Difference between revisions of "Ramayana (रामायण)"
(सुधार जारी) |
(सुधार जारी) |
||
Line 19: | Line 19: | ||
इस प्रकार से रामायण को ७ काण्डों में विभक्त किया गया है। रामायण-कथा की विलक्षणता यह है कि इसके गायक कोई और नहीं, स्वयं वाल्मीकि शिष्य और राम के पुत्र लव-कुश हैं। इन यमल भाईयों ने राम के समक्ष सम्पूर्ण रामायण का मधुर स्वरों में गायन किया था। आदिकाव्य रामायण को 'चतुर्विंशतिसाहस्रीसंहिता' कहते हैं, अर्थात् इसमें २४ हजार श्लोक हैं।<ref>बलदेव उपाध्याय, [https://archive.org/details/sanskrit-vangmaya-ka-brihat-ithas-iii-arsha-kavya-bholashankar-vyas/page/n13/mode/1up?view=theater संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास-आर्षकाव्य-खण्ड], सन् २००६, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ (पृ० १०)।</ref> | इस प्रकार से रामायण को ७ काण्डों में विभक्त किया गया है। रामायण-कथा की विलक्षणता यह है कि इसके गायक कोई और नहीं, स्वयं वाल्मीकि शिष्य और राम के पुत्र लव-कुश हैं। इन यमल भाईयों ने राम के समक्ष सम्पूर्ण रामायण का मधुर स्वरों में गायन किया था। आदिकाव्य रामायण को 'चतुर्विंशतिसाहस्रीसंहिता' कहते हैं, अर्थात् इसमें २४ हजार श्लोक हैं।<ref>बलदेव उपाध्याय, [https://archive.org/details/sanskrit-vangmaya-ka-brihat-ithas-iii-arsha-kavya-bholashankar-vyas/page/n13/mode/1up?view=theater संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास-आर्षकाव्य-खण्ड], सन् २००६, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ (पृ० १०)।</ref> | ||
+ | |||
+ | काण्डों के अनुसार रामायण का कथानक इस प्रकार है - | ||
+ | |||
+ | '''बालकाण्ड -''' बालकाण्ड में कुल ७७ सर्ग हैं, जिसके प्रारम्भिक चार सर्गों में रामायण के रचना की पूर्वपीठिका और नारद तथा वाल्मीकि का संवाद है। तदुपरान्त नारद से रामकथा सुनकर निषाद द्वारा क्रौंचवध के दृश्य को देखकर आहत वाल्मीकि ने करुणाभाव से आर्तमन होकर रामकथा को काव्यमय बनाया। इसमें राम के जन्म, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, विश्वामित्र के साथ वनगमन, अहिल्या का उद्धार, विश्वामित्र के यज्ञ में विघ्न डालने वाले राक्षसों के वध, सीता स्वयंवर, शिवधनुष का वृत्तान्त, राम-सीता के विवाह सहित अन्य तीनों भाईयों के विवाह की कथा सविस्तार विवेचन है। | ||
+ | |||
+ | '''अयोध्याकाण्ड -''' अयोध्याकाण्ड में ११९ सर्ग हैं। जिसमें विवाहोपरान्त अयोध्या आगत राम के राज्याभिषेक की तैयारी का मनोहारी दृश्य के पश्चात अकस्मात् कैकेयी द्वारा महाराज दशरथ के वचन के पालनार्थ राम, सीता और लक्ष्मण का वनगमन, पुत्र-वियोग से व्याकुल दशरथ की मृत्यु घटना का मार्मिक निरूपण है। तदनन्तर भरत के ननिहाल से लौटने के पश्चात राज्य को स्वीकार न करना, सेना सहित भरत का चित्रकूट जाना, राम को मनाना तथा राम के न मानने एवं भरत को समझाने पर भरत राम की पादुका को लेकर अयोध्या लौटकर नंदिग्राम में निवास करते हुए राज्य का संचालन इत्यादि घटनाएँ निरूपित हैं। | ||
== रामायण के कुछ अन्य ग्रन्थ == | == रामायण के कुछ अन्य ग्रन्थ == |
Revision as of 20:23, 29 May 2024
भारतवर्ष की साहित्यिक परम्परा में वाल्मीकि को आदिकवि और रामायण को आदिकाव्य कहा गया है। शोक से प्रेरित होकर वाल्मीकि के मुख से ही संस्कृत की प्रथम कविता निर्गत हुई थी। इस विचित्र रचना पर स्वयं वाल्मीकि चकित थे कि ब्रह्मा ने प्रकट होकर उनसे कहा- महर्षि वाल्मीकि के समक्ष शब्दब्रह्म का प्रकाश आविर्भूत हो चुका था, मानवों के लिये उन्होंने शब्द-ब्रह्म के विवर्तरूप रामायण-काव्य की रचना की।
परिचय
कवि अपनी कृति के माध्यम से आदर्शो का प्रकाश विकर्ण कर मानवता को लोक कल्याण के पथ पर प्रशस्त करता है जो कृति केवल मनोरंजन ही कर सकती हैं, दिशा-बोध नहीं कर सकती, क्षणिक भले ही हो जाये। कालजयी कवि वाल्मीकि अपनी सामाजिक रचना रामायण से जन-जन के हृदय में प्रवेश कर गए हैं। वाल्मीकि एक सृजनशील कवि है जिन्होंने आदर्श-मूल्यों को मानव के समक्ष प्रस्तुत कर स्तुत्य कार्य किया है। यह एक निर्विवाद सत्य है कि रामायण में समस्त जीवन मूल्यों को प्रस्तुत किया है। स्वयं वाल्मीकि ने रामायण के लिए इस गर्वोक्ति को कहा था जो सत्यार्थ प्रतीत हो रही है। वाल्मीकि रामायण न केवल भारत में ही अपितु अन्य भी अनेक देशों में प्रसिद्ध हो गई है - [1]
यावत् स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले। तावद्रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यन्ति॥ (वा० रा० १,२,३६-३७)
अतः प्राचीनतम श्रेष्ठ और विशिष्ट होने के साथ आदिकाव्य रामायण के विषय में ब्रह्मा के द्वारा कही गई उपर्युक्त युक्ति सही ही है।
आदिकवि-वाल्मीकि
आदिकवि वाल्मीकि के विषय में बहुत अधिक उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। भविष्यपुराण के प्रतिसर्गपर्व में वाल्मीकि के विषय में एक कथा का उल्लेख किया गया है। वाल्मीकि के कुल, वंश, विद्याग्रहण आदि के विषय में कहीं कुछ भी उल्लेख नहीं उपलब्ध होता है। अध्यात्मरामायण तथा कृत्तिवासकृत बंगरामायण में वाल्मीकि को च्यवन के पुत्र के रूप में कहा गया है।
रामायण की विषय-वस्तु
वाल्मीकि-रामायण वस्तुतः वह अमर रचना है जिसमें विश्वसनीय तत्वों का समावेश हुआ है, जिस कारण से यह समस्त मानव-समाज को आह्लादित व प्रसन्न कर रही है। वाल्मीकि रामायण की रचना हुए शताब्दियाँ व्यतीत हो गईं है, परन्तु इसका प्रभाव आज भी मानव मस्तिष्क पर उतना ही है जितना यह पूर्व काल में था। वस्तुतः रामायण मानव-हृदय को पूर्णरूप से उद्वेलित करती है। सर्वप्रथम तमसा नदी के तट पर स्नान करते समय घायल क्रौंच के विलाप के द्वारा, बाद में ब्रह्माजी के आदेश से यह रचना की। वाल्मीकि रामायण को ७ काण्डों में विभक्त किया गया है -
- बालकाण्ड
- अयोध्या काण्ड
- अरण्यकाण्ड
- किष्किन्धाकाण्ड
- सुन्दरकाण्ड
- युद्धकाण्ड
- उत्तर काण्ड
इस प्रकार से रामायण को ७ काण्डों में विभक्त किया गया है। रामायण-कथा की विलक्षणता यह है कि इसके गायक कोई और नहीं, स्वयं वाल्मीकि शिष्य और राम के पुत्र लव-कुश हैं। इन यमल भाईयों ने राम के समक्ष सम्पूर्ण रामायण का मधुर स्वरों में गायन किया था। आदिकाव्य रामायण को 'चतुर्विंशतिसाहस्रीसंहिता' कहते हैं, अर्थात् इसमें २४ हजार श्लोक हैं।[2]
काण्डों के अनुसार रामायण का कथानक इस प्रकार है -
बालकाण्ड - बालकाण्ड में कुल ७७ सर्ग हैं, जिसके प्रारम्भिक चार सर्गों में रामायण के रचना की पूर्वपीठिका और नारद तथा वाल्मीकि का संवाद है। तदुपरान्त नारद से रामकथा सुनकर निषाद द्वारा क्रौंचवध के दृश्य को देखकर आहत वाल्मीकि ने करुणाभाव से आर्तमन होकर रामकथा को काव्यमय बनाया। इसमें राम के जन्म, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, विश्वामित्र के साथ वनगमन, अहिल्या का उद्धार, विश्वामित्र के यज्ञ में विघ्न डालने वाले राक्षसों के वध, सीता स्वयंवर, शिवधनुष का वृत्तान्त, राम-सीता के विवाह सहित अन्य तीनों भाईयों के विवाह की कथा सविस्तार विवेचन है।
अयोध्याकाण्ड - अयोध्याकाण्ड में ११९ सर्ग हैं। जिसमें विवाहोपरान्त अयोध्या आगत राम के राज्याभिषेक की तैयारी का मनोहारी दृश्य के पश्चात अकस्मात् कैकेयी द्वारा महाराज दशरथ के वचन के पालनार्थ राम, सीता और लक्ष्मण का वनगमन, पुत्र-वियोग से व्याकुल दशरथ की मृत्यु घटना का मार्मिक निरूपण है। तदनन्तर भरत के ननिहाल से लौटने के पश्चात राज्य को स्वीकार न करना, सेना सहित भरत का चित्रकूट जाना, राम को मनाना तथा राम के न मानने एवं भरत को समझाने पर भरत राम की पादुका को लेकर अयोध्या लौटकर नंदिग्राम में निवास करते हुए राज्य का संचालन इत्यादि घटनाएँ निरूपित हैं।
रामायण के कुछ अन्य ग्रन्थ
रामकथा सम्बन्धी वर्णन करने वाला मुख्य ग्रन्थ तो महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण ही है, रामकथा का प्रमुख स्रोत वही है। रामायण की रचना के पश्चात् रामकथा का अतिशय प्रचार प्रसार हुआ, रचनाकारों के द्वारा विभिन्न प्रान्तीय भाषाओम में रामायण की रचना हुई है। किसी ने वेदान्त तो किसी किसी ने अध्यात्मवाद के विभिन्न पक्षों से राम को जोडकर अनेक रामायण ग्रन्थ लिखे। भारत ही नहीं अपितु तिब्बत, खोतान, जावा, सुमात्रा आदि देशों में भी रामायण का विपुल प्रचार-प्रसार है। इस खण्ड में कुछ प्रमुख रामायण ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है -[3]
- भुशुण्डी रामायण
- तुलसी दास - रामचरित मानस
- कंब रामायण
- आनंद रामायण
- वाल्मीकि रामायण
- अद्भुत रामायण
- योगवासिष्ठ
- अध्यात्म रामायण
- तत्वसंग्रह रामायण
रामायण का महत्व
महाभारत में वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड के श्लोक का अक्षरशः उल्लेख है -
अपि चायं पुरा गीतः श्लोको वाल्मीकिना भुवि। न हन्तव्याः स्त्रियश्चेति यद् ब्रवीषि प्लवंगम॥ पीडाकरममित्राणां यत्स्यात्कर्तव्यमेव च॥ (महा०उद्यो० १४३, ६७-६८)
रामायण न केवल काव्य, महाकाव्य या वीर-काव्य ही है। इसका इससे बहुत अधिक महत्व है। यह भारतीयों का आचार-शास्त्र एवं धर्मशास्त्र है। यह मानव जीवन का सर्वांगीण आदर्श प्रस्तुत करता है।
धार्मिक महत्व - यह धार्मिक दृष्टि से प्राचीन संस्कृति, आचार, सत्य, धर्म, व्रत-पालन, विविध यज्ञों का महत्व आदि का पूरा इतिहास प्रस्तुत करता है।
सामाजिक महत्व - यह पति-पत्नी के सम्बन्ध, पिता-पुत्र के कर्तव्य, गुरु-शिष्य का पारस्परिक व्यवहार, भाई का भाई के प्रति कर्तव्य, व्यक्ति का समाज के प्रति उत्तरदायित्व, आदर्श पिता-माता-पुत्र-भाई-पति एवं पत्नी का चित्रण, आदर्श गृहस्थ-जीवन की अभिव्यक्ति करता है। इसमें पितृ भक्ति, पुत्र-प्रेम, भ्रातृ-स्नेह एवं जन-साधारण से सौहार्द का सुन्दर चित्रण है। सांस्कृतिक दृष्टि से यह राम-राज्य का आदर्श, पाप पर पुण्य की विजय, वानरों में भारतीय-संस्कृति का प्रसार, यज्ञादि का महत्व, जीवन में नैतिकता, सत्य-प्रतिज्ञता और कर्तव्य के लिये बलिदान का आदर्श प्रस्तुत करत है।
राजनीतिक महत्व - राजा के कर्तव्य और अधिकार, राजा-प्रजा-सम्बन्ध, उच्च नागरिकता, उत्तराधिकार-विधान, शत्रु-संहार, पाप-विनाशन, सैन्य-संचालन आदि विषयों पर महत्वपूर्ण प्रकाश डाला गया है।
- वैदिक यज्ञीय सामग्रियों का वर्णन रामायण में मिलता है जैसे - आज्य, हवि, पुरोडाश, कुश तथा खादिरयूप।
- यज्ञों में विहित दक्षिणा का प्रचलन रामायणकाल में भी था।
- यज्ञीय पशुबलि का भी उल्लेख रामायण में प्राप्त हो जाता है।
- रामायण अनेक नीतिवाक्यों, सुभाषितों तथा राजनीतिपरक तथ्यों का संग्रह भी है।
- आशीर्वादात्मक, नमस्कारात्मक अथवा वस्तुनिर्देशात्मक मंगलाचरण का प्रयोग महाकाव्य में किया जाता है - रामायण में "तपः स्वाध्याय निरतं" इत्यादि पद्य को देखकर ही वस्तुनिर्देशात्मक मंगलाचरण की प्रवृत्ति हुई।
- रामायण में प्रायः सभी रसों का वर्णन आया है परन्तु करुण रस प्रधान है।
रामायण भारतीय सभ्यता, नगर-ग्रामादि निर्माण, सेतुबन्ध, वर्णाश्रम-व्यवस्था आदि सांस्कृतिक एवं सामाजिक विषयों पर प्रकाश डालने वाला प्रकाश-स्तम्भ है, जिसके प्रकाश में प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता का साक्षात् दर्शन होता है।
रामायण के टीकाकार एवं टीकाएँ
वाल्मीकीय रामायण का महत्व केवल काव्यशास्त्रीय दृष्टि से ही नहीं है अपितु वैष्णव सम्प्रदायों का उपास्य ग्रन्थ भी है, इसलिये मध्य युग में रामायण की व्याख्या करना, प्रतिलिपि करना और पुस्तक की पूजा करना धार्मिक कृत्य का रूप ले चुका था। पन्द्रहवीं से सत्रहवीं शताब्दी ई० के मध्य रामायण की १० प्रमुख टीकाएं लिखी गयी। रामायण की प्रमुख टीकाओं का विवरण इस प्रकार है -
- रामानुज की रामानुजीय टीका - यह रामायण की सबसे प्रसिद्ध टीका है, इसका उल्लेख वैद्यनाथ दीक्षित ने किया है।
- वेंकट कृष्णाध्वरी की सर्वार्थसार टीका - इसका उल्लेख भी वैद्यनाथ दीक्षित ने किया है।
- वैद्यनाथ दीक्षित की रामायण दीपिका
- ईश्वर दीक्षित की लघुविवरण एवं बृहद्विवरण टीका
- महेश्वर तीर्थ कृत रामायण तत्व दीपिका - यह तीर्थीय टीका नाम से भी प्रसिद्ध है।
- गोविन्दराज कृत रामायणभूषण - यह गोविन्दराजीय नाम से भी प्रख्यात है। प्रत्येक काण्ड में व्याख्यान के नाम ग्रन्थकार ने भिन्न-भिन्न दिये हैं। इस टीका के काण्डक्रम इस प्रकार हैं - मणिमंजीर, पीताम्बर, रत्नमेखल, मुक्ताहार, शृंगारतिलक, मणिमुकुट तथा रत्नकिरीट।
रामायण में इन्द्रियातीत वर्णन
आज के वैज्ञानिक युग में भी आकाशवाणी, आकाशीय-पुष्पवृष्टि अलौकिक समयावधि एवं योगमाया का उतना ही महत्त्व है जितना वाल्मीकि के समय में था परन्तु आज के युग में इनका अर्थ परिवर्तन हो रहा है।[4]
आकाशवाणी का अर्थ केवल आकाश से उत्पन्न वाणी नहीं लिया जा सकता जो अलौकिक प्रतीत हो बल्कि वर्तमान समय में आकाशवाणी से अभिप्राय मानव द्वारा आकाश में स्थापित की गई उपग्रह, सैटेलाईट द्वारा भेजी गई तरंगों को रेडियो, टी०वी० इन्टर-नेट आदि यन्त्रों द्वारा ग्रहण कर उसे वाणी रूप में प्रसारित करना है।
रामायणकालीन समाज एवं संस्कृति
रामायण कालीन समाज के अन्तर्गत वर्णव्यवस्था, आश्रमव्यवस्था, समाज की जानकारी, विवाह और परिवार आदि के बारे में एवं रामायण कालीन संस्कृति में वेश भूषा, खानपान, शिक्षा व्यवस्था, कला-कौशल, धर्म-दर्शन आदि के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। वस्तुतः सभ्यता हमारा बाह्य रहन-सहन, खान-पान, आचरण, भौतिक-विकास, पारिवारिक सामाजिक संस्कार आदि का परिचायक होती है। संस्कृति हमारी आन्तरिक सोच ज्ञान-विज्ञान आदि प्रेरक तत्त्व को बताती है। वैसे तो आन्तरिक ही बाह्य आचरण का कारण होता है। रामायण मानवीय सभ्यता के विकास में परम सहयोगी है तथा सदा रहेगी।
रामायणकालीन समाज
कोई भी मनुष्य अपने ज्ञान एवं स्वभाव के अनुरूप ही आचरण करता है तथा जिस प्रकार की सामाजिक पृष्ठभूमि में रहता है, वैसा ही बन जाता है। महर्षि वाल्मीकि के द्वारा वर्णित रामराज्य में समस्त प्रजा वेदों का ज्ञान एवं उन पर विश्वास करने वाली थी। वे सब ज्ञान सम्पन्न, संसार के कल्याण में तत्पर तथा समस्त मानवीय गुणों जैसे - उदारता, दया, सत्यधर्मिता, पवित्रता आदि से युक्त थे -
सर्वे वेदविदः शूराः सर्वे लोकहिते रताः। सर्वेज्ञानोपसम्पन्नाः सर्वे समुदिता गुणैः॥ (रा०बा० १८/ २५-२६)
वर्ण व्यवस्था
रामायण युग में समाज निश्चित रूप से जातियों में विभक्त हो गया था। चारों वर्णों का स्पष्टतः उल्लेख प्राप्त होता है - [5]
चातुर्वर्ण्यं स्वधर्मेण नित्यमेवाभिपालयन् ॥(रा०कि०४/६)
रामायण में वर्णित है कि अश्वमेधयज्ञ के अवसर पर सभी वर्णों को आमन्त्रित किया गया था -
निमन्त्रयस्व नृपतीन् पृथिव्यां मे च धार्मिका। ब्राह्मणान् क्षत्रियान् वैश्यान् शूद्रांश्चैव सहस्रशः॥ (रा०बा० १३/२०)
अयोध्या वर्णन के प्रसंग में भी कहा गया है कि उस नगरी में सारे वर्ण अपने-अपने कार्यों में संलग्न रहा करते थे। इस प्रकार रामायण काल में वर्ण व्यवस्था को राजकीय स्वीकृति प्राप्त थी, लोग उस व्यवस्था का पालन भी करते थे। सुग्रीव के समक्ष लक्ष्मण अपने पिता का परिचय देते हुए कहते हैं कि वह सभी वर्गों का धर्मपूर्वक एवं निष्पक्षता से पालन करते हैं। राम चारों वर्गों के प्रति दयाभाव रखते थे इसलिये सभी उनके वशीभूत थे।
आश्रम व्यवस्था
भारतीय ऋषि परंपरा के अनुसार सम्पूर्ण मानव जीवन आत्म विश्वास एवं आत्मानुशासन का है। इसी शिक्षण काल को उन्होंने आश्रमों के नाम से कई वर्गों में बाँट दिया था। रामायणकालीन समाज में आश्रमों की संख्या निश्चित रूप से चार मानी जाती थी -
- विद्यार्थी के लिये ब्रह्मचर्य आश्रम
- विवाहितों के लिये गृहस्थाश्रम
- वनवासी तपस्वी के लिये वानप्रस्थाश्रम
- वैरागी के लिये सन्यासाश्रम
रामायण के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि आश्रम व्यवस्था का अनुसरण उपर्युक्त क्रम से ही संचालित किया जाता था। वस्तुतः ऋषियों द्वारा निर्देशित यह आश्रम व्यवस्था पूर्व वर्णित वर्ण व्यवस्था की ही पूरक है। दोनों मानव और समाज से ही सम्बन्धित हैं, केवल दृष्टिकोण का अन्तर है। वर्ण व्यवस्था व्यक्ति को एक सामाजिक प्राणी के रूप में देखती है।
निष्कर्ष
उद्धरण
- ↑ शोधगंगा-श्रीसदन जोशी, वाल्मीकि रामायण में जीवन मूल्य, सन् २०१०, शोधकेन्द्र- महाराजा गंगा सिंह विश्वविद्यालय (पृ० १८)
- ↑ बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास-आर्षकाव्य-खण्ड, सन् २००६, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ (पृ० १०)।
- ↑ डॉ० कपिलदेव द्विवेदी, संस्कृत साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास, सन् २०१७, विश्वभारती अनुसंधान परिषद, भदोही (पृ० ११३)।
- ↑ शोधगंगा-सन्तोष, रामायण में इन्द्रियातीत सन्दर्भ, सन् २०१२, शोधकेन्द्र-महर्षि दयानन्द विश्विद्यालय, रोहतक (पृ० २४३)।
- ↑ शोधगंगा-श्रीसदन जोशी, वाल्मीकि रामायण में जीवन-मूल्य, सन् २०१०, शोधकेन्द्र-महाराजा गंगासिंह विश्वविद्यालय, बीकानेर (पृ० ४२)।