Difference between revisions of "Garbhadhan ( गर्भाधान )"

From Dharmawiki
Jump to navigation Jump to search
(नया लेख बनाया)
(नया लेख बनाया)
Line 1: Line 1:
=== अर्थ ===
+
गर्भाधान एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जो स्वाभाविक रूप से होती है । वो इंसान, ऐसा ही जानवरों और पक्षियों के साथ सामान रूप से होता है । इस प्राकृतिक प्रक्रिया को और अधिक प्रभावी बनाने वाली विधि को ' गर्भाधान संस्कार ' कहा जाता है । है। यह भारतीय शास्त्रों में वर्णित पहला संस्कार है। इनमें से कुछ क्रियाएं आज अप्रासंगिक लग सकती हैं या सामाजिक परिवर्तन के बीच व्यावहारिक नहीं लग सकती हैं , लेकिन कुछ क्रियाएं आज भी प्रासंगिक/प्रयोगात्मक हैं और उनकी सफलता विवाद से परे है।
मानव का सम्पूर्ण जीवन संस्कारों का क्षेत्र है । इसलिए प्रजनन भी इसके अन्तर्गत आता है । धर्मशास्त्र के अनुसार इसके साथ कोई अशुचिता का भाव नहीं लगा है । इसलिए अधिकांश गृह्यसूत्र गर्भाधान के साथ ही संस्कारों को प्रारम्भ करते हैं।
 
  
जिस कर्म के द्वारा पुरुष स्त्री में अपना बीज स्थापित करता है उसे गर्भाधान कहते थे ।' शौनक भी कुछ भिन्न शब्दों में ऐसी ही परिभाषा देते हैं । 'जिस कर्म की पूर्ति में स्त्री ( पति द्वारा ) प्रदत्त शुक्र धारण करती है उसे गर्भालम्भन या गर्भाधान कहते हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि यह कर्म कोई काल्पनिक धार्मिक कृत्य नहीं था, अपितु एक यथार्थ कर्म था । इस प्रजनन-कार्य को सोद्देश्य और संस्कृत बनाने के निमित्त गर्भाधान संस्कार किया जाता था। हमें ज्ञात नहीं कि पूर्व वैदिककाल में बच्चों के प्रसव-सम्बन्धी क्या भाव और कर्म थे। इस संस्कार का विकास होने में अवश्य ही अति दीर्घकाल लगा होगा। आदिम युग में तो प्रसव एक प्राकृतिक कर्म था। शारीरिक आवश्यकता प्रतीत होने पर मानव-युगल संतानप्राप्ति की किसी पूर्वकल्पना के बिना सहवास कर लेता था, यद्यपि था यह स्वाभाविक परिणाम । किन्तु गर्भाधान संस्कार से पूर्व एक सुव्यवस्थित घर की भावना, विवाह अथवा सन्तति होने की अभिलाषा और यह विश्वास कि देवता मनुष्य को सन्तति- प्राप्ति में सहायता करते हैं, अस्तित्व में आ चुके थे। इस प्रकार इस संस्कार की प्रक्रिया उस काल से सम्बन्धित है जब कि आर्य अपनी आदिम अवस्था से बहुत आगे बढ़ चुके थे।
+
=== '''प्राचीन प्रारूप''' ===
 +
शास्त्रीय नियमों के अनुसार विवाह समारोह संपन्न होने के बाद पति-पत्नी को सर्वोच्च गुण की संतान प्राप्ति की इच्छा सहज ही उत्पन्न हो जाती है , जिसके लिए यह संस्कार किया जाता है। इस संस्कार के पर्व रूपान्तरण का वर्णन कहीं नहीं मिलता , कदाचित इसे विवाह संस्कार का एक भाग माना जाता होगा | इस संस्कार के बारे में जानकारी मूल रूप से दो स्रोतों से आती है। वैदिक साहित्य से गर्भाधान संस्कार के विभिन्न शास्त्रों के श्लोकों में संस्कारों का वर्णन मिलता है। ऋग्वेद में ऋषि एक श्लोक में कहते हैं, ' विष्णु , गर्भाशय निर्माण करो , भ्रूण धातु द्वारा गर्भ स्थापन करो ।
  
=== वैदिककाल ===
+
सरस्वती! भ्रूण की स्थापना करें। नीलम हार के साथ सुंदर लग रही अश्विनी कुमार, अपने भ्रूण/भ्रूण को प्रत्यारोपित करो।" इस श्लोक में क्रम अर्थात विष्णु , त्वष्टा (सूर्य) , प्रजापति , धाता , सरस्वती और अश्विनी कुमार आदि। गर्भ के स्वस्थ और पूर्ण विकास के लिए देवताओं से प्रार्थना की जाती है ।
वैदिककाल में हम सन्तति के लिए प्रार्थना आदि के वचनों में पितृ-मातृक प्रवृत्ति की अभिव्यक्ति देखते हैं। वीरपुत्र देवताओं द्वारा मनुष्य को दिये गये वरदान के रूप में माने जाते थे। तीन ऋणों का सिद्धान्त वैदिककाल में विकास की स्थिति में था। पुत्र को 'ऋणच्युत कहा जाता था जिससे कि पैतृक और आर्थिक दोनों ऋणों से मुक्ति का बोध होता है। साथ-ही-साथ सन्तति प्राप्त करना प्रत्येक व्यक्ति का आवश्यक और पवित्र कर्तव्य समझा जाता था। इसके अतिरिक्त वैदिक मन्त्रों में बहुत-सी उपमाएँ और प्रसंग है जो गर्भाधान के लिए स्त्री के पास किस प्रकार जाना चाहिए, इस पर प्रकाश में विकास की अवस्था में थी। डालते हैं। इस प्रकार गर्भाधान के विषय में विचार और क्रिया वैदिककाल गर्भाधान के विधि-विधान गृह्यसूत्रों के लेखबद्ध होने से पूर्व ही पर्याप्त विकसित क्रिया का रूप प्राप्त कर चुके होंगे, किन्तु प्राक्सूत्र काल में इसके विषय में पर्याप्त जानकारी नहीं मिलती। परन्तु वैदिककाल में गर्भधारण की ओर इङ्गित करनेवाली अनेक प्रार्थनाएँ हैं । 'विष्णु गर्भाशय-निर्माण करें; त्वष्टा तुम्हारा रूप सुशोभित करें; प्रजापति बीज वपन करें; धाता भ्रूण स्थापन करें । हे सरस्वति ! भ्रूण को स्थापित करो, नील कमल की माला से सुशोभित दोनों अश्विनीकुमार तुम्हारे भ्रूण को प्रतिष्ठित करें। 'जैसे अश्वत्थ शमी पर आरूढ़ होता है, उसी प्रकार सन्तति का प्रसव किया जाता है, यही सन्तति की प्राप्ति है, उसी को हम स्त्री में आधान करते हैं वस्तुतः मनुष्य बीज से उत्पन्न होता है। उसी का स्त्री में वपन कर दिया जाता है। यही यथार्थ में सन्तति का प्राप्त करना है, यही प्रजापति का कथन हैं।'
 
  
अथर्ववेद के एक मन्त्र में गर्भधारण करने के लिए स्त्री को पर्यङ्क पर आने के मुझ अपने पति के लिए सन्तति उत्पन्न करो।" लिए निमन्त्रण का उल्लेख है :-'प्रसन्न चित्त होकर शय्या पर आरूढ़ हो, प्राक्सूत्र साहित्य में सहवास के भी स्पष्ट विवरण प्राप्त हैं ।२ उपर्युक्त प्रसङ्गों से हमें ज्ञात होता है कि प्राक्सूत्रकाल में पति पत्नी के समीप जाता, उसे गर्भाधान के लिए आमन्त्रित करता, उसके गर्भ में भ्रूण-संस्थापन के लिए देवों से प्रार्थना करता और तब गर्भाधान समाप्त होता था। यह बहुत सरल विधि थी। इसके अतिरिक्त कोई विवरण उपलब्ध नहीं है। अधिक सम्भव है कि इस अवसर पर कोई उत्सव भी मनाया जाता रहा हो, किन्तु इसके विषय में हम पूर्णतया अन्धकार में हैं । इस उत्सव के उल्लेख न किये जाने का कारण यह हो सकता है कि इसे प्रारम्भिक काल में विवाह का ही एक अंग समझा जाता रहा हो।
+
अच्छे स्वास्थ्य के बिना रूप की उत्पत्ति असंभव है। बीज स्खलन , साथ ही वीर्य और रज का एक सफल पुनर्मिलन हो इसके  लिए प्रार्थना की है । जिससे युग्मनज ( जायगोट/बीज ) गर्भाशय में ठीक से स्थापित हो सके । यह प्रार्थना मूल मुख्य क्रिया की सफलता के लिए है। भ्रूण/अंडे में अश्विनी कुमार से जीवन में आने का अनुरोध किया गया है , लेकिन सफलता के लिए यह अन्य देवताओं की पूजा-अर्चना कर मन में सकारात्मक सोच का वातावरण बनाने का प्रयास है।
  
=== सूत्र-काल ===
+
बृहदारण्यक उपनिषद , अश्वलायन गुह्य सूत्र आदि धर्मग्रंथों मे यह संस्कार कैसे संपन्न हो इसके बारे में जानकारी है और  प्रकार भी वर्णित हैं। अथर्ववेद में पत्नी को आमंत्रित करने की विधि का वर्णन है। वह उसने कहा , हे प्रियों, प्रसन्न रहो और बिछौने पर बैठो, मेरे लिये सन्तान उत्पन्न करो  ' याज्ञवल्क्य के अनुसार , यह गर्भाधान के लिए एक अच्छा समय है मासिक धर्म के बाद की सोलह रातें मानी जाती हैं। इनमें से धन्वंतरि ने मासिक धर्म के बारे में लिखा है कि स्त्री के शरीर में वह स्राव (अर्थ) एक महीने तक जमा रहता है, इसका रंग काला हो जाता है। योनि से निकलने वाले स्राव को मासिक धर्म कहते हैं।
गृह्यसूत्रों में ही गर्भाधान-विषयक विद्वानों का सर्वप्रथम व्यवस्थित रूप से विवेचन हुआ है। उनके अनुसार विवाह के उपरान्त ऋतुस्नान से शुद्ध पत्नी के समीप पति को प्रति मास जाना होता था। किन्तु गर्भाधान से पूर्व उसे विभिन्न प्रकार के पुत्रों-ब्राह्मण, श्रोत्रिय ( जिसने एक शाखा का अध्ययन किया हो ), अनूचान (जिसने केवल वेदाङ्गों का अनुशीलन किया हो), ऋषिकल्प ( कल्पों का अध्येता), भ्रूण ( जिसने सूत्रों और प्रवचनों का अध्ययन किया हो), ऋषि (चारों वेदों का अध्येता) और देव (जो उपर्युक्त से श्रेष्ठ हो)-की इच्छा के लिए व्रत का अनुष्ठान करना होता था । व्रत-समाप्ति पर अग्नि में पक्वान्न की आहुति दी जाती थी। तदुपरांत सहवास के हेतु पति-पत्नी को प्रस्तुत किया जाता था। जब पत्नी अत्यन्त सुसज्जित एवं सुन्दर ढंग से अलंकृत हो जाती थी, पति प्रकृति-सृजन-सम्बन्धी उपमामय तथा गर्भधारण में पत्नी को देवों की सहायता के लिए स्तुतिमयी वेदवाणी का उच्चारण करता था।' पुनः पुरुष और स्त्री के सहवास के विषय में उपमा-रूपकयुक्त मन्त्र का उच्चारण तथा अपनी प्रजननशक्ति का वर्णन करता था और नर-नारी के सहकार्य के रूपकों से युक्त वैदिक ऋचाओं का गान करते हुए अपने शरीर को मलता था । आलिङ्गन के उपरान्त पूजा की स्तुति करते और विकीर्ण बीज को इंगित करते हुए गर्भाधान होता था। पति, पत्नी के हृदय का स्पर्श करता और उसके दक्षिण स्कन्ध पर झुकते हुए कहता, 'सुगुम्फित केशों वाली तुम, तुम्हारा हृदय जो स्वर्ग में निवास करता है, चन्द्रमा में निवास करता हैं, जिसे मैं जानता हूँ, क्या वह मुझे जान सकता है ? क्या हम शत शरद् देखेंगे।
 
  
=== धर्मसूत्र, स्मृति और परवर्ती साहित्य ===
+
याह रक्त जहरीला , किटानुयुक्त और तीव्र गंध होता है इसके कारण शुरू से ही स्वच्छता रखनी चाहिए । स्वछता और संक्रमण के कारण कई नै परम्पराओं का आरंभ हुआ | मासिक धर्म के समय स्त्रियों को मेहनत के काम, प्रवास और तनाव से बचना चाहिए , नदियों और झीलों में स्नान करना वर्जित माना गया है और इस अवधि के दौरान पुरुषों और महिलाओं को संभोग नहीं करना चाहिए ऐसा बताया गया हैं। ये सभी बाते स्वास्थ्य और स्वच्छता की दृष्टि से उपयोगी हैं ।
धर्मसूत्र और स्मृतियाँ इस संस्कार के कर्मकाण्डीय पक्ष में कुछ और योग दे देती हैं वस्तुतः वे इसे अनुशासित करने के लिए कुछ नियम निर्धारित करते हैं, जैसे :-गर्भाधान कब हो, स्वीकृत और निषिद्ध रात्रियाँ, नक्षत्र-सम्बन्धी विचार, बहुपत्नीक पुरुष अपनी पत्नी के पास कैसे पहुंचे; गर्भाधान एक आवश्यक कर्तव्य और इसके अपवाद, संस्कार को सम्पन्न करने की रात्रि, आदि केवल याज्ञवल्क्य, आपस्तम्ब और शातातप आदि कतिपय स्मृतियाँ पति के लिए सहवासोपरान्त स्नान करने का विधान करती हैं। पत्नी को इस शुद्धि से मुक्त
+
 
 +
शास्त्रों में गर्भाधान के समय का विस्तृत विवरण मिलता है। स्वयं स्तंभ गुहासूक्त में मासिक सावा की चौथी रात से सोलहवीं रात तक सम अंक के रात्रि संभोग से पुत्र और विषम रात्रि सम्भोग से पुत्री उत्पन्न होती है  ऐसा कथन है। याज्ञवल्क्य ने माघ और मूल नक्षत्र को वर्जित माना है।
 +
 
 +
तिथियों और नक्षत्रों के आधार पर किए जाने वाले संस्कारों के संबंध में हमारे ऋषि-मुनियों खगोलीय ज्ञान से सुझाव दिए जाते हैं। उनके अनुसार, ग्रहों और गैर- ग्रहों का मानव शरीर पर सूक्ष्म और स्थायी प्रभाव पड़ता है।
 +
 
 +
अगली (अगली) रात गर्भाधान के लिए अधिक उपयुक्त मानी जाती है। बौधायन के अनुसार, पुरुषों और महिलाओं को 4 से 16वीं रात को एक साथ आना चाहिए , विशेष रूप से सोलहवीं रात अधिक उपयोगी होती है। इसके बारे में संस्कार प्रकाश ग्रंथ में विस्तार से बताया गया है वर्णन मिलता है , चौथी रात को गर्भ धारण करने वाला पुत्र अल्पायु और निर्धन  होता है हो जाता। गर्भावस्था की पांचवी रात को जन्मी कन्या केवल स्त्री रूप संतान को जन्म देती है । गर्भावस्था की छठी रात में पैदा हुआ एक बेटा (उसके बाद के जीवन में) निराशावादी होता है | सातवीं रात गर्भ धारण करने वाली कन्या बाँझपन पैदा करती है। आठवाँ रात्रि गर्भ का पुत्र संपन्न तथा जबकि नवमी की पुत्री शुभदात्री होती है । दसवां रात का पुत्र बुद्धिमान है , ग्यारहवें पुत्री अधार्मिक होती है , बारहवें का पुत्र श्रेष्ठ है पुरुष , जबकि तेरहवीं रात की कन्या भोगप्रधान होती है । गर्भावस्था की चौदहवीं रात का पुत्र सम्मति देने वाला , धार्मिक , दृढ़ निश्चयी होता है पन्द्रहवीं रात गर्भ धारण करनेवाली  कन्या पवित्र , गर्भ धारण करनेवाली  , अनेक पुत्रो को जन्म देगी ,सोलहवीं रात्रि का पुत्र, विद्वान , सत्यनिष्ठ  , इन्द्रजीत और पशुओं का पालन-पोषण करने वाला होगा
 +
 
 +
मासिक धर्म की समाप्ति के बाद, महिला इत्र में स्नान कर, सुंदर कपड़े और आभूषण पहन कर और मंगलचरण व  स्वास्तिवचन के बाद कुल , वैध , गुरु और पति के दर्शन करने चाहिए। इस संबंध में भगवान धन्वंतरि कहते हैं कि मासिक धर्म के बाद स्त्री जिस पुरुष का दर्शन लेगी वैसे ही वह एक बच्चे को जन्म देगी। शंखयान गुह्यसूत्र में गर्भाधान के रात के वर्णन विस्तृत रूप मे किया है, ओ ऐसे कि रात्री के समय पतीने मंत्रौच्चार के साथ पाकवन कि आठ आहुती क्रमशः , अग्नि , वायु , सूर्य , आर्यमा , वरुण , पूजा प्रजापति और स्वष्टीकृतास मी डाल दें। फिर अश्वगंधा की जड़ का रस पत्नी को नाक में डालकर और मंत्रों का जाप करके स्पर्श करें। संभोग के समय तू गंधर्व विश्वसु के मुख है ' अपनी पत्नी का नाम  कह कर  ' मैं आप में वीर्य छोड़ता हूँ। जैसे पृथ्वी पर आग है गर्भ में भ्रूण/भ्रूण राहे  , जैसे तरकाश में तीर रहता है , वैसे ही भ्रूण/भ्रूण दस  महीने में बच्चे के रूप में जन्म लें।
 +
 
 +
ज्यादातर लोग सोचते हैं कि यह क्रिया (संभोग) अनियंत्रित है , तो आजकल संभोग के दौरान मंत्रों के जाप से हैरान हो जाना स्वाभाविक है। हालाँकि, सही आचार्य से भी थोड़ी सी योग और आसनों का अध्ययन किया है , तो वह अपने विचारों से थोडा हि क्यो नाही परंतु नियंत्रित करने में सक्षम होता है ।उसके बाद क्रिया अपनेआप नियंत्रित होते हैं। प्राचीन लोग कुछ हद तक योग का अभ्यास करते थे इसलिये वाह संयमित थे।
 +
 
 +
=== '''वर्तमान प्रारूप:''' ===
 +
वैज्ञानिक गर्भाधान नियम आज भी उतने ही प्रभावी हैं जितने पहले थे।  समय के साथ बहुत से नियम बदले है। वर्तमान काल में शादी के लिए कानूनी उम्र एक पुरुष के लिए 21 साल और एक महिला के लिए 18 साल आयु निर्धारित की है , यह मूल रूप गर्भधारण के लिये योग्य समय के कारण निर्णय लिया। इस उम्र तक स्त्री और पुरुष का आंतरिक प्रजनन अंग पूरी तरह से विकसित हो चुका होता हैं।
 +
 
 +
जब भी कोई जोड़ा शादी के बाद बच्चे पैदा करना चाहता है , तो उन्हें गर्भाधान संस्कार करना चाहिए। क्योंकि इस संस्कार का मूल उद्देश्य श्रेष्ठ  गुणवत्तापूर्ण पुत्र के लिये होता है | वर्तमान समय का विचार करते हुए प्रदूषण , भोजन , उत्पादन और भंडारण के लिए अतिरिक्त रसायनों के उपयोग के साथ -साथ वर्तमान तनावपूर्ण जीवन शैली, सभी का अनिवार्य रूप से युवा शरीर और दिमाग पर प्रभाव पड़ता है, और कुछ शारीरिक या मानसिक रूप से प्रतिभाशाली संतान पैदा करने के लिए गर्भाधान संस्कार करना अनिवार्य है । इस अनुष्ठान का उचित फल तुरंत मिलता है ।
 +
 
 +
प्रजनन प्रक्रिया में स्त्री और पुरुष की महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है वे क्रमशः राज और वीर्य हैं। अन्य चिकित्सा उपचार कि अपेक्षा आयुर्वेद द्वारा की हजारो वर्ष पहले शरीर में इन रसायनों के बनने की विधि और प्रक्रिया के बारे में बताया गया। आयुर्वेद के सिद्धांतों के अनुसार, भोजन शरीर के अंदर के रसायन का सार है। भोजन से वीर्य और राज की उत्पत्ति का क्रम इस प्रकार है। भोजन , उससे, भोजन, उससे अन्नरस, उससे रक्त, रक्त से मांस, मांस से मांस , इससे हड्डी (हड्डी) इसके माध्यम से मज्जा शुक्र या मासिक धर्म होती है । भोजन से शुक्र या रज बनने की प्रक्रिया आमतौर पर एक से तीन महिने  तक होती है । इस अवधि मे प्रत्येक महिला और प्रत्येक पुरुष अलग अलग होते हैं . क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति मे प्रकृती (वात , पित्त और कफ) का स्वभाव अलग होता है | भोजन मे मुख्य घटक अन्न होणे के बाद भी , इसमें पानी और हवा का भी समावेश होता है । इसलिए तीनों की पवित्रता जरूरी है।
 +
 
 +
गर्भधारण के लिए दो से तीन महीने पहले से तैयारी करना लाभदायक होता है। इसके लिए आहार कि शुद्धता , पोषक पदार्थ तत्वों की प्रकृती अनुसार आपको चुनाव करना है। खाए गए भोजन से आवश्यक तत्व पाचन तंत्र द्वारा निर्मित होते हैं इसलिये पाचनक्रिया का कार्य उचित होना चाहिए। उसके लिए  श्रम , व्यायाम , रात की अच्छी नींद की भूमिका को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। गर्भाधान संस्कार के पूर्व शरीर , मन , बुद्धि और आत्मा पर विचार करना होगा। मानव शरीर को बनाने वाले पांच सिद्धांत हैं : पृथ्वी , जल , वायु , अग्नि और आकाश। विकसित बुद्धि और दया के कारण  मनुष्य जानवरों की तुलना में एक उच्च वर्ग में विकसित हुआ है। आत्मा का अस्तित्व मानना  , साथ ही इसे जीवन के केंद्र के रूप में महत्व देना,यह भारतीय दर्शन कि महत्वपूर्ण उपलब्धी और भूमिका है। यही इस विचारधारा की प्रमुख विशेषता है |
 +
 
 +
=== '''शरीर''' ===
 +
शरीर हमारे सभी संकल्पो और इच्छाओं का मुलआधार है, इसलिए कर्ता है।शरीर के बिना वास्तविक भगवान भी लीला नहीं कर सकते। केवल शरीर के माध्यम से सारी प्रक्रियाएं हो रही हैं। जब शरीर नष्ट हो जाता है , तो क्रिया समाप्त हो जाती है / रुक जाती है। इसलिए भारतीय समाज में एक स्वस्थ शरीर द्वारा हि हर प्रकार के सुख मिलते है। गर्भाधान के समय स्त्री के रोगग्रस्त शरीर से नए रोगग्रस्त शरीर  (भ्रूण) के जन्म होने की संभावना होती है। गर्भावस्था के दौरान महिला शरीर के कारण आंतरिक अंगों की स्थिति भ्रूण को प्रभावित करती है वंशानुगत लक्षण इन दिनों आम हो गए हैं यह जरूरी है कि पुरुष और महिलाएं पहले खुद को ठीक करने का प्रयास करें ऐसा प्रयास करना चाहिए। सर्दी - खांसी जैसी छोटी-मोटी बीमारियों को भी नजरअंदाज करना उचित नहीं है । पारिवारिक चिकित्सक/ वैध और यदि आवश्यक हो तो विशेषज्ञ से परामर्श कर जांच करानी चाहिए
 +
 
 +
जिन महिलाओं और पुरुषों का शरीर आम तौर पर स्वस्थ होता है, उन्हें श्रम और व्यायाम के माध्यम से उन्हें मजबूत करना चाहिए। श्रम के आदर्श को स्वीकार करना चाहिए और उसे एक प्रकार का ईश्वराधान मानना चाहिए। इस पूजा के देवता विश्वकर्मा माने जाते हैं शारीरिक गतिविधियाँ , चाहे वे छोटी हों या बड़ी , उसका अपना महत्व है । आज की शिक्षा प्रणाली श्रम के मूल्य और श्रम के सम्मान को कम करके आंकती है । घर , कार्यालय और सामुदायिक कार्य  हमने उच्च और निम्न श्रेणी दी है । यदि कार्यालय में अधिकारी उच्च पद का हो तो कर्मचारी निम्न स्तर का मानने कि सोच बनी है । समाज के इस भ्रम के कारण  श्रम का नाश हो गया और शरीर अनेक रोगों से ग्रसित हो गया .
 +
 
 +
इसलिए जिनकी दिनचर्या में श्रम की कमी होती है उन्हें नियमित रूप से व्यायाम करना चाहिए । चलना (30 से 45 मीटर / घंटा) , दौड़ना ( 3-5 किमी ) , धूप सेंकना , योग , तैराकी , व्यायामशाला  / जिम मे आप जैसा चाहें वैसा करना या हर दिन अपना उचित व्यायाम करना फायदेमंद होता है। रोग  अगर ऐसा है तो किस तरह का व्यायाम करना है या नहीं करना है इस पर एक विशेषज्ञ  चिकित्सक से सलाह लें।
 +
 
 +
पारिवारिक रीति-रिवाजों के अनुसार प्रतिदिन स्वादिष्ट पौष्टिक भोजन यह बहुत फायदेमंद होता है। फास्ट फूड , डिब्बाबंद पेय पदार्थ और खाद्य पदार्थ अनावश्यक रूप से शरीर में रसायनों की मात्रा बढ़ा देते हैं ।

Revision as of 12:51, 25 March 2022

गर्भाधान एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जो स्वाभाविक रूप से होती है । वो इंसान, ऐसा ही जानवरों और पक्षियों के साथ सामान रूप से होता है । इस प्राकृतिक प्रक्रिया को और अधिक प्रभावी बनाने वाली विधि को ' गर्भाधान संस्कार ' कहा जाता है । है। यह भारतीय शास्त्रों में वर्णित पहला संस्कार है। इनमें से कुछ क्रियाएं आज अप्रासंगिक लग सकती हैं या सामाजिक परिवर्तन के बीच व्यावहारिक नहीं लग सकती हैं , लेकिन कुछ क्रियाएं आज भी प्रासंगिक/प्रयोगात्मक हैं और उनकी सफलता विवाद से परे है।

प्राचीन प्रारूप

शास्त्रीय नियमों के अनुसार विवाह समारोह संपन्न होने के बाद पति-पत्नी को सर्वोच्च गुण की संतान प्राप्ति की इच्छा सहज ही उत्पन्न हो जाती है , जिसके लिए यह संस्कार किया जाता है। इस संस्कार के पर्व रूपान्तरण का वर्णन कहीं नहीं मिलता , कदाचित इसे विवाह संस्कार का एक भाग माना जाता होगा | इस संस्कार के बारे में जानकारी मूल रूप से दो स्रोतों से आती है। वैदिक साहित्य से गर्भाधान संस्कार के विभिन्न शास्त्रों के श्लोकों में संस्कारों का वर्णन मिलता है। ऋग्वेद में ऋषि एक श्लोक में कहते हैं, ' विष्णु , गर्भाशय निर्माण करो , भ्रूण धातु द्वारा गर्भ स्थापन करो ।

सरस्वती! भ्रूण की स्थापना करें। नीलम हार के साथ सुंदर लग रही अश्विनी कुमार, अपने भ्रूण/भ्रूण को प्रत्यारोपित करो।" इस श्लोक में क्रम अर्थात विष्णु , त्वष्टा (सूर्य) , प्रजापति , धाता , सरस्वती और अश्विनी कुमार आदि। गर्भ के स्वस्थ और पूर्ण विकास के लिए देवताओं से प्रार्थना की जाती है ।

अच्छे स्वास्थ्य के बिना रूप की उत्पत्ति असंभव है। बीज स्खलन , साथ ही वीर्य और रज का एक सफल पुनर्मिलन हो इसके  लिए प्रार्थना की है । जिससे युग्मनज ( जायगोट/बीज ) गर्भाशय में ठीक से स्थापित हो सके । यह प्रार्थना मूल मुख्य क्रिया की सफलता के लिए है। भ्रूण/अंडे में अश्विनी कुमार से जीवन में आने का अनुरोध किया गया है , लेकिन सफलता के लिए यह अन्य देवताओं की पूजा-अर्चना कर मन में सकारात्मक सोच का वातावरण बनाने का प्रयास है।

बृहदारण्यक उपनिषद , अश्वलायन गुह्य सूत्र आदि धर्मग्रंथों मे यह संस्कार कैसे संपन्न हो इसके बारे में जानकारी है और  प्रकार भी वर्णित हैं। अथर्ववेद में पत्नी को आमंत्रित करने की विधि का वर्णन है। वह उसने कहा , हे प्रियों, प्रसन्न रहो और बिछौने पर बैठो, मेरे लिये सन्तान उत्पन्न करो  ' याज्ञवल्क्य के अनुसार , यह गर्भाधान के लिए एक अच्छा समय है मासिक धर्म के बाद की सोलह रातें मानी जाती हैं। इनमें से धन्वंतरि ने मासिक धर्म के बारे में लिखा है कि स्त्री के शरीर में वह स्राव (अर्थ) एक महीने तक जमा रहता है, इसका रंग काला हो जाता है। योनि से निकलने वाले स्राव को मासिक धर्म कहते हैं।

याह रक्त जहरीला , किटानुयुक्त और तीव्र गंध होता है इसके कारण शुरू से ही स्वच्छता रखनी चाहिए । स्वछता और संक्रमण के कारण कई नै परम्पराओं का आरंभ हुआ | मासिक धर्म के समय स्त्रियों को मेहनत के काम, प्रवास और तनाव से बचना चाहिए , नदियों और झीलों में स्नान करना वर्जित माना गया है और इस अवधि के दौरान पुरुषों और महिलाओं को संभोग नहीं करना चाहिए ऐसा बताया गया हैं। ये सभी बाते स्वास्थ्य और स्वच्छता की दृष्टि से उपयोगी हैं ।

शास्त्रों में गर्भाधान के समय का विस्तृत विवरण मिलता है। स्वयं स्तंभ गुहासूक्त में मासिक सावा की चौथी रात से सोलहवीं रात तक सम अंक के रात्रि संभोग से पुत्र और विषम रात्रि सम्भोग से पुत्री उत्पन्न होती है  ऐसा कथन है। याज्ञवल्क्य ने माघ और मूल नक्षत्र को वर्जित माना है।

तिथियों और नक्षत्रों के आधार पर किए जाने वाले संस्कारों के संबंध में हमारे ऋषि-मुनियों खगोलीय ज्ञान से सुझाव दिए जाते हैं। उनके अनुसार, ग्रहों और गैर- ग्रहों का मानव शरीर पर सूक्ष्म और स्थायी प्रभाव पड़ता है।

अगली (अगली) रात गर्भाधान के लिए अधिक उपयुक्त मानी जाती है। बौधायन के अनुसार, पुरुषों और महिलाओं को 4 से 16वीं रात को एक साथ आना चाहिए , विशेष रूप से सोलहवीं रात अधिक उपयोगी होती है। इसके बारे में संस्कार प्रकाश ग्रंथ में विस्तार से बताया गया है वर्णन मिलता है , चौथी रात को गर्भ धारण करने वाला पुत्र अल्पायु और निर्धन  होता है हो जाता। गर्भावस्था की पांचवी रात को जन्मी कन्या केवल स्त्री रूप संतान को जन्म देती है । गर्भावस्था की छठी रात में पैदा हुआ एक बेटा (उसके बाद के जीवन में) निराशावादी होता है | सातवीं रात गर्भ धारण करने वाली कन्या बाँझपन पैदा करती है। आठवाँ रात्रि गर्भ का पुत्र संपन्न तथा जबकि नवमी की पुत्री शुभदात्री होती है । दसवां रात का पुत्र बुद्धिमान है , ग्यारहवें पुत्री अधार्मिक होती है , बारहवें का पुत्र श्रेष्ठ है पुरुष , जबकि तेरहवीं रात की कन्या भोगप्रधान होती है । गर्भावस्था की चौदहवीं रात का पुत्र सम्मति देने वाला , धार्मिक , दृढ़ निश्चयी होता है पन्द्रहवीं रात गर्भ धारण करनेवाली  कन्या पवित्र , गर्भ धारण करनेवाली  , अनेक पुत्रो को जन्म देगी ,सोलहवीं रात्रि का पुत्र, विद्वान , सत्यनिष्ठ  , इन्द्रजीत और पशुओं का पालन-पोषण करने वाला होगा ।

मासिक धर्म की समाप्ति के बाद, महिला इत्र में स्नान कर, सुंदर कपड़े और आभूषण पहन कर और मंगलचरण व  स्वास्तिवचन के बाद कुल , वैध , गुरु और पति के दर्शन करने चाहिए। इस संबंध में भगवान धन्वंतरि कहते हैं कि मासिक धर्म के बाद स्त्री जिस पुरुष का दर्शन लेगी वैसे ही वह एक बच्चे को जन्म देगी। शंखयान गुह्यसूत्र में गर्भाधान के रात के वर्णन विस्तृत रूप मे किया है, ओ ऐसे कि रात्री के समय पतीने मंत्रौच्चार के साथ पाकवन कि आठ आहुती क्रमशः , अग्नि , वायु , सूर्य , आर्यमा , वरुण , पूजा प्रजापति और स्वष्टीकृतास मी डाल दें। फिर अश्वगंधा की जड़ का रस पत्नी को नाक में डालकर और मंत्रों का जाप करके स्पर्श करें। संभोग के समय तू गंधर्व विश्वसु के मुख है ' अपनी पत्नी का नाम  कह कर  ' मैं आप में वीर्य छोड़ता हूँ। जैसे पृथ्वी पर आग है गर्भ में भ्रूण/भ्रूण राहे  , जैसे तरकाश में तीर रहता है , वैसे ही भ्रूण/भ्रूण दस  महीने में बच्चे के रूप में जन्म लें।

ज्यादातर लोग सोचते हैं कि यह क्रिया (संभोग) अनियंत्रित है , तो आजकल संभोग के दौरान मंत्रों के जाप से हैरान हो जाना स्वाभाविक है। हालाँकि, सही आचार्य से भी थोड़ी सी योग और आसनों का अध्ययन किया है , तो वह अपने विचारों से थोडा हि क्यो नाही परंतु नियंत्रित करने में सक्षम होता है ।उसके बाद क्रिया अपनेआप नियंत्रित होते हैं। प्राचीन लोग कुछ हद तक योग का अभ्यास करते थे इसलिये वाह संयमित थे।

वर्तमान प्रारूप:

वैज्ञानिक गर्भाधान नियम आज भी उतने ही प्रभावी हैं जितने पहले थे।  समय के साथ बहुत से नियम बदले है। वर्तमान काल में शादी के लिए कानूनी उम्र एक पुरुष के लिए 21 साल और एक महिला के लिए 18 साल आयु निर्धारित की है , यह मूल रूप गर्भधारण के लिये योग्य समय के कारण निर्णय लिया। इस उम्र तक स्त्री और पुरुष का आंतरिक प्रजनन अंग पूरी तरह से विकसित हो चुका होता हैं।

जब भी कोई जोड़ा शादी के बाद बच्चे पैदा करना चाहता है , तो उन्हें गर्भाधान संस्कार करना चाहिए। क्योंकि इस संस्कार का मूल उद्देश्य श्रेष्ठ  गुणवत्तापूर्ण पुत्र के लिये होता है | वर्तमान समय का विचार करते हुए प्रदूषण , भोजन , उत्पादन और भंडारण के लिए अतिरिक्त रसायनों के उपयोग के साथ -साथ वर्तमान तनावपूर्ण जीवन शैली, सभी का अनिवार्य रूप से युवा शरीर और दिमाग पर प्रभाव पड़ता है, और कुछ शारीरिक या मानसिक रूप से प्रतिभाशाली संतान पैदा करने के लिए गर्भाधान संस्कार करना अनिवार्य है । इस अनुष्ठान का उचित फल तुरंत मिलता है ।

प्रजनन प्रक्रिया में स्त्री और पुरुष की महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है वे क्रमशः राज और वीर्य हैं। अन्य चिकित्सा उपचार कि अपेक्षा आयुर्वेद द्वारा की हजारो वर्ष पहले शरीर में इन रसायनों के बनने की विधि और प्रक्रिया के बारे में बताया गया। आयुर्वेद के सिद्धांतों के अनुसार, भोजन शरीर के अंदर के रसायन का सार है। भोजन से वीर्य और राज की उत्पत्ति का क्रम इस प्रकार है। भोजन , उससे, भोजन, उससे अन्नरस, उससे रक्त, रक्त से मांस, मांस से मांस , इससे हड्डी (हड्डी) इसके माध्यम से मज्जा शुक्र या मासिक धर्म होती है । भोजन से शुक्र या रज बनने की प्रक्रिया आमतौर पर एक से तीन महिने  तक होती है । इस अवधि मे प्रत्येक महिला और प्रत्येक पुरुष अलग अलग होते हैं . क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति मे प्रकृती (वात , पित्त और कफ) का स्वभाव अलग होता है | भोजन मे मुख्य घटक अन्न होणे के बाद भी , इसमें पानी और हवा का भी समावेश होता है । इसलिए तीनों की पवित्रता जरूरी है।

गर्भधारण के लिए दो से तीन महीने पहले से तैयारी करना लाभदायक होता है। इसके लिए आहार कि शुद्धता , पोषक पदार्थ तत्वों की प्रकृती अनुसार आपको चुनाव करना है। खाए गए भोजन से आवश्यक तत्व पाचन तंत्र द्वारा निर्मित होते हैं इसलिये पाचनक्रिया का कार्य उचित होना चाहिए। उसके लिए  श्रम , व्यायाम , रात की अच्छी नींद की भूमिका को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। गर्भाधान संस्कार के पूर्व शरीर , मन , बुद्धि और आत्मा पर विचार करना होगा। मानव शरीर को बनाने वाले पांच सिद्धांत हैं : पृथ्वी , जल , वायु , अग्नि और आकाश। विकसित बुद्धि और दया के कारण  मनुष्य जानवरों की तुलना में एक उच्च वर्ग में विकसित हुआ है। आत्मा का अस्तित्व मानना  , साथ ही इसे जीवन के केंद्र के रूप में महत्व देना,यह भारतीय दर्शन कि महत्वपूर्ण उपलब्धी और भूमिका है। यही इस विचारधारा की प्रमुख विशेषता है |

शरीर

शरीर हमारे सभी संकल्पो और इच्छाओं का मुलआधार है, इसलिए कर्ता है।शरीर के बिना वास्तविक भगवान भी लीला नहीं कर सकते। केवल शरीर के माध्यम से सारी प्रक्रियाएं हो रही हैं। जब शरीर नष्ट हो जाता है , तो क्रिया समाप्त हो जाती है / रुक जाती है। इसलिए भारतीय समाज में एक स्वस्थ शरीर द्वारा हि हर प्रकार के सुख मिलते है। गर्भाधान के समय स्त्री के रोगग्रस्त शरीर से नए रोगग्रस्त शरीर  (भ्रूण) के जन्म होने की संभावना होती है। गर्भावस्था के दौरान महिला शरीर के कारण आंतरिक अंगों की स्थिति भ्रूण को प्रभावित करती है वंशानुगत लक्षण इन दिनों आम हो गए हैं यह जरूरी है कि पुरुष और महिलाएं पहले खुद को ठीक करने का प्रयास करें ऐसा प्रयास करना चाहिए। सर्दी - खांसी जैसी छोटी-मोटी बीमारियों को भी नजरअंदाज करना उचित नहीं है । पारिवारिक चिकित्सक/ वैध और यदि आवश्यक हो तो विशेषज्ञ से परामर्श कर जांच करानी चाहिए ।

जिन महिलाओं और पुरुषों का शरीर आम तौर पर स्वस्थ होता है, उन्हें श्रम और व्यायाम के माध्यम से उन्हें मजबूत करना चाहिए। श्रम के आदर्श को स्वीकार करना चाहिए और उसे एक प्रकार का ईश्वराधान मानना चाहिए। इस पूजा के देवता विश्वकर्मा माने जाते हैं शारीरिक गतिविधियाँ , चाहे वे छोटी हों या बड़ी , उसका अपना महत्व है । आज की शिक्षा प्रणाली श्रम के मूल्य और श्रम के सम्मान को कम करके आंकती है । घर , कार्यालय और सामुदायिक कार्य  हमने उच्च और निम्न श्रेणी दी है । यदि कार्यालय में अधिकारी उच्च पद का हो तो कर्मचारी निम्न स्तर का मानने कि सोच बनी है । समाज के इस भ्रम के कारण  श्रम का नाश हो गया और शरीर अनेक रोगों से ग्रसित हो गया .

इसलिए जिनकी दिनचर्या में श्रम की कमी होती है उन्हें नियमित रूप से व्यायाम करना चाहिए । चलना (30 से 45 मीटर / घंटा) , दौड़ना ( 3-5 किमी ) , धूप सेंकना , योग , तैराकी , व्यायामशाला  / जिम मे आप जैसा चाहें वैसा करना या हर दिन अपना उचित व्यायाम करना फायदेमंद होता है। रोग  अगर ऐसा है तो किस तरह का व्यायाम करना है या नहीं करना है इस पर एक विशेषज्ञ  चिकित्सक से सलाह लें।

पारिवारिक रीति-रिवाजों के अनुसार प्रतिदिन स्वादिष्ट पौष्टिक भोजन यह बहुत फायदेमंद होता है। फास्ट फूड , डिब्बाबंद पेय पदार्थ और खाद्य पदार्थ अनावश्यक रूप से शरीर में रसायनों की मात्रा बढ़ा देते हैं ।