Difference between revisions of "Eternal Rashtra (चिरंजीवी राष्ट्र)"
m (Text replacement - "Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग १)" to "[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग १...) |
m (Text replacement - "Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)" to "Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)") |
||
Line 85: | Line 85: | ||
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग १)]] | [[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग १)]] | ||
− | [[Category: | + | [[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]] |
Revision as of 20:41, 23 June 2020
This article relies largely or entirely upon a single source.January 2019) ( |
प्रस्तावना
कोई भी मरना नहीं चाहता। अमर होने की इच्छा सब को होती है। लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है। इसके साथ ही उसका बीमार नहीं होना, बूढा नहीं होना, गरीब नहीं होना, सदा सुखी होना आदि शर्तें भी यदि जुडी नहीं हैं तो ऐसे अमर मानव का जीवन नरक से भी भयावह बन जाएगा। और वह शीघ्रातिशीघ्र मरने की इच्छा करने लग जाएगा। इसी तथ्य का ज्ञान तथागत गौतम बुद्ध के जीवन को मोड़ देकर उन्हें संसार से विमुख करनेवाला कारक विचार था।
इसलिए अमर या चिरंजीवी बनने के साथ सदा सुखी होने की क्षमता की आवश्यकता उस मानव में होना आवश्यक है। लेकिन जीवन में सुख और दु:ख दोनों होते ही हैं। निर्जीव को सुख और दु:ख दोनों की संवेदनाएं नहीं होतीं। लेकिन मानव तो सजीव होने के साथ ही अत्यंत संवेदनशील जीव भी है। इसलिए किसी भी मानव के लिए वह जब सुख और दु:ख दोनों से परे हो जाएगा तब ही चिरंजीवी बनने में औचित्य होता है। धार्मिक (धार्मिक) मान्यता है कि सात लोग चिरंजीवी बने हैं। कहा है[citation needed] :
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च बिभीषण: ।
कृप: परशुरामश्च सप्तै ते चिरजीविन: ।।
लेकिन अश्वत्थामा जैसा अपने जख्म और उनसे होनेवाली वेदनाएं लेकर अमर बनना कोई नहीं चाहता। धार्मिक (धार्मिक) मान्यता के अनुसार सात चिरंजीवी लोगों में से अन्य बलि, व्यास, हनुमान, बिभीषण, कृपाचार्य और परशुराम ये जो छ: चिरंजीवी लोग हैं वे इस सुख और दुःख से परे गए हुए लोग हैं। उनके जैसे हम बनें ऐसी प्रार्थना लोग नित्य करते हैं।
हमारे पूर्वजों ने यह सुख दुःख के परे जाने की प्रक्रिया को ढूंढा था। उस प्रक्रिया के अनुसार प्रत्यक्ष जीने का तरीका उन्होंने आत्मसात किया था। केवल इसीलिये भारत एक चिरंजीवी राष्ट्र बन सका है। आज भी इस तत्वज्ञान को जानने वाले लोग अच्छी खासी संख्या में भारत राष्ट्र में विद्यमान हैं। इस तत्वज्ञान के अनुसार जीने की शायद उनकी क्षमता नहीं होगी लेकिन इस में उनका विश्वास अवश्य है। इस प्रक्रिया के अनुसार जीनेवालों की संख्या में जिस प्रमाण में कमी आ रही है, भारत राष्ट्र की चिरंजीविता उसी प्रमाण में घट रही है।[1]
सुख विवेचन
दुनिया का हर जीव सुख प्राप्त करने के लिए जीता है। वह इच्छा करता है तो सुख की और प्रयास करता है तो सुख प्राप्ति के लिए। सुख कोई मनुष्य सुख के लिए पत्नि को छोड़ देता है तो कोई सुख के लिए विवाह करता है। कोई मनुष्य सुख पाने के लिए गाँव छोड़कर शहर में आकर बसता है। तो कोई शहर छोड़कर सुख पाने के लिए गाँव में जाकर बसता है। कहने का तात्पर्य यह है की सुख यह मनुष्य सापेक्ष है। व्यक्ति सापेक्ष है। लेकिन समाज यद्यपि व्यक्तियों का बना होता है फिर भी सभी के औसत सुख की प्राप्ति के अनुसार वह सामाजिक रीति रिवाज और परम्पराएँ निर्माण करता है। इसे ही उस समाज की संस्कृति कहते हैं। यह औसत सुख भी एक जटिल संकल्पना है।
सुख के स्तर होते हैं:
- सबसे निम्न स्तर होता है इन्द्रियजन्य सुख का। हमारे अनुकूल हमारे ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त जो अनुभव हैं उन्हें सुख कहते हैं।
- मन का सुख इससे श्रेष्ठ होता है। मन की प्रसन्नता के लिए मनुष्य शरीर को याने इन्द्रियों को कष्ट देकर भी पहाड़ चढ़ जाता है।
- बुद्धि का सुख मन के सुख से भी श्रेष्ठ होता है। आर्केमेडीज एक वैज्ञानिक था। वह अपने विचारों में मग्न था। दो भिन्न धातुओं के मिश्रण से बने मिश्र धातु से बनी वस्तु में प्रत्येक धातु के प्रमाण का पता कैसे लगाना, ऐसी एक समस्या से वह चिंतित था। नहा रहा था। और उसे आपेक्षिक घनता और पानी के उत्सर्जन की शक्ति का जब पता चला तब वह क्षण उसके लिए अत्यनत सुख का क्षण था। क्यों कि उसने अपनी समस्या का हल निकाल लिया था। यह समझ में आते ही उससे रहा नहीं गया। वह नंगा ही यूरेका! यूरेका! याने उत्तर मिला गया, उत्तर मिल गया ऐसा चिल्लाता हुआ भागने लगा था। इसलिए तीसरा स्तर बुद्धि के सुख का होता है।
- चौथा इससे भी अधिक श्रेष्ठ और उच्च स्तर होता है “आत्मिक सुख” का। अपने सगे सम्बन्धियों को सुख मिलनेपर जिस तरह हम भी सुख अनुभव करते हैं वह सुख आत्मिक सुख होता है। माता ९ मास अपने गर्भ के रक्षण के लिए कष्ट लेती है। जब वह अपनी नवजात संतान को देखती है तब वह अपने सब कष्ट भूलकर अपार सुख का अनुभव करती है। यह आत्मिक सुख ही होता है।
इन्द्रिय सुख क्षणिक होता है। और आत्मिक सुख स्थाई होता है। जब किसी समाज के इन भिन्न भिन्न स्तरों के सुख के प्रमाण में वृद्धि होती रहती है वह अधिक जीने की इच्छा करने लगता है। सुखों में भी जब आत्मिक सुख के दायरे में और मात्रा में निरंतर वृद्धि होती है तब शाश्वत सुख या परम सुख को प्राप्त करता है। तब वह चिरंजीवी बनने की इच्छा करता है। मन के सुख में मनुष्य इन्द्रिय सुख और दुःख से परे जाता है। बुद्धि के सुख के लिए मनुष्य मनके सुख और दुःख से परे जाता है। आत्मिक सुख मिलाने से वह बुद्धि के सुख और दुःख से परे जाता है। जब वह मर्यादित आत्मिक सुख से अमर्याद आत्मिक सुख प्राप्त करता है तब वह मर्यादित आत्मिक सुख और दुःख से परे चला जाता है। यही चिरंजीविता का लक्षण है।
व्यक्तिगत और समष्टीगत सुख
सुख प्राप्ति के लिए निम्न चार बातें आवश्यक होतीं हैं:
- सुसाध्य आजीविका
- स्वतंत्रता
- शांति
- पौरुष
इन चारों बातों का समष्टीगत होना समाज के सभी व्यक्तियों के सुखी होने के लिए आवश्यक है। जितने प्रमाण में ये समष्टिगत होंगी उतने प्रमाण में ही व्यक्ति को भी सुख मिल सकता है। समाज ऐसी अनगिनत वस्तुएँ है जिनसे हमारा जीवन चलता है। ये हमारे लिए वस्तुएँ बनानेवाले आसपास के लोग दुखी हों तो हम सुख से नहीं जी सकते। इसलिए ये भी सुख से जीयें यह भी हमारे सुख के लिए आवश्यक है। इसीलिये उपर्युक्त सुसाध्य आजीविका, स्वतंत्रता और शान्ति के साथ चौथी बात जो पौरुष है वह सुख को समष्टीगत बनाने के याने समाज के सभी लोगों को सुखी बनाने के प्रयासों को दिया हुआ नाम ही है।
जिस समाज में सुख को समष्टीगत बनाने के लिए समाज के सभी व्यक्ति पौरुष करने के लिए तत्पर होते हैं वह समाज चिरंजीविता की इच्छा करता है।
नश्वरता और अमरत्व
नश्वर का अर्थ सामान्यत: “नष्ट होनेवाली” से लिया जाता है। लेकिन अब यह सर्वमान्य तथ्य है कि सृष्टि में कोई भी वस्तु या पदार्थ नष्ट नहीं होता। उसके रूप में परिवर्तन होता है। इसलिए यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि रूप में परिवर्तन को ही नश्वरता कहते हैं। फिर अमरता क्या है?
श्रीमद्भगवद्गीता में तीन प्रकार के पुरूषों का वर्णन हैं। क्षर पुरूष, अक्षर पुरूष और उत्तम पुरूष। कहा है[2]:
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थो$क्षर उच्यते । (भ.गी. १५ – १६)
उत्तम: पुरुषस्त्वन्य परमात्मेत्युदाहृत: । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्य व्यय ईश्वर । (भ.गी. १५ - १७)
अर्थ : इस विश्व में नाशवान और अविनाशी ऐसे दो पुरुष हैं। सभी अस्तित्वों के शरीर नाशवान हैं। नाशवान का अर्थ है जिनमें परिवर्तन होता है। अविनाशी का अर्थ है जिनमें परिवर्तन नहीं होता। दूसरा पुरुष अविनाशी है याने अमर है। याने जो अपना रूप नहीं बदलता। इसे ही धार्मिक (धार्मिक) विचारों में आत्मा कहा गया है। तीसरा पुरुष है वह है उत्तम पुरुष याने परमात्मा।
इसी तरह इसी अध्याय के ७वें श्लोक में कहा गया है[3]:
ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन: ।
याने सभी शरीरों में उपस्थित जीवात्मा मेरा अंश ही है।
चिरंजीवी से तात्पर्य इस परिवर्तनशील पुरुष से नहीं है। वह है उस जीवात्मा से जो अविनाशी है। जब हम शरीर के स्तरपर जीते हैं याने मैं शरीर हूँ ऐसी भावना से जीते हैं तब हम नाशवान हो जाते हैं। लेकिन जब हम जीवात्मा जो परमात्मा का ही अंश है, के स्तरपर जीते हैं तब हम अविनाशी याने चिरंजीवी बन जाते हैं। तो चिरंजीवी बनने से तात्पर्य मै अविनाशी हूँ, ऐसी मन की श्रद्धा से है। ऐसी जब किसी समाज की श्रद्धा बन जाती है तब भी वह समाज चिरंजीवी बन जाता है।
विकास और मृत्यू
विश्व के हर जीव में लाखो/करोड़ों पेशियाँ होतीं हैं। उनमें से हजारों की संख्या में हर क्षण मरती रहती हैं। मल मूत्र के साथ शरीर के बाहर फेंकी जाती हैं। इसी तरह से शरीर द्वारा ग्रहण किये अन्न, जल और हवा के कारण हर क्षण हजारों पेशियाँ नई निर्माण होती रहती हैं। इसे चयापचय प्रक्रिया कहते हैं। जब तक तो मरनेवाली पेशियों की संख्या निर्माण होनेवाली पेशियों से कम होती है जीव की क्षमताओं में वृद्धि होती है। लेकिन जैसे ही मरनेवाली पेशियों की संख्या निर्माण होनेवाली पेशियों से अधिक हो जाती है वह जीव वृद्धावस्था की ओर आगे बढ़ने लगता है। मृत्यू की ओर आगे बढ़ने लगता है। सामान्यत: मरनेवाली और निर्माण होनेवाली पेशियों की संख्या में संतुलन अधिक दिनों तक बना नहीं रह पाता। प्रकृति के नियम के अनुसार तो वृद्धावस्था की ओर बढ़ना स्वाभाविक ही होता है। योग या संयमित जीवन से यौवन कुछ आगे बढ़ाया जा सकता है। लेकिन वृद्धावस्था को पूरी तरह से टालना तब ही संभव होता है जब “योगविद्या” का सहारा लिया जाता है। (जैसे ज्ञानेश्वर महाराज से जब मिलने आए थे तब चांगदेव १४०० वर्ष की आयु के थे)
चिरंजीवी बनने का अर्थ है निरंतर (निर्माण होनेवाली अतिरिक्त पेशियों के कारण) वर्धिष्णु रहना। यह तो हुआ मनुष्य के विषय में चिरंजीविता की पूर्वशर्त। समाज या राष्ट्र भी एक जीवंत इकाई होते हैं। इनमें भी ये जबतक बढ़ाते रहते हैं, वर्धिष्णु रहते हैं तबतक जीते हैं। घटना शुरू हुआ कि ये नष्ट होने की दिशा में आगे बढ़ने लगते हैं। इसलिए किसी भी जीव की चिरंजीविता की यह आवश्यक शर्त है कि वह बढ़ता रहे, वर्धिष्णु रहे। भारत का इतिहास भी यही बताता है कि भारत जब तक वर्धिष्णु था भारत पर बाहर से आक्रमण नहीं हुए। और जैसे ही भारत ने अपनी वर्धिष्णुता खोई इसका आकुंचन शुरू हो गया। भारत अब भी कुछ जीवित है इसका एकमात्र कारण है कि भारत विस्तार करते करते विश्वमय हो गया था इसीलिये अन्य समाजों जैसा यह नष्ट नहीं हो सका। लेकिन यह जिस आकुंचन के दौर में जी रहा है यह उसे मृत्यू की याने नष्ट होने की दिशा में ही ले जा रहा है।
वैसे तो भारत की चिरंजीविता को चुनौती कई बार मिली है। लेकिन हमारे पूर्वजों ने उन चुनौतियों पर मात कर भारत को चिरंजीवी बनाए रखा। वर्तमान में जो चुनौती हमारे सम्मुख है वह शायद अभीतक की चुनौतियों में सबसे गंभीर चुनौती है। यह चुनौती जीवन के पूरे प्रतिमान को, जो वर्तमान में अधार्मिक (अधार्मिक) बन गया है, उसे धार्मिक (धार्मिक) बनाने की है। पूरे प्रतिमान को ठीक करने की चुनौती का सामना आज तक कभी भारत ने नहीं किया है। इसलिए इससे निपटने का पूर्वानुभव भी हमारे पास नहीं है।
समाज या राष्ट्र की चिरंजीविता के लिए आवश्यक बिन्दु
जिस प्रकार से मानव के लिए चिरंजीविता का सम्बन्ध आत्मा से होता है। उसी तरह राष्ट्र के सम्बन्ध में राष्ट्र की चिति होती है। राष्ट्र की चिति राष्ट्रीय समाज की जीवनदृष्टि ही होती है। इस जीवनदृष्टि का समाज में बने रहना याने समाज के लोगों का जीवनदृष्टि के अनुसार व्यवहार होना ही राष्ट्र का जीवित रहना है। समाज की निरंतरता के साथ ही राष्ट्र की जीवनदृष्टि की निरंतरता बने रहना ही राष्ट्र की चिरंजीविता होती है। इस दृष्टि से राष्ट्र में निम्न बातों का विचार महत्वपूर्ण है:
- श्रेष्ठ परम्पराएँ : जब राष्ट्र में वर्तमान पीढी से भावी पीढी अधिक श्रेष्ठ बनाने की दृष्टि से परम्पराएं निर्माण होतीं हैं तब राष्ट्र जीवन अधिक श्रेष्ठ बनता जाता है। शासक-उत्तराधिकारी, पिता-पुत्र, सास-बहू, गुरु-शिष्य, श्रेष्ठ पड़ोसी धर्म, श्रेष्ठ कौटुम्बिक, श्रेष्ठ ग्राम, श्रेष्ठ जातिधर्म, श्रेष्ठ राष्ट्रधर्म के पालन की, श्रेष्ठ वणिक, श्रेष्ठ योद्धा, श्रेष्ठ सेनापति, श्रेष्ठ राजनीतीज्ञ, श्रेष्ठ कूटनीतीज्ञ, श्रेष्ठ समाज सेवक, श्रेष्ठ स्वाध्याय की आदि परम्पराएँ विकसित होती हैं और भावी पीढी को अधिक श्रेष्ठ बनाती हैं तब राष्ट्र चिरंजीवी बनता है। ऐसी परम्पराएँ स्थापित करने के लिए भावी को श्रेष्ठ बनाने की तीव्र आकांक्षा, बहुत संयम, बहुत चिंतन और अचूक व्यवहार की आवश्यकता होती है।
- सुखी जीवन : अपने व्यक्तिगत जीवन में सुख का प्रमाण अधिक होना और दुःख को सहने की सामर्थ्य होना भी चिरंजीवी बनने की इच्छा निर्माण करता है। इसी तरह से राष्ट्र जीवन में भी सुख और दुःख तो होंगे । लेकिन जब दुःख को सहमे की सामर्थ्य और सुख की मात्रा अधिक होती है तब वह राष्ट्र चिरंजीवी बनने की चाहत रखता है। अन्यथा अन्यों का अन्धानुकरण करता हुआ नष्ट हो जाता है।
- औसत सुख का स्तर : राष्ट्र के स्तरपर भी सुसाध्य आजीविका, शान्ति और पौरुष यह चार बातें आवश्यक होतीं हैं। यहाँ पौरुष से तात्पर्य है वैश्विक सुख के लिए किये जा रहे प्रयासों से है। जब सभी राष्ट्र वैश्विक सुख के लिए प्रयत्नशील होते हैं तो वैश्विक स्तरपर सारे ही राष्ट्र सुखी होते हैं। विश्व के सभी देशों या राष्ट्रों में सुख का औसत प्रमाण जितना है उसी के अनुपात में सुख भी विश्वगत होता है। इस औसत सुख के एक विशिष्ट स्तर से ऊपर होने से विश्व में शान्ति रहती है। इस औसत सुख में भी आत्मिक सुख का प्रमाण अधिक होता है तब चिरंजीवी बनने की प्रक्रिया अपने आप चलती है।
- प्रकृति सुसंगतता : इन्द्रियजन्य सुख का सम्बन्ध सीधा प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता से होता है। यदि अन्न, वस्त्र, भवन की न्यूनतम आवश्यकताओं को जुटाने में ही मानव को जी जान लगानी पद जाती है तो न तो वह स्वतन्त्र रहता है, न उसे शान्ति मिलती है और न ही वह अन्यों को सुखी बनाने के ही लायक रह जाता है। इसलिए प्रकृति सुसंगत जीवन भी चिरंजीवी बनने के लिए एक अनिवार्य शर्त है। वर्तमान में बलवान देशोंद्वारा गरीब और दुर्बल देशों के प्राकृतिक संसाधन हथियाने के जो प्रयास वैश्वीकरण के नाम से हो रहे हैं वह इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
- संख्याबल और भूगोल के सन्दर्भ में जीवनदृष्टि का वर्धिष्णु होना : अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार यदि जीवन में निरंतरता या चिरंजीविता नहीं है तो राष्ट्र की चिरंजीविता कैसी? राष्ट्र की चयापचय प्रक्रिया में राष्ट्र की जीवनदृष्टि के अनुसार जीनेवाले लोगों की संख्या और प्रतिशत बढ़ना यह नई पेशियाँ निर्माण होने जैसा है। और जीवनदृष्टि के अनुसार न जीनेवाले लोगों की संख्या और जनसंख्या में उनका प्रतिशत यह राष्ट्र को नष्ट करनेवाली पेशियों जैसा है। जब राष्ट्र की जीवनदृष्टि के अनुसार जीनेवाले लोगों की संख्या और प्रतिशत बढ़ते जाने की प्रक्रिया निरंतर चलती है तो राष्ट्र चिरंजीवी बनता है।
चिरंजीविता के लिए महत्वपूर्ण बिन्दु
अब हम इन बिन्दुओं के आधारपर चिरंजीवी बनने के लिए राष्ट्र को प्रत्यक्ष में क्या होना चाहिए इसका विचार करेंगे:
- जीवनदृष्टि में आत्मिक सुख का आग्रह होना।
- जीवनदृष्टि का आधार बुद्धियुक्त होना।
- जीवनदृष्टि के अनुसार जीनेवालों की संख्यात्मक और कुल जनसंख्या के अनुपात में वृद्धि होते रहना।
- शांतिपूर्ण ढंग से जीवनदृष्टि का विश्वभर में प्रसार होना।
भारत राष्ट्र की चिरंजीविता का विश्लेषण
भारत ही विश्व का एक ऐसा देश है जो लाखों वर्षों से अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार जीता रहा है और वर्तमान में भी जी रहा है। जीवनदृष्टि के अनुसार जीनेवाले लोगों का प्रमाण कम अवश्य हुआ है। भारत की चिति याने आत्मा याने जीवनदृष्टि के पीछे काम करनेवाली प्राणशक्ति दुर्बल अवश्य हुई है लेकिन नष्ट नहीं हुई है। यह फिर से जाग्रत होने का प्रयास कर रही है। भारत राष्ट्र यह कैसे संभव बना पाया जब की अन्य राष्ट्र एक के बाद एक नष्ट होते गए, यह अब विचारणीय है। चिरंजीविता की ओर अग्रसर होने के लिए हमें हमारे इतिहास से प्रेरणा और सबक लेते हुए आगे बढ़ना होगा।
किसी भी जीवंत इकाई के लिए वृद्धि ही जीवन का लक्षण होती है। इस नियम से धार्मिक (धार्मिक) जीवनदृष्टि की समझ है ऐसे लोगों की संख्या और इस जीवनदृष्टि के अनुसार जीनेवाले लोगों की संख्या और भौगोलिक क्षेत्र बढ़ते रहना ही धार्मिक (धार्मिक) जीवनदृष्टि की जीवन्तता का लक्षण था। इसी को हमारे पूर्वजों ने नाम दिया था “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्”। सारे विश्व को आर्य बनाना। “चराचर के साथ आत्मीयता से जुडा हुआ” मानव याने आर्य बनाना।
- धार्मिक (धार्मिक) जीवनदृष्टि एक ऐसी जीवनदृष्टि है जिसमें उपर्युक्त चिरंजीविता के लिए गिनाए गए आवश्यक बिन्दुओं में से पहले चार बिन्दुओं के विषय में अधिक चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। मूलत: धार्मिक (धार्मिक) जीवनदृष्टि में श्रेष्ठ परम्पराओं का निर्वहन और निर्माण, सर्वे भवन्तु सुखिन: के अनुसार व्यवहार, उसमें से सामाजिक सुख का समष्टीगत होना, पर्यावरण सुसंगत जीवनयापन और जीवनशैली आदि बातें आज भी कुछ मात्रा में भारतधर्मी लोगों के व्यवहार में हैं। धार्मिक (धार्मिक) जीवनदृष्टि और वर्तनसूत्रों के विषय में हमने अध्याय ७ और ८ में जान लिया है। बस इस जीवनदृष्टि के अनुसार व्यवहार करनेवाले लोग (बड़ी संख्या में) और उनके व्यवहार करने की सुविधा के लिए समुचित व्यवस्थाओं या तंत्रों के निर्माण के लिए परिश्रम करने होंगे।
- धार्मिक (धार्मिक) जीवनदृष्टि के अनुसार जीनेवाले लोगों के विश्वभर में विस्तार का शांतिपूर्ण पथ प्रशस्त करना। भारत के इतिहास में इस प्रकार के विस्तार के पुरोधा निम्न रहे हैं।
- व्यापारी : भारत का व्यापार विश्वभर में चलता था। १५ वीं सदी पुर्तगाल से वास्को-द-गामा भारत में आया था। वह धार्मिक (धार्मिक) व्यापारियोंके साथ में भारत आया था। उस समय भारत के व्यापारी जहाज यूरोप के देशों की तुलना में महाकाय हुआ करते थे। सामान्यत: सभी समाजों में व्यापारी उनकी अप्रामाणिकता के लिए जाने जाते हैं। समाज में सबसे अधिक अप्रामाणिक व्यापारी ही होता है, ऐसा सामान्यत: आज भी विश्वभर के सभी समाज मानते हैं। लेकिन धार्मिक (धार्मिक) जीवनदृष्टि के कारण, इसमें विद्यमान कर्म सिद्धान्तपर होनेवाली श्रद्धा के कारण धार्मिक (धार्मिक) व्यापारी की यह विशेषता रही की यह भी प्रामाणिकता की मूर्तिस्वरूप हुआ करते थे। इसका परिणाम जिस भी समाजों से धार्मिक (धार्मिक) व्यापारी व्यापार करते थे उन समाजोंपर होता था। जिस समाज का व्यापारी भी सत्य व्यापार की परतिमूरती है उस धार्मिक (धार्मिक) समाज के प्रति आदर की भावना उस समाज में निर्माण होती थी। इससे वे भारत के लोगों, समाज से जीवन प्रामाणिकता से जीने की कला सीखने के लिए आते थे। यहाँ के विद्वानों को धार्मिक (धार्मिक) तत्वज्ञान जानने के लिए अपने देशों में बुलाते थे। अपने देश के युवाओं को और विद्वानों को भी भारत में ज्ञानार्जन के लिए भेजते थे।
- धर्म के जानकार/ सांस्कृतिक दूत : किसी भी समाज की नैतिकता का स्तर उस समाज की जीवनदृष्टि कितनी श्रेष्ठ है इसपर निर्भर होता है। साथ ही में उस श्रेष्ठ जीवनदृष्टि की शिक्षा को समाज में स्सर्वत्रिक करनेवाले शिक्षकों, विद्वानों के ज्ञान, आचरण और कुशलातापर भी निर्भर करता है। जब अन्य समाज देखते थे की भारत का सामान्य व्यापारी भी प्रामाणिक है तो ऐसे व्यापारी को निर्माण करनेवाले शिक्षक, विद्वान से मार्गदर्शन पाने की इच्छा उस समाज में बलवती होती होगी। फिर ऐसे शिक्षकों को/ विद्वानों को वे अपने देश में सम्मान के साथ बुलाते थे, विद्वानों के हर प्रकार के सुख सुविधा की चिंता करते थे और अपने देश में रहकर ऐसी ही शिक्षा की प्रतिष्ठापना का अनुरोध करते थे। ऐसे शिक्षक या आचार्य वहाँ राजा से भी अधिक सम्मान पाते थे। ऐसी एक कहावत है कि राजा तो केवल अपने राज्य में सम्मान पाता है, लेकिन विद्वान तो अन्य देशों में भी सम्मान पाता है। ऐसे आचार्य फिर उस देश में धार्मिक (धार्मिक) जीवनदृष्टि की सीख उन समाजों को देते थे। धार्मिक (धार्मिक) जीवनदृष्टि या संस्कृति के विश्वसंचार का यही वास्तव है।
- श्रेष्ठ वैश्विक विद्याकेंद्र : भारत हजारों वर्षों से श्रेष्ठ शिक्षा का केंद्र रहा है। विश्वभर से युवा, विद्वान, ज्ञानिओं से सभी स्तर के लोग सीखने के लिए भारत के शिक्षा केन्द्रों में आते रहते थे। इनमें शिक्षा प्राप्त करना उनके देशों में गौरव की बात मानी जाती थी। इनमें सीखे हुए लोगों को उनके देशों में विशेष व्यक्ति के रूप में सम्मान मिलता था। ऐसे भारत के विद्याकेंद्रों से अध्ययन कर लौटे हुए लोगों से श्रेष्ठा आचरण और अपने ज्ञान को समष्टीगत करने की अपेक्षा रखी जाती थी। इस कारण धार्मिक (धार्मिक) जीवनदृष्टि के विषय में आदर और स्वीकृति का वातावरण उन देशों में बनता था।
- इस जीवनदृष्टि के विस्तार का विशेष परिस्थिति में उपयोग में लाया जानेवाला मार्ग याने “सम्राट व्यवस्था”। वह कितना भी बलशाली हो किसी राजा के मन में आ जाने से वह सम्राट नहीं बन सकता था। वैश्विक परिस्थितियाँ देखकर भारत के विद्वान सामर्थ्यवान और धर्मनिष्ठ राजा को अनुरोध करते थे कि वह “राजसूय” या “अश्वमेध” यज्ञ करे। इस यज्ञ के माध्यम से वह विश्व में फैल रहे आसुरी प्रभाव को नष्ट करे। विश्वभर के सज्जनों को वह आश्वस्त करे कि धर्माचरण करो। धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा। धार्मिक (धार्मिक) सम्राट का काम ही धर्म को वैश्विक जीवन का अधिष्ठाता बनाना। धर्म विरोधी शक्तियों का नाश करना।
चिरंजीविता की ओर
भारत को यदि फिर से चिरंजीवी बनने की दिशा में आगे बढ़ना हो तो निम्न बातें करनी होंगी:
- धार्मिक (धार्मिक) जीवन के प्रतिमान की प्रतिष्ठापना करना। प्रारम्भ शिक्षा क्षेत्र से होगा। अध्ययन अनुसंधान का शक्तिशाली दौर चलाना होगा। जीवन के सभी पहलुओं में प्रातिमानिक परिवर्तन के अर्थ क्या हैं इसकी बुद्धियुक्त प्रस्तुति करनी होगी। जीवन के सभी क्षेत्रों से विद्वानों को पहल करनी होगी। क्यों कि प्रतिमान को खंड खंड में नहीं बदला जा सकता। शिक्षा क्षेत्र के विद्वानों ने की हुई अपने अपने क्षेत्र के प्रातिमानिक परिवर्तन के स्वरूप को समझना और ठीक लगे तो उसे प्रतिष्ठापित करने के लिए प्रयोग करना।
- श्रेष्ठ परम्पराओं का निर्माण करना। और आग्रहपूर्वक निर्वहन करना।
- तत्वज्ञान कितना भी श्रेष्ठ होवे दुर्बल के तत्वज्ञान को कोइ नहीं पूछता। इसलिए विश्व की ज्ञान और सामरिक सामर्थ्य की सबसे बड़ी शक्ति के रूप में अपना विकास करना। ऐसा होने से ही लोग हामारा अनुसरण करने की इच्छा और प्रयास करेंगे। आपद्धर्म के रूप में ही अपनी सामरिक शक्ति का उपयोग करना।
References
अन्य स्रोत:
- देशिक शास्त्र
- चिरंतन हिन्दू जीवन दृष्टि, प्रकाशक धार्मिक (धार्मिक) विचार साधना, पुणे