Difference between revisions of "Groundwater (भूगर्भ जल)"
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==भूमिगत जलशिराओं का सिद्धान्त== | ==भूमिगत जलशिराओं का सिद्धान्त== | ||
| − | बृहत्संहिता में आचार्य वराहमिहिर ने जिन वृक्षों से जल विचार कहा है, वे सभी वृक्ष स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होते हैं। आचार्य वराहमिहिर ने जल की गहराई मापने के लिये पुरुष शब्द का प्रयोग किया है। ऊपर की ओर हाथ उठाकर पुरुष की लम्बाई को पुरुष का मान, माना जायेगा। अतः औसतन १२० अंगुल - १ पुरुष का पैमाना हुआ तथा ९०" इंच, ७.६ फिट, २२५ से. मी. या २.२५ मी. का एक पुरुष हुआ। | + | बृहत्संहिता में आचार्य वराहमिहिर ने जिन वृक्षों से जल विचार कहा है, वे सभी वृक्ष स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होते हैं। आचार्य वराहमिहिर ने जल की गहराई मापने के लिये पुरुष शब्द का प्रयोग किया है। ऊपर की ओर हाथ उठाकर पुरुष की लम्बाई को पुरुष का मान, माना जायेगा। अतः औसतन १२० अंगुल - १ पुरुष का पैमाना हुआ तथा ९०" इंच, ७.६ फिट, २२५ से. मी. या २.२५ मी. का एक पुरुष हुआ। बृहत्संहिता में - |
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|+बृहत्संहिता- वृक्ष तथा बाँबी के अनुसार भूगर्भ जल का विचार | |+बृहत्संहिता- वृक्ष तथा बाँबी के अनुसार भूगर्भ जल का विचार | ||
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!जल की दिशा | !जल की दिशा | ||
!गहराई | !गहराई | ||
| − | !जन्तु, मिट्टी व पत्थर की प्राप्ति | + | !जन्तु, मिट्टी व पत्थर की प्राप्ति |
!भूगर्भ जल के गुण धर्म | !भूगर्भ जल के गुण धर्म | ||
!भूगर्भजल की मात्रा | !भूगर्भजल की मात्रा | ||
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|बृ० सं० ५४/६८ | |बृ० सं० ५४/६८ | ||
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| − | |बेर (Ziphus mauritiana) व करील | + | |बेर (Ziphus mauritiana) व करील |
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| − | | | + | |पश्चिम में तीन हाथ दूर |
| − | | | + | |अट्ठारह पुरुष (१६२०") |
| − | | | + | |जल |
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| − | | | + | |प्रचुर मात्रा में |
| − | | | + | | बृ० सं० ५४/७४ |
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| − | |पीलु (Salvadora oleiodes), व बेर | + | |पीलु (Salvadora oleiodes), व बेर |
| − | | | + | |<nowiki>-</nowiki> |
| − | | | + | |तीन हाथ पूर्व में |
| − | | | + | |बीस पुरुष (१८००") |
| − | | | + | |जल |
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| − | | | + | |प्रचुर मात्रा में |
| − | | | + | |बृ० सं० ५४/७५ |
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|जामुन (Syzygium cumini) | |जामुन (Syzygium cumini) | ||
| − | | | + | |पूर्व की ओर |
| − | | | + | |दक्षिण में तीन हाथ वृक्ष से दूर |
| − | | | + | |दो पुरुष (१८०") |
| − | | | + | |४५" बाद मछली, काला पत्थर, काली मिट्टी, जलशिरा (असितपाषाणम्) |
| − | | | + | | मीठा |
| − | | | + | |प्रचुर मात्रा में |
| − | | | + | |बृ० सं० ५४/९-१० |
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|गूलर (Ficus racemosa) | |गूलर (Ficus racemosa) | ||
| − | | | + | |<nowiki>-</nowiki> |
| − | | | + | |तीन हाथ पश्चिम में |
| − | | | + | |ढाई पुरुष (२२५") |
| − | | | + | |४५"बाद सफेद सांप, काला पत्थर, जलशिरा |
| − | | | + | |मीठा |
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| − | | | + | |बृ० सं० ५४/११ |
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|निर्गुंडी (Vitex negando) | |निर्गुंडी (Vitex negando) | ||
| − | | | + | |पास में ही |
| − | | | + | | दक्षिण की ओर तीन हाथ दूर |
| − | | | + | |सवा दो पुरुष (२२२.५") |
| − | | | + | |<nowiki>-</nowiki> |
| − | | | + | |मीठा |
| − | | | + | |प्रचुर मात्रा में |
| − | | | + | |बृ० सं० ५४/१४-१५ |
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|करंज (Pongamia pinnata) | |करंज (Pongamia pinnata) | ||
| − | | | + | |दक्षिण दिशा |
| − | | | + | |दो हाथ दक्षिण में |
| − | | | + | |साढेतीन पुरुष (३१५') |
| − | | | + | |४१" बाद कछुआ, तत्पश्चात जल |
| − | | | + | |<nowiki>-</nowiki> |
| − | | | + | | कम (स्वल्पम्) |
| − | | | + | |बृ० सं० ५४/३३-३४ |
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|महुआ (Madhuca longifalia) | |महुआ (Madhuca longifalia) | ||
| − | | | + | |उत्तर में |
| − | | | + | |पश्चिम की ओर पाँच हाथ बाद |
| − | | | + | |साढेसात पुरुष (६७५") |
| − | | | + | |९०" बाद साँप, धुएंरंगत वाली मिट्टी, मेहरुन रंगत का पत्थर पश्चात जल |
| − | | | + | |मीठा |
| − | | | + | |प्रचुर मात्रा में |
| − | | | + | |बृ० सं० ५४/३५-३६ |
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| − | |तिलक | + | |तिलक |
| − | | | + | |दक्षिण में कुशाघास उगी हो |
| − | | | + | |पाँच हाथ पश्चिम में |
| − | | | + | |पाँच पुरुष (४५०") |
| − | | | + | |जल |
| − | | | + | |मीठा |
| − | | | + | |प्रचुर मात्रा में |
| − | | | + | |बृ० सं० ५४/३५-३६ |
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|कदंब (Neolumorrckia cadamba) | |कदंब (Neolumorrckia cadamba) | ||
| − | | | + | |पश्चिम में |
| − | | | + | |तीन हाथ दक्षिण में |
| − | | | + | |छह पुरुष (५४० ") |
| − | | | + | |९०" बाद सुनहरा मेंढक, पीली मिट्टी, जल |
| − | | | + | |लोह स्वाद |
| − | | | + | |प्रचुर मात्रा में |
| − | | | + | |बृ० सं० ५४/३८-३९ |
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|पीला धतूरा (Datura stramonium) | |पीला धतूरा (Datura stramonium) | ||
| − | | | + | |बायीं या उत्तर दिशा में बाँबी |
| − | | | + | |दो हाथ बाद दक्षिण में |
| − | | | + | |पन्द्रह पुरुष (१३५०") |
| − | | | + | |४५" बाद ताम्ररंग का नेवला, ताम्ररंग का पत्थर, लाल मिट्टी |
| − | | | + | | खारा |
| − | | | + | |<nowiki>-</nowiki> |
| − | | | + | |बृ० सं० ५४/७०-७२ |
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|पीलु (Salvadora oleiodes) | |पीलु (Salvadora oleiodes) | ||
| − | | | + | |ईशान कोण में, साँप चीटीं की बाँबी में |
| − | | | + | |साढेचार हाथ पश्चिम में |
| − | | | + | |पाँच पुरुष (४५०") |
| − | | | + | | ९०" इंच बाद मेंढक, पीली मिट्टी, हरी चमकीली मिट्टी, पत्थर अन्त में जल। |
| − | | | + | |खारा |
| − | | | + | |प्रचुर मात्रा में |
| − | | | + | |बृ० सं० ५४/६३-६४ |
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|ताड़ (Borassus flabellifer), नारियल (Cocos Hucifera), खजूर (Phocnix sylvestris) | |ताड़ (Borassus flabellifer), नारियल (Cocos Hucifera), खजूर (Phocnix sylvestris) | ||
| − | | | + | |पास बाँबी में |
| − | | | + | | छह हाथ पश्चिम में |
| − | | | + | |चार पुरुष (३६०") |
| − | | | + | |जल |
| − | | | + | |<nowiki>-</nowiki> |
| − | | | + | |<nowiki>-</nowiki> |
| − | + | |बृ० सं० ५४/४० | |
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==जल विज्ञान का लक्षण व स्वरूप== | ==जल विज्ञान का लक्षण व स्वरूप== | ||
अमरकोष के अनुसार आप, अंभ, वारि, तोय, सलिल, जल, अमृत, जीवन, पेय, पानी, उदक इत्यादि जल के ही पर्यायवाची शब्द हैं। वराहमिहिर ने जल विज्ञान को उदकार्गल कहा है। उदक जल को कहते हैं, अर्गला जल के ऊपर आई हुई रुकावट को कहते हैं। वराहमिहिर के ही शब्दों में जिस विद्या से भूमिगत जल का ज्ञान होता है उस धर्म और यश को देने वाले ज्ञान को उदकार्गल कहते हैं - <blockquote>धर्म्यं यशस्यं च वदाम्यतोsहं दकार्गल येन जलोपलब्धिः। पुंसां यथांग्रेषु शिरास्तथैव क्षितावपि प्रोन्नतनिम्नसंस्थाः॥ (बृहत्संहिता)<ref>डॉ० जितेन्द्र व्यास, [https://www.allresearchjournal.com/archives/2022/vol8issue5/PartB/8-5-33-660.pdf जल विज्ञान व वनस्पति विज्ञानः प्राकृतिक संसाधन शास्त्र की ज्योतिषीय प्रासंगिकता], सन् २०२२, इन्टरनेशनल जर्नल ऑफ अप्लाईड रिसर्च (पृ० १३४)।</ref></blockquote>जिस तरह मनुष्यों के अंग में नाडियाँ है उसी तरह भूमि में ऊँची नीची जल की शिरायें (धारायें) बहती हैं। आकाश से केवल एक स्वाद वाला जल पृथ्वी पर गिरता है। किन्तु वही जल पृथ्वी की विशेषता से तत्तत्स्थान में अनेक प्रकार के रस और स्वाद वाला हो जाता है। भूमि के वर्ण और रस के समान, जल का रस और वर्ण और रस व स्वाद का परीक्षण करना चाहिए। | अमरकोष के अनुसार आप, अंभ, वारि, तोय, सलिल, जल, अमृत, जीवन, पेय, पानी, उदक इत्यादि जल के ही पर्यायवाची शब्द हैं। वराहमिहिर ने जल विज्ञान को उदकार्गल कहा है। उदक जल को कहते हैं, अर्गला जल के ऊपर आई हुई रुकावट को कहते हैं। वराहमिहिर के ही शब्दों में जिस विद्या से भूमिगत जल का ज्ञान होता है उस धर्म और यश को देने वाले ज्ञान को उदकार्गल कहते हैं - <blockquote>धर्म्यं यशस्यं च वदाम्यतोsहं दकार्गल येन जलोपलब्धिः। पुंसां यथांग्रेषु शिरास्तथैव क्षितावपि प्रोन्नतनिम्नसंस्थाः॥ (बृहत्संहिता)<ref>डॉ० जितेन्द्र व्यास, [https://www.allresearchjournal.com/archives/2022/vol8issue5/PartB/8-5-33-660.pdf जल विज्ञान व वनस्पति विज्ञानः प्राकृतिक संसाधन शास्त्र की ज्योतिषीय प्रासंगिकता], सन् २०२२, इन्टरनेशनल जर्नल ऑफ अप्लाईड रिसर्च (पृ० १३४)।</ref></blockquote>जिस तरह मनुष्यों के अंग में नाडियाँ है उसी तरह भूमि में ऊँची नीची जल की शिरायें (धारायें) बहती हैं। आकाश से केवल एक स्वाद वाला जल पृथ्वी पर गिरता है। किन्तु वही जल पृथ्वी की विशेषता से तत्तत्स्थान में अनेक प्रकार के रस और स्वाद वाला हो जाता है। भूमि के वर्ण और रस के समान, जल का रस और वर्ण और रस व स्वाद का परीक्षण करना चाहिए। | ||
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| + | अर्जेण्टीना में १९७७ ईस्वी में आयोजित युनाइटेड नेशन्स की इण्टरनेशनल कॉन्फ्रेंस में भूगर्भ जल के बारे में विचारणा हुई थी। इसमें बताया गया था कि विश्व में जल की ९५ प्रतिशत राशि समुद्रों एवं महासागरों में है। ४ प्रतिशत हिम बर्फ एवं स्थायी भूमि के स्वरूप में हैं। केवल १ प्रतिशत जल राशि ही भूगर्भ जल के रूप में प्राप्त होता है।<ref>टंकेश्वरी पटेल, [https://www.researchgate.net/publication/339378721_brhatsanhita_mem_bhugarbha_jalavidya बृहत्संहिता में भूगर्भ जलविद्या], सन् २०१५, देव संस्कृति इण्टरडिस्किप्लिनरी इण्टरनेशनल जर्नल (पृ० २६)।</ref> | ||
==सारांश॥ Summary== | ==सारांश॥ Summary== | ||
Revision as of 20:21, 5 February 2025
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भूगर्भ जल (संस्कृतः उदकार्गल) का तात्पर्य- भूस्तर के नीचे प्रवाहित सभी प्रकार के जल स्रोत से है। वेदों में जल की उपयोगिता और महत्व पर प्रकाश डालते हुये - जल को जीवन, अमृत, भेषज, रोगनाशक एवं आयुर्वर्धक कहा है। वराहमिहिर ने बृहत्संहिता में भूगर्भ जल की परिभाषा, जल चिन्हों का वैज्ञानिक प्रतिपादन, वृक्ष तथा बाँबी के लक्षण से जल विचार, तृण शाकादि के द्वारा जल विचार, भू-लक्षण के अनुसार जल विचार, अन्य चिन्हों से जल विचार एवं जल शोधन की विधि के विषय में उल्लेख किया गया है। भूगर्भीय जल अन्वेषण पद्धति का विस्तृत वर्णन है, जिसके द्वारा मानव समाज भूगर्भ जल प्राप्त कर लाभान्वित हो सकता है।[1]
परिचय॥ Introduction
भूगर्भीय जलान्वेषण का विज्ञान सर्वप्रथम वराहमिहिर के द्वारा बृहत्संहिता में प्रतिपादन किया गया है। जल वैज्ञानिक वराहमिहिर ने पृथिवी, समुद्र और अन्तरिक्ष तीनों क्षेत्रों के प्राकृतिक जलचक्र को संतुलित रखने के उद्देश्य से ही भूमिगत जलस्रोतों को खोजने और वहां कुएं, जलाशय आदि निर्माण करने वाली पर्यावरणमित्र जलसंग्रहण विधियों का भूगर्भीय परिस्थितियों के अनुरूप निरूपण किया है।[2] बृहत्संहिता में जल विज्ञान को दकार्गल कहा गया है। वराहमिहिर के अनुसार जिस विद्या से भूमिगत जल का ज्ञान होता है, उस धर्म तथा यश देने वाले ज्ञान को दकार्गल या उदकार्गल कहते हैं -
धर्म्यं यशस्यं च वदाम्यतोऽहं दगार्गलं येन जलोपलब्धिः। पुंसां यथाङ्गेषु शिरास्तथैव क्षितावपि प्रोन्नतनिम्नसंस्थाः॥ (बृहत्संहिता)[3]
भारतीय जलविज्ञान का सैद्धांतिक स्वरूप अन्तरिक्षगत मेघविज्ञान और वृष्टिविज्ञान के स्वरूप को जाने समझे बिना अधूरा ही है, मैंने अपने पिछ्ले दो लेखों में अन्तरिक्षगत मेघ विज्ञान, वृष्टि विज्ञान और वर्षा के पूर्वानुमानों से सम्बद्ध भारतीय मानसून विज्ञान के विविध पक्षों पर चर्चा की। अब इस लेख में विशुद्ध भूमिगत जलविज्ञान के बारे में प्राचीन भारतीय जलविज्ञान के महान वराहमिहिर प्रतिपादित भूगर्भीय जलान्वेषण विज्ञान के बारे में विशेष चर्चा की जा रही है।
भूमिगत जलशिराओं का सिद्धान्त
बृहत्संहिता में आचार्य वराहमिहिर ने जिन वृक्षों से जल विचार कहा है, वे सभी वृक्ष स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होते हैं। आचार्य वराहमिहिर ने जल की गहराई मापने के लिये पुरुष शब्द का प्रयोग किया है। ऊपर की ओर हाथ उठाकर पुरुष की लम्बाई को पुरुष का मान, माना जायेगा। अतः औसतन १२० अंगुल - १ पुरुष का पैमाना हुआ तथा ९०" इंच, ७.६ फिट, २२५ से. मी. या २.२५ मी. का एक पुरुष हुआ। बृहत्संहिता में -
| वृक्ष | बाँबी की दिशा | जल की दिशा | गहराई | जन्तु, मिट्टी व पत्थर की प्राप्ति | भूगर्भ जल के गुण धर्म | भूगर्भजल की मात्रा | श्लोक संख्या |
|---|---|---|---|---|---|---|---|
| करीर (Capparis decidua) | उत्तर की ओर | साढेचार हाथ दक्षिण में | दस पुरुष (९००") | ९०" बाद पीला मेंढक फिर जल | मीठा | - | बृ० सं० ५४/६८ |
| बेर (Ziphus mauritiana) व करील | - | पश्चिम में तीन हाथ दूर | अट्ठारह पुरुष (१६२०") | जल | - | प्रचुर मात्रा में | बृ० सं० ५४/७४ |
| पीलु (Salvadora oleiodes), व बेर | - | तीन हाथ पूर्व में | बीस पुरुष (१८००") | जल | - | प्रचुर मात्रा में | बृ० सं० ५४/७५ |
| जामुन (Syzygium cumini) | पूर्व की ओर | दक्षिण में तीन हाथ वृक्ष से दूर | दो पुरुष (१८०") | ४५" बाद मछली, काला पत्थर, काली मिट्टी, जलशिरा (असितपाषाणम्) | मीठा | प्रचुर मात्रा में | बृ० सं० ५४/९-१० |
| गूलर (Ficus racemosa) | - | तीन हाथ पश्चिम में | ढाई पुरुष (२२५") | ४५"बाद सफेद सांप, काला पत्थर, जलशिरा | मीठा | _ | बृ० सं० ५४/११ |
| निर्गुंडी (Vitex negando) | पास में ही | दक्षिण की ओर तीन हाथ दूर | सवा दो पुरुष (२२२.५") | - | मीठा | प्रचुर मात्रा में | बृ० सं० ५४/१४-१५ |
| करंज (Pongamia pinnata) | दक्षिण दिशा | दो हाथ दक्षिण में | साढेतीन पुरुष (३१५') | ४१" बाद कछुआ, तत्पश्चात जल | - | कम (स्वल्पम्) | बृ० सं० ५४/३३-३४ |
| महुआ (Madhuca longifalia) | उत्तर में | पश्चिम की ओर पाँच हाथ बाद | साढेसात पुरुष (६७५") | ९०" बाद साँप, धुएंरंगत वाली मिट्टी, मेहरुन रंगत का पत्थर पश्चात जल | मीठा | प्रचुर मात्रा में | बृ० सं० ५४/३५-३६ |
| तिलक | दक्षिण में कुशाघास उगी हो | पाँच हाथ पश्चिम में | पाँच पुरुष (४५०") | जल | मीठा | प्रचुर मात्रा में | बृ० सं० ५४/३५-३६ |
| कदंब (Neolumorrckia cadamba) | पश्चिम में | तीन हाथ दक्षिण में | छह पुरुष (५४० ") | ९०" बाद सुनहरा मेंढक, पीली मिट्टी, जल | लोह स्वाद | प्रचुर मात्रा में | बृ० सं० ५४/३८-३९ |
| पीला धतूरा (Datura stramonium) | बायीं या उत्तर दिशा में बाँबी | दो हाथ बाद दक्षिण में | पन्द्रह पुरुष (१३५०") | ४५" बाद ताम्ररंग का नेवला, ताम्ररंग का पत्थर, लाल मिट्टी | खारा | - | बृ० सं० ५४/७०-७२ |
| पीलु (Salvadora oleiodes) | ईशान कोण में, साँप चीटीं की बाँबी में | साढेचार हाथ पश्चिम में | पाँच पुरुष (४५०") | ९०" इंच बाद मेंढक, पीली मिट्टी, हरी चमकीली मिट्टी, पत्थर अन्त में जल। | खारा | प्रचुर मात्रा में | बृ० सं० ५४/६३-६४ |
| ताड़ (Borassus flabellifer), नारियल (Cocos Hucifera), खजूर (Phocnix sylvestris) | पास बाँबी में | छह हाथ पश्चिम में | चार पुरुष (३६०") | जल | - | - | बृ० सं० ५४/४० |
जल-स्रोतों का पता लगाना
ज्योतिष शास्त्र के संहिता स्कन्ध में जो क्षेत्र-विभाग बतलाए गए हैं उन क्षेत्रों में विभिन्न लक्षणों के आधार पर जल की स्थिति, शिरा व मात्रा का ज्ञान भी बतलाया गया है। भूमि को हमारे आचार्यों ने प्रायः चार क्षेत्रों में विभक्त कर जल की रीति बतलाई है। जल स्रोतों का पता लगाने के लिये दीमकों के मार्ग का पता लगाना अत्युत्तम साधन है।[4] इसके अतिरिक्त अन्य विधियों का भी वर्णन है -
- वेतस (वेदमजनूं) के वृक्ष से जल का ज्ञान -
- जामुन के वृक्ष से जल का ज्ञान
- गूलर के वृक्ष से जल का ज्ञान
- बेर के वृक्ष से जल का ज्ञान
- बहेड़े के वृक्ष से जल का ज्ञान
- महुए के वृक्ष से जल का ज्ञान
- कदंब के वृक्ष से जल का ज्ञान
- ताड़ या नारियल के वृक्ष से जल का ज्ञान
जल विज्ञान का लक्षण व स्वरूप
अमरकोष के अनुसार आप, अंभ, वारि, तोय, सलिल, जल, अमृत, जीवन, पेय, पानी, उदक इत्यादि जल के ही पर्यायवाची शब्द हैं। वराहमिहिर ने जल विज्ञान को उदकार्गल कहा है। उदक जल को कहते हैं, अर्गला जल के ऊपर आई हुई रुकावट को कहते हैं। वराहमिहिर के ही शब्दों में जिस विद्या से भूमिगत जल का ज्ञान होता है उस धर्म और यश को देने वाले ज्ञान को उदकार्गल कहते हैं -
धर्म्यं यशस्यं च वदाम्यतोsहं दकार्गल येन जलोपलब्धिः। पुंसां यथांग्रेषु शिरास्तथैव क्षितावपि प्रोन्नतनिम्नसंस्थाः॥ (बृहत्संहिता)[5]
जिस तरह मनुष्यों के अंग में नाडियाँ है उसी तरह भूमि में ऊँची नीची जल की शिरायें (धारायें) बहती हैं। आकाश से केवल एक स्वाद वाला जल पृथ्वी पर गिरता है। किन्तु वही जल पृथ्वी की विशेषता से तत्तत्स्थान में अनेक प्रकार के रस और स्वाद वाला हो जाता है। भूमि के वर्ण और रस के समान, जल का रस और वर्ण और रस व स्वाद का परीक्षण करना चाहिए।
भूगर्भ जल वर्तमान में महत्व
अर्जेण्टीना में १९७७ ईस्वी में आयोजित युनाइटेड नेशन्स की इण्टरनेशनल कॉन्फ्रेंस में भूगर्भ जल के बारे में विचारणा हुई थी। इसमें बताया गया था कि विश्व में जल की ९५ प्रतिशत राशि समुद्रों एवं महासागरों में है। ४ प्रतिशत हिम बर्फ एवं स्थायी भूमि के स्वरूप में हैं। केवल १ प्रतिशत जल राशि ही भूगर्भ जल के रूप में प्राप्त होता है।[6]
सारांश॥ Summary
आचार्य वराहमिहिर के ग्रन्थ बृहत्संहिता में वास्तुविद्या में जिस विद्या के ज्ञान से भूमिगत जल का ज्ञान किया जाए उस ज्ञान को दकार्गल कहा गया है। बृहत्संहिता के ५४वें अध्याय में कुल १२५ श्लोकों में इसका विस्तार से वर्णन है।[7] संसार के छ्ह रस अर्थात मधुर अम्ल लवण कटु कषाय और तिक्त रसों का निर्माण इसी जल से विभिन्न रूपों में हुआ है। ये जल हमारे दोषों को दूर करते हैं तथा शरीर के मलों को नष्ट करते हैं। अथर्ववेद में नौ प्रकार के जलों का वर्णन हैं -
- परिचरा आपः - नगरों आदि के निकट प्राकृतिक झरनों से बहने वाला जल परिचरा आपः कहलाता है।
- हेमवती आपः - हिमयुक्त पर्वतों से बहने वाला जल हेमवती आपः है।
- उत्स्या आपः - स्रोत का जल उत्स्या आपः है।
- सनिष्यदा आपः - तीव्र गति से बहने वाला जल सनिष्यदा है।
- वर्ष्या आपः - वर्षा से उत्पन्न जल वर्ष्या है।
- धन्वन्या आपः - मरुभूमि का जल धन्वन्या है।
- अनूप्या आपः - अनूप देशज जल अर्थात जहाँ दलदल हो एवं वात-कफ को अधिक होते हों, उस देश में प्राप्त होने वाला जल अनूप्या है।
- कुम्भेभिरावृता आपः - घडों में रखा हुआ जल कुम्भेभिरावृता जल है।
- अनभ्रयः आपः - फावडे आदि से खोदकर निकाला गया जल अनभ्रयः आपः है।
वेदों में जल की महत्ता के अनेक मंत्र प्राप्त होते हैं जिनमें कहा है - जल निश्चय ही भेषज रूप है जल रोगों को दूर करने वाले [8]
उद्धरण॥ References
- ↑ डॉ० मोहन चंद तिवारी, वराहमिहिर की ‘बृहत्संहिता’ में भूमिगत जलशिराओं का सिद्धान्त, सन् २०१४, हिमांतर ई-मैगज़ीन (पृ० १)।
- ↑ निर्भय कुमार पाण्डेय, दकार्गलादि विचार, सन् २०२३, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २१२)।
- ↑ बलदेवप्रसाद मिश्र, बृहत्संहिता अनुवाद सहित, सन् १९५४, लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर प्रेस, मुंबई (पृ० ५४)।
- ↑ डॉ० कपिलदेव द्विवेदी, वेदों में विज्ञान, सन् २०००, विश्वभारती अनुसंधान परिषद, भदोही (पृ० ३११)।
- ↑ डॉ० जितेन्द्र व्यास, जल विज्ञान व वनस्पति विज्ञानः प्राकृतिक संसाधन शास्त्र की ज्योतिषीय प्रासंगिकता, सन् २०२२, इन्टरनेशनल जर्नल ऑफ अप्लाईड रिसर्च (पृ० १३४)।
- ↑ टंकेश्वरी पटेल, बृहत्संहिता में भूगर्भ जलविद्या, सन् २०१५, देव संस्कृति इण्टरडिस्किप्लिनरी इण्टरनेशनल जर्नल (पृ० २६)।
- ↑ धर्मायण- जल विमर्श विशेषांक, आचार्या कीर्ति शर्मा- ज्योतिष में भूगर्भीय जल का ज्ञान, सन- २०२१, महावीर मन्दिर, पटना (पृ० ८८)।
- ↑ समीर व्यास, वैदिक काल में भू-जलविज्ञान एवं जल गुणवत्ता, सन् २०१९, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की (पृ० ४३७)।