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=== भाषण ===
 
=== भाषण ===
१. छात्र जैसा सुनते हैं वैसा ही बोलते हैं। इसलिए छात्रों को शुद्ध बोलना
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# छात्र जैसा सुनते हैं वैसा ही बोलते हैं। इसलिए छात्रों को शुद्ध बोलना सिखाने के लिए शिक्षक को हमेशा शुद्ध उच्चारण के साथ ही बोलना चाहिए। छात्रों के घरों में भिन्न भिन्न बोलियों का प्रयोग होता है, जैसे अवधी, भोजपुरी, बिहारी, उत्तरांचली इत्यादि। इन बोलियों एवं शुद्ध भाषा में अंतर होता है। इसलिए घर की ऐसी बोली में पले छात्रों को शुद्ध भाषा बोलना कठिन लगता है। यदि शिक्षक घर में ऐसी ही बोली बोलते हों तो उन्हें भी शुद्ध बोलना कठिन लगता है। कभी कभी शुद्ध बोलने में वे अस्वाभाविक भी बन जाते हैं। परंतु यदि छात्रों को घर एवं विद्यालय दो में से कहीं भी या एक जगह भी शुद्ध भाषा सुनने को न मिले तो वे शुद्ध भाषा बोलना सीख ही नहीं सकेंगे। इसलिए शिक्षकों को स्वयं तो शुद्ध भाषा बोलना सीखना ही चाहिए। इसका अन्य कोई विकल्प ही नहीं है। शुद्ध भाषा सुनते सुनते ही छात्र भी उसी तरह बोलना सीख ही जाएँगे।
 
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# छात्र आमतौर पर यदि शुद्ध भाषा के वातावरण में रहेगे तो उनपर विशेष ध्यान देकर एक अक्षर से शुरू करके उच्चारण शुद्ध एवं स्पष्ट करते रहना चाहिए। इसके लिए शिक्षक को एक एक अक्षर जोर जोर से बोलकर छात्रों से सामूहिक एवं व्यक्तिगत तौर पर बुलवाना चाहिए। बोलते समय उन्हें उच्चारण में जो जो कठिनाई पड़ती है उस पर ध्यान देकर उसे सुधारने का प्रयास करना चाहिए। यह सब प्रयास अन्य किसी तरह से नहीं, केवल सुनकर ही हो सकता है। संपूर्ण भाषण की मूल ईकाई अक्षर है। अक्षर से ही शब्द बनता है। शब्द से वाक्य एवं वाक्य से सम्पूर्ण भाषण। इसलिए सर्वप्रथम अक्षर के उच्चारण पर सबसे अधिक ध्या देना चाहिए। अक्षरों के उच्चारण का प्रतिदिन अभ्यास होना चाहिए।  
सिखाने के लिए शिक्षक को हमेशा शुद्ध उच्चारण के साथ ही बोलना चाहिए।
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# वर्गों के मुख्य दो प्रकार हैं; एक स्वर एवं दूसरा व्यंजन। प्रथम व्यंजन एवं उसके बाद स्वर का उच्चार सीखाना चाहिए।
 
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# कुछ व्यंजन कठिन होते हैं। उदाहरण के तौर पर ङ, ञ, ण, ज्ञ (इनमें 'ज्ञ' संयुक्ताक्षर है फिर भी इसे वर्णमाला में स्वतंत्र स्थान मिला है।) इन सभी व्यंजनों का उच्चारण 'अंग, इयं, अंण, ग्य' किया जाता है परंतु यह उच्चारण सही नहीं हैं। इसलिए इन अक्षरों के उच्चारण पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
___ छात्रों के घरों में भिन्न भिन्न बोलियों का प्रयोग होता है, जैसे अवधी, भोजपुरी, बिहारी, उत्तरांचली इत्यादि। इन बोलियों एवं शुद्ध भाषा में अंतर होता है। इसलिए घर की ऐसी बोली में पले छात्रों को शुद्ध भाषा बोलना कठिन लगता है। यदि शिक्षक घर में ऐसी ही बोली बोलते हों तो उन्हें भी शुद्ध बोलना कठिन लगता है। कभी कभी शुद्ध बोलने में वे अस्वाभाविक भी बन जाते हैं। परंतु यदि छात्रों को घर एवं विद्यालय दो में से कहीं भी या एक जगह भी शुद्ध भाषा सुनने को न मिले तो वे शुद्ध भाषा बोलना सीख ही नहीं सकेंगे। इसलिए शिक्षकों को स्वयं तो शुद्ध भाषा बोलना सीखना ही चाहिए। इसका अन्य कोई विकल्प ही नहीं है। शुद्ध भाषा सुनते सुनते ही छात्र भी उसी तरह बोलना सीख ही जाएँगे।
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# 'ज' एवं 'झ' में एवं 'स', 'श', 'ष' उच्चारण में भी अंतर है यह भी जल्दी ध्यान में नहीं आता है। कभी कभी तो 'ग' एवं 'घ' का अंतर भी ध्यान में नहीं आता है। इसलिए इन अक्षरों पर भी विशेष ध्यान देना चाहिए। इसी तरह 'फ' का उच्चारण अंग्रेजी के 'F' के समान किया जाता है। उसे भी सुधारना चाहिए। स्वरों के उच्चारण में ह्रस्व एवं दीर्घ का भेद नहीं करना ही मुख्य दोष है। यह दोष इतना व्यापक है कि अब तो कुछ लोग भाषा से इस भेद को ही दूर कर देने की हिमयात करने लगे हैं। परंतु हमारी लापरवाही की वजह से भाषा में बदल लाने के बजाए हमें ही शुद्ध बोलने की शुरुआत करनी चाहिए। विसर्ग का उच्चारण भी विशेष रूप से सिखाना चाहिए।
 
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# अक्षरों के उच्चारण के बाद शब्द बोलना सिखाना चाहिए। दो अक्षर के शब्द से शुरू करके क्रमशः तीन, चार, पाँच अक्षर के शब्द बोलना सिखाना चाहिए। शब्द बोलते समय एक से अधिक अक्षर एक के बाद एक के क्रम में बोलना होता है। इसमें उच्चारणतंत्र (जिह्वा एवं दांत) को बहुत व्यायाम मिलता है।
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# शब्दों के बाद वाक्य की बारी आती है। वाक्य बोलते समय ही आरोह अवरोह एवं विरामचिह्नों का उच्चारण भी करवाया जाता है। उदाहरण के तौर पर प्रश्नवाचक वाक्य हो तो वाक्य में आरोह एवं सामान्य वाक्य हो (वाक्य के अंत में पूर्णविराम आता हो) तो अवरोह आना चाहिए। विरामचिह्नों की पहचान या आरोह अवरोह क्या है यह समझाने की जरूरत नहीं है। केवल बोलना आए यही अपेक्षा है।
 
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# इन सबके बाद संयुक्ताक्षरों की बारी आती है। एक एक अक्षर के समान ही एक एक संयुक्ताक्षर बोलना सिखाना चाहिए। इसके लिए शिक्षकों को भिन्न भिन्न संयुक्ताक्षरों की सूची बनाकर वह संयुक्ताक्षर जिसमें आते हैं ऐसे शब्द बनाने चाहिए एवं ऐसे शब्दों से युक्त वाक्यों का सस्वर पाठ करवाकर अभ्यास करवाना चाहिए।
२. छात्र आमतौर पर यदि शुद्ध भाषा के वातावरण में रहेगे तो उनपर
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# यह सब करते समय आम बातचीत, बोलना, सुनना गाना आदि तो चलता ही रहेगा। धीरे धीरे आम बातचीत में भी शुद्धता के साथ अभ्यास होता रहे यह यहाँ अपेक्षित है। शुद्ध उच्चारण अलग से हो एवं आम बातचीत अलग तरह से हो, ऐसा नहीं होने देना चाहिए। परिचय, चित्रवर्णन, घटनानिरूपण, कथाकथन, वाक्यपठन, स्तोत्रपाठ इत्यादि बोलने (कथन) के अच्छ माध्यम हैं।
 
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# शुद्ध उच्चारण के लिए संस्कृत सुभाषित, मंत्र एवं सूत्रों का पाठन बहुत उपकारक सिद्ध होता है। किसी भी उच्चारण दोष को दूर करने की क्षमता संस्कृत के उच्चारण में है। इसलिए शुद्ध हिन्दी बोलना (कथन करना) सीखने के लिए इन सभी का अभ्यास करना चाहिए।
विशेष ध्यान देकर एक अक्षर से शुरू करके उच्चारण शुद्ध एवं स्पष्ट करते रहना चाहिए। इसके लिए शिक्षक को एक एक अक्षर जोर जोर से बोलकर छात्रों से सामूहिक एवं व्यक्तिगत तौर पर बुलवाना चाहिए। बोलते समय उन्हें उच्चारण में जो जो कठिनाई पड़ती है उस पर ध्यान देकर उसे सुधारने का प्रयास करना चाहिए। यह सब प्रयास अन्य किसी तरह से नहीं, केवल सुनकर ही हो सकता है। संपूर्ण भाषण की मूल ईकाई अक्षर है। अक्षर से ही शब्द बनता है। शब्द से वाक्य एवं वाक्य से सम्पूर्ण भाषण। इसलिए सर्वप्रथम अक्षर के उच्चारण पर सबसे अधिक ध्या देना चाहिए। अक्षरों
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के उच्चारण का प्रतिदिन अभ्यास होना चाहिए। 3. वर्गों के मुख्य दो प्रकार हैं; एक स्वर एवं दूसरा व्यंजन। प्रथम व्यंजन
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एवं उसके बाद स्वर का उच्चार सीखाना चाहिए। ४. कुछ व्यंजन कठिन होते हैं। उदाहरण के तौर पर ङ, ञ, ण, ज्ञ
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(इनमें 'ज्ञ' संयुक्ताक्षर है फिर भी इसे वर्णमाला में स्वतंत्र स्थान मिला है।) इन सभी व्यंजनों का उच्चारण 'अंग, इयं, अंण, ग्य' किया जाता है परंतु यह उच्चारण सही नहीं हैं। इसलिए इन अक्षरों के उच्चारण पर विशेष ध्यान देना चाहिए। 'ज' एवं 'झ' में एवं 'स', 'श', 'ष' उच्चारण में भी अंतर है यह भी जल्दी ध्यान में नहीं आता है। कभी कभी तो 'ग' एवं 'घ' का अंतर भी ध्यान में नहीं आता है। इसलिए इन अक्षरों पर भी विशेष ध्यान देना चाहिए। इसी तरह 'फ' का उच्चारण अंग्रेजी के 'F' के समान किया जाता है। उसे भी सुधारना चाहिए। स्वरों के उच्चारण में ह्रस्व एवं दीर्घ का भेद नहीं करना ही मुख्य दोष है। यह दोष इतना व्यापक है कि अब तो कुछ लोग भाषा से इस भेद को ही दूर कर देने की हिमयात करने लगे हैं। परंतु हमारी लापरवाही की वजह से भाषा में बदल लाने के बजाए हमें ही शुद्ध बोलने की शुरुआत करनी चाहिए। विसर्ग का उच्चारण भी विशेष रूप से सिखाना चाहिए।
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६. अक्षरों के उच्चारण के बाद शब्द बोलना सिखाना चाहिए। दो अक्षर के
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शब्द से शुरू करके क्रमशः तीन, चार, पाँच अक्षर के शब्द बोलना सिखाना चाहिए। शब्द बोलते समय एक से अधिक अक्षर एक के बाद एक के क्रम में बोलना होता है। इसमें उच्चारणतंत्र (जिह्वा एवं दांत)
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को बहुत व्यायाम मिलता है। ७. शब्दों के बाद वाक्य की बारी आती है। वाक्य बोलते समय ही
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आरोह अवरोह एवं विरामचिह्नों का उच्चारण भी करवाया जाता है। उदाहरण के तौर पर प्रश्नवाचक वाक्य हो तो वाक्य में आरोह एवं सामान्य वाक्य हो (वाक्य के अंत में पूर्णविराम आता हो) तो अवरोह आना चाहिए। विरामचिह्नों की पहचान या आरोह अवरोह क्या है यह समझाने की
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जरूरत नहीं है। केवल बोलना आए यही अपेक्षा है। ८. इन सबके बाद संयुक्ताक्षरों की बारी आती है। एक एक अक्षर के
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समान ही एक एक संयुक्ताक्षर बोलना सिखाना चाहिए। इसके लिए शिक्षकों को भिन्न भिन्न संयुक्ताक्षरों की सूची बनाकर वह संयुक्ताक्षर जिसमें आते हैं ऐसे शब्द बनाने चाहिए एवं ऐसे शब्दों से युक्त वाक्यों
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का सस्वर पाठ करवाकर अभ्यास करवाना चाहिए। ९. यह सब करते समय आम बातचीत, बोलना, सुनना गाना वहैरह तो
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चलता ही रहेगा। धीरे धीरे आम बातचीत में भी शुद्धता के साथ अभ्यास होता रहे यह यहाँ अपेक्षित है। शुद्ध उच्चारण अलग से हो एवं आम बातचीत अलग तरह से हो, ऐसा नहीं होने देना चाहिए। परिचय, चित्रवर्णन, घटनानिरूपण, कथाकथन, वाक्यपठन, स्तोत्रपाठ
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इत्यादि बोलने (कथन) के अच्छ माध्यम हैं। १०. शुद्ध उच्चारण के लिए संस्कृत सुभाषित, मंत्र एवं सूत्रों का पाठन बहुत
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उपकारक सिद्ध होता है। किसी भी उच्चारण दोष को दूर करने की क्षमता संस्कृत के उच्चारण में है। इसलिए शुद्ध हिन्दी बोलना (कथन
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करना) सीखने के लिए इन सभीका अभ्यास करना चाहिए।  
      
=== वाचन ===
 
=== वाचन ===
१. वाचन का प्रारंभ वर्गों से न करके शब्दों एवं वाक्यों से करना चाहिए।
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# वाचन का प्रारंभ वर्गों से न करके शब्दों एवं वाक्यों से करना चाहिए। क्योंकि शब्दों का एक निश्चित अर्थ होता है, अक्षरों का नहीं। सर्वप्रथम प्रत्यक्ष नमूना या चित्र उपलब्ध हों ऐसे शब्दों को वाचन के लिए चुनना चाहिए। चित्र या मूर्त वस्तु विहीन शब्दों का अर्थ कभी भी स्पष्टरूप से समझ में नहीं आ पाता है। तथा चित्र एवं शब्द एक साथ होने से वस्तु की आकृति एवं शब्द की आकृति का समायोजन सरल बनता है। इसलिए चित्र के साथ शब्द को पढ़ने का अभ्यास खूब होना चाहिए। चित्र सहित शब्दों में सभी अक्षरों का समावेश हो ऐसे शब्दचित्र चुनना चाहिए।
 
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# शब्द एवं चित्र से वाचन करने के बाद कुछ समय तक उन्हीं शब्दों का वाचन बिना चित्र के भी करवाएँ क्योंकि यहाँ वस्तु की आकृति के समान ही होने की संभावना हो सकती है। हो सकता है कि उसे स्वतंत्र रूप से अक्षर वाचन न भी आए। यहाँ भिन्न भिन्न पद्धति से, भिन्न भिन्न मात्राएँ (स्वर) एवं अक्षर पढकर एवं बोलकर पहचानने की भूमिका तैयार होती है।
क्योंकि शब्दों का एक निश्चित अर्थ होता है, अक्षरों का नहीं।
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# अब एक एक अक्षर का वाचन स्वतंत्र रूप से करवाएँ। इससे पूर्व एक एक अक्षर का सस्वर पठन एवं सभी अक्षरों से युक्त अर्थपूर्ण वाचन का प्रचुर मात्रा में अभ्यास हो चुका है। इससे एक एक अक्षर एवं संयुक्ताक्षर की पहचान करके पढ़ना आसान बनाया जा सकता है।
 
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# एक एक अक्षर पढ़ना आ जाने के बाद अक्षरों का उपयोग करेक शब्द बनाने का अभ्यास करवाना चाहिए। इसके लिए भाषा के अनेक प्रकार के खेल बनाए गये हैं।
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# इसके पश्चात् धाराप्रवाह वाचन की शुरूआत होती है। संपूर्ण वाचन के लिए प्रथम अनुवाचन का प्रयोग करना चाहिए। अनुवाचन अर्थात् प्रतम शिक्षक सस्वर वाचन करें इसके बाद छात्र शिक्षक को सुनकर एवं पुस्तक में देखकर सस्वर पढ़े। ऐसा करने से बोलना एवं देखकर पढ़ना-दोनों क्रियाएँ एकसाथ होंगी एवं भाषा के ध्वनिस्वरूप एवं वर्णस्वरूप के बीच सामंजस्य स्थापित होगा।
 
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# अब छात्रों से स्वतंत्र वाचन करवाएँ। स्वतंत्र वाचन अर्थात् पुस्तक का स्वयं किया गया वाचन। इस प्रकार वाचन के अभ्यास के दौरान ही पुस्तक के अतिरिक्त फलक, अखबार, पत्रिकाएँ इत्यादि सबकुछ पढ़ने का अभ्यास होते रहना चाहिए। प्रारंभ में सस्वर (जोर से) पढ़ने के बाद मंद स्वर में वाचन एवं अंत में मन में ही वाचन हो यही वाचन का क्रम है। यह वाचन सिखाना अर्थात् धाराप्रवाह वाचन ही सिखाना अपेक्षित है।
सर्वप्रथम प्रत्यक्ष नमूना या चित्र उपलब्ध हों ऐसे शब्दों को वाचन के लिए चुनना चाहिए। चित्र या मूर्त वस्तु विहीन शब्दों का अर्थ कभी भी स्पष्टरूप से समझ में नहीं आ पाता है। तथा चित्र एवं शब्द एक साथ होने से वस्तु की आकृति एवं शब्द की आकृति का समायोजन सरल बनता है। इसलिए चित्र के साथ शब्द को पढ़ने का अभ्यास खूब होना चाहिए। चित्र सहित शब्दों में सभी अक्षरों का समावेश हो ऐसे शब्दचित्र चुनना
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चाहिए। २. शब्द एवं चित्र से वाचन करने के बाद कुछ समय तक उन्हीं शब्दों का
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वाचन बिना चित्र के भी करवाएँ क्योंकि यहाँ वस्तु की आकृति के समान ही होने की संभावना हो सकती है। हो सकता है कि उसे स्वतंत्र रूप से अक्षर वाचन न भी आए। यहाँ भिन्न भिन्न पद्धति से, भिन्न भिन्न मात्राएँ (स्वर) एवं अक्षर पढकर एवं बोलकर पहचानने की
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भूमिका तैयार होती है। ३. अब एक एक अक्षर का वाचन स्वतंत्र रूप से करवाएँ। इससे पूर्व एक
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एक अक्षर का सस्वर पठन एवं सभी अक्षरों से युक्त अर्थपूर्ण वाचन का प्रचुर मात्रा में अभ्यास हो चुका है। इससे एक एक अक्षर एवं
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संयुक्ताक्षर की पहचान करके पढ़ना आसान बनाया जा सकता है। ४. एक एक अक्षर पढ़ना आ जाने के बाद अक्षरों का उपयोग करेक शब्द
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बनाने का अभ्यास करवाना चाहिए। इसके लिए भाषा के अनेक प्रकार
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के खेल बनाए गये हैं। ५. इसके पश्चात् धाराप्रवाह वाचन की शुरूआत होती है। संपूर्ण वाचन के
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लिए प्रथम अनुवाचन का प्रयोग करना चाहिए। अनुवाचन अर्थात् प्रतम शिक्षक सस्वर वाचन करें इसके बाद छात्र शिक्षक को सुनकर एवं पुस्तक में देखकर सस्वर पढ़े। ऐसा करने से बोलना एवं देखकर पढ़ना-दोनों क्रियाएँ एकसाथ होंगी एवं भाषा के ध्वनिस्वरूप एवं
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वर्णस्वरूप के बीच सामंजस्य स्थापित होगा। ६. अब छात्रों से स्वतंत्र वाचन करवाएँ। स्वतंत्र वाचन अर्थात् पुस्तक का
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स्वयं किया गया वाचन। इस प्रकार वाचन के अभ्यास के दौरान ही
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पुस्तक के अतिरिक्त फलक, अखबार, पत्रिकाएँ इत्यादि सबकुछ पढ़ने
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का अभ्यास होते रहना चाहिए। प्रारंभ में सस्वर (जोर से) पढ़ने के बाद मंद स्वर में वाचन एवं अंत में मन में ही वाचन हो यही वाचन का क्रम है। यह वाचन सिखाना अर्थात् धाराप्रवाह वाचन ही सिखाना अपेक्षित है।  
      
=== लेखन ===
 
=== लेखन ===
१. वैसे तो लिखना सीखना चित्र के समान ही उद्योग का एक भाग माना जाना
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# वैसे तो लिखना सीखना चित्र के समान ही उद्योग का एक भाग माना जाना चाहिए। किसी भी अक्षर के लिए आवश्यक मोड़ उद्योग के पहले मुद्दे के समान है। या सीधी एवं लिरछी लकीरें खींचना ही है। ऐसी लकीरों एवं उचित मोड़ के सही अभ्यास के बाद आसान मोड़ एवं आकृतियों वाले अक्षर पहले सीखना चाहिए। उदाहरण के तौर पर दो अर्धगोल का उपयोग करके बननेवाले 'घ', 'ध', 'छ' आसान हैं। एक गोल एवं अर्धगोल तथा खड़ी लकीर वाला 'क' भी आसान है। इसी तरह समान आकृतियों वाले अक्षरों के समूह बनाकर एक एक अक्षर उचित मोड़ में लिखना सिखाना चाहिए। लिखने के लिए पहले स्लेट एवं बाद में कापी का उपयोग करना, अक्षरों के मरोड़ पर हाथ जम जाए इसलिए घोटने की पद्धति का भी उपयोग कर सकते हैं। लेखन का क्रम एवं अक्षरों के मोड़ का क्रम लेखन पुस्तिका में दिया गया है। छात्र लेखन सीखतें हों तब वे सही क्रम एवं सही मोड़ बनाए रखे यह देखते रहना चाहिए। आजकल यह बात खूब उपेक्षित बनती जा रही है। मात्राओं की स्थिति भी वैसी ही होती है। इसलिए लेखन पुस्तिका में बताए गए क्रम के अनुसार ही लिखना सिखाना चाहिए।
 
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# स्वतंत्र अक्षरों के बाद शब्द लिखे जाते हैं। शब्द अर्थात् एक से अधिक अक्षरों का एकसाथ लेखन। ऐसा करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए:
चाहिए। किसी भी अक्षर के लिए आवश्यक मोड़ उद्योग के पहले मुद्दे के समान है। या सीधी एवं लिरछी लकीरें खींचना ही है। ऐसी लकीरों एवं उचित मोड़ के सही अभ्यास के बाद आसान मोड़ एवं आकृतियों वाले अक्षर पहले सीखना चाहिए। उदाहरण के तौर पर दो अर्धगोल का उपयोग करके बननेवाले 'घ', 'ध', 'छ' आसान हैं। एक गोल एवं अर्धगोल तथा खड़ी लकीर वाला 'क' भी आसान है। इसी तरह समान आकृतियों वाले अक्षरों के समूह बनाकर एक एक अक्षर उचित मोड़ में लिखना सिखाना चाहिए। लिखने के लिए पहले स्लेट एवं बाद में कापी का उपयोग करना, अक्षरों के मरोड़ पर हाथ जम जाए इसलिए घोटने की पद्धति का भी उपयोग कर सकते हैं। लेखन का क्रम एवं अक्षरों के मोड़ का क्रम लेखन पुस्तिका में दिया गया
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## सभी अक्षर एक समान नाप के होने चाहिए।
 
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## सभी मात्राएँ शिरोरेखा से समकोण पर हों एवं समान्तर हों।
है।
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## अनुस्वार, ह्रस्व एवं दीर्घ 'ई' तथा 'ऊ' की मात्राएँ, ए, ऐ, ओ, औ की मात्राओं के बीच तालमेल बना रहे।
 
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# इस तरह शब्द लिखने के खूब अभ्यास के बाद वाक्य लिखने की बारी आती है। वाक्यों के लेखन में तीन बातें महत्त्वपूर्ण हैं:
छात्र लेखन सीखतें हों तब वे सही क्रम एवं सही मोड़ बनाए रखे यह देखते रहना चाहिए। आजकल यह बात खूब उपेक्षित बनती जा रही है। उदाहरण के तौर पर 'त' लिखना हो तो तीन भागों में लिख सकते हैं -
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## दो शब्दों के बीच समान दूरी हो।
 
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## संपूर्ण वाक्य सीधी रेखा में लिखा जाए एवं पहले से लेकर अंतिम तक सभी अक्षर समान नाप के हों।
१. ( (उपर से नीचे - इस तरह) २. (त् (बाएँ से दाँए - इस तरह) ३. ता (उपर से नीचे - इस तरह)
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## विरामचिह्न का योग्य उपयोग एवं लेखन हो। यह सब कुछ करने से लिखावट सुंदर एवं शुद्ध बनती है। परंतु यह सब बहुत अभ्यास एवं सावधानी के बाद होता है। इसलिए शिक्षक या मातापिता को उतावली नहीं करना चाहिए। सारा जीवन सुंदर एवं शुद्ध लिखावट से लिखना हो तो उसकी प्रारंभिक तैयारी पक्की करना ही चाहिए। महात्मा गाँधी ने सच ही कहा है, 'खराब अक्षर अधूरी शिक्षा की निशानी हैं।'
 
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# शब्दरचना एवं शब्दसंयोजन: जिस प्रकार उच्चारण का शुद्ध होना, वाचन का धाराप्रवाह होना, लेखन का सुंदर होना आवश्यक है उसी प्रकार शब्दों का अर्थ जानना एवं शब्दों की रचना करना भी एक बहुत बड़ा भाषाकीय कौशल है। उदाहरण:
परंतु कुछ लोग 'त' इस प्रकार दो भागों में परंतु उल्टे क्रम में लिखते हैं। (पहले मात्रा और फिर उल्टे क्रम में) एवं कुछ लोग एक ही भाग में लिखकर उसमें आ की मात्रा लगाते हैं।
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## एकदूसरे के पूरक हों ऐसे शब्द ढूँढकर जोड़ी बनाना। जैसे : गेंद बल्ला, ताला-कुंजी, सुई-धागा, दही-बड़ा... इत्यादि।
 
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## एकदूसरे से विलोम एवं पूरक शब्द ढूँढकर जोड़ी बनाना। जैसे : दिन-रात, पूर्व-पश्चिम, आज-कल, काला-गोरा... इत्यादि।
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## द्विरुक्तिवाले शब्द पढ़ना एवं बनाना। जैसे एक-एक, दो-दो कहा कही, चल-चल... इत्यादि।
 
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## द्विरुक्ति का दूसरा प्रकार, जैसे रातोंरात, दिनोंदिन... वगैरह।
ऐसा विपरीत क्रम अनेक अक्षरों में पाया जाता है। मात्राओं की स्थिति भी वैसी ही होती है। इसलिए लेखन पुस्तिका में बताए गए क्रम के अनुसार ही लिखना सिखाना चाहिए। २. स्वतंत्र अक्षरों के बाद शब्द लिखे जाते हैं। शब्द अर्थात् एक से अधिक
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## विशिष्ट प्रकार के विशेषणों की रचना।
 
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## एक विशिष्ट प्रकार की द्विरुक्ति जैसे पानी-वानी, ताली-वाली, पेन-वेन...इत्यादि।
अक्षरों का एकसाथ लेखन। ऐसा करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए। १. सभी अक्षर एक समान नाप के होने चाहिए। २. सभी मात्राएँ शिरोरेखा से समकोण पर हों एवं समान्तर हों। ३. अनुस्वार, ह्रस्व एवं दीर्घ 'ई' तथा 'ऊ' की मात्राएँ, ए, ऐ, ओ, औ
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## शब्द संयोजन जैसे कि बातचीत, गपगोले, तितर-बितर आदि।
 
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की मात्राओं के बीच तालमेल बना रहे।
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३. इस तरह शब्द लिखने के खूब अभ्यास के बाद वाक्य लिखने की बारी
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आती है। वाक्यों के लेखन में तीन बातें महत्त्वपूर्ण हैं। १. दो शब्दों के बीच समान दूरी हो। २. संपूर्ण वाक्य सीधी रेखा में लिखा जाए एवं पहले से लेकर अंतिम तक
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सभी अक्षर समान नाप के हों। ३. विरामचिह्न का योग्य उपयोग एवं लेखन हो।
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यह सबकुछ करने से लिखावट सुंदर एवं शुद्ध बनती है। परंतु यह सब बहुत अभ्यास एवं सावधानी के बाद होता है। इसलिए शिक्षक या मातापिता को उतावली नहीं करना चाहिए। सारा जीवन सुंदर एवं शुद्ध लिखावट से लिखना हो तो उसकी प्रारंभिक तैयारी पक्की करना ही चाहिए। महात्मा गाँधी ने सच ही कहा है, 'खराब अक्षर अधूरी शिक्षा की निशानी हैं।'
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४. शब्दरचना एवं शब्दसंयोजन १. जिस प्रकार उच्चारण का शुद्ध होना, वाचन का धाराप्रवाह
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होना, लेखन का सुंदर होना आवश्यक है उसी प्रकार शब्दों का अर्थ जानना एवं शब्दों की रचना करना भी एक बहुत बड़ा भाषाकीय कौशल है।
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उदाहरण १. एकदूसरे के पूरक हों ऐसे शब्द ढूँढकर जोड़ी बनाना। जैसे : गेंद
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बल्ला, ताला-कुंजी, सुई-धागा, दही-बड़ा... इत्यादि। २. एकदूसरे से विलोम एवं पूरक शब्द ढूँढकर जोड़ी बनाना। जैसे :
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दिन-रात, पूर्व-पश्चिम, आज-कल, काला-गोरा... इत्यादि। ३. द्विरुक्तिवाले शब्द पढ़ना एवं बनाना। जैसे एक-एक, दो-दो कहा
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कही, चल-चल... इत्यादि। ४. द्विरुक्ति का दूसरा प्रकार, जैसे रातोंरात, दिनोंदिन... वगैरह। ५. विशिष्ट प्रकार के विशेषणों की रचना। ६. एक विशिष्ट प्रकार की द्विरुक्ति जैसे पानी-वानी, ताली-वाली, पेन-वेन...
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इत्यादि। ७. शब्द संयोजन जैसे कि बातचीत, गपगोले, तितर-बितर आदि।
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(इन यौगिकों से संबंधित खेल भाषा खेल की सूची में दिए गए हैं।)
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इस प्रकार भाषा एक आधारभूत विषय है। इसे अच्छी तरह से सीखने के लिए विविध क्रियाकलाप एवं कार्यक्रम करने चाहिए। गीतपुस्तिका, कहानीसंग्रह, नाट्यपुस्तिका, कहावत पुस्तिका, निबंधपुस्तिका, शब्दकोश, शब्दचित्रकोश, भाषाकीय खेल आदि अनेकों प्रकार की सामग्री का उपयोग करना चाहिए। भाषा की सामग्री में अन्य विषयों की जानकारी का भी समावेश हो जाता है। शिक्षकों एवं मातापिता के लिए यह आवश्यक है कि वे छात्रों में वाचन के प्रति रुचि उत्पन्न करने का प्रयास करें। इसके लिए घर में एवं विद्यालय में पुस्तकालय अवश्य होना ही चाहिए। छात्रों को हमेशा नियमित पुस्तकालय में ले जाना चाहिए एवं उन्हें पुस्तकों के बीच स्वतंत्र छोड़ देना चाहिए।
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उदाहरण १. एकदूसरे के पूरक हों ऐसे शब्द ढूँढकर जोड़ी बनाना। जैसे : गेंद
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बल्ला, ताला-कुंजी, सुई-धागा, दही-बड़ा... इत्यादि। २. एकदूसरे से विलोम एवं पूरक शब्द ढूँढकर जोड़ी बनाना। जैसे :
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दिन-रात, पूर्व-पश्चिम, आज-कल, काला-गोरा... इत्यादि। ३. द्विरुक्तिवाले शब्द पढ़ना एवं बनाना। जैसे एक-एक, दो-दो कहा
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कही, चल-चल... इत्यादि। ४. द्विरुक्ति का दूसरा प्रकार, जैसे रातोंरात, दिनोंदिन... वगैरह। ५. विशिष्ट प्रकार के विशेषणों की रचना। ६. एक विशिष्ट प्रकार की द्विरुक्ति जैसे पानी-वानी, ताली-वाली, पेन-वेन...
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इत्यादि। ७. शब्द संयोजन जैसे कि बातचीत, गपगोले, तितर-बितर आदि।
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(इन यौगिकों से संबंधित खेल भाषा खेल की सूची में दिए गए हैं।)
 
(इन यौगिकों से संबंधित खेल भाषा खेल की सूची में दिए गए हैं।)
  

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