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==== २. ज्ञानात्मक हल ढूंढने की प्रवृत्ति ==== | ==== २. ज्ञानात्मक हल ढूंढने की प्रवृत्ति ==== | ||
+ | विश्व को संकटों से मुक्त करना है तो भारत को अग्रसर होना होगा, पथप्रदर्शक बनना होगा इसमें न तो विश्व को सन्देह है न भारत को । भारत को सन्देह होना भी नहीं चाहिये । परन्तु आज भारत जैसा है वैसा तो पथप्रदर्शक नहीं बन सकता । आज भारत स्वयं पश्चिम की छाया में जी रहा है, यूरोप बनने की आकांक्षा पाल रहा है, प्रयास कर रहा है। स्वयं के लिये और विश्व के लिये भारत को बदलना पडेगा। भारत को भारत बनना होगा । ऐसा करके ही वह अपनी भूमिका निभा सकेगा। | ||
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+ | भारत भारत बने इसका अर्थ क्या है ? वह कैसे होगा ? भारत को क्या करना होगा ? | ||
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+ | १. भारत ज्ञान का देश है। भारत संज्ञा का अर्थ है भा में रत अर्थात् प्रकाश में रत । ज्ञान के प्रकाश में रत रहना भारत का स्वभाव है। इसलिये भारत को सर्वप्रथम ज्ञान की उपासना करनी चाहिये, ज्ञान की साधना करनी चाहिये । ज्ञानयुक्त व्यवहार कर ज्ञान की प्रतिष्ठा करनी चाहिये। तभी उसका भारत नाम सार्थक होगा। | ||
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+ | भारत को राष्ट्रजीवन की हो या विश्वजीवन की, समस्याओं को, संकटों को ज्ञान के प्रकाश में देखना और समझना चाहिये । ज्ञान ही सर्व उपायों में सर्वश्रेष्ठ है, पवित्र है इसलिये ज्ञानात्मक हल भी सर्वंकष और स्थायी होते हैं, अन्य तत्काल और अधूरे सिद्ध होते है। | ||
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+ | ३. आज भारत के विभिन्न समूह और विश्व के विभिन्न देश किसी भी संकट का या समस्या का हल राजनीतिक या आर्थिक हल ढूँढते हैं। अनेक बार इसका स्वरूप प्रकट या प्रच्छन्न रूप से सामरिक होता है। प्रकट रूप से देशों के बीच युद्ध होते हैं, प्रच्छन्न रूप से घुसपैठ और आतंकवाद का सहारा लिया जाता है। इन सारे उपायों का त्याग कर ज्ञानात्मक हल ढूँढना भारत का काम है, भारत का वह स्वभाव | ||
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+ | ४. ज्ञानात्मक हल बुद्धि से ढूंढा जाता है । बुद्धि के लिये प्रथम आवश्यकता आत्मनिष्ठ बनने की है। आत्मनिष्ठ बुद्धि ही निःस्वार्थ बुद्धि बन सकती है। निःस्वार्थ बुद्धि को हृदय का सहयोग मिलता है। बुद्धि को आत्मनिष्ठ बनाना केवल भारत के लिये सम्भव है । इस कारण से भी संकटों को दूर करने के विषय में भारत अग्रसर बन सकता है। | ||
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+ | ५. बुद्धि और हृदय मिलकर जो कार्य होता है वह सही और उचित ही होता है क्योंकि वह सत्य और धर्म पर आधारित होता है । इस कारण से ज्ञानात्मक हल ढूँढने का कार्य शिक्षक और धर्माचार्य मिलकर कर सकते हैं । विश्वविद्यालय और धर्मस्थान संयुक्त रूप में सत्य और धर्म पर आधारित हल ढूँढने का कार्य कर सकते हैं। | ||
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+ | ६. ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये ज्ञानकेन्द्रों अर्थात् विश्वविद्यालयों को स्वयं से दायित्व लेना चाहिये, स्वयं पहल करनी चाहिये, स्वयं अग्रसर होना चाहिये। ज्ञानात्मक हल तभी सम्भव है जब विश्वविद्यालय में कार्यरत शिक्षक इसे अपना दायित्व माने, स्वेच्छा और स्वतन्त्रता से कार्य शुरू करे और चल रहे कार्य में जुडे यह आवश्यक है। | ||
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+ | ७. ज्ञानात्मक हल का अर्थ है वह सबके लिये कल्याणकारी होगा, किसी पर जबरदस्ती थोपा हुआ नहीं रहेगा, सबको स्वीकार्य होगा। | ||
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+ | ८. सत्य और धर्म पर आधारित होने का अर्थ है राष्ट्रों के निहित स्वार्थ, स्व-पर का भेद, निकृष्ट और क्षुद्र भावनाओं आदि से मुक्त होना । यही बातें सुख और शान्ति की ओर अग्रसर करने वाली होती हैं। | ||
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+ | ९. ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये बुद्धि को तेजस्वी, विशाल और कुशाग्र बनाने की आवश्यकता होती है। ऐसी बुद्धि ही किसी एक विषय के सभी आयामों को साथ रखकर समग्रता में आकलन कर सकती है। अतः प्रथम तो बुद्धि का इस प्रकार से विकास करना विश्वविद्यालयों का अग्रताक्रम बनना चाहिये । | ||
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+ | १०. साथ ही बुद्धि को उदार भी होना चाहिये । उदारता केवल बुद्धि का नहीं तो सम्पूर्ण चरित्र का गुण है। चरित्र की उदारता के बिना बुद्धि भी उदार नहीं बन सकती। बुद्धि उदार नहीं बनती तबतक सब का कल्याण किसमें है यह भी नहीं देख सकती । उदार बुद्धि उदार अन्तःकरण का ही एक हिस्सा है । | ||
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+ | ११. भारत के लिये यह कार्य नया नहीं है। अपने दीर्घ इतिहास में अनेक बार ऐसा कार्य भारतने किया है। लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व का तक्षशिला विद्यापीठ और उसके एक सत्यनिष्ठ और धर्मनिष्ठ आचार्य विष्णुगुप्त ने अग्रसर होकर राष्ट्र पर आये संकट का निवारण ज्ञान को कृति में परिणत करके ही किया था। | ||
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+ | १२. विश्व के संकटों का ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये प्रथम ज्ञान पर छाये पश्चिमी मानसिकता के बादलों को दूर करना पड़ेगा। ऐसा करने हेतु पश्चिमी जीवनविचार समझकर भारतीय ज्ञानदृष्टि से उसे परखकर, भारत के मानस पर हुए उसके प्रभाव को तोल कर उपाय योजना करनी होगी। उपाययोजना करने हेतु बुद्धि को व्यावहारिक धरातल पर कार्यरत होना होगा। | ||
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+ | १३. ज्ञान के क्षेत्र में अध्यात्म, धर्म, संस्कृति आदि संकल्पनाओं को जोडना होगा। आज इन सब का नाम लेने में विद्वत्क्षेत्र को डर सा लगता है । डर नहीं तो संकोच तो लगता ही है। । कोई इसे मानेगा कि नहीं, इसका स्वीकार करेगा कि नहीं ऐसी आशंका बनी रहती है । समुचित चिन्तन से इन आशंकाओं को दूर कर इन संकल्पनाओं की प्रतिष्ठा करनी होगी। | ||
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+ | १४. ऐसा करने के लिये दैनन्दिन व्यवहार के साथ इन संकल्पनाओं को जोडना होगा । इस भ्रान्त धारणा का निरसन करना होगा कि अध्यात्म और दैनन्दिन व्यवहार, अध्यात्म और भौतिक विकास का कोई सम्बन्ध नहीं है या है तो विपरीत सम्बन्ध है। | ||
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+ | १५. भारत को यदि ज्ञानात्मक हल ढूँढने हैं तो वह ज्ञान भारतीय ही होगा इसमें तो कोई सन्देह नहीं । इसके चलते आध्यात्मिक समाजशास्त्र, आध्यात्मिक अर्थशास्त्र, आध्यात्मिक भौतिकशास्त्र जैसी संज्ञाओं का प्रयोग करने में भी संकोच नहीं करना चाहिये । अर्थात् यह आवश्यक है कि इसकी सरल भाषा में स्पष्टता तो करनी ही चाहिये । | ||
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+ | १६, भारत को ज्ञानात्मक हल ढूँढने है तो मनुष्य के व्यवहार और विचारों के स्रोत क्या होते हैं इसका भी विश्लेषण करना होगा । उदाहरण के लिये मनुष्य स्त्री पर बलात्कार क्यों करता है या शिक्षित, बुद्धिमान, सम्पन्न घर का मुसलमान युवक आतंकवादी क्यों बनता है या पर्यावरण का प्रदूषण करने के लिये मनुष्य क्यों संकोच नहीं करता है यह समझने के लिये, इसके मूल में जाकर कारगर उपाय योजना करने के लिये मनोविज्ञान, इतिहास, संस्कृति आदि का अध्ययन करना होगा, केवल कानून बनाने से काम नहीं चलेगा। | ||
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+ | १७. ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये ज्ञान के स्वरूप को भी सम्यक् रूप में जानना होगा । जैसा कि पूर्व के ग्रन्थों में स्पष्ट किया गया है जानकारी, क्रिया, इन्द्रियानुभव, विचार, कल्पना, भावना, विवेक, संस्कार, अनुभूति आदि सब ज्ञान के ही स्वरूप हैं और विभिन्न सन्दर्भो में इनमें से किसी न किसी की प्रमुख भूमिका रहती है। इन सभी स्वरूपों का विनियोग कैसे करना | ||
==References== | ==References== |
Revision as of 20:09, 11 January 2020
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अध्याय ३४
मनोस्वास्थ्य प्राप्त करें
१. अंग्रेजी और अंग्रेजियत से मुक्ति
कल्पना करें कि एक ही रात्रि में ऐसा कोई चमत्कार घटित हो जाय कि किसी भी भारतीय को अंग्रेजी जैसा कुछ है इसका लेशमात्र स्मरण न हो । अंग्रेजी अखबार उसे समझ में न आये, अंग्रेजी चैनल उसे बडबड लगे, अंग्रेजी शब्द उसके शब्दकोष से गायब हो जाय, अंग्रेजी पुस्तकें उसे रद्दी में फैंकने लायक लगें।
केवल अपने घर से ही नहीं तो घर के बाहर दकानों के फलक, रेल स्थानकों के नाम, रास्तों के नाम हिन्दी में ही लिखे मिलें । कार्यालय से अंग्रेजी गायब, ग्रन्थालयों से अंग्रेजी पुस्तकें गायब ।
पूरा देश सोलहवीं शताब्दीमें पहुँच जाय जब किसी भारतवासी ने गोरी चमडी वाले व्यक्ति को देखा भी नहीं था और यूरोप का उसके लिये अस्तित्व ही नहीं था। यदि ऐसा हुआ तो क्या होगा?
कौन कौन से क्षेत्र में हमें क्या क्या हानि या लाभ होगा ?
हमें तुरन्त लगेगा कि हम पाँच सौ वर्ष पिछड जायेंगे। आगे बढ़ने की और पिछड जाने की पश्चिम की
और हमारी संकल्पना में पूर्व पश्चिम जैसा ही अन्तर है। हमारा समय सत्ययुग से शुरू होता है और कलियुग की ओर बढता है। बढ़ते बढते सृष्टि के पदार्थों और मनुष्य के सत्त्व का क्षरण होता जाता है । इसलिये पाँच सौ वर्ष पूर्व जाना हमारे लिये तो आज की तुलना में अच्छे समय में जाना होगा । यूरोप के लिये समय के साथ विकास होता जाता है इसलिये पीछे जाने को वे पिछड जाना कहते हैं । हम उनके प्रभाव में पाँच सौ वर्ष पूर्व जाने को पिछड जाना कहते हैं।
हमारे लिये यह पाँचसो वर्ष का काल एक दुःस्वप्न जैसा है, हमारी सारी समृद्धि लुट जाने का है, सारी व्यवस्थाओं के नष्ट हो जाने का है, हीनताबोध से ग्रस्त हो जाने का है, हमारी ज्ञान परम्परा के खण्डित हो जाने का है। क्या इस काल को भूल जाना हम नहीं चाहेंगे ? क्या पाँच सौ वर्ष पूर्व जैसे थे वैसे बनना नहीं चाहेंगे ?
नहीं चाहेंगे, क्योंकि इन पाँच सौ वर्षों में हमें मधुर जहर का चटका लगा है। यह युग जेट विमान का है, मोबाइल और संगणक का है, टीवी और सिनेमा का है, बिजली और वातानुकूलित व्यवस्थाओं का है। हम इन सुविधाओं को छोडकर 'बैलगाडी के युग' में जाना पसन्द नहीं करेंगे । हमें आधुनिक बनना है ।
यही अंग्रेजी और अंग्रेजीयत है जिसके मोह से हम मुक्त नहीं हो सकते हैं।
परन्तु जब तक हम इस मोह से मुक्त नहीं होते तब तक हम गुलामी से भी मुक्त नहीं हो सकते ।
क्या भारतीय ज्ञानधारा जिन ग्रन्थों में सुरक्षित है ऐसे वेद उपनिषद नहीं पढने से तो हमें कोई नुकसान नहीं होता परन्तु पश्चिम के विद्वानों को पढे बिना हमारा ज्ञान अधूरा है ऐसा ही, हमें लगता है ? क्या भगवद्गीता अंग्रेजी में पढना पर्याप्त हैं परन्तु काण्ट, हेगेल, न्यूटन या एरिस्टोटल मूल अंग्रेजी में पढना अनिवार्य है ऐसा ही हम मानते हैं ? क्या अंग्रेजी नहीं जानने वाले भारत के विद्वान विद्वान नहीं माने जाते क्योंकि पश्चिम उन्हें स्वीकार नहीं करता परन्तु संस्कृत नहीं जानने वाले का ज्ञान अधूरा है ऐसा हमें लगता है ?
आज के जमाने में अंग्रेजी के बिना नहीं चलता ऐसा कहने का क्या व्यावहारिक अर्थ है ? क्या काम नहीं चलता ऐसे प्रश्न का कोई बुद्धिगम्य उत्तर हमारे पास नहीं होता तो भी हम अंग्रेजी चाहते हैं ।
विश्वभर के शिक्षाविद एक स्वर में कहते हैं कि शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही होना चाहिये तो भी सरकार और प्रजा अंग्रजी माध्यम चाहती है। सरकार का पत्रव्यवहार भी अंग्रेजी में चलता है । आज तो स्थिति ऐसी है कि अंग्रेजी और अंग्रेजीयत के सामने सब हार गये हैं।
सवाल मात्र भाषा का नहीं है। हमें अंग्रेजी माध्यम के साथ साथ इण्टनेशनल बोर्ड भी चाहिये । इण्टरनेशनल का अर्थ है विदेशी केन्द्र और अंग्रेजी भाषा। हमारी वेशभूषा, शिष्टाचार, खानपान, घरों की बनावट और सजावट, विचार प्रणाली आदि सभी बातों में अंग्रेजी घुस गया है। इससे छुटकारा पाने की बात करते करते भी हम उसमें अधिकाधिक फंसते हैं. अंग्रेजीयत से मुक्त होने की चर्चा भी हम अंग्रेजी पद्धति से करते हैं।
हमारे देश में दो चार प्रतिशत अंग्रेजी जानने वाले हैं। वे अपने आपको श्रेष्ठ मानते हैं। सरकार अंग्रेजी के मोह में फँसी हुई है। विश्वविद्यालय अंग्रेजी का प्रभूत्व मानते हैं। प्रशासन अंग्रेजी परस्त है। ये सब मिलकर देश की जनसंख्या के दो चार प्रतिशत ही होते हैं। परन्तु यह अंग्रेजी परस्त वर्ग अंग्रेजी नहीं जानने वालों पर राज करता है। यह तो स्वाधीनता पूर्व की ही स्थिति हुई।
परन्तु इस दो चार प्रतिशत वाले समूह को तर्क से या भावना से समझाना कठिन ही नहीं, असम्भव है। इसलिये अब कोई दूसरा मार्ग ढूँढना चाहिये ।
क्या हो सकता है दुसरा मार्ग ? देश के नब्बे प्रतिशत लोग बिना अंग्रेजी के अपना काम चला लेते हैं। अनजाने में भी वे भारतीय हैं। वे पिछडे, अनपढ, गँवार, निर्धन, असंस्कारी माने जाते हैं परन्तु भारत की परम्परा, भारत की संस्कृति, भारत का स्वत्व उनका ही आश्रय करके रहता है। वनवासी, चाय के ठेले वाले. रेलवे स्थानक के कुली, रिक्षा चलाने वाले, किसान, मजदूर आदि सब भारतीय जीवनमूल्यों के साथ जी रहे हैं । परम्परा से प्राप्त ज्ञान और कौशल आज भी उनके पास है। आज भी वे भलाई के काम करते हैं। वे संस्कृत नहीं जानते, देश दनिया की स्थिति नहीं जानते, अंग्रेजी भी नहीं जानते, देशभक्ति जैसी संकल्पना नहीं जानते, वे विद्वान नहीं हैं परन्तु आत्मीयता, प्राणियों के प्रति दया, प्रकृति के प्रति कृतज्ञता उनमें है ।
इनके भरोसे भारतीयता की प्रतिष्ठा की जा सकती है । प्रश्न यह है कि हम कहाँ हैं ? कहाँ रहना चाहते हैं ? हम इन दो चार प्रतिशत के लिये हैं या नब्बे प्रतिशत के लिये ? हम इस छोटे वर्ग में रहकर नब्बे के साथ काम करना चाहते हैं कि उनके साथ हो जाना चाहते हैं ?
भारत की भारतीयता और उसकी प्रतिष्ठा चाहने वालों को स्वयं भी स्पष्ट होने की आवश्यकता है। अंग्रेजी और अंग्रेजीयत के आभामण्डल से मुक्त होने पर ही हमारा मार्ग साफ होने वाला है।
२. ज्ञानात्मक हल ढूंढने की प्रवृत्ति
विश्व को संकटों से मुक्त करना है तो भारत को अग्रसर होना होगा, पथप्रदर्शक बनना होगा इसमें न तो विश्व को सन्देह है न भारत को । भारत को सन्देह होना भी नहीं चाहिये । परन्तु आज भारत जैसा है वैसा तो पथप्रदर्शक नहीं बन सकता । आज भारत स्वयं पश्चिम की छाया में जी रहा है, यूरोप बनने की आकांक्षा पाल रहा है, प्रयास कर रहा है। स्वयं के लिये और विश्व के लिये भारत को बदलना पडेगा। भारत को भारत बनना होगा । ऐसा करके ही वह अपनी भूमिका निभा सकेगा।
भारत भारत बने इसका अर्थ क्या है ? वह कैसे होगा ? भारत को क्या करना होगा ?
१. भारत ज्ञान का देश है। भारत संज्ञा का अर्थ है भा में रत अर्थात् प्रकाश में रत । ज्ञान के प्रकाश में रत रहना भारत का स्वभाव है। इसलिये भारत को सर्वप्रथम ज्ञान की उपासना करनी चाहिये, ज्ञान की साधना करनी चाहिये । ज्ञानयुक्त व्यवहार कर ज्ञान की प्रतिष्ठा करनी चाहिये। तभी उसका भारत नाम सार्थक होगा।
भारत को राष्ट्रजीवन की हो या विश्वजीवन की, समस्याओं को, संकटों को ज्ञान के प्रकाश में देखना और समझना चाहिये । ज्ञान ही सर्व उपायों में सर्वश्रेष्ठ है, पवित्र है इसलिये ज्ञानात्मक हल भी सर्वंकष और स्थायी होते हैं, अन्य तत्काल और अधूरे सिद्ध होते है।
३. आज भारत के विभिन्न समूह और विश्व के विभिन्न देश किसी भी संकट का या समस्या का हल राजनीतिक या आर्थिक हल ढूँढते हैं। अनेक बार इसका स्वरूप प्रकट या प्रच्छन्न रूप से सामरिक होता है। प्रकट रूप से देशों के बीच युद्ध होते हैं, प्रच्छन्न रूप से घुसपैठ और आतंकवाद का सहारा लिया जाता है। इन सारे उपायों का त्याग कर ज्ञानात्मक हल ढूँढना भारत का काम है, भारत का वह स्वभाव
४. ज्ञानात्मक हल बुद्धि से ढूंढा जाता है । बुद्धि के लिये प्रथम आवश्यकता आत्मनिष्ठ बनने की है। आत्मनिष्ठ बुद्धि ही निःस्वार्थ बुद्धि बन सकती है। निःस्वार्थ बुद्धि को हृदय का सहयोग मिलता है। बुद्धि को आत्मनिष्ठ बनाना केवल भारत के लिये सम्भव है । इस कारण से भी संकटों को दूर करने के विषय में भारत अग्रसर बन सकता है।
५. बुद्धि और हृदय मिलकर जो कार्य होता है वह सही और उचित ही होता है क्योंकि वह सत्य और धर्म पर आधारित होता है । इस कारण से ज्ञानात्मक हल ढूँढने का कार्य शिक्षक और धर्माचार्य मिलकर कर सकते हैं । विश्वविद्यालय और धर्मस्थान संयुक्त रूप में सत्य और धर्म पर आधारित हल ढूँढने का कार्य कर सकते हैं।
६. ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये ज्ञानकेन्द्रों अर्थात् विश्वविद्यालयों को स्वयं से दायित्व लेना चाहिये, स्वयं पहल करनी चाहिये, स्वयं अग्रसर होना चाहिये। ज्ञानात्मक हल तभी सम्भव है जब विश्वविद्यालय में कार्यरत शिक्षक इसे अपना दायित्व माने, स्वेच्छा और स्वतन्त्रता से कार्य शुरू करे और चल रहे कार्य में जुडे यह आवश्यक है।
७. ज्ञानात्मक हल का अर्थ है वह सबके लिये कल्याणकारी होगा, किसी पर जबरदस्ती थोपा हुआ नहीं रहेगा, सबको स्वीकार्य होगा।
८. सत्य और धर्म पर आधारित होने का अर्थ है राष्ट्रों के निहित स्वार्थ, स्व-पर का भेद, निकृष्ट और क्षुद्र भावनाओं आदि से मुक्त होना । यही बातें सुख और शान्ति की ओर अग्रसर करने वाली होती हैं।
९. ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये बुद्धि को तेजस्वी, विशाल और कुशाग्र बनाने की आवश्यकता होती है। ऐसी बुद्धि ही किसी एक विषय के सभी आयामों को साथ रखकर समग्रता में आकलन कर सकती है। अतः प्रथम तो बुद्धि का इस प्रकार से विकास करना विश्वविद्यालयों का अग्रताक्रम बनना चाहिये ।
१०. साथ ही बुद्धि को उदार भी होना चाहिये । उदारता केवल बुद्धि का नहीं तो सम्पूर्ण चरित्र का गुण है। चरित्र की उदारता के बिना बुद्धि भी उदार नहीं बन सकती। बुद्धि उदार नहीं बनती तबतक सब का कल्याण किसमें है यह भी नहीं देख सकती । उदार बुद्धि उदार अन्तःकरण का ही एक हिस्सा है ।
११. भारत के लिये यह कार्य नया नहीं है। अपने दीर्घ इतिहास में अनेक बार ऐसा कार्य भारतने किया है। लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व का तक्षशिला विद्यापीठ और उसके एक सत्यनिष्ठ और धर्मनिष्ठ आचार्य विष्णुगुप्त ने अग्रसर होकर राष्ट्र पर आये संकट का निवारण ज्ञान को कृति में परिणत करके ही किया था।
१२. विश्व के संकटों का ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये प्रथम ज्ञान पर छाये पश्चिमी मानसिकता के बादलों को दूर करना पड़ेगा। ऐसा करने हेतु पश्चिमी जीवनविचार समझकर भारतीय ज्ञानदृष्टि से उसे परखकर, भारत के मानस पर हुए उसके प्रभाव को तोल कर उपाय योजना करनी होगी। उपाययोजना करने हेतु बुद्धि को व्यावहारिक धरातल पर कार्यरत होना होगा।
१३. ज्ञान के क्षेत्र में अध्यात्म, धर्म, संस्कृति आदि संकल्पनाओं को जोडना होगा। आज इन सब का नाम लेने में विद्वत्क्षेत्र को डर सा लगता है । डर नहीं तो संकोच तो लगता ही है। । कोई इसे मानेगा कि नहीं, इसका स्वीकार करेगा कि नहीं ऐसी आशंका बनी रहती है । समुचित चिन्तन से इन आशंकाओं को दूर कर इन संकल्पनाओं की प्रतिष्ठा करनी होगी।
१४. ऐसा करने के लिये दैनन्दिन व्यवहार के साथ इन संकल्पनाओं को जोडना होगा । इस भ्रान्त धारणा का निरसन करना होगा कि अध्यात्म और दैनन्दिन व्यवहार, अध्यात्म और भौतिक विकास का कोई सम्बन्ध नहीं है या है तो विपरीत सम्बन्ध है।
१५. भारत को यदि ज्ञानात्मक हल ढूँढने हैं तो वह ज्ञान भारतीय ही होगा इसमें तो कोई सन्देह नहीं । इसके चलते आध्यात्मिक समाजशास्त्र, आध्यात्मिक अर्थशास्त्र, आध्यात्मिक भौतिकशास्त्र जैसी संज्ञाओं का प्रयोग करने में भी संकोच नहीं करना चाहिये । अर्थात् यह आवश्यक है कि इसकी सरल भाषा में स्पष्टता तो करनी ही चाहिये ।
१६, भारत को ज्ञानात्मक हल ढूँढने है तो मनुष्य के व्यवहार और विचारों के स्रोत क्या होते हैं इसका भी विश्लेषण करना होगा । उदाहरण के लिये मनुष्य स्त्री पर बलात्कार क्यों करता है या शिक्षित, बुद्धिमान, सम्पन्न घर का मुसलमान युवक आतंकवादी क्यों बनता है या पर्यावरण का प्रदूषण करने के लिये मनुष्य क्यों संकोच नहीं करता है यह समझने के लिये, इसके मूल में जाकर कारगर उपाय योजना करने के लिये मनोविज्ञान, इतिहास, संस्कृति आदि का अध्ययन करना होगा, केवल कानून बनाने से काम नहीं चलेगा।
१७. ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये ज्ञान के स्वरूप को भी सम्यक् रूप में जानना होगा । जैसा कि पूर्व के ग्रन्थों में स्पष्ट किया गया है जानकारी, क्रिया, इन्द्रियानुभव, विचार, कल्पना, भावना, विवेक, संस्कार, अनुभूति आदि सब ज्ञान के ही स्वरूप हैं और विभिन्न सन्दर्भो में इनमें से किसी न किसी की प्रमुख भूमिका रहती है। इन सभी स्वरूपों का विनियोग कैसे करना
References
भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे