Difference between revisions of "अर्थ पुरुषार्थ और शिक्षा"

From Dharmawiki
Jump to navigation Jump to search
(लेख सम्पादित किया)
(→‎अर्थपुरुषार्थ[1]: लेख सम्पादित किया)
Line 33: Line 33:
 
उद्योग अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उद्योग है परन्तु उसकी कच्ची
 
उद्योग अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उद्योग है परन्तु उसकी कच्ची
 
सामाग्री कृषि से ही प्राप्त होती है । इसलिये वह कृषि पर
 
सामाग्री कृषि से ही प्राप्त होती है । इसलिये वह कृषि पर
 
BS
 
  
 
निर्भर है । बैलगाड़ी, हल, कुदाल आदि बनाने का उद्योग
 
निर्भर है । बैलगाड़ी, हल, कुदाल आदि बनाने का उद्योग
Line 69: Line 67:
 
चाहिये । अनेक प्रकार के हुनर सीखने चाहिये,
 
चाहिये । अनेक प्रकार के हुनर सीखने चाहिये,
 
 
 
............. page-61 .............
 
 
पर्व १ : उपोद्धात
 
 
 
 
  
 
निरन्तर काम करना चाहिये । बिना काम किये समृद्धि
 
निरन्तर काम करना चाहिये । बिना काम किये समृद्धि
Line 111: Line 103:
 
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: ।
 
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: ।
 
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिदुःखभाग्भवेत्‌ ।।
 
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिदुःखभाग्भवेत्‌ ।।
 
४५
 
 
 
 
 
 
 
  
 
तनाव और उत्तेजना से मुक्ति :
 
तनाव और उत्तेजना से मुक्ति :
Line 161: Line 145:
 
मकान तीसरा व्यक्ति बनाता है तो मेज कुर्सी कोई
 
मकान तीसरा व्यक्ति बनाता है तो मेज कुर्सी कोई
 
 
 
............. page-62 .............
 
 
   
 
 
 
  
 
औओर ही बनाता है । जब सामूहिक काम
 
औओर ही बनाता है । जब सामूहिक काम
Line 250: Line 228:
 
निर्माण करने वाले, उत्पादन को केंद्रित बना देने
 
निर्माण करने वाले, उत्पादन को केंद्रित बना देने
 
 
 
............. page-63 .............
 
 
पर्व १ : उपोद्धात
 
  
 
वाले और अनेक लोगों की आर्थिक स्वतन्त्रता छीन
 
वाले और अनेक लोगों की आर्थिक स्वतन्त्रता छीन
Line 296: Line 270:
  
 
प्राणीजगत
 
प्राणीजगत
 
'ढी9
 
 
 
 
 
 
 
 
  
 
अर्थव्यवस्था... में. महत्त्वपूर्ण
 
अर्थव्यवस्था... में. महत्त्वपूर्ण
Line 343: Line 309:
 
व्यवस्था रही है जो विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं रही
 
व्यवस्था रही है जो विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं रही
 
 
 
............. page-64 .............
 
 
   
 
 
 
  
 
और वर्तमान समय में भारत में भी
 
और वर्तमान समय में भारत में भी
Line 371: Line 332:
 
बहुत महत्त्व है । वह अत्यन्त कम झंझट वाली और
 
बहुत महत्त्व है । वह अत्यन्त कम झंझट वाली और
 
परिणामदायी होती है ।
 
परिणामदायी होती है ।
 
श्श्,
 
 
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
 
 
 
 
  
 
१२. स्वायत्तता का एक महत्त्वपूर्ण आयाम स्वतन्त्रता है ।
 
१२. स्वायत्तता का एक महत्त्वपूर्ण आयाम स्वतन्त्रता है ।

Revision as of 23:36, 28 May 2019

अर्थपुरुषार्थ[1]

काम पुरुषार्थ मनुष्य की प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ है। कामपुरुषार्थ की सिद्धता हेतु अर्थपुरुषार्थ प्रस्तुत होता है। परन्तु कामपुरुषार्थ मन के विश्व की लीला होने के कारण से उसके नियमन और नियंत्रण की आवश्यकता होती है। नियमन और नियंत्रण के लिए धर्मपुरुषार्थ होता है।

मनुष्य के प्राकृत जीवन का केन्द्र काम पुरुषार्थ है । काम पुरुषार्थ का सहयोगी अर्थ पुरुषार्थ है । इच्छाओं की पूर्ति के लिये मनुष्य को असंख्य पदार्थों की आवश्यकता होती है । इनमें से अनेक पदार्थ उसे बिना परिश्रम किये प्राप्त हो जाते हैं । उदाहरण के लिये उसे हवा, सूर्य प्रकाश, फूलों की सुगन्ध, पक्षियों के कलरव का संगीत बिना प्रयास किये प्राप्त होते हैं । परन्तु असंख्य पदार्थ ऐसे हैं जो उसे प्रयास करके प्राप्त करने पड़ते हैं । उदाहरण के लिये वन में अपने आप ऊगे हुए वृक्षों के फल, फूल अथवा धान्य बिना प्रयास किये प्राप्त होते हैं । परन्तु आवश्यकता के अनुसार फल, सागसब्जी और धान्य प्राप्त करने हेतु उसे कृषि करनी पड़ती है । वख्र प्राप्त करने हेतु उसे प्रयास करना पड़ता है । इन प्रयासों को ही अर्थपुरुषार्थ कहते हैं ।

अर्थ कामानुसारी है । जिस जिस पदार्थ की मनुष्य को इच्छा होती है उस उस पदार्थ को प्राप्त करने हेतु मनुष्य प्रयास करता है । इन प्रयासों के परिणामस्वरूप अनेक प्रकार के उद्योग पैदा हुए हैं । अन्न की आवश्यकता की पूर्ति हेतु कृषि उद्योग का, वस्त्र की आवश्यकता की पूर्ति हेतु वस्र उद्योग का, निवास की व्यवस्था हेतु भवन बनाने के उद्योग का विकास होता है । कृषि के लिये आवश्यक उपकरण निर्माण करने हेतु भी अनेक प्रकार के उद्योग स्थापित किये जाते हैं । इन उद्योगों का बड़ा जाल बनता है क्योंकि सारे उद्योग एकदूसरे के साथ अंग अंगी संबंध से जुड़े होते हैं । विचार करने पर ध्यान में आता है कि कृषि मूल उद्योग है और शेष सारे उद्योग या तो कृषि के सहायक हैं या उसके ऊपर निर्भर करते हैं । उदाहरण के लिये वस्त्र उद्योग अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उद्योग है परन्तु उसकी कच्ची सामाग्री कृषि से ही प्राप्त होती है । इसलिये वह कृषि पर

निर्भर है । बैलगाड़ी, हल, कुदाल आदि बनाने का उद्योग कृषि का सहायक उद्योग है । उद्योगों का यह जाल बहुत व्यापक और बहुत जटिल है। उसे समझना और उसे व्यवस्थित ढंग से चलाना अर्थपुरुषार्थ का महत्त्वपूर्ण आयाम है।

कामपुरुषार्थ प्राकृतिक है, अर्थपुरुषार्थ मनुष्य की व्यवस्था है । मनुष्य द्वारा निर्मित व्यवस्था होने के कारण उसकी अनेक व्यवस्थायें हैं, इन व्यवस्थाओं को चलाने हेतु अनेक नियम हैं । इनसे महत्त्वपूर्ण शास्त्र बनता है, जिसे अर्थशास्त्र कहते हैं ।

अर्थपुरुषार्थ के आयाम इस प्रकार हैं ....

8. समृद्धि प्राप्त करने की तत्परता : मनुष्य को दरिद्र नहीं रहना चाहिये । उसे समृद्धि की इच्छा करनी चाहिये । जीवन के लिये आवश्यक, शरीर, मन आदि को सुख देने वाले, चित्त को प्रसन्न बनाने वाले अनेक पदार्थों का सेवन करने हेतु अर्थ चाहिये । वह प्रभूत मात्रा में प्राप्त हो, इसका विचार करना चाहिये । अपने भण्डार धान्य से भरे हों, उत्तम प्रकार के वस्त्रालंकार प्राप्त हों, कहीं किसीके लिए किसी बात का अभाव न हो, ऐसा आयोजन मनुष्य को करना चाहिये । समृद्धि कैसे प्राप्त होती है इसका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये ।

समृद्धि प्राप्त करने हेतु उद्यमशील होना : समृद्धि प्राप्त करने की इच्छा मात्र से वह प्राप्त नहीं होती । “उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथै:” मनुष्य को वैसी इच्छा भी नहीं करनी चाहिये । अपने परिश्रम से वह प्राप्त हो इस दृष्टि से उसे काम करना चाहिये । अनेक प्रकार के हुनर सीखने चाहिये, �

निरन्तर काम करना चाहिये । बिना काम किये समृद्धि प्राप्त होती ही नहीं है यह जानना चाहिये । बिना काम किये जो समृद्धि प्राप्त होती दिखाई देती है वह आभासी समृद्धि होती है और वह काम नहीं करने वाले और उसके आसपास के लोगों का नाश करती है।

उद्यम की प्रतिष्ठा : काम करने के परिणामस्वरूप समृद्धि प्राप्त करने हेतु काम करने को प्रतिष्ठा का विषय मानना भी आवश्यक है । आज के सन्दर्भ में तो यह बात खास आवश्यक है क्योंकि आज काम करने को हेय और काम करवाने वाले को प्रतिष्ठित माना जाता है । ऐसा करने से समृद्धि का आभास निर्माण होता है और वास्तविक समृद्धि का नाश होता है। काम करने की कुशलता अर्जित करना प्रमुख लक्ष्य बनना चाहिये । जब कुशलता प्राप्त होती है तो काम की गति बढ़ती है, बुद्धि सक्रिय होती है, कल्पनाशक्ति जागृत होती है और नये नये आविष्कार सम्भव होते हैं । इससे काम को कला का दर्जा प्राप्त होता है और काम करने में आनन्द का अनुभव होता है। श्रम और काम में आनन्द का अनुभव सच्चा सुख देने वाला होता है ।

सबके लिये समृद्धि : समृद्धि की कामना अकेले के लिये नहीं करनी चाहिये । समृद्धि से प्राप्त होने वाला सुख, सुख को भोगने के लिये अनुकूल स्वास्थ्य, समृद्धि को काम करने के परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाले प्रसाद के रूप में ग्रहण करने की वृत्ति से प्राप्त होने वाला कल्याण सबके लिये होना चाहिए ऐसी कामना करनी चाहिये । ऐसी कामना करने से समृद्धि निरन्तर बनी रहती है अन्यथा वह शीघ्र ही नष्ट हो जाती है । इस कामना को भारतीय मानस के शाश्वत स्वरूप के अर्थ में इस श्लोक में प्रस्तुत किया गया सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिदुःखभाग्भवेत्‌ ।।

तनाव और उत्तेजना से मुक्ति : परिश्रमपूर्वक काम करने से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त होता है। इसके परिणामस्वरूप व्यक्तिगत और सामुदायिक जीवन में लोभ मोहजनित जो तनाव और उत्तेजना व्याप्त होते हैं वे कम होते हैं। संघर्ष और हिंसा कम होते हैं । अर्थ से प्राप्त समृद्धि भोगने का आनन्द मिलता है ।

संयमित उपभोग : परिश्रम के साथ उत्पादन को जोड़ने पर उपभोग स्वाभाविक रूप में ही संयमित रहता है क्योंकि उपभोग के लिये समय भी कम रहता है और परिश्रमपूर्वक किये गये काम में आनन्द भी पर्याप्त मिलता है । वह आनन्द सृजनात्मक होने के कारण से उसकी गुणवत्ता भी अधिक अच्छी होती है । शरीर, मन, बुद्धि आदि जिस उद्देश्य के लिये बने हैं उस उद्देश्य की पूर्ति होने के कारण से आनन्द स्वाभाविक होता है, कृत्रिम नहीं ।

सामाजिकता : अर्थप्राप्ति हेतु परिश्रम करने में और उत्पादन के हेतु से परिश्रम होने में और भी दो बातें अपने आप घटित होती हैं। एक तो उत्पादन उपयोगी वस्तुओं का ही होता है और दूसरा केवल स्वयं के ही लिये न होकर अन्यों के लिये भी होता है। इस कारण से इसके ट्वारा सामाजिकता का विकास होने में बहुत सहायता होती है । सामाजिकता का अपना एक सार्थक आनन्द होता है जिसमें सुरक्षा और निर्ध्चितता अपने आप समाहित होती है ।

अर्थपुरुषार्थ हेतु करणीय बातें

अर्थपुरुषार्थ की सिद्धि के लिये कुछ बातों का खास

ध्यान रखना होता है । ये बातें इस प्रकार हैं

श्,

अर्थव्यवहार हमेशा समूह में ही चलता है । उपभोग हेतु जो भी सामग्री चाहिये वह कभी किसी एक व्यक्ति के द्वारा उत्पादित नहीं हो सकती । कपड़ा एक व्यक्ति बनाता है तो अनाज दूसरा व्यक्ति उगाता है । मकान तीसरा व्यक्ति बनाता है तो मेज कुर्सी कोई �

औओर ही बनाता है । जब सामूहिक काम होता है तब सबका ध्यान रखकर ही काम किया जाता है । सबका ध्यान रखने से क्या तात्पर्य है ? एक तो यह कि सबके लिये आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन पर्याप्त मात्रा में हो सके इस प्रकार उत्पादन सुनिश्चित करना चाहिये । दूसरा, उत्पादन के दायरे से लोग बाहर ही हो जाएँ इस प्रकार से उत्पादन की व्यवस्था नहीं होनी चाहिये । तात्पर्य यह है कि उत्पादन आवश्यकता से अधिक केन्द्रित नहीं हो जाना चाहिये । परिश्रम पर आधारित उत्पादन से केन्द्रीकरण नहीं होता ।

उत्पादन के साथ व्यवसाय जुड़े होते हैं । व्यवसाय के साथ अधथर्जिन जुड़ा होता है । उत्पादन सबके उपभोग के लिये होता है जबकि sabe af से सम्बन्धित होता है । दोनों का मेल बैठना चाहिये । उत्पादन और अथर्जिन सबके लिये सुलभ बनना चाहिये । इस दृष्टि से ही हमारे देश में वर्ण और जाति व्यवस्था बनाई गई थी । वर्णों और जातियों का सम्बन्ध आचार और व्यवसाय से जोड़ा गया था । व्यवसाय सबका स्वधर्म माना जाता था । स्वधर्म को किसी भी स्थिति में छोड़ना नहीं चाहिये ऐसा सामाजिक बन्धन भी था । समाज और व्यक्ति की आर्थिक सुरक्षा और सबके लिये उत्पादन और अथार्जिन की सुलभता इससे बनती थी । आज हमने वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था al ade त्याग दिया है, न केवल त्याग दिया है अपितु उसे विकृत बना दिया है और वर्ण के प्रश्न को उलझा दिया है । उसकी चर्चा कहीं अन्यत्र करेंगे परन्तु अभी वर्तमान व्यवस्था ( या अव्यवस्था ) के संदर्भ में ही बात करनी होगी ।

उत्पादन के साथ वितरण की व्यवस्था भी जुड़ी है । इसका अर्थ है, आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन होने के बाद आवश्यकता के अनुसार सबको उत्पाद मिलना भी चाहिये । इस दृष्टि से वितरण के नियम

रद

रे.

भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप


भी बनने चाहिये । उत्पादन, वितरण और अआअथर्जिन की व्यवस्था ही बाजार है । इस बाजार का नियंत्रण आवश्यकताओं की पूर्ति के आधार पर होना चाहिये । आज अआथर्जिन आधार बन गया है, आवश्यकता की पूर्ति और जीवनधारणा नहीं । यह बड़ा अमानवीय व्यवहार है, इसे बदलने की आवश्यकता है ।

उत्पादन के सम्बन्ध में उत्पादनीय वस्तुओं की वरीयता निश्चित करना अत्यन्त आवश्यक है । उदाहरण के लिये अनाज और वस्त्र के उत्पादन को खिलौने के उत्पादन से ऊपर का स्थान देना चाहिये । व्यक्ति को अनाज के उत्पादन के लिए अधिक परिश्रम और कम अथार्जिन होता हो और खिलौनों के उत्पादन में कम परिश्रम और अधिक अथर्जिन होता हो तो भी अनाज के उत्पादन को खिलौनों के उत्पादन की अपेक्षा वरीयता देनी चाहिये और उसके उत्पादन की बाध्यता बनानी चाहिये । आज इसे अधथर्जिन की स्वतन्त्रता का मुद्दा बनाया जाता है न कि सामाजिक ज़िम्मेदारी का । सुसंस्कृत समाज ज़िम्मेदारी को प्रथम स्थान देता है और व्यक्तिगत लाभ को उसके आगे गौण मानता है ।

परिश्रम आधारित उत्पादन व्यवस्था में यंत्रों का स्थान आर्थिक और सांस्कृतिक विवेक के आधार पर निश्चित किया जाता है । मनुष्य का कष्ट कम करने में और काम को सुकर बनाने में यंत्रों का योगदान महत्त्वपूर्ण है। परन्तु वे मनुष्य के सहायक होने चाहिये, मनुष्य का स्थान लेने वाले और उसके काम के अवसर छीन लेने वाले नहीं । उदाहरण के लिये गरम वस्तु पकड़ने के लिये चिमटा, सामान का यातायात करने हेतु गाड़ी और उसे चलाने हेतु चक्र, कुएँ से पानी निकालने हेतु घिरनी जैसे यंत्र अत्यन्त उपकारक हैं परन्तु पेट्रोल, डिझेल, विद्युत की ऊर्जा से चलने वाले, एकसाथ विपुल उत्पादन कि बाध्यता निर्माण करने वाले, उत्पादन को केंद्रित बना देने �

वाले और अनेक लोगों की आर्थिक स्वतन्त्रता छीन लेने वाले यंत्र वास्तव में आसुरी शक्ति हैं । इन्हें त्याज्य मानना चाहिये । आज हम इसी आसुरी शक्ति के दमन का शिकार बने हुए हैं परन्तु उसे ही विकास का स्वरूप मान रहे हैं ।

अर्थव्यवस्था एवम्‌ मनुष्यों की आर्थिक स्वतन्त्रता का मुद्दा अहम है। स्वतन्त्रता मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है । आर्थिक स्वतन्त्रता उसका महत्त्वपूर्ण आयाम है । उसकी रक्षा होनी ही चाहिये । जो मनुष्य आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र नहीं है वह दीन हीन हो जाता है और ऐसे मनुष्यों की संख्या बढ़ने से संस्कृति की ही हानि होती है । इसलिए अर्थव्यवस्था ऐसी होनी चाहिये जिसमें उत्पादन केंद्रित न हो जाये, वितरण दुष्कर न हो जाये और वस्तुओं की प्राप्ति दुर्लभ न हो जाये । ये सारे समाज को दृरि्रि बनाते हैं । इसलिए यंत्रों पर आधारित उत्पादनव्यवस्था पर सुविचारित नियंत्रण होना चाहिये ।

वर्तमान में जिस प्रकार से यंत्रों का उपयोग होता है उससे तीन प्रकार से हानि होती है । एक, पेट्रोलियम जैसे प्राकृतिक संसाधनों का विनाशकारी प्रयोग होने से पर्यावरण का संतुलन भयानक रूप से बिगड़ता है । पेट्रोल, डिझेल, विद्युत जैसी ऊर्जा का प्रयोग, लोहा, सिमेन्ट और प्लास्टिक जैसे पदार्थ बनाकर उनका अधिकाधिक उपयोग पर्यावरण के विनाश के साथ साथ मनुष्य के स्वास्थ्य का भी नाश करता है । उत्पादन के केन्द्रीकण के कारण से बेरोजगारी बढ़कर आर्थिक स्वतन्त्रता का नाश होता है। वर्तमान में ऐसी भीषण परिस्थिति निर्माण हो गई है कि बिना यंत्र के, बिना कारखाने के, बिना पेट्रोल, डिझेल या विद्युत के कुछ संभव है ऐसा हमें लगता ही नहीं है। इससे निर्माण होने वाले विषचक्र से बाहर निकलने के लिये भी समर्थ प्रयासों की आवश्यकता है ।

पंचमहाभूत, . वनस्पतिजगत

और

प्राणीजगत

अर्थव्यवस्था... में. महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । वास्तव में भौतिक समृद्धि का मूल आधार ये सब ही हैं । परमात्मा की कृपा से भारत को ये सारे संसाधन विपुल मात्रा में प्राप्त हुए हैं । भारत की भूमि उपजाऊ है और केवल भारत में ही वर्ष में तीन फसल ली जा सकें ऐसे भूखंड हैं । भारत की जलवायु शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य के लिये अधिक अनुकूल हैं । भारत में छः waa नियमित रूप से होती हैं । हमारे अरण्य फल, फूल, औषधियों से भरे हुए हैं । तुलसी, नीम, गंगा, गोमाता भारत के ही भाग्य में हैं । भूमि, जल, वायु, अरण्य, पर्वत, तापमान आदि सब शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के रक्षक और पोषक हैं । कुल मिलाकर प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से भारत में समृद्ध होने की सारी संभावनायें हैं ।

समृद्धि का दूसरा आधार प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करने में हमारी कर्मन्द्रि यों और बुद्धि का उपयोग कर हम कितना अच्छा और कितना उत्कृष्ट उत्पादन करते हैं वह है । युगों से भारत ने अपने कुशल हाथों का और सृजनशील बुद्धि का उपयोग कर, प्रभूत, उत्कृष्ट और वैविध्यपूर्ण उत्पादन किया है । ऐसी अनेक वस्तुयें हैं जो गुणवत्ता और उत्कृष्टता के क्षेत्र में आज भी विश्व में अद्वितीय हैं। यंत्रनिर्माण, वस्तुओं का निर्माण, उत्पादन की व्यवस्था, वितरण की व्यवस्था, संस्कारयुक्त संयमित उपभोग भी समृद्धि के आधार रहे हैं । वर्तमान में हमने इस विवेक को खो दिया है । श्रम को हेय मानने की विपरीत बुद्धि के शिकार होकर हमने यंत्र आधारित, प्राकृतिक संसाधनों के शोषण पर आधारित केंद्रीकृत उद्योगों को बढ़ावा देकर दारिद्य, बेरोजगारी और बीमारी को मोल लिया है । इसमें भारी परिवर्तन की आवश्यकता है ।

.. सारे समाज की सही समृद्धि हेतु भारत में एक अद्भुत

व्यवस्था रही है जो विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं रही �

और वर्तमान समय में भारत में भी असम्भव मानी जाती है वह है, श्रेष्ठ एवं पतित्र वस्तुओं को अर्थव्यवहार से मुक्त रखना । उदाहरण के लिये सेवा, अन्न, पानी, दूध, चिकित्सा, शिक्षा आदि बातें बेचने और खरीदने के लिये नहीं थीं, दान करने के लिये थीं । आज इन सारी बातों का बाजार बन गया है । उस व्यवस्था में समृद्धि को तो हानि नहीं होती थी, उल्टे वह बढ़ती भी थी, साथ ही किसी बात का अभाव नहीं रहता था तथा समाज में सौहार्द, शान्ति, और संस्कारिता भी बने रहते थे । आज इस पर पुन: विचार करने की आवश्यकता है । अर्थव्यवस्था हेतु गाँव को इकाई मानना भी भारत के अर्थशास्त्रियों की एक अत्यन्त सफल कल्पना थी । गाँव में व्यवसाय किसी व्यक्ति का नहीं होता था । व्यवसाय हेतु परिवार ही इकाई थी। गाँव की आवश्यकतायें उत्पादन का नियमन करती थीं । सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति हो यह देखने का काम गाँव के मुखिया का होता था । इस दृष्टि से अर्थव्यवस्था स्वायत्त भी थी । समाजजीवन के सुचारु संचालन के लिये इस वि्केंट्रित अर्थव्यवस्था का बहुत महत्त्व है । वह अत्यन्त कम झंझट वाली और परिणामदायी होती है ।

१२. स्वायत्तता का एक महत्त्वपूर्ण आयाम स्वतन्त्रता है । आर्थिक स्वतन्त्रता का अर्थ है अपने व्यवसाय का मालिक होना । इस व्यवस्था के पीछे एक बड़ा मनोवैज्ञानिक तथ्य रहा है जो सुसंस्कृत व्यवस्था में निहित है । कोई भी व्यक्ति अन्य किसीके लिये काम क्यों करेगा ? स्वार्थ से, भय से, लालच से, विवशता से प्रेरित होकर करना अर्थात्‌ मजबूरी से करना गुलामी का ही एक प्रकार है । स्नेह से, आदर से, श्रद्धा से, कर्तव्यभाव से प्रेरित होकर करना सेवा है । सुसंस्कृत समाज सेवा को प्रधानता देता है और किसीको किसीकी गुलामी न करनी पड़े यह सुनिश्चित करता है । इस दृष्टि से व्यवसायों में स्वामित्व अथवा बड़ा व्यवसाय है तो सहभागिता की व्यवस्था की जाती रही है । इस दृष्टि से नौकरी करना हेय माना जाता रहा है । विवशता के कारण यदि नौकरी करनी ही पड़ती थी तो शीघ्रातिशीघ्र नौकरी से मुक्त होना नौकरी करने वाला और नौकरी में रखने वाला भी चाहता था । शिक्षा, चिकित्सा, पौरोहित्य करने वाले तो कभी भी नौकरी नहीं करते थे क्योंकि वह मनुष्य से भी अधिक ज्ञान को नौकर बनाने जैसा था जो कभी भी मान्य नहीं था ।


References

  1. भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे