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| − | वैदिक वाङ्गमय में वास्तु का सामान्य अर्थ गृह या भवन है। विशेष अर्थ-गृह निर्माण हेतु उपयुक्त भूखण्ड। वास्तुशास्त्र का अभिप्राय भवन निर्माण संबंधी नियमों एवं सिद्धान्तों के प्रतिपादक शास्त्र से है। वास्तुशास्त्र का मुख्य प्रतिपाद्य विषय आवासीय, व्यावसायिक एवं धार्मिक भवनों आदि के लिये भूखण्ड चयन एवं निर्माण आदि के सिद्धान्तों, उपायों एवं साधनों की व्याख्या करना है। इन सिद्धान्तों एवं नियमों के पीछे पंचतत्त्वों एवं प्राकृतिक शक्तियों का अद्भुत सामंजस्य छिपा है। वास्तुशास्त्र में गृहनिर्माण की परम्परा अत्यन्त सुनियोजित विधि से पाण्डुलिपियों में संरक्षित है, जिसके अध्ययन से ज्ञात होता है कि यह समस्त ज्ञानधारा एकाएक नहीं उत्पन्न हुई परन्तु कई पीढियों के अनुसंधान एवं दैवीय शक्तियों से सम्पन्न आचार्यों के परिश्रम के फलस्वरूप वर्तमान कालमें हमें प्राप्त हुई है। वास्तुशास्त्रीय ग्रन्थों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि वास्तु शब्द व्यापक अर्थ को समाहित किये हुये है। यह शब्द मात्र गृह के अर्थ में नहीं परन्तु गृह से संबंध रखने वाले धार्मिक, व्यवसायिक तथा समस्त भवनों के अर्थ में प्रयुक्त है। वास्तुशास्त्र के इस स्वरूप का वर्णन अनेक आचार्यों ने समय-समय पर किया। वास्तुशास्त्र के अध्ययन से भारतीय संस्कृति की वैज्ञानिक एवं समृद्ध परम्परा का ज्ञान होता है। वास्तुशास्त्रीय परम्परामें देश-काल तथा परिस्थिति के आधार पर कालक्रमानुसार परिवर्तन भी होता रहा है, परन्तु इस परिवर्तन में वास्तुशास्त्र के मूलभूत सिद्धान्तों सिद्धान्तों का पूर्णतः संरक्षण किया गया, जिससे आज भी हमें वास्तुशास्त्र का वही शुद्ध स्वरूप प्राप्त होता है।
| + | वास्तु शास्त्र (संस्कृतः वास्तुशास्त्रम्) भारतीय स्थापत्य कला का भवनों, मंदिरों और नगरों के निर्माण संबंधी सिद्धान्तों के प्रतिपादक शास्त्र से है। निवास-योग्य भूमि की संज्ञा वास्तु है और वास्तु अर्थात भवन से संबंधित शास्त्र को वास्तुशास्त्र कहा जाता है। वास्तुशास्त्र से संबंधित जानकारी हमें संस्कृत वांग्मय में समरांगणसूत्रधार, मयमतम्, मानसार, बृहत्संहिता, मत्स्यपुराण, अग्निपुराण, कौटिल्य के अर्थशास्त्र एवं शुक्रनीतिसार आदि ग्रन्थों से प्राप्त होती है। इन ग्रन्थों में नगर-व्यवस्था, भवन-निर्माण, वास्तुमंडल, प्रासादमंडल, मूर्तिकला, कूप, वापी, तडाग आदि के निर्माण करने के विषय में बताया गया है। |
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| − | == परिचय॥ Introduction== | + | ==परिचय॥ Introduction == |
| | मनुष्य के निवास योग्य भूमि एवं भवन को वास्तु कहते हैं और जिस शास्त्र में भूमि एवं भवन में आवास करने वाले लोगों को अधिकतम सुविधा और सुरक्षा प्राप्ति के नियमों, सिद्धान्तों तथा प्रविधियों का प्रतिपादन किया जाता है। उस शास्त्र को वास्तु शास्त्र कहते हैं। वास्तुशास्त्र को गृह निर्माण का विज्ञान कहते है। यह प्राचीन उपदेशो का संकलन है, जो बताते है, कि कैसे प्रकृति के नियम हमारे आवास को प्रभावित करते हैं। इसे वास्तु शास्त्र, वास्तु वेद और वास्तुविद्या के नाम से भी जाना जाता है। वर्तमान समय में भी यह प्रासंगिक है, और भवन निर्माण में इसे विचार किया जाता है। | | मनुष्य के निवास योग्य भूमि एवं भवन को वास्तु कहते हैं और जिस शास्त्र में भूमि एवं भवन में आवास करने वाले लोगों को अधिकतम सुविधा और सुरक्षा प्राप्ति के नियमों, सिद्धान्तों तथा प्रविधियों का प्रतिपादन किया जाता है। उस शास्त्र को वास्तु शास्त्र कहते हैं। वास्तुशास्त्र को गृह निर्माण का विज्ञान कहते है। यह प्राचीन उपदेशो का संकलन है, जो बताते है, कि कैसे प्रकृति के नियम हमारे आवास को प्रभावित करते हैं। इसे वास्तु शास्त्र, वास्तु वेद और वास्तुविद्या के नाम से भी जाना जाता है। वर्तमान समय में भी यह प्रासंगिक है, और भवन निर्माण में इसे विचार किया जाता है। |
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| | ==परिभाषा॥ Definition== | | ==परिभाषा॥ Definition== |
| − | वास्तु शब्द की व्युत्पत्ति वस् निवासे- एक स्थान में वास करने की द्योतक, धातु से निष्पन्न होता है। वास्तु का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है -<blockquote>वसन्ति प्राणिनः अस्मिन्निति वास्तुः, तत्संबंधिशास्त्रं वास्तुशास्त्रम्।(शब्द कल्पद्रुम)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%83/%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%83 शब्दकल्पद्रुम] पृ०४/३५८।</ref></blockquote>अर्थ - वह भवन जिसमें प्राणी निवास करते हैं, उसे वास्तु एवं वास्तु संबंधित विषयों का जिसमें वर्णन हो उसे वास्तुशास्त्र कहते हैं।<blockquote>गृह रचनावच्छिन्नभूमे।(अमर कोश)</blockquote>अर्थ- गृह रचना के योग्य अविच्छिन्न भूमि को वास्तु कहते हैं। | + | वास्तु शब्द की व्युत्पत्ति वस् निवासे- एक स्थान में वास करने की द्योतक, धातु से निष्पन्न होता है। वास्तु का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है -<blockquote>वसन्ति प्राणिनः अस्मिन्निति वास्तुः, तत्संबंधिशास्त्रं वास्तुशास्त्रम्। (शब्द कल्पद्रुम)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%83/%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%83 शब्दकल्पद्रुम] पृ०४/३५८।</ref></blockquote>अर्थ - वह भवन जिसमें प्राणी निवास करते हैं, उसे वास्तु एवं वास्तु संबंधित विषयों का जिसमें वर्णन हो उसे वास्तुशास्त्र कहते हैं।<blockquote>गृह रचनावच्छिन्नभूमे। (अमर कोश)</blockquote>अर्थ- गृह रचना के योग्य अविच्छिन्न भूमि को वास्तु कहते हैं। |
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| | '''वास्तु के पर्यायवाची शब्द-''' आय, गृहभूः, गृहार्हभूमिः, वास्तु, वेश्मभूमिः और सदनभूमिः आदि शास्त्रों में वास्तु के पर्यायवाचक शब्द कहे गये हैं।<ref>डॉ० सुरकान्त झा, ज्योतिर्विज्ञानशब्दकोषः, सन् २००९, वाराणसीः चौखम्बा कृष्णदास अकादमी, मुहूर्त्तादिसर्ग, (पृ०१३७)।</ref>इसी प्रकार शब्दरत्नावली में वास्तु के लिये वाटिका एवं गृहपोतक शब्द प्रयुक्त हुये हैं। | | '''वास्तु के पर्यायवाची शब्द-''' आय, गृहभूः, गृहार्हभूमिः, वास्तु, वेश्मभूमिः और सदनभूमिः आदि शास्त्रों में वास्तु के पर्यायवाचक शब्द कहे गये हैं।<ref>डॉ० सुरकान्त झा, ज्योतिर्विज्ञानशब्दकोषः, सन् २००९, वाराणसीः चौखम्बा कृष्णदास अकादमी, मुहूर्त्तादिसर्ग, (पृ०१३७)।</ref>इसी प्रकार शब्दरत्नावली में वास्तु के लिये वाटिका एवं गृहपोतक शब्द प्रयुक्त हुये हैं। |
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| | #'''मन्दिर आदि-''' धार्मिक वास्तुओं में मन्दिर आदि से तात्पर्य पूजा स्थलों से है। | | #'''मन्दिर आदि-''' धार्मिक वास्तुओं में मन्दिर आदि से तात्पर्य पूजा स्थलों से है। |
| | #'''मठ आदि-''' मठ का अर्थ-आश्रम, बौद्ध विहार आदि से है। | | #'''मठ आदि-''' मठ का अर्थ-आश्रम, बौद्ध विहार आदि से है। |
| − | #'''धर्मशाला आदि''' | + | #'''धर्मशाला आदि -''' |
| − | #'''जलाशय''' | + | #'''जलाशय -''' |
| − | #'''धार्मिक''' | + | #'''धार्मिक -''' |
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| − | वास्तुशास्त्र के स्वरूप को समझने के लिये वास्तुपुरुष के उद्भव की कथा जानना चाहिये। वास्तुपुरुष की उत्पत्ति के विषय में अनेक प्रसंग प्रचलित हैं। बृहत्संहिता के वास्तुविद्या अध्याय में वराहमिहिर जी ने वर्णन किया है कि-<blockquote>किमपि किल भूतमभवद्रुन्धनं रोदसी शरीरेण। तदमरगणेन सहसा विनिगृह्याधेमुखं न्यस्तम् ॥ | + | वास्तुशास्त्र के स्वरूप को समझने के लिये वास्तुपुरुष के उद्भव की कथा जानना चाहिये। वास्तुपुरुष की उत्पत्ति के विषय में अनेक प्रसंग प्रचलित हैं। बृहत्संहिता के वास्तुविद्या अध्याय में वराहमिहिर जी ने वर्णन किया है कि -<blockquote>किमपि किल भूतमभवद्रुन्धनं रोदसी शरीरेण। तदमरगणेन सहसा विनिगृह्याधेमुखं न्यस्तम्॥ |
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| − | यत्रा च येन गृहीतं विबुधेनाधिष्ठितः स तत्रैव। तदमरमयं विधता वास्तुनरं कल्पयामास॥(बृहत्संहिता)</blockquote>अर्थात् पूर्वकाल में कोई अद्भुत अज्ञात स्वरूप व नाम का एक प्राणी प्रकट हुआ, उसका विशाल(विकराल) शरीर भूमिसे आकाश तक व्याप्त था, उसे देवताओं ने देखकर सहसा पकड नीचे मुख करके उसके शरीर पर यथास्थान अपना निवास बना लिया(जिस देव ने उसके शरीर के जिस भाग को पकडा, वे उसी स्थान पर व्यवस्थित हो गये) उस अज्ञात प्राणी को ब्रह्मा जी ने देवमय वास्तु-पुरुष के नाम से उद्घोषित किया।<ref>शोध कर्ता - रितु चौधरी, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/139768 मयमतम् में वास्तु विज्ञान], अध्याय-०३, सन २०१४, बनस्थली यूनिवर्सिटी (पृ० १३२)।</ref> | + | यत्रा च येन गृहीतं विबुधेनाधिष्ठितः स तत्रैव। तदमरमयं विधता वास्तुनरं कल्पयामास॥(बृहत्संहिता)</blockquote>अर्थात पूर्वकाल में कोई अद्भुत अज्ञात स्वरूप व नाम का एक प्राणी प्रकट हुआ, उसका विशाल(विकराल) शरीर भूमिसे आकाश तक व्याप्त था, उसे देवताओं ने देखकर सहसा पकड नीचे मुख करके उसके शरीर पर यथास्थान अपना निवास बना लिया(जिस देव ने उसके शरीर के जिस भाग को पकडा, वे उसी स्थान पर व्यवस्थित हो गये) उस अज्ञात प्राणी को ब्रह्मा जी ने देवमय वास्तु-पुरुष के नाम से उद्घोषित किया।<ref>शोध कर्ता - रितु चौधरी, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/139768 मयमतम् में वास्तु विज्ञान], अध्याय-०३, सन २०१४, बनस्थली यूनिवर्सिटी (पृ० १३२)।</ref> |
| | ==वास्तु-पुरुष के उत्पत्ति की कथा॥ The story of the origin of Vastu-Purusha== | | ==वास्तु-पुरुष के उत्पत्ति की कथा॥ The story of the origin of Vastu-Purusha== |
| − | मतस्य पुराण के वास्तु-प्रादुर्भाव नामक अध्याय में वास्तु पुरुष की उत्पत्ति में वास्तु पुरुष के जन्म से सम्बंधित कथा का उल्लेख मिलता है-<blockquote>तदिदानीं प्रवक्ष्यामि वास्तुशास्त्रमनुतामम् । पुरान्धकवधे घोरे घोररूपस्य शूलिनः॥ | + | मतस्य पुराण के वास्तु-प्रादुर्भाव नामक अध्याय में वास्तु पुरुष की उत्पत्ति में वास्तु पुरुष के जन्म से सम्बंधित कथा का उल्लेख मिलता है-<blockquote>तदिदानीं प्रवक्ष्यामि वास्तुशास्त्रमनुतामम्। पुरान्धकवधे घोरे घोररूपस्य शूलिनः॥ |
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| − | ललाटस्वेदसलिलमपतद् भुवि भीषणम् ।करालवदनं तस्माद् भूतमुद्भूतमुल्बणम्॥</blockquote>एक बार भगवान् शिव एवं दानवों में भयंकर युद्ध छिड़ा जो बहुत लम्बे समय तक चलता रहा। दानवों से लड़ते लड़ते भगवान् शिव जब बहुत थक गए तब उनके शरीर से अत्यंत ज़ोर से पसीना बहना शुरू हो गया। शिव के पसीना की बूंदों से एक पुरुष का जन्म हुआ। वह देखने में ही बहुत क्रूर लग रहा था। शिव जी के पसीने से जन्मा यह पुरुष बहुत भूखा था इसलिए उसने शिव जी की आज्ञा लेकर उनके स्थान पर युद्ध लड़ा व सब दानवों को देखते ही देखते खा गया और जो बचे वो भयभीत हो भाग खड़े हुए। यह देख भगवान् शिव उस पर अत्यंत ही प्रसन्न हुए और उससे वरदान मांगने को कहा। समस्त दानवों को खाने के बाद भी शिव जी के पसीने से जन्मे पुरुष की भूख शांत नहीं हुई थी एवं वह बहुत भूखा था इसलिए उसने भगवान शिव से वरदान माँगा- | + | ललाटस्वेदसलिलमपतद् भुवि भीषणम् ।करालवदनं तस्माद् भूतमुद्भूतमुल्बणम्॥ (मत्स्य पुराण)</blockquote>एक बार भगवान् शिव एवं दानवों में भयंकर युद्ध छिड़ा जो बहुत लम्बे समय तक चलता रहा। दानवों से लड़ते लड़ते भगवान् शिव जब बहुत थक गए तब उनके शरीर से अत्यंत ज़ोर से पसीना बहना शुरू हो गया। शिव के पसीना की बूंदों से एक पुरुष का जन्म हुआ। वह देखने में ही बहुत क्रूर लग रहा था। शिव जी के पसीने से जन्मा यह पुरुष बहुत भूखा था इसलिए उसने शिव जी की आज्ञा लेकर उनके स्थान पर युद्ध लड़ा व सब दानवों को देखते ही देखते खा गया और जो बचे वो भयभीत हो भाग खड़े हुए। यह देख भगवान् शिव उस पर अत्यंत ही प्रसन्न हुए और उससे वरदान मांगने को कहा। समस्त दानवों को खाने के बाद भी शिव जी के पसीने से जन्मे पुरुष की भूख शांत नहीं हुई थी एवं वह बहुत भूखा था इसलिए उसने भगवान शिव से वरदान माँगा- |
| | हे प्रभु कृपा कर मुझे तीनों लोक खाने की अनुमति प्रदान करें। यह सुनकर भोलेनाथ शिवजी ने "तथास्तु" कह उसे वरदान स्वरुप आज्ञा प्रदान कर दी। फलस्वरूप उसने तीनो लोकों को अपने अधिकार में ले लिया, व सर्वप्रथम वह पृथ्वी लोक को खाने के लिए चला। यह देख ब्रह्माजी, शिवजी अन्य देवगण एवं राक्षस भी भयभीत हो गए। उसे पृथ्वी को खाने से रोकने के लिए सभी देवता व राक्षस अचानक से उस पर चढ़ बैठे। देवताओं एवं राक्षसों द्वारा अचानक दिए आघात से यह पुरुष अपने आप को संभाल नहीं पाया व पृथ्वी पर औंधे मुँह जा गिरा। तब भयभीत हुये देवताओं तथा ब्रह्मा, शिव, दानव, दैत्य और राक्षसों द्वारा वह स्तम्भित कर दिया गया। उस समय जिसने उसे जहाँ पर आक्रान्त कर रखा था, वह वहीं निवास करने लगा। इस प्रकार सभी देवताओंके निवास के कारण वह वास्तु नामसे विख्यात हुआ।<ref name=":0">हनुमान प्रसाद पोद्दार,(सचित्रहिन्दी अनुवाद सहित) मत्स्यपुराण,सन् २०१९, गोरखपुरः गीताप्रेस अध्याय २५२ श्लोक ५/७, (पृ०९७८)</ref> | | हे प्रभु कृपा कर मुझे तीनों लोक खाने की अनुमति प्रदान करें। यह सुनकर भोलेनाथ शिवजी ने "तथास्तु" कह उसे वरदान स्वरुप आज्ञा प्रदान कर दी। फलस्वरूप उसने तीनो लोकों को अपने अधिकार में ले लिया, व सर्वप्रथम वह पृथ्वी लोक को खाने के लिए चला। यह देख ब्रह्माजी, शिवजी अन्य देवगण एवं राक्षस भी भयभीत हो गए। उसे पृथ्वी को खाने से रोकने के लिए सभी देवता व राक्षस अचानक से उस पर चढ़ बैठे। देवताओं एवं राक्षसों द्वारा अचानक दिए आघात से यह पुरुष अपने आप को संभाल नहीं पाया व पृथ्वी पर औंधे मुँह जा गिरा। तब भयभीत हुये देवताओं तथा ब्रह्मा, शिव, दानव, दैत्य और राक्षसों द्वारा वह स्तम्भित कर दिया गया। उस समय जिसने उसे जहाँ पर आक्रान्त कर रखा था, वह वहीं निवास करने लगा। इस प्रकार सभी देवताओंके निवास के कारण वह वास्तु नामसे विख्यात हुआ।<ref name=":0">हनुमान प्रसाद पोद्दार,(सचित्रहिन्दी अनुवाद सहित) मत्स्यपुराण,सन् २०१९, गोरखपुरः गीताप्रेस अध्याय २५२ श्लोक ५/७, (पृ०९७८)</ref> |
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| | वितथो बृहत्क्षतयुतः पार्श्वे जठरे स्थितो विवस्वांश्च। ऊरू जानु च जङ्घे स्फिगिति यमाद्यैः परिगृहीताः॥ | | वितथो बृहत्क्षतयुतः पार्श्वे जठरे स्थितो विवस्वांश्च। ऊरू जानु च जङ्घे स्फिगिति यमाद्यैः परिगृहीताः॥ |
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| − | एते दक्षिणपार्श्वे स्थानेश्वेवं च वामपार्श्वस्थाः।मेढ्रे शक्रजयन्तौ हृदये ब्रह्मा पिताऽङ्घ्रिगतः॥(बृहत् सं०) </blockquote>अर्थात | + | एते दक्षिणपार्श्वे स्थानेश्वेवं च वामपार्श्वस्थाः।मेढ्रे शक्रजयन्तौ हृदये ब्रह्मा पिताऽङ्घ्रिगतः॥ (बृहत्संहिता) </blockquote>अर्थात |
| | {| class="wikitable" | | {| class="wikitable" |
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| | !देवता | | !देवता |
| | !शरीर अंग | | !शरीर अंग |
| − | !देवता | + | ! देवता |
| | !शरीर में निवासांग | | !शरीर में निवासांग |
| | !देवता | | !देवता |
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| | |लिंगमें | | |लिंगमें |
| | |31. अदिति | | |31. अदिति |
| − | | कानमें | + | |कानमें |
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| | |2. पर्जन्य | | |2. पर्जन्य |
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| | |17. पितृगण | | |17. पितृगण |
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| − | | 32. दिति | + | |32. दिति |
| | |नेत्रमें | | |नेत्रमें |
| | |- | | |- |
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| | |10. पूष | | |10. पूष |
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| − | |25. रोग | + | | 25. रोग |
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| | |40.बिबुधाधिप | | |40.बिबुधाधिप |
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| | गृहस्थस्य क्रियाः सर्वा न सिद्ध्यन्ति गृहं विना। यतस्तस्माद् गृहारम्भ-प्रवेश समयं ब्रुवे॥</blockquote> | | गृहस्थस्य क्रियाः सर्वा न सिद्ध्यन्ति गृहं विना। यतस्तस्माद् गृहारम्भ-प्रवेश समयं ब्रुवे॥</blockquote> |
| − | दूसरे के घर में किये गये श्रौत स्मार्त आदि कर्म सम्पूर्ण फलप्रद नहीं होते हैं। क्योंकि उस घर का जो स्वामी(मालिक) है वह उस फल को प्राप्त कर लेता है। गृहस्थ की कोई भी क्रिया वास्तु(निवास योग्य भूमि/घर) के विना सिद्ध नहीं होती है इसलिये वास्तु का होना अत्यन्त आवश्यक है।इस प्रकार वास्तुशास्त्र के महत्व का जितना विमर्श किया जयेगा, उतना ही महत्वपूर्ण तथ्य सामने आता जायेग। शास्त्रों में कहा गया है कि-<blockquote>कोटिघ्नं तृणजे पुण्यं मृण्मये दशसंगुणम्। ऐष्टिके शतकोटिघ्न शैलेत्वनन्तं फलं भवेत् ॥(वास्तुरत्नाकर)</blockquote>भावार्थ यह है कि खर-पतवार युक्त गृह-निर्माण करने पर लाख गुना पुण्य, मिट्टी से गृह-निर्माण दश लाख गुना, ईंटों के द्वारा सौ लाख गुना(कोटि) एवं पत्थरों से घर निर्माण करने पर अनन्त गुना पुण्य की प्राप्ति होती है। | + | दूसरे के घर में किये गये श्रौत स्मार्त आदि कर्म सम्पूर्ण फलप्रद नहीं होते हैं। क्योंकि उस घर का जो स्वामी(मालिक) है वह उस फल को प्राप्त कर लेता है। गृहस्थ की कोई भी क्रिया वास्तु(निवास योग्य भूमि/घर) के विना सिद्ध नहीं होती है इसलिये वास्तु का होना अत्यन्त आवश्यक है।इस प्रकार वास्तुशास्त्र के महत्व का जितना विमर्श किया जयेगा, उतना ही महत्वपूर्ण तथ्य सामने आता जायेग। शास्त्रों में कहा गया है कि-<blockquote>कोटिघ्नं तृणजे पुण्यं मृण्मये दशसंगुणम्। ऐष्टिके शतकोटिघ्न शैलेत्वनन्तं फलं भवेत्॥ (वास्तुरत्नाकर)</blockquote>भावार्थ यह है कि खर-पतवार युक्त गृह-निर्माण करने पर लाख गुना पुण्य, मिट्टी से गृह-निर्माण दश लाख गुना, ईंटों के द्वारा सौ लाख गुना(कोटि) एवं पत्थरों से घर निर्माण करने पर अनन्त गुना पुण्य की प्राप्ति होती है। |
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| − | ==वास्तुशास्त्र के विभाग॥ Vastushastra ke Vibhaga== | + | == वास्तुशास्त्र के विभाग॥ Vastushastra ke Vibhaga== |
| | वास्तुशास्त्रमें काल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और काल का ज्ञान कालविधानशास्त्र ज्योतिष के अधीन है अतः काल के ज्ञान के लिये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान होना आवश्यक है। वास्तुशास्त्र के अनेक आचार्यों ने ज्योतिष को वास्तुशास्त्र का अंग मानते हुये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान वास्तुशास्त्र के अध्येताओं के लिये अनिवार्य कहा है। समरांगणसूत्रधारकार ने वास्तुशास्त्र के आठ अंगों का वर्णन करते हुये अष्टांगवास्तुशास्त्र का विवेचन किया है, और इन आठ अंगों के ज्ञान के विना वास्तुशास्त्र का सम्यक् प्रकार से ज्ञान होना संभव नहीं है। वास्तुशास्त्र के आठ अंग इस प्रकार हैं -<blockquote>सामुद्रं गणितं चैव ज्योतिषं छन्द एव च। सिराज्ञानं तथा शिल्पं यन्त्रकर्म विधिस्तथा॥ | | वास्तुशास्त्रमें काल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और काल का ज्ञान कालविधानशास्त्र ज्योतिष के अधीन है अतः काल के ज्ञान के लिये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान होना आवश्यक है। वास्तुशास्त्र के अनेक आचार्यों ने ज्योतिष को वास्तुशास्त्र का अंग मानते हुये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान वास्तुशास्त्र के अध्येताओं के लिये अनिवार्य कहा है। समरांगणसूत्रधारकार ने वास्तुशास्त्र के आठ अंगों का वर्णन करते हुये अष्टांगवास्तुशास्त्र का विवेचन किया है, और इन आठ अंगों के ज्ञान के विना वास्तुशास्त्र का सम्यक् प्रकार से ज्ञान होना संभव नहीं है। वास्तुशास्त्र के आठ अंग इस प्रकार हैं -<blockquote>सामुद्रं गणितं चैव ज्योतिषं छन्द एव च। सिराज्ञानं तथा शिल्पं यन्त्रकर्म विधिस्तथा॥ |
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| Line 223: |
Line 224: |
| | ==वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक॥ Vastushastra ke Pravartaka== | | ==वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक॥ Vastushastra ke Pravartaka== |
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| − | भारतीय परम्परा में प्रत्येक भारतीयशास्त्र के उद्भव के मूल में ईश्वरीय तत्व को स्वीकार किया गया है। वास्तुशास्त्र का मूल उद्गम ब्रह्मा जी से माना जाता है। ब्रह्माजी को वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक के रूप में माना जाता है। पुराणों के अनुसार पृथु ने जब पृथ्वी को समतल किया और ब्रह्मा जी से पृथ्वी पर नगर-ग्राम आदि की रचना के सम्बन्ध में निवेदन किया-<ref>शोधकर्ता-शिवम अत्रे, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/518806 भारतीय वास्तु शास्त्र का वैज्ञानिक अध्ययन], सन २०२३, शोधकेन्द्र-बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी (पृ० २३)।</ref><blockquote>ग्रामान् पुरः पत्तनानि दुर्गाणि विविधानि च। घोषान् व्रजान् सशिविरानाकारान् खेटखर्वटान् । यथा सुखं वसन्ति स्म तत्र तत्राकुतोभयाः॥</blockquote>पृथु के इस निवेदन को सुनकर ब्रह्मा जी ने अपने चारों मुखों से विश्वकर्मा आदि की उत्पत्ति की। ब्रह्मा के पूर्व मुख से विश्वभू, दक्षिण मुख को विश्वविद्, पश्चिम मुख को विश्वस्रष्टा और उत्तरमुख को विश्वस्थ कहा जाता है। इस शास्त्र के अध्येताओं और आचार्यों की अपनी विशिष्ट परम्परा थी। इसका शास्त्रीय और प्रायोगिक स्वरूप ऋषिगणों के ही परिश्रम का परिणाम था। वास्तुकला मर्मज्ञ सूत्रधार के गुणों की चर्चा करते हैं-<blockquote>सुशीलश्चतुरो दक्षः शास्त्रज्ञो लोभवर्जितः। क्षमायुक्तो द्विजश्चैव सूत्रधार स उच्यते॥ | + | भारतीय परम्परा में प्रत्येक भारतीयशास्त्र के उद्भव के मूल में ईश्वरीय तत्व को स्वीकार किया गया है। वास्तुशास्त्र का मूल उद्गम ब्रह्मा जी से माना जाता है। ब्रह्माजी को वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक के रूप में माना जाता है। पुराणों के अनुसार पृथु ने जब पृथ्वी को समतल किया और ब्रह्मा जी से पृथ्वी पर नगर-ग्राम आदि की रचना के सम्बन्ध में निवेदन किया-<ref>शोधकर्ता-शिवम अत्रे, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/518806 भारतीय वास्तु शास्त्र का वैज्ञानिक अध्ययन], सन २०२३, शोधकेन्द्र-बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी (पृ० २३)।</ref><blockquote>ग्रामान् पुरः पत्तनानि दुर्गाणि विविधानि च। घोषान् व्रजान् सशिविरानाकारान् खेटखर्वटान्। यथा सुखं वसन्ति स्म तत्र तत्राकुतोभयाः॥</blockquote>पृथु के इस निवेदन को सुनकर ब्रह्मा जी ने अपने चारों मुखों से विश्वकर्मा आदि की उत्पत्ति की। ब्रह्मा के पूर्व मुख से विश्वभू, दक्षिण मुख को विश्वविद्, पश्चिम मुख को विश्वस्रष्टा और उत्तरमुख को विश्वस्थ कहा जाता है। इस शास्त्र के अध्येताओं और आचार्यों की अपनी विशिष्ट परम्परा थी। इसका शास्त्रीय और प्रायोगिक स्वरूप ऋषिगणों के ही परिश्रम का परिणाम था। वास्तुकला मर्मज्ञ सूत्रधार के गुणों की चर्चा करते हैं-<blockquote>सुशीलश्चतुरो दक्षः शास्त्रज्ञो लोभवर्जितः। क्षमायुक्तो द्विजश्चैव सूत्रधार स उच्यते॥ |
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| | ततो बभूवुः पुत्राश्च नवैते शिल्पकारिणः।मालाकारकर्मकार्रशंखकारकुविन्दकाः॥ | | ततो बभूवुः पुत्राश्च नवैते शिल्पकारिणः।मालाकारकर्मकार्रशंखकारकुविन्दकाः॥ |
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| | ब्रह्माकुमारो नन्दीशः शौनको गर्ग एव च। वासुदेवोऽनिरुद्धश्च तथा शुक्रबृहस्पती॥ | | ब्रह्माकुमारो नन्दीशः शौनको गर्ग एव च। वासुदेवोऽनिरुद्धश्च तथा शुक्रबृहस्पती॥ |
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| − | अष्टादशैते विख्याता वास्तुशास्त्रोपदेशकाः। संक्षेपेणोपदिष्टन्तु मनवे मत्स्यरूपिणा॥(मत्स्य पुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A8%E0%A5%AB%E0%A5%A8 मत्स्य पुराण], अध्याय २५२, श्लोक २/४।</ref></blockquote>अर्थात् 1.भृगु 2.अत्रि 3.वसिष्ठ 4.विश्वकर्मा 5.मय 6.नारद 7.नग्नजित् 8.विशालाक्ष 9.पुरन्दर 10.ब्रह्म 11.कुमार 12.नन्दीश 13.शौनक 14.गर्ग 15.वासुदेव 16.अनिरुद्ध 17.शुक्र 18.बृहस्पति। ये अठारह वास्तुशास्त्र प्रवर्तक मत्स्यपुराण के अनुसार हैं। अग्निपुराण में वास्तुशास्त्र प्रवर्तकों की सूची इससे भी लम्बी है, जिसमें पच्चीस आचार्यों के नामों का उल्लेख किया गया है-<blockquote>व्यस्तानि मुनिभिर्लोके पञ्चविंशतिसंख्यया। हयशीर्षं तन्त्रमाद्यं तन्त्रं त्रैलोक्यमोहनम्॥ | + | अष्टादशैते विख्याता वास्तुशास्त्रोपदेशकाः। संक्षेपेणोपदिष्टन्तु मनवे मत्स्यरूपिणा॥ (मत्स्य पुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A8%E0%A5%AB%E0%A5%A8 मत्स्य पुराण], अध्याय २५२, श्लोक २/४।</ref></blockquote>अर्थात् 1.भृगु 2.अत्रि 3.वसिष्ठ 4.विश्वकर्मा 5.मय 6.नारद 7.नग्नजित् 8.विशालाक्ष 9.पुरन्दर 10.ब्रह्म 11.कुमार 12.नन्दीश 13.शौनक 14.गर्ग 15.वासुदेव 16.अनिरुद्ध 17.शुक्र 18.बृहस्पति। ये अठारह वास्तुशास्त्र प्रवर्तक मत्स्यपुराण के अनुसार हैं। अग्निपुराण में वास्तुशास्त्र प्रवर्तकों की सूची इससे भी लम्बी है, जिसमें पच्चीस आचार्यों के नामों का उल्लेख किया गया है-<blockquote>व्यस्तानि मुनिभिर्लोके पञ्चविंशतिसंख्यया। हयशीर्षं तन्त्रमाद्यं तन्त्रं त्रैलोक्यमोहनम्॥ |
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| | वैभवं पौष्करं तन्त्रं प्रह्लादं गार्ग्यगालवम् ।नारदीयं च सम्प्रश्नं शाण्डिल्यं वैश्वकं तथा॥ | | वैभवं पौष्करं तन्त्रं प्रह्लादं गार्ग्यगालवम् ।नारदीयं च सम्प्रश्नं शाण्डिल्यं वैश्वकं तथा॥ |
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| | आत्रेयं नारसिंहाख्यमानन्दाख्यं तथारुणकम् । बौधायनं तथार्षं तु विश्वोक्तं तस्य सारतः॥ (अग्नि पुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A9%E0%A5%AF अग्निपुराण], अध्यायः ३९, श्लोक २/५।</ref></blockquote>विश्वकर्मा प्रकाश में भी वास्तुके प्रवर्तक आचार्यों के बारे में संक्षिप्त उल्लेख है -<blockquote>इति प्रोक्तं वास्तुशास्त्रं पूर्वंगर्गाय धीमते। गर्गात्पराशरः प्राप्तस्तस्मात्प्राप्तो वृहद्रथः॥ | | आत्रेयं नारसिंहाख्यमानन्दाख्यं तथारुणकम् । बौधायनं तथार्षं तु विश्वोक्तं तस्य सारतः॥ (अग्नि पुराण)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A9%E0%A5%AF अग्निपुराण], अध्यायः ३९, श्लोक २/५।</ref></blockquote>विश्वकर्मा प्रकाश में भी वास्तुके प्रवर्तक आचार्यों के बारे में संक्षिप्त उल्लेख है -<blockquote>इति प्रोक्तं वास्तुशास्त्रं पूर्वंगर्गाय धीमते। गर्गात्पराशरः प्राप्तस्तस्मात्प्राप्तो वृहद्रथः॥ |
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| − | वृहद्रथाद्विश्वकर्मा प्राप्तवान् वास्तुशास्त्रकम् ।स एव विश्वकर्मा जगतो हितायाकथयत्पुनः॥(विश्वकर्म वास्तुप्रकाश)</blockquote>इस प्रकार विश्वकर्माप्रकाश में उल्लिखित नामों के अनुसार गर्ग, पराशर, वृहद्रथ तथा विश्वकर्मा ये वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक आचार्य हुये हैं। उपरोक्त विवरण से प्रतीत होता है कि मत्स्यपुराणोक्त वास्तुप्रवर्तकों की नामावली की अपेक्षा अग्नि पुराण की सूची काल्पनिक है जिसमें पुनरुक्ति दोष है। इन सूचियों के आचार्यों में कुछ ज्ञान-विज्ञान के देवता, कुछ वैदिक या पौराणिक ऋषि, कुछ असुर और कुछ सामान्य शिल्पज्ञ हैं।<ref>बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास, प्रो०देवी प्रसाद त्रिपाठी, वास्तुविद्या, सन् २०१२, लखनऊःउत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, (पृ०७६)।</ref> | + | वृहद्रथाद्विश्वकर्मा प्राप्तवान् वास्तुशास्त्रकम् ।स एव विश्वकर्मा जगतो हितायाकथयत्पुनः॥ (विश्वकर्म वास्तुप्रकाश)</blockquote>इस प्रकार विश्वकर्माप्रकाश में उल्लिखित नामों के अनुसार गर्ग, पराशर, वृहद्रथ तथा विश्वकर्मा ये वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक आचार्य हुये हैं। उपरोक्त विवरण से प्रतीत होता है कि मत्स्यपुराणोक्त वास्तुप्रवर्तकों की नामावली की अपेक्षा अग्नि पुराण की सूची काल्पनिक है जिसमें पुनरुक्ति दोष है। इन सूचियों के आचार्यों में कुछ ज्ञान-विज्ञान के देवता, कुछ वैदिक या पौराणिक ऋषि, कुछ असुर और कुछ सामान्य शिल्पज्ञ हैं।<ref>बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास, प्रो०देवी प्रसाद त्रिपाठी, वास्तुविद्या, सन् २०१२, लखनऊःउत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, (पृ०७६)।</ref> |
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| | इसी प्रकार से रामायणकालमें वास्तुविद् के रूप मेंआचार्य नल और नील का वर्णन प्राप्त होता है। इन्होंने ही समुद्र पर सेतु का निर्माण किया था। एवं महाभारत कालमें लाक्षागृह का निर्माण करने वाले आचार्य पुरोचन प्रमुख वास्तुविद् थे। | | इसी प्रकार से रामायणकालमें वास्तुविद् के रूप मेंआचार्य नल और नील का वर्णन प्राप्त होता है। इन्होंने ही समुद्र पर सेतु का निर्माण किया था। एवं महाभारत कालमें लाक्षागृह का निर्माण करने वाले आचार्य पुरोचन प्रमुख वास्तुविद् थे। |
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| − | == वास्तुशास्त्र का प्रयोजन एवं उपयोगिता॥ Purpose and utility of Vastu Shastra== | + | ==वास्तुशास्त्र का प्रयोजन एवं उपयोगिता॥ Purpose and utility of Vastu Shastra == |
| | भारतीय मनीषियों ने सदैव प्रकृति रूपी माँ की गोद में ही जीवन व्यतीत करने का आदेश और उपदेश अपने ग्रन्थों में दिया है। वास्तुशास्त्र भी मनुष्य को यही उपदेश देता है। घर मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। प्रत्येक प्राणी अपने लिये घर की व्यवस्था करता है। पक्षी भी अपने लिये घोंसले बनाते हैं। वस्तुतः निवासस्थान ही सुख प्राप्ति और आत्मरक्षा का उत्तम साधन है। जैसा कि कहा गया है-<ref>शैल त्रिपाठी, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/268604 संस्कृत वांङ्मय में निरूपित वास्तु के मूल तत्व], सन २०१४, छत्रपति साहूजी महाराज यूनिवर्सिटी (पृ० २)।</ref><blockquote>स्त्रीपुत्रादिकभोगसौख्यजननं धर्मार्थकामप्रदं। जन्तुनामयनं सुखास्पदमिदं शीताम्बुघर्मापहम्॥ | | भारतीय मनीषियों ने सदैव प्रकृति रूपी माँ की गोद में ही जीवन व्यतीत करने का आदेश और उपदेश अपने ग्रन्थों में दिया है। वास्तुशास्त्र भी मनुष्य को यही उपदेश देता है। घर मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। प्रत्येक प्राणी अपने लिये घर की व्यवस्था करता है। पक्षी भी अपने लिये घोंसले बनाते हैं। वस्तुतः निवासस्थान ही सुख प्राप्ति और आत्मरक्षा का उत्तम साधन है। जैसा कि कहा गया है-<ref>शैल त्रिपाठी, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/268604 संस्कृत वांङ्मय में निरूपित वास्तु के मूल तत्व], सन २०१४, छत्रपति साहूजी महाराज यूनिवर्सिटी (पृ० २)।</ref><blockquote>स्त्रीपुत्रादिकभोगसौख्यजननं धर्मार्थकामप्रदं। जन्तुनामयनं सुखास्पदमिदं शीताम्बुघर्मापहम्॥ |
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| − | वापी देव गृहादिपुण्यमखिलं गेहात्समुत्पद्यते। गेहं पूर्वमुशन्ति तेन विबुधाः श्री विश्वकर्मादयः॥()</blockquote>अर्थ- स्त्री, पुत्र आदि के भोग का सुख धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति, कुएँ, जलाशय और देवालय आदि के निर्माण का पुण्य, घर में ही प्राप्त होता है। | + | वापी देव गृहादिपुण्यमखिलं गेहात्समुत्पद्यते। गेहं पूर्वमुशन्ति तेन विबुधाः श्री विश्वकर्मादयः॥</blockquote>अर्थ- स्त्री, पुत्र आदि के भोग का सुख धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति, कुएँ, जलाशय और देवालय आदि के निर्माण का पुण्य, घर में ही प्राप्त होता है। |
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| | इस प्रकार से घर सभी प्रकार के सुखों का साधन है। भारतीय संस्कृति में घर केवल ईंट-पत्थर और लकडी से निर्मित भवनमात्र ही नहीं है। किन्तु घर की प्रत्येक दिशा में, कोने में, प्रत्येक भाग में एक देवता का निवास है। जो कि घर को भी एक मंदिर की भाँति पूज्य बना देता है। जिसमें निवास करने वाला मनुष्य भौतिक उन्नति के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर निरन्तर अग्रसर होते हुये धर्म, अर्थ और काम का उपभोग करते हुये अन्ततोगत्वा मोक्ष की प्राप्ति कर पुरुषार्थ चतुष्टय का सधक बन जाता है। ऐसे ही घर का निर्माण करना भारतीय वास्तुशास्त्र का वास्तविक प्रयोजन है। | | इस प्रकार से घर सभी प्रकार के सुखों का साधन है। भारतीय संस्कृति में घर केवल ईंट-पत्थर और लकडी से निर्मित भवनमात्र ही नहीं है। किन्तु घर की प्रत्येक दिशा में, कोने में, प्रत्येक भाग में एक देवता का निवास है। जो कि घर को भी एक मंदिर की भाँति पूज्य बना देता है। जिसमें निवास करने वाला मनुष्य भौतिक उन्नति के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर निरन्तर अग्रसर होते हुये धर्म, अर्थ और काम का उपभोग करते हुये अन्ततोगत्वा मोक्ष की प्राप्ति कर पुरुषार्थ चतुष्टय का सधक बन जाता है। ऐसे ही घर का निर्माण करना भारतीय वास्तुशास्त्र का वास्तविक प्रयोजन है। |
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| | '''गृहवाटिका में त्याज्य वृक्ष॥ Grhavatika mein Tyajya Vraksha''' | | '''गृहवाटिका में त्याज्य वृक्ष॥ Grhavatika mein Tyajya Vraksha''' |
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| − | ऐसे वृक्ष जिन्हैं भवन के आस-पास लगाने से भवन-स्वामी को अनेक प्रकार के कष्ट हो सकते हैं, वे वृक्ष गृहवाटिका में त्याज्य रखने चाहिये। वराहमिहिर ने इस विषय में कहा है-<blockquote>आसन्नाः कण्टकिनो रिपुभयदाः क्षीरिणोऽर्थनाशाय।फलिनः प्रजाक्षयकराः दारुण्यपि वर्जयेदेषाम्॥ | + | ऐसे वृक्ष जिन्हैं भवन के आस-पास लगाने से भवन-स्वामी को अनेक प्रकार के कष्ट हो सकते हैं, वे वृक्ष गृहवाटिका में त्याज्य रखने चाहिये। वराहमिहिर ने इस विषय में कहा है-<blockquote>आसन्नाः कण्टकिनो रिपुभयदाः क्षीरिणोऽर्थनाशाय। फलिनः प्रजाक्षयकराः दारुण्यपि वर्जयेदेषाम्॥ |
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| − | छिद्याद्यदि न तरुंस्ताँस्तदन्तरे पूजितान्वपेदन्यान्।पुन्नागाशोकारिष्टवकुलपनसान् शमीशालौ॥</blockquote>भाषार्थ- भवन के पास काँटेदार वृक्ष जैसे बेर, बबूल, कटारि आदि नहीं लगाने चाहिये। गृह-वाटिका में काँटेदार वृक्ष होने से गृह-स्वामी को शत्रुभय, दूध वाले वृक्षों से धन-हानि तथा फल वाले वृक्षों से सन्तति कष्ट होता है। अतः इन वृक्षों और मकान के बीच में शुभदायक वृक्ष जैसे-नागकेसर, अशोक, अरिष्ट, मौलश्री, दाडिम, कटहल, शमी और शाल इन वृक्षों को लगा देना चाहिये। ऐसा करने से अशुभ वृक्षों का दोष दूर हो जाता है। | + | छिद्याद्यदि न तरुंस्ताँस्तदन्तरे पूजितान्वपेदन्यान्। पुन्नागाशोकारिष्टवकुलपनसान् शमीशालौ॥</blockquote>भाषार्थ- भवन के पास काँटेदार वृक्ष जैसे बेर, बबूल, कटारि आदि नहीं लगाने चाहिये। गृह-वाटिका में काँटेदार वृक्ष होने से गृह-स्वामी को शत्रुभय, दूध वाले वृक्षों से धन-हानि तथा फल वाले वृक्षों से सन्तति कष्ट होता है। अतः इन वृक्षों और मकान के बीच में शुभदायक वृक्ष जैसे-नागकेसर, अशोक, अरिष्ट, मौलश्री, दाडिम, कटहल, शमी और शाल इन वृक्षों को लगा देना चाहिये। ऐसा करने से अशुभ वृक्षों का दोष दूर हो जाता है। |
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| − | ==सारांश॥ Summary== | + | == सारांश॥ Summary== |
| − | भारतीय वास्तुकला के विज्ञान से संबंधित कुछ प्रमुख कार्यों का विस्तृत अध्ययन किया गया है, जैसे - समरांगण-सूत्रधार, विश्वकर्मा वास्तु-प्रकाश, अपराजितापृच्छा, मानसार, मयमतम् और शिल्परत्न। | + | भारतीय वास्तुकला के विज्ञान से संबंधित कुछ प्रमुख कार्यों का विस्तृत अध्ययन किया गया है, जैसे - समरांगण-सूत्रधार, विश्वकर्मा वास्तु-प्रकाश, अपराजितापृच्छा, मानसार, मयमतम् और शिल्परत्न। वैदिक वाङ्गमय में वास्तु का सामान्य अर्थ गृह या भवन है। विशेष अर्थ-गृह निर्माण हेतु उपयुक्त भूखण्ड। वास्तुशास्त्र का अभिप्राय भवन निर्माण संबंधी नियमों एवं सिद्धान्तों के प्रतिपादक शास्त्र से है। वास्तुशास्त्र का मुख्य प्रतिपाद्य विषय आवासीय, व्यावसायिक एवं धार्मिक भवनों आदि के लिये भूखण्ड चयन एवं निर्माण आदि के सिद्धान्तों, उपायों एवं साधनों की व्याख्या करना है। इन सिद्धान्तों एवं नियमों के पीछे पंचतत्त्वों एवं प्राकृतिक शक्तियों का अद्भुत सामंजस्य छिपा है। वास्तुशास्त्र में गृहनिर्माण की परम्परा अत्यन्त सुनियोजित विधि से पाण्डुलिपियों में संरक्षित है, जिसके अध्ययन से ज्ञात होता है कि यह समस्त ज्ञानधारा एकाएक नहीं उत्पन्न हुई परन्तु कई पीढियों के अनुसंधान एवं दैवीय शक्तियों से सम्पन्न आचार्यों के परिश्रम के फलस्वरूप वर्तमान कालमें हमें प्राप्त हुई है। वास्तुशास्त्रीय ग्रन्थों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि वास्तु शब्द व्यापक अर्थ को समाहित किये हुये है। यह शब्द मात्र गृह के अर्थ में नहीं परन्तु गृह से संबंध रखने वाले धार्मिक, व्यवसायिक तथा समस्त भवनों के अर्थ में प्रयुक्त है। वास्तुशास्त्र के इस स्वरूप का वर्णन अनेक आचार्यों ने समय-समय पर किया। वास्तुशास्त्र के अध्ययन से भारतीय संस्कृति की वैज्ञानिक एवं समृद्ध परम्परा का ज्ञान होता है। वास्तुशास्त्रीय परम्परामें देश-काल तथा परिस्थिति के आधार पर कालक्रमानुसार परिवर्तन भी होता रहा है, परन्तु इस परिवर्तन में वास्तुशास्त्र के मूलभूत सिद्धान्तों सिद्धान्तों का पूर्णतः संरक्षण किया गया, जिससे आज भी हमें वास्तुशास्त्र का वही शुद्ध स्वरूप प्राप्त होता है। |
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| | ==उद्धरण॥ References== | | ==उद्धरण॥ References== |