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कुछ उदाहरण देखें...
 
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# विद्यालय में आवश्यकता से अधिक कोई भी सामग्री न होना । जो है उसको खराब नहीं होने देना।  
१. विद्यालय में आवश्यकता से अधिक कोई भी सामग्री न होना । जो है उसको खराब नहीं होने देना।  
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# एक ओर लिखे हए और एक ओर खाली कागजों का लिखने हेतु प्रयोग करना ।  
 
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# दोनों ओर लिखे हुए कागजों से लिफाफे बनाना जिसमें छोटी छोटी वस्तुयें रखी जा सकें।  
२. एक ओर लिखे हए और एक ओर खाली कागजों का लिखने हेतु प्रयोग करना ।  
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# एक ओर खाली कागजों के लिफाफे बनाना जो डाक में भेजने के काम आ सकते हैं ।  
 
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# पुरानी चद्दरों से हाथ पोंछने के रूमाल बनाना जिसका अल्पाहार के बाद हाथ और बर्तन पोंछने के लिये उपयोग हो सके । इन्हीं पुरानी चद्दरों का पोंछे के रूप में उपयोग हो सकता है।  
३. दोनों ओर लिखे हुए कागजों से लिफाफे बनाना जिसमें छोटी छोटी वस्तुयें रखी जा सकें।  
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# नारियल के छिलकों का बर्तन साफ करने के ब्रश के रूप में उपयोग हो सकता है। उसके कठोर आवरणों के टुकडों का गिनती करने के साधन के रूप में उपयोग हो सकता है।  
 
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# इस प्रकार अनेक पदार्थ ऐसे हैं जिनका अन्यान्य कामों के लिये पुनः पुनः उपयोग किया जा सकता है।  
४. एक ओर खाली कागजों के लिफाफे बनाना जो डाक में भेजने के काम आ सकते हैं ।  
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# बिजली का उपयोग कम करना दूसरी बड़ी आवश्यकता है। दिन में भी बिजली के लैम्प चालू रखना पडे ऐसी भवन रचना फूहड वास्तु का नमूना है। पंखों का, ए.सी. का, कूलर का, पानी शुद्धीकरण का इतना अधिक उपयोग करने से बिजली का संकट निर्माण होता है। इसका हम कितना कम उपयोग कर सकते हैं इसका विचार करना चाहिये । इस विषय में अपनी कल्पनाशक्ति का उपयोग करना चाहिये।  
 
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# इसी प्रकार वाहन का प्रयोग कम करने के रास्ते ढूँढना चाहिये । घर के नजदीक से ही दूध, सब्जी, अखबार आदि लाने के लिये स्कूटर का प्रयोग नहीं करना चाहिये । विद्यालय आने के लिये साइकिल का प्रयोग ही करना चाहिये । ओटो रिक्षा या स्कूटर पर यदि अकेले जा रहे हैं तो अन्य किसी को साथ में बिठा लेना चाहिये।  
५. पुरानी चद्दरों से हाथ पोंछने के रूमाल बनाना जिसका अल्पाहार के बाद हाथ और बर्तन पोंछने के लिये उपयोग हो सके । इन्हीं पुरानी चद्दरों का पोंछे के रूप में उपयोग हो सकता है।  
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# विद्यालयों में, कार्यालयों में झेरोक्स प्रतियाँ, निमन्त्रण पत्रिका, सूचना पत्रक, सी.डी. हमेशा आवश्यकता से अधिक बनाने का ही प्रचलन हो गया है। इससे अनावश्यक खर्च बढता है। अधिक बनाने का ही प्रचलन हो गया है। इससे अनावश्यक खर्च बढता है।  
 
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# बैठक में जाते समय सूचनापत्रक या कार्यक्रम पत्रिका साथ नहीं ले जाना, थोडा कुछ लिखने के लिये पूरे कागज का प्रयोग करना, पेन या पेन्सिल खो देना अनावश्यक खर्च बढाता है। ऐसी आदतें न बनें इस हेतु शिक्षा की आवश्यकता है।  
६. नारियल के छिलकों का बर्तन साफ करने के ब्रश के रूप में उपयोग हो सकता है। उसके कठोर आवरणों के टुकडों का गिनती करने के साधन के रूप में उपयोग हो सकता है।  
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# हर कोई वस्तु प्लास्टिक पैकिंग में लाने का या किसी को देने का आग्रह रखना उचित नहीं है । भेंट करने की वस्तुओं को चमकीले कागजों में लपेटना, टेप से उसे चिपकाकर बंद करना और भेंट प्राप्त होते ही उसे फाडकर खोलना और चमकीले कागज को रद्दी की टोकरी में फैंकना दारिद्र्य के मार्ग पर ही ले जाने वाली बातें हैं।  
 
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# कागज जोडने हेतु स्टेपलर के स्थान पर आलपिन का प्रयोग करना बुद्धिमानी है। इतनी छोटी बात अनेक बडी बडी बातों की ओर ले जाती है यदि वह विचारपूर्वक की हो।  
७. इस प्रकार अनेक पदार्थ ऐसे हैं जिनका अन्यान्य कामों के लिये पुनः पुनः उपयोग किया जा सकता है।  
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# मोबाइल, कम्प्यूटर, इण्टरनेट, टी.वी.का अन्धाधुन्ध उपयोग बुद्धिहीनता का लक्षण है। इनका विडियो गेम्स, चैटिंग, फैसबुक, वॉट्सअप हेतु इतना अधिक प्रयोग मन को सदैव चंचल, उत्तेजित और अस्तव्यस्त रखता है, उससे चिन्तनशीलता का विकास होना असम्भव बन जाता है। पैसा तो खर्च होता ही है।  
 
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# बोलने और सुनने की शक्ति इतनी कम हुई हैं, भवनों की ध्वनिव्यवस्था ऐसी विपरीत है और बाहर के वातावरण में इतना कोलाहल है कि कम संख्या में भी ध्वनिवर्धक यन्त्र का प्रयोग करना पडता है। यह भी एक अनावश्यक खर्च ही है।  
८. बिजली का उपयोग कम करना दूसरी बड़ी आवश्यकता है। दिन में भी बिजली के लैम्प चालू रखना पडे ऐसी भवन रचना फूहड वास्तु का नमूना है। पंखों का, ए.सी. का, कूलर का, पानी शुद्धीकरण का इतना अधिक उपयोग करने से बिजली का संकट निर्माण होता है। इसका हम कितना कम उपयोग कर सकते हैं इसका विचार करना चाहिये । इस विषय में अपनी कल्पनाशक्ति का उपयोग करना चाहिये।  
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# वर्षभर में प्रयुक्त जूते, कपडे, पुस्तकें, लेखनसामग्री, नास्ते के डिब्बे, पानी की बोतलें आदि का यदि हिसाब करें तो हम अब तक पूर्ण दिवालिये नहीं हो गये यह बहुत बडा चमत्कार है ऐसा ही लगेगा।  
 
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# एक लिटर पानी पन्द्रह रूपये खर्च करने वाली और उसकी खाली बोतलें धडाधड फैंकने वाली संस्कृति संस्कृति नाम के लायक नहीं है, वह अपसंस्कृति है। संसाधनों की ऐसी बरबादी किसी भी प्रकार से क्षमा करने योग्य नहीं है।  
९. इसी प्रकार वाहन का प्रयोग कम करने के रास्ते ढूँढना चाहिये । घर के नजदीक से ही दूध, सब्जी, अखबार आदि लाने के लिये स्कूटर का प्रयोग नहीं करना चाहिये । विद्यालय आने के लिये साइकिल का प्रयोग ही करना चाहिये । ओटो रिक्षा या स्कूटर पर यदि अकेले जा रहे हैं तो अन्य किसी को साथ में बिठा लेना चाहिये।  
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# किसी भी विषय को सीखने में लगने वाला समय ध्यान देने योग्य विषय है। किसी भी काम को करने में लगने वाला अधिक समय चिन्ता का विषय है। समय की बचत करना अत्यन्त आवश्यक है। इसलिये अनावश्यक बातों के लिये समय का अपव्यय नहीं करना चाहिये ।  
 
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# किसी वस्तु का जतन नहीं करना, उसे खराब करना, खो देना, तोडना, उसका दरुपयोग करना अधिक वस्तुओं की आवश्यकता निर्माण करता है और परिणामतः खर्च बढता है ।  
१०. विद्यालयों में, कार्यालयों में झेरोक्स प्रतियाँ, निमन्त्रण पत्रिका, सूचना पत्रक, सी.डी. हमेशा आवश्यकता से अधिक बनाने का ही प्रचलन हो गया है। इससे अनावश्यक खर्च बढता है। अधिक बनाने का ही प्रचलन हो गया है। इससे अनावश्यक खर्च बढता है।  
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# थाली में जूठन नहीं छोडना, कपडे गन्दे नहीं करना, विद्यालय की दरी को गन्दा नहीं करना, कापी के कागज नहीं फाडना, कक्ष से बाहर जाते समय पंखे बन्द करना, एकाग्रतापूर्वक पढना और एक बार में याद कर लेना अच्छी आदते हैं । ये मितव्ययिता की और तथा मितव्ययिता संस्कारी समृद्धि की ओर ले जाती है।
 
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११. बैठक में जाते समय सूचनापत्रक या कार्यक्रम पत्रिका साथ नहीं ले जाना, थोडा कुछ लिखने के लिये पूरे कागज का प्रयोग करना, पेन या पेन्सिल खो देना अनावश्यक खर्च बढाता है। ऐसी आदतें न बनें इस हेतु शिक्षा की आवश्यकता है।  
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१२. हर कोई वस्तु प्लास्टिक पैकिंग में लाने का या किसी को देने का आग्रह रखना उचित नहीं है । भेंट करने की वस्तुओं को चमकीले कागजों में लपेटना, टेप से उसे चिपकाकर बंद करना और भेंट प्राप्त होते ही उसे फाडकर खोलना और चमकीले कागज को रद्दी की टोकरी में फैंकना दारिद्र्य के मार्ग पर ही ले जाने वाली बातें हैं।  
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१३. कागज जोडने हेतु स्टेपलर के स्थान पर आलपिन का प्रयोग करना बुद्धिमानी है। इतनी छोटी बात अनेक बडी बडी बातों की ओर ले जाती है यदि वह विचारपूर्वक की हो।  
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१४. मोबाइल, कम्प्यूटर, इण्टरनेट, टी.वी.का अन्धाधुन्ध उपयोग बुद्धिहीनता का लक्षण है। इनका विडियो गेम्स, चैटिंग, फैसबुक, वॉट्सअप हेतु इतना अधिक प्रयोग मन को सदैव चंचल, उत्तेजित और अस्तव्यस्त रखता है, उससे चिन्तनशीलता का विकास होना असम्भव बन जाता है। पैसा तो खर्च होता ही है।  
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१५. बोलने और सुनने की शक्ति इतनी कम हुई हैं, भवनों की ध्वनिव्यवस्था ऐसी विपरीत है और बाहर के वातावरण में इतना कोलाहल है कि कम संख्या में भी ध्वनिवर्धक यन्त्र का प्रयोग करना पडता है। यह भी एक अनावश्यक खर्च ही है।  
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१६. वर्षभर में प्रयुक्त जूते, कपडे, पुस्तकें, लेखनसामग्री, नास्ते के डिब्बे, पानी की बोतलें आदि का यदि हिसाब करें तो हम अब तक पूर्ण दिवालिये नहीं हो गये यह बहुत बडा चमत्कार है ऐसा ही लगेगा।  
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१७. एक लिटर पानी पन्द्रह रूपये खर्च करने वाली और उसकी खाली बोतलें धडाधड फैंकने वाली संस्कृति संस्कृति नाम के लायक नहीं है, वह अपसंस्कृति है। संसाधनों की ऐसी बरबादी किसी भी प्रकार से क्षमा करने योग्य नहीं है।  
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१८. किसी भी विषय को सीखने में लगने वाला समय ध्यान देने योग्य विषय है। किसी भी काम को करने में लगने वाला अधिक समय चिन्ता का विषय है। समय की बचत करना अत्यन्त आवश्यक है। इसलिये अनावश्यक बातों के लिये समय का अपव्यय नहीं करना चाहिये ।  
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१९. किसी वस्तु का जतन नहीं करना, उसे खराब करना, खो देना, तोडना, उसका दरुपयोग करना अधिक वस्तुओं की आवश्यकता निर्माण करता है और परिणामतः खर्च बढता है ।  
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२०. थाली में जूठन नहीं छोडना, कपडे गन्दे नहीं करना, विद्यालय की दरी को गन्दा नहीं करना, कापी के कागज नहीं फाडना, कक्ष से बाहर जाते समय पंखे बन्द करना, एकाग्रतापूर्वक पढना और एक बार में याद कर लेना अच्छी आदते हैं । ये मितव्ययिता की और तथा मितव्ययिता संस्कारी समृद्धि की ओर ले जाती है।
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इतना पढकर ध्यान में आता है कि हमारी सम्पूर्ण जीवनशैली मितव्ययिता के स्थान पर अपव्ययिता की बन गई है। हम विचारशील नहीं विचारहीन सिद्ध हो रहे हैं। हम समृद्धि की ओर नहीं दरिद्रता की ओर बढ़ रहे हैं । ऐसा ही चलता रहा तो कोई हमें संकटों से उबार नहीं सकता। हमें बदलना ही होगा। यह बदल विद्यालयों से शुरू होगा। विद्यालय को विचार और व्यवहार की दिशा बदलनी होगी। शिक्षकों और विद्यार्थियों के मानस बदलने होंगे।
 
इतना पढकर ध्यान में आता है कि हमारी सम्पूर्ण जीवनशैली मितव्ययिता के स्थान पर अपव्ययिता की बन गई है। हम विचारशील नहीं विचारहीन सिद्ध हो रहे हैं। हम समृद्धि की ओर नहीं दरिद्रता की ओर बढ़ रहे हैं । ऐसा ही चलता रहा तो कोई हमें संकटों से उबार नहीं सकता। हमें बदलना ही होगा। यह बदल विद्यालयों से शुरू होगा। विद्यालय को विचार और व्यवहार की दिशा बदलनी होगी। शिक्षकों और विद्यार्थियों के मानस बदलने होंगे।
  
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