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लेख सम्पादित किया
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== प्रस्तावना ==
 
== प्रस्तावना ==
वर्त्तमान में वर्ण व्यवस्था का अस्तित्व लगभग नष्ट हो गया है। वर्ण तो परमात्मा के बनाए होते हैं इसलिए वे नष्ट करने की सामर्थ्य मनुष्य जाति में नहीं है। लेकिन वर्ण की शुद्धि, वृद्धि और समायोजन की व्यवस्था को हमने उपेक्षित और दुर्लक्षित कर दिया है। इस कारण जिन भिन्न भिन्न प्रकार की सामाजिक और व्यक्तिगत समस्याओं और अव्यवस्थाओं का सामना करना पड रहा है उसकी कल्पना भी हमें नहीं है। ब्राह्मण वर्ण के लोगों का प्रभाव समाज में बहुत हुआ करता था। इसे अंग्रेज जान गए थे। ऐसा नहीं कि उस समय के सभी ब्राह्मण बहुत तपस्वी थे, लेकिन ऐसे तप करनेवाले ब्राह्मण भी रहे होंगे। हम भी देखते हैं कि हिन्दुत्ववादी से लेकर कांग्रेसी तथा कम्यूनिस्ट विचारधारा के प्रारम्भ के नेताओं में ब्राह्मण वर्ण के लोग बड़ी संख्या में थे। डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर के लिए अत्यंत आदरणीय ऐसे उनके शिक्षक श्री आम्बावडेकर से लेकर तो उनके विविध आन्दोलनों में सहभागी कई नेता ब्राह्मण थे।
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वर्तमान में वर्ण व्यवस्था का अस्तित्व लगभग नष्ट हो गया है। वर्ण तो परमात्मा के बनाए होते हैं इसलिए उन्हें नष्ट करने की सामर्थ्य मनुष्य जाति में नहीं है। लेकिन वर्ण की शुद्धि, वृद्धि और समायोजन की व्यवस्था को हमने उपेक्षित और दुर्लक्षित कर दिया है। इस कारण जिन भिन्न भिन्न प्रकार की सामाजिक और व्यक्तिगत समस्याओं और अव्यवस्थाओं का सामना करना पड रहा है उसकी कल्पना भी हमें नहीं है। ब्राह्मण वर्ण के लोगों का प्रभाव समाज में बहुत हुआ करता था। इसे अंग्रेज जान गए थे। ऐसा नहीं कि उस समय के सभी ब्राह्मण बहुत तपस्वी थे, लेकिन ऐसे तप करनेवाले ब्राह्मण भी रहे होंगे। हम भी देखते हैं कि हिन्दुत्ववादी से लेकर कांग्रेसी तथा कम्यूनिस्ट विचारधारा के प्रारम्भ के नेताओं में ब्राह्मण वर्ण के लोग बड़ी संख्या में थे। डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर के लिए अत्यंत आदरणीय ऐसे उनके शिक्षक श्री आम्बावडेकर से लेकर तो उनके विविध आन्दोलनों में सहभागी कई नेता ब्राह्मण थे।
किसी व्यवस्था को तोड़ना तुअलना में आसान होता है। लेकिन व्यवस्था निर्माण करना अत्यंत कठिन काम होता है। हमने वर्ण व्यवस्था का कोइ विकल्प ढूँढे बिना ही इसे नष्ट होने दिया है यह बुद्धिमानी का लक्षण तो नहीं है। ऐसे तो हम नहीं थे। इस परिप्रेक्ष में हमें वर्ण व्यवस्था को समझना होगा।
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किसी व्यवस्था को तोड़ना तुलना में आसान होता है। लेकिन व्यवस्था निर्माण करना अत्यंत कठिन काम होता है। हमने वर्ण व्यवस्था का कोई विकल्प ढूँढे बिना ही इसे नष्ट होने दिया है यह बुद्धिमानी का लक्षण तो नहीं है। ऐसे तो हम नहीं थे। इस परिप्रेक्ष में हमें वर्ण व्यवस्था को समझना होगा।
    
== वर्ण के कई अर्थ ==
 
== वर्ण के कई अर्थ ==
लक्ष्मणशास्त्री जोशी द्वारा लिखित संस्कृति ज्ञानकोष में वर्ण इस शब्द के कई अर्थ दिये है। एक है ' रंग '। लाल, पीला आदि सात रंग और इन के एक दूसरे में मिलाने से निर्माण होनेवाली अनगिनत छटाओं को वर्ण की संज्ञा दी हुई है।
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लक्ष्मणशास्त्री जोशी द्वारा लिखित संस्कृति ज्ञानकोष में वर्ण इस शब्द के कई अर्थ दिये है। एक है ' रंग '। लाल, पीला आदि सात रंग और इन के एक दूसरे में मिलाने से निर्माण होनेवाली अनगिनत छटाओं को वर्ण की संज्ञा दी हुई है। दूसरा अर्थ ' ध्वनि ' है। हमारे स्वरयंत्र से जो ध्वनि निकलती है उसे भी वर्ण कहते है। इस ध्वनि को विशिष्ट चिन्हों के आधारपर जाना जाता हे। इन चिन्हों को हम अक्षर भी कहते है और वर्ण भी कहते है। स्वर और व्यंजनों के अक्षरों की माला को हम अक्षरमाला भी कहते है और वर्णमाला भी कहते है।
दूसरा अर्थ ' ध्वनि ' है। हमारे स्वरयंत्र से जो ध्वनि निकलती है उसे भी वर्ण कहते है। इस ध्वनि को विशिष्ट चिन्हों के आधारपर जाना जाता हे। इन चिन्हों को हम अक्षर भी कहते है और वर्ण भी कहते है। स्वर और व्यंजनों के अक्षरों की माला को हम अक्षरमाला भी कहते है और वर्णमाला भी कहते है।  
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वर्ण का तीसरा और जो इस लेख के लिये लागू अर्थ है वह है 'वृत्ती या स्वभाव'। मनुष्य जाति का उस की प्रवृत्तियों या स्वभाव के अनुसार वर्गीकरण होता है। यह वर्गीकरण अत्यंत स्वाभाविक होता है। और हर समाज में होता ही है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह वे चार वर्ग है।
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वर्ण का तीसरा और जो इस लेख के लिये लागू अर्थ है वह है 'वृत्ति या स्वभाव'। मनुष्य जाति का उस की प्रवृत्तियों या स्वभाव के अनुसार वर्गीकरण होता है। यह वर्गीकरण अत्यंत स्वाभाविक होता है। और हर समाज में होता ही है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह वे चार वर्ग है।
वर्ण और वरण इन शब्दों में साम्य है। वरण का अर्थ है चयन करना। जो वरण किया जाता है उसे वर्ण कहते है। जन्म लेनेवाला जीव अपने पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार नये जन्म में ‘स्वभाव या प्रवृत्ति ‘ लेकर आता है। अपने पूर्वजन्मों के कर्मों से ‘स्वभाव या प्रवृत्ति ‘ का वरण करता है । नये जन्म में बच्चा न केवल स्वभाव या प्रवृत्ति का वरण करता है, अपने माता पिता और व्यावसायिक कुशलता का यानी जाति का भी वरण करता है । इस कारण जाति व्यवस्था, व्यापक वर्ण व्यवस्था का हिस्सा बन जाती है । वर्ण व्यवस्था कहने से जाति व्यवस्था का और वर्ण व्यवस्था का दोनों का बोध होता है । दोनों को अलग नहीं किया जा सकता।
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वर्ण और वरण इन शब्दों में साम्य है। वरण का अर्थ है चयन करना। जो वरण किया जाता है उसे वर्ण कहते है। जन्म लेनेवाला जीव अपने पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार नये जन्म में ‘स्वभाव या प्रवृत्ति ‘ लेकर आता है। अपने पूर्वजन्मों के कर्मों से ‘स्वभाव या प्रवृत्ति ‘ का वरण करता है । नये जन्म में बच्चा न केवल स्वभाव या प्रवृत्ति का वरण करता है, अपने माता पिता और व्यावसायिक कुशलता का यानी जाति का भी वरण करता है । इस कारण जाति व्यवस्था, व्यापक वर्ण व्यवस्था का हिस्सा बन जाती है । वर्ण व्यवस्था कहने से जाति व्यवस्था का और वर्ण व्यवस्था का दोनों का बोध होता है । दोनों को अलग नहीं किया जा सकता।
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हर मनुष्य का स्वभाव, उस की प्रवृत्तियाँ, उस के गुण, उस की क्षमताएं, उस की व्यावसायिक कुशलताएं आदि भिन्न होते है। विशेष प्रकार के काम वह सहजता से कर सकता है । इन सहज कर्मों का विवरण हम आगे देखेंगे । मनुष्य जब अपने इन गुणों के आधारपर अपने काम के स्वरूप का व्यवसाय का या आजीविका का चयन और निर्वहन करता है तब उस का व्यक्तिगत जीवन और साथ ही में समाज का जीवन भी सुचारू रूप से चलता है। इसी को व्यवस्था में बिठाकर उसे वर्ण व्यवस्था का नाम दिया गया था।
 
हर मनुष्य का स्वभाव, उस की प्रवृत्तियाँ, उस के गुण, उस की क्षमताएं, उस की व्यावसायिक कुशलताएं आदि भिन्न होते है। विशेष प्रकार के काम वह सहजता से कर सकता है । इन सहज कर्मों का विवरण हम आगे देखेंगे । मनुष्य जब अपने इन गुणों के आधारपर अपने काम के स्वरूप का व्यवसाय का या आजीविका का चयन और निर्वहन करता है तब उस का व्यक्तिगत जीवन और साथ ही में समाज का जीवन भी सुचारू रूप से चलता है। इसी को व्यवस्था में बिठाकर उसे वर्ण व्यवस्था का नाम दिया गया था।
    
== समाज में विभूति संयम ==
 
== समाज में विभूति संयम ==
देशिक शास्त्र (लेखक बद्रीशा ठुलधरिया, प्रकाशक पुनरुत्थान प्रकाशन पृष्ठ ९६) के अनुसार और पहले बताए वर्ण और जाति व्यवस्था के मूल आधार के अनुसार मनुष्य का स्वार्थ और समाज के हित में संतुलन बनाये रखने के लिये तथा समाज की आवश्यकताओं की निरंतर आपूर्ति के लिये यह व्यवस्थाएं स्थापित की गईं थीं। हर समाज घटक को कुछ विशेष त्याग भी करना होता था याने जिम्मेदारियाँ थीं और अन्यों से कुछ विशेष महत्वपूर्ण, ऐसी कुछ श्रेष्ठ बातें याने कुछ विभूतियाँ प्राप्त होतीं थीं। मान, ऐश्वर्य, विलास और निश्चिन्तता यह वे चार विभूतियाँ थीं। इन के बदले में समाज के लिये कुछ त्याग भी करना होता था। ब्राह्मण वर्ण के व्यक्ति को ज्ञानार्जन और ज्ञानदान की, समाज को श्रेष्ठतम आदर्शों का अपने प्रत्यक्ष व्यवहार के माध्यम से मार्गदर्शन करने की जिम्मेदारी थी। भिक्षावृत्ती से जीने का आग्रह था। इस के प्रतिकार में ब्राह्मण समाज सर्वोच्च सम्मान का अधिकारी माना जाता था। अपने बल, कौशल, निर्भयता, न्यायदृष्टि के आधारपर समाज का संरक्षण करने के लिये जान की बाजी लगाने की जिम्मेदारी क्षत्रिय वर्ण के व्यक्ति को दी गई थी। इस के प्रतिकार में उसे ऐश्वर्य और सत्ता की विभूति समाज से प्राप्त होती थी। समाज के पोषण के लिये उत्पादन, वितरण और व्यापार की जिम्मेदारी वैश्य को दी गई थी। इस के प्रतिकार में उसे संपत्ति संचय और आरामयुक्त जीवन की, विलास की विभूति समाज की ओर से प्राप्त होती थी। शूद्र को विभूति के रूप में मिलती थी निश्चिन्तता। और इस के प्रतिकार में उस की जिम्मेदारी थी की वह अन्य तीनों वर्णों के व्यक्तियों की सेवा करे। जिस से उन्हें अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिये अध्ययन अनुसंधान, प्रयोग और व्यवहार के लिये अवकाश प्राप्त हो सके।  
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देशिक शास्त्र (लेखक बद्रीशा ठुलधरिया, प्रकाशक पुनरुत्थान प्रकाशन पृष्ठ ९६) के अनुसार और पहले बताए वर्ण और जाति व्यवस्था के मूल आधार के अनुसार मनुष्य का स्वार्थ और समाज के हित में संतुलन बनाये रखने के लिये तथा समाज की आवश्यकताओं की निरंतर आपूर्ति के लिये यह व्यवस्थाएं स्थापित की गईं थीं। हर समाज घटक को कुछ विशेष त्याग भी करना होता था याने जिम्मेदारियाँ थीं और अन्यों से कुछ विशेष महत्वपूर्ण, ऐसी कुछ श्रेष्ठ बातें याने कुछ विभूतियाँ प्राप्त होतीं थीं। मान, ऐश्वर्य, विलास और निश्चिन्तता यह वे चार विभूतियाँ थीं। इन के बदले में समाज के लिये कुछ त्याग भी करना होता था। इनको हम इस लेख में देख सकते हैं। 
जिस समाज में विभूति संयम की जगह विभूति संभ्रम निर्माण होता है वह समाज रोगग्रस्त हो जाता है। ब्राह्मण होने के नाते सम्मान चाहिये और शूद्रों की भाँति निश्चिन्तता भी चाहिये यह नहीं चलेगा। या क्षत्रियों की तरह ऐश्वर्य और वैष्यों की तरह संपत्ति संचय के अधिकार और विलास भी मिलें यह नहीं चल सकता। वर्तमान शिक्षा और लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था के कारण प्रत्येक को ब्राह्मण की तरह सम्मान चाहिये, क्षत्रियों की तरह ऐश्वर्य, वैष्यों की तरह संपत्ति संचय के अधिकार और शूद्र की तरह निश्चिन्तता ऐसा सभी चाहिये। वर्तमान दुर्व्यवस्था का यह भी एक प्रबल कारण है कि  वर्तमान सामाजिक जीवन के  प्रतिमान के कारण विभूति संभ्रम निर्माण हो गया है। और वर्तमान लोकतंत्र और वर्त्तमान शिक्षा दोनों इस संभ्रम में वृध्दि कर रहें हैं। इस लोकतंत्र में समाज के लिये त्याग करने के लिये कोई तैयार नहीं है लेकिन मान, ऐश्वर्य, विलास और निश्चिन्तता यह चारों विभूतियाँ हर एक को चाहिये। समाज के लिये त्याग करने की किसी की तैयारी नहीं होने से समाज की संस्कृति भी नष्ट होती है।  
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ब्राह्मण वर्ण के व्यक्ति को ज्ञानार्जन और ज्ञानदान की, समाज को श्रेष्ठतम आदर्शों का अपने प्रत्यक्ष व्यवहार के माध्यम से मार्गदर्शन करने की जिम्मेदारी थी। भिक्षावृत्ति से जीने का आग्रह था। इस के प्रतिकार में ब्राह्मण समाज सर्वोच्च सम्मान का अधिकारी माना जाता था। अपने बल, कौशल, निर्भयता, न्यायदृष्टि के आधारपर समाज का संरक्षण करने के लिये जान की बाजी लगाने की जिम्मेदारी क्षत्रिय वर्ण के व्यक्ति को दी गई थी। इस के प्रतिकार में उसे ऐश्वर्य और सत्ता की विभूति समाज से प्राप्त होती थी। समाज के पोषण के लिये उत्पादन, वितरण और व्यापार की जिम्मेदारी वैश्य को दी गई थी। इस के प्रतिकार में उसे संपत्ति संचय और आरामयुक्त जीवन की, विलास की विभूति समाज की ओर से प्राप्त होती थी। शूद्र को विभूति के रूप में मिलती थी निश्चिन्तता। और इस के प्रतिकार में उस की जिम्मेदारी थी की वह अन्य तीनों वर्णों के व्यक्तियों की सेवा करे। जिस से उन्हें अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिये अध्ययन अनुसंधान, प्रयोग और व्यवहार के लिये अवकाश प्राप्त हो सके।  
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जिस समाज में विभूति संयम की जगह विभूति संभ्रम निर्माण होता है वह समाज रोगग्रस्त हो जाता है। ब्राह्मण होने के नाते सम्मान चाहिये और शूद्रों की भाँति निश्चिन्तता भी चाहिये यह नहीं चलेगा। या क्षत्रियों की तरह ऐश्वर्य और वैष्यों की तरह संपत्ति संचय के अधिकार और विलास भी मिलें यह नहीं चल सकता। वर्तमान शिक्षा और लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था के कारण प्रत्येक को ब्राह्मण की तरह सम्मान चाहिये, क्षत्रियों की तरह ऐश्वर्य, वैष्यों की तरह संपत्ति संचय के अधिकार और शूद्र की तरह निश्चिन्तता ऐसा सभी चाहिये। वर्तमान दुर्व्यवस्था का यह भी एक प्रबल कारण है कि  वर्तमान सामाजिक जीवन के  प्रतिमान के कारण विभूति संभ्रम निर्माण हो गया है। और वर्तमान लोकतंत्र और वर्तमान शिक्षा दोनों इस संभ्रम में वृध्दि कर रहें हैं। इस लोकतंत्र में समाज के लिये त्याग करने के लिये कोई तैयार नहीं है लेकिन मान, ऐश्वर्य, विलास और निश्चिन्तता यह चारों विभूतियाँ हर एक को चाहिये। समाज के लिये त्याग करने की किसी की तैयारी नहीं होने से समाज की संस्कृति भी नष्ट होती है।  
    
== स्वतंत्रता की रक्षा की जिम्मेदारियां ==
 
== स्वतंत्रता की रक्षा की जिम्मेदारियां ==
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==References==
 
==References==
 
मनुस्मृति
 
मनुस्मृति
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देशिक शास्त्र (लेखक बद्रीशा ठुलधरिया, प्रकाशक पुनरुत्थान प्रकाशन पृष्ठ ९६)
    
प्रजातंत्र अथवा वर्णाश्रम व्यवस्था, लेखक गुरुदत्त, प्रकाशक हिन्दी साहित्य सदन, नई दिल्ली
 
प्रजातंत्र अथवा वर्णाश्रम व्यवस्था, लेखक गुरुदत्त, प्रकाशक हिन्दी साहित्य सदन, नई दिल्ली
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