Difference between revisions of "आर्थिक स्वातंत्रयनी रक्षा करें"

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==== १. यूरो अमेरिकी अर्थतंत्र को नकारना ====
 
==== १. यूरो अमेरिकी अर्थतंत्र को नकारना ====
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भारत को भारत बनना है तो प्रथम तो जिस तन्त्र का वह शिकार बना है उस तन्त्र को नकारना होगा। विभिन्न प्रकार के तन्त्रों में एक है अर्थतन्त्र । वर्तमान अर्थतन्त्र को सीधा सीधा नकारने से भारत की भारत बनने की प्रक्रिया शुरू होगी।
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तुरन्त प्रश्न उठेगा कि अर्थतन्त्र का काम ही सबसे पहले क्यों होना चाहिये । भारत तो धर्मप्रधान देश है, परम्पराओं का देश है, जीवनमूल्यों में आस्था रखने वाला देश है । इन सब की बात करने के स्थान पर अर्थ की ही बात क्यों करनी चाहिये ? इसलिये कि वर्तमान समय में अर्थ जीवनरचना के केन्द्र में आ गया है। यूरोप की जीवनरचना अर्थकेन्द्री है, जीवन की शेषसारी बातें अर्थ के आगे गौण हैं। वे सब अर्थ से नापी जाती हैं। इस अर्थकेन्द्री व्यवस्था ने भयानक अनर्थ निर्माण किया है। ब्रिटीश भारत में आये ही थे व्यापार करने के लिये इतिहास और राजनीति के जानकारों ने उनकी राज्यव्यवस्था को ही व्यापारशाही कहा है। भारत से जाते समय वे अपना अर्थतन्त्र और अर्थदृष्टि यहाँ छोडकर गये हैं । स्वाधीन भारत की सरकारने भी उसे उसी रूप में स्वीकार कर लिया है।
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इस तन्त्र को नकारने का पहला मुद्दा होगा अर्थ को केन्द्र स्थान में नहीं रखना । भारतीय जीवनरचना में धर्म केन्द्रस्थान पर रहता है और शेष सारी व्यवस्थायें धर्म के अविरोधी अथवा धर्मानुकूल हों यह एक व्यापक परिणामकारी सूत्र है । अर्थतन्त्र को धर्म के अनुकूल बनाने हेतु विश्वविद्यालयों के शोध एवं अध्ययन केन्द्रों में प्रभावी कार्य करने की आवश्यकता रहेगी। चिन्तन से लेकर छोटे से छोटे व्यवहार तक की एक विस्तृत रूपरेखा तैयार करनी होगी।
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वर्तमान अर्थतन्त्र में वैश्विक सन्दर्भ में भारत विकासशील देश माना जाता है। इसे सीधा सीधा अमान्य कर देना चाहिये।
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पहली बात यह है कि विकसित और विकासशील देश होना आर्थिक मापदण्ड के आधार पर नहीं होता। विकास का सम्बन्ध आर्थिक स्थिति के साथ नहीं अपितु सांस्कृतिक स्थिति के साथ है । जो अधिक संस्कारवान है वह अधिक विकसित है, अधिक धनवान है वह नहीं। हमारा सामान्य अनुभव भी है कि निर्धन और गरीब परिवारों में भी गुणवान और ज्ञानवान लोग होते ही हैं। इसलिये आर्थिक स्थिति के साथ विकास को जोडना ही बेमानी है। भारत ने इस मुद्दे पर पार्यप्त चिन्तन करना चाहिये, लिखना चाहिये और विश्वमंच पर बहस छेडनी चाहिये । अर्थात् वह सब दूसरे चरण में होगा। प्रारम्भ तो अपने आपको केवल आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है इसलिये विकासशील देश मानना बन्द कर देना चाहिये । अपने आपको विकसित मानना कि नहीं यह एक सर्वथा अलग मुद्दा है । यहाँ मुद्दा यह है कि आर्थिक आधार पर विकास के मापदण्ड को नकारना भारत ने निश्चित कर लो चाहिये ।
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जो अमेरिका विश्व के देशों को विकासशील और विकसित देशों में विभाजित करता है उसका आधार क्या है ? उसका आधार मुख्य रूप से जीडीपी - ग्रोस डोमेस्टिक प्रोडक्ट - सकल घरेलू उत्पाद है। सामान्य समझदारी को आकलन होना कठिन ऐसा यह एक उलझनभरा मामला है। (कुशाग्र बुद्धि तो इसे सर्वथा नकारेगी ऐसा भी मामला है।) देश की समस्त सेवाओं और भौतिक उत्पादों का पैसे
  
 
==References==
 
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Revision as of 13:00, 13 January 2020

अध्याय ३७

१. यूरो अमेरिकी अर्थतंत्र को नकारना

भारत को भारत बनना है तो प्रथम तो जिस तन्त्र का वह शिकार बना है उस तन्त्र को नकारना होगा। विभिन्न प्रकार के तन्त्रों में एक है अर्थतन्त्र । वर्तमान अर्थतन्त्र को सीधा सीधा नकारने से भारत की भारत बनने की प्रक्रिया शुरू होगी।

तुरन्त प्रश्न उठेगा कि अर्थतन्त्र का काम ही सबसे पहले क्यों होना चाहिये । भारत तो धर्मप्रधान देश है, परम्पराओं का देश है, जीवनमूल्यों में आस्था रखने वाला देश है । इन सब की बात करने के स्थान पर अर्थ की ही बात क्यों करनी चाहिये ? इसलिये कि वर्तमान समय में अर्थ जीवनरचना के केन्द्र में आ गया है। यूरोप की जीवनरचना अर्थकेन्द्री है, जीवन की शेषसारी बातें अर्थ के आगे गौण हैं। वे सब अर्थ से नापी जाती हैं। इस अर्थकेन्द्री व्यवस्था ने भयानक अनर्थ निर्माण किया है। ब्रिटीश भारत में आये ही थे व्यापार करने के लिये इतिहास और राजनीति के जानकारों ने उनकी राज्यव्यवस्था को ही व्यापारशाही कहा है। भारत से जाते समय वे अपना अर्थतन्त्र और अर्थदृष्टि यहाँ छोडकर गये हैं । स्वाधीन भारत की सरकारने भी उसे उसी रूप में स्वीकार कर लिया है।

इस तन्त्र को नकारने का पहला मुद्दा होगा अर्थ को केन्द्र स्थान में नहीं रखना । भारतीय जीवनरचना में धर्म केन्द्रस्थान पर रहता है और शेष सारी व्यवस्थायें धर्म के अविरोधी अथवा धर्मानुकूल हों यह एक व्यापक परिणामकारी सूत्र है । अर्थतन्त्र को धर्म के अनुकूल बनाने हेतु विश्वविद्यालयों के शोध एवं अध्ययन केन्द्रों में प्रभावी कार्य करने की आवश्यकता रहेगी। चिन्तन से लेकर छोटे से छोटे व्यवहार तक की एक विस्तृत रूपरेखा तैयार करनी होगी।

वर्तमान अर्थतन्त्र में वैश्विक सन्दर्भ में भारत विकासशील देश माना जाता है। इसे सीधा सीधा अमान्य कर देना चाहिये।

किस आधार पर ?

पहली बात यह है कि विकसित और विकासशील देश होना आर्थिक मापदण्ड के आधार पर नहीं होता। विकास का सम्बन्ध आर्थिक स्थिति के साथ नहीं अपितु सांस्कृतिक स्थिति के साथ है । जो अधिक संस्कारवान है वह अधिक विकसित है, अधिक धनवान है वह नहीं। हमारा सामान्य अनुभव भी है कि निर्धन और गरीब परिवारों में भी गुणवान और ज्ञानवान लोग होते ही हैं। इसलिये आर्थिक स्थिति के साथ विकास को जोडना ही बेमानी है। भारत ने इस मुद्दे पर पार्यप्त चिन्तन करना चाहिये, लिखना चाहिये और विश्वमंच पर बहस छेडनी चाहिये । अर्थात् वह सब दूसरे चरण में होगा। प्रारम्भ तो अपने आपको केवल आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है इसलिये विकासशील देश मानना बन्द कर देना चाहिये । अपने आपको विकसित मानना कि नहीं यह एक सर्वथा अलग मुद्दा है । यहाँ मुद्दा यह है कि आर्थिक आधार पर विकास के मापदण्ड को नकारना भारत ने निश्चित कर लो चाहिये ।

जो अमेरिका विश्व के देशों को विकासशील और विकसित देशों में विभाजित करता है उसका आधार क्या है ? उसका आधार मुख्य रूप से जीडीपी - ग्रोस डोमेस्टिक प्रोडक्ट - सकल घरेलू उत्पाद है। सामान्य समझदारी को आकलन होना कठिन ऐसा यह एक उलझनभरा मामला है। (कुशाग्र बुद्धि तो इसे सर्वथा नकारेगी ऐसा भी मामला है।) देश की समस्त सेवाओं और भौतिक उत्पादों का पैसे

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे