूतात्मक शक्ति है । वह बना भी होता है पंचमहाभूतों का ही । उसमें ऊर्जा के कारण कार्यशक्ति आती है। उसके बाद उसे चलाने के लिये मनुष्य की ही आवश्यकता होती है। मनष्य में यन्त्रशक्ति है। मनष्य का शरीर ही एक अद्भुत यन्त्र है। शरीररूपी यन्त्र को चलाने के लिये ऊर्जा भी है। वह ऊर्जा है प्राण । प्राण की ऊर्जा यन्त्र को चलाने वाली सर्व प्रकार की ऊर्जा से श्रेष्ठ और अलग प्रकार की है । यन्त्रों को चलाने वाली सर्व ऊर्जा भी पंचमहाभूतात्मक ही है यद्यपि उसका स्रोत सूर्य है । मनुष्य में जो प्राणरूपी ऊर्जा है वह विशिष्ट इसलिये है कि वह मनुष्य शरीर को सजीव बनाती है और जिससे उसकी वृद्धि होती है और उसके ही जैसे दूसरे सजीव को जन्म देती है । इतना ही यन्त्र और मनुष्य में समान है। इसके बाद जितने भी प्रकार की शक्ति है वह केवल मनुष्य में है। पूर्व में कहा उसके अनुसार इच्छा, भावना, विचार, संवेदना, विवेक, निर्णय, संस्कार मनुष्य की विशेष शक्तियाँ हैं।
    
इसलिये मनुष्य को ही यन्त्र को चलाना चाहिये, यन्त्र द्वारा संचालित नहीं होना चाहिये । इस मुद्दे को सामने रखकर अब विद्यालय की वर्तमान व्यवस्था की ओर देखना चाहिये ।
 
इसलिये मनुष्य को ही यन्त्र को चलाना चाहिये, यन्त्र द्वारा संचालित नहीं होना चाहिये । इस मुद्दे को सामने रखकर अब विद्यालय की वर्तमान व्यवस्था की ओर देखना चाहिये ।
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===== यन्त्र आधारित वर्त्तमान व्यवस्था =====
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===== यन्त्र आधारित वर्तमान व्यवस्था =====
 
विद्यालय में प्रवेश की आयु ५ वर्ष पूर्ण है । अब वह छः वर्ष हुई है। इसका कारण शैक्षिक नहीं है, व्यवस्थागत है । शैक्षिक दृष्टि से तो औपचारिक शिक्षा प्रारम्भ करने की आयु सात वर्ष के बाद होनी चाहिये । परन्तु यह किसी के लिये छः वर्ष, किसी के लिये सात, किसी के लिये आठ वर्ष की भी हो सकती है। फिर किसे किस आयु में प्रवेश देना चाहिये यह व्यवस्था द्वारा निश्चित दिनाँक को कैसे हो सकता है ? वह अभिभावकों और शिक्षकों के विवेक के अनुसार होना चाहिये ।
 
विद्यालय में प्रवेश की आयु ५ वर्ष पूर्ण है । अब वह छः वर्ष हुई है। इसका कारण शैक्षिक नहीं है, व्यवस्थागत है । शैक्षिक दृष्टि से तो औपचारिक शिक्षा प्रारम्भ करने की आयु सात वर्ष के बाद होनी चाहिये । परन्तु यह किसी के लिये छः वर्ष, किसी के लिये सात, किसी के लिये आठ वर्ष की भी हो सकती है। फिर किसे किस आयु में प्रवेश देना चाहिये यह व्यवस्था द्वारा निश्चित दिनाँक को कैसे हो सकता है ? वह अभिभावकों और शिक्षकों के विवेक के अनुसार होना चाहिये ।
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यान्त्रिकता और भौतिकता साथ साथ चलते हैं। भौतिकता का यह दृष्टिकोण विषयों के आकलन तक पहुँचता है।
 
यान्त्रिकता और भौतिकता साथ साथ चलते हैं। भौतिकता का यह दृष्टिकोण विषयों के आकलन तक पहुँचता है।
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उदाहरण के लिये आज विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में योग शारीरिक शिक्षा के अन्तर्गत रखा गया है। योग की परिभाषा पातंजलयोगसूत्र में इस प्रकार दी गई है, 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' अर्थात् चित्तवृत्यिों के निरोध को योग कहते हैं । यहाँ 'चित्त' अन्तःकरण के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । इसका अर्थ यह है कि योग का सम्बन्ध शरीर से नहीं, अन्तःकरण से है। अर्थात् योग को या तो मनोविज्ञान के अथवा इसे योगदर्शन कहें तो तत्वज्ञान के विभाग में समावेश होना चाहिये । परन्तु आज योग को व्यायाम अथवा चिकित्सा मानकर उसे शरीर से जोडते हैं । मनोविज्ञान को भारत में आत्मविज्ञान के प्रकाश में देखा जाता है, वर्तमान व्यवस्था में उसे भौतिक स्तर पर उतार दिया गया है । ये तो गम्भीर बातें हैं । ये सम्पूर्ण जीवन की दृष्टि ही बदल देती हैं ।
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उदाहरण के लिये आज विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में योग शारीरिक शिक्षा के अन्तर्गत रखा गया है। योग की परिभाषा पातंजल योगसूत्र में इस प्रकार दी गई है, 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' अर्थात् चित्तवृत्यिों के निरोध को योग कहते हैं । यहाँ 'चित्त' अन्तःकरण के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । इसका अर्थ यह है कि योग का सम्बन्ध शरीर से नहीं, अन्तःकरण से है। अर्थात् योग को या तो मनोविज्ञान के अथवा इसे योगदर्शन कहें तो तत्वज्ञान के विभाग में समावेश होना चाहिये । परन्तु आज योग को व्यायाम अथवा चिकित्सा मानकर उसे शरीर से जोडते हैं । मनोविज्ञान को भारत में आत्मविज्ञान के प्रकाश में देखा जाता है, वर्तमान व्यवस्था में उसे भौतिक स्तर पर उतार दिया गया है । ये तो गम्भीर बातें हैं । ये सम्पूर्ण जीवन की दृष्टि ही बदल देती हैं ।
    
===== उपाय योजना =====
 
===== उपाय योजना =====
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कुछ बातें ध्यान देने योग्य हैं:  
 
कुछ बातें ध्यान देने योग्य हैं:  
# संचालक, मुख्यध्यापक, शिक्षक, विद्यार्थी और अभिभावक मिलकर विद्यालय परिवार बनता है । इस परिवार का मखिया मख्याध्यापक है यह बात सर्वस्वीकृत बनने की आवश्यकता है। वर्तमान में संचालक अपने आपको बडे मानते हैं, संचालक मंडल का अध्यक्ष सबसे बड़ा माना जाता है और शिक्षकवृन्द, स्वयं मुख्याध्यापक भी इस व्यवस्था का स्वीकार कर लेते हैं।परन्तु यह मामला ठीक तो कर ही लेना चाहिये । भारतीय शिक्षा संकल्पना तो यह स्पष्ट कहती है कि शिक्षा शिक्षकाधीन होती है। यह केवल सिद्धान्त नहीं है, केवल प्राचीन व्यवस्था नहीं है, उन्नीसवीं शताब्दी तक इसी व्यवस्था में हमारे विद्यालय चलते आये हैं ।
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# संचालक, मुख्यध्यापक, शिक्षक, विद्यार्थी और अभिभावक मिलकर विद्यालय परिवार बनता है । इस परिवार का मखिया मख्याध्यापक है यह बात सर्वस्वीकृत बनने की आवश्यकता है। वर्तमान में संचालक अपने आपको बड़े मानते हैं, संचालक मंडल का अध्यक्ष सबसे बड़ा माना जाता है और शिक्षकवृन्द, स्वयं मुख्याध्यापक भी इस व्यवस्था का स्वीकार कर लेते हैं।परन्तु यह मामला ठीक तो कर ही लेना चाहिये । भारतीय शिक्षा संकल्पना तो यह स्पष्ट कहती है कि शिक्षा शिक्षकाधीन होती है। यह केवल सिद्धान्त नहीं है, केवल प्राचीन व्यवस्था नहीं है, उन्नीसवीं शताब्दी तक इसी व्यवस्था में हमारे विद्यालय चलते आये हैं ।
 
# अतः यह अभी अभी तक चलती रही हमारी दीर्घ परम्परा भी है। ब्रिटिशों ने इसे उल्टापुल्टा कर दिया । उसे अभी दो सौ वर्ष ही हुए हैं । हम बीच के दो सौ वर्ष लाँघकर अपनी परम्परा से चलें यह आवश्यक है । थोडा विचारशील बनने से यह हमारे लिये स्वाभाविक बन सकता है । अतः समस्त विद्यालय परिवार मुख्याध्यापक का आदर करे और आदरपूर्वक अभिवादन करे यह आवश्यक है। आदर दर्शाने का सम्बोधन क्या हो और अभिवादन के शब्द क्या हों यह विद्यालय अपनी पद्धति से निश्चित कर सकते हैं। अभिवादन की पद्धति क्या हो यह भी विद्यालय स्वतः निश्चित कर सकता है । परन्तु अंग्रेजी के सर या मैडम, गुड मोर्निंग, हलो, हस्तधूनन आदि न हों यही उचित है।
 
# अतः यह अभी अभी तक चलती रही हमारी दीर्घ परम्परा भी है। ब्रिटिशों ने इसे उल्टापुल्टा कर दिया । उसे अभी दो सौ वर्ष ही हुए हैं । हम बीच के दो सौ वर्ष लाँघकर अपनी परम्परा से चलें यह आवश्यक है । थोडा विचारशील बनने से यह हमारे लिये स्वाभाविक बन सकता है । अतः समस्त विद्यालय परिवार मुख्याध्यापक का आदर करे और आदरपूर्वक अभिवादन करे यह आवश्यक है। आदर दर्शाने का सम्बोधन क्या हो और अभिवादन के शब्द क्या हों यह विद्यालय अपनी पद्धति से निश्चित कर सकते हैं। अभिवादन की पद्धति क्या हो यह भी विद्यालय स्वतः निश्चित कर सकता है । परन्तु अंग्रेजी के सर या मैडम, गुड मोर्निंग, हलो, हस्तधूनन आदि न हों यही उचित है।
 
# शिक्षकों का आपस में सम्बोधन और अभिवादन के शब्द तथा पद्धति क्या हो यह भी विचारणीय है । यहाँ भी सर, मैडम, हाय, हलो, हस्तधनन अच्छा नहीं है।
 
# शिक्षकों का आपस में सम्बोधन और अभिवादन के शब्द तथा पद्धति क्या हो यह भी विचारणीय है । यहाँ भी सर, मैडम, हाय, हलो, हस्तधनन अच्छा नहीं है।
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# विद्यार्थी आपस में कैसे अभिवादन करें ?
 
# विद्यार्थी आपस में कैसे अभिवादन करें ?
 
# विद्यालय में क्या करना चाहिये क्या नहीं करना चाहिये इन सारी बातों का बडा शास्त्र बन सकता है, पद्धतियों का विस्तृत विवरण किया जा सकता है। कुल मिलाकर यह अत्यन्त आवश्यक विषय है ।
 
# विद्यालय में क्या करना चाहिये क्या नहीं करना चाहिये इन सारी बातों का बडा शास्त्र बन सकता है, पद्धतियों का विस्तृत विवरण किया जा सकता है। कुल मिलाकर यह अत्यन्त आवश्यक विषय है ।
शिक्षक के लिये सम्बोधन गुरुजी या आचार्य होना स्वाभाविक है । परापूर्व से यही चलता आया है। शिक्षक विद्यार्थी को छात्र कहे यह भी स्वाभाविक है। छात्र का अर्थ है शिक्षक के छत्र के नीचे रहकर जो अध्ययन करता है वह छात्र । जो स्वयं अध्ययन करता है वह विद्यार्थी अवश्य होता है, छात्र नहीं होता । आचार्य उस शिक्षक को कहा जाता है जो स्वयं आचारवान है और छात्रों को आचार सिखाता है । इस सम्बोधन में ही शिक्षा आचरण में उतरने से ही सार्थक होती है यह भाव है। आचरण से ही तो व्यवहार चलता है।
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शिक्षक के लिये सम्बोधन गुरुजी या आचार्य होना स्वाभाविक है । परापूर्व से यही चलता आया है। शिक्षक विद्यार्थी को छात्र कहे यह भी स्वाभाविक है। छात्र का अर्थ है शिक्षक के छत्र के नीचे रहकर जो अध्ययन करता है वह छात्र । जो स्वयं अध्ययन करता है वह विद्यार्थी अवश्य होता है, छात्र नहीं होता। आचार्य उस शिक्षक को कहा जाता है जो स्वयं आचारवान है और छात्रों को आचार सिखाता है । इस सम्बोधन में ही शिक्षा आचरण में उतरने से ही सार्थक होती है यह भाव है। आचरण से ही तो व्यवहार चलता है।
    
===== विनयशील व्यवहार का अर्थ =====
 
===== विनयशील व्यवहार का अर्थ =====
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# शिक्षक के जाने तक विद्यार्थियों को रुकना चाहिये । शिक्षक से पहले कक्षा नहीं छोडनी चाहिये । कक्षा चल रही है तब तक बीच में से छोडकर नहीं जाना चाहिये।
 
# शिक्षक के जाने तक विद्यार्थियों को रुकना चाहिये । शिक्षक से पहले कक्षा नहीं छोडनी चाहिये । कक्षा चल रही है तब तक बीच में से छोडकर नहीं जाना चाहिये।
 
# कक्षा चल रही हो तब विद्यार्थी आपस में बातें न करें । अपना और कोई काम न करें, खायें पीयें नहीं यह भी आवश्यक है । आजकल पानी की बोतल सबके साथ रहती है और प्यास लगे तब पानी पीना सबको स्वाभाविक लगता है । लघुशंका के लिये भी बीच में ही जाना स्वाभाविक माना जाता है। आवेगों को नहीं रोकना चाहिये ऐसा शास्त्रीय कारण भी दिया जाता है । यह सब तो ठीक है परन्तु कक्षा प्रारम्भ होने से पूर्व ही इन कामों को निपट लेने की सावधानी सिखाना चाहिये । एक साथ कम से कम दो घण्टे बिना पानी के, बिना लघुशंका गये काम कर सकें ऐसा अभ्यास होना चाहिये । यह तो सभाओं और कार्यक्रमों में पालन किया जाना चाहिये ऐसा शिष्टाचार है । कक्षाकक्षों में ही इसके संस्कार होते हैं । यहाँ नहीं हुए तो जीवन में भी नहीं आते । घरों में और समाज में कक्षाकक्षों से ही पहुँचते हैं।
 
# कक्षा चल रही हो तब विद्यार्थी आपस में बातें न करें । अपना और कोई काम न करें, खायें पीयें नहीं यह भी आवश्यक है । आजकल पानी की बोतल सबके साथ रहती है और प्यास लगे तब पानी पीना सबको स्वाभाविक लगता है । लघुशंका के लिये भी बीच में ही जाना स्वाभाविक माना जाता है। आवेगों को नहीं रोकना चाहिये ऐसा शास्त्रीय कारण भी दिया जाता है । यह सब तो ठीक है परन्तु कक्षा प्रारम्भ होने से पूर्व ही इन कामों को निपट लेने की सावधानी सिखाना चाहिये । एक साथ कम से कम दो घण्टे बिना पानी के, बिना लघुशंका गये काम कर सकें ऐसा अभ्यास होना चाहिये । यह तो सभाओं और कार्यक्रमों में पालन किया जाना चाहिये ऐसा शिष्टाचार है । कक्षाकक्षों में ही इसके संस्कार होते हैं । यहाँ नहीं हुए तो जीवन में भी नहीं आते । घरों में और समाज में कक्षाकक्षों से ही पहुँचते हैं।
# अनिवार्य कारण से यदि बीच में ही कक्षा के अन्दर आना पडे या बाहर जाना पडे, बिना अनुमति के नहीं आना चाहिये । अनुमति माँगने पर मिलेगी ही या देनी ही चाहिये ऐसा नियम नहीं है । अनुमति देना या नहीं देना शिक्षक के विवेक पर निर्भर करता है (मर्जी पर नहीं)।
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# अनिवार्य कारण से यदि बीच में ही कक्षा के अन्दर आना पडे या बाहर जाना पडे, बिना अनुमति के नहीं आना चाहिये । अनुमति माँगने पर मिलेगी ही या देनी ही चाहिये ऐसा नियम नहीं है । अनुमति देना या नहीं देना शिक्षक के विवेक पर निर्भर करता है (मर्जी पर नहीं)।
 
# कक्षा चल रही है तब शिक्षक की अनुमति के बिना विद्यार्थी तो क्या कोई भी नहीं आ सकता, यहाँ तक कि मुख्याध्यापक भी नहीं। जिस प्रकार मुख्याध्यापक विद्यालय का मुखिया है, शिक्षक अपनी कक्षा का मुखिया है। उसकी आज्ञा या अनुमति के बिना कुछ नहीं हो सकता। आजकल निरीक्षण करने के लिये आये हुए सरकारी शिक्षाविभाग के अधिकारी अनुमति माँगने की शिष्टता नहीं दर्शाते, परवाह भी नहीं करते । परन्तु यह होना अपेक्षित है।
 
# कक्षा चल रही है तब शिक्षक की अनुमति के बिना विद्यार्थी तो क्या कोई भी नहीं आ सकता, यहाँ तक कि मुख्याध्यापक भी नहीं। जिस प्रकार मुख्याध्यापक विद्यालय का मुखिया है, शिक्षक अपनी कक्षा का मुखिया है। उसकी आज्ञा या अनुमति के बिना कुछ नहीं हो सकता। आजकल निरीक्षण करने के लिये आये हुए सरकारी शिक्षाविभाग के अधिकारी अनुमति माँगने की शिष्टता नहीं दर्शाते, परवाह भी नहीं करते । परन्तु यह होना अपेक्षित है।
# कक्षा में शिक्षक के आसन पर और कोई नहीं बैठ सकता । कक्षा के बाहर अनेक व्यक्ति आयु में, ज्ञान में, अधिकार में शिक्षक से बडे हो सकते हैं, वहाँ शिक्षक उनका उचित सम्मान करेगा परन्तु कक्षा के अन्दर सब शिक्षक का ही सम्मान करेंगे। विद्यार्थियों को भी इस बात की जानकारी होनी चाहिये, अन्यथा वे स्वयं ही खडे हो जाते हैं । शिक्षक का सम्मान करना है यह विषय शिक्षक स्वयं नहीं बतायेंगे, मुख्याध्यापक ने स्वयं विद्यालय के सभी छात्रों को सिखानी चाहिये। कक्षा में यदि मुख्याध्यापक या कोई वरिष्ठ अधिकारी या कोई सन्त आते हैं तब शिक्षक स्वयं विद्यार्थियों को खडे होकर प्रणाम करने की आज्ञा दे यही उचित पद्धति है।
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# कक्षा में शिक्षक के आसन पर और कोई नहीं बैठ सकता । कक्षा के बाहर अनेक व्यक्ति आयु में, ज्ञान में, अधिकार में शिक्षक से बड़े हो सकते हैं, वहाँ शिक्षक उनका उचित सम्मान करेगा परन्तु कक्षा के अन्दर सब शिक्षक का ही सम्मान करेंगे। विद्यार्थियों को भी इस बात की जानकारी होनी चाहिये, अन्यथा वे स्वयं ही खडे हो जाते हैं । शिक्षक का सम्मान करना है यह विषय शिक्षक स्वयं नहीं बतायेंगे, मुख्याध्यापक ने स्वयं विद्यालय के सभी छात्रों को सिखानी चाहिये। कक्षा में यदि मुख्याध्यापक या कोई वरिष्ठ अधिकारी या कोई सन्त आते हैं तब शिक्षक स्वयं विद्यार्थियों को खडे होकर प्रणाम करने की आज्ञा दे यही उचित पद्धति है।
 
# कभी कभी मुख्याध्यापक, अन्य शिक्षक, अभिभावक या निरीक्षक भिन्न भिन्न कारणों से कक्षा देखना चाहते हैं। तब शिष्टाचार यह कहता है कि वे सब विद्यार्थियों की तरह कक्षा शुरु होने से पूर्व, शिक्षक कक्षा में आने से पूर्व कक्षा में पीछे जाकर बैठें और शिक्षक जब आयें. विद्यार्थियों की तरह शिक्षक को आदर दें और कक्षा के अनुशासन का पालन करें । विद्यार्थियों को यह अनुभव न होने दें कि कक्षा में शिक्षक से भी बड़ा कोई होता है।
 
# कभी कभी मुख्याध्यापक, अन्य शिक्षक, अभिभावक या निरीक्षक भिन्न भिन्न कारणों से कक्षा देखना चाहते हैं। तब शिष्टाचार यह कहता है कि वे सब विद्यार्थियों की तरह कक्षा शुरु होने से पूर्व, शिक्षक कक्षा में आने से पूर्व कक्षा में पीछे जाकर बैठें और शिक्षक जब आयें. विद्यार्थियों की तरह शिक्षक को आदर दें और कक्षा के अनुशासन का पालन करें । विद्यार्थियों को यह अनुभव न होने दें कि कक्षा में शिक्षक से भी बड़ा कोई होता है।
 
# कक्षा में शिक्षक जब तक खडे हों विद्यार्थी बैठने में संकोच करेंगे। वे बैठें यह उचित भी नहीं है। वह अशिष्ट आचरण है। अतः बैठकर पढाना, उत्तर आदि जाँचने की आवश्यकता हो तो विद्यार्थी का उठकर शिक्षक के पास जाना उचित है। शिक्षक खडे होकर पढायें । स्वयं विद्यार्थी के पास जायें ऐसी व्यवस्था उचित नहीं है। एक बार इस सिद्धान्त का स्वीकार हुआ तो उसके अनुकूल सारी व्यवस्थायें हो सकती हैं। आजकल तो हम पाश्चात्य सिद्धान्त के अनुसार चलते हैं इसलिये शिक्षक से खडे खडे पढाने की अपेक्षा करते हैं, फिर उसमें सुविधा देखते हैं । वास्तव में सभाओं में भाषण भी बैठकर होने चाहिये । निवेदन करना है तभी खडा होकर किया जाता है, प्रवचन, विषय प्रस्तुति, उपदेश, आदि खडे होकर नहीं दिये जातें ।
 
# कक्षा में शिक्षक जब तक खडे हों विद्यार्थी बैठने में संकोच करेंगे। वे बैठें यह उचित भी नहीं है। वह अशिष्ट आचरण है। अतः बैठकर पढाना, उत्तर आदि जाँचने की आवश्यकता हो तो विद्यार्थी का उठकर शिक्षक के पास जाना उचित है। शिक्षक खडे होकर पढायें । स्वयं विद्यार्थी के पास जायें ऐसी व्यवस्था उचित नहीं है। एक बार इस सिद्धान्त का स्वीकार हुआ तो उसके अनुकूल सारी व्यवस्थायें हो सकती हैं। आजकल तो हम पाश्चात्य सिद्धान्त के अनुसार चलते हैं इसलिये शिक्षक से खडे खडे पढाने की अपेक्षा करते हैं, फिर उसमें सुविधा देखते हैं । वास्तव में सभाओं में भाषण भी बैठकर होने चाहिये । निवेदन करना है तभी खडा होकर किया जाता है, प्रवचन, विषय प्रस्तुति, उपदेश, आदि खडे होकर नहीं दिये जातें ।
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संचालकों के साथ भी इसी प्रकार आदर, सम्मान और विनयपूर्वक व्यवहार करते हुए भी यह बात प्रस्थापित होनी चाहिये कि यह विद्या का क्षेत्र है, ज्ञान का क्षेत्र है, यहाँ ज्ञान की उपासना होती है और वे ज्ञान के उपासकों की सहायता और सहयोग करने वाले हैं, उनके मालिक नहीं है । ज्ञान की प्रतिष्ठा सत्ता या धन से अधिक होती है ।
 
संचालकों के साथ भी इसी प्रकार आदर, सम्मान और विनयपूर्वक व्यवहार करते हुए भी यह बात प्रस्थापित होनी चाहिये कि यह विद्या का क्षेत्र है, ज्ञान का क्षेत्र है, यहाँ ज्ञान की उपासना होती है और वे ज्ञान के उपासकों की सहायता और सहयोग करने वाले हैं, उनके मालिक नहीं है । ज्ञान की प्रतिष्ठा सत्ता या धन से अधिक होती है ।
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सरकार के शिक्षा विभाग के अधिकारियों के मनमस्तिष्क में यह बात स्पष्ट होनी चाहिये कि वे भी शिक्षक की तरह व्यवहार करें, शासकीय कर्मचारी की तरह नहीं । वे शिक्षक ही हैं और उनकी शिक्षक की योग्यता शासकीय कर्मचारी की योग्यता से अधिक है। यदि वे शिक्षक कीतरह व्यवहार करते हैं तो समानधर्मी शिक्षक के योग्य आदर सम्मान करेंगे तो उन्हें ही शिक्षकों का सम्मान करना होगा ।
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सरकार के शिक्षा विभाग के अधिकारियों के मनमस्तिष्क में यह बात स्पष्ट होनी चाहिये कि वे भी शिक्षक की तरह व्यवहार करें, शासकीय कर्मचारी की तरह नहीं । वे शिक्षक ही हैं और उनकी शिक्षक की योग्यता शासकीय कर्मचारी की योग्यता से अधिक है। यदि वे शिक्षक की तरह व्यवहार करते हैं तो समानधर्मी शिक्षक के योग्य आदर सम्मान करेंगे तो उन्हें ही शिक्षकों का सम्मान करना होगा।
    
सरकार के सचिव, मंत्री आदि जब विद्यालय में आते हैं तब पूरा विद्यालय उनकी सेवा के लिये तत्पर हो जाता है। विश्वविद्यालय के कुलपति भी ऐसा ही करते हैं। मंत्री ही क्यों पार्षद, विधायक या सांसद जैसे जनप्रतिनिधि भी विद्यालय में आते हैं तब उनका व्यवहार ऐसा ही होता है । वास्तव में होना तो उल्टा चाहिये । हमारी परम्परा तो कहती है कि राजा भी यदि गुरुकुल में आता है तो विनीत वेश धारण करके आता है अर्थात् अपने शासक होने के सारे चिह्न गुरुकुल के बाहर ही छोडकर आता है। फिर आज क्या हो गया है ? हम कौन सी परम्परा का अनुसरण कर रहे हैं ?
 
सरकार के सचिव, मंत्री आदि जब विद्यालय में आते हैं तब पूरा विद्यालय उनकी सेवा के लिये तत्पर हो जाता है। विश्वविद्यालय के कुलपति भी ऐसा ही करते हैं। मंत्री ही क्यों पार्षद, विधायक या सांसद जैसे जनप्रतिनिधि भी विद्यालय में आते हैं तब उनका व्यवहार ऐसा ही होता है । वास्तव में होना तो उल्टा चाहिये । हमारी परम्परा तो कहती है कि राजा भी यदि गुरुकुल में आता है तो विनीत वेश धारण करके आता है अर्थात् अपने शासक होने के सारे चिह्न गुरुकुल के बाहर ही छोडकर आता है। फिर आज क्या हो गया है ? हम कौन सी परम्परा का अनुसरण कर रहे हैं ?
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# विद्यालय के कार्यकलापों का नियोजन और आयोजन करना, उसके क्रियान्वयन के परिणामों की समीक्षा करना भी साथ मिलकर हो सकता है ।  
 
# विद्यालय के कार्यकलापों का नियोजन और आयोजन करना, उसके क्रियान्वयन के परिणामों की समीक्षा करना भी साथ मिलकर हो सकता है ।  
 
# विद्यालय का शैक्षिक स्तर अच्छा रखना, विद्यालय की प्रतिष्ठा समाज में स्थापित होनी चाहिये, विद्यालय समाज में एक अच्छा विद्यालय माना जाना चाहिये यह भी विद्यार्थी और शिक्षकों की ही आकांक्षा होनी चाहिये । इस दष्टि से अच्छे से अध्यापन और अध्ययन का कार्य चलना चाहिये।  
 
# विद्यालय का शैक्षिक स्तर अच्छा रखना, विद्यालय की प्रतिष्ठा समाज में स्थापित होनी चाहिये, विद्यालय समाज में एक अच्छा विद्यालय माना जाना चाहिये यह भी विद्यार्थी और शिक्षकों की ही आकांक्षा होनी चाहिये । इस दष्टि से अच्छे से अध्यापन और अध्ययन का कार्य चलना चाहिये।  
# अध्यापन कार्य में विद्यार्थियों का बहुत महत्व पूर्ण योगदान होता है । कंठस्थीकरण का और अभ्यास का कार्य विद्यार्थी स्वयं कर सकते हैं। एक अग्रणी विद्यार्थी इस कार्य में नेतृत्व कर सकता है । मेधावी  विद्यार्थी नीचे की कक्षाओं को पढ़ाने का काम भी कर सकते हैं। केवल नीचली कक्षाओं को ही नहीं तो पढाई में कमजोर विद्यार्थियों को पढ़ाने का काम भी मेधावी  विद्यार्थी कर सकते हैं। शिक्षकों की सेवा करना भी मेधावी  विद्यार्थीयों का काम है । ग्रन्थालय से, प्रयोगशाला से आवश्यक सामग्री ले आना और वापस रखना, खेलों के लिये मैदानों का अंकन करना, संगीत, कला आदि की सामग्री सुरक्षित रखना आदि विद्यार्थियों के काम हैं।  
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# अध्यापन कार्य में विद्यार्थियों का बहुत महत्व पूर्ण योगदान होता है । कंठस्थीकरण का और अभ्यास का कार्य विद्यार्थी स्वयं कर सकते हैं। एक अग्रणी विद्यार्थी इस कार्य में नेतृत्व कर सकता है । मेधावी  विद्यार्थी नीचे की कक्षाओं को पढ़ाने का काम भी कर सकते हैं। केवल नीचली कक्षाओं को ही नहीं तो पढाई में कमजोर विद्यार्थियों को पढ़ाने का काम भी मेधावी  विद्यार्थी कर सकते हैं। शिक्षकों की सेवा करना भी मेधावी  विद्यार्थियों का काम है । ग्रन्थालय से, प्रयोगशाला से आवश्यक सामग्री ले आना और वापस रखना, खेलों के लिये मैदानों का अंकन करना, संगीत, कला आदि की सामग्री सुरक्षित रखना आदि विद्यार्थियों के काम हैं।  
# विद्यालय में अध्ययन पूर्ण होने के बाद भी विद्यार्थी का विद्यालय के साथ सम्बन्ध बना रहता है। मेधावी  विद्यार्थियों को तो विद्यालय में शिक्षक बनकर विद्यालय की ज्ञानपरम्परा का निर्वहण करना चाहिये और उस रूप में शिक्षकों का ऋण चुकाना चाहिये । जो विद्यार्थी शिक्षक नहीं बनते अपितु अन्यान्य व्यवसायों में जाते हैं उन्होंने विद्यालय के निर्वाह की आर्थिक जिम्मेदारी वहन करनी चाहिये। अन्य भी अनेक व्यावहारिक काम होते हैं जिनमें पूर्व विद्यार्थी सहभागी हो सकते हैं । इन विद्यार्थियों के कारण भी समाज में विद्यालय की छवी बनती है। जिस प्रकार अपने घर के साथ व्यक्ति आजीवन जुडा रहता है उसी प्रकार अपने विद्यालय के साथ भी वह आजीवन जुडा रहना चाहिये।  
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# विद्यालय में अध्ययन पूर्ण होने के बाद भी विद्यार्थी का विद्यालय के साथ सम्बन्ध बना रहता है। मेधावी  विद्यार्थियों को तो विद्यालय में शिक्षक बनकर विद्यालय की ज्ञानपरम्परा का निर्वहण करना चाहिये और उस रूप में शिक्षकों का ऋण चुकाना चाहिये । जो विद्यार्थी शिक्षक नहीं बनते अपितु अन्यान्य व्यवसायों में जाते हैं उन्होंने विद्यालय के निर्वाह की आर्थिक जिम्मेदारी वहन करनी चाहिये। अन्य भी अनेक व्यावहारिक काम होते हैं जिनमें पूर्व विद्यार्थी सहभागी हो सकते हैं । इन विद्यार्थियों के कारण भी समाज में विद्यालय की छवि बनती है। जिस प्रकार अपने घर के साथ व्यक्ति आजीवन जुडा रहता है उसी प्रकार अपने विद्यालय के साथ भी वह आजीवन जुडा रहना चाहिये।  
    
===== इसे सम्भव बनाने के उपाय =====
 
===== इसे सम्भव बनाने के उपाय =====
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# हाथ से काम करने को आज हेय माना जाने लगा है। विद्यार्थी को घर में भी किसी प्रकार का काम करने का अभ्यास नहीं है। हर मातापिता की आकांक्षा होती है कि उनकी सन्तान पढलिखकर ऐसा व्यवसाय करे जहाँ उसे हाथ से काम न करना पडे। इस स्थिति में विद्यार्थी को हर काम सिखाना होगा और घर में भी करने के लिये उसे प्रेरित करना होगा। फिर हाथों को काम करना सिखाना होगा यह एक बहुत बड़ा काम है और धैर्यपूर्वक करने की आवश्यकता है ।  
 
# हाथ से काम करने को आज हेय माना जाने लगा है। विद्यार्थी को घर में भी किसी प्रकार का काम करने का अभ्यास नहीं है। हर मातापिता की आकांक्षा होती है कि उनकी सन्तान पढलिखकर ऐसा व्यवसाय करे जहाँ उसे हाथ से काम न करना पडे। इस स्थिति में विद्यार्थी को हर काम सिखाना होगा और घर में भी करने के लिये उसे प्रेरित करना होगा। फिर हाथों को काम करना सिखाना होगा यह एक बहुत बड़ा काम है और धैर्यपूर्वक करने की आवश्यकता है ।  
 
# विद्यालय की अध्ययन अध्यापन पद्धति, समयविभाजन, परीक्षा पद्धति, व्यवस्थायें आदि सब इस संकल्पना के अनुरूप बदलना होगा । गणवेश भी बदल सकता है। हर विषय को क्रियात्मक पद्धति से ढालना होगा। हर विषय का मूल्यांकन क्रियात्मक बनाना होगा । यही नहीं तो अनेक बातों को परीक्षा से परे रखना होगा। परीक्षा की पद्धति, परीक्षा का महत्व , परीक्षा विषयक मानसिकता में बड़ा बदल करना होगा । पुस्तकों का और लेखन का महत्व  कम करना होगा । पढाई को जीवन के साथ जोडना होगा ।  
 
# विद्यालय की अध्ययन अध्यापन पद्धति, समयविभाजन, परीक्षा पद्धति, व्यवस्थायें आदि सब इस संकल्पना के अनुरूप बदलना होगा । गणवेश भी बदल सकता है। हर विषय को क्रियात्मक पद्धति से ढालना होगा। हर विषय का मूल्यांकन क्रियात्मक बनाना होगा । यही नहीं तो अनेक बातों को परीक्षा से परे रखना होगा। परीक्षा की पद्धति, परीक्षा का महत्व , परीक्षा विषयक मानसिकता में बड़ा बदल करना होगा । पुस्तकों का और लेखन का महत्व  कम करना होगा । पढाई को जीवन के साथ जोडना होगा ।  
# किसी एक विद्यालय में इस प्रकार की शिक्षा होगी तो वह विद्यालय एक प्रयोग के रूप में चल तो जायेगा । प्रयोग के रूप में उसे प्रतिष्ठा भी कदाचित मिलेगी, उसके विषय में कहीं कोई लेख भी लिखा जायेगा परन्तु मुख्य धारा की शिक्षा में कोई परिवर्तन नहीं होगा । प्रयोग तो आज भी बहुत अच्छे हो रहे हैं, अच्छे से अच्छे हो रहे हैं परन्तु आवश्यकता मुख्य धारा की शिक्षा में परिवर्तन होने की है । मुख्य धारा जब भारतीय होगी तब भारत की शिक्षा भारतीय होगी और शिक्षा जब भारतीय होगी तब भारत भी भारत बनेगा। मुख्य धारा की शिक्षा में इस प्रकार का परिवर्तन हो इस दृष्टि से देश के मूर्धन्य शिक्षाविदों ने इस पर चिन्तन करना होगा और बडे बडे देशव्यापी सामाजिकसांस्कृतिक-शैक्षिक संगठनों ने इसे अपनाना होगा । जब यह परिवर्तन देशव्यापी बनता है तभी अर्थपूर्ण भी बनता है। एक और शिक्षण चिन्तन, दूसरी और समाज प्रबोधन और तीसरी ओर प्रत्यक्ष कार्य ऐसे तीनों एक साथ होंगे तभी परिवर्तन होने की सम्भावना बनेगी।  
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# किसी एक विद्यालय में इस प्रकार की शिक्षा होगी तो वह विद्यालय एक प्रयोग के रूप में चल तो जायेगा । प्रयोग के रूप में उसे प्रतिष्ठा भी कदाचित मिलेगी, उसके विषय में कहीं कोई लेख भी लिखा जायेगा परन्तु मुख्य धारा की शिक्षा में कोई परिवर्तन नहीं होगा । प्रयोग तो आज भी बहुत अच्छे हो रहे हैं, अच्छे से अच्छे हो रहे हैं परन्तु आवश्यकता मुख्य धारा की शिक्षा में परिवर्तन होने की है । मुख्य धारा जब भारतीय होगी तब भारत की शिक्षा भारतीय होगी और शिक्षा जब भारतीय होगी तब भारत भी भारत बनेगा। मुख्य धारा की शिक्षा में इस प्रकार का परिवर्तन हो इस दृष्टि से देश के मूर्धन्य शिक्षाविदों ने इस पर चिन्तन करना होगा और बड़े बड़े देशव्यापी सामाजिकसांस्कृतिक-शैक्षिक संगठनों ने इसे अपनाना होगा । जब यह परिवर्तन देशव्यापी बनता है तभी अर्थपूर्ण भी बनता है। एक और शिक्षण चिन्तन, दूसरी और समाज प्रबोधन और तीसरी ओर प्रत्यक्ष कार्य ऐसे तीनों एक साथ होंगे तभी परिवर्तन होने की सम्भावना बनेगी।  
 
# विद्यार्थी की अपेक्षा शिक्षकों की मानसिकता अत्यन्त महत्व पूर्ण है। वेतन की अपेक्षा, अध्यापन का अत्यन्त संकुचित अर्थ और दायित्वबोध का अभाव समाज के अन्य घटकों की तरह शिक्षक समुदाय को भी ग्रस रहे हैं। वास्तव में शिक्षकों की भूमिका इसमें केन्द्रवर्ती है। उनका प्रबोधन, प्रशिक्षण और सज्जता बढाने के प्रभावी प्रयास करने होंगे।  
 
# विद्यार्थी की अपेक्षा शिक्षकों की मानसिकता अत्यन्त महत्व पूर्ण है। वेतन की अपेक्षा, अध्यापन का अत्यन्त संकुचित अर्थ और दायित्वबोध का अभाव समाज के अन्य घटकों की तरह शिक्षक समुदाय को भी ग्रस रहे हैं। वास्तव में शिक्षकों की भूमिका इसमें केन्द्रवर्ती है। उनका प्रबोधन, प्रशिक्षण और सज्जता बढाने के प्रभावी प्रयास करने होंगे।  
 
# यह कार्य त्वरित गति से तो नहीं होगा । धैर्यपूर्वक और निरन्तरतापूर्वक इस कार्य में लगे रहने की आवश्यकता है। भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु यह करना अनिवार्य है यह निश्चित है।  
 
# यह कार्य त्वरित गति से तो नहीं होगा । धैर्यपूर्वक और निरन्तरतापूर्वक इस कार्य में लगे रहने की आवश्यकता है। भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु यह करना अनिवार्य है यह निश्चित है।  
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समाज की अन्यान्य व्यवस्थाओं में विद्यालय का स्थान अत्यन्त विशिष्ट है। इसे ठीक से समझने के लिये प्रथम समाज से हमारा तात्पर्य क्या है यह समझना आवश्यक है।
 
समाज की अन्यान्य व्यवस्थाओं में विद्यालय का स्थान अत्यन्त विशिष्ट है। इसे ठीक से समझने के लिये प्रथम समाज से हमारा तात्पर्य क्या है यह समझना आवश्यक है।
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समाज मनुष्यों का समूह है। परन्तु समूह तो प्राणियों का भी होता है। कई प्राणी कभी भी अकेले नहीं रहते, छोटे बडे समूह में ही रहते हैं और घूमते हैं। उनके समूह को समाज नहीं कहते । जो मनुष्य प्राणियों की तरह केवल आहार, निद्रा, मैथुन और भय से प्रेरित होकर उन वृत्तियों को सन्तुष्ट करने के लिये ही जीते हैं उनके समूह को भी समाज नहीं कहते । जो मनुष्य संस्कारयुक्त हैं, किसी उदात्त लक्ष्य के लिये जीते हैं, उदार अन्तःकरण से युक्त हैं ऐसे मनुष्यों के समूह को समाज कहते हैं।  
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समाज मनुष्यों का समूह है। परन्तु समूह तो प्राणियों का भी होता है। कई प्राणी कभी भी अकेले नहीं रहते, छोटे बड़े समूह में ही रहते हैं और घूमते हैं। उनके समूह को समाज नहीं कहते । जो मनुष्य प्राणियों की तरह केवल आहार, निद्रा, मैथुन और भय से प्रेरित होकर उन वृत्तियों को सन्तुष्ट करने के लिये ही जीते हैं उनके समूह को भी समाज नहीं कहते । जो मनुष्य संस्कारयुक्त हैं, किसी उदात्त लक्ष्य के लिये जीते हैं, उदार अन्तःकरण से युक्त हैं ऐसे मनुष्यों के समूह को समाज कहते हैं।  
    
उदार अन्तःकरण से युक्त लोगों की एक जीवनशैली होती है, एक रीति होती है । इस रीति को संस्कृति कहते हैं। संस्कृति का प्रेरक तत्व धर्म होता है। वर्तमान परिस्थिति में धर्म संज्ञा के सम्बन्ध में हमें बार बार खुलासा करना पडता है। धर्म संज्ञा सम्प्रदाय, पंथ, मत, मजहब, रिलिजन आदि में सीमित नहीं है। वह अत्यन्त व्यापक है। धर्म एक ऐसी व्यवस्था है जो विश्वनियमों से बनी है और सृष्टि को धारण करती है अर्थात् नष्ट नहीं होने देती । धर्म मनुष्य समाज के लिये भी ऐसी ही व्यवस्था देता है जो उसे नष्ट होने से बचाती है। संस्कृति धर्म की ही व्यवहार प्रणाली है।
 
उदार अन्तःकरण से युक्त लोगों की एक जीवनशैली होती है, एक रीति होती है । इस रीति को संस्कृति कहते हैं। संस्कृति का प्रेरक तत्व धर्म होता है। वर्तमान परिस्थिति में धर्म संज्ञा के सम्बन्ध में हमें बार बार खुलासा करना पडता है। धर्म संज्ञा सम्प्रदाय, पंथ, मत, मजहब, रिलिजन आदि में सीमित नहीं है। वह अत्यन्त व्यापक है। धर्म एक ऐसी व्यवस्था है जो विश्वनियमों से बनी है और सृष्टि को धारण करती है अर्थात् नष्ट नहीं होने देती । धर्म मनुष्य समाज के लिये भी ऐसी ही व्यवस्था देता है जो उसे नष्ट होने से बचाती है। संस्कृति धर्म की ही व्यवहार प्रणाली है।
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===== परिवार भावना मूल आधार है =====
 
===== परिवार भावना मूल आधार है =====
सामान्य अर्थ में साथ मिलकर रहनेवाला समूह समाज है। साथ रहने की प्रेरणा और प्रकार भिन्न भिन्न होते हैं। एक प्रकार है परिवार के रूप में साथ रहना । स्त्री और पुरुष ऐसा मूल द्वन्द्व जब पतिपत्नी बनकर साथ रहता है तब परिवार बनने का प्रारम्भ होता है। स्त्री और पुरुष अन्य प्राणियों में नर और मादा काम से प्रेरित होकर साथ नहीं रहते । काम का उन्नयन प्रेम में करते हैं और अपने सम्बन्ध को एकात्म सम्बन्ध तक ले जाते हैं । इनको जोडने वाला
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सामान्य अर्थ में साथ मिलकर रहनेवाला समूह समाज है। साथ रहने की प्रेरणा और प्रकार भिन्न भिन्न होते हैं। एक प्रकार है परिवार के रूप में साथ रहना । स्त्री और पुरुष ऐसा मूल द्वन्द्व जब पतिपत्नी बनकर साथ रहता है तब परिवार बनने का प्रारम्भ होता है। स्त्री और पुरुष अन्य प्राणियों में नर और मादा काम से प्रेरित होकर साथ नहीं रहते । काम का उन्नयन प्रेम में करते हैं और अपने सम्बन्ध को एकात्म सम्बन्ध तक ले जाते हैं । इनको जोडने वाला विवाह-संस्कार होता है। इस परिवार का ही विस्तार मातापिता और सन्तान, भाईबहन आदि में होते होते वसुधैव कुटुम्बकम् तक पहुँचता है । मनुष्य समाज की साथ मिलकर रहने की यह एक व्यवस्था है। यह सर्व व्यवस्थाओं का भावात्मक मूल है अर्थात् अन्य सभी व्यवस्थाओं में परिवार भावना मूल आधाररूप रहती है ।
 
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विवाह-संस्कार होता है। इस परिवार का ही विस्तार मातापिता और सन्तान, भाईबहन आदि में होते होते वसुधैव कुटुम्बकम् तक पहुँचता है । मनुष्य समाज की साथ मिलकर रहने की यह एक व्यवस्था है। यह सर्व व्यवस्थाओं का भावात्मक मूल है अर्थात् अन्य सभी व्यवस्थाओं में परिवार भावना मूल आधाररूप रहती है ।
      
मनुष्य की अनेक आवश्यकतायें होती हैं । आहार तो सभी प्राणियों की आवश्यकता है, उसी प्रकार से मनुष्य की भी है । परन्तु मनुष्य प्राणी की तरह नहीं जीता । उसे मन, बुद्धि, अहंकार आदि भी मिले हैं। इन सबकी आवश्यकतायें भी होती हैं। अपनी इच्छायें, अपनी जिज्ञासा, अपना कर्ताभाव आदि से प्रेरित होकर मनुष्य अनेक प्रकार की वस्तुयें चाहता है। इन्हें प्राप्त करने का प्रयास करता है। अनेक वस्तुओं का निर्माण करता है। इसमें से विभिन्न वस्तुयें निर्माण करनेवाले, अनेक प्रकार के कार्य करनेवाले समूह निर्माण हुए जिन्हें जाति कहा जाने लगा।
 
मनुष्य की अनेक आवश्यकतायें होती हैं । आहार तो सभी प्राणियों की आवश्यकता है, उसी प्रकार से मनुष्य की भी है । परन्तु मनुष्य प्राणी की तरह नहीं जीता । उसे मन, बुद्धि, अहंकार आदि भी मिले हैं। इन सबकी आवश्यकतायें भी होती हैं। अपनी इच्छायें, अपनी जिज्ञासा, अपना कर्ताभाव आदि से प्रेरित होकर मनुष्य अनेक प्रकार की वस्तुयें चाहता है। इन्हें प्राप्त करने का प्रयास करता है। अनेक वस्तुओं का निर्माण करता है। इसमें से विभिन्न वस्तुयें निर्माण करनेवाले, अनेक प्रकार के कार्य करनेवाले समूह निर्माण हुए जिन्हें जाति कहा जाने लगा।
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मनुष्य का मन बहुत सक्रिय है । रागद्वेष, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि से उद्वेलित होकर वह अनेक प्रकार के उपद्रव करता है। इसमें से अनेक प्रकार की परेशानियाँ निर्माण होती हैं । मनुष्य की बुद्धि में जिज्ञासा है । जिज्ञासा से प्रेरित होकर वह असंख्य बातें जानना चाहता है और जानने के लिये नये नये प्रयोग करता रहता है। अनेक कलाओं का आविष्कार मनुष्य की सृजन करने की इच्छा में से होता हैं। इन सबका एक बहुत बड़ा संसार बनता है। इन मनोव्यापारों और गतिविधियों के नियमन हेतु अनेक प्रकार की व्यवस्थायें बनती हैं। अर्थव्यवस्था, राज्यव्यवस्था, इनके अन्तर्गत न्यायव्यवस्था, दण्डव्यवस्था, उत्पादन, वाणिज्य, विवाह आदि मनुष्यों को नियमन में रखने के लिये ही बनी हैं। इन व्यवस्थाओं के चलते अनेक प्रकार के समूह बनते हैं।
 
मनुष्य का मन बहुत सक्रिय है । रागद्वेष, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि से उद्वेलित होकर वह अनेक प्रकार के उपद्रव करता है। इसमें से अनेक प्रकार की परेशानियाँ निर्माण होती हैं । मनुष्य की बुद्धि में जिज्ञासा है । जिज्ञासा से प्रेरित होकर वह असंख्य बातें जानना चाहता है और जानने के लिये नये नये प्रयोग करता रहता है। अनेक कलाओं का आविष्कार मनुष्य की सृजन करने की इच्छा में से होता हैं। इन सबका एक बहुत बड़ा संसार बनता है। इन मनोव्यापारों और गतिविधियों के नियमन हेतु अनेक प्रकार की व्यवस्थायें बनती हैं। अर्थव्यवस्था, राज्यव्यवस्था, इनके अन्तर्गत न्यायव्यवस्था, दण्डव्यवस्था, उत्पादन, वाणिज्य, विवाह आदि मनुष्यों को नियमन में रखने के लिये ही बनी हैं। इन व्यवस्थाओं के चलते अनेक प्रकार के समूह बनते हैं।
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इन सभी व्यवस्थाओं का मूल आधार है धर्म, धर्म के अनुसार जो रीति बनती है वह है संस्कृति ।
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इन सभी व्यवस्थाओं का मूल आधार है धर्म, धर्म के अनुसार जो रीति बनती है वह है संस्कृति । तात्पर्य यह है कि मनुष्य का समाज धर्म और संस्कृति से चलता है ।
 
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तात्पर्य यह है कि मनुष्य का । ) समाज धर्म और संस्कृति से चलता है ।  
      
===== संस्कृति सनातन है =====
 
===== संस्कृति सनातन है =====
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===== सामाजिक रीतियों का शोधन करना =====
 
===== सामाजिक रीतियों का शोधन करना =====
समाज की रीतियों में जब प्रदूषण फैलता है तब उसका शोधन करने का काम भी विद्यालय को करना होता है ।  विद्यालय की वह क्षमता है, अधिकार है और दायित्व
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समाज की रीतियों में जब प्रदूषण फैलता है तब उसका शोधन करने का काम भी विद्यालय को करना होता है ।  विद्यालय की वह क्षमता है, अधिकार है और दायित्व विभिन्न सन्दर्भ और उदाहरणों से इस प्रतिपादन को स्पष्ट करेंगे।
 
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विभिन्न सन्दर्भ और उदाहरणों से इस प्रतिपादन को स्पष्ट करेंगे।
   
* होली, नवरात्रि, गणेश चर्थी आदि भारत के देशव्यापी सांस्कृतिक पर्व हैं। इनका आयोजन धार्मिक, सांस्कृतिक पद्धति से होना चाहिये । परन्तु वर्तमान में इसका बाजारीकरण, भौतिकीकरण और फिल्मीकरण हो गया है। ये सात्त्विक आनन्दप्रमोद के, उपासना के, राष्ट्र भावना जगाने के, समाज को संगठित करने के पर्व नहीं रह गये हैं। इन्हें यदि शुद्ध करना है तो कानून, पुलीस, बाजार, प्रशासन की क्षमता नहीं है। विद्यालय को ही अपने विद्यार्थियों की शिक्षा और उनके परिवारों के प्रबोधन के माध्यम से यह कार्य करना होगा। विद्यालय का यह कानूनी नहीं, स्वाभाविक कर्तव्य है।
 
* होली, नवरात्रि, गणेश चर्थी आदि भारत के देशव्यापी सांस्कृतिक पर्व हैं। इनका आयोजन धार्मिक, सांस्कृतिक पद्धति से होना चाहिये । परन्तु वर्तमान में इसका बाजारीकरण, भौतिकीकरण और फिल्मीकरण हो गया है। ये सात्त्विक आनन्दप्रमोद के, उपासना के, राष्ट्र भावना जगाने के, समाज को संगठित करने के पर्व नहीं रह गये हैं। इन्हें यदि शुद्ध करना है तो कानून, पुलीस, बाजार, प्रशासन की क्षमता नहीं है। विद्यालय को ही अपने विद्यार्थियों की शिक्षा और उनके परिवारों के प्रबोधन के माध्यम से यह कार्य करना होगा। विद्यालय का यह कानूनी नहीं, स्वाभाविक कर्तव्य है।
 
* चुनावों में लेनदेन होता है, सांसद उद्योजकों के साथ हाथ मिलाकर प्रजाविरोधी और देशविरोधी काम करते हैं तो विद्यालय के शिक्षकों और विद्यार्थियों को इन्हें ठीक करने का काम करना चाहिये ।
 
* चुनावों में लेनदेन होता है, सांसद उद्योजकों के साथ हाथ मिलाकर प्रजाविरोधी और देशविरोधी काम करते हैं तो विद्यालय के शिक्षकों और विद्यार्थियों को इन्हें ठीक करने का काम करना चाहिये ।
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# एक प्रकार ऐसा होता है जहाँ विद्यालय और आवास एक दूसरे से भिन्न व्यवस्था में चलते हैं। एक ही संस्था दोनों को चलाती है परन्तु विद्यालय मुख्याध्यापक या प्रधानाचार्य के द्वारा और छात्रावास गृहपति के द्वारा संचालित होता है । एक विद्यालय में पढने वाले एक ही छात्रावास में रहते हैं।  
 
# एक प्रकार ऐसा होता है जहाँ विद्यालय और आवास एक दूसरे से भिन्न व्यवस्था में चलते हैं। एक ही संस्था दोनों को चलाती है परन्तु विद्यालय मुख्याध्यापक या प्रधानाचार्य के द्वारा और छात्रावास गृहपति के द्वारा संचालित होता है । एक विद्यालय में पढने वाले एक ही छात्रावास में रहते हैं।  
 
# कहीं विद्यालय और छात्रावास भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न व्यवस्थाओं में होते हैं । विद्यालय केवल विद्यालय होता है, छात्रावास केवल छात्रावास होता है। दोनों का एकदूसरे के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता है । एक छात्रावास में भिन्न भिन्न विद्यालयों के माध्यमिक, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय आदि सभी स्तरों के विद्यार्थी रहते हैं । एक ही विद्यालय में पढने वाले विद्यार्थी भिन्न भिन्न छात्रावासों में रहते हैं।  
 
# कहीं विद्यालय और छात्रावास भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न व्यवस्थाओं में होते हैं । विद्यालय केवल विद्यालय होता है, छात्रावास केवल छात्रावास होता है। दोनों का एकदूसरे के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता है । एक छात्रावास में भिन्न भिन्न विद्यालयों के माध्यमिक, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय आदि सभी स्तरों के विद्यार्थी रहते हैं । एक ही विद्यालय में पढने वाले विद्यार्थी भिन्न भिन्न छात्रावासों में रहते हैं।  
# विद्यालय और छात्रावास एक ही व्यक्ति के नियन्त्रण में चलते हैं और वह व्यक्ति होता है मुख्याध्यापक अथवा प्रधानाचार्य । इसमें एक ही विद्यालय, एक ही छात्रावास और शत प्रतिशत विद्यार्थी छात्रावास में रहने वाले होते हैं । ये २४ घण्टे के विद्यालय होते हैं और सही अर्थ में आवासी विद्यालय कहे जायेंगे।  
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# विद्यालय और छात्रावास एक ही व्यक्ति के नियन्त्रण में चलते हैं और वह व्यक्ति होता है मुख्याध्यापक अथवा प्रधानाचार्य । इसमें एक ही विद्यालय, एक ही छात्रावास और शत प्रतिशत विद्यार्थी छात्रावास में रहने वाले होते हैं । ये २४ घण्टे के विद्यालय होते हैं और सही अर्थ में आवासीय विद्यालय कहे जायेंगे।  
 
सही अर्थ में आवासीय विद्यालय की अधिक चर्चा करना उपयुक्त रहेगा।
 
सही अर्थ में आवासीय विद्यालय की अधिक चर्चा करना उपयुक्त रहेगा।
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# चौबीस घण्टों में व्यक्तिगत और सामुदायिक जो भी काम होते हैं वे सब सहभागिता से किये जा सकते हैं । यदि कोई विद्यार्थी दस वर्ष आवासीय विद्यालय में रहता है तो स्वच्छता से लेकर भोजन बनाने तक के सारे काम करने में निपुणता प्राप्त हो सकती है, व्यवहार दक्षता प्राप्त हो सकती है, शास्त्रीय अध्ययन भी अच्छा हो सकता है।
 
# चौबीस घण्टों में व्यक्तिगत और सामुदायिक जो भी काम होते हैं वे सब सहभागिता से किये जा सकते हैं । यदि कोई विद्यार्थी दस वर्ष आवासीय विद्यालय में रहता है तो स्वच्छता से लेकर भोजन बनाने तक के सारे काम करने में निपुणता प्राप्त हो सकती है, व्यवहार दक्षता प्राप्त हो सकती है, शास्त्रीय अध्ययन भी अच्छा हो सकता है।
 
# आवासीय विद्यालय में शिक्षकों को विद्यालय का अंग बनकर रहना होता है । वर्तमान में शिक्षकों का सम्बन्ध केवल विषयों के अध्यापन से ही होता है परन्तु इसमें परिवर्तन कर उन्हें विद्यार्थियों के शिक्षक बनना चाहिये । विद्यालय की सम्पूर्ण व्यवस्था में सहभागी बनना चाहिये। सामान्य विद्यालय के शिक्षक और आवासीय विद्यालयों के शिक्षकों में बहुत अन्तर होता है।
 
# आवासीय विद्यालय में शिक्षकों को विद्यालय का अंग बनकर रहना होता है । वर्तमान में शिक्षकों का सम्बन्ध केवल विषयों के अध्यापन से ही होता है परन्तु इसमें परिवर्तन कर उन्हें विद्यार्थियों के शिक्षक बनना चाहिये । विद्यालय की सम्पूर्ण व्यवस्था में सहभागी बनना चाहिये। सामान्य विद्यालय के शिक्षक और आवासीय विद्यालयों के शिक्षकों में बहुत अन्तर होता है।
# आवासीय विद्यालय यदि गुरुकुल के अनुसार चलाये जाय तो आज भी शिक्षा में बहुत बडे परिवर्तन की अपेक्षा की जा सकती है। वर्तमान में ऐसा होने में व्यवस्था की नहीं अपितु शिक्षकों की कमी है। शिक्षाक्षेत्र में जीवनशिक्षा यह विषय नहीं रहने के कारण शिक्षकों और विद्यार्थियों का जीवन समरस नहीं हो पाता । उदाहरण के लिये परिसर में ही जिनका निवास है ऐसे शिक्षकों की पत्नियों की विद्यालय की दैनन्दिन गतिविधियों में कोई भूमिका नहीं रहती है। अनेक बार शिक्षक भी विद्यालय परिसर में निवास नहीं चाहते हैं क्योंकि अपना जीवन विद्यार्थियों के मध्य खुली किताब जैसा बन जाय यह उन्हें पसन्द नहीं होता । यदि शिक्षक अपने आपको विद्यार्थियों के समान ही विद्यालय का अंग मानें तभी आवासीय विद्यालय गुरुकुल में परिवर्तित हो सकता है । शिक्षकों के लिये भी वह चौबीस घण्टों का विद्यालय बनना चाहिये । शिक्षकों की पत्नियाँ गृहमाता बननी चाहिये।
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# आवासीय विद्यालय यदि गुरुकुल के अनुसार चलाये जाय तो आज भी शिक्षा में बहुत बड़े परिवर्तन की अपेक्षा की जा सकती है। वर्तमान में ऐसा होने में व्यवस्था की नहीं अपितु शिक्षकों की कमी है। शिक्षाक्षेत्र में जीवनशिक्षा यह विषय नहीं रहने के कारण शिक्षकों और विद्यार्थियों का जीवन समरस नहीं हो पाता । उदाहरण के लिये परिसर में ही जिनका निवास है ऐसे शिक्षकों की पत्नियों की विद्यालय की दैनन्दिन गतिविधियों में कोई भूमिका नहीं रहती है। अनेक बार शिक्षक भी विद्यालय परिसर में निवास नहीं चाहते हैं क्योंकि अपना जीवन विद्यार्थियों के मध्य खुली किताब जैसा बन जाय यह उन्हें पसन्द नहीं होता । यदि शिक्षक अपने आपको विद्यार्थियों के समान ही विद्यालय का अंग मानें तभी आवासीय विद्यालय गुरुकुल में परिवर्तित हो सकता है । शिक्षकों के लिये भी वह चौबीस घण्टों का विद्यालय बनना चाहिये । शिक्षकों की पत्नियाँ गृहमाता बननी चाहिये।
 
# व्यवस्थाओं के विषय में भी गुरुकुल के समान अलग ही पद्धति से विचार किया जा सकता है। उदाहरण के लिये एक एक शिक्षक के साथ दस-बीस-पचीस विद्यार्थी रहते हों, वे सब भिन्न भिन्न आयु के भी हों और पूरा चौबीस घण्टों का जीवन एक बड़े परिवार की तरह रहते हों ऐसी व्यवस्था बनाई जा सकती है । सारे काम शिक्षक, उनकी पत्नी, विद्यार्थी सब मिलकर करते हों, अध्ययन भी सब कामों में एक काम हो ऐसी व्यवस्था बनाई जा सकती है।
 
# व्यवस्थाओं के विषय में भी गुरुकुल के समान अलग ही पद्धति से विचार किया जा सकता है। उदाहरण के लिये एक एक शिक्षक के साथ दस-बीस-पचीस विद्यार्थी रहते हों, वे सब भिन्न भिन्न आयु के भी हों और पूरा चौबीस घण्टों का जीवन एक बड़े परिवार की तरह रहते हों ऐसी व्यवस्था बनाई जा सकती है । सारे काम शिक्षक, उनकी पत्नी, विद्यार्थी सब मिलकर करते हों, अध्ययन भी सब कामों में एक काम हो ऐसी व्यवस्था बनाई जा सकती है।
 
# आजकल छात्रावासों में विद्यार्थी केवल पढेंगे, खेलेंगे और अन्य शैक्षिक गतिविधियों में सहभागी बनेंगे परन्तु और कोई काम नहीं करेंगे ऐसी अपेक्षा की जाती है। उनके निवास के कक्ष की स्वच्छता, उनके अपने कपड़ों की धुलाई, बर्तनों की सफाई आदि के लिये नौकर होंगे, भोजन बनाने आदि में सहभागी होना तो बहुत दूर की बात है । इन कामों को हेय मानने की यह प्रवृत्ति बहुत हानिकारक है।
 
# आजकल छात्रावासों में विद्यार्थी केवल पढेंगे, खेलेंगे और अन्य शैक्षिक गतिविधियों में सहभागी बनेंगे परन्तु और कोई काम नहीं करेंगे ऐसी अपेक्षा की जाती है। उनके निवास के कक्ष की स्वच्छता, उनके अपने कपड़ों की धुलाई, बर्तनों की सफाई आदि के लिये नौकर होंगे, भोजन बनाने आदि में सहभागी होना तो बहुत दूर की बात है । इन कामों को हेय मानने की यह प्रवृत्ति बहुत हानिकारक है।
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आवासीय विद्यालयों में कुछ विद्यार्थियों को दिन में केवल पढाई हेतु खण्ड समय के लिये प्रवेश देने की बाध्यता अधिकतर आर्थिक कारणों से ही बनती है । परन्तु विद्यालय में रहनेवाले विद्यार्थियों पर इसका विपरीत प्रभाव पडता है । इस कारण से ऐसा करना उचित नहीं है । अधिकांश संचालक यह स्थिति समझते हैं परन्तु इस पर नियन्त्रण नहीं प्राप्त कर सकते ।
 
आवासीय विद्यालयों में कुछ विद्यार्थियों को दिन में केवल पढाई हेतु खण्ड समय के लिये प्रवेश देने की बाध्यता अधिकतर आर्थिक कारणों से ही बनती है । परन्तु विद्यालय में रहनेवाले विद्यार्थियों पर इसका विपरीत प्रभाव पडता है । इस कारण से ऐसा करना उचित नहीं है । अधिकांश संचालक यह स्थिति समझते हैं परन्तु इस पर नियन्त्रण नहीं प्राप्त कर सकते ।
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महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों और शोधसंस्थानों में स्वतन्त्र छात्रालयों में रहनेवाले विद्यार्थी अनेक प्रकार के सांस्कृतिक संकटों से घिर जाते हैं, अनेक सांस्कृतिक संकट निर्माण भी करते हैं जिन्हें वे मुक्तता और सुख मानते हैं। धूम्रपान करने वाली लडकियाँ, युवकयुवतियों की मित्रता और पराकाष्ठा की उनकी निकटता, शराब जैसे व्यसन इस प्रकार के छात्रावासों में सहज होता है। इनमें गम्भीर अध्ययन कनरेवाले विद्यार्थी भी होते ही हैं परन्तु इन दूषणों से बचना अत्यन्त कठिन हो जाता है । इन युवाओं के लिये सारे उत्सव सांस्कृतिक नहीं अपितु मनोरंजन के साधन ही होते हैं ।
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महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों और शोधसंस्थानों में स्वतन्त्र छात्रालयों में रहनेवाले विद्यार्थी अनेक प्रकार के सांस्कृतिक संकटों से घिर जाते हैं, अनेक सांस्कृतिक संकट निर्माण भी करते हैं जिन्हें वे मुक्तता और सुख मानते हैं। धूम्रपान करने वाली लडकियाँ, युवक युवतियों की मित्रता और पराकाष्ठा की उनकी निकटता, शराब जैसे व्यसन इस प्रकार के छात्रावासों में सहज होता है। इनमें गम्भीर अध्ययन करने वाले विद्यार्थी भी होते ही हैं परन्तु इन दूषणों से बचना अत्यन्त कठिन हो जाता है । इन युवाओं के लिये सारे उत्सव सांस्कृतिक नहीं अपितु मनोरंजन के साधन ही होते हैं ।
    
आवासीय विद्यालय यदि गुरुकुलों के समान और विशेष सांस्कृतिक उद्देश्य और पद्धति से नहीं चलाये गये तो दो पीढियों में अन्तर निर्माण करने के निमित्त बन जाते हैं । वैसे भी वर्तमान वातावरण में मातापिता और सन्तानों में दूरत्व निर्माण करने वाले अनेक साधन उत्पन्न हो ही गये हैं उनमें यह एक बडा निमित्त जुड़ जाता है। दो पीढियों में समरस सम्बन्ध निर्माण नहीं होने से सांस्कृतिक परम्परा खण्डित होती है । परम्परा खण्डित होना किसी भी समाज के लिये घाटे का ही सौदा होता है । इसलिये समाज हितचिन्तक हमेशा परम्परा को बनाये रखने हेतु हर सम्भव प्रयास करने का ही परामर्श देते हैं।
 
आवासीय विद्यालय यदि गुरुकुलों के समान और विशेष सांस्कृतिक उद्देश्य और पद्धति से नहीं चलाये गये तो दो पीढियों में अन्तर निर्माण करने के निमित्त बन जाते हैं । वैसे भी वर्तमान वातावरण में मातापिता और सन्तानों में दूरत्व निर्माण करने वाले अनेक साधन उत्पन्न हो ही गये हैं उनमें यह एक बडा निमित्त जुड़ जाता है। दो पीढियों में समरस सम्बन्ध निर्माण नहीं होने से सांस्कृतिक परम्परा खण्डित होती है । परम्परा खण्डित होना किसी भी समाज के लिये घाटे का ही सौदा होता है । इसलिये समाज हितचिन्तक हमेशा परम्परा को बनाये रखने हेतु हर सम्भव प्रयास करने का ही परामर्श देते हैं।
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आज समाज में धनवान लोगों की यह मानसिकता भी बढने लगी है कि अच्छी पढाई हेतु अपनी सन्तानों को बडे नगरों में या विदेशों में भेजना अच्छा है। ऐसा नहीं है कि ऐसी पढाई हेतु अपने ही स्थान पर कोई महाविद्यालय नहीं है। परन्तु महानगरों, दूर स्थित महानगरों और विदेशों का दोनों पीढियों को आकर्षण है । बडों को उसमें प्रतिष्ठा का अनुभव होता है और युवाओं को प्रतिष्ठा के साथ साथ मुक्ति का भी अनुभव होता है । अपनी सन्तानों के भले के लिये ही यह सब कर रहे हैं ऐसा बड़ों का भाव होता है । अनेक बार तो सामान्य आर्थिक स्थिति के मातापिता ऋण लेकर भी अपनी सांतानों के इस प्रकार के अध्ययन की व्यवस्था करते है परन्तु यह शैक्षिक दॄष्टि से भी उचित होता है ऐसा अनुभव तो नहीं आता। सामाजिक सांस्कृतिक दॄष्टि से यह हानिकारक है।  
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आज समाज में धनवान लोगों की यह मानसिकता भी बढने लगी है कि अच्छी पढाई हेतु अपनी सन्तानों को बड़े नगरों में या विदेशों में भेजना अच्छा है। ऐसा नहीं है कि ऐसी पढाई हेतु अपने ही स्थान पर कोई महाविद्यालय नहीं है। परन्तु महानगरों, दूर स्थित महानगरों और विदेशों का दोनों पीढियों को आकर्षण है । बड़ों को उसमें प्रतिष्ठा का अनुभव होता है और युवाओं को प्रतिष्ठा के साथ साथ मुक्ति का भी अनुभव होता है । अपनी सन्तानों के भले के लिये ही यह सब कर रहे हैं ऐसा बड़ों का भाव होता है । अनेक बार तो सामान्य आर्थिक स्थिति के मातापिता ऋण लेकर भी अपनी सांतानों के इस प्रकार के अध्ययन की व्यवस्था करते है परन्तु यह शैक्षिक दॄष्टि से भी उचित होता है ऐसा अनुभव तो नहीं आता। सामाजिक सांस्कृतिक दॄष्टि से यह हानिकारक है।  
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यह सब कर रहे हैं ऐसा बडों का भाव होता है । अनेक बार तो सामान्य आर्थिक स्थिति के मातापिता क्रण लेकर भी अपनी संतानों के इस प्रकार के अध्ययन की व्यवस्था करते हैं परन्तु यह शैक्षिक दृष्टि से भी उचित होता है ऐसा अनुभव तो नहीं आता । सामाजिक सांस्कृतिक दृष्टि से यह हानिकारक है ।
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यह सब कर रहे हैं ऐसा बड़ों का भाव होता है । अनेक बार तो सामान्य आर्थिक स्थिति के मातापिता क्रण लेकर भी अपनी संतानों के इस प्रकार के अध्ययन की व्यवस्था करते हैं परन्तु यह शैक्षिक दृष्टि से भी उचित होता है ऐसा अनुभव तो नहीं आता । सामाजिक सांस्कृतिक दृष्टि से यह हानिकारक है ।
    
== सरकारी प्राथमिक विद्यालयों का क्या करें ==
 
== सरकारी प्राथमिक विद्यालयों का क्या करें ==
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===== शिक्षक क्यों नहीं पढ़ाते ? =====
 
===== शिक्षक क्यों नहीं पढ़ाते ? =====
 
सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षक पढाते क्यों नहीं है इसका भी ठीक से विचार करना चाहिये । यदि निदान ठीक करेंगे तो उपाय भी ठीक कर पायेंगे।  
 
सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षक पढाते क्यों नहीं है इसका भी ठीक से विचार करना चाहिये । यदि निदान ठीक करेंगे तो उपाय भी ठीक कर पायेंगे।  
# आज के शैक्षिक वातावरण में प्रेरणा का तत्व गायब है। कोई कहे या न कहे, कोई देखे या न देखे, पुरस्कार या प्रशंसा मिले या न मिले, कोई दण्ड दे या न दे अपना कर्तव्य है इसलिये पढाना ही चाहिये ऐसी भावना बनने के लिये वातावरण चाहिये । सामने आदर्श चाहिये, शिक्षा मिली हुई होनी चाहिये, आज ऐसी शिक्षा नहीं है। कर्तव्यपालन करना चाहिये, स्वेच्छा से करना चाहिये, अपने कारण से किसी का अकल्याण नहीं होना चाहिये ऐसी शिक्षा किसी भी स्तर पर, किसी भी प्रकार से नहीं दी जाती । समाज में अपने से बडे, अपने अधिकारी कर्तव्यपालन कर रहे हैं ऐसा प्रेरणादायक चरित्र कहीं दिखाई नहीं देता, सर्वत्र वातवरण ही अपने लाभ का विचार करने का है। शिक्षाक्षेत्र में प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक तो बहुत छोटे हैं । अन्य सरकारी विभागों में भी वातावरण तो ऐसा ही है । शिक्षा के उपर के स्तरों पर भी वातावरण तो ऐसा ही है । सर्वत्र सबका व्यवहार ऐसा है इसलिये  इन शिक्षकों का व्यवहार भी ऐसा ही है ।
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# आज के शैक्षिक वातावरण में प्रेरणा का तत्व गायब है। कोई कहे या न कहे, कोई देखे या न देखे, पुरस्कार या प्रशंसा मिले या न मिले, कोई दण्ड दे या न दे अपना कर्तव्य है इसलिये पढाना ही चाहिये ऐसी भावना बनने के लिये वातावरण चाहिये । सामने आदर्श चाहिये, शिक्षा मिली हुई होनी चाहिये, आज ऐसी शिक्षा नहीं है। कर्तव्यपालन करना चाहिये, स्वेच्छा से करना चाहिये, अपने कारण से किसी का अकल्याण नहीं होना चाहिये ऐसी शिक्षा किसी भी स्तर पर, किसी भी प्रकार से नहीं दी जाती । समाज में अपने से बड़े, अपने अधिकारी कर्तव्यपालन कर रहे हैं ऐसा प्रेरणादायक चरित्र कहीं दिखाई नहीं देता, सर्वत्र वातवरण ही अपने लाभ का विचार करने का है। शिक्षाक्षेत्र में प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक तो बहुत छोटे हैं । अन्य सरकारी विभागों में भी वातावरण तो ऐसा ही है । शिक्षा के उपर के स्तरों पर भी वातावरण तो ऐसा ही है । सर्वत्र सबका व्यवहार ऐसा है इसलिये  इन शिक्षकों का व्यवहार भी ऐसा ही है ।
 
# पढाने न पढाने का मूल्यांकन करने की पद्धति अत्यन्त कृत्रिम है। विद्यार्थी ज्ञानवान और चरित्रवान बनें इसका निकर्ष परीक्षा ही है । परीक्षा भी लिखित होती है। अंक दे सकें इस स्वरूप की होती है । अंक दे देना बहुत सरल है । समाज में या व्यक्तिगत जीवन में अज्ञान और असंस्कार दिखाई दे रहा है यह परीक्षा में उत्तीर्ण या अनुत्तीर्ण होने का निकष नहीं है । इसलिये अंक मिल जाते हैं परन्तु ज्ञान या संस्कार नहीं आता । इस परिणाम हेतु दण्डित या पुरस्कृत करना असम्भव है। इसलिये विद्यालय में पढाना सम्भव ही नहीं होता।
 
# पढाने न पढाने का मूल्यांकन करने की पद्धति अत्यन्त कृत्रिम है। विद्यार्थी ज्ञानवान और चरित्रवान बनें इसका निकर्ष परीक्षा ही है । परीक्षा भी लिखित होती है। अंक दे सकें इस स्वरूप की होती है । अंक दे देना बहुत सरल है । समाज में या व्यक्तिगत जीवन में अज्ञान और असंस्कार दिखाई दे रहा है यह परीक्षा में उत्तीर्ण या अनुत्तीर्ण होने का निकष नहीं है । इसलिये अंक मिल जाते हैं परन्तु ज्ञान या संस्कार नहीं आता । इस परिणाम हेतु दण्डित या पुरस्कृत करना असम्भव है। इसलिये विद्यालय में पढाना सम्भव ही नहीं होता।
 
# कहीं पर भी सीधी कारवाई होने की व्यवस्था सरकारी तन्त्र में नहीं होती। निरीक्षण करने वाला स्वयं कुछ नहीं कर सकता, केवल रिपोर्ट भेज सकता है । रिपोर्ट पढने वाला और उपर रिपोर्ट भेजता है। रिपोर्ट को सिद्ध करना बहुत कठिन होता है। उसमें फिर राजकीय हस्तक्षेप भी होते हैं । कारवाई करने वाले 'शिक्षक' नहीं होते, प्रशासकीय विभाग के होते हैं । वास्तव में निर्णय लेने या कारवाई करने की दृष्टि से यह शिक्षा का क्षेत्र नहीं है। नीतियाँ निश्चित करनेवाला राजकीय क्षेत्र है, कारवाई करनेवाला प्रशासकीय क्षेत्र है, शिक्षा का क्षेत्र तो उनके अधीन है। राजकीय क्षेत्र वाले चुनावों की और सत्ता की चिन्ता करते हैं, उनके लिये सरकारी विद्यालय अपने हितों के लिये उपयोग में आनेवाला क्षेत्र है। प्रशासनिक अधिकारियों के लिये ये सब कर्मचारी हैं । उनका कार्यक्षेत्र नियम, कानून, कानून की धारा, नियम पालन के या उल्लंघन के शाब्दिक प्रावधान, नियुक्ति वेतन आदि हैं, शिक्षा नहीं । शिक्षा के प्रश्न को शैक्षिक दृष्टि से समझनेवाला, शैक्षिक दृष्टि से हल करनेवाला इस तन्त्र में कोई नहीं है । जब शिक्षा प्रशासन और राजनीति के अधीन हो जाती है तब वह निर्जीव और यांत्रिक हो जाती है। प्राणवान व्यक्ति अपनी अंगभूत ऊर्जा से कार्य करता है, यन्त्र बाहरी ऊर्जा से । प्राणवान व्यक्ति अपने ही बल, इच्छा और प्रेरणा से चलता है। यन्त्र चलाने पर चलता है । सरकारी शिक्षा का तन्त्र भी चलाने पर चलने वाला तन्त्र है । शिक्षा स्वभाव से प्राणवान है, प्रशासन स्वभाव से यान्त्रिक है। चलाने वाला यान्त्रिक हो और चलनेवाला प्राणवान यह अपने आप में बहुत विचित्र व्यवस्था है। ऐसी विचित्र व्यवस्था होने के कारण ही ज्ञान, चरित्र, कर्तृत्व, कुशलता आदि जीवमान तत्व पलायन कर जाते हैं। इस मूल कारण से सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में अच्छी शिक्षा नहीं होती।
 
# कहीं पर भी सीधी कारवाई होने की व्यवस्था सरकारी तन्त्र में नहीं होती। निरीक्षण करने वाला स्वयं कुछ नहीं कर सकता, केवल रिपोर्ट भेज सकता है । रिपोर्ट पढने वाला और उपर रिपोर्ट भेजता है। रिपोर्ट को सिद्ध करना बहुत कठिन होता है। उसमें फिर राजकीय हस्तक्षेप भी होते हैं । कारवाई करने वाले 'शिक्षक' नहीं होते, प्रशासकीय विभाग के होते हैं । वास्तव में निर्णय लेने या कारवाई करने की दृष्टि से यह शिक्षा का क्षेत्र नहीं है। नीतियाँ निश्चित करनेवाला राजकीय क्षेत्र है, कारवाई करनेवाला प्रशासकीय क्षेत्र है, शिक्षा का क्षेत्र तो उनके अधीन है। राजकीय क्षेत्र वाले चुनावों की और सत्ता की चिन्ता करते हैं, उनके लिये सरकारी विद्यालय अपने हितों के लिये उपयोग में आनेवाला क्षेत्र है। प्रशासनिक अधिकारियों के लिये ये सब कर्मचारी हैं । उनका कार्यक्षेत्र नियम, कानून, कानून की धारा, नियम पालन के या उल्लंघन के शाब्दिक प्रावधान, नियुक्ति वेतन आदि हैं, शिक्षा नहीं । शिक्षा के प्रश्न को शैक्षिक दृष्टि से समझनेवाला, शैक्षिक दृष्टि से हल करनेवाला इस तन्त्र में कोई नहीं है । जब शिक्षा प्रशासन और राजनीति के अधीन हो जाती है तब वह निर्जीव और यांत्रिक हो जाती है। प्राणवान व्यक्ति अपनी अंगभूत ऊर्जा से कार्य करता है, यन्त्र बाहरी ऊर्जा से । प्राणवान व्यक्ति अपने ही बल, इच्छा और प्रेरणा से चलता है। यन्त्र चलाने पर चलता है । सरकारी शिक्षा का तन्त्र भी चलाने पर चलने वाला तन्त्र है । शिक्षा स्वभाव से प्राणवान है, प्रशासन स्वभाव से यान्त्रिक है। चलाने वाला यान्त्रिक हो और चलनेवाला प्राणवान यह अपने आप में बहुत विचित्र व्यवस्था है। ऐसी विचित्र व्यवस्था होने के कारण ही ज्ञान, चरित्र, कर्तृत्व, कुशलता आदि जीवमान तत्व पलायन कर जाते हैं। इस मूल कारण से सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में अच्छी शिक्षा नहीं होती।

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