Difference between revisions of "Nirukta (निरुक्त)"

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निरुक्त निर्वचनप्रधान शास्त्र है, जिसमें महर्षि यास्क ने बहुत से वैदिक मन्त्रों की व्याख्या नवीन शैली में प्रस्तुत की है। निरुक्त में निघण्टु के कहे गये वैदिक शब्दों की व्याख्या की गयी है, इसे निघण्टु का भाष्य भी कहते हैं। वेदों से निकाल एकत्र संग्रहीत किये गये वैदिक कठिन पदों के संग्रह का नाम ही निघण्टु रखा गया, तथा परवर्ती आचार्यों द्वारा निघण्टु पदों की जो व्याख्या की गयी, उसी व्याख्यान-ग्रन्थ को निरुक्त के नाम से अभिहित किया गया, अनेक आचार्यों ने निघण्टु ग्रन्थ पर अपनी-अपनी व्याख्यायें की, परंतु वर्तमान में जो निरुक्त प्राप्त होता है, वह यास्क कृत निरुक्त माना जाता है।
  
निरुक्त में वैदिक शब्द समाम्नाय की व्याख्या की गई है जो निघंटु के पांच अध्यायों में संकलित है। निघंटु वैदिक शब्दकोश है जिसमें १३४१ शब्द परिगणित हैं इसके प्रथम तीन अध्याय नैघण्टुक काण्ड कहे जाते हैं। चतुर्थ अध्याय को नैगम काण्ड और अंतिम अध्याय को दैवतकाण्ड कहा गया है। आचार्य यास्क द्वारा रचित निरुक्त निरुक्त में निघंटुगत २३० शब्दों का निर्वचन है। निरुक्त में निर्वचन करने के लिए वर्णागम, वर्ण-विपर्यय, वर्ण-विकार, वर्ण नाश और धातुओं का अनेक अर्थों में प्रयोग ये पांच नियम हैं। निरुक्त में मूलतः १२ अध्याय हैं। इसके अतिरिक्त २ अध्याय परिशिष्ट रूप में हैं। कुल मिलाकर १४ अध्यायों का विभाजन पादों में हैं। निरुक्त पर दुर्गाचार्य, स्कन्द, महेश्वर और वररुचि की टीकाएं उपलब्ध हैं।
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==प्रस्तावना==
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निरुक्त में वैदिक शब्द समाम्नाय की व्याख्या की गई है जो निघंटु के पांच अध्यायों में संकलित है। निघंटु वैदिक शब्दकोश है जिसमें १३४१ शब्द परिगणित हैं इसके प्रथम तीन अध्याय नैघण्टुक काण्ड कहे जाते हैं। चतुर्थ अध्याय को नैगम काण्ड और अंतिम अध्याय को दैवतकाण्ड कहा गया है। आचार्य यास्क द्वारा रचित निरुक्त में निघंटु गत २३० शब्दों का निर्वचन है। निरुक्त में निर्वचन करने के लिए वर्णागम, वर्ण-विपर्यय, वर्ण-विकार, वर्ण नाश और धातुओं का अनेक अर्थों में प्रयोग ये पांच नियम हैं। निरुक्त में मूलतः १२ अध्याय हैं। इसके अतिरिक्त २ अध्याय परिशिष्ट रूप में हैं। कुल मिलाकर १४ अध्यायों का विभाजन पादों में हैं। निरुक्त पर दुर्गाचार्य, स्कन्द, महेश्वर और वररुचि की टीकाएं उपलब्ध हैं।
  
== प्रस्तावना ==
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== परिभाषा==
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आचार्य सायण ने निरुक्त का लक्षण किया है – <blockquote>अर्थावबोधे निरपेक्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरुक्तम्।</blockquote>अर्थात अर्थज्ञान के विषय में जहां स्वतंत्ररूप में पद समूह का कथन किया गया है वह निरुक्त कहलाता है।
  
== निरुक्त की परिभाषा ==
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==निघण्टु एवं निरुक्त==
आचार्य सायण ने निरुक्त का लक्षण किया है <blockquote>अर्थावबोधे निरपेक्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरुक्तम्।</blockquote>अर्थात अर्थज्ञान के विषय में जहां स्वतंत्ररूप में पद समूह का कथन किया गया है वह निरुक्त कहलाता है।  
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यास्क का निरुक्त वस्तुतः निघण्टु ग्रन्थ की व्याख्या या भाष्य है। निघण्टु वैदिक शब्द-कोश या वैदिक शब्दों का संकलन है। कुछ विद्वान् मानते हैं कि निघण्टु पृथक्- पृथक् विद्वानों की रचना है। महाभारत शान्तिपर्व के अनुसार निघंटु के रचयिता प्रजापति कश्यप हैं -<blockquote>नैघण्टुकपदाख्याने....प्राह कश्यपो मां प्रजापतिः।(अध्य०३४२ श्लो० ८८/८९)</blockquote>इसमें पाँच अध्याय हैं। इसमें संग्रहीत शब्दों की संख्या 1768 है। अध्यायों के अनुसार इनकी संख्या इस प्रकार है - 
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{| class="wikitable"
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|+(निघण्टु के अध्यायों वर्णित शब्द संख्या एवं पदार्थों के समानार्थक शब्द सारिणी)
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!अध्याय क्रम संख्या
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!शब्दों की संख्या
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!अध्यायों का विषयानुसार वर्णन
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|प्रथम अध्याय
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|414 शब्द संकलित
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|पृथिवी, हिरण्य, मेघ आदि 17 पदार्थों के समानार्थक शब्द
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|-
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|द्वितीय अध्याय
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|514 शब्द
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|मनुष्य, अन्न, धन, गो आदि 22 पदार्थों के समानार्थक शब्द
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|-
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|तृतीय अध्याय
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|410 शब्द
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|बहु, ह्रस्व, प्रज्ञा, यज्ञ आदि 30 के समानार्थक शब्द
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|-
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|चतुर्थ अध्याय
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|279 शब्द
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|कठिन या व्याख्या के योग्य 279 शब्दों का संकलन
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|-
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|पंचम अध्याय
 +
|151 शब्द
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|देवता- वाचक 151 शब्दों का संकलन
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|}
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निरुक्त को तीन काण्डों में विभक्त किया गया है - <ref>यास्काचार्य, [https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.312660/mode/1up निरुक्त, प्राक्कथन], सन् १९५२, रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूना  (पृ० २४)</ref>
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#'''नैघण्टुक काण्ड -''' निरुक्त का प्रथम अध्याय भूमिका है। अध्याय २ और ३ में निघंटु के प्रथम, द्वितीय और तृतीय अध्याय में पठित शब्दों का विवेचन है। अतः निरुक्त के अध्याय २ और ३ को नैघण्टुक कांड कहते हैं।
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#'''नैगम काण्ड -''' निरुक्त के अध्याय ४ से ६ को नैगम कांड कहते हैं, इनमें निघंटु के अध्याय ४ के शब्दों की व्याख्या है।
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#'''दैवत काण्ड -''' निरुक्त के अध्याय ७ से १२ को दैवत कांड कहते हैं। इन ६ अध्यायों में निघंटु के अध्याय ५ में संकलित १५१ देवविषयक शब्दों की सोदाहरण व्याख्या है।
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* निरुक्त के प्रथम अध्याय तथा द्वितीय अध्याय के प्रथम पाद तक निरुक्त की भूमिका वर्णित है। निरुक्त के प्रथम अध्याय में निघण्टु का लक्षण पदों के भेद, भाव के विकार, शब्दों का धातुज सिद्धान्त और निरुक्त की उपयोगिता वर्णित है।
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* द्वितीय अध्याय में निर्वचन के सिद्धान्त और निरुक्त की उपयोगिता वर्णित है। द्वितीय अध्याय में निर्वचन के सिद्धान्त, निघण्टु के शब्दों की व्याख्या, द्वितीय पाद से सप्तम पाद तक ऋचाओं के उद्धरण देकर अनेक शब्दों के निर्वचन प्रस्तुत किये हैं।
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* तृतीय अध्याय में भी नैघण्टुककाण्डगत पदों का निर्वचन किया गया है।
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* चतुर्थ से षष्ठ अध्यायों में नैगमकाण्डगत शब्दों का विचार किया गया है।
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* सातवें से बारहवें अध्यायों में दैवतकाण्ड के शब्दों का विचार किया गया है। यास्क के मतानुसार व्याकरण की परिपूर्णता निरुक्त में आकर होती है। निरुक्त के आधार पर वेद व्याख्या विषयक अनेक सम्प्रदायों, आचार्यों तथा उनके विविध मतों का ज्ञान होता है।
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इस प्रकार से निघंटु और निरुक्त अन्योन्य-संबद्ध ग्रन्थ हैं।<ref name=":0">डॉ०कपिलदेव द्विवेदी, [https://archive.org/details/vedicsahityaevamsanskritidr.kapildevdwivedi/page/n3/mode/1up?view=theater वैदिक साहित्य एवं संस्कृति], सन् २०००, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी (पृ० २०५)।</ref>
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== वेदांग एवं निरुक्त ==
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निरुक्त का अर्थ है- निर्वचन, व्युत्पत्ति। शब्द के मूलरूप का ज्ञान कराना, शब्दमें प्रकृति-प्रत्यय का स्पष्टीकरण, धात्वर्थ और प्रत्ययार्थ का विशदीकरण, समानार्थक और नानार्थक शब्दों का विवेचन आदि कार्य निरुक्त का है। इसके लिये इंग्लिश शब्द (Etmology, एटिमॉलाजी) है। जिसका अर्थ है - शब्द की उत्पत्ति और उसके विकास की प्रक्रिया का अध्ययन। इसे ही शब्द-व्युत्पत्ति-शास्त्र भी कहा जाता है। प्राचीन काल में इस शास्त्र को निरुक्त कहते थे।<ref>प्रो० उमाशंकर शर्मा 'ऋषिः', [https://ia801506.us.archive.org/14/items/in.ernet.dli.2015.405754/2015.405754.The-Nirukta.pdf निरुक्तम्], राष्ट्रभाषानुवाद टिप्पणीसहित, सन् 1966, विद्याभवन संस्कृत सीरीज (पृ० 53)।</ref> वेदार्थ ज्ञान के लिए महर्षि यास्ककृत निरुक्तशास्त्र सर्वोत्तम सहायक ग्रन्थ है। वेदांग छः हैं - <ref>डॉ० कुंवर लाल, [https://ignca.gov.in/Asi_data/64070.pdf निरुक्त सार निदर्शन], सन् १९७८, इतिहास विद्या प्रकाशन, दिल्ली (पृ० १३)।</ref><blockquote>शिक्षा कल्पोऽथ व्याकरणं निरुक्तं छन्दसां च य। ज्योतिषामयनं चैव वेदांगानि षडेव तु॥ (पा० शि०)</blockquote>शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्दःशास्त्र और ज्योतिषशास्त्र। इनमें निरुक्तशास्त्र वेद का श्रोत्र (कान) माना गया है - <blockquote>निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते।</blockquote>निरुक्त की चतुर्दश विद्याओं में भी गणना होती है। यह व्याकरण का पूरक भी है क्योंकि व्याकरण शब्दों की रचना (बहिरंग) की व्याख्या करता है वहीं निरुक्त उनके अर्थ (अन्तरंग) की खोज करता है। इसके लिये वह शब्दों की प्रकृति का पता लगाकर उसके अर्थ से संगति दिखाते हुए पूरे शब्द के अर्थ का अनुसन्धान करता है।
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== निरुक्तकार यास्क ==
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भाषाशास्त्र की दृष्टि से निरुक्त का बहुत महत्व है। इसमें शब्द के मूल का ज्ञान कराया जाता है। इसमें अर्थविज्ञान की अनेक विद्याओं का समावेश है। शब्द के अर्थ का किस प्रकार विकास होता है, किस प्रकार एकार्थक शब्द अनेकार्थक हो जाता है और अनेकार्थक शब्द एकार्थक हो जाते हैं, समानार्थक शब्दों में सूक्ष्म भेद क्या है, शब्दों के अर्थों में परिवर्तन कैसे होता है। जो निरुक्तकारों की शृंखला में चौदहवें निरुक्तकार माने जाते हैं।
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महाभारत शान्तिपर्व (अध्याय ३४२, श्लोक ७२-७३) में यास्क ऋषि के निरुक्तकार होने का स्पष्ट उल्लेख है। साथ ही यह भी उल्लेख है कि यास्क ने नष्ट हुए निरुक्त-शास्त्र का पुनरुद्धार किया।<blockquote>यास्को मामृषिरव्यग्रो नैकयज्ञेषु गीतवान्। यास्क ऋषिरुदारधीः,,,, नष्टं निरुक्तमधिजग्मिवान्॥(श्लो० ७२/७३)</blockquote>यास्क का निरुक्त ग्रन्थ ही संप्रति उपलब्ध है। इसमें १२ अध्याय हैं। अन्त में परिशिष्ट के रूप में २ अध्याय हैं। इस प्रकार यह १४ अध्यायों में विभक्त है। इसका वर्ण्य-विषय संक्षेप में यह है-<ref name=":0" />
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'''अध्याय १ -''' निघण्टु का लक्षण, नाम आख्यात आदि पदों के भेद, षड्भाव-विकार, शब्दनित्यता का विवेचन, उपसर्गों का अर्थविवेचन, शब्दों का धातुज सिद्धान्त, मन्त्रों की सार्थकता का प्रतिपादन, अर्थज्ञान का महत्व और निरुक्त की उपयोगिता।
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'''अध्याय २ और ३ -''' नैघण्टुक कांड। अध्याय २ के प्रारंभ में निर्वचन और वर्ण-परिवर्तन आदि से संबद्ध भाषाशास्त्रीय विवेचन। शेष में निघण्टु में पठित शब्दों की व्याख्या आदि।
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'''अध्याय ४ से ६ -''' नैगम कांड या ऐकपदिक कांड। इन तीन कांडों में वेदों के निघण्टु में पठित कठिन शब्दों की सोदाहरण व्याख्या।
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'''अध्याय ७ से १२ -''' दैवत कांड। इन अध्यायों में देवतावाचक शब्दों की विस्तृत व्याख्या। द्युलोक, अन्तरिक्ष और पृथिवी- स्थानीय देवों का विवेचन।
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'''अध्याय १३ और १४-''' इनमें निर्वचन-प्रक्रिया, सृष्टि-उत्पत्ति तथा दार्शनिक महत्त्व के अनेक विषयों का विवेचन है।ये दो अध्याय परिशिष्ट में हैं।
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यास्क के द्वारा दिये गये उदाहरणों से सिद्ध होता है कि निघण्टु व्यक्तिवाचक शब्द नहीं है किन्तु जातिवाचक है। उनके कथन के अनुसार जिनमें ये चार बातें हो वही निघण्टु है -
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==निरुक्त के प्रतिपाद्य विषय==
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निरुक्त का मुख्य प्रतिपाद्य विषय वैदिक क्लिष्ट पदों का निर्वचन है। प्रस्तुत निरुक्त में  १, वर्णागम-विचार, २, वर्ण-विपर्यय-विचार, ३, वर्ण-विकार-विचार, ४, वर्णनाश-विचार, ५, धातुओं का अनेक अर्थों में प्रयोग इस प्रकार से निरुक्त को पञ्चलक्षणात्मक बताया गया है। किसी शब्द के अर्थज्ञान में दूसरे व्याकरणादि की अपेक्षा के बिना स्वयं अर्थ के प्रकट करने को निरुक्त कहा है। काशिकावृत्ति ग्रन्थ के अनुसार निरुक्त पाँच प्रकार का होता है। जैसे - <blockquote>वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च, द्वौ चापरौ वर्णविकारनाशौ। धातोस्तदर्थातिशयेन योगस्तदुच्यते पञ्चविधं निरुक्तम्॥ (काशिका वृत्ति)</blockquote>उपर्युक्त श्लोक का अर्थ इस प्रकार है -
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#वर्णागम (अक्षर बढाना)।
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#वर्णविपर्यय (अक्षरों को आगे पीछे करना)।
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#वर्णाधिकार (अक्षरों को बदलना)।
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#वर्णनाश (अक्षरों को छोडना)।
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#धातु के किसी एक अर्थ को सिद्ध करना।
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निरुक्त द्वितीय अध्याय के प्रारंभ में इस विषय का विस्तृत विवेचन है और इनके उदाहरण आदि दिए हैं। वैदिक पदों के निर्वचन के अतिरिक्त निरुक्त में भाषा विज्ञान, साहित्य, समाज-शास्त्र एवं ऐतिहासिक विभिन्न विषयों का भी प्रयोगानुकूल वर्णन किया गया है।<ref>Shradha Singh, [http://hdl.handle.net/10603/457559 Nirukta me Pratipadit Antarikshsthaniya Devatao ka Samikshatmak Adhyayan], 2022, Banaras Hindu University (shodhganga), chapter 1, Page 5. </ref>
  
 
== निरुक्त के प्रयोजन ==
 
== निरुक्त के प्रयोजन ==
निरुक्त के निम्नलिखित प्रयोजन दृष्टिगोचर होते हैं जैसे कि -  
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आचार्य यास्क निरुक्तशास्त्र के अध्ययन-अध्यापन का सर्वप्रथम प्रयोजन बताते हुए निरुक्त को मंत्र ज्ञान अथवा अर्थज्ञान हेतु सहायक कहते हैं। इतना ही नहीं वे व्याकरण और निरुक्त में घनिष्ठ संबंध को भी मानते हैं। आचार्य यास्क के अनुसार निरुक्त शास्त्र के चार प्रयोजन निम्नलिखित हैं - अर्थज्ञान, पदविभाग का ज्ञान, देवता का ज्ञान, ज्ञान की प्रशंसा एवं अज्ञान की निंदा। इन सभी का विस्तृत वर्णन नीचे किया जा रहा है - 
 
 
# '''अर्थ ज्ञान –'''
 
# '''पद विभाग –'''
 
# '''देवता का ज्ञान –'''
 
# '''ज्ञान की प्रशंसा और अज्ञान की निंदा –'''
 
  
=== निर्वचन के सिद्धांत ===
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#'''अर्थ ज्ञान –'''
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#'''पद विभाग –'''
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#'''देवता का ज्ञान –'''
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#'''ज्ञान की प्रशंसा और अज्ञान की निंदा –'''
  
==== निरुक्त एवं पद विधि ====
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==निर्वचन के सिद्धांत==
पदों के चार विभाग हैं –
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निर्वचन शब्द निर् + वच् परिभाषणे+ ल्युट् प्रत्ययसे निष्पन्न होता है। इसके अनुसार निर्वचन शब्द निःशेष या निखिल वक्तव्य का वाचक है। शब्दों की प्रकृति के अनुसार संभावित अर्थों के अन्वेषण में प्रत्यक्ष, परोक्ष या अति परोक्ष वृत्तियों के द्वारा उपन्यस्त है।
  
1.   नाम  
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===पद विभाग===
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महर्षि यास्क प्रवृत्ति निमित्त और प्रयोग को ही पद विभाग का आधार मानते हैं। जाति, गुण और यदृच्छा वाचक शब्दों में सत्व की प्रधानता ही प्रवृत्ति-निमित्त है। अतः इन तीनों प्रकार के शब्दों को यास्क ने नाम वर्ग में माना है। सत्व के लिये प्रयुक्त शब्द नाम ही है। क्रिया को प्रकट करने वाले शब्दों को आख्यात नाम दिया है तथा इनमें भाव की प्रधानता बताई है। अव्यय पदों में से नाम और आख्यात से संयुक्त होकर अर्थ बोध कराने वाले शब्दों को उपसर्ग तथा शेष अव्यय पदों को निपात की संज्ञा से अभिहित किया है। यास्क की दृष्टि में मुख्य रूप से पदों के दो विभाग हैं-
  
2.   आख्यात  
+
दृष्टव्यय तथा अव्यय इन्हीं को महर्षि यास्क ने गौण रूप में चार विभागों में विभक्त करते हुये कहा है-<blockquote>तद्यान्येतानि चत्वारि पदजातानि नामाख्याते चोपसर्गनिपाताश्च तानि इमानि भवन्ति। (निरुक्त १,१,१) चत्वारि पदजातानि नामाख्यातोपसर्गनिपाताश्च। (म०भा० पस्पशाह्निक)</blockquote>इस प्रकार निरुक्त और महाभाष्यादि में चार प्रकार के पद स्वीकार किये गये हैं। इस सन्दर्भ में वाक्यपदीयकार ने कहा है- <blockquote>द्विधा कैश्चित्पदं भिन्नं चतुर्धा पञ्चधापि वा। अपोद्धृत्यैव वाक्येभ्यः प्रकृतिप्रत्ययादिवत् ॥ (वा०प०३,१,१) </blockquote>अर्थात् कुछ आचार्य नाम और आख्यात इन दो को पद मानते हैं, कुछ नाम, आख्यात, उपसर्ग, निपात इन चार को पद मानते हैं जबकि कुछ इन चारों के साथ-साथ कर्मप्रवचनीय को भी पद मानते हैं। पदों के मुख्यतः चार विभाग हैं –
  
3.   उपसर्ग
+
1. नाम
  
4.   निपात
+
2. आख्यात
  
निरुक्त में मुख्यतया निरुक्त का प्रयोजन, अर्थज्ञान, पदविभाग एवं देवता आदि से परिचित होंगे। यास्क ने निर्वचन के कुछ सामान्य एवं कुछ विशिष्ट सिद्धांतों का वर्णन किया है। निरुक्त निर्वचन प्रधान शास्त्र है, जिसमें महर्षि यास्क ने बहुत से वैदिक मंत्रों की व्याख्या नवीन शैली में प्रस्तुत की है।
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3. उपसर्ग
  
* निरुक्त में निघंटु के कहे गए वैदिक शब्दों की व्याख्या की गयी है, इसे निघंटु का भाष्य भी कहते हैं।
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4. निपात
* निघंटु में केवल शब्दों का संकलन है।
 
* महाभारत में प्रजापति कश्यप को निघंटु का कर्ता स्वीकार किया है परंतु कुछ आचार्य यास्क को ही निघंटु का रचयिता मानते हैं।
 
  
==== षड् भावविकार ====
+
उपर्युक्त इन चारों पदों का प्रयोग लौकिक संस्कृत एवं वेद दोनों में होता हैं निरुक्त में मुख्यतया निरुक्त का प्रयोजन, अर्थज्ञान, पदविभाग एवं देवता आदि का विवेचन है। यास्क ने निर्वचन के कुछ सामान्य एवं कुछ विशिष्ट सिद्धांतों का वर्णन किया है। निरुक्त निर्वचन प्रधान शास्त्र है, जिसमें महर्षि यास्क ने बहुत से वैदिक मंत्रों की व्याख्या नवीन शैली में प्रस्तुत की है।
  
* जायते
+
*निरुक्त में निघंटु के कहे गए वैदिक शब्दों की व्याख्या की गयी है, इसे निघंटु का भाष्य भी कहते हैं।
* अस्ति
+
*निघंटु में केवल शब्दों का संकलन है।
* विपरिणमते
+
*महाभारत में प्रजापति कश्यप को निघंटु का कर्ता स्वीकार किया है परंतु कुछ आचार्य यास्क को ही निघंटु का रचयिता मानते हैं।
* वर्धते
 
* अपक्षीयते
 
* विनश्यति  
 
  
== आचार्य यास्क और वेदार्थ ==
+
===षड् भावविकार===
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भाव शब्द भू धातु से घञ् प्रत्यय लगाने से बना है, भाव का अर्थ है क्रिया। भाव में सभी क्रियायें (धातुयें) आ जाती हैं, परन्तु आचार्य वार्ष्यायणि ने छः प्रकार के भाव निश्चित किये हैं-<blockquote>षड्भावविकाराः भवन्तीति वार्ष्यायणिः। जायतेऽस्तिविपरिणमतेवर्धतेऽपक्षीयतेविनश्यतीति।(नि० 1-2)</blockquote>निरुक्तकार ने क्रिया के लिये आख्यात शब्द का प्रयोग किया है तथा इसकी परिभाषा 'भावप्रधानमाख्यातम्' अर्थात् जिसमें भाव की प्रधानता हो वह आख्यात है। भाव के अन्तर्गत क्रिया की उत्पत्ति से लेकर अवसानपर्यन्त छः भाव आते हैं इस सन्दर्भ में उन्होंने वार्ष्यायणि के षड्भावविकारों की चर्चा की है। उत्पादन , अस्तित्व, परिवर्तन, विकास, क्षय और विनाश अस्तित्व के इन छह तरीकों का उल्लेख सबसे पहले वार्ष्यायणि जी के द्वारा किया गया है, वे इस प्रकार हैं-
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*'''जायते-''' षड्भावविकारों में प्रथम भावविकार जायते का अर्थ है - उत्पन्न होना। जायत इति पूर्वभावस्यादिमाचष्टे नापरभावमाचष्टे न प्रतिषेधति। (नि० १,२) यह क्रिया के आरंभ भाव को कहती है यह न तो परवर्ती क्रिया को कहती है, न उसका निषेध करती है। उत्पन्न होने की प्रक्रिया में न तो यह कह सकते हैं कि यह इस वस्तु की सत्ता है और न ही यह कह सकते हैं कि यह इसकी सत्ता नहीं है।
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*'''अस्ति-''' अस्तीत्युत्पन्नस्य सत्त्वस्यावधारणम्।(नि०१,२) उत्पन्न वस्तु की निश्चयात्मक स्थिति को अस्ति कहते हैं। वैयाकरणों के अनुसार अपने आपको धारण करने का व्यापार अस्ति है। जैसा कि कहा गया है- आत्मानम् आत्मना विभ्रद् अस्तीति व्यपदिश्यते। (वा०पदी०)
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*'''विपरिणमते-''' विपरिणमत इत्यप्रच्यवमानस्य तत्त्वाद्विकारम्, वर्धत इति स्वांगाभ्युचयं सांयोगिकानां वार्थानाम्। (नि० १,२) इसका अभिप्राय है परिवर्तित होना। इसमें क्रिया अपनी मूल प्रकृति को नहीं छोड़ती तथा न ही अपनी परवर्ती क्रिया को कहती है न मना करती है। जैसे मानव शरीर में अनेक परिवर्तन हो सकते हैं परंतु वह स्वभाव को नहीं छोड़ता।
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*'''वर्धते-''' वर्धते विजयेनेति वा वर्धते शरीरेणेति वा। (नि०१,२) वर्धते का अर्थ है वृद्धि। वृद्धि दो प्रकार की होती है। शरीर से वृद्धि होना या संयुक्त अर्थों से जैसे - धनेन वर्धते, विजयेन वर्धते, इत्यादि से भी वृद्धि हो सकती है।
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*'''अपक्षीयते-''' अपक्षीयते ह्रास या अपक्षय को कहते हैं। इसके भी वृद्धि के समान दो भेद हैं - शरीर का ह्रास । पदार्थों का ह्रास।
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*'''विनश्यति''' - यह अन्तिम भाव विकार है जब पाँचवां भाव विकार अपनी चरम सीमा को प्राप्त करता है तब विनाश कहलाता है। वार्ष्यायणि के अनुसार इन छः विकारों के अतिरिक्त जितने भी ज्ञातविकार प्राप्त होते हैं उन्हें इन्हीं के अन्तर्गत मान लेना चाहिये।
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मुख्य रूप से सत्ता (भू) और अस्ति इन धातुओं से ही समस्त कार्य प्रकट होते हैं। एक तृतीय कृञ् धातु भी इसी प्राधान्यता की श्रेणी में समाविष्ट होती हैं। भावविकारों का उल्लेख वार्ष्यायणि के नाम से महाभाष्यकार पतञ्जलि ने षड्भावविकारा इति ह स्माह वार्ष्यायणिः।(महा०भा० १ ,३,१) ने किया है अतः यह षड्भावविकार सिद्धान्त भाषाविज्ञान का प्रसिद्ध और मान्य सिद्धान्त है।
  
== सारांश ==
+
==निरुक्तकार==
यास्क को निर्वचन विद्या का प्रथम लेखक माना जाता है। यास्क ने सर्वप्रथम निर्वचन को एक पृथक विज्ञान के रूप में स्थापित किया। निरुक्त में निर्वचन के साथ ही साथ यास्क ने अपने अन्य सिद्धांतों का उल्लेख किया है किन्तु इनकी निर्वचन विद्या की महत्ता सर्वाधिक है। वैदिक पाठ्य के सम्यक ज्ञान के लिए निरुक्त आवश्यक है। निरुक्त को व्याकरण का पूरक माना जाता है
+
महर्षि यास्कने अपने निरुक्तमें चौदह निरुक्तकारोंके मत का उल्लेख किया है। निरुक्तके टीकाकार दुर्गाचार्यजी ने भी चौदह निरुक्तकारों की चर्चा अपनी वृत्तिमें की है-
  
तदिदं विद्यास्थानं व्याकरणस्य कात्स्नर्यम्। (नि० 1.15)
+
निरुक्त में वर्णित कुछ प्रमुख निरुक्तकार जो कि इस प्रकार हैं-
  
संहिताओं के पद पाठ में तथा पदों को धातु प्रत्यय आदि में विभक्त करने हेतु निरुक्त आवश्यक है।
+
*आचार्य औपमन्यव
 +
*औदुम्बरायण
 +
*वार्ष्यायणि
 +
*गार्ग्य
 +
*शाकपणिः
 +
*और्णवाम
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*आचार्य गालव
 +
*आचार्य तैटिकी
 +
*आचार्य क्रौष्टुकि
 +
*आचार्य कात्थक्य
 +
*आचार्य स्थौलाष्ठीवि
 +
*आचार्य आग्रायण
 +
*चर्मशिरा
 +
*शतवलाक्ष
  
यज्ञ में प्रयुक्त मंत्र में एक से अधिक देवता होने पर प्रधान देवता का ज्ञान भी निरुक्त द्वारा होता है अतः इसका व्यावहारिक महत्व है।
+
इस प्रकार से पन्द्रह निरुक्तकारों का वर्णन प्राप्त होता है।<ref>डॉ० रामाशीष पाण्डेय, [https://www.jainfoundation.in/JAINLIBRARY/books/vyutpatti_vigyan_aur_aacharya_yask_023115_hr6.pdf व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क], सन् १९९९, प्रबोध संस्कृत प्रकाशन, हरमू, रांची(बिहार), (पृ०५४)।</ref>
  
भाषा विज्ञान की तरह यास्क कृत निर्वचन शब्द के मूल अर्थ का ज्ञान नहीं कराता अपितु यास्क के निर्वचन का मुख्य उद्देश्य अधिकाधिक अर्थों के साथ शब्द की संगति स्थापित करना है। निर्वचन में प्रचलित अर्थ का शब्द से अन्वय करने के लिए तथ्यों के आश्रय की अपेक्षा कल्पना
+
==सारांश==
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यास्क को निर्वचन विद्या का प्रथम लेखक माना जाता है। यास्क ने सर्वप्रथम निर्वचन को एक पृथक विज्ञान के रूप में स्थापित किया। निरुक्त में निर्वचन के साथ ही साथ यास्क ने अपने अन्य सिद्धांतों का उल्लेख किया है किन्तु इनकी निर्वचन विद्या की महत्ता सर्वाधिक है। वैदिक पाठ्य के सम्यक ज्ञान के लिए निरुक्त आवश्यक है। निरुक्त को व्याकरण का पूरक माना जाता है – <blockquote>तदिदं विद्यास्थानं व्याकरणस्य कात्स्नर्यम्। (नि० 1.15)</blockquote>संहिताओं के पद पाठ में तथा पदों को धातु प्रत्यय आदि में विभक्त करने हेतु निरुक्त आवश्यक है। यज्ञ में प्रयुक्त मंत्र में एक से अधिक देवता होने पर प्रधान देवता का ज्ञान भी निरुक्त द्वारा होता है अतः इसका व्यावहारिक महत्व है। भाषा विज्ञान की तरह यास्क कृत निर्वचन शब्द के मूल अर्थ का ज्ञान नहीं कराता अपितु यास्क के निर्वचन का मुख्य उद्देश्य अधिकाधिक अर्थों के साथ शब्द की संगति स्थापित करना है। निर्वचन में प्रचलित अर्थ का शब्द से अन्वय करने के लिए तथ्यों के आश्रय की अपेक्षा कल्पना योग्य है।
  
== उद्धरण ==
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==उद्धरण==
 
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Revision as of 16:31, 26 September 2023

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निरुक्त निर्वचनप्रधान शास्त्र है, जिसमें महर्षि यास्क ने बहुत से वैदिक मन्त्रों की व्याख्या नवीन शैली में प्रस्तुत की है। निरुक्त में निघण्टु के कहे गये वैदिक शब्दों की व्याख्या की गयी है, इसे निघण्टु का भाष्य भी कहते हैं। वेदों से निकाल एकत्र संग्रहीत किये गये वैदिक कठिन पदों के संग्रह का नाम ही निघण्टु रखा गया, तथा परवर्ती आचार्यों द्वारा निघण्टु पदों की जो व्याख्या की गयी, उसी व्याख्यान-ग्रन्थ को निरुक्त के नाम से अभिहित किया गया, अनेक आचार्यों ने निघण्टु ग्रन्थ पर अपनी-अपनी व्याख्यायें की, परंतु वर्तमान में जो निरुक्त प्राप्त होता है, वह यास्क कृत निरुक्त माना जाता है।

प्रस्तावना

निरुक्त में वैदिक शब्द समाम्नाय की व्याख्या की गई है जो निघंटु के पांच अध्यायों में संकलित है। निघंटु वैदिक शब्दकोश है जिसमें १३४१ शब्द परिगणित हैं इसके प्रथम तीन अध्याय नैघण्टुक काण्ड कहे जाते हैं। चतुर्थ अध्याय को नैगम काण्ड और अंतिम अध्याय को दैवतकाण्ड कहा गया है। आचार्य यास्क द्वारा रचित निरुक्त में निघंटु गत २३० शब्दों का निर्वचन है। निरुक्त में निर्वचन करने के लिए वर्णागम, वर्ण-विपर्यय, वर्ण-विकार, वर्ण नाश और धातुओं का अनेक अर्थों में प्रयोग ये पांच नियम हैं। निरुक्त में मूलतः १२ अध्याय हैं। इसके अतिरिक्त २ अध्याय परिशिष्ट रूप में हैं। कुल मिलाकर १४ अध्यायों का विभाजन पादों में हैं। निरुक्त पर दुर्गाचार्य, स्कन्द, महेश्वर और वररुचि की टीकाएं उपलब्ध हैं।

परिभाषा

आचार्य सायण ने निरुक्त का लक्षण किया है –

अर्थावबोधे निरपेक्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरुक्तम्।

अर्थात अर्थज्ञान के विषय में जहां स्वतंत्ररूप में पद समूह का कथन किया गया है वह निरुक्त कहलाता है।

निघण्टु एवं निरुक्त

यास्क का निरुक्त वस्तुतः निघण्टु ग्रन्थ की व्याख्या या भाष्य है। निघण्टु वैदिक शब्द-कोश या वैदिक शब्दों का संकलन है। कुछ विद्वान् मानते हैं कि निघण्टु पृथक्- पृथक् विद्वानों की रचना है। महाभारत शान्तिपर्व के अनुसार निघंटु के रचयिता प्रजापति कश्यप हैं -

नैघण्टुकपदाख्याने....प्राह कश्यपो मां प्रजापतिः।(अध्य०३४२ श्लो० ८८/८९)

इसमें पाँच अध्याय हैं। इसमें संग्रहीत शब्दों की संख्या 1768 है। अध्यायों के अनुसार इनकी संख्या इस प्रकार है -

(निघण्टु के अध्यायों वर्णित शब्द संख्या एवं पदार्थों के समानार्थक शब्द सारिणी)
अध्याय क्रम संख्या शब्दों की संख्या अध्यायों का विषयानुसार वर्णन
प्रथम अध्याय 414 शब्द संकलित पृथिवी, हिरण्य, मेघ आदि 17 पदार्थों के समानार्थक शब्द
द्वितीय अध्याय 514 शब्द मनुष्य, अन्न, धन, गो आदि 22 पदार्थों के समानार्थक शब्द
तृतीय अध्याय 410 शब्द बहु, ह्रस्व, प्रज्ञा, यज्ञ आदि 30 के समानार्थक शब्द
चतुर्थ अध्याय 279 शब्द कठिन या व्याख्या के योग्य 279 शब्दों का संकलन
पंचम अध्याय 151 शब्द देवता- वाचक 151 शब्दों का संकलन

निरुक्त को तीन काण्डों में विभक्त किया गया है - [1]

  1. नैघण्टुक काण्ड - निरुक्त का प्रथम अध्याय भूमिका है। अध्याय २ और ३ में निघंटु के प्रथम, द्वितीय और तृतीय अध्याय में पठित शब्दों का विवेचन है। अतः निरुक्त के अध्याय २ और ३ को नैघण्टुक कांड कहते हैं।
  2. नैगम काण्ड - निरुक्त के अध्याय ४ से ६ को नैगम कांड कहते हैं, इनमें निघंटु के अध्याय ४ के शब्दों की व्याख्या है।
  3. दैवत काण्ड - निरुक्त के अध्याय ७ से १२ को दैवत कांड कहते हैं। इन ६ अध्यायों में निघंटु के अध्याय ५ में संकलित १५१ देवविषयक शब्दों की सोदाहरण व्याख्या है।
  • निरुक्त के प्रथम अध्याय तथा द्वितीय अध्याय के प्रथम पाद तक निरुक्त की भूमिका वर्णित है। निरुक्त के प्रथम अध्याय में निघण्टु का लक्षण पदों के भेद, भाव के विकार, शब्दों का धातुज सिद्धान्त और निरुक्त की उपयोगिता वर्णित है।
  • द्वितीय अध्याय में निर्वचन के सिद्धान्त और निरुक्त की उपयोगिता वर्णित है। द्वितीय अध्याय में निर्वचन के सिद्धान्त, निघण्टु के शब्दों की व्याख्या, द्वितीय पाद से सप्तम पाद तक ऋचाओं के उद्धरण देकर अनेक शब्दों के निर्वचन प्रस्तुत किये हैं।
  • तृतीय अध्याय में भी नैघण्टुककाण्डगत पदों का निर्वचन किया गया है।
  • चतुर्थ से षष्ठ अध्यायों में नैगमकाण्डगत शब्दों का विचार किया गया है।
  • सातवें से बारहवें अध्यायों में दैवतकाण्ड के शब्दों का विचार किया गया है। यास्क के मतानुसार व्याकरण की परिपूर्णता निरुक्त में आकर होती है। निरुक्त के आधार पर वेद व्याख्या विषयक अनेक सम्प्रदायों, आचार्यों तथा उनके विविध मतों का ज्ञान होता है।

इस प्रकार से निघंटु और निरुक्त अन्योन्य-संबद्ध ग्रन्थ हैं।[2]

वेदांग एवं निरुक्त

निरुक्त का अर्थ है- निर्वचन, व्युत्पत्ति। शब्द के मूलरूप का ज्ञान कराना, शब्दमें प्रकृति-प्रत्यय का स्पष्टीकरण, धात्वर्थ और प्रत्ययार्थ का विशदीकरण, समानार्थक और नानार्थक शब्दों का विवेचन आदि कार्य निरुक्त का है। इसके लिये इंग्लिश शब्द (Etmology, एटिमॉलाजी) है। जिसका अर्थ है - शब्द की उत्पत्ति और उसके विकास की प्रक्रिया का अध्ययन। इसे ही शब्द-व्युत्पत्ति-शास्त्र भी कहा जाता है। प्राचीन काल में इस शास्त्र को निरुक्त कहते थे।[3] वेदार्थ ज्ञान के लिए महर्षि यास्ककृत निरुक्तशास्त्र सर्वोत्तम सहायक ग्रन्थ है। वेदांग छः हैं - [4]

शिक्षा कल्पोऽथ व्याकरणं निरुक्तं छन्दसां च य। ज्योतिषामयनं चैव वेदांगानि षडेव तु॥ (पा० शि०)

शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्दःशास्त्र और ज्योतिषशास्त्र। इनमें निरुक्तशास्त्र वेद का श्रोत्र (कान) माना गया है -

निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते।

निरुक्त की चतुर्दश विद्याओं में भी गणना होती है। यह व्याकरण का पूरक भी है क्योंकि व्याकरण शब्दों की रचना (बहिरंग) की व्याख्या करता है वहीं निरुक्त उनके अर्थ (अन्तरंग) की खोज करता है। इसके लिये वह शब्दों की प्रकृति का पता लगाकर उसके अर्थ से संगति दिखाते हुए पूरे शब्द के अर्थ का अनुसन्धान करता है।

निरुक्तकार यास्क

भाषाशास्त्र की दृष्टि से निरुक्त का बहुत महत्व है। इसमें शब्द के मूल का ज्ञान कराया जाता है। इसमें अर्थविज्ञान की अनेक विद्याओं का समावेश है। शब्द के अर्थ का किस प्रकार विकास होता है, किस प्रकार एकार्थक शब्द अनेकार्थक हो जाता है और अनेकार्थक शब्द एकार्थक हो जाते हैं, समानार्थक शब्दों में सूक्ष्म भेद क्या है, शब्दों के अर्थों में परिवर्तन कैसे होता है। जो निरुक्तकारों की शृंखला में चौदहवें निरुक्तकार माने जाते हैं।

महाभारत शान्तिपर्व (अध्याय ३४२, श्लोक ७२-७३) में यास्क ऋषि के निरुक्तकार होने का स्पष्ट उल्लेख है। साथ ही यह भी उल्लेख है कि यास्क ने नष्ट हुए निरुक्त-शास्त्र का पुनरुद्धार किया।

यास्को मामृषिरव्यग्रो नैकयज्ञेषु गीतवान्। यास्क ऋषिरुदारधीः,,,, नष्टं निरुक्तमधिजग्मिवान्॥(श्लो० ७२/७३)

यास्क का निरुक्त ग्रन्थ ही संप्रति उपलब्ध है। इसमें १२ अध्याय हैं। अन्त में परिशिष्ट के रूप में २ अध्याय हैं। इस प्रकार यह १४ अध्यायों में विभक्त है। इसका वर्ण्य-विषय संक्षेप में यह है-[2]

अध्याय १ - निघण्टु का लक्षण, नाम आख्यात आदि पदों के भेद, षड्भाव-विकार, शब्दनित्यता का विवेचन, उपसर्गों का अर्थविवेचन, शब्दों का धातुज सिद्धान्त, मन्त्रों की सार्थकता का प्रतिपादन, अर्थज्ञान का महत्व और निरुक्त की उपयोगिता।

अध्याय २ और ३ - नैघण्टुक कांड। अध्याय २ के प्रारंभ में निर्वचन और वर्ण-परिवर्तन आदि से संबद्ध भाषाशास्त्रीय विवेचन। शेष में निघण्टु में पठित शब्दों की व्याख्या आदि।

अध्याय ४ से ६ - नैगम कांड या ऐकपदिक कांड। इन तीन कांडों में वेदों के निघण्टु में पठित कठिन शब्दों की सोदाहरण व्याख्या।

अध्याय ७ से १२ - दैवत कांड। इन अध्यायों में देवतावाचक शब्दों की विस्तृत व्याख्या। द्युलोक, अन्तरिक्ष और पृथिवी- स्थानीय देवों का विवेचन।

अध्याय १३ और १४- इनमें निर्वचन-प्रक्रिया, सृष्टि-उत्पत्ति तथा दार्शनिक महत्त्व के अनेक विषयों का विवेचन है।ये दो अध्याय परिशिष्ट में हैं।

यास्क के द्वारा दिये गये उदाहरणों से सिद्ध होता है कि निघण्टु व्यक्तिवाचक शब्द नहीं है किन्तु जातिवाचक है। उनके कथन के अनुसार जिनमें ये चार बातें हो वही निघण्टु है -

निरुक्त के प्रतिपाद्य विषय

निरुक्त का मुख्य प्रतिपाद्य विषय वैदिक क्लिष्ट पदों का निर्वचन है। प्रस्तुत निरुक्त में १, वर्णागम-विचार, २, वर्ण-विपर्यय-विचार, ३, वर्ण-विकार-विचार, ४, वर्णनाश-विचार, ५, धातुओं का अनेक अर्थों में प्रयोग इस प्रकार से निरुक्त को पञ्चलक्षणात्मक बताया गया है। किसी शब्द के अर्थज्ञान में दूसरे व्याकरणादि की अपेक्षा के बिना स्वयं अर्थ के प्रकट करने को निरुक्त कहा है। काशिकावृत्ति ग्रन्थ के अनुसार निरुक्त पाँच प्रकार का होता है। जैसे -

वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च, द्वौ चापरौ वर्णविकारनाशौ। धातोस्तदर्थातिशयेन योगस्तदुच्यते पञ्चविधं निरुक्तम्॥ (काशिका वृत्ति)

उपर्युक्त श्लोक का अर्थ इस प्रकार है -

  1. वर्णागम (अक्षर बढाना)।
  2. वर्णविपर्यय (अक्षरों को आगे पीछे करना)।
  3. वर्णाधिकार (अक्षरों को बदलना)।
  4. वर्णनाश (अक्षरों को छोडना)।
  5. धातु के किसी एक अर्थ को सिद्ध करना।

निरुक्त द्वितीय अध्याय के प्रारंभ में इस विषय का विस्तृत विवेचन है और इनके उदाहरण आदि दिए हैं। वैदिक पदों के निर्वचन के अतिरिक्त निरुक्त में भाषा विज्ञान, साहित्य, समाज-शास्त्र एवं ऐतिहासिक विभिन्न विषयों का भी प्रयोगानुकूल वर्णन किया गया है।[5]

निरुक्त के प्रयोजन

आचार्य यास्क निरुक्तशास्त्र के अध्ययन-अध्यापन का सर्वप्रथम प्रयोजन बताते हुए निरुक्त को मंत्र ज्ञान अथवा अर्थज्ञान हेतु सहायक कहते हैं। इतना ही नहीं वे व्याकरण और निरुक्त में घनिष्ठ संबंध को भी मानते हैं। आचार्य यास्क के अनुसार निरुक्त शास्त्र के चार प्रयोजन निम्नलिखित हैं - अर्थज्ञान, पदविभाग का ज्ञान, देवता का ज्ञान, ज्ञान की प्रशंसा एवं अज्ञान की निंदा। इन सभी का विस्तृत वर्णन नीचे किया जा रहा है -

  1. अर्थ ज्ञान –
  2. पद विभाग –
  3. देवता का ज्ञान –
  4. ज्ञान की प्रशंसा और अज्ञान की निंदा –

निर्वचन के सिद्धांत

निर्वचन शब्द निर् + वच् परिभाषणे+ ल्युट् प्रत्ययसे निष्पन्न होता है। इसके अनुसार निर्वचन शब्द निःशेष या निखिल वक्तव्य का वाचक है। शब्दों की प्रकृति के अनुसार संभावित अर्थों के अन्वेषण में प्रत्यक्ष, परोक्ष या अति परोक्ष वृत्तियों के द्वारा उपन्यस्त है।

पद विभाग

महर्षि यास्क प्रवृत्ति निमित्त और प्रयोग को ही पद विभाग का आधार मानते हैं। जाति, गुण और यदृच्छा वाचक शब्दों में सत्व की प्रधानता ही प्रवृत्ति-निमित्त है। अतः इन तीनों प्रकार के शब्दों को यास्क ने नाम वर्ग में माना है। सत्व के लिये प्रयुक्त शब्द नाम ही है। क्रिया को प्रकट करने वाले शब्दों को आख्यात नाम दिया है तथा इनमें भाव की प्रधानता बताई है। अव्यय पदों में से नाम और आख्यात से संयुक्त होकर अर्थ बोध कराने वाले शब्दों को उपसर्ग तथा शेष अव्यय पदों को निपात की संज्ञा से अभिहित किया है। यास्क की दृष्टि में मुख्य रूप से पदों के दो विभाग हैं-

दृष्टव्यय तथा अव्यय इन्हीं को महर्षि यास्क ने गौण रूप में चार विभागों में विभक्त करते हुये कहा है-

तद्यान्येतानि चत्वारि पदजातानि नामाख्याते चोपसर्गनिपाताश्च तानि इमानि भवन्ति। (निरुक्त १,१,१) चत्वारि पदजातानि नामाख्यातोपसर्गनिपाताश्च। (म०भा० पस्पशाह्निक)

इस प्रकार निरुक्त और महाभाष्यादि में चार प्रकार के पद स्वीकार किये गये हैं। इस सन्दर्भ में वाक्यपदीयकार ने कहा है-

द्विधा कैश्चित्पदं भिन्नं चतुर्धा पञ्चधापि वा। अपोद्धृत्यैव वाक्येभ्यः प्रकृतिप्रत्ययादिवत् ॥ (वा०प०३,१,१)

अर्थात् कुछ आचार्य नाम और आख्यात इन दो को पद मानते हैं, कुछ नाम, आख्यात, उपसर्ग, निपात इन चार को पद मानते हैं जबकि कुछ इन चारों के साथ-साथ कर्मप्रवचनीय को भी पद मानते हैं। पदों के मुख्यतः चार विभाग हैं –

1. नाम

2. आख्यात

3. उपसर्ग

4. निपात

उपर्युक्त इन चारों पदों का प्रयोग लौकिक संस्कृत एवं वेद दोनों में होता हैं निरुक्त में मुख्यतया निरुक्त का प्रयोजन, अर्थज्ञान, पदविभाग एवं देवता आदि का विवेचन है। यास्क ने निर्वचन के कुछ सामान्य एवं कुछ विशिष्ट सिद्धांतों का वर्णन किया है। निरुक्त निर्वचन प्रधान शास्त्र है, जिसमें महर्षि यास्क ने बहुत से वैदिक मंत्रों की व्याख्या नवीन शैली में प्रस्तुत की है।

  • निरुक्त में निघंटु के कहे गए वैदिक शब्दों की व्याख्या की गयी है, इसे निघंटु का भाष्य भी कहते हैं।
  • निघंटु में केवल शब्दों का संकलन है।
  • महाभारत में प्रजापति कश्यप को निघंटु का कर्ता स्वीकार किया है परंतु कुछ आचार्य यास्क को ही निघंटु का रचयिता मानते हैं।

षड् भावविकार

भाव शब्द भू धातु से घञ् प्रत्यय लगाने से बना है, भाव का अर्थ है क्रिया। भाव में सभी क्रियायें (धातुयें) आ जाती हैं, परन्तु आचार्य वार्ष्यायणि ने छः प्रकार के भाव निश्चित किये हैं-

षड्भावविकाराः भवन्तीति वार्ष्यायणिः। जायतेऽस्तिविपरिणमतेवर्धतेऽपक्षीयतेविनश्यतीति।(नि० 1-2)

निरुक्तकार ने क्रिया के लिये आख्यात शब्द का प्रयोग किया है तथा इसकी परिभाषा 'भावप्रधानमाख्यातम्' अर्थात् जिसमें भाव की प्रधानता हो वह आख्यात है। भाव के अन्तर्गत क्रिया की उत्पत्ति से लेकर अवसानपर्यन्त छः भाव आते हैं इस सन्दर्भ में उन्होंने वार्ष्यायणि के षड्भावविकारों की चर्चा की है। उत्पादन , अस्तित्व, परिवर्तन, विकास, क्षय और विनाश अस्तित्व के इन छह तरीकों का उल्लेख सबसे पहले वार्ष्यायणि जी के द्वारा किया गया है, वे इस प्रकार हैं-

  • जायते- षड्भावविकारों में प्रथम भावविकार जायते का अर्थ है - उत्पन्न होना। जायत इति पूर्वभावस्यादिमाचष्टे नापरभावमाचष्टे न प्रतिषेधति। (नि० १,२) यह क्रिया के आरंभ भाव को कहती है यह न तो परवर्ती क्रिया को कहती है, न उसका निषेध करती है। उत्पन्न होने की प्रक्रिया में न तो यह कह सकते हैं कि यह इस वस्तु की सत्ता है और न ही यह कह सकते हैं कि यह इसकी सत्ता नहीं है।
  • अस्ति- अस्तीत्युत्पन्नस्य सत्त्वस्यावधारणम्।(नि०१,२) उत्पन्न वस्तु की निश्चयात्मक स्थिति को अस्ति कहते हैं। वैयाकरणों के अनुसार अपने आपको धारण करने का व्यापार अस्ति है। जैसा कि कहा गया है- आत्मानम् आत्मना विभ्रद् अस्तीति व्यपदिश्यते। (वा०पदी०)
  • विपरिणमते- विपरिणमत इत्यप्रच्यवमानस्य तत्त्वाद्विकारम्, वर्धत इति स्वांगाभ्युचयं सांयोगिकानां वार्थानाम्। (नि० १,२) इसका अभिप्राय है परिवर्तित होना। इसमें क्रिया अपनी मूल प्रकृति को नहीं छोड़ती तथा न ही अपनी परवर्ती क्रिया को कहती है न मना करती है। जैसे मानव शरीर में अनेक परिवर्तन हो सकते हैं परंतु वह स्वभाव को नहीं छोड़ता।
  • वर्धते- वर्धते विजयेनेति वा वर्धते शरीरेणेति वा। (नि०१,२) वर्धते का अर्थ है वृद्धि। वृद्धि दो प्रकार की होती है। शरीर से वृद्धि होना या संयुक्त अर्थों से जैसे - धनेन वर्धते, विजयेन वर्धते, इत्यादि से भी वृद्धि हो सकती है।
  • अपक्षीयते- अपक्षीयते ह्रास या अपक्षय को कहते हैं। इसके भी वृद्धि के समान दो भेद हैं - शरीर का ह्रास । पदार्थों का ह्रास।
  • विनश्यति - यह अन्तिम भाव विकार है जब पाँचवां भाव विकार अपनी चरम सीमा को प्राप्त करता है तब विनाश कहलाता है। वार्ष्यायणि के अनुसार इन छः विकारों के अतिरिक्त जितने भी ज्ञातविकार प्राप्त होते हैं उन्हें इन्हीं के अन्तर्गत मान लेना चाहिये।

मुख्य रूप से सत्ता (भू) और अस्ति इन धातुओं से ही समस्त कार्य प्रकट होते हैं। एक तृतीय कृञ् धातु भी इसी प्राधान्यता की श्रेणी में समाविष्ट होती हैं। भावविकारों का उल्लेख वार्ष्यायणि के नाम से महाभाष्यकार पतञ्जलि ने षड्भावविकारा इति ह स्माह वार्ष्यायणिः।(महा०भा० १ ,३,१) ने किया है अतः यह षड्भावविकार सिद्धान्त भाषाविज्ञान का प्रसिद्ध और मान्य सिद्धान्त है।

निरुक्तकार

महर्षि यास्कने अपने निरुक्तमें चौदह निरुक्तकारोंके मत का उल्लेख किया है। निरुक्तके टीकाकार दुर्गाचार्यजी ने भी चौदह निरुक्तकारों की चर्चा अपनी वृत्तिमें की है-

निरुक्त में वर्णित कुछ प्रमुख निरुक्तकार जो कि इस प्रकार हैं-

  • आचार्य औपमन्यव
  • औदुम्बरायण
  • वार्ष्यायणि
  • गार्ग्य
  • शाकपणिः
  • और्णवाम
  • आचार्य गालव
  • आचार्य तैटिकी
  • आचार्य क्रौष्टुकि
  • आचार्य कात्थक्य
  • आचार्य स्थौलाष्ठीवि
  • आचार्य आग्रायण
  • चर्मशिरा
  • शतवलाक्ष

इस प्रकार से पन्द्रह निरुक्तकारों का वर्णन प्राप्त होता है।[6]

सारांश

यास्क को निर्वचन विद्या का प्रथम लेखक माना जाता है। यास्क ने सर्वप्रथम निर्वचन को एक पृथक विज्ञान के रूप में स्थापित किया। निरुक्त में निर्वचन के साथ ही साथ यास्क ने अपने अन्य सिद्धांतों का उल्लेख किया है किन्तु इनकी निर्वचन विद्या की महत्ता सर्वाधिक है। वैदिक पाठ्य के सम्यक ज्ञान के लिए निरुक्त आवश्यक है। निरुक्त को व्याकरण का पूरक माना जाता है –

तदिदं विद्यास्थानं व्याकरणस्य कात्स्नर्यम्। (नि० 1.15)

संहिताओं के पद पाठ में तथा पदों को धातु प्रत्यय आदि में विभक्त करने हेतु निरुक्त आवश्यक है। यज्ञ में प्रयुक्त मंत्र में एक से अधिक देवता होने पर प्रधान देवता का ज्ञान भी निरुक्त द्वारा होता है अतः इसका व्यावहारिक महत्व है। भाषा विज्ञान की तरह यास्क कृत निर्वचन शब्द के मूल अर्थ का ज्ञान नहीं कराता अपितु यास्क के निर्वचन का मुख्य उद्देश्य अधिकाधिक अर्थों के साथ शब्द की संगति स्थापित करना है। निर्वचन में प्रचलित अर्थ का शब्द से अन्वय करने के लिए तथ्यों के आश्रय की अपेक्षा कल्पना योग्य है।

उद्धरण

  1. यास्काचार्य, निरुक्त, प्राक्कथन, सन् १९५२, रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूना (पृ० २४)
  2. 2.0 2.1 डॉ०कपिलदेव द्विवेदी, वैदिक साहित्य एवं संस्कृति, सन् २०००, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी (पृ० २०५)।
  3. प्रो० उमाशंकर शर्मा 'ऋषिः', निरुक्तम्, राष्ट्रभाषानुवाद टिप्पणीसहित, सन् 1966, विद्याभवन संस्कृत सीरीज (पृ० 53)।
  4. डॉ० कुंवर लाल, निरुक्त सार निदर्शन, सन् १९७८, इतिहास विद्या प्रकाशन, दिल्ली (पृ० १३)।
  5. Shradha Singh, Nirukta me Pratipadit Antarikshsthaniya Devatao ka Samikshatmak Adhyayan, 2022, Banaras Hindu University (shodhganga), chapter 1, Page 5.
  6. डॉ० रामाशीष पाण्डेय, व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क, सन् १९९९, प्रबोध संस्कृत प्रकाशन, हरमू, रांची(बिहार), (पृ०५४)।