Difference between revisions of "Mandukya Upanishad (माण्डूक्य उपनिषद्)"

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माण्डूक्य उपनिषद् का सम्बन्ध अथर्ववेद से है। माण्डूक्य उपनिषद् नाम की व्युत्पत्ति माण्डूक्य ऋषि के नाम से हुई है। माण्डूक्य का शाब्दिक अर्थ है मेंढक। कथानुसार, भगवान वरुण ने प्रणव या ओंकार के महत्व को उजागर करने के लिये मेंढक के रूप की कल्पना की और इसे (मकार को) परम ब्रह्म के एकमात्र नाम व प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया।

परिचय

यह उपनिषद् लघुकाय होने पर भी भाव-गाम्भीर्य के कारण बहुत महत्वपूर्ण है। इसमें १२ वाक्य या खण्ड हैं। इसमें बताया गया है कि यह सारा संसार, वर्तमान भूत और भविष्यत् सब कुछ ओम् की ही व्याख्या है। माण्डूक्य उपनिषद् प्रधान उपनिषदों में सबसे छोटा है। इसमें केवल बारह छंद हैं। इसमें सम्पूर्ण वैदिक उपदेशों का सारतत्व समाविष्ट है। इस उपनिषद् की भाषा सुसंगत तथा संक्षिप्त रूप में है किन्तु अर्थ व्यापक है। गौडपाद ने इसी उपनिषद् पर कारिका नामक प्रसिद्ध टीका का लेखन किया। इसे अद्वैत वेदान्त का प्रथम सुव्यवस्थित प्रतिपादन माना जाता है। शंकर ने भी उपनिषद् तथा गौडपाद की टीका दोनों पर भाष्य लिखा।

इस उपनिषद् के विश्लेषण में मानव चेतना की चार अवस्थाओं यथा - जाग्रत् , स्वप्न , सुषुप्ति तथा तुरीय की सम्पूर्ण व्याख्या उपलब्ध है। माण्डूक्य उपनिषद् में प्रत्येक क्षण के लिए आत्म को चेतना की अवस्था के अनुसार चार नामों यथा -

  1. आत्म को स्थूल वस्तुओं के अनुभवकर्ता - वैश्वानर।
  2. सूक्ष्म वस्तुओं के अनुभवकर्ता - तैजस।
  3. अव्यक्त वस्तुओं के अनुभवकर्ता - प्राज्ञ।
  4. अद्वैत, अदृश्य, और अवर्णनीय आत्म के अनुभवकर्ता - तुरीय।

ये नाम चेतना की संबंधित अवस्थाओं को दर्शाते हैं। भौतिक ब्रह्माण्ड समरूपी नियमों से बंधा हुआ है। यह सभी लोगों के लिए समान रूप से उपस्थित रहता है।

माण्डूक्य उपनिषद् - शान्ति पाठ

ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः। स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाँसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः॥ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः। स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥

॥ ॐ शान्तिः! शान्तिः! शान्तिः ! ॥

भाषार्थ -

परिभाषा

माण्डूक्य उपनिषद् के उपदेष्टा

प्रथम मन्त्र में ब्रह्म के नाम ओम् की अपार महिमा गाते हुए उसे परब्रह्म से अभिन्न माना गया है -

ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वभूतस्योपव्याख्यानं भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोंकार एव। (माण्डूक्य उपनिषद्)

अर्थात् ओम् यह अक्षर अविनाशी पूर्ण ब्रह्म है। यह दृश्यमान सम्पूर्ण जगत् उसका ही उपाख्यान है। भूत, वर्तमान और भविष्यत् जगत् सबका ओंकार ही है, जो कुछ त्रिकालातीत है, वह भी वही है।[1]

वर्ण्य विषय

माण्डूक्य उपनिषद् अपने बारह श्लोकों में समाहित विचारों का संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत करता है। यह उपनिषद् समस्त मानव अनुभवों की तीन अवस्थाओं जैसे - जाग्रत , स्वप्न और सुषुप्ति का वर्णन करता है। उपनिषद् चेतना की चार अवस्थाओं का गूढ विश्लेषण प्रस्तुत करता है।[2]

  1. जाग्रत् अवस्था
  2. स्वप्न अवस्था
  3. सुषुप्ति अवस्था
  4. तुरीय अवस्था

आत्म-अनुभूति, आत्म की विशेषताएं और ओम् और आत्म।

इसमें बताया गया है कि यह सारा संसार, वर्तमान भूत और भविष्यत् सब कुछ 'ओम्' की ही व्याख्या है। ओम् के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। ओम् के एक-एक अक्षर अ उ म् की विभिन्न अवस्थाओं के फलस्वरूप सृष्टि के विभिन्न रूप हैं। आत्मा चतुष्पात् है। चतुर्थ अवस्था तुरीय अवस्था है। यह अवस्था अवर्णनीय है। आत्मा का यह शुद्ध शान्त अद्वैत शिव रूप है। इसी उपनिषद् के आधार पर वेदान्त दर्शन का प्रासाद खडा हुआ है। वेदान्त की मूल भावना इस उपनिषद् में प्राप्त होती है।

संक्षेप में इनको इस प्रकार रख सकते हैं -
ओम् की मात्रा अवस्था आत्मा का स्वरूप विषय
जागृत वैश्वानर स्थूलभुक् (स्थूल)
स्वप्न तैजस प्रविविक्तभुक् (सूक्ष्म)
म् सुषुप्ति प्राज्ञ आनन्दभुक् (आनन्द)
-- तुरीय अद्वैत शिव अवर्णनीय

माण्डूक्य उपनिषद् का महत्व

आकार की दृष्टि से यह एक छोटा उपनिषद् ग्रन्थ है, परन्तु वर्ण्यविषय की दृष्टि से अत्यन्त महनीय है। इसकी प्रसिद्धि का प्रमाण गौडपाद द्वारा लिखी 'माण्डूक्यकारिका' है। इसे सभी उपनिषदों में सर्वश्रेष्ठ बताते हुए मुक्तिकोपनिषद् (१/२६-२७) में लिखा है कि माण्डूक्य ही मुमुक्षुओं के लिए पर्याप्त है, यदि उससे ज्ञान की प्राप्ति न हो, तब दस उपनिषदों को पढना चाहिए।

सारांश

माण्डूक्य उपनिषद् के प्रथम श्लोक में कहा गया है कि शब्द ओम् भूत, वर्तमान तथा भविष्य सभी का आधार भी है तथा समय के इन तीन कालों से परे भी है। सभी तत्वों को नामों तथा रूपों द्वारा दर्शाया जाता है। तत्वों के नाम तत्व से तथा ओम् से भिन्न हैं। ब्रह्म परम है, इसे तत्वों के नाम एवं उसके विषय के मध्य विद्यमान सम्बन्ध के माध्यम से जाना जाता है।

उद्धरण

  1. बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास - वेद खण्ड, सन् - १९९९, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान (पृ० ५०९)।
  2. डॉ० कपिलदेव द्विवेदी, वैदिक साहित्य एवं संस्कृति , सन् २०००, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी (पृ० १७९)।