Difference between revisions of "Dharmik Economic Systems (धार्मिक समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि)"

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वैसे तो प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक के धार्मिक (भारतीय) साहित्य में समृद्धि शास्त्र का कहीं भी उल्लेख किया हुआ नहीं मिलता। भारत में अर्थशास्त्र शब्द का चलन काफी पुराना है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के लेखन से भी बहुत पुराना है। इकोनोमिक्स के लिए अर्थशास्त्र सही प्रतिशब्द नहीं है। अर्थशास्त्र समूचे जीवन को व्यापने वाला विषय है। धर्म मानव के जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाला नियामक तत्व है। जीवन के विभिन्न आयामों का निर्माण ही काम और काम की पूर्ति के लिए किये गए अर्थ पुरुषार्थ के कारण होता है। अतः यदि हम मानते हैं कि धर्म मानव जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाला विषय है तो “काम” और “अर्थ” ये पुरुषार्थ भी मानव जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाले विषय हैं, ऐसा मानना होगा।
 
वैसे तो प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक के धार्मिक (भारतीय) साहित्य में समृद्धि शास्त्र का कहीं भी उल्लेख किया हुआ नहीं मिलता। भारत में अर्थशास्त्र शब्द का चलन काफी पुराना है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के लेखन से भी बहुत पुराना है। इकोनोमिक्स के लिए अर्थशास्त्र सही प्रतिशब्द नहीं है। अर्थशास्त्र समूचे जीवन को व्यापने वाला विषय है। धर्म मानव के जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाला नियामक तत्व है। जीवन के विभिन्न आयामों का निर्माण ही काम और काम की पूर्ति के लिए किये गए अर्थ पुरुषार्थ के कारण होता है। अतः यदि हम मानते हैं कि धर्म मानव जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाला विषय है तो “काम” और “अर्थ” ये पुरुषार्थ भी मानव जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाले विषय हैं, ऐसा मानना होगा।
  
इस दृष्टि से कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी “अर्थ” के सभी आयामों का परामर्श नहीं लेता है। उसमें प्रमुखत: शासन और प्रशासन से सम्बन्धित विषय का ही मुख्यत: प्रतिपादन किया हुआ है। अर्थशास्त्र इकोनोमिक्स जैसा केवल “धन” तक सीमित विषय नहीं है। वास्तव में “सम्पत्ति शास्त्र” यह शायद इकोनोमिक्स का लगभग सही अनुवाद होगा। लेकिन भारत में सम्पत्ति शास्त्र का नहीं समृद्धि शास्त्र का चलन था। सम्पत्ति व्यक्तिगत होती है जब की समृद्धि समाज की होती है। व्यक्ति “सम्पन्न” होता है समाज “समृद्ध” होता है। समृद्धि शास्त्र का अर्थ है समाज को समृद्ध बनाने का शास्त्र। धन और संसाधनों का वितरण समाज में अच्छा होने से समाज समृद्ध बनता है। वर्तमान में हम भारत में भी इकोनोमिक्स को ही अर्थशास्त्र कहते हैं। हम विविध प्रमुख शास्त्रों के अन्गांगी संबंधों की निम्न तालिका देखेंगे तो समृद्धि शास्त्र का दायरा स्पष्ट हो सकेगा।
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इस दृष्टि से कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी “अर्थ” के सभी आयामों का परामर्श नहीं लेता है। उसमें प्रमुखत: शासन और प्रशासन से सम्बन्धित विषय का ही मुख्यत: प्रतिपादन किया हुआ है। अर्थशास्त्र इकोनोमिक्स जैसा केवल “धन” तक सीमित विषय नहीं है। वास्तव में “सम्पत्ति शास्त्र” यह संभवतः इकोनोमिक्स का लगभग सही अनुवाद होगा। लेकिन भारत में सम्पत्ति शास्त्र का नहीं समृद्धि शास्त्र का चलन था। सम्पत्ति व्यक्तिगत होती है जब की समृद्धि समाज की होती है। व्यक्ति “सम्पन्न” होता है समाज “समृद्ध” होता है। समृद्धि शास्त्र का अर्थ है समाज को समृद्ध बनाने का शास्त्र। धन और संसाधनों का वितरण समाज में अच्छा होने से समाज समृद्ध बनता है। वर्तमान में हम भारत में भी इकोनोमिक्स को ही अर्थशास्त्र कहते हैं। हम विविध प्रमुख शास्त्रों के अन्गांगी संबंधों की निम्न तालिका देखेंगे तो समृद्धि शास्त्र का दायरा स्पष्ट हो सकेगा।
 
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Latest revision as of 01:36, 24 June 2021

प्रस्तावना

वैसे तो प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक के धार्मिक (भारतीय) साहित्य में समृद्धि शास्त्र का कहीं भी उल्लेख किया हुआ नहीं मिलता। भारत में अर्थशास्त्र शब्द का चलन काफी पुराना है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के लेखन से भी बहुत पुराना है। इकोनोमिक्स के लिए अर्थशास्त्र सही प्रतिशब्द नहीं है। अर्थशास्त्र समूचे जीवन को व्यापने वाला विषय है। धर्म मानव के जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाला नियामक तत्व है। जीवन के विभिन्न आयामों का निर्माण ही काम और काम की पूर्ति के लिए किये गए अर्थ पुरुषार्थ के कारण होता है। अतः यदि हम मानते हैं कि धर्म मानव जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाला विषय है तो “काम” और “अर्थ” ये पुरुषार्थ भी मानव जीवन के सभी आयामों को व्यापने वाले विषय हैं, ऐसा मानना होगा।

इस दृष्टि से कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी “अर्थ” के सभी आयामों का परामर्श नहीं लेता है। उसमें प्रमुखत: शासन और प्रशासन से सम्बन्धित विषय का ही मुख्यत: प्रतिपादन किया हुआ है। अर्थशास्त्र इकोनोमिक्स जैसा केवल “धन” तक सीमित विषय नहीं है। वास्तव में “सम्पत्ति शास्त्र” यह संभवतः इकोनोमिक्स का लगभग सही अनुवाद होगा। लेकिन भारत में सम्पत्ति शास्त्र का नहीं समृद्धि शास्त्र का चलन था। सम्पत्ति व्यक्तिगत होती है जब की समृद्धि समाज की होती है। व्यक्ति “सम्पन्न” होता है समाज “समृद्ध” होता है। समृद्धि शास्त्र का अर्थ है समाज को समृद्ध बनाने का शास्त्र। धन और संसाधनों का वितरण समाज में अच्छा होने से समाज समृद्ध बनता है। वर्तमान में हम भारत में भी इकोनोमिक्स को ही अर्थशास्त्र कहते हैं। हम विविध प्रमुख शास्त्रों के अन्गांगी संबंधों की निम्न तालिका देखेंगे तो समृद्धि शास्त्र का दायरा स्पष्ट हो सकेगा।

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किसी भी सुखी समाज के रथ के संस्कृति और समृद्धि ये दो पहियें होते हैं। बिना संस्कृति के समृद्धि आसुरी मानसिकता निर्माण करती है। और बिना समृद्धि के संस्कृति की रक्षा नहीं की जा सकती। उपर्युक्त तालिका से भी यही बात समझ में आती है। संस्कृति और समृद्धि दोनों को मिलाकर मानव जीवन श्रेष्ठ बनता है। इस विस्तृत दायरे का शास्त्र मानव धर्म शास्त्र या समाजशास्त्र या अर्थशास्त्र है। यह मानव धर्मशास्त्र व्यापक धर्मशास्त्र का अंग है। सामान्यत: सांस्कृतिक शास्त्र का और समृद्धि शास्त्र का अंगांगी सम्बन्ध प्राकृतिक शास्त्र के तीनों पहलुओं से होता है। वनस्पति शास्त्र, प्राणी शास्त्र और भौतिक शास्त्र ये तीनों समृद्धि शास्त्र के लिए अनिवार्य हिस्से हैं। इनके बिना समृद्धि संभव नहीं है। वास्तव में इन तीनों शास्त्रों के ज्ञान के बिना तो मनुष्य का जीना ही कठिन है। अतः समृद्धि शास्त्र का विचार करते समय मानव के सांस्कृतिक पक्ष का और तीनों प्राकृतिक शास्त्रों का विचार आवश्यक है। प्राकृतिक शास्त्रों के विचार में मानव के प्राणी (प्राणिक आवेग) पक्ष का भी विचार विशेष रूप से करना आवश्यक है। समृद्धि शास्त्र के नियामक धर्मशास्त्र के हिस्से को ही सांस्कृतिक शास्त्र कहते हैं।[1]

वर्तमान विश्व की इकोनोमिक स्थिती

वर्तमान में विश्वभर में जीवन का प्रतिमान यूरो अमरीकी है। यूरो अमरीकी जीवन के प्रतिमान में धन या शासन सर्वोपरि होते हैं। वर्तमान में यही स्थिति है। सत्ता का केन्द्रिकरण और धन का केन्द्रिकरण होने से दोनों शक्तियां एक दूसरे के साथ मिलकर दुर्बलों के शोषण की व्यवस्था बनातीं हैं। यही आज दिखाई देता है। बड़े बड़े उद्योजक राजनयिकों को पैसे का लालच देकर अपने हित को साधते हैं। राजनयिक भी चुनावों के लिए बड़ी मात्रा में धन की आवश्यकता के कारण बड़े उद्योगपतियों को नाराज नहीं कर सकते। उद्योगपति तो उद्योगपति ही होते हैं। एक रुपया लगाकर दस निकालने के तरीके जानते हैं। इस तरह पूरी शासन व्यवस्था में दीमक लग जाती है। यही वर्तमान में विश्व के सभी देशों में होता दिखाई दे रहा है।

इस प्रक्रिया में बहुजन समाज अपनी स्वतन्त्रता को खो बैठता है। स्वतन्त्रता तो मानव जीवन का सामाजिक स्तर का अन्तिम लक्ष्य है। समाज अपने इस लक्ष्य से दूर हो जाता है। स्वतन्त्रता का क्षरण धीरे धीरे होता है। सामान्य मनुष्य यह समझ ही नहीं पाता कि उसकी स्वतन्त्रता कम होती जा रही है।

वर्तमान इकोनोमिक्स की आर्थिक मानव, निरंतर आर्थिक विकास, इकोनोमी ऑफ़ वान्ट्स प्रकृति पर विजय पाने की राक्षसी महत्वाकांक्षा, ग्लोबलायझेशन आदि संकल्पनाओं के कारण विकट परिस्थितियाँ निर्माण हो गईं हैं। धार्मिक (भारतीय) समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि और उस दृष्टि के आधार से निर्माण की गयी समृद्धि व्यवस्था इस विकटता से मुक्ति दिलाने की सामर्थ्य रखती है। धार्मिक (भारतीय) समृद्धि शास्त्रीय व्यवस्था में भी धर्म ही सर्वोपरि होता है। धर्म के विषय में हमने पूर्व में ही जाना है। चर और अचर सृष्टि के सभी घटकों के हित में काम करने की दृष्टि से किये गए व्यवहार को ही धर्म कहते हैं। धर्म विश्व व्यवस्था के नियम हैं। अतः धार्मिक (भारतीय) समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि का अध्ययन, अनुसंधान एवं पुनर्प्रतिष्ठा आज और भी प्रासंगिक बन गए हैं।

उपभोग नीति

वर्तमान इकोनोमिक्स की सबसे बड़ी समस्या है इसके उपभोग दृष्टि की। यह दृष्टि व्यक्तिकेंद्री (स्वार्थपर आधारित), इहवादी और जड़़वादी होने से इसमें ढेर सारी विकृतियाँ आ जातीं हैं। धार्मिक (भारतीय) उपभोग नीति या सर्वे भवन्तु सुखिन: से सुसंगत उपभोग नीति का विचार अब हम करेंगे।

संसाधनों का वास्तविक मूल्य

वर्तमान में प्राकृतिक संसाधनों का मूल्य तय करने की पध्दति बहुत ही गलत है । उस संसाधन को प्रकृति में से प्राप्त करने के लिये किये गये परिश्रम और व्यय के आधारपर यह मूल्य तय किये जाते हैं। इन संसाधनों पर सरकार का एकाधिकार होने से आर्थिक नियोजन में आनेवाले घाटे का भी विचार इस मूल्य निर्धारण में होता है। विविध प्रकार की रियायतों के कारण उपभोक्ता जो कीमत चुकाता है वह उस संसाधन के वास्तविक मूल्य का अंशमात्र ही होती है। ये रियायतें निम्न हैं:

  1. प्रकृति में उपलब्ध संसाधनों के भण्डार में से जितना अधिक निकाल सकते है उतना निकाला जा रहा है । या जितना सरकार का या मंत्री-अधिकारियों का लोभ बडा होगा, उतना निकाला जा रहा है। वास्तव में मानव जाति के सृष्टि में जीवित रहने की जो सम्भावनाएँ हैं उन के हिसाब में ही संसाधन निकाले जाने चाहिये।
  2. अमानवीय परिस्थितियों में न्यूनतम पैसे देकर लोगोंं से कठोर परिश्रम से काम कराकर इन संसाधनों को प्राप्त किया जाता है। मजदूरों को उन के परिश्रम का सही मूल्य और काम करने लायक सुविधाएं दीं जाएं तो यह श्रम मूल्य कई गुना बढ जाएगा।
  3. यातायात के लिये सड़कें बनाई जातीं है। इन के लिये भी संसाधनों का वास्तविक मूल्य नहीं लिया जाता। आंशिक मूल्य ही प्रत्यक्ष लोगोंं से लिया जाता है। इन पर जो वाहन चलते है, उन के उत्पादन में लगने वाले संसाधनों का भी रियायती मूल्य (उपर्युक्त बिन्दू १ के अनुसार) ही लोगोंं से लिया जाता है। सड़क बनाने के लिये और संसाधनों के भंडारण के लिये सरकार ऐसी कृषियोग्य जमीनें बाजार दर से बहुत कम ऐसे सस्ते मूल्य में अधिग्रहित कर लेती है। कृषियोग्य जमीन के मूल्य के अनुसार यदि गिनती करें और उस मूल्य की वसूली यातायात करनेवाले वाहनों से करें तो यातायात का मूल्य कई गुना बदेगा।
  4. इन यातायात के वाहनों में उपयोग किये जानेवाले इंधन का तथा वाहनों के लिए उपयोग में लाये गए खनिज का वास्तविक मूल्य नहीं आंशिक मूल्य ही (उपर्युक्त बिन्दू १ के अनुसार) लोगोंं से लिया जाता है । उपर्युक्त सभी रियायतों में २, ३, ४ इन मदों के कारण जो मूल्य बढता है वह तो मद क्र. १ की मूल्य वृद्धि में जुड़ता जाता है।

प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग के व्यावहारिक सूत्र

भारतीय उपभोग दृष्टि को ध्यान में रखकर जो निष्कर्ष निकाले जा सकते है वे निम्न हैं:

  1. प्रकृति सीमित है। प्रकृति में संसाधनों की मात्रा सीमित है। मनुष्य की इच्छाएं असीम हैं। उपभोग को नियंत्रण में नहीं रखने से उपभोग की इच्छा बढ़ती जाती है। यह अग्नि में घी डालकर उसे बुझाने जैसा है। इससे आग कभी नहीं बुझती। अतः स्थल और काल की अखण्डता को ध्यान में रखकर उपभोग को सीमित रखने की आवश्यकता है। संयमित अनिवार्य उपभोग की आदत बचपन से ही डालने की आवश्यकता है। यह काम कुटुम्ब शिक्षा से आरम्भ होना चाहिए।
  2. अनविकरणीय संसाधनों का उपयोग अत्यंत अनिवार्य होनेपर ही करना ठीक होगा। जहॉतक संभव है नविकरणीय संसाधनों से ही आवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिये।
  3. अनविकरणीय और नविकरणीय दोनों ही संसाधनों का उपयोग न्यूनतम करना चाहिये।
  4. अनविकरणीय और नविकरणीय दोनों ही संसाधनों का उपयोग बारबार करना चाहिये।
  5. अनविकरणीय और नविकरणीय दोनों ही संसाधनों का उपयोग पूर्ण रूप से करना चाहिये।
  6. अनविकरणीय और नविकरणीय दोनों ही संसाधनों का उपयोग मानवीय क्षमताओं को हानि ना होते हुए यथासंभव वर्तमान न्यूनतम से भी कम करते जाना।
  7. अनविकरणीय और नविकरणीय दोनों ही संसाधनों को बिगाड़नेवाली अर्थात् उपयोग के बाद जो प्रकृति में घुलती नहीं है या घुलने को बहुत अधिक समय लेती है ऐसी वस्तुओं का शौक नहीं करना। जैसे प्लास्टिक की वस्तू आदि।
  8. नविकरणीय पदार्थों के पुनर्भरण के और लकड़ी जैसे संसाधन के (जंगल क्षेत्र) या भूमिजल के विस्तार के लिये प्रयास करते रहना और ऐसे प्रयास बढाते जाना। तेजी से घटा रहे जंगल आच्छादन को रोकना और बढाने के प्रयास करना।

उपर्युक्त बातें लोग स्वयं प्रेरणा से करें, ऐसे संस्कार घरों-परिवारों में देना और उस के शास्त्रीय शिक्षण और प्रशिक्षण को शिक्षा का अनिवार्य हिस्सा बनाना। इसके उपरांत भी जो लोग स्वयं प्रेरणा से ऐसा नहीं करते उन्हें दण्डित करना।

अंग्रेजी में एक कहावत है,' थिंक ग्लोबली ऍक्ट लोकली '। विचार वैश्विक रखो और व्यवहार स्थानिक स्तर पर करो। इस का अर्थ और स्पष्ट करने की आवश्यकता है। क्योंकि कई बार लोग कहते हैं कि, 'वैश्विकता तो विचार करने की ही बात है। व्यवहार की नहीं। व्यवहार के लिये तो स्थानिक समस्याओं का ही संदर्भ सामने रखना होगा। किन्तु यह विचार ठीक नहीं है। इस कहावत का वास्तविक अर्थ तो यह है कि कोई भी स्थानिक स्तर की कृति करने से पहले उस कृति का वैश्विक स्तर पर कोई विपरीत परिणाम ना हो ऐसा व्यवहार ही स्थानिक स्तर पर करना।

प्रसिध्द विद्वान अर्नोल्ड टॉयन्बी कहता है 'यदि मानव जाति को आत्मनाश से बचाना हो तो जिस अध्याय का प्रारंभ पश्चिम ने किया है, उस का अंत अनिवार्य रूप से धार्मिक (भारतीय) ढंग से ही करना होगा ‘।

समृद्धि शास्त्र के स्तंभ

भारतीय समृद्धि शास्त्र के मानव से जुड़े पाँच प्रमुख स्तंभ हैं। पहला है कौटुम्बिक उद्योग, दूसरा है ग्रामकुल, तीसरा है व्यावसायिक कौशल विधा व्यवस्था और चौथा है राष्ट्र। इन चारों के विषय में हमने अलग अलग इकाईयों के स्वरूप में पूर्व में जाना है। लेकिन इनके साथ में ही एक और महत्वपूर्ण स्तंभ “प्रकृति” है। प्राकृतिक संसाधनों के बिना जीना संभव ही नहीं है। थोड़ा गहराई से विचार करने से हमें ध्यान में आएगा कि स्त्री पुरुष सहजीवन, जीने के लिए परस्परावलंबन, कौशल विधाओं की आनुवांशिकता तथा समान जीवन दृष्टि वाले समाज की समान आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ सहजीवन की आवश्यकता ये भी सभी प्राकृतिक बातें ही हैं। इन्हें जब व्यवस्थित किया जाता है तब कुटुंब, ग्राम, कौशल विधा (पूर्व में जिसे जाति कहते थे) और राष्ट्र की व्यवस्थाएँ बनतीं हैं। यह व्यवस्थित करने का काम मानवीय है।

मानव का सामाजिक स्तर का जीवन का लक्ष्य “स्वतंत्रता” है। स्वतन्त्रता का अर्थ है अन्य किसी की भी सहायता के बिना और हस्तक्षेप के बिना अपने हिसाब से जीने की क्षमता रखना। सामाजिक दृष्टि से समाज की लघुतम ईकाई कुटुम्ब है। व्यक्ति अपने आप में अपनी उपर्युक्त न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता। कुटुम्ब की सहायता के बिना अपने बलबूते पर तो वह जन्म के बाद अधिक दिन जीवित भी नहीं रह सकता। आयु की अवस्थाओं के कारण भी मनुष्य को कुटुम्ब बनाकर जीना ही पड़ता है। कुटुम्ब में भी परावलंबन होता है तब ही कुटुम्ब में भी जीना संभव होता है। कुटुम्ब में रहना अनिवार्यता होती है। अतः व्यक्ति की स्वतन्त्रता का कुछ क्षरण तो होता ही है। लेकिन परस्परावलंबन से कुटुम्ब में भी स्वतन्त्रता और जीवन जीने में एक सन्तुलन बनाया जाता है। यह सन्तुलन जितना अच्छा होगा उतनी ही स्वतन्त्रता अधिक होती है। कुटुम्ब में आत्मीयता की भावना याने कुटुम्ब भावना होने से आवश्यकतानुसार किसी की स्वतन्त्रता को बढाया जा सकता है। कुटुम्ब भावना का स्तर जितना अधिक उतनी सहकार की भावना बढ़ने से स्वतन्त्रता का स्तर भी बढ़ता है।

अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति कुटुम्ब के सदस्य केवल अपने प्रयासों से नहीं कर सकते। जब कुटुम्ब अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं कर सकता तब उसे अन्यों से सहायता की आवश्यकता होती है। इससे वह ली हुई सहायता के सन्दर्भ में अन्यों पर निर्भर हो जाता है। अन्यों पर निर्भरता का अर्थ है परावलंबन। परावलंबन जितना अधिक होता है उतनी उस कुटुम्ब की स्वतन्त्रता कम हो जाती है। जीने के लिए काफी मात्रा में परावलंबन आवश्यक होता है। और जितना परावलंबन होगा उस प्रमाण में स्वतन्त्रता कम हो जाती है। इसका हल भी परस्परावलंबन से निकाला जाता है। जब परस्परावलंबन के आधार पर कोई जन-समुदाय स्वतन्त्र होता है तो वह एक बड़ा कुल बन जाता है। यह बड़े स्तर का भी परस्परावलंबन जितना कौटुम्बिक भावना से होता है परस्पर सहकारिता के कारण स्वतन्त्रता उतनी अधिक होती है।

हमने जाना है कि स्थानिक संसाधनों के आधार पर जीने वाले परस्परावलंबी कुटुम्बों का स्वावलंबी लघुतम समाज ग्रामकुल कहलाता है। यह जितना लघुतम होगा इसकी व्यवस्थाएँ कम जटिल होंगी। जनसंख्या बढ़ने से परस्परावलंबन की पेचिदगियां बढ़ना स्वाभाविक है। उत्पादन का लघुतम केन्द्र कौटुम्बिक उद्योग है। और समाज की प्रमुख आवश्यकताओं को याने अन्न, वस्त्र, भवन, स्वास्थ्य और प्राथमिक शिक्षा के सन्दर्भ में स्वावलंबी समुदाय अपेक्षित है। इन मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति भी जितनी अधिक स्थानिक संसाधनों के आधारपर की जाएगी स्वतन्त्रता अधिक होगी। जितने संसाधन ग्राम से दूर उतनी स्वतन्त्रता की मात्रा में कमी आती है। इस तरह ऐसे समुदाय की जनसंख्या का नियंत्रण प्रकृति में उपलब्ध स्थानिक संसाधन करते हैं। प्राकृतिक संसाधन जैसे भूमि, बारिश, हवा, धूप आदि विकेन्द्रित ही होते हैं। अपने आप ही यह ग्राम एक प्रकृति सुसंगत विकेंद्रित ईकाई के रूप में विकास पाता है।

ग्राम की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए विभिन्न कौशल विधाओं की आवश्यकता होती है। जैसे अन्न उपजाना, मकान के लिए और खेती के लिए विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन करना, वस्त्र निर्माण करना। खाना पकाने के लिए, संग्रह के लिए और खाने के लिए बर्तन बनाना आदि अनेकों कुशलताओं की आवश्यकता ग्राम के लोगोंं को होती है। इन कुशलताओं के धनी पर्याप्त संख्या में ग्राम में होना आवश्यक होता है। कुशल लोगोंं की संख्या भी ग्राम की आवश्यकता के अनुसार होना आवश्यक होता है। कम होने से ग्राम की आवश्यकताओं की ठीक से पूर्ति नहीं हो पाती। अधिक होने से परस्परावलंबन बिगड़ जाता है। अतः यह आवश्यक होता है कि ग्राम की जनसंख्या के अनुपात में प्रत्येक आवश्यक कुशलता के लोगोंं की संख्या का अनुपात बना रहे। इस समस्या का हल कुशलता को आनुवांशिक बनाने से मिल जाता है। अतः परम्परागत कौटुम्बिक व्यवसाय की व्यवस्था की आवश्यकता होती है। वैसे भी व्यावसायिक कुशलता यह आनुवांशिकता से एक पीढी से दूसरी पीढी में संक्रमित होती ही है। इस दृष्टि से भी पारंपरिक कौटुम्बिक व्यवसाय की व्यवस्था यह प्रकृति सुसंगत ही है।

अब हम इन के समन्वय से समृद्धि शास्त्र कैसे निर्माण होता है और समृद्धि व्यवस्था कैसे बनती है इस का विचार करेंगे।

समृद्धि व्यवस्था के स्तंभश: धर्म

यह हमने पूर्व में जाना है कि मानवेतर प्राणी अपने धर्म के अनुसार ही व्यवहार करता है। जैसे बिच्छू का काम है अपरिचित वस्तू का संपर्क होते ही डंक मारना। छुईमुई का धर्म है किसी के भी स्पर्श से मुरझा जाना। इसी प्रकार से मनुष्य और मनुष्य समाज की भिन्न भिन्न ईकाईयाँ अपने अपने धर्म के अनुसार व्यवहार करें, यह प्राकृतिक बात है। लेकिन मानव की योनि कर्म योनि होने से उसे कर्म करने की स्वतंत्रता प्राप्त है। वह अपनी प्रकृति के अनुसार, प्रकृति से घटिया(विकृति) और प्रकृति से उन्नत (संस्कृति) व्यवहार कर सकता है।

हमने सामाजिक संगठन विषय में यह जाना है कि स्त्री पुरुष सहजीवन और आयु की अवस्था के अनुसार बढ़ने और घटनेवाली क्षमताओं के कारण एक स्वाभाविक सामाजिक रचना बनती है। जब इस प्राकृतिक रचना को मानव अपनी बुद्धि के प्रयोग से व्यवस्थित करता है, तब वह कुटुम्ब व्यवस्था बनती है। अपनी स्वतन्त्रता और जीने के लिए विविध आवश्यकताओं की परस्परावलंबन से पूर्ति करने के लिए जब परस्पर संबंधों को मानव व्यवस्थित करता है तो उसे ग्राम कहते हैं। अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव जब जन्मजात विभिन्न व्यावसायिक कौशलों को व्यवस्थित कर सातत्य से आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था करता है, तब कौशल विधा व्यवस्था (पूर्व में जाति) बनती है। इसी प्रकार समान जीवन दृष्टि वाला समाज जब अपने सुख-शान्तिपूर्ण सुरक्षित सहजीवन को व्यवस्थित करता है तो उसे राष्ट्र कहते हैं। इन व्यवस्थाओं के दो उद्देश्य होते हैं। पहला होता है इससे जीवन की अनिश्चितताएँ दूर हों और दूसरा होता है इन व्यवस्थाओं के कारण सुख और शान्ति से जीवन चले। इस प्रकार यह चार प्राकृतिक ईकाईयाँ मानव अपनी बुद्धि के प्रयोग से अपने हित के लिए व्यवस्थित करता है।

किन्तु इनके साथ ही मानव के लिए प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग भी अनिवार्य बात होती है। प्राकृतिक संसाधनों के बिना मानव और अतः मानव समाज भी जी नहीं सकता। प्रकृति के भी अपने नियम होते हैं। इन नियमों का पालन करते हुए जीने से प्रकृति भी अनुकूल होती है। इन नियमों का पालन न करने से मानव को ही कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। वनक्षेत्र के कम होने से बारिश पर परिणाम होता है। उसके बुरे परिणाम फिर मानव को सहने पड़ते हैं। अतः प्रकृति सुसंगत जीना मानव के ही हित में होता है। समृद्धि शास्त्र मुख्यत: कुटुंब, ग्राम, कौशल विधा(जाति), राष्ट्र और प्रकृति सुसंगतता इन पाँच बातों के समायोजन का शास्त्र है। वास्तव में समायोजन तो प्रकृति के साथ मानव की चारों ईकाईयों को करना होता है। इन में से मानव की चारों ईकाईयों में से प्रत्येक का प्रकृति सुसंगतता के साथ ही अन्य तीन ईकाईयों के साथ समायोजन करने के लिए आवश्यक नियमों को ही उन ईकाईयों का धर्म कहा जाता है। जैसे कुटुम्ब धर्म, ग्रामधर्म, कौशल विधा (जाति) धर्म और राष्ट्रधर्म। ये चार ईकाईयाँ ही समाज के समृद्धि शास्त्र के आधार स्तंभ हैं। अब हम इन चारों में से एक एक ईकाई का धर्म जानने का प्रयास करेंगे।

कुटुम्ब धर्म

  1. कुटुम्ब में श्रेष्ठ जीवात्माओं को जन्म देना।
  2. गर्भधारणा से लेकर संस्कारक्षम आयुतक बच्चोंं को श्रेष्ठ संस्कारों से युक्त करना। उनमें उपभोग संयम जैसी अच्छी आदतें डालना। सदाचार, संयम, स्वच्छता, सादगी, सत्यनिष्ठा, स्वावलंबन, स्वतंत्रता, सहकारिता, स्वदेशी (राष्ट्रभक्ति), परोपकार आदि का स्वभाव बनें ऐसे संस्कार करना।
  3. केवल अधिकारों की समझ लेकर पैदा हुए नवजात अर्भक को केवल कर्तव्यों के लिए जीनेवाला मानव बनाना।
  4. कुटुम्ब भावना के संस्कार, व्यवहार का सर्वप्रथम कुटुम्ब के सभी सदस्यों तक, ग्राम के सभी सदस्यों तक और आगे चराचर तक विस्तार करना।
  5. कौटुम्बिक व्यवसाय के माध्यम से समाज की किसी आवश्यकता की पूर्ति करने में यथाशक्ति योगदान देना।
  6. ग्राम, कौशल विधा, राष्ट्र इन सामाजिक व्यवस्थाओं के लिए आवश्यकतानुसार कुटुम्ब के सदस्यों का सम्पूर्ण सहयोग प्राप्त हो इसकी आश्वस्ति करना। इस दृष्टि से कुटुम्ब के सदस्यों का विकास करना।
  7. केवल प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग अपने उत्पादनों और उपभोग के लिए करना।
  8. ज्ञान, अनुभव को और आयु को भी सम्मान देना।
  9. ज्ञान को प्रतिष्ठित करना। श्रम और सेवा की प्रतिष्ठा करना। तीसरे क्रमांक पर धन की प्रतिष्ठा को रखना।
  10. न्याय के पीछे, सत्य के समर्थन और सहायता में अपने कुटुम्ब की शक्ति खडी करना।
  11. स्त्री और पुरूष कार्य विभाजन। वर्तमान मानसिक विकृति को दूर करना। बच्चे पैदा करने का काम स्त्री और पुरूष दोनों मिलकर ही कर सकते है। अन्य कोई भी काम ऐसा नहीं है कि जो स्त्री नहीं कर सकती या पुरूष नहीं कर सकता। किंतु केवल कर सकना यह निष्कर्ष ना केवल उस व्यक्ति के लिये और ना ही समाज के लिये हितकर है। प्रयोजन के आधार पर या गुण और स्वभाव के अनुसार ही काम का निश्चय होना चाहिये। स्त्री और पुरुष में, पुरुष और पुरुष में भी और स्त्री और स्त्री में भी क्षमताओं का अन्तर होता है।
  12. प्रत्यक्ष चांदी-सोना, रुपया, पशुधन, जंगल, उर्वरा भूमि, संग्रहित धान आदि धन के ही रूप हैं।
  13. प्राकृतिक संसाधन और मानवीय शरीर, मन बुद्धि का उपयोग यही बातें धन का निर्माण करती हैं। ये ठीक रहें इस दृष्टि से शिक्षा और संस्कारों की व्यवस्था करना: अर्थस्य तिस्त्र:गतय: दानं भोगं नाशश्च। संपत्ति की तीन ही सम्भावनाएँ हैं। दान करो, भोग करो यह दो सम्भावनाएँ हैं। अन्यथा तीसरी सम्भावना याने सम्पत्ति का नाश होने ही वाला है। इसलिये उपभोग को कम-कम करते हुए बचाई हुई सम्पत्ति का दान करते जाओ। दान की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन दिया जाए।
  14. स्पर्धा नहीं प्रेरणा और सहयोग से प्रगति का संस्कार।
  15. जो जन्मा है वह खाएगा। जो कमाएगा वह खिलाएगा। चर-अचर की न्यूनतम अवश्यकताओं की पूर्ति अनिवार्य। साथ ही में यह भाव कि "मैं जब तक समाज जीवन में कोई सार्थक योगदान नहीं करता तब तक मुझे जीने का अधिकार नहीं है" ऐसी जिम्मेदारी की भावना सार्वत्रिक होना। शिक्षा की और समृद्धि व्यवस्था की इस दृष्टि से पुनर्रचना करनी होगी।
  16. संयमित उपभोग। अपनी व्यक्तिगत और सामाजिक क्षमताओं का क्षरण ना हो इस सीमातक आवश्यकताएं न्यूनतम करते जाना।
  17. औरों के अधिकार और अपने कर्तव्यों पर बल। ऐसा करने से सभी के अधिकारों की रक्षा स्वयमेव होगी।
  18. दिखाऊ नहीं टिकाऊ पर बल। संसाधनों का संपूर्ण / पुन: पुन: उपयोग करें। शोषण न करने की दृष्टि।
  19. अतिथि सत्कार के लिए सदैव तत्पर रहना।
  20. सभी को सुख मिलने के लिए चार बातें आवश्यक होतीं हैं। सुसाध्य आजीविका, स्वतंत्रता, शान्ति और पौरुष। इन का विश्लेषण हम [[Bharat's Science and Technology (भारतीय विज्ञान तन्त्रज्ञान दृष्टि)|इस]] अध्याय में देखेंगे। यहाँ इतना ही समझ लें कि सुख के सार्वत्रिक होने के लिए समाज के हर व्यक्ति के लिए समाज के हित में कुछ समय देना आवश्यक होता है। सामान्यत: अपनी आजीविका से भिन्न ऐसा कोई काम हर व्यक्ति करे जिससे समाज के अन्य घटकों का लाभ हो। ऐसा करने की आदतें और प्रारम्भ का स्थान कुटुम्ब है।
  21. इस लेख को भी देखें।

ग्राम धर्म

  1. ग्राम के हर व्यक्ति के लिए सार्थक रोजगार की व्यवस्था करना यह ग्राम का सबसे महत्वपूर्ण धर्म है। यहाँ रोजगार का अर्थ केवल धनार्जन तक ही सीमित नहीं है। ऐसे कई काम हैं जो नि:शुल्क करने होते हैं। जैसे अन्न दान, कला, कारीगरी आदि या ऐसा कहें कि ज्ञान/ विज्ञान / तंत्रज्ञान की विविध विधाओं की शिक्षा, ग्राम की सुरक्षा, ग्राम सेवा (मुखिया, पञ्च, सरपञ्च आदि), वैद्यकीय सेवा आदि। वानप्रस्थी या उन्नत गृहस्थाश्रमी लोगोंं यह काम हैं। सेवा और नौकरी में अंतर है। सेवा नि:स्वार्थ भाव से की जाती है। नौकरी स्वार्थ भाव से होती है।
  2. ग्राम के सभी लोगोंं का चरितार्थ सम्मान के साथ चले। इस दृष्टि से रचना बनाना और चलाना। अनाथ, विधवा, वृद्ध, अपंग आदि दुर्बल घटकों के भी सम्मानपूर्ण आजीविका की व्यवस्था हो। आचार्य, विद्वान, कलाकार, वैद्य आदि की यथोचित सम्मानपूर्ण आजीविका की भी व्यवस्था हो।
  3. किसी पर भी अन्याय न हो। सुख शांति से जीवन चले। दुष्ट दुर्जनों और मूर्खों को नियंत्रण में रखना।
  4. ग्राम के सभी सदस्यों की स्वाभाविक, शासकीय और आर्थिक स्वतन्त्रता की रक्षा हो।
  5. ग्राम के सभी लोगोंं और उनके धन की तथा ग्राम की सुरक्षा की व्यवस्था करना।
  6. ग्राम ग्रामकुल बने। ग्राम के सभी सदस्य कुटुम्ब भावना से रहें ऐसा व्यवहार हो, ऐसा वातावरण रहे, ऐसे कार्यक्रमों का ही आयोजन हो। हर कुटुम्ब का अतिथि ग्राम का अतिथि है ऐसा उससे व्यवहार करना।
  7. विश्व की प्रत्येक श्रेष्ठ बात ग्राम में उपलब्ध हो। ऐसी कुशलताओं का यथासंभव विकास हो।
  8. ग्राम का युवक, धन पूर्णत: और पानी यथासम्भव ग्राम से बाहर न जाए।
  9. ग्राम के लिए उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के जैसे खेतों, तालाबों, गोचर भूमि, जंगल, खनिज पदार्थ आदि के रक्षण और रखरखाव की व्यवस्था करना।
  10. पैसा या धन (मुद्रा) यह आर्थिक व्यवहारों को बिगाड़ता है।(मनी इज द बिगेस्ट डिस्टॉर्टर ऑफ एकॉनॉमी)। इसलिये चलन विनिमय न्यूनतम रखना। वस्तु विनिमय (बार्टर प्रणाली) के आधार पर गाँव का व्यवहार नहीं चल सकता। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति के सम्मान और आजीविका की आश्वस्ति दे, ऐसी मूलभूत आवश्यकताओं (वस्तुओं) के निर्माण और वितरण की व्यवस्था विकसित करना।
  11. गाँव के लिये आवश्यक निवास, कृषि, जंगल, गोचर भूमिपर गाँव का अधिकार हो। अर्थात् ग्रामसभा का अधिकार हो। ग्रामसभा के निर्णय सर्वसहमति (जैसे आजतक होते आए हैं) से हों। खनिज राष्ट्रीय संपति है। इसलिये खनिजों का खनन शाश्वत राष्ट्रीय विकास नीति के अनुसार हो।
  12. सुबह सूर्योदय को घर से निकलकर अपनी आजीविका के लिए समय देकर सूर्यास्त तक अपने घर लौटने की सीमा यह ग्राम की सीमा है।
  13. ज्ञानार्जन, कौशालार्जन और पुण्यार्जन के लिए समूचा विश्व ग्राम होता है। अतः अटन केवल ज्ञानार्जन, कौशलार्जन और पुण्यार्जन के लिए ही करना। लेकिन जीवन जीने के लिए ग्राम ही समूचा विश्व होता है।
  14. अन्न निर्माण प्रभूत मात्रा में करना। कठिन परिस्थितियों के लिए धान्य संचय की व्यापक व्यवस्था बनाना।
  15. इस लेख को भी देखें।

कौशल विधा (जाति) धर्म

  1. कभी भी ग्राम की आवश्यकता पूर्ण करनेवाली अपनी कौशल विधा से निर्माण हुई वस्तु की कमी न हो इसकी आश्वस्ति करना। इस दृष्टि से अपनी कौशल विधा का और अधिक विकास कर अगली पीढी को हस्तान्तरित करना। समाज की बदलती आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अपने उत्पादनों में परिवर्तन करते जाना।
  2. मेरे द्वारा निर्मित पदार्थ का उपभोग करनेवाले सभी लोग परमात्मा के ही रूप हैं, यह ध्यान में रखकर "मैं जो भी पदार्थ बना रहा हूँ वह परमात्मा के चरणों में चढाने के लिए है", ऐसी भावना से श्रेष्ठतम पदार्थ के निर्माण का प्रयास करना।
  3. माँग के अनुसार उत्पादन करना। कच्चे माल का उपयोग न्यूनतम करना।
  4. अपनी कौशल विधा की शुद्धि और वृद्धि के निरंतर प्रयास करना। इस हेतु अध्ययन अनुसन्धान करना।
  5. उत्पादन करते समय प्राकृतिक संसाधनों का अपव्यय नहीं करना। प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग भी न्यूनतम करने के उपायों का अनुसन्धान करते रहना। उपलब्ध स्थानिक संसाधनों के आधार से ही जीवन चल सके ऐसा कौशल विकसित करना।
  6. आवश्यकता की सटीक पूर्ति हो ऐसे पदार्थ ही बनाना।
  7. कौशल विधा के किसी भी सदस्य पर अन्याय न हो यह देखना। किसी सदस्य द्वारा दुर्व्यवहार होनेपर उसे साम, दाम, दंड, भेद से ठीक करना। कौशल विधा के सभी सदस्य कौशल बांधव हैं ऐसा उन के साथ व्यवहार रखना।
  8. अन्न निर्माण प्रभूत मात्रा में करना।
  9. इस लेख को भी देखें।

राष्ट्र धर्म

राष्ट्र धर्म के अनेकों पहलू हैं। जिनमें से एक समृद्धि से सम्बंधित है। यहाँ हम केवल राष्ट्र धर्म के समृद्धि से सम्बंधित बिदुओं का विचार करेंगे:

  1. अपरमातृका समृद्धिव्यवस्था और अदेवमातृका खेती।
  2. जन (आबादी), धन, सत्ता और उत्पादन का विकेंद्रीकरण।
  3. अधिकतम कर निर्धारण १६ प्रतिशत हो।
  4. राष्ट्र के सभी सदस्यों के लिए निम्न व्यवस्थाओं का निर्माण करना
    1. पोषण व्यवस्था
    2. रक्षण व्यवस्था
    3. शिक्षण व्यवस्था
  5. राष्ट्र के पड़ोसियों से दौत्य सम्बन्ध रखना। पड़ोसी देशों में होने वाले वातावरण, परिवर्तनों का निरीक्षण कर उचित सावधानी बरतना। उचित कार्यवाही भी करना।
  6. भारतीय विचारों में जीवन का लक्ष्य 'मोक्ष' है। काम पुरुषार्थ अर्थात् कामनाओं को और आर्थिक पुरुषार्थ अर्थात् इन कामनाओं की पूर्ति के लिये किये गये प्रयासों को धर्मानुकूल बनाना होगा। यह विचार धार्मिक (भारतीय) समृद्धिशास्त्र के निर्माण का आधार बने। समृद्धिशास्त्र शिक्षा का विषय है। और शिक्षा का लक्ष्य स्पष्ट किया गया है: 'सा विद्या या विमुक्तये' अर्थात 'मुक्ति दिलाए ऐसी शिक्षा' या 'मुक्ति दिलाए ऐसा समृद्धिशास्त्र'।
  7. किसी भी प्रकार के आर्थिक अधिकार सरकार के पास न रहें। धर्म व्यवस्था ने दिया कर वसूली का और कर के योग्य विनिमय का अधिकार केवल शासन के पास रहेगा। इस हेतु सत्ता का विकेंद्रीकरण भी करना होगा।
  8. संपूर्ण और सार्थक रोजगार की संकल्पना और चराचर की नि:स्वार्थ सेवा की भावना से किये जा रहे काम, इनका सन्तुलन। प्राचीन काल में धनार्जन के काम केवल गृहस्थाश्रमी अर्थात् मात्र ३३ प्रतिशत सज्ञान लोग करते थे। 'मैं नौकर नहीं बनूंगा' ऐसी मानसिकता हुआ करती थी। यही योग्य भी है।
  9. अनुभव और ज्ञान के आधार पर समाज को श्रेष्ठ बनाने के लिए योग्य समाज घटकों को मार्गदर्शन कर अपने से अधिक श्रेष्ठ अगली पीढी बनें ऐसी परम्परा विकसित करना यह सभी वानप्रस्थियों की जिम्मेदारियाँ है।
  10. आपद्धर्म – अंत्योदय। समाज में कोई पिछड़ा नहीं रहे ऐसी नीति और व्यवहार रखना।
  11. स्वदेशी वस्तू संकल्पना: जो वस्तू घर में बनी हो वह सबसे अधिक स्वदेशी। घर के बाद अपने पडोसी के घर में बनी। फिर गाँव में या परिसर में बनी। फिर अपने जिले में बनी। फिर अपने जनपद में बनी। फिर अपने प्रांत में बनी। फिर अपने देश के अन्य प्रांतों में बनी। फिर पडोसी देश में बनी। अंत में किसी भी अन्य देश में बनी (स्वदेशो भुवनत्रयम)। अधिकतम स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग का आग्रह हो।
  12. अनविकरणीय पदार्थों का उपयोग न्यूनतम रखना और प्रतिदिन कम करते जाना। नविकरणीय पदार्थों का उपभोग भी उस के नवीकरण की क्षमता की मर्यादा से बढने न देना। भोग और नवनिर्माण का सन्तुलन बनाए रखना।
  13. निर्णय के अधिकार और जिम्मेदारीयों का विकेंद्रीकरण। जो बात ग्राम स्तर पर संभव नहीं है केवल वही निर्णय और जिम्मेदारी तहसील स्तर पर हो। जो बात तहसील स्तर पर संभव नहीं है, केवल वही निर्णय और जिम्मेदारी जिला स्तर पर हो। जो बात जिला स्तर पर संभव नहीं है, केवल वही निर्णय और जिम्मेदारी विभाग स्तर पर हो। जो बात विभाग स्तर पर संभव नहीं है, केवल वही निर्णय और जिम्मेदारी प्रांत स्तर पर हो। जो बात प्रांत स्तर पर संभव नहीं है, केवल वही निर्णय और जिम्मेदारी राष्ट्रीय स्तर पर हो।
  14. राजा व्यापारी तो प्रजा भिखारी । सामान्य रूप में उत्पादन और व्यापार शासन के काम नहीं है।
  15. देश और गाँव गाँव का तालाबीकरण करना। चार और आचार की प्यास बुझाने का यह सर्वश्रेष्ठ तरीका है। तालाबों का निर्माण रखरखाव और नियंत्रण ये ग्राम की जिम्मेदारीयाँ और इस कारण अधिकार भी होंगे।
  16. प्राकृतिक नविकरणीय और यथासंभव अनविकरणीय संसाधनों के भी पुनर्भरण के प्रयास सतत चलते रहें।
  17. माँग से अधिक उत्पादन करने पर रोक लगे। विज्ञापनबाजी वर्जित और दंडनीय हो।
  18. प्रतिव्यक्ति वेतन का अनुपात बडे से बडे अधिकारी और छोटे से छोटे सेवक में १५ गुना से अधिक न रहे। अधिकारी के काम के स्वरूप के अनुसार उसे विशेष सुविधाएं और साधन देना आवश्यक।
  19. उत्पादन का स्तर भी न्यूनतम हो। अर्थात् जो वस्तू गृह उद्योग में बन सकती हो उसे लघु उद्योग में न बनाएं। जो वस्तू लघु उद्योग में बन सकती हो उसे मध्यम उद्योग में न बनाएं। जो वस्तू मध्यम उद्योग में बन सकती हो उसे बडे उद्योग में न बनाएं। जो वस्तू बडे उद्योग में बन सकती हो उसे विशाल उद्योग में न बनाएं। जो वस्तु निजी उद्योग में बनाने से देश की सुरक्षा को खतरा हो सकता है ऐसी वस्तुएं केवल सरकारी उद्योग में बने। अनिवार्य है ऐसे मध्यम, बडे और विशाल उद्योगों के लिये पूंजी बचतगटों के जाल से या सहकारी तत्व पर निर्माण की जायेगी।
  20. स्वायत्त (धर्मानुकूल) आर्थिक क्षेत्र के कानून बनाने वाला धर्म के जानकारों का एक वर्ग निर्माण करना आवश्यक है। धर्म के जानकारों का निर्णय अंतिम हो।
  21. राज्यशासित लेकिन धर्म व्यवस्था द्वारा मार्गदर्शित राज्यव्यवस्था न्याय की चिंता करे। कानून बनाने का अधिकार केवल धर्म के जानकारों को हो। धर्म के जानकारों में भी जिस क्षेत्र के लिये कानून बनाया जायेगा, उस क्षेत्र के ज्ञाताओं का है।
  22. अर्थायाम याने अर्थ का अभाव और प्रभाव दोनों ना रहें। बड़े / विशाल उद्योग अपने हित के लिए समाज को विज्ञापनबाजी, शासनपर दबाव आदि अलग अलग माध्यमों से नियमित करते हैं। इनके कारण धन का अभाव और प्रभाव दोनों निर्माण होते हैं। धन की प्रतिष्ठा ज्ञान / धर्म, शिक्षा और सुरक्षा से नीचे रखने से धन का अभाव और प्रभाव निर्माण नहीं हो पाता। इस हेतु एक ओर तो अर्थ के सुयोग्य वितरण की व्यवस्था का और दूसरी ओर शिक्षा के माध्यम से सुसंस्कारित मानव का निर्माण करना होगा। कौटुम्बिक उद्योगों पर आधारित समृद्धि व्यवस्था में यह सहज ही हो सकता है। समाज अपने हित में कौटुम्बिक उद्योगों को नियमित करता है। अतः धन का अभाव और प्रभाव दोनों निर्माण नहीं होते।
  23. धर्माचरण करनेवाला, धर्मानुकूल अर्थ की समझवाला, अभोगी शासक हो।
  24. कुटुम्ब शिक्षा और विद्यालयीन शिक्षा के माध्यम से समाज की मानसिकता को समृद्धि शास्त्र के अनुकूल बनाना।
  25. किसी भी काम के लिए ॠण लेना यह सामाजिक लज्जा की बात हो। किसी आपदा के कारण मजबूरी में ऐसा ॠण लेना पड़े तो पहले संभव क्षण को ॠण लौटाने की मानासिकता हो।
  26. प्राकृतिक संसाधनों का वास्तविक मूल्य उन्हें उपभोक्तातक लाने के लिए किया गया यातायात का व्यय, उन्हें उपयुक्त बनाने के लिए की गयी प्रक्रिया का व्यय और लाभ, इतना ही नहीं होता। उसका वास्तविक मूल्य लगाया ही नहीं जा सकता। क्योंकि उपभोग की कोई मर्यादा नहीं है और सभी संसाधन मर्यादित मात्रा में ही प्रकृति में उपलब्ध हैं।
  27. व्यवस्था धर्म के अनुसार व्यवस्थाएँ निर्माण करनी होंगी। व्यवस्था धर्म के सूत्रों का विचार हमने समाज धारणा के अध्याय में किया है।

भारतीय समृद्धिशास्त्र की पुन: प्रतिष्ठा

समृद्धि व्यवस्था में स्वतन्त्रता और सहानुभूति का सन्तुलन होता है। इस सन्तुलन के कारण धन का अभाव और प्रभाव दोनों निर्माण नहीं हो पाते। जब धन का संचय किसी के हाथों में हो जाता है उसमें उद्दंडता, मस्ती, अहंकार बढ़ता है। इससे वह धन के बल पर लोगोंं को पीड़ित करने लग जाता है। और अर्थ का प्रभाव समाज में दिखने लग जाता है। इसी तरह से जब धन के अभाव के कारण समाज के किन्ही सदस्यों में या वर्गों में दीनता, लाचारी का भाव पैदा होता है। कहा गया है[citation needed] :

यौवनं धन सम्पत्ति प्रभुत्वमविवेकिता। एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्ट्य ।।

अर्थ : यौवन, धन/सम्पत्ति, असीम अधिकार और अविवेक इन चारों में से कोई एक भी होने से अनर्थ हो जाता है। यदि चारों एक साथ हों तो भगवान जाने क्या होगा?

लेकिन धन का संचय होनेपर जब दान की भावना से वह पुन: अभावग्रस्त लोगोंंमें वितरित हो जाता है, सड़क निर्माण, कुए या तालाबों का निर्माण, धर्मशालाओं का निर्माण आदि में व्यय होता है, तब धन का अनावश्यक संचय नहीं होता। धन का संचय न होने से अर्थ का प्रभाव नहीं होता। और उसका अभावग्रस्त लोगोंंमें वितरण हो जाने से धन का अभाव भी नहीं रहता।

जीवन का धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान धर्माधिष्ठित है। अतः समृद्धि व्यवस्था की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए धर्म के और शिक्षा क्षेत्र के जानकार लोगोंं को ही पहल करनी होगी। शासन व्यवस्था का भी इसमें सहयोग अनिवार्य है। लेकिन परिवर्तन का वातावरण निर्माण करना विद्वानों का काम होगा। यथावश्यक शासन की सहायता लेनी होगी। इस का विचार हमने इस अध्याय में किया है। अतः यहाँ केवल मोटी मोटी बातों का विचार ही हम करेंगे। वर्तमान में जीवन का प्रतिमान अधार्मिक (अधार्मिक) है। इसमें कुटुम्ब व्यवस्था, ग्राम व्यवस्था, कौशल विधा याने जाति व्यवस्था ये व्यवस्थाएँ दुर्बल हो गईं हैं। और दुर्बल होती जा रहीं हैं। राष्ट्र की सभी व्यवस्थाओं के तंत्र पूर्णत: अधार्मिक (अधार्मिक) हैं। अतः हमें दो प्रकार के प्रयास करने होंगे:

  1. कुटुम्ब व्यवस्था, ग्राम व्यवस्था, कौशल विधा याने जाति व्यवस्था व्यवस्थाओं के दोष दूर कर उनका शुद्धिकरण करना होगा। यह काम निम्न पद्धति से होगा:
    1. राष्ट्र और राष्ट्र की इन प्रणालियों की श्रेष्ठ व्यवस्थाओं की सैद्धांतिक प्रस्तुति करनी होगी।
    2. स्थान स्थान पर इनके अस्थाई अध्ययन और मार्गदर्शन के लिए केन्द्र निर्माण करने होंगे। इन केन्द्रों के माध्यम से लोकमत परिष्कार करना होगा।
    3. इन प्रणालियों के परिष्कार के उपरांत भी इनमें से कुछ केन्द्र निरन्तर काम करेंगे। इन स्थाई केन्द्रों का काम इन प्रणालियों का निरंतर अध्ययन करना, कुछ गलत होता हो तो उसे जान कर उसके सुधार की प्रक्रिया चलाने का होगा।
  2. राष्ट्रीय स्तर पर समृद्धि शास्त्र के बिन्दुओं का क्रियान्वयन सर्वप्रथम शिक्षा के क्षेत्र से प्रारम्भ कर पीछे पीछे अन्य सभी व्यवस्थाओं को अनुकूल बनाना होगा। इसकी प्रक्रिया निम्न पद्धति से चलेगी:
    1. सर्वप्रथम उन व्यवस्थाओं के शास्त्रों के धार्मिक (भारतीय) स्वरूपों की बुद्धियुक्त प्रस्तुति करना। यह काम धर्म और शिक्षा से सम्बंधित विद्वानों का है।
    2. शासन के सहयोग से धार्मिक (भारतीय) व्यवस्थाओं के स्थानिक स्तर के कुछ प्रयोग करने होंगे। प्रयोगों के लिए अनुकूल स्थान का चयन करना होगा। इन प्रयोगों के द्वारा शास्त्रों की प्रस्तुतियों की उचितता और श्रेष्ठता को जांचना होगा। आवश्यकतानुसार शास्त्रों की प्रस्तुतियों में सुधार करने होंगे। स्थानिक स्तर पर सफलता मिलने के बाद जनपद या प्रांत के स्तरपर प्रयोग करने होंगे। अनुकूल प्रांत में शासन की सहमति और सहयोग से ये प्रयोग किये जाएंगे। आगे अन्य अनुकूल प्रान्तों में और सबसे अंत में समूचे राष्ट्र में इस परिवर्तन की प्रक्रिया को चलाना होगा।
    3. परिवर्तन की प्रक्रिया पूर्ण होने के उपरांत भी इन व्यवस्थाओं के निरंतर अध्ययन और परिष्कार की स्थाई व्यवस्था बनानी होगी।

References

  1. जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय ३३, लेखक - दिलीप केलकर

अन्य स्रोत: