Difference between revisions of "Yoga in Panchanga (पंचांग में योग)"

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वृद्धिर्ध्रुवाख्यो व्याघातो हर्षणो वज्रसंज्ञकः। सिद्धियोगो व्यतीपातो वरीयान परिघः शिवः॥
 
वृद्धिर्ध्रुवाख्यो व्याघातो हर्षणो वज्रसंज्ञकः। सिद्धियोगो व्यतीपातो वरीयान परिघः शिवः॥
  
सिद्धिः साध्यः शुभः शुक्लो ब्रह्मेन्द्रो वैधृतिः स्मृतः। सप्तविंशतियोगास्ते स्वनामफलदाः स्मृताः॥<ref name=":0" /></blockquote>'''अर्थ-''' उपर्युक्त ये सत्ताईस योग निम्न क्रम में हैं- विष्कम्भ, प्रीति, आयुष्मान् , सौभाग्य, शोभन, अतिगण्ड, सुकर्मा, धृति, शूल, गण्ड, वृद्धि, ध्रुव, व्याघात, हर्षण, वज्र, सिद्धियोग, व्यतीपात, वरीयान् , परिघ, शिव, सिद्ध, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्म, ऐन्द्र और वैधृति। सिद्धियोग एवं सिद्धि का दो बार प्रयोग हुआ है किन्तु अनन्तर्कालीन आचार्यों ने द्वितीय क्रम में स्थित सिद्धि के स्थान पर सिद्ध का प्रयोग किया है।
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सिद्धिः साध्यः शुभः शुक्लो ब्रह्मेन्द्रो वैधृतिः स्मृतः। सप्तविंशतियोगास्ते स्वनामफलदाः स्मृताः॥<ref name=":0">श्री विन्ध्येश्वरीप्रसाद द्विवेदी, म्हूर्तचिन्तामणि, पीयूषधारा टीका, शुभाशुभ प्रकरण, सन् २०१८, वाराणसीः चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन (पृ०२८)</ref></blockquote>'''अर्थ-''' उपर्युक्त ये सत्ताईस योग निम्न क्रम में हैं- विष्कम्भ, प्रीति, आयुष्मान् , सौभाग्य, शोभन, अतिगण्ड, सुकर्मा, धृति, शूल, गण्ड, वृद्धि, ध्रुव, व्याघात, हर्षण, वज्र, सिद्धियोग, व्यतीपात, वरीयान् , परिघ, शिव, सिद्ध, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्म, ऐन्द्र और वैधृति। सिद्धियोग एवं सिद्धि का दो बार प्रयोग हुआ है किन्तु अनन्तर्कालीन आचार्यों ने द्वितीय क्रम में स्थित सिद्धि के स्थान पर सिद्ध का प्रयोग किया है।
  
 
उपर्युक्त योगों में वैधृति एवं व्यतीपात विवाह आदि शुभकर्मों में त्याज्य हैं।
 
उपर्युक्त योगों में वैधृति एवं व्यतीपात विवाह आदि शुभकर्मों में त्याज्य हैं।
 
=== विष्कम्भादि योग जानने का प्रकार ===
 
<blockquote>यस्मिनृक्षे स्थितो भानुर्यत्र तिष्ठति चन्द्रमा। एकीकृत्य त्यजेदेकं योगाः विष्कुम्भकादयः॥(बृह०अव०)<ref name=":1">पं०मदन गोपाल बाजपेयी, बृहदवकहडा चक्रम् ,सन् १९९८ वाराणसीः भारतीय विद्या प्रकाशन श्लो०९ (पृ०१़९)।</ref></blockquote>जिस नक्षत्र पर सूर्य हो और जिस नक्षत्र पर चन्द्रमा हो उन दोनों के नक्षत्र की संख्याओं को जोडकर एक घटायें , जो शेष बचे उसे  विष्कुम्भादि योग जानिये।
 
 
 
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|+(योग सारिणी, देवता एवं फल)<ref name=":0">श्री विन्ध्येश्वरीप्रसाद द्विवेदी, म्हूर्तचिन्तामणि, पीयूषधारा टीका, शुभाशुभ प्रकरण, सन् २०१८, वाराणसीः चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन (पृ०२८)</ref>
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|+(योग सारिणी, देवता एवं फल)<ref name=":0" />
 
!क्र०सं०
 
!क्र०सं०
 
!योग नाम
 
!योग नाम
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|अशुभ
 
|अशुभ
 
|
 
|
 +
15
 
|
 
|
 +
वज्र
 
|
 
|
 +
वरुण
 
|
 
|
 +
अशुभ
 
|-
 
|-
 
|2
 
|2
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|शुभ
 
|शुभ
 
|
 
|
 +
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|
 
|
 +
सिद्धि
 
|
 
|
 +
गणेश
 
|
 
|
 +
शुभ
 
|-
 
|-
 
|3
 
|3
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|शुभ
 
|शुभ
 
|
 
|
 +
17
 
|
 
|
 +
व्यतीपात
 
|
 
|
 +
रुद्र
 
|
 
|
 +
अशुभ
 
|-
 
|-
 
|4
 
|4
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|शुभ
 
|शुभ
 
|
 
|
 +
18
 
|
 
|
 +
वरीयान्
 
|
 
|
 +
कुबेर
 
|
 
|
 +
शुभ
 
|-
 
|-
 
|5
 
|5
Line 71: Line 83:
 
|शुभ
 
|शुभ
 
|
 
|
 +
19
 
|
 
|
 +
परिघ
 
|
 
|
 +
विश्वकर्मा
 
|
 
|
 +
अशुभ
 
|-
 
|-
 
|6
 
|6
Line 80: Line 96:
 
|अशुभ
 
|अशुभ
 
|
 
|
 +
20
 
|
 
|
 +
शिव
 
|
 
|
 +
मित्र
 
|
 
|
 +
शुभ
 
|-
 
|-
 
|7
 
|7
Line 89: Line 109:
 
|शुभ
 
|शुभ
 
|
 
|
 +
21
 
|
 
|
 +
सिद्धि
 
|
 
|
 +
कार्तिकेय
 
|
 
|
 +
शुभ
 
|-
 
|-
 
|8
 
|8
Line 98: Line 122:
 
|शुभ
 
|शुभ
 
|
 
|
 +
22
 
|
 
|
 +
साध्य
 
|
 
|
 +
सावित्री
 
|
 
|
 +
शुभ
 
|-
 
|-
 
|9
 
|9
Line 107: Line 135:
 
|अशुभ
 
|अशुभ
 
|
 
|
 +
23
 
|
 
|
 +
शुभ
 
|
 
|
 +
लक्ष्मी
 
|
 
|
 +
शुभ
 
|-
 
|-
 
|10
 
|10
Line 116: Line 148:
 
|अशुभ
 
|अशुभ
 
|
 
|
 +
24
 
|
 
|
 +
शुक्ल
 
|
 
|
 +
पार्वती
 
|
 
|
 +
शुभ
 
|-
 
|-
 
|11
 
|11
Line 125: Line 161:
 
|शुभ
 
|शुभ
 
|
 
|
 +
25
 
|
 
|
 +
ब्रह्मा
 
|
 
|
 +
अश्विनी
 
|
 
|
 +
शुभ
 
|-
 
|-
 
|12
 
|12
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|शुभ
 
|शुभ
 
|
 
|
 +
26
 
|
 
|
 +
ऐन्द्र
 
|
 
|
 +
पितर
 
|
 
|
 +
शुभ
 
|-
 
|-
 
|13
 
|13
Line 143: Line 187:
 
|अशुभ
 
|अशुभ
 
|
 
|
 +
27
 +
|
 +
वैधृति
 
|
 
|
 +
दिति
 
|
 
|
 +
अशुभ
 +
|-
 +
|14
 +
|हर्षण
 +
|भग
 +
|शुभ
 
|
 
|
|-}
+
|
 +
|
 +
|
 +
|}
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=== विष्कम्भादि योग जानने का प्रकार ===
 +
<blockquote>यस्मिनृक्षे स्थितो भानुर्यत्र तिष्ठति चन्द्रमा। एकीकृत्य त्यजेदेकं योगाः विष्कुम्भकादयः॥(बृह०अव०)<ref name=":1">पं०मदन गोपाल बाजपेयी, बृहदवकहडा चक्रम् ,सन् १९९८ वाराणसीः भारतीय विद्या प्रकाशन श्लो०९ (पृ०१़९)।</ref></blockquote>जिस नक्षत्र पर सूर्य हो और जिस नक्षत्र पर चन्द्रमा हो उन दोनों के नक्षत्र की संख्याओं को जोडकर एक घटायें , जो शेष बचे उसे  विष्कुम्भादि योग जानिये।
  
=== आनन्दादि योग ===
 
<blockquote>आनन्दाख्यः कालदण्डश्च धूम्रो धाता सौम्यो ध्वांक्षके तु क्रमेण। श्रीवत्साख्यो वज्रकं मुद्गरश्च छत्रं मित्रं मानसं पद्मलुंबौ॥
 
  
उत्पातमृत्यू किल काणसिद्धि शुभो मृताख्यो मुसलो गदश्च। मातंगरक्षश्चर सुस्थिराख्यः प्रवर्धमानाः फलदाः स्वनाम्ना॥(बृह०अव०)<ref name=":1" /></blockquote>अर्थ- आनन्द, कालदण्ड, धूम्र, धाता, सौम्य, ध्वांक्ष, केतु, श्रीवत्स, वज्र, मुद्गर, छत्र, मित्र, मानस, पद्म, लुम्ब, उत्पात, मृत्यु, काण, सिद्धि, शुभ, अमृत, मुसल, गद, मातंग, रक्ष, चर, सुस्थिर और प्रवर्धमान ये २८ योग होते हैं। ये अपने नाम अनुरूप ही फल देते हैं।
 
  
 +
== आनन्दादि योग जानने का प्रकार ==
  
अश्विनी भरणी कृत्तिका रोहिणी मृगशिरा आर्द्रा पुनर्वसु पुष्य आश्लेषा  रेवती
 
 
=== आनन्दादि योग जानने का प्रकार ===
 
<blockquote>दस्रादर्के मृगादिन्दौ सर्पाद्भौमे कराद्बुधे। मैत्राद्गुरौ भृगौ वैश्वाद्गण्या मन्दे च वारुणात् ॥(बृह०अव०)<ref name=":1" /></blockquote>अर्थात् रविवार को यदि योग जानना हो तो रविवार को जो नक्षत्र हो उस नक्षत्र से अश्विनी तक गिने, सोमवार को मृगशिरा से अश्विनी तक गिने, मंगलवार को आश्लेषा से, बुधवार को हस्त से, गुरुवार को अनुराधा से, शुक्रवार को उत्तराषाढा से और शनिवार को शतभिषा से अश्विनी तक गिने। जो संख्या प्राप्त हो तत्तुल्य आनन्दादि योग होते हैं। इसमें अभिजित् सहित नक्षत्रों की गणना करनी चाहिये।
 
 
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|+(सुगमता पूर्वक आनन्दादि योगों को जानने के लिये सारिणी)<ref name=":0" />
 
|+(सुगमता पूर्वक आनन्दादि योगों को जानने के लिये सारिणी)<ref name=":0" />
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|आर्द्रा
 
|आर्द्रा
 
|मघा
 
|मघा
|
+
|चित्रा
|
+
|ज्येष्ठा
|
+
|अभिजित्
|
+
|पू०भाद्र
 
|-
 
|-
 
|3
 
|3
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|पुनर्वसु
 
|पुनर्वसु
 
|पू०फाल्गु
 
|पू०फाल्गु
|
+
|स्वाती
|
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|मूल
|
+
|श्रवण
|
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|उ०भाद्र
 
|-
 
|-
 
|4
 
|4
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|पुष्य
 
|पुष्य
 
|उ०फाल्गु
 
|उ०फाल्गु
|
+
|विशाखा
|
+
|पू०षाढा
|
+
|धनिष्ठा
|
+
|रेवती
 
|-
 
|-
 
|5
 
|5
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|आश्लेषा
 
|आश्लेषा
 
|हस्त
 
|हस्त
|
+
|अनुराधा
|
+
|उ०षाढा
|
+
|शतभिषा
|
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|अश्विनी
 
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|6
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|मघा
 
|मघा
 
|चित्रा
 
|चित्रा
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|ज्येष्ठा
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|अभिजित्
|
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|
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|भरणी
 
|-
 
|-
 
|7
 
|7
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|पू०फाल्गु
 
|पू०फाल्गु
 
|स्वाती
 
|स्वाती
|
+
|मूल
|
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|श्रवण
|
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|उ०भाद्र
|
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|कृत्तिका
 
|-
 
|-
 
|8
 
|8
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|उ०फाल्गु
 
|उ०फाल्गु
 
|विशाखा
 
|विशाखा
|
+
|पू०षाढा
|
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|धनिष्ठा
|
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|रेवती
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|रोहिणी
 
|-
 
|-
 
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|9
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|हस्त
 
|हस्त
 
|अनुराधा
 
|अनुराधा
|
+
|उ०षाढा
|
+
|शतभिषा
|
+
|अश्विनी
|
+
|मृगशिरा
 
|-
 
|-
 
|10
 
|10
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|चित्रा
 
|चित्रा
 
|ज्येष्ठा
 
|ज्येष्ठा
|
+
|अभिजित्
|
+
|पू०भाद्र
|
+
|भरणी
|
+
|आर्द्रा
 
|-
 
|-
 
|11
 
|11
Line 287: Line 340:
 
|स्वाती
 
|स्वाती
 
|मूल
 
|मूल
|
+
|श्रवण
|
+
|उ०भाद्र
|
+
|कृत्तिका
|
+
|पुनर्वसु
 
|-
 
|-
 
|12
 
|12
Line 298: Line 351:
 
|विशाखा
 
|विशाखा
 
|पू०षाढा
 
|पू०षाढा
|
+
|धनिष्ठा
|
+
|रेवती
|
+
|रोहिणी
|
+
|पुष्य
 
|-
 
|-
 
|13
 
|13
Line 309: Line 362:
 
|अनुराधा
 
|अनुराधा
 
|उ०षाढा
 
|उ०षाढा
|
+
|शतभिषा
|
+
|अश्विनी
|
+
|मृगशिरा
|
+
|आश्लेषा
 
|-
 
|-
 
|14
 
|14
Line 320: Line 373:
 
|ज्येष्ठा
 
|ज्येष्ठा
 
|अभिजित्
 
|अभिजित्
|
+
|पू०भाद्र
|
+
|भरणी
|
+
|आर्द्रा
|
+
|मघा
 
|-
 
|-
 
|15
 
|15
Line 331: Line 384:
 
|मूल
 
|मूल
 
|श्रवण
 
|श्रवण
|
+
|उ०भाद्र
|
+
|कृत्तिका
|
+
|पुनर्वसु
|
+
|पू०फाल्गु
 
|-
 
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|16
 
|16
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|पू०षाढा
 
|पू०षाढा
 
|धनिष्ठा
 
|धनिष्ठा
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|रेवती
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|रोहिणी
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|उ०फाल्गु
 
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|17
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|उ०षाढा
 
|उ०षाढा
 
|शतभिषा
 
|शतभिषा
|
+
|अश्विनी
|
+
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+
|आश्लेषा
|
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|हस्त
 
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|अभिजित्
 
|अभिजित्
 
|पू० भाद्र
 
|पू० भाद्र
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|भरणी
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|आर्द्रा
|
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|मघा
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|चित्रा
 
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|श्रवण
 
|श्रवण
 
|उ०भाद्र
 
|उ०भाद्र
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|कृत्तिका
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|पुनर्वसु
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|पू०फाल्गु
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|स्वाती
 
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|धनिष्ठा
 
|धनिष्ठा
 
|रेवती
 
|रेवती
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|रोहिणी
|
+
|पुष्य
|
+
|उ०फाल्गु
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|शतभिषा
 
|शतभिषा
 
|अश्विनी
 
|अश्विनी
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+
|आश्लेषा
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|पूर्वाभाद्रपदा
 
|भरणी
 
|भरणी
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|आर्द्रा
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|मघा
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|चित्रा
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|ज्येष्ठा
 
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|-
 
|23
 
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|उत्तराभाद्रपदा
 
|उत्तराभाद्रपदा
 
|कृत्तिका
 
|कृत्तिका
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|पुनर्वसु
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|मूल
 
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|रेवती
 
|रेवती
 
|रोहिणी
 
|रोहिणी
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|अश्विनी
 
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|मृगशिरा
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|आश्लेषा
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|भरणी
 
|भरणी
 
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|आर्द्रा
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|चित्रा
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|ज्येष्ठा
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|अभिजित्
 
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|कृत्तिका
 
|कृत्तिका
 
|पुनर्वसु
 
|पुनर्वसु
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|पू०फाल्गु
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|श्रवण
 
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|रोहिणी
 
|रोहिणी
 
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|पुष्य
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|उ०फाल्गु
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|विशाखा
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|पू०षाढा
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|धनिष्ठा
 
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|}
  

Revision as of 01:05, 14 December 2022

ज्योतिषशास्त्र में पञ्चांग के अन्तर्गत चतुर्थ योग का समावेश हुआ है। सूर्य से चन्द्रमा का अन्तर १२॰ होने पर एक तिथि होती है। सूर्य चन्द्रमा के योग से दोनों के दैनिक भोग का योग ८०० कला होने पर एक योग होता है। वे योग विष्कम्भ आदि वैधृति अन्त २७ होते हैं।जिस प्रकार चन्द्र एवं सूर्य का वियोगात्मक मान तिथि महत्वपूर्ण तत्व को उत्पन्न कर सकता है तो उन दोनों का संयोगात्मक मान भी अवश्य ही शुभ सूचक होगा। अतः इन्हैं योग नाम से अभिहित किया गया।

परिचय

योग पंचांग का एक प्रमुख अंग है। सैद्धान्तिक दृष्टि से सूर्य एवं चन्द्रमा के गति योग को योग कहलाते हैं। योग दो प्रकार के होते हैं- एक स्थिरात्मक और दूसरा चलायमान। विष्कुम्भादि योग चलायमान हैं और आनन्दादि योग स्थिर।

पंचांग में दो प्रकार के योग दिये जाते हैं- प्रथम विष्कम्भादि योग और दूसरा आनन्दादि योग। विष्कम्भ आदि योगों की परिकल्पना गणितीय है। यह सूर्य चन्द्र के स्पष्ट योग पर आश्रित हैं। ज्योतिषशास्त्र के विकासक्रम में तिथि और नक्षत्र का गणित सर्वप्रथम आया। योग का गणित बाद में आया है। अतः विष्कम्भादि योगों की परिकल्पना गणितीय है। यह सूर्य चन्द्र के स्पष्ट योग पर आश्रित है। ज्योतिषशास्त्र के विकासक्रम में तिथि और नक्षत्र का गणित सबसे पहले आया। योग का गणित बाद में आया है। अतः विष्कम्भादि योग मौलिक योग कहे जायेंगे, जबकि आनन्दादि योग वार और नक्षत्र के संयोग से कल्पित हैं।

योगों का महत्व

वसिष्ठ संहिता आदि प्राचीनतम ग्रन्थों में विष्कम्भादि सत्ताइस योगों का वर्णन इस प्रकार है-

विष्कम्भः प्रीतिरायुष्मान् सौभाग्यः शोभनाह्वयः। अतिगण्डः सुकर्माख्यो धृतिः शूलोऽथ गण्डकः॥

वृद्धिर्ध्रुवाख्यो व्याघातो हर्षणो वज्रसंज्ञकः। सिद्धियोगो व्यतीपातो वरीयान परिघः शिवः॥

सिद्धिः साध्यः शुभः शुक्लो ब्रह्मेन्द्रो वैधृतिः स्मृतः। सप्तविंशतियोगास्ते स्वनामफलदाः स्मृताः॥[1]

अर्थ- उपर्युक्त ये सत्ताईस योग निम्न क्रम में हैं- विष्कम्भ, प्रीति, आयुष्मान् , सौभाग्य, शोभन, अतिगण्ड, सुकर्मा, धृति, शूल, गण्ड, वृद्धि, ध्रुव, व्याघात, हर्षण, वज्र, सिद्धियोग, व्यतीपात, वरीयान् , परिघ, शिव, सिद्ध, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्म, ऐन्द्र और वैधृति। सिद्धियोग एवं सिद्धि का दो बार प्रयोग हुआ है किन्तु अनन्तर्कालीन आचार्यों ने द्वितीय क्रम में स्थित सिद्धि के स्थान पर सिद्ध का प्रयोग किया है।

उपर्युक्त योगों में वैधृति एवं व्यतीपात विवाह आदि शुभकर्मों में त्याज्य हैं।

(योग सारिणी, देवता एवं फल)[1]
क्र०सं० योग नाम देवता फल क्र०सं० योग नाम देवता फल
1 विष्कम्भ यम अशुभ

15

वज्र

वरुण

अशुभ

2 प्रीति विष्णु शुभ

16

सिद्धि

गणेश

शुभ

3 आयुष्मान् चन्द्र शुभ

17

व्यतीपात

रुद्र

अशुभ

4 सौभाग्य ब्रह्मा शुभ

18

वरीयान्

कुबेर

शुभ

5 शोभन बृहस्पति शुभ

19

परिघ

विश्वकर्मा

अशुभ

6 अतिगण्ड चन्द्र अशुभ

20

शिव

मित्र

शुभ

7 सुकर्मा इन्द्र शुभ

21

सिद्धि

कार्तिकेय

शुभ

8 धृति जल शुभ

22

साध्य

सावित्री

शुभ

9 शूल सर्प अशुभ

23

शुभ

लक्ष्मी

शुभ

10 गण्ड अग्नि अशुभ

24

शुक्ल

पार्वती

शुभ

11 वृद्धि सूर्य शुभ

25

ब्रह्मा

अश्विनी

शुभ

12 ध्रुव भूमि शुभ

26

ऐन्द्र

पितर

शुभ

13 व्याघात वायु अशुभ

27

वैधृति

दिति

अशुभ

14 हर्षण भग शुभ

विष्कम्भादि योग जानने का प्रकार

यस्मिनृक्षे स्थितो भानुर्यत्र तिष्ठति चन्द्रमा। एकीकृत्य त्यजेदेकं योगाः विष्कुम्भकादयः॥(बृह०अव०)[2]

जिस नक्षत्र पर सूर्य हो और जिस नक्षत्र पर चन्द्रमा हो उन दोनों के नक्षत्र की संख्याओं को जोडकर एक घटायें , जो शेष बचे उसे विष्कुम्भादि योग जानिये।


आनन्दादि योग जानने का प्रकार

(सुगमता पूर्वक आनन्दादि योगों को जानने के लिये सारिणी)[1]
क्रम सं० योग फल रवि सोम मंगल बुध गुरु शुक्र शनि
1 आनन्द शुभ अश्विनी मृगशिरा आश्लेषा हस्त अनुराधा उ०षाढा शतभिषा
2 कालदण्ड अशुभ भरणी आर्द्रा मघा चित्रा ज्येष्ठा अभिजित् पू०भाद्र
3 धूम्र अशुभ कृत्तिका पुनर्वसु पू०फाल्गु स्वाती मूल श्रवण उ०भाद्र
4 धाता शुभ रोहिणी पुष्य उ०फाल्गु विशाखा पू०षाढा धनिष्ठा रेवती
5 सौम्य शुभ मृगशिरा आश्लेषा हस्त अनुराधा उ०षाढा शतभिषा अश्विनी
6 ध्वांक्ष अशुभ आर्द्रा मघा चित्रा ज्येष्ठा अभिजित् पू०भाद्र भरणी
7 केतु शुभ पुनर्वसु पू०फाल्गु स्वाती मूल श्रवण उ०भाद्र कृत्तिका
8 श्रीवत्स शुभ पुष्य उ०फाल्गु विशाखा पू०षाढा धनिष्ठा रेवती रोहिणी
9 वज्र अशुभ आश्लेषा हस्त अनुराधा उ०षाढा शतभिषा अश्विनी मृगशिरा
10 मुद्गर अशुभ मघा चित्रा ज्येष्ठा अभिजित् पू०भाद्र भरणी आर्द्रा
11 छत्र शुभ पूर्वाफाल्गुनी स्वाती मूल श्रवण उ०भाद्र कृत्तिका पुनर्वसु
12 मित्र शुभ उत्तराफाल्गुनी विशाखा पू०षाढा धनिष्ठा रेवती रोहिणी पुष्य
13 मानस शुभ हस्त अनुराधा उ०षाढा शतभिषा अश्विनी मृगशिरा आश्लेषा
14 पद्म अशुभ चित्रा ज्येष्ठा अभिजित् पू०भाद्र भरणी आर्द्रा मघा
15 लुम्ब अशुभ स्वाती मूल श्रवण उ०भाद्र कृत्तिका पुनर्वसु पू०फाल्गु
16 उत्पात अशुभ विशाखा पू०षाढा धनिष्ठा रेवती रोहिणी पुष्य उ०फाल्गु
17 मृत्यु अशुभ अनुराधा उ०षाढा शतभिषा अश्विनी मृगशिरा आश्लेषा हस्त
18 काण अशुभ ज्येष्ठा अभिजित् पू० भाद्र भरणी आर्द्रा मघा चित्रा
19 सिद्धि शुभ मूल श्रवण उ०भाद्र कृत्तिका पुनर्वसु पू०फाल्गु स्वाती
20 शुभ शुभ पूर्वाषाढा धनिष्ठा रेवती रोहिणी पुष्य उ०फाल्गु विशाखा
21 अमृत शुभ उत्तराषाढा शतभिषा अश्विनी मृगशिरा आश्लेषा हस्त अनुराधा
22 मुशल अशुभ अभिजित् पूर्वाभाद्रपदा भरणी आर्द्रा मघा चित्रा ज्येष्ठा
23 गद अशुभ श्रवण उत्तराभाद्रपदा कृत्तिका पुनर्वसु पू०फाल्गु स्वाती मूल
24 मातंग शुभ धनिष्ठा रेवती रोहिणी पुष्य उ०फाल्गु विशाखा पू०षाढा
25 रक्ष अशुभ शतभिषा अश्विनी मृगशिरा आश्लेषा हस्त अनुराधा उ०षाढा
26 चर शुभ पूर्वाभाद्रपदा भरणी आर्द्रा मघा चित्रा ज्येष्ठा अभिजित्
27 सुस्थिर शुभ उत्तराभाद्रपदा कृत्तिका पुनर्वसु पू०फाल्गु स्वाती मूल श्रवण
28 प्रवर्धमान शुभ रेवती रोहिणी पुष्य उ०फाल्गु विशाखा पू०षाढा धनिष्ठा

योग क्षय तथा वृद्धि

जिस योग में सूर्य का उदय न हो, उस योग को क्षय संज्ञक योग कहते हैं। नक्षत्र एवं तिथि की तरह योग का आरम्भ सूर्योदय के कुछ समय बाद में हो तथा द्वितीय सूर्योदय से पूर्व यदि योगमान समाप्त हो तो योग क्षयाख्य कहते हैं। योग की वृद्धि भी तिथि एवं नक्षत्र के तरह ही है।

योग फल

विष्कम्भे जितशत्रुरर्थपशुमान् प्रीतौ परस्त्रीवश श्चायुष्मत्प्रभवश्चिरायुरगदः सौभाग्यजातः सुखी।

भोगी शोभनश्योगजो वधरूचिर्जातोऽतिगण्डे धनी धर्माचाररतः सुकर्मजनितो धृत्यां परस्त्रीधनः॥

शूले कोपवशानुगः कलहकृद्गण्डे दुराचारवान् , वृद्धौ पण्डितवाग् ध्रुवेऽतिधनवान् व्याघातजो घातकः।

ज्ञानी हर्षणयोगजः पृथुयशा वज्रे धनी कामुकः, सिद्धौ सर्वजनाश्रितः प्रभुसमो मायी व्यतीपातजः॥

दुष्कामी च वरीयजस्तु परिघे विद्वेषको वित्तवान् , शास्त्रज्ञः शिवयोगजनश्च धनवान् शान्तोऽवनीशप्रियः।

सिद्धे धर्मपरायणः क्रतुपरः साध्ये शुभाचारवान् , चार्वंगः शुभयोगजश्च धनवान् कामातुरः श्लेष्मकः॥

शुक्ले धर्मरतः पटुत्ववचनः कोपी चलः पण्डितो, मानी ब्रह्मभवोऽतिगुप्तधनिकस्त्यागी विवेकप्रभुः।

ऐन्द्रे सर्वजनोपकारचरितः सर्वज्ञधीतिर्वत्तवान् , मायावी परदूषकश्च बलवान् त्यागी धनी वैधृतौ॥[3]

विचार-विमर्श

वारश्चाष्ट गुणः प्रोक्तः करणं षोडशान्वितम् । द्वात्रिंशत् गुणयोगश्च ताराषष्टि समन्विता॥(अथर्व ज्यो०)

अर्थ- वार का आठ गुना, करण का सोलह गुना, योग का बत्तीस गुना एवं तारा का साठ गुना फल होता है।

एवं नक्षत्रयोगेषु त्रिषु कर्म समारभेत् । धर्मार्थकर्मणामर्थे स्वकर्म फलमश्नुते॥(अथर्व ज्यो०)

अथर्व ज्योतिष के अनुसार- धर्म, अर्थ और काम के विषय में शुभ नक्षत्र एवं शुभ योग में कार्यारम्भ करना चाहिये। त्रिवर्ग साधन में व्यक्ति अपने कर्मों का फल प्राप्त करता है।[4]

सन्दर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 श्री विन्ध्येश्वरीप्रसाद द्विवेदी, म्हूर्तचिन्तामणि, पीयूषधारा टीका, शुभाशुभ प्रकरण, सन् २०१८, वाराणसीः चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन (पृ०२८)
  2. पं०मदन गोपाल बाजपेयी, बृहदवकहडा चक्रम् ,सन् १९९८ वाराणसीः भारतीय विद्या प्रकाशन श्लो०९ (पृ०१़९)।
  3. पं०श्री सीतारामजी स्वामी, ज्योतिषतत्त्वांक, भारतीय काल गणना, सन् २०१९,गोरखपुर गीताप्रेस, (पृ०२३२)।
  4. शिवराज आचार्यः कौण्डिन्न्यायनः, वेदाङ्गज्योतिषम् , भूमिका,वाराणसीःचौखम्बा विद्याभवन (पृ०३४)।