Difference between revisions of "Vanaparva Adhyaya 4 (वनपर्वणि अध्यायः ४)"
(Added tags till 10th shloka) |
(Added tags for this chapter.) |
||
Line 16: | Line 16: | ||
विदुर उवाच | विदुर उवाच | ||
− | + | त्रिवर्गोऽयं धर्ममूलो नरेन्द्र राज्यं चेदं धर्ममूलं वदन्ति। | |
− | + | धर्मे राजन्वर्तमानः स्वशक्त्या पुत्रान्सर्वान्पाहि पाण्डोः सुतांश्च॥ 3-4-4 | |
− | स वै धर्मो विप्रलब्धः सभायां पापात्मभिः सौबलेयप्रधानैः। | + | |
− | + | स वै धर्मो विप्रलब्धः सभायां पापात्मभिः सौबलेयप्रधानैः। | |
− | एतस्य ते दुष्प्रणीतस्य राजञ्छेषस्याहं परिपश्याम्युपायम्। | + | आहूय कुन्तीसुतमक्षवत्यां पराजैषीत्सत्यसन्धं सुतस्ते॥ 3-4-5 |
− | + | ||
− | तद्वै सर्वं पाण्डुपुत्रा लभन्तां यत्तद्राजन्नभिसृष्टं त्वयाऽऽसीत्। | + | एतस्य ते दुष्प्रणीतस्य राजञ्छेषस्याहं परिपश्याम्युपायम्। |
− | + | यथा पुत्रस्तव कौरव्य पापान्मुक्तो लोके प्रतितिष्ठेत साधु॥ 3-4-6 | |
− | यशो न नश्येज्ज्ञातिभेदश्च न स्याद्धर्मो न स्यान्नैव चैवं कृते त्वाम्। | + | |
− | + | तद्वै सर्वं पाण्डुपुत्रा लभन्तां यत्तद्राजन्नभिसृष्टं त्वयाऽऽसीत्। | |
− | एवं शेषं यदि पुत्रेषु ते स्यादेतद्राजंस्त्वरमाणः कुरुष्व। | + | एष धर्मः परमो यत्स्वकेन राजा तुष्येन्न परस्वेषु गृध्येत्॥ 3-4-7 |
− | + | ||
+ | यशो न नश्येज्ज्ञातिभेदश्च न स्याद्धर्मो न स्यान्नैव चैवं कृते त्वाम्। | ||
+ | एतत्कार्यं तव सर्वप्रधानं तेषां तुष्टिः शकुनेश्चावमानः॥ 3-4-8 | ||
+ | |||
+ | एवं शेषं यदि पुत्रेषु ते स्यादेतद्राजंस्त्वरमाणः कुरुष्व। | ||
+ | तथैतदेवं न करोषि राजन्ध्रुवं कुरूणां भविता विनाशः॥ 3-4-9 | ||
+ | |||
न हि क्रुद्धो भीमसेनोऽर्जुनो वा शेषं कुर्याच्छात्रवाणामनीके। | न हि क्रुद्धो भीमसेनोऽर्जुनो वा शेषं कुर्याच्छात्रवाणामनीके। | ||
येषां योद्धा सव्यसाची कृतास्त्रो धनुर्येषां गाण्डिवं लोकसारम्॥ 3-4-10 | येषां योद्धा सव्यसाची कृतास्त्रो धनुर्येषां गाण्डिवं लोकसारम्॥ 3-4-10 | ||
− | |||
− | |||
येषां भीमो बाहुशाली च योद्धा तेषां लोके किं नु न प्राप्यमस्ति। | येषां भीमो बाहुशाली च योद्धा तेषां लोके किं नु न प्राप्यमस्ति। | ||
उक्तं पूर्वं जातमात्रे सुते ते मया यत्ते हितमासीत्तदानीम्॥ 3-4-11 | उक्तं पूर्वं जातमात्रे सुते ते मया यत्ते हितमासीत्तदानीम्॥ 3-4-11 | ||
− | + | पुत्रं त्यजेममहितं कुलस्य हितं परं न च तत्त्वं चकर्थ। | |
− | पुत्रं त्यजेममहितं कुलस्य हितं परं न च तत्त्वं चकर्थ। | + | इदं च राजन्हितमुक्तं न चेत्त्वमेवं कर्ता परितप्तासि पश्चात्॥ 3-4-12 |
− | + | यद्येतदेवमनुमन्ता सुतस्ते सम्प्रीयमाणः पाण्डवैरेकराज्यम्। | |
− | इदं च राजन्हितमुक्तं न चेत्त्वमेवं कर्ता परितप्तासि पश्चात्॥ 3-4-12 | + | तापो न ते भविता प्रीतियोगान्न चेन्निगृह्णीष्व सुतं सुखाय॥ 3-4-13 |
− | + | दुर्योधनं त्वहितं वै निगृह्य पाण्डोः पुत्रं प्रकुरुष्वाधिपत्ये। | |
− | यद्येतदेवमनुमन्ता सुतस्ते सम्प्रीयमाणः पाण्डवैरेकराज्यम्। | + | अजातशत्रुर्हि विमुक्तरागो धर्मेणेमां पृथिवीं शास्तु राजन्॥ 3-4-14 |
− | + | ततो राजन्पार्थिवाः सर्व एव वैश्या इवास्मानुपतिष्ठन्तु सद्यः। | |
− | तापो न ते भविता प्रीतियोगान्न चेन्निगृह्णीष्व सुतं सुखाय॥ 3-4-13 | + | दुर्योधनः शकुनिः सूतपुत्रः प्रीत्या राजन्पाण्डुपुत्रान्भजन्तु॥ 3-4-15 |
− | + | दुःशासनो याचतु भीमसेनं सभामध्ये द्रुपदस्यात्मजां च। | |
− | दुर्योधनं त्वहितं वै निगृह्य पाण्डोः पुत्रं प्रकुरुष्वाधिपत्ये। | + | युधिष्ठिरं त्वं परिसान्त्वयस्व राज्ये चैनं स्थापयस्वाभिपूज्य॥ 3-4-16 |
− | + | त्वया पृष्टः किमहमन्यद्वदेयमेतत्कृत्वा कृतकृत्योऽसि राजन्॥ 3-4-16 | |
− | अजातशत्रुर्हि विमुक्तरागो धर्मेणेमां पृथिवीं शास्तु राजन्॥ 3-4-14 | + | [[:Category:Duryodhan|''Duryodhan'']] |
− | |||
− | ततो राजन्पार्थिवाः सर्व एव वैश्या इवास्मानुपतिष्ठन्तु सद्यः। | ||
− | |||
− | दुर्योधनः शकुनिः सूतपुत्रः प्रीत्या राजन्पाण्डुपुत्रान्भजन्तु॥ 3-4-15 | ||
− | |||
− | दुःशासनो याचतु भीमसेनं सभामध्ये द्रुपदस्यात्मजां च। | ||
− | |||
− | युधिष्ठिरं त्वं परिसान्त्वयस्व राज्ये चैनं स्थापयस्वाभिपूज्य॥ 3-4-16 | ||
− | |||
− | त्वया पृष्टः किमहमन्यद्वदेयमेतत्कृत्वा कृतकृत्योऽसि राजन्॥ 3-4-16 | ||
धृतराष्ट्र उवाच | धृतराष्ट्र उवाच | ||
− | एतद्वाक्यं विदुर यत्ते सभायामिह प्रोक्तं पाण्डवान्प्राप्य मां च। | + | एतद्वाक्यं विदुर यत्ते सभायामिह प्रोक्तं पाण्डवान्प्राप्य मां च। |
+ | हितं तेषामहितं मामकानामेतत्सर्वं मम नावैति चेतः॥ 3-4-17 | ||
+ | इदं त्विदानीं गत एव निश्चितं तेषामर्थे पाण्डवानां यदात्थ। | ||
+ | तेनाद्य मन्ये नासि हितो ममेति कथं हि पुत्रं पाण्डवार्थे त्यजेयम्॥ 3-4-18 | ||
+ | असंशयं तेऽपि ममैव पुत्रा दुर्योधनस्तु मम देहात्प्रसूतः। | ||
+ | स्वं वै देहं परहेतोस्त्यजेति को तु ब्रूयात्समतामन्ववेक्ष्य॥ 3-4-19 | ||
+ | स मां जिह्मं विदुर सर्वं ब्रवीषि मानं च तेऽहमधिकं धारयामि। | ||
+ | यथेच्छकं गच्छ वा तिष्ठ वा त्वं सुसान्त्व्यमानाप्यसती स्त्री जहाति॥ 3-4-20 | ||
+ | [[:Category:Dhristrashtra's attachment to Duryodhan|''Dhristrashtra's attachment to Duryodhan'']] [[:Category:आसक्ती|''आसक्ती'']] | ||
− | |||
− | + | वैशम्पायन उवाच | |
− | + | एतावदुक्त्वा धृतराष्ट्रोऽन्वपद्यदन्तर्वेश्म सहसोत्थाय राजन्। | |
− | + | नेदमस्तीत्यथ विदुरो भाषमाणः सम्प्राद्रवद्यत्र पार्था बभूवुः॥ 3-4-21 | |
− | + | [[:Category:Dhristrashtra|''Dhristrashtra]] [[:Category:Vidur|''Vidur'']] | |
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | |||
− | इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरवाक्यप्रत्याख्याने चतुर्थोऽध्यायः॥ 4 ॥ | + | इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरवाक्यप्रत्याख्याने चतुर्थोऽध्यायः॥ 4 ॥ |
Revision as of 08:36, 17 July 2019
वैशम्पायन उवाच
वनं प्रविष्टेष्वथ पाण्डवेषु प्रज्ञाचक्षुस्तप्यमानोऽम्बिकेयः। धर्मात्मानं विदुरमगाधबुद्धिं सुखासीनो वाक्यमुवाच राजा॥ 3-4-1
धृतराष्ट्र उवाच
प्रज्ञा च ते भार्गवस्येव शुद्धा धर्म च त्वं परमं वेत्थ सूक्ष्मम्। समश्च त्वं सम्मतः कौरवाणां पथ्यं चैषां मम चैव ब्रवीहि॥ 3-4-2 Vidur
एवं गते विदुर यदद्य कार्यं पौराश्च मे कथमस्मान्भजेरन्। ते चाप्यस्मान्नोद्धरेयुः समूलांस्तत्त्वं ब्रूयाः साधुकार्याणि वेत्सि॥ 3-4-3 Dharma
विदुर उवाच
त्रिवर्गोऽयं धर्ममूलो नरेन्द्र राज्यं चेदं धर्ममूलं वदन्ति। धर्मे राजन्वर्तमानः स्वशक्त्या पुत्रान्सर्वान्पाहि पाण्डोः सुतांश्च॥ 3-4-4
स वै धर्मो विप्रलब्धः सभायां पापात्मभिः सौबलेयप्रधानैः। आहूय कुन्तीसुतमक्षवत्यां पराजैषीत्सत्यसन्धं सुतस्ते॥ 3-4-5
एतस्य ते दुष्प्रणीतस्य राजञ्छेषस्याहं परिपश्याम्युपायम्। यथा पुत्रस्तव कौरव्य पापान्मुक्तो लोके प्रतितिष्ठेत साधु॥ 3-4-6
तद्वै सर्वं पाण्डुपुत्रा लभन्तां यत्तद्राजन्नभिसृष्टं त्वयाऽऽसीत्। एष धर्मः परमो यत्स्वकेन राजा तुष्येन्न परस्वेषु गृध्येत्॥ 3-4-7
यशो न नश्येज्ज्ञातिभेदश्च न स्याद्धर्मो न स्यान्नैव चैवं कृते त्वाम्। एतत्कार्यं तव सर्वप्रधानं तेषां तुष्टिः शकुनेश्चावमानः॥ 3-4-8
एवं शेषं यदि पुत्रेषु ते स्यादेतद्राजंस्त्वरमाणः कुरुष्व। तथैतदेवं न करोषि राजन्ध्रुवं कुरूणां भविता विनाशः॥ 3-4-9
न हि क्रुद्धो भीमसेनोऽर्जुनो वा शेषं कुर्याच्छात्रवाणामनीके। येषां योद्धा सव्यसाची कृतास्त्रो धनुर्येषां गाण्डिवं लोकसारम्॥ 3-4-10 येषां भीमो बाहुशाली च योद्धा तेषां लोके किं नु न प्राप्यमस्ति। उक्तं पूर्वं जातमात्रे सुते ते मया यत्ते हितमासीत्तदानीम्॥ 3-4-11 पुत्रं त्यजेममहितं कुलस्य हितं परं न च तत्त्वं चकर्थ। इदं च राजन्हितमुक्तं न चेत्त्वमेवं कर्ता परितप्तासि पश्चात्॥ 3-4-12 यद्येतदेवमनुमन्ता सुतस्ते सम्प्रीयमाणः पाण्डवैरेकराज्यम्। तापो न ते भविता प्रीतियोगान्न चेन्निगृह्णीष्व सुतं सुखाय॥ 3-4-13 दुर्योधनं त्वहितं वै निगृह्य पाण्डोः पुत्रं प्रकुरुष्वाधिपत्ये। अजातशत्रुर्हि विमुक्तरागो धर्मेणेमां पृथिवीं शास्तु राजन्॥ 3-4-14 ततो राजन्पार्थिवाः सर्व एव वैश्या इवास्मानुपतिष्ठन्तु सद्यः। दुर्योधनः शकुनिः सूतपुत्रः प्रीत्या राजन्पाण्डुपुत्रान्भजन्तु॥ 3-4-15 दुःशासनो याचतु भीमसेनं सभामध्ये द्रुपदस्यात्मजां च। युधिष्ठिरं त्वं परिसान्त्वयस्व राज्ये चैनं स्थापयस्वाभिपूज्य॥ 3-4-16 त्वया पृष्टः किमहमन्यद्वदेयमेतत्कृत्वा कृतकृत्योऽसि राजन्॥ 3-4-16 Duryodhan
धृतराष्ट्र उवाच
एतद्वाक्यं विदुर यत्ते सभायामिह प्रोक्तं पाण्डवान्प्राप्य मां च। हितं तेषामहितं मामकानामेतत्सर्वं मम नावैति चेतः॥ 3-4-17 इदं त्विदानीं गत एव निश्चितं तेषामर्थे पाण्डवानां यदात्थ। तेनाद्य मन्ये नासि हितो ममेति कथं हि पुत्रं पाण्डवार्थे त्यजेयम्॥ 3-4-18 असंशयं तेऽपि ममैव पुत्रा दुर्योधनस्तु मम देहात्प्रसूतः। स्वं वै देहं परहेतोस्त्यजेति को तु ब्रूयात्समतामन्ववेक्ष्य॥ 3-4-19 स मां जिह्मं विदुर सर्वं ब्रवीषि मानं च तेऽहमधिकं धारयामि। यथेच्छकं गच्छ वा तिष्ठ वा त्वं सुसान्त्व्यमानाप्यसती स्त्री जहाति॥ 3-4-20 Dhristrashtra's attachment to Duryodhan आसक्ती
वैशम्पायन उवाच
एतावदुक्त्वा धृतराष्ट्रोऽन्वपद्यदन्तर्वेश्म सहसोत्थाय राजन्। नेदमस्तीत्यथ विदुरो भाषमाणः सम्प्राद्रवद्यत्र पार्था बभूवुः॥ 3-4-21 Dhristrashtra Vidur
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरवाक्यप्रत्याख्याने चतुर्थोऽध्यायः॥ 4 ॥