Difference between revisions of "Penal System (दण्ड व्यवस्था)"

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== परिचय॥ Introduction ==
 
== परिचय॥ Introduction ==
महाभारत में दण्ड का सार्वभौम रूप प्रस्तुत हुआ है। उसमें कहा गया है कि दण्ड प्रजा पर शासन करता एवं उसकी रक्षा करता है। जब संसार शयन करता है तब दण्ड जागता है अतः विद्वान् उसे ही धर्म मानते हैं। दण्ड के ही भय से मनुष्य कर्त्तव्य करता है, यह भय राजदण्ड मूलक हो अथवा यमदण्ड मूलक दण्डभय से ही मनुष्य पाप प्रवृत्ति क्षीण होती है।
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प्राचीन भारतीय न्यायिक क्षेत्र में दण्ड व्यवस्था को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। तत्कालीन समाज में जीवन के क्रिया कलापों में भी दण्ड का प्रमुख योगदान है। महाभारत में दण्ड का सार्वभौम रूप प्रस्तुत हुआ है, उसमें कहा गया है कि -  <blockquote>राजदण्डभयादेके नराः पापं न कुर्वते। यमदण्डभयादेके परलोकभयादपि॥ (महाभारत)<ref name=":0" />  </blockquote>दण्ड प्रजा पर शासन करता एवं उसकी रक्षा करता है। जब संसार शयन करता है तब दण्ड जागता है अतः विद्वान् उसे ही धर्म मानते हैं। दण्ड के ही भय से मनुष्य कर्त्तव्य करता है, यह भय राजदण्ड मूलक हो अथवा यमदण्ड मूलक दण्डभय से ही मनुष्य पाप प्रवृत्ति क्षीण होती है।<ref>शोध कर्ता - बबिता मौर्या, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/181757 प्राचीन भारतीय दण्ड व्यवस्था का समाजशास्त्रीय अध्ययन], सन २०१२, शोधकेन्द्र- वीर बहादुर सिंह पूर्वाञ्चल विश्वविद्यालय, जौनपुर (पृ० १३)।</ref> अरिषड् वर्ग काम, [[Krodha (क्रोधः)|क्रोध]], लोभ, मोह, मद, मात्सर्य , प्रभृति कुप्रवृत्तियों पर नियंत्रण अत्यावश्यक है। दण्ड की आवश्यकता एवं महत्ता पर प्रकाश डालते हुये वेदव्यास जी कहते हैं कि ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यासी इन चारों आश्रमों में स्थित मनुष्य दण्ड के भय से ही अपने-अपने मार्ग पर स्थिर रहते हैं - <blockquote>ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थश्च भिक्षकः। दण्डस्यैव भयादेते मनुष्यात् वर्त्मनि स्थिताः॥ (महाभारत)</blockquote>दण्ड व्यवस्था के विलुप्त होते ही सर्वत्र वर्णसंकरता फैलने लगती है। कर्त्तव्याकर्त्तव्य, भक्ष्याभक्ष्य, पेयापेय आदि का विचार समाप्त होने लगता है। लोग एक दूसरे ही हिंसा करने लगते हैं। बलवान निर्बल को, धनवान निर्धन को सताने लगते हैं। अतः काल रूप यह दण्ड सृष्टि के आदि, मध्य और अन्त में जागता रहता है। यही समस्ता प्रजाओं का पालक है।<ref>डॉ० भक्तवत्सल, [https://www.jetir.org/papers/JETIR1809891.pdf महामानवचम्पू काव्य में वर्णित दण्ड विधान की आवश्यकता], सन २०१८, जर्नल ऑफ इमर्जिंग टेक्नोलॉजीज एण्ड इनोवेटिव रिसर्च (पृ० ६४७)।</ref> 
  
== व्यवहार के अट्ठारह प्रकार==
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==स्मृतियों में दंड व्यवस्था॥ Penal system in  Smritis==
<blockquote>प्रत्यहं देशदृष्टैश्च शास्त्रदृष्टैश्च हेतुभिः। अष्टादशसु मार्गेषु निबद्धानि पृथक्पृथक्॥
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आचार्य कौटिल्य ने लोककल्याण के लिए आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्त्ता और दण्ड-नीति का उल्लेख किया है, जिसे सभी आचार्यों ने स्वीकार किया है। दण्ड की महत्ता पर प्रकाश डालते हुये मनु कहते हैं कि - <blockquote>दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति। दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डः धर्मं विदुर्बुधाः॥ (मनु स्मृति)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%B8%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय- ७, श्लोक- १८।</ref></blockquote>दण्ड धर्म, अर्थ और काम का रक्षक है। अतएव दण्ड को त्रिवर्ण रूप कहा गया है। दण्ड से ही धन-धान्य की रक्षा और अभिवृद्धि होती है। कितने ही अपराधी राजदण्ड के भय से अपराध नहीं करते हैं। दण्ड, उदण्ड मनुष्यों का दमन करता है। दुष्टों को दण्ड देता है। अतः दमन के कारण ही विद्वान जन इसे दण्ड कहते हैं। जैसा कि - <blockquote>वाचा दण्डो ब्राह्मणानां क्षत्रियाणां भुजार्पणम्। दान दण्डाः स्मृता वैश्या निर्दण्डः शूद्र उच्यते॥ (महाभारत)<ref name=":0">[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A5%8D-12-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5-015 महाभारत], शान्तिपर्व, अध्याय-१५, श्लोक-११।</ref></blockquote>महाभारत काल में वर्णव्यवस्था अनुसार यदि ब्राह्मण अपराध करे तो वाणी से उसको अपमानित करना ही उसका दण्ड है। क्षत्रिय को भोजन मात्र के लिये वेतन देकर उससे कार्य लेना उसका दण्ड है। वैश्यों से जुर्माना के रूप में धन वसूल करना उसका दण्ड है, किन्तु शूद्र दण्ड रहित कहे गये हैं। प्राचीन भारत में दण्ड का उद्देश्य अपराध की निवृत्ति एवं समाज कल्याण था।<ref>शोधार्थी- रश्मि तिवारी, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/327696 याज्ञवल्क्यस्मृति में न्याय एवं दण्ड व्यवस्था], सन २००४, राजशास्त्र विभाग- महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी (पृ० २११)।</ref>
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==दण्ड व्यवस्था एवं मानसिक परिष्कार==
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प्राचीन भारतवर्ष में दण्ड-व्यवस्था का परम उद्देश्य अपराध-निवृत्ति तथा लोककल्याण की प्रतिष्ठा था। दण्ड का प्रयोजन केवल दमन न होकर अपराधी के संस्कारपरिवर्तन में निहित था। अतः दण्ड-विधान में प्रायश्चित्त का विशेष प्राधान्य प्राप्त था, जिससे अपराधी पुनः शुद्धि एवं पावनता की अवस्था को प्राप्त हो सके। धर्मशास्त्रज्ञों के मत में अपराध-निवारण के लिये बहुविध दण्ड-प्रणालियाँ प्रचलित थीं। जैसे मनुस्मृति -  <blockquote>वाग्दण्डं प्रथमं कुर्याद्धिग्दण्डं तदनन्तरम्। तृतीयं धनदण्डं तु वधदण्डमतः परम्॥ (मनुस्मृति) </blockquote>याज्ञवल्क्यस्मृति -  <blockquote>धिग्दण्डस्त्वथवाग्दण्डो धनदण्डोवधस्तथा। योज्या व्यस्ताः समस्ता व ह्यपराधवशादिमे॥ (याज्ञवल्क्यस्मृति) </blockquote>मनु, याज्ञवल्क्य तथा बृहस्पति ने चार प्रमुख दण्ड-विधियों का निर्देशन किया है -
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#'''वाक्-दण्ड'''
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#'''धिक्-दण्ड'''
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#'''धन-दण्ड'''
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#'''वध-दण्ड'''
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ये दण्ड अपराध की प्रकृति के अनुसार पृथक-पृथक या सम्मिलित रूप में भी प्रयोग किए जाते थे। वाक्-दण्ड और धिक्-दण्ड का प्रयोग प्रायः अपराधी के सुधार के लिए किया जाता था। वाक्-दण्ड में अपराधी को उपदेशात्मक वचनों द्वारा यह समझाया जाता था कि उसका कृत्य अनुचित है और भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए। धिक्-दण्ड में इससे एक कदम आगे बढ़कर अपराधी की निंदा या धिक्कार की जाती थी, जैसे – 'तुम्हें धिक्कार है', 'तुम पाप के भागी हो' या 'तुम दुष्ट आचरण करने वाले हो।' विचारशील और संवेदनशील व्यक्तियों के लिए ये दोनों प्रकार के दण्ड अपराध से निवृत्त होने हेतु पर्याप्त माने जाते थे।
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*मनु के अनुसार, दण्ड प्रदान करने की क्रमबद्ध प्रक्रिया में पहले वाक्-दण्ड, फिर धिक्-दण्ड, उसके पश्चात अर्थ-दण्ड और अंत में आवश्यकता पड़ने पर वध-दण्ड दिया जाना चाहिए।
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*वृहस्पति के अनुसार गुरुजनों, पुरोहितों, आचार्यों तथा पुत्रों को शारीरिक दण्ड से मुक्त रखा गया था, उन्हें केवल वाक् या धिक्-दण्ड ही दिया जाता था।
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*जबकि महापातक अपराधों के लिए शारीरिक या वध-दण्ड का विधान था।
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*वाक्-दण्ड और धिक्-दण्ड प्राड्विवाक (न्यायाधीश) द्वारा तथा वध-दण्ड राज द्वारा प्रदान किया जाता था।
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==व्यवहार के अट्ठारह प्रकार==
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मनु, याज्ञवल्क्य तथा नारद स्मृतियों में अपराध तथा दण्ड व्यवस्था का विस्तृत वर्णन किया गया है। धर्मशास्त्र में उन विषयों को जिनके अन्तर्गत विवाद उत्पन्न हो सकता है उन्हें अठारह शीर्षकों में रखा है -<ref>रेखा सिंह, राकेश शर्मा, [https://www.socialsciencejournal.in/assets/archives/2016/vol2issue8/2-10-32-983.pdf मनु याज्ञवल्क्य एवं नारद स्मृतियों में वर्णित दण्ड व्यवस्था], सन २०१६, इण्टरनेशनल जर्नल ऑफ ह्यूमैनिटीज एण्ड सोशल साइंस रिसर्च (पृ० १०८)।</ref><blockquote>प्रत्यहं देशदृष्टैश्च शास्त्रदृष्टैश्च हेतुभिः। अष्टादशसु मार्गेषु निबद्धानि पृथक्पृथक्॥
  
 
तेषां आद्यं ऋणादानं निक्षेपोऽस्वामिविक्रयः। संभूय च समुत्थानं दत्तस्यानपकर्म च॥
 
तेषां आद्यं ऋणादानं निक्षेपोऽस्वामिविक्रयः। संभूय च समुत्थानं दत्तस्यानपकर्म च॥
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सीमाविवादधर्मश्च पारुष्ये दण्डवाचिके। स्तेयं च साहसं चैव स्त्रीसंग्रहणं एव च॥
 
सीमाविवादधर्मश्च पारुष्ये दण्डवाचिके। स्तेयं च साहसं चैव स्त्रीसंग्रहणं एव च॥
  
स्त्रीपुंधर्मो विभागश्च द्यूतं आह्वय एव च। पदान्यष्टादशैतानि व्यवहारस्थिताविह॥ (मनु स्मृति)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय- ८, श्लोक - ३-७।</ref> </blockquote>मनु, याज्ञवल्क्य तथा नारद स्मृतियों में अपराध तथा दण्ड व्यवस्था का विस्तृत वर्णन किया गया है। धर्मशास्त्र में उन विषयों को जिनके अन्तर्गत विवाद उत्पन्न हो सकता है उन्हें अठारह शीर्षकों में रखा है -  
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स्त्रीपुंधर्मो विभागश्च द्यूतं आह्वय एव च। पदान्यष्टादशैतानि व्यवहारस्थिताविह॥ (मनु स्मृति)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%83/%E0%A4%85%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 मनु स्मृति], अध्याय- ८, श्लोक - ३-७।</ref> </blockquote>भाषार्थ - प्रतिदिन देश की परंपरा और शास्त्रों में बताए गए वाक्यों के द्वारा, अष्टादश (18) व्यवहारपदों का उल्लेख है- अर्थात् वे अठारह प्रकार के न्यायिक विषय (cases or legal proceedings) जिन पर राज्य में न्याय किया जाता है। ये सब पृथक-पृथक रूप से निर्धारित हैं -
  
 
#'''ऋणदान -''' इसमें ऋण के लेने देने से उत्पन्न होने वाले विवाद आते हैं।
 
#'''ऋणदान -''' इसमें ऋण के लेने देने से उत्पन्न होने वाले विवाद आते हैं।
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#'''द्यूत और समाहृय -''' दोनों जुआँ के अन्तर्गत आते हैं। प्राणी रहित पदार्थों के द्वारा ताश, चौपड, जुआ, द्यूत कहलाता है। प्राणियों के द्वारा तीतर, बटेर आदि का युद्ध घुडदौड आदि समाहृय।
 
#'''द्यूत और समाहृय -''' दोनों जुआँ के अन्तर्गत आते हैं। प्राणी रहित पदार्थों के द्वारा ताश, चौपड, जुआ, द्यूत कहलाता है। प्राणियों के द्वारा तीतर, बटेर आदि का युद्ध घुडदौड आदि समाहृय।
  
व्यवहार के इन अठारह पदों का वर्णन मनुस्मृति में किया गया है। नारद स्मृति में व्यवहार के जिन अठारह पदों का वर्णन किया गया है, वे मनुस्मृति से कुछ भिन्न हैं।
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व्यवहार के इन अठारह पदों का वर्णन मनुस्मृति में किया गया है। नारद स्मृति में व्यवहार के जिन अठारह पदों का वर्णन किया गया है, वे मनुस्मृति से कुछ भिन्न हैं।<ref>डॉ० श्रीमती विभा, [https://ia800408.us.archive.org/34/items/DharmaShastraSahityaMeinApradhEvamDandVidhanDr.Vibha/Dharma%20Shastra%20Sahitya%20Mein%20Apradh%20Evam%20Dand%20Vidhan%20-%20Dr.%20Vibha.pdf धर्मशास्त्र साहित्य में अपराध एवं दण्ड विधान], सन २००२, संस्कृत ग्रन्थागार, दिल्ली (पृ० ३०)।</ref>
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==दण्ड का महत्व==
  
 
==उद्धरण॥ References==
 
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[[Category:हिंदी भाषा के लेख]]
 
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Revision as of 16:41, 28 October 2025

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दण्ड व्यवस्था (संस्कृतः दण्डनीतिः) का स्वरूप अत्यंत सूक्ष्म, धर्म आधारित और राजकीय नीति से जुड़ा हुआ है। यह व्यवस्था धर्म, न्याय और राजधर्म पर आधारित है। अर्थशास्त्र में राजा के चार उपायों - साम, दान, दण्ड और भेद के रूप में दण्डनीति को राजनीति का प्रमुख अंग माना है। जिसका उद्देश्य राज्य की स्थिरता, समाज में नैतिकता और अनुशासन की स्थापना करना था। वेद, पुराण, स्मृतिशास्त्र, रामायण एवं महाभारत आदि में दण्ड व्यवस्था का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है।

परिचय॥ Introduction

प्राचीन भारतीय न्यायिक क्षेत्र में दण्ड व्यवस्था को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। तत्कालीन समाज में जीवन के क्रिया कलापों में भी दण्ड का प्रमुख योगदान है। महाभारत में दण्ड का सार्वभौम रूप प्रस्तुत हुआ है, उसमें कहा गया है कि -

राजदण्डभयादेके नराः पापं न कुर्वते। यमदण्डभयादेके परलोकभयादपि॥ (महाभारत)[1]

दण्ड प्रजा पर शासन करता एवं उसकी रक्षा करता है। जब संसार शयन करता है तब दण्ड जागता है अतः विद्वान् उसे ही धर्म मानते हैं। दण्ड के ही भय से मनुष्य कर्त्तव्य करता है, यह भय राजदण्ड मूलक हो अथवा यमदण्ड मूलक दण्डभय से ही मनुष्य पाप प्रवृत्ति क्षीण होती है।[2] अरिषड् वर्ग काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य , प्रभृति कुप्रवृत्तियों पर नियंत्रण अत्यावश्यक है। दण्ड की आवश्यकता एवं महत्ता पर प्रकाश डालते हुये वेदव्यास जी कहते हैं कि ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यासी इन चारों आश्रमों में स्थित मनुष्य दण्ड के भय से ही अपने-अपने मार्ग पर स्थिर रहते हैं -

ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थश्च भिक्षकः। दण्डस्यैव भयादेते मनुष्यात् वर्त्मनि स्थिताः॥ (महाभारत)

दण्ड व्यवस्था के विलुप्त होते ही सर्वत्र वर्णसंकरता फैलने लगती है। कर्त्तव्याकर्त्तव्य, भक्ष्याभक्ष्य, पेयापेय आदि का विचार समाप्त होने लगता है। लोग एक दूसरे ही हिंसा करने लगते हैं। बलवान निर्बल को, धनवान निर्धन को सताने लगते हैं। अतः काल रूप यह दण्ड सृष्टि के आदि, मध्य और अन्त में जागता रहता है। यही समस्ता प्रजाओं का पालक है।[3]

स्मृतियों में दंड व्यवस्था॥ Penal system in Smritis

आचार्य कौटिल्य ने लोककल्याण के लिए आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्त्ता और दण्ड-नीति का उल्लेख किया है, जिसे सभी आचार्यों ने स्वीकार किया है। दण्ड की महत्ता पर प्रकाश डालते हुये मनु कहते हैं कि -

दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति। दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डः धर्मं विदुर्बुधाः॥ (मनु स्मृति)[4]

दण्ड धर्म, अर्थ और काम का रक्षक है। अतएव दण्ड को त्रिवर्ण रूप कहा गया है। दण्ड से ही धन-धान्य की रक्षा और अभिवृद्धि होती है। कितने ही अपराधी राजदण्ड के भय से अपराध नहीं करते हैं। दण्ड, उदण्ड मनुष्यों का दमन करता है। दुष्टों को दण्ड देता है। अतः दमन के कारण ही विद्वान जन इसे दण्ड कहते हैं। जैसा कि -

वाचा दण्डो ब्राह्मणानां क्षत्रियाणां भुजार्पणम्। दान दण्डाः स्मृता वैश्या निर्दण्डः शूद्र उच्यते॥ (महाभारत)[1]

महाभारत काल में वर्णव्यवस्था अनुसार यदि ब्राह्मण अपराध करे तो वाणी से उसको अपमानित करना ही उसका दण्ड है। क्षत्रिय को भोजन मात्र के लिये वेतन देकर उससे कार्य लेना उसका दण्ड है। वैश्यों से जुर्माना के रूप में धन वसूल करना उसका दण्ड है, किन्तु शूद्र दण्ड रहित कहे गये हैं। प्राचीन भारत में दण्ड का उद्देश्य अपराध की निवृत्ति एवं समाज कल्याण था।[5]

दण्ड व्यवस्था एवं मानसिक परिष्कार

प्राचीन भारतवर्ष में दण्ड-व्यवस्था का परम उद्देश्य अपराध-निवृत्ति तथा लोककल्याण की प्रतिष्ठा था। दण्ड का प्रयोजन केवल दमन न होकर अपराधी के संस्कारपरिवर्तन में निहित था। अतः दण्ड-विधान में प्रायश्चित्त का विशेष प्राधान्य प्राप्त था, जिससे अपराधी पुनः शुद्धि एवं पावनता की अवस्था को प्राप्त हो सके। धर्मशास्त्रज्ञों के मत में अपराध-निवारण के लिये बहुविध दण्ड-प्रणालियाँ प्रचलित थीं। जैसे मनुस्मृति -

वाग्दण्डं प्रथमं कुर्याद्धिग्दण्डं तदनन्तरम्। तृतीयं धनदण्डं तु वधदण्डमतः परम्॥ (मनुस्मृति)

याज्ञवल्क्यस्मृति -

धिग्दण्डस्त्वथवाग्दण्डो धनदण्डोवधस्तथा। योज्या व्यस्ताः समस्ता व ह्यपराधवशादिमे॥ (याज्ञवल्क्यस्मृति)

मनु, याज्ञवल्क्य तथा बृहस्पति ने चार प्रमुख दण्ड-विधियों का निर्देशन किया है -

  1. वाक्-दण्ड
  2. धिक्-दण्ड
  3. धन-दण्ड
  4. वध-दण्ड

ये दण्ड अपराध की प्रकृति के अनुसार पृथक-पृथक या सम्मिलित रूप में भी प्रयोग किए जाते थे। वाक्-दण्ड और धिक्-दण्ड का प्रयोग प्रायः अपराधी के सुधार के लिए किया जाता था। वाक्-दण्ड में अपराधी को उपदेशात्मक वचनों द्वारा यह समझाया जाता था कि उसका कृत्य अनुचित है और भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए। धिक्-दण्ड में इससे एक कदम आगे बढ़कर अपराधी की निंदा या धिक्कार की जाती थी, जैसे – 'तुम्हें धिक्कार है', 'तुम पाप के भागी हो' या 'तुम दुष्ट आचरण करने वाले हो।' विचारशील और संवेदनशील व्यक्तियों के लिए ये दोनों प्रकार के दण्ड अपराध से निवृत्त होने हेतु पर्याप्त माने जाते थे।

  • मनु के अनुसार, दण्ड प्रदान करने की क्रमबद्ध प्रक्रिया में पहले वाक्-दण्ड, फिर धिक्-दण्ड, उसके पश्चात अर्थ-दण्ड और अंत में आवश्यकता पड़ने पर वध-दण्ड दिया जाना चाहिए।
  • वृहस्पति के अनुसार गुरुजनों, पुरोहितों, आचार्यों तथा पुत्रों को शारीरिक दण्ड से मुक्त रखा गया था, उन्हें केवल वाक् या धिक्-दण्ड ही दिया जाता था।
  • जबकि महापातक अपराधों के लिए शारीरिक या वध-दण्ड का विधान था।
  • वाक्-दण्ड और धिक्-दण्ड प्राड्विवाक (न्यायाधीश) द्वारा तथा वध-दण्ड राज द्वारा प्रदान किया जाता था।

व्यवहार के अट्ठारह प्रकार

मनु, याज्ञवल्क्य तथा नारद स्मृतियों में अपराध तथा दण्ड व्यवस्था का विस्तृत वर्णन किया गया है। धर्मशास्त्र में उन विषयों को जिनके अन्तर्गत विवाद उत्पन्न हो सकता है उन्हें अठारह शीर्षकों में रखा है -[6]

प्रत्यहं देशदृष्टैश्च शास्त्रदृष्टैश्च हेतुभिः। अष्टादशसु मार्गेषु निबद्धानि पृथक्पृथक्॥

तेषां आद्यं ऋणादानं निक्षेपोऽस्वामिविक्रयः। संभूय च समुत्थानं दत्तस्यानपकर्म च॥

वेतनस्यैव चादानं संविदश्च व्यतिक्रमः। क्रयविक्रयानुशयो विवादः स्वामिपालयोः॥

सीमाविवादधर्मश्च पारुष्ये दण्डवाचिके। स्तेयं च साहसं चैव स्त्रीसंग्रहणं एव च॥

स्त्रीपुंधर्मो विभागश्च द्यूतं आह्वय एव च। पदान्यष्टादशैतानि व्यवहारस्थिताविह॥ (मनु स्मृति)[7]

भाषार्थ - प्रतिदिन देश की परंपरा और शास्त्रों में बताए गए वाक्यों के द्वारा, अष्टादश (18) व्यवहारपदों का उल्लेख है- अर्थात् वे अठारह प्रकार के न्यायिक विषय (cases or legal proceedings) जिन पर राज्य में न्याय किया जाता है। ये सब पृथक-पृथक रूप से निर्धारित हैं -

  1. ऋणदान - इसमें ऋण के लेने देने से उत्पन्न होने वाले विवाद आते हैं।
  2. निक्षेप - इसके अन्तर्गत अपनी वस्तु को दूसरे के पास धरोहर रखने से उत्पन्न विवाद आते हैं।
  3. अस्वामी विक्रय - अधिकार न होते हुये दूसरे की वस्तु बेच देना।
  4. संभूय समुत्थान - अनेक जनों का मिलकर साँझे में व्यवसाय करना।
  5. दत्तस्य अनपाकर्म - कोई वस्तु देकर फिर क्रोध आदि लोभ के कारण बदल जाना।
  6. वेतन का न देना - किसी से काम लेकर उसका मेहनताना न देना।
  7. संविद का व्यतिक्रम - कोई व्यवस्था किसी के साथ करके उसे पूरा न करना।
  8. क्रय विक्रय का अनुशय - किसी वस्तु के खरीदने या बेचने के बाद में असंतोष होना।
  9. स्वामी और पशुपालन का विवाद - चरवाहे की असावधानता से जानवरों की मृत्यु आदि के संबंध में।
  10. ग्राम आदि की सीमा का विवाद - मकान आदि की सीमा विवाद भी इसी में आता है।
  11. वाक पारूष्य - गाली गलौच करना पारूष्य
  12. दण्ड पारुष्य - मारपीट
  13. स्तेय (चोरी) - यह कृत्य स्वामी से छिपकर होता है।
  14. सहस-डकैती - बल पूर्वक स्वामी की उपस्थिति में धन का हरण।
  15. स्त्री संग्रहण - स्त्रियों के साथ व्यभिचार
  16. स्त्री पुंधर्म - स्त्री और पुरुष (पत्नी-पति) के आपस में विवाद।
  17. विभाग-दाय विभाग - पैतृक संपत्ति आदि का विभाजन।
  18. द्यूत और समाहृय - दोनों जुआँ के अन्तर्गत आते हैं। प्राणी रहित पदार्थों के द्वारा ताश, चौपड, जुआ, द्यूत कहलाता है। प्राणियों के द्वारा तीतर, बटेर आदि का युद्ध घुडदौड आदि समाहृय।

व्यवहार के इन अठारह पदों का वर्णन मनुस्मृति में किया गया है। नारद स्मृति में व्यवहार के जिन अठारह पदों का वर्णन किया गया है, वे मनुस्मृति से कुछ भिन्न हैं।[8]

दण्ड का महत्व

उद्धरण॥ References

  1. 1.0 1.1 महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय-१५, श्लोक-११।
  2. शोध कर्ता - बबिता मौर्या, प्राचीन भारतीय दण्ड व्यवस्था का समाजशास्त्रीय अध्ययन, सन २०१२, शोधकेन्द्र- वीर बहादुर सिंह पूर्वाञ्चल विश्वविद्यालय, जौनपुर (पृ० १३)।
  3. डॉ० भक्तवत्सल, महामानवचम्पू काव्य में वर्णित दण्ड विधान की आवश्यकता, सन २०१८, जर्नल ऑफ इमर्जिंग टेक्नोलॉजीज एण्ड इनोवेटिव रिसर्च (पृ० ६४७)।
  4. मनु स्मृति, अध्याय- ७, श्लोक- १८।
  5. शोधार्थी- रश्मि तिवारी, याज्ञवल्क्यस्मृति में न्याय एवं दण्ड व्यवस्था, सन २००४, राजशास्त्र विभाग- महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी (पृ० २११)।
  6. रेखा सिंह, राकेश शर्मा, मनु याज्ञवल्क्य एवं नारद स्मृतियों में वर्णित दण्ड व्यवस्था, सन २०१६, इण्टरनेशनल जर्नल ऑफ ह्यूमैनिटीज एण्ड सोशल साइंस रिसर्च (पृ० १०८)।
  7. मनु स्मृति, अध्याय- ८, श्लोक - ३-७।
  8. डॉ० श्रीमती विभा, धर्मशास्त्र साहित्य में अपराध एवं दण्ड विधान, सन २००२, संस्कृत ग्रन्थागार, दिल्ली (पृ० ३०)।