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+ | कर्मकाण्ड शब्द का तात्पर्य विविध शास्त्रीय क्रिया कलापों के प्रतिपादक वेदों से सम्बन्धित है। सामान्यतया इस शब्द का अर्थ विविध कर्मों के द्वारा मनुष्य इष्ट पूर्ति और उसके जीवन को सुव्यवस्थित, सुसमृद्ध एवं परिपूर्ण बनाने से है।<ref>शोधगंगा-राहुल पी० शाबरन, [https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/249732 प्राचीन भारत में पौरोहित्य कर्म-औचित्य एवं प्रासंगिकता], सन 2009, डॉ० राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, फैजाबाद (पृ० 304)।</ref> | ||
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+ | कर्मकाण्ड शब्द कर्म तथा काण्ड इन दो शब्दों के योग से बना है। कर्म का तात्पर्य शास्त्रोक्त शुभदायक कर्मों से है और काण्ड से अभिप्राय विविध क्षेत्रों एवं अंगों में विभक्त शाखाओं के अनुगमन में निहित है। | ||
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Revision as of 20:44, 28 October 2024
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भारतीय ज्ञान परम्परा में कर्मकाण्ड का उद्गम स्थल मूल रूप से वेद है। वेद कर्मकाण्ड का ही नहीं अपितु सर्वविद्या का मूल है। कर्मकाण्ड का सम्बन्ध केवल पूजन, पाठ, यज्ञ, विभिन्न प्रकार के अनुष्ठान से ही सम्बन्धित नहीं है, किन्तु इसका सम्बन्ध मानव जीवन से भी सीधा जुडा है। धार्मिक क्रियाओं से जुडे कर्म एवं मनुष्य अपने दैनन्दिन जीवन में जो भी कर्म करता है, उसका सम्बन्ध कर्मकाण्ड से है। कर्मकाण्ड के लिये पौरोहित्य पद का प्रयोग भी किया जाता है।
परिचय
भारतीय सनातन परम्परा में वेद सृष्टिक्रम की प्रथम वाणी है। वेदों में कर्मकाण्ड के समस्त तथ्य उपस्थित हैं। कर्मकाण्ड का मूलतः सम्बन्ध मानव के सभी प्रकार के कर्मों से है, जिनमें धार्मिक क्रियाएँ भी सम्मिलित हैं। स्थूल रूप से धार्मिक क्रियाओं को ही कर्मकाण्ड कहते हैं, जिससे पौरोहित्य का तादात्म्य सम्बन्ध है। कर्मकाण्ड के भी दो प्रकार हैं -
- इष्ट
- पूर्त
सम्पूर्ण वैदिक धर्म तीन काण्डों में विभक्त है -
- ज्ञान काण्ड
- उपासना काण्ड
- कर्म काण्ड
यज्ञ-यागादि, अदृष्ट और अपूर्व के ऊपर आधारित कर्मों को इष्ट कहते हैं। लोक-हितकारी दृष्ट फल वाले कर्मों को पूर्त कहते हैं। इस प्रकार से कर्मकाण्ड के अन्तर्गत लोक-परलोक हितकारी सभी कर्मों का समावेश है।
- वेदों के सभी भाष्यकार इस बात से सहमत हैं कि चारों वेदों में प्रधानतः तीन विषयों- ज्ञान-काण्ड, उपासनाकाण्ड एवं कर्मकाण्ड का प्रतिपादन है।
- वेद का अधिकांश भाग कर्मकाण्ड और उपासना काण्ड से परिपूर्ण है, शेष अल्पभाग ही ज्ञानकाण्ड है।
मीमांसाशास्त्र में तीनोंकाण्डों को इस प्रकार व्यवहार किया है -
कर्मकाण्ड का महत्व
ऋषियों ने निष्कर्ष निकाला कि मानव जीवन का उद्देश्य स्वयं को पहचानना, स्वयं को सीमाओं और बाधाओं से स्वयं को मुक्त करना और परम सत्य को जानकर आनंद का अनुभव करना है। इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए उन्होंने एक व्यक्ति के विकास के लिए एक मार्ग सामने रखा है। जीवन के प्रारंभ में हममें से प्रत्येक एक से यह अपेक्षा की जाती है कि हम गतिविधियों की विश्व में व्यस्त हों, सक्रिय रूप से योगदान दें और सुरक्षित जीवन का आनंद लें। इस दिशा में ऋषियों ने कर्म-कांड का प्रस्ताव रखा। कर्म-कांड व्यक्ति को मन की शुद्धता प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है जब हम विश्व के साथ जुड़ते हैं। क्योंकि वैदिक जीवन मुख्य रूप से यज्ञ पर केंद्रित था, इसलिए यज्ञ से संबंधित कई निर्देश और संचालन संरचनाएँ कर्म-कांड का भाग है।
पौरोहित्य एवं कर्मकाण्ड
वेदों में मंत्रों की संख्या एक लक्ष अर्थात एक लाख है -
लक्षं तु वेदाश्चत्वारः लक्षं भारतमेव च। (चरणव्यूह ५/१)
वेदों के एक लक्ष मन्त्रों में कर्मकाण्ड के ८० हजार मन्त्र, उपासनाकाण्ड के १६ हजार मन्त्र और ज्ञानकाण्ड के ४ हजार मन्त्र हैं। इनमें सबसे अधिक मन्त्र कर्मकाण्ड में हैं। वेदों में कर्मकाण्ड के जितने मन्त्र हैं, उतने अन्य किसी विषय के नहीं हैं।
सारांश
कर्मकाण्ड शब्द का तात्पर्य विविध शास्त्रीय क्रिया कलापों के प्रतिपादक वेदों से सम्बन्धित है। सामान्यतया इस शब्द का अर्थ विविध कर्मों के द्वारा मनुष्य इष्ट पूर्ति और उसके जीवन को सुव्यवस्थित, सुसमृद्ध एवं परिपूर्ण बनाने से है।[1]
कर्मकाण्ड शब्द कर्म तथा काण्ड इन दो शब्दों के योग से बना है। कर्म का तात्पर्य शास्त्रोक्त शुभदायक कर्मों से है और काण्ड से अभिप्राय विविध क्षेत्रों एवं अंगों में विभक्त शाखाओं के अनुगमन में निहित है।
उद्धरण
- ↑ शोधगंगा-राहुल पी० शाबरन, प्राचीन भारत में पौरोहित्य कर्म-औचित्य एवं प्रासंगिकता, सन 2009, डॉ० राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, फैजाबाद (पृ० 304)।