Difference between revisions of "'जिहादी आतंकवाद - वैश्विक संकट"
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(१) जिहादी आतंकवाद ने केवल भारत, अमेरिका या यूरोप को ही निशाने पर नहीं रखा हुआ है। पिछले दो-तीन दशक से उस ने स्वयं मुस्लिम देशों, पश्चिम एशिया की लगभग हर राज्यसत्ता को भी चुनौती दी है। अभीअभी ईरान की संसद पर हमला करने वालों ने गर्व से दुहराया है, कि यही काम वे सउदी अरब और अन्य मुस्लिम देशों में भी करेंगे । वह राज्यसत्ताएं मुस्लिम हाथों में ही हैं । किंतु उन मुस्लिमों के जिन्होंने समय के साथ अनेक मूल इस्लामी मान्यताओं, निर्देशों से दूरी बना ली है अथवा जो सामाजिक-राजनीतिक जीवन के कई मामलों में सभी इस्लामी आदेशों को लागू करने में रुचि नहीं रखते । ऐसे शासकों से कट्टर इस्लामी और जिहादी संगठन नाराज रहे हैं। इसीलिए ऐसे इस्लामपंथियों ने पहले उन्हीं को निशाने पर रखा था। जब वे उस में विफल हुए, तब उन का कोप पश्चिमी देशों की ओर बढ़ा। | (१) जिहादी आतंकवाद ने केवल भारत, अमेरिका या यूरोप को ही निशाने पर नहीं रखा हुआ है। पिछले दो-तीन दशक से उस ने स्वयं मुस्लिम देशों, पश्चिम एशिया की लगभग हर राज्यसत्ता को भी चुनौती दी है। अभीअभी ईरान की संसद पर हमला करने वालों ने गर्व से दुहराया है, कि यही काम वे सउदी अरब और अन्य मुस्लिम देशों में भी करेंगे । वह राज्यसत्ताएं मुस्लिम हाथों में ही हैं । किंतु उन मुस्लिमों के जिन्होंने समय के साथ अनेक मूल इस्लामी मान्यताओं, निर्देशों से दूरी बना ली है अथवा जो सामाजिक-राजनीतिक जीवन के कई मामलों में सभी इस्लामी आदेशों को लागू करने में रुचि नहीं रखते । ऐसे शासकों से कट्टर इस्लामी और जिहादी संगठन नाराज रहे हैं। इसीलिए ऐसे इस्लामपंथियों ने पहले उन्हीं को निशाने पर रखा था। जब वे उस में विफल हुए, तब उन का कोप पश्चिमी देशों की ओर बढ़ा। | ||
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+ | (२). जिहादी आतंकवाद को खत्म करने में आधुनिकतम हथियारों से सुसज्जित सेनाएं असमर्थ रही हैं । अफगानिस्तान और पाकिस्तान का पिछले पंद्रह वर्षों से यही परिदृश्य है । अमेरिका द्वारा चलाया गया ‘आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध' (वार ऑन टेरर) जीता नहीं जा सका । तालिबानों को मिटा देने की प्रतिज्ञा के साथ ब्रिटेन को अपना सैनिक अभियान अफगानिस्तान से चुपचाप, निष्फल खत्म करना पड़ा। यह पिछले सौ साल में ब्रिटेन का सब से विशाल, मँहगा सैनिक अभियान था । अमेरिकी प्रशासन ने भी बराक ओबामा के दूसरे कार्यकाल में उन्हीं तालिबानों के साथ किसी प्रकार का समझौता या बात-चीत का प्रयास किया, जिसे मिटाने के लिए अमेरिका वहाँ पंद्रह साल से जमा हुआ है। यह सब प्रमाण है कि जिहादी आतंकवाद के बारे में समझ और नीति दोनों ही अनुपयुक्त रही है । इस आतंकवाद के प्राण इस की विचारधारा में बसते हैं - उन आतंकवादी सरदारों और संगठनों में नहीं जिन पर प्रहार कर आतंकवाद को हराने की कोशिशें हो रही हैं। | ||
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+ | (३) अमेरीकियों ने अल कायदा, तालिबान, बिन लादेन, मुल्ला उमर, आदि को केवल लड़ाकों के रूप में देखा जिसे अधिक शक्ति का प्रयोग करके वे हरा देना चाहते थे। उन्होंने जिहादी विचार को कम करके आँका । केवल हथियार, सेना और धन से उन का मूल्यांकन करके उन्हें बहुत छोटा समझा । यह भूल थी। वे ध्यान देने में चूक गए कि दुनिया भर के उग्रवादी, जिहादी और कट्टरपंथी संगठन किन भावनाओं - किस दर्शन - से संचालित हो रहे हैं। यदि जिहादियों को मौत का भय नहीं, यदि उन्हें अपने हारने का कोई कारण ही नहीं दिखता, यदि उन्हें पश्चिमी देशों के जीवन और कार्य के नीच होने के प्रति कोई संदेह ही नहीं है, तो क्यों, किस आधार पर है? इसे निर्धारित किए बिना केवल सैनिकी रणनीति बनाना निश्चय ही भूल है । जिहादियों का दार्शनिक विश्वास गंभीरता पूर्वक ध्यान दिए जाने की माँग करता है, जबकि उस की सरसरी उपेक्षा की गई । बल्कि उसके अस्तित्व से ही इन्कार किया गया । वह स्थिति आज भी बहुत नहीं बदली है। | ||
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+ | (४) अतः जिहादी आतंकवाद की विचारधारा की शक्ति, स्त्रोत और भूमिका तीनों पर विचार करना चाहिए । अन्यथा पूरे मामले को समझना असंभव होगा। विभिन्न देशों में इस्लामी कट्टरपंथ, उग्रवाद अथवा जिहादी आतंकवाद के उदय और विकास की कुछ स्थानीय विशेषताएं भी हैं। किंतु उन में जो सामान्य तत्व हैं, समस्या का मूल उन्हीं में है। | ||
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+ | (५) उदारवादी मुस्लिम अपने समाज के कट्टरपंथी तत्वों के समक्ष सदैव असहाय हो जाते हैं इस का कारण खोजने और समझने की जरूरत है । यह हिंसा के भय से अधिक वैचारिक निहत्थेपन के कारण है। क्योंकि संपूर्ण मुस्लिम विमर्श, चाहे उदारवादी हो या कट्टरपंथी, इस्लाम को ही मानक संदर्भ मानकर चलता है। लेकिन इस्लामी दर्शन में कभी भी मानवता, लोकतंत्र, न्याय, शांति, भाईचारा की सार्वभौमिक मान्यताओं को महत्व नहीं दिया जाता । यह सब धारणाएं मुस्लिम आलिम, उलेमा के लिए इस्लाम की कसौटी पर तुच्छ हैं। उन के लिए न्याय का मतलब 'इस्लामी न्याय' है । लोकतंत्र का अर्थ 'इस्लामी लोकतंत्र' और कानून केवल इस्लामी कानून' है। इसी तरह नैतिकता, शिक्षा, विवेक, भाईचारा सब कुछ इस्लाम के अधीन है । गैर-इस्लामी जन-समुदाय के प्रति रुख भी इस्लाम की मान्यताओं के आधार पर तय होता है। यहाँ तक कि आतंकवादी कार्रवाइयों की भर्त्सना भी इस्लाम का हवाला देकर ही की जाती रही है। तब इस्लामी जिहादियों, आतंकवादियों के ही विचारों, कार्यों को इस्लाम से अलग करके कैसे देखा जा सकता है जो सारी दुनिया में केवल इस्लामी साम्राज्य लाने के लक्ष्य से ही प्रेरित हैं? उन का कोई अन्य लक्ष्य है ही नहीं, यह वे डंके की चोट पर हजारों बार कह चुके हैं। तब उन की गतिविधियों को उन आदेशों से अलग कैसे किया जा सकता है जो इस्लामी ग्रंथों में बार-बार काफिरों के लिए दुहराए गए हैं? उदारवादी मुसलमानों के लिए असल समस्या यहीं खड़ी होती है, जब वे आतंकवादियों को इस्लाम से अलग करने का प्रयास करते हैं । | ||
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+ | (६) यदि जिहादी आतंकवादी इस्लाम से पृथक हैं, तो किसी भी आतंकवादी के विरुद्ध आज तक किसी इस्लामी संस्थान ने फतवा क्यों नहीं दिया, भारत में भी सिमी, लश्करे-तोयबा, इंडियन मुजाहिदीन, आदि के विरुद्ध? उलटे हर प्रकार के जिहादी के पकड़े जाने या मारे जाने पर उस के प्रति सहानुभूति, उसे निर्दोष बताने या उसे खुलेआम हीरो मानने - जैसा भारतीय संसद पर आतंकरी हमले के दोषी मुहम्मद अफजल के मामले में यहाँ देखा गया - का चलन दुनिया भर के आम मुस्लिम नेताओं के बीच देखा गया है। अतः कथित उदारवादी इस्लाम और उग्रवादी इस्लाम के बीच वास्तव में कोई सैद्धांतिक या सांस्कृतिक विभाजन नहीं किया जा सकता। इस्लामी किताबों या निर्देशों में कहीं ऐसा विभेद नहीं है। यही कारण है कि जो मुसलमान सच्चे उदारवादी हैं, वे भी इस्लामी उग्रवाद की अभिव्यक्तियों पर कुछ नहीं कहते । कह नहीं पाते । वे जानते हैं कि वह हृदय से जो कहना चाहेंगे उस के लिए इस्लामी सिद्धांत, व्यवहार और इतिहास में कोई ठोस, सर्वस्वीकृत समर्थन नहीं है। | ||
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+ | (७) दरअसल, जिहादी आतंकवादियों द्वारा बम और छुरे से हमला करना, आत्मघाती हमले या सामूहिक हत्याएं करना मूल समस्या नहीं है । वह तो समस्या का एक लक्षण भर है। आतंकवाद एक कार्यनीति है, मूल समस्या नहीं। यह एक साधन मात्र है। जैसे दो देशों के बीच युद्ध में मिसाइलें, बमवर्षक जहाज या पनडुब्बी किसी पक्ष के साधन होते हैं। उसी तरह इस्लामवाद नामक समस्या या पक्ष की ओर से आंतकवाद एक साधन मात्र है। यह गैर-मुस्लिम विश्व और मुस्लिमों में भी उदारवादियों को अपनी इच्छा के प्रति झुकाने का एक हथियार है । उस के दूसरे हथियार भी हैं जो इसी उद्देश्य से प्रयोग किए जा रहे हैं। अतः जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष को शेष मामलों - जैसे रोजमर्रे के चित्र-विचित्र फतवे, खुमैनी, तसलीमा, मदरसों की दुनिया, यहूदी विरोध, 'शार्ली अब्दो' पत्रकारों की हत्या, कार्टून विवाद, जनसांख्यिकी दबाव, आप्रवासन नीति, इस्लामी | ||
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Revision as of 17:34, 11 January 2020
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अध्याय ३२
जिहादी आतंकवाद ने आज विश्व में वैसी ही कुख्याति हासिल कर ली है, जैसे पचास वर्ष पहले कम्युनिज्म ने की थी। पूरी दुनिया के स्वतंत्रताप्रेमी, लोकतांत्रिक, जानकार लोग हर देश में कम्युनिज्म के प्रभाव या प्रचार से साशंकित रहते थे । सच पूछे, तो यह भी एक कारण था कि उसी बीच उभरती एक नई हानिकारक वैश्विक प्रवृत्ति पर ध्यान नहीं दिया जा सका । यह प्रवृत्ति थी इस्लामी विचारधारा से प्रेरित उग्रवादी, आतंकवादी गुटों का उभार ।
अरब में तेल मिलने के बाद समय के साथ कुछ अरब देशों में अकूत धन भी जमा होने लगा। इस से इस्लामी अस्मिता, फिर इस्लामवाद और अंततः जिहादी भावना को बढ़ने, प्रचार पाने में मदद मिली। इसी के अगले चरण में वह पुरानी साम्राज्यवादी, विस्तारवादी उग्र प्रवृत्ति जो लंबे समय से दब गई थी (क्योंकि उस के लिए कोई राजनीतिक, आर्थिक, सैनिक बल मुस्लिम देशों में नहीं था), फिर से सिर उठाने लगी।
आधुनिक युग में जिहाद आतंकवाद का आरंभ पश्चिम एशिया से हआ। ब्लैक सेप्टेंबर' के आतंक से दुनिया में इस राजनीति की पहचान बनी। म्यूनिख ओलंपिक (१९७२) में इजराइली खिलाड़ियों की हत्या से फिलीस्तीनी आतंकवाद विश्व-कुख्यात हुआ। फिलीस्तीनी आंदोलन (पी.एल.ओ.) और इस के नेता यासिर अराफात लंबे समय तक खुले तौर पर आतंकवादी ही थे। बाद में, इन्हें पीछे छोड़ने वाले संगठन फतह और हमास भी आतंकी रणनीति में ही आगे बढ़े। फिलीस्तीनी आतंकवाद के बाद १९७९ में ईरान में अयातुल्ला खुमैनी द्वारा तख्तापलट और इस्लामी तानाशाही, उस की प्रतिद्वंदिता में सऊदी अरब द्वारा दुनिया भर में बहावी सुन्नी इस्लाम का प्रसार, १९८० के दशक में अफगानिस्तान में सोवियत सेना के विरुद्ध पाकिस्तान से संचालित अंतर्राष्ट्रीय जिहादी मोर्चेबंदी, ओसामा बिन लादेन व 'अल कायदा' का उदय और दुनिया भर में आतंकी हमले, अफगानिस्तान में तालिबान राज, कश्मीर में जिहादी घुसपैठ, भारतीय विमान अपहरण, कारगिल हमला, फिर दिल्ली, कोलकाता, हैदराबाद, मुंबई, गोधरा से लेकर भारतीय संसद तक पर अंतहीन जिहादी हमले, उधर न्यूयॉर्क, मॉस्को, लंदन, पेरिस, बाली, ढाका, आदि तमाम यूरोपीय, एशियाई नगरों पर आतंकी कहर, नाइजीरिया में बोको हराम तथा सीरिया-ईराक में इस्लामी स्टेट के साथ जिहादी आतंकवाद आज सब से बड़ी अंतर्राष्ट्रीय समस्या बना हुआ है । तरह-तरह के नाम और रूप में जिहादी राजनीति अब दुनिया के हर क्षेत्र में कमो-बेश सक्रिय है। हर कहीं इस्लाम, कुरान और प्रोफेट मुहम्मद का नाम ले-लेकर विभत्स कारनामे करने की एक पूरी समाप्त नहीं होने वाली श्रृंखला है। इस की खुली चर्चा न करना और लोगों को पूरी जानकारी न होना जनता को असुरक्षित छोड़ देने सा है। इस पर ध्यान देना चाहिए।
आश्चर्य है कि इतने लंबे अनुभव के बाद भी जिहाद की विचारधारा और रणनीति को समझा नहीं गया । अब जाकर इसे इस्लाम से जोड़ कर देखने में हिचक कम हुई है। हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति ने सऊदी अरब में ५५ मुस्लिम देशों के शासकों के सामने 'इस्लामवाद' की हानिकारक भूमिका का खुला उल्लेख किया । डोनाल्ड ट्रंप ने २१ मई २०१७ को उन सारे इकट्ठे मुस्लिम शासकों के सामने 'इस्लामी उग्रवाद और उस से प्रेरित इस्लामी आतंकी समूहों का इमानदारी से सामना करने का आवाहन किया । यह बहुत बड़ी बात थी। इस से पहले तक जिहादी आतंकवाद की तमाम चर्चा में अमेरिका समेत सभी देशों के नेता, बुद्धिजीवी इस्लाम शब्द के उल्लेख से ही परहेज करते थे। बल्कि उलटा बोलते थे। वे मानते थे, और जोर देते थे कि इस आतंकवाद का इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं है, मदरसों को झूठे बदनाम किया जाता है, वहाँ किसी आतंकवाद का शिक्षण-प्रशिक्षण नहीं होता । पर गत कुछ वर्षों से यह सब बनावटी बातें कहना बंद हुआ है, जब खुद पाकिस्तान में हजारों मदरसों पर आतंकी प्रचार के आरोप में कार्रवाई हुई, जब इस्लामी स्टेट ने अपने झंडे में कुरान की आयत और प्रोफेट मुहम्मद की मुहर लगाकर ईराक-सीरिया में भयंकर विध्वंस, आतंकी हमले और अमानवीय क्रूरताएं कीं।
अतः अब दुनिया को मानना पड़ रहा है, स्वयं मुसलमानों में लोग मानने लगे हैं कि व्यापक जिहादी आतंकवाद का संबंध इस्लामी विचारधारा से है । बहस या चिन्ता इस पर है कि उस से निपटा कैसे जाए? वरना अब तक दुनिया भर के गैर-मुस्लिम नेता, बुद्धिजीवी, नीतिकार जिहादी मनोवृत्ति को प्रायः अपनी भावना या मूल्यों के अनुरूप देखने की गलती करते रहे हैं । राजनीतिक संघर्ष, लोकहित, समझौते, शांति, उन्नति, विकास आदि के बारे में अपनी धारणाओं से तालिबानी, अल कायदा या इस्लामी स्टेट की जिहादी मानसिकता को समझना परले दर्जे की मूर्खता है। किंतु यही होता रहा है।
आज भी यूरोप, अमेरिका और भारत जैसे देशों में बड़े-बड़े बुद्धिमान मान बैठते हैं कि जिन आशाआकांक्षाओं, मूल्यांकनों से हमारा जीवन, राजनीति या रणनीति संचालित होती है कमो-बेश वही जिहादी सूत्रधारों की भी होगी। जैसे हम शांति और खुशहाली चाहते हैं, अंततः कुछ वही तालिबान, लश्करे-तोयबा या इंडियन मुजाहिदीन भी चाहते होंगे। इसलिए किसी स्थिति को सुधारने या समस्या समाधान के लिए जो प्रयास या उपाय हम करते हैं, वह या उस से मिलती-जुलती उन की भी चाह होगी।
पर यह एक बहुत बड़ा भ्रम है। यहाँ तक कि इसी भ्रम ने जिहादी आतंक और राजनीति को बढ़ने, फलनेफूलने में भारी सहयोग दिया । जिस तरह सभी घाव मरहम से नहीं ठीक होते, उसी तरह हरेक राजनीतिक संघर्ष बातचीत या लेन-देन से नहीं सुलझ सकता । जिस तरह कुछ घावों को चीरा लगाकर ही भरा जाता है, उसी तरह कुछ लड़ाइयाँ खुल कर लड़ी जाकर ही समाधान पाती हैं। ईराकी लोग सद्दाम हुसैन जैसे अत्याचारी तानाशाह को हटाकर लोकतंत्र लाना चाहते हैं, या ला देने पर खुश होंगे - इस भ्रम ने भी अमेरीकियों को ईराक में गलत तरीके से उलझाया । इस्लामी समाज में लोकतंत्र का कोई मूल्य नहीं, यह मामूली बात पश्चिमी या भारतीय बुद्धिजीवी मानना नहीं चाहते । यही स्थिति विकास, उन्नति, समानता, शांति जैसे अनेक मूल्यों की भी है।
किंतु जिहादी आतंकवाद के प्रतिकार के लिए पहले वह जैसा है, वैसा ही जानना आवश्यक है । अल कायदा, हमास, हिजबुल्ला, लश्करे-तोयबा, सिमी से लेकर इस्लामी स्टेट तक दर्जनों संगठन खुली जिहादी राजनीति में लगे हैं। इस के अलावा कई मुस्लिम देशों में स्वयं सत्ताधारी हलकों से प्रत्यक्ष या प्रच्छन्न रूप से जिहादी आतंक का संचालन या सहयोग होता रहता है। जैसा अभी, कई मुस्लिम देशों द्वारा कतार के बहिष्कार में भी देख सकते हैं। पर कतार ही नहीं, कई दूसरे मुस्लिम देशों से भी जिहादी आतंकवादियों को खुला-छिपा सहयोग मिलता रहा है।
अतः कट्टर इस्लामी या जिहादी राजनीति - चाहे वह सूडान, सीरिया हो या पाकिस्तान या भारत में - उस की मानसिकता, विचारधारा और कूट के सामान्य नियमों को साफ-साफ समझना उस के इलाज की पहली पूर्वापेक्षा है । अन्यथा उस से निपटना असंभव बना रहेगा। जिहादी आतंकवाद आज दुनिया भर में अनेक नामों से सक्रिय है, पर उस में विभिन्नता के बावजूद कुछ समान चीजे भी हैं। उन्हें दमिश्क से ढाका, और फिलीस्तीन से लेकर कश्मीर तक तनिक हेर-फेर के साथ पहचाना जा सकता है।
इस जिहादी मानसिकता का मूल विश्वास है कि पूरी दुनिया में हर हाल में इस्लामी मतवाद को जीतना है, दूसरों को हारना और मिटना है। बीच का हर रास्ता 'कुफ्र' और शैतान की ईजाद है, वह उन्हें कदापि मंजूर नहीं । उस लक्ष्य के लिए लाखों निरीह गैर-मुस्लिम या मुस्लिम लोगों को मरने-मारने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं । बल्कि इस के लिए लड़ते हुए मरना उन के लिए उत्कंठा की बात है, क्योंकि कुरान में इस के लिए जन्नत में ७२ कुँवारी हूरों और सभी भोग-विलास सामग्री मिलने का भारी प्रलोभन दिया हुआ है । असंख्य जिहादियों की डायरी, पत्रों, आदि से यह प्रमाणिक रूप से पाया गया है कि जिहाद के लिए मरने की उत्कंठा में इस जन्नती प्रलोभन की सबसे बड़ी प्रेरणा है।
अतः इस दुनिया में और मरने के बाद अतुलनीय महत्वाकांक्षा एवं ईनाम वाले ईश्वरीय दावों के साथ, ऐसी घातक और आत्मघातक कटिबद्धता वाली जिहादी विचारधारा के गुटों, समूहों का प्रतिकार करना आसान नहीं है। इस संदर्भ में कुछ बिन्दुओं पर विशेषकर विचार करना चाहिए -
(१) जिहादी आतंकवाद ने केवल भारत, अमेरिका या यूरोप को ही निशाने पर नहीं रखा हुआ है। पिछले दो-तीन दशक से उस ने स्वयं मुस्लिम देशों, पश्चिम एशिया की लगभग हर राज्यसत्ता को भी चुनौती दी है। अभीअभी ईरान की संसद पर हमला करने वालों ने गर्व से दुहराया है, कि यही काम वे सउदी अरब और अन्य मुस्लिम देशों में भी करेंगे । वह राज्यसत्ताएं मुस्लिम हाथों में ही हैं । किंतु उन मुस्लिमों के जिन्होंने समय के साथ अनेक मूल इस्लामी मान्यताओं, निर्देशों से दूरी बना ली है अथवा जो सामाजिक-राजनीतिक जीवन के कई मामलों में सभी इस्लामी आदेशों को लागू करने में रुचि नहीं रखते । ऐसे शासकों से कट्टर इस्लामी और जिहादी संगठन नाराज रहे हैं। इसीलिए ऐसे इस्लामपंथियों ने पहले उन्हीं को निशाने पर रखा था। जब वे उस में विफल हुए, तब उन का कोप पश्चिमी देशों की ओर बढ़ा।
(२). जिहादी आतंकवाद को खत्म करने में आधुनिकतम हथियारों से सुसज्जित सेनाएं असमर्थ रही हैं । अफगानिस्तान और पाकिस्तान का पिछले पंद्रह वर्षों से यही परिदृश्य है । अमेरिका द्वारा चलाया गया ‘आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध' (वार ऑन टेरर) जीता नहीं जा सका । तालिबानों को मिटा देने की प्रतिज्ञा के साथ ब्रिटेन को अपना सैनिक अभियान अफगानिस्तान से चुपचाप, निष्फल खत्म करना पड़ा। यह पिछले सौ साल में ब्रिटेन का सब से विशाल, मँहगा सैनिक अभियान था । अमेरिकी प्रशासन ने भी बराक ओबामा के दूसरे कार्यकाल में उन्हीं तालिबानों के साथ किसी प्रकार का समझौता या बात-चीत का प्रयास किया, जिसे मिटाने के लिए अमेरिका वहाँ पंद्रह साल से जमा हुआ है। यह सब प्रमाण है कि जिहादी आतंकवाद के बारे में समझ और नीति दोनों ही अनुपयुक्त रही है । इस आतंकवाद के प्राण इस की विचारधारा में बसते हैं - उन आतंकवादी सरदारों और संगठनों में नहीं जिन पर प्रहार कर आतंकवाद को हराने की कोशिशें हो रही हैं।
(३) अमेरीकियों ने अल कायदा, तालिबान, बिन लादेन, मुल्ला उमर, आदि को केवल लड़ाकों के रूप में देखा जिसे अधिक शक्ति का प्रयोग करके वे हरा देना चाहते थे। उन्होंने जिहादी विचार को कम करके आँका । केवल हथियार, सेना और धन से उन का मूल्यांकन करके उन्हें बहुत छोटा समझा । यह भूल थी। वे ध्यान देने में चूक गए कि दुनिया भर के उग्रवादी, जिहादी और कट्टरपंथी संगठन किन भावनाओं - किस दर्शन - से संचालित हो रहे हैं। यदि जिहादियों को मौत का भय नहीं, यदि उन्हें अपने हारने का कोई कारण ही नहीं दिखता, यदि उन्हें पश्चिमी देशों के जीवन और कार्य के नीच होने के प्रति कोई संदेह ही नहीं है, तो क्यों, किस आधार पर है? इसे निर्धारित किए बिना केवल सैनिकी रणनीति बनाना निश्चय ही भूल है । जिहादियों का दार्शनिक विश्वास गंभीरता पूर्वक ध्यान दिए जाने की माँग करता है, जबकि उस की सरसरी उपेक्षा की गई । बल्कि उसके अस्तित्व से ही इन्कार किया गया । वह स्थिति आज भी बहुत नहीं बदली है।
(४) अतः जिहादी आतंकवाद की विचारधारा की शक्ति, स्त्रोत और भूमिका तीनों पर विचार करना चाहिए । अन्यथा पूरे मामले को समझना असंभव होगा। विभिन्न देशों में इस्लामी कट्टरपंथ, उग्रवाद अथवा जिहादी आतंकवाद के उदय और विकास की कुछ स्थानीय विशेषताएं भी हैं। किंतु उन में जो सामान्य तत्व हैं, समस्या का मूल उन्हीं में है।
(५) उदारवादी मुस्लिम अपने समाज के कट्टरपंथी तत्वों के समक्ष सदैव असहाय हो जाते हैं इस का कारण खोजने और समझने की जरूरत है । यह हिंसा के भय से अधिक वैचारिक निहत्थेपन के कारण है। क्योंकि संपूर्ण मुस्लिम विमर्श, चाहे उदारवादी हो या कट्टरपंथी, इस्लाम को ही मानक संदर्भ मानकर चलता है। लेकिन इस्लामी दर्शन में कभी भी मानवता, लोकतंत्र, न्याय, शांति, भाईचारा की सार्वभौमिक मान्यताओं को महत्व नहीं दिया जाता । यह सब धारणाएं मुस्लिम आलिम, उलेमा के लिए इस्लाम की कसौटी पर तुच्छ हैं। उन के लिए न्याय का मतलब 'इस्लामी न्याय' है । लोकतंत्र का अर्थ 'इस्लामी लोकतंत्र' और कानून केवल इस्लामी कानून' है। इसी तरह नैतिकता, शिक्षा, विवेक, भाईचारा सब कुछ इस्लाम के अधीन है । गैर-इस्लामी जन-समुदाय के प्रति रुख भी इस्लाम की मान्यताओं के आधार पर तय होता है। यहाँ तक कि आतंकवादी कार्रवाइयों की भर्त्सना भी इस्लाम का हवाला देकर ही की जाती रही है। तब इस्लामी जिहादियों, आतंकवादियों के ही विचारों, कार्यों को इस्लाम से अलग करके कैसे देखा जा सकता है जो सारी दुनिया में केवल इस्लामी साम्राज्य लाने के लक्ष्य से ही प्रेरित हैं? उन का कोई अन्य लक्ष्य है ही नहीं, यह वे डंके की चोट पर हजारों बार कह चुके हैं। तब उन की गतिविधियों को उन आदेशों से अलग कैसे किया जा सकता है जो इस्लामी ग्रंथों में बार-बार काफिरों के लिए दुहराए गए हैं? उदारवादी मुसलमानों के लिए असल समस्या यहीं खड़ी होती है, जब वे आतंकवादियों को इस्लाम से अलग करने का प्रयास करते हैं ।
(६) यदि जिहादी आतंकवादी इस्लाम से पृथक हैं, तो किसी भी आतंकवादी के विरुद्ध आज तक किसी इस्लामी संस्थान ने फतवा क्यों नहीं दिया, भारत में भी सिमी, लश्करे-तोयबा, इंडियन मुजाहिदीन, आदि के विरुद्ध? उलटे हर प्रकार के जिहादी के पकड़े जाने या मारे जाने पर उस के प्रति सहानुभूति, उसे निर्दोष बताने या उसे खुलेआम हीरो मानने - जैसा भारतीय संसद पर आतंकरी हमले के दोषी मुहम्मद अफजल के मामले में यहाँ देखा गया - का चलन दुनिया भर के आम मुस्लिम नेताओं के बीच देखा गया है। अतः कथित उदारवादी इस्लाम और उग्रवादी इस्लाम के बीच वास्तव में कोई सैद्धांतिक या सांस्कृतिक विभाजन नहीं किया जा सकता। इस्लामी किताबों या निर्देशों में कहीं ऐसा विभेद नहीं है। यही कारण है कि जो मुसलमान सच्चे उदारवादी हैं, वे भी इस्लामी उग्रवाद की अभिव्यक्तियों पर कुछ नहीं कहते । कह नहीं पाते । वे जानते हैं कि वह हृदय से जो कहना चाहेंगे उस के लिए इस्लामी सिद्धांत, व्यवहार और इतिहास में कोई ठोस, सर्वस्वीकृत समर्थन नहीं है।
(७) दरअसल, जिहादी आतंकवादियों द्वारा बम और छुरे से हमला करना, आत्मघाती हमले या सामूहिक हत्याएं करना मूल समस्या नहीं है । वह तो समस्या का एक लक्षण भर है। आतंकवाद एक कार्यनीति है, मूल समस्या नहीं। यह एक साधन मात्र है। जैसे दो देशों के बीच युद्ध में मिसाइलें, बमवर्षक जहाज या पनडुब्बी किसी पक्ष के साधन होते हैं। उसी तरह इस्लामवाद नामक समस्या या पक्ष की ओर से आंतकवाद एक साधन मात्र है। यह गैर-मुस्लिम विश्व और मुस्लिमों में भी उदारवादियों को अपनी इच्छा के प्रति झुकाने का एक हथियार है । उस के दूसरे हथियार भी हैं जो इसी उद्देश्य से प्रयोग किए जा रहे हैं। अतः जिहादी आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष को शेष मामलों - जैसे रोजमर्रे के चित्र-विचित्र फतवे, खुमैनी, तसलीमा, मदरसों की दुनिया, यहूदी विरोध, 'शार्ली अब्दो' पत्रकारों की हत्या, कार्टून विवाद, जनसांख्यिकी दबाव, आप्रवासन नीति, इस्लामी
References
भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे