Difference between revisions of "अनर्थक अर्थ"
Line 63: | Line 63: | ||
उत्पादनप्रक्रिया में जबसे इंधन की ऊर्जा से संचालित यन्त्रों का उपयोग होने लगा है तब से काम करने वाले मजदूर की कठिनाई और बढी है। अब वह केवल मालिक का ही नहीं तो यन्त्र का भी दास बन गया है। अब उत्पादन भी वह नहीं कर रहा है। नौकर के रूप में भी उसका काम यन्त्र को चलने में सहायक होना है। यन्त्र जैसी निर्जीव सत्ता के साथ उसे अनुकूलन करना पड़ता है। मनुष्य अपने आपको हीन अनुबव करने लगता है। | उत्पादनप्रक्रिया में जबसे इंधन की ऊर्जा से संचालित यन्त्रों का उपयोग होने लगा है तब से काम करने वाले मजदूर की कठिनाई और बढी है। अब वह केवल मालिक का ही नहीं तो यन्त्र का भी दास बन गया है। अब उत्पादन भी वह नहीं कर रहा है। नौकर के रूप में भी उसका काम यन्त्र को चलने में सहायक होना है। यन्त्र जैसी निर्जीव सत्ता के साथ उसे अनुकूलन करना पड़ता है। मनुष्य अपने आपको हीन अनुबव करने लगता है। | ||
− | उत्पादन के क्षेत्र में यन्त्र ने केन्द्रीकरण कर दिया है। यन्त्र एक साथ अधिक उत्पादन करता है, तेज गति से उत्पादन करता है इसलिये उत्पादन का केन्द्रीकरण होना अपरिहार्य है। उत्पादन के साथ साथ मालिकी का भी केन्द्रीकरण होता है । मालिकों की संख्या कम और मालिकी का क्षेत्र बढता जाता है । साथ ही काम करनेवाले लोग भी अनावश्यक बन जाते हैं। बेरोजगारी का जनक भी यही है। इस व्यवस्था में अरबोंपति और खरबोंपति तो बनते हैं परन्तु वे गिनेचुने ही होते हैं, अरबों और खरबों बेरोजगार, | + | उत्पादन के क्षेत्र में यन्त्र ने केन्द्रीकरण कर दिया है। यन्त्र एक साथ अधिक उत्पादन करता है, तेज गति से उत्पादन करता है इसलिये उत्पादन का केन्द्रीकरण होना अपरिहार्य है। उत्पादन के साथ साथ मालिकी का भी केन्द्रीकरण होता है । मालिकों की संख्या कम और मालिकी का क्षेत्र बढता जाता है । साथ ही काम करनेवाले लोग भी अनावश्यक बन जाते हैं। बेरोजगारी का जनक भी यही है। इस व्यवस्था में अरबोंपति और खरबोंपति तो बनते हैं परन्तु वे गिनेचुने ही होते हैं, अरबों और खरबों बेरोजगार, बिना कामकाज के लोग भी साथ साथ पैदा होते हैं। |
+ | |||
+ | कामनापूर्ति के लिये ठोस भौतिक पदार्थों की आवश्यकता होती है। उनका उत्पादन केन्द्रीकृत हो जाने के कारण बेरोजगार लोगों की संख्या बढती है। उन्हें जीवित रहने के लिये और कामनाओं की पूर्ति के लिये पदार्थों की तो आवश्यकता रहती ही है। इसकी पूर्ति के लिये अनेक अनुत्पादक गतिविधियाँ शुरू होती हैं। इसमें से ही आज के अनेक महान शब्दों अथवा महान संकल्पनाओं का जन्म हुआ है। इनमें एक है मैनेजमेण्ट, दसरा है मनोरंजन उद्योग, शिक्षाउद्योग, स्वास्थ्यउद्योग आदि । घटनाओं और पदार्थों को ही नहीं तो मनुष्यों को मैनेज किया जाता है। लोग दो भागों में बँटे हैं, एक हैं मैनेज करने वाले और दूसरे हैं मैनेज होने वाले । मैनेज करनेवालों की भी एक श्रेणीबद्ध शृंखला बनती है - बडा मैनेजर और छोटा मैनेजर । मैनेजमेन्ट वर्तमान विश्वविद्यालयों का एक प्रतिष्ठित विषय है। संगीत, नृत्य, नाटक, काव्य आदि मनोरंजन उद्योग के पदार्थ बन गये हैं। उनका सारा मूल्य पैसे में रूपान्तरित हो गया है। सारी सृजनशीलता और कल्पनाशीलता पैसे के अधीन बन गई है । उसकी सार्थकता ही पैसे से है। शिक्षा ज्ञान की व्यवस्था नहीं रह गई है अपितु ज्ञान को अर्थ के अधीन बनाने की व्यवस्था है। विश्वविद्यालयों का दर्जा तय करने वालों में एक प्रमुख आयाम उसकी अर्थोत्पादकता भी है । सेवा भी अर्थ के अधीन एक पदार्थ है। अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा 'सर्विस सैक्टर - सेवा क्षेत्र' है जिसमें भौतिक पदार्थों को छोडकर अन्य सभी मार्गों से दूसरों का काम कर पैसा कमाया जाता है। | ||
+ | |||
+ | भारत की दृष्टि से यह अर्थव्यवस्था नहीं है, अनर्थ व्यवस्था है। यह अल्पबुद्धि, स्वार्थबुद्धि और दुष्टबुद्धि का लक्षण है। यह विनाशक है इसमें तो कोई सन्देह नहीं। | ||
+ | |||
+ | सबसे पहला तो अर्थ को राष्ट्रीय जीवन में सबसे प्रमुख स्थान देना और कामनाओं की सेवा में प्रस्तुत करना भारत की दृष्टि में घोर सांस्कृतिक अपराध है। अल्पबुद्धि इसलिये क्योंकि वह क्षणिक सुख देकर राष्ट्र के आयुष्य को रोगग्रस्त बनाकर जल्दी नष्ट कर देने वाला है । स्वार्थबुद्धि इसलिये कि वह केवल अपना ही विचार करता है और दूसरों का शोषण करने में उसे संकोच नहीं होता है। दुष्टबुद्धि इसलिये क्योंकि उसमें दया नहीं है और दूसरों को कष्ट पहुँचाना उसे अनुचित नहीं लगता । इससे तो संस्कृति पनप ही नहीं पाती और पनपी हुई संस्कृति नष्ट हो जाती हैं। | ||
+ | |||
+ | भारत की दृष्टि से बैंक, बीमा और सेवाक्षेत्र अर्थव्यवस्था के अत्यन्त विनाशक आयाम है क्योंकि ये छलनापूर्ण तों से चलते हैं, मानवीय गुणों को नष्ट करते हैं और एक आभासी व्यवस्था पैदा करते हैं जिसका कोई वास्तविक मूल्य नहीं है । सांस्कृतिक दृष्टि से तो ये अनर्थक हैं ही। | ||
+ | |||
+ | मनुष्य की श्रेष्ठता समाप्त कर उसे गुलाम बनाना, बुद्धि, कल्पना, सृजन की शक्तियों को निकृष्ट स्तर पर लाना, विश्व को आर्थिक, पर्यावरणीय और आरोग्यकीय संकट में डाल देना इतना ही नहीं तो विनाश के प्रति ले जाना ये पश्चिमी अर्थसंकल्पना के मानवता के प्रति अपराध है। | ||
+ | |||
+ | इस अर्थसंकल्पना के आधार पर पश्चिम ने अपनी विकास की संकल्पना को विश्व पर थोपा है। इसके आधार पर विश्व के देशों को विकसित और विकासशील ऐसी श्रेणियों में विभाजित किया है। इसी संकल्पना के आधार पर विश्व पर आधिपत्य जमाने का प्रयास किया है। शस्रों का, पेट्रोलियम का और मादक द्रव्यों का व्यापार उनके लिये समृद्धि की कुंजी है। युद्धों को प्रोत्साहन देना उन्हें लाभदायक लगता है। मादक द्रव्यों का सेवन उनके अपने लिये मजदूरी भी है और दूसरी ओर पैसा कमाने का सरल उपाय भी है। | ||
+ | |||
+ | भारत की सहज बुद्धि का कथन है, 'अर्थातुराणां न गुरुर्न बन्धुः' - जिनके ऊपर अर्थ सवार हो गया है उसके लिये कोई गुरु नहीं है, कोई स्वजन नहीं है। अर्थ से पीडित पश्चिम ने विश्व में अनात्मीयता का रोग फैला दिया | ||
==References== | ==References== |
Revision as of 04:40, 10 January 2020
This article relies largely or entirely upon a single source. |
अध्याय २७
कामकेन्द्री जीवनव्यवस्था
मनुष्य को जीवन के लिये अनेक पदार्थों की आवश्यकता होती है। उसे अन्न चाहिये, वस्त्र चाहिये, मकान चाहिये, सुविधाओं के लिये भी अनेक प्रकार की वस्तुयें चाहिये । हवा, पानी, प्रकाश, वाहन आदि चाहिये । आवश्यकताओं के साथ साथ मनुष्य की इच्छायें भी होती हैं। आवश्यकतायें जीवित रहने के लिये होती हैं, सुरक्षा के लिये होती हैं, कुछ मात्रा में सुविधा के लिये होती हैं, परन्तु इच्छायें मन को खुश करने के लिये होती हैं। आवश्यकतायें सीमित होती हैं परन्तु इच्छायें अनन्त होती हैं । एक इच्छा पूर्ण करो तो और नई जगती हैं।
पश्चिम इच्छाओं के इस स्वभाव से अवगत नहीं है। अथवा अवगत है भी तो उसे इसमें कुछ गलत नहीं लगता । मन है इसलिये इच्छा है, और इच्छा है तो उसे पूर्ण करना है यह जीवन का स्वाभाविक क्रम है । इच्छाओं की पूर्ति के लिये ही तो सृष्टि के सारे संसाधन बने हुए हैं। अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने के लिये स्पर्धा और संघर्ष करना पडता है वह भी स्वाभाविक है क्योंकि इस विश्व में हरेक को अपनी योग्यता सिद्ध करनी ही होती है। अस्तित्व बनाये रखने के लिये संघर्ष यह प्रकृति का ही नियम है । सृष्टि में वह सर्वत्र दिखाई देता है। इसलिये संघर्ष का स्वीकार करना ही चाहिये । संघर्ष में जीतने में ही आनन्द है। दूसरों को पराजित करने में ही आनन्द है। मनुष्य जीवन की सार्थकता ही इसमें है। कामनाओं की पूर्ति के बिना जीवन में रस ही नहीं है । रस का अनुभव करना ही मनुष्य का परम पुरुषार्थ है।
पश्चिम का जीवनविषयक तर्क इस प्रकार का है इसलिये कामनापूर्ति के लिये आपाधापी करना उसके जीवनयापन का पर्याय बन गया है।
कामनाओं का स्वभाव ऐसा है कि एक कामना पूर्ण करो तो दस जगती है। अतः कामनापूर्ति के प्रयासों का कभी अन्त नहीं होता । इसलिये संसाधन हमेशा कम ही पडते हैं। 'और चाहिये', 'और चाहिये' के मन्त्र का ही रटण निरन्तर चलता है। कामना का दूसरा स्वभाव यह होता है कि एक पदार्थ से मिलनेवाला सुख क्रमशः कम होता जाता है। प्रथम अनुभव में जो पदार्थ अत्यन्त प्रिय और सुखकारक लगता है वही पुराना होते होते कम प्रिय और फिर अप्रिय होने लगता है। इसलिये मन को निरन्तर नये की चाह रहती है। इसमें से पदार्थ के बनावट के, पैकिंग के, प्रस्तुतिकरण के नये नये तरीके निर्माण होते हैं, नये नये फैशन, खाद्य पदार्थों के नये नये स्वाद निर्माण किये जाते हैं। फिर भी अतृप्ति बनी रहती है। इसमें से उन्माद पैदा होता है। उन्माद से गति का जन्म होता है। मन स्वभाव से चंचल भी होता है । चंचलता भी गति को जन्म देती है। इसमें से तेज गति की ललक पैदा होती है। इसलिये तेजगति के वाहन बनाये जाते हैं । गति बढाने के निरन्तर प्रयास चलते हैं। मोटरसाइकिल, कार, ट्रेन, वायुयान आदि की गति बढाना मनुष्य के लिये चुनौती बन जाता है। गति बढाने में सफलता का और तेज गति के वाहन से यात्रा करने में साहस का अनुभव होता है। इसका भी कहीं अन्त नहीं है।
इस उन्माद का दूसरा स्वरूप है ऊँचे स्वर वाला संगीत और उतेजना पूर्ण नृत्य । इसे भी पराकाष्ठा तक पहुँचाने के प्रयास निरन्तर होते रहते हैं । येन केन प्रकारेण कामनाओं की पूर्ति करने की चाह, अधिक से अधिक कामनाओं की पूर्ति के प्रयास उन्हें शान्ति से, स्थिरतापूर्वक बैठने नहीं देते । गति उनके जीवन का मुख्य लक्षण बन गया है।
गति, नित्य नये पदार्थों की खोज, उत्तेजना, ललक आदि के कारण एक और शान्ति नहीं है, दूसरी ओर किसी की चिन्ता या परवाह नहीं है। कानून की बाध्यता के अलावा और कोई शिष्टाचार नहीं होता।
मन की उत्तेजना, आसक्ति, मोह आदि का प्रभाव शरीर पर पड़ता ही है। शरीर असहनशील और अस्वस्थ ही रहता है । ज्ञानेन्द्रिय उपभोग के अतिरेक के कारण शिथिल हो जाती हैं। हृदय दुर्बल होता है। इसलिये मनोकायिक बिमारियाँ पश्चिम में अधिक हैं। एक ओर शरीर और मन की बिमारियों के लिये अस्पतालों और मानसिक अस्वास्थ्य के परिणामस्वरूप बढती हुई गुण्डागर्दी के लिये कैदखानों की संख्या बढ़ती ही रहती है।
जीवन का स्तर अत्यन्त ऊपरी रहता है। किसी के साथ गाढ सम्बन्ध, किसी व्यक्ति या तत्त्व के प्रति समर्पण, किसी तत्त्व के प्रति निष्ठा, आत्मत्याग जैसी भावनायें लगभग अपरिचित ही रहती हैं। ये भावनायें हो सकती है ऐसी उन्हें कल्पना भी नहीं होती। किसी में देखीं तो उन्हें समझ में नहीं आती। ऐसी भावनाओं को या तो वे असम्भव मानते हैं या मूर्खता ।
कामनाओं की पूर्ति के लिये विज्ञान इनका दास बनकर सेवा में खडा रहता है। विज्ञान का उपयोग वे विभिन्न प्रकार के यन्त्र और उपकरण बनाने के लिये करते हैं । गति के लिये वाहन, वाहनों के लिये सड़कें, सड़कों के लिये कारखाने आदि की दुनिया का विस्तार होता है।
इस आसक्तिपूर्ण, उत्तेजना पूर्ण, गतियुक्त छीछली, ऊपर से आकर्षक व्यवस्था को विकास कहा जाता है। विकास की यह संकल्पना आज विश्व के सभी देशों को लागू है। विश्व के सभी देशों ने इस समझ को विवशता से या नासमझी से स्वीकार किया है।
भारत की दृष्टि से यह असंस्कृत अवस्था का लक्षण है। भारत मन के दोष और सामर्थ्य दोनों को जानता है । इसलिये मन को वश में करने की आवश्यकता समझता है । मन को वश में करने की कला भी जानता है ।
भारत जीवन में काम और कामना के महत्त्व और प्रभाव को जानता है इसलिये कामनाओं और कामनापूर्ति के प्रायसों का तिरस्कार नहीं करता अपितु उन्हें धर्म के नियमन में रखता है। इसलिये संयम, साधना, स्वनियन्त्रण की एक विशाल दुनिया भारत में खडी हुई है।
भारत की संगीत, कला और साहित्य की साधना, ज्ञानेन्द्रियों के उपभोग की रसिकता, विविधता में व्यक्त हो रही सृजनशीलता मन के स्तर की नहीं अपितु हृदय के स्तर की होती है जिसे आत्मा का निवासस्थान कहा जाता है ।
भारत की दृष्टि में पश्चिम का यह कामजीवन पशुतुल्य ही लगता है। इसे विकास कहना बुद्धिहीनता का लक्षण है। यह कामजीवन सौन्दर्य, प्रेम, आनन्द आदि को प्राप्त नहीं करवाता । यह जीवन को उन्नत बनाने के स्थान पर दुर्गति की ओर ले जाता है।
ऐसा नहीं है कि पश्चिम में कला, साहित्य आदि की उपासना नहीं होती। अच्छा साहित्य वहाँ भी होता है परन्तु वह पश्चिम के स्वभाव से विपरीत है । मुख्य धारा का जीवन तो कामजीवन ही है।
ऐसा कामजीवन पश्चिम को दुर्गति और विनाश की ओर ले जा रहा है और पश्चिम के पीछे जाने वाला विश्व भी उसी मार्ग पर जायेगा इसमें कोई आश्चर्य नहीं । विश्व को और पश्चिम को इस दुर्गति से बचाना भारत का दायित्व है।
अर्थपरायण जीवनरचना
अनगिनत कामनाओं की पूर्ति के लिये असंख्य पदार्थ चाहिये। उन्हें प्राप्त करने के लिये प्रयास भी करने होते हैं। कामनायें मनुष्य के अन्तःकरण में निहित होती हैं, उन्हें प्राप्त नहीं करना होता है। कामनाओं की पूर्ति हेतु आवश्यक पदार्थ बाहर होते हैं, उन्हें प्राप्त करने हेतु प्रयास करने होते
पश्चिम का सारा जीवन असंख्य संसाधन प्राप्त करने में बीतता है। कामनापूर्ति और अर्थप्राप्ति जीवन के केन्द्र में होते हैं।
अर्थ की प्राप्ति की यह दुनिया बडी विशाल और अटपटी है।
मनुष्य प्रथम तो अर्थ के स्रोतों पर अपना स्वामित्व चाहता है। स्वामित्व के लिये वह संघर्ष करने के लिये भी तैयार रहता है।
बिना परिश्रम के या कम से कम परिश्रम करके अधिक से अधिक वस्तु प्राप्त हो इसलिये उसने उधार लेने की एक व्यवस्था बनाई है। उस व्यवस्था का नाम बैंक है। लगता ऐसा है कि बैंक की व्यवस्था जिनके पास पर्याप्त अर्थ नहीं है उसे अपने अभाव की पूति के लिये अर्थ की सहायता करता है परन्तु वास्तव में बैंक भी पैसा कमाने का व्यवसाय करता है। बैंक से उधार लिया हुआ पैसा वापस नहीं देने का प्रचलन इतना अधिक होता है कि बैंकों का दिवाला निकल जाता है।
येन केन प्रकारेण कामनापूर्ति करना ही लक्ष्य है उसी प्रकार से कैसे भी हो, अर्थप्राप्ति करना ही धर्म है । इस दृष्टि से हर किसी बात की कीमत होती है। किसी को सहायता की तो पैसा चाहिये । मार्गदर्शन, सेवा, प्रेम, परामर्श, ज्ञान, अन्न, देह, तीर्थयात्रा, दर्शन, प्रसाद, पुण्य आदि सब कुछ पैसे से मिलता है। किसी का धर्मविषयक भाषण, कथा, सत्संग आदि पैसे से ही सुना जा सकता है। ज्ञानप्राप्त करना है तो पैसे से और पैसा कमाने के लिये। किसी के प्रति अपराध किया तो पैसे से नुकसान भरपाई होती है।
पश्चिम का एक एक व्यक्ति तो अर्थप्राप्ति कि लिये सब कुछ करता ही है परन्तु यह देशों का भी यह लक्षण है। पश्चिम के देश व्यापार को ही राष्ट्रजीवन का केन्द्रवर्ती पुरुषार्थ मानते हैं । व्यापार ही उनके लिये धर्म है।
विगत पाँचसौ वर्षों का यूरोप का इतिहास दर्शाता है कि वे सम्पूर्ण विश्व को पादाक्रान्त करने के लिये निकले हैं। अन्य देशों में जाने का मुख्य उद्देश्य वहाँ की समृद्धि का आकर्षण रहा है। उस समृद्धि को हस्तगत करने की उनकी चाह रही है। समृद्धि को हस्तगत करने का सबसे सरल उपाय है लूट करना परन्तु लूट बहुत अधिक काल तक निरन्तर रूप से करना सम्भव नहीं होता इसलिये उसे व्यापार का जामा पहनाया गया है। व्यापार को भी सुगमता से चलाने के लिये जहाँ गये वहाँ राज्य स्थापित करने की भी उनकी प्रवृत्ति रही है।
व्यापार के दो आयाम हैं। एक है उत्पादन और दूसरा वितरण ।
उत्पादन के क्षेत्र में पश्चिम ने दो कारकों को काम में लगाया । एक थे यन्त्र और दूसरे थे मजदूर । दोनों उनके लिये दास हैं । उन्होंने उत्पादन का स्वामित्व अपने पास रखा । जब तक इंधन की ऊर्जा से चलने वाले यन्त्र नहीं थे तब तक मनुष्यों से उत्पादन का काम करवाया जाता था। काम करने वाले लोग उनके लिये मजदर थे जिनके साथ गुलामों जैसा व्यवहार किया जाता था।
जो केवल पैसा लगाता है और स्वयं काम नहीं करता अपितु पैसा देकर दूसरों से काम करवाता है वह मालिक है, स्वामी है, बडा है, श्रेष्ठ है, अधिकारी है और जो प्रत्यक्ष काम करके उत्पादन करता है परन्तु काम पर और उत्पादन पर जिसका कोई अधिकार नहीं है वह मजदूर है, नौकर है, गुलाम है। काम और काम के अधिकार का सम्बन्ध विच्छेद आज पश्चिम के माध्यम से विश्वभर में फैल गया है। अर्थव्यवस्था में नौकरी एक अनिवार्य और सबसे अधिक स्थान घेरने वाला घटक बन गया है। काम और श्रम की प्रतिष्ठा समाप्त हो गई है। सम्पूर्ण विश्व की मानसिकता पर इस का गहरा प्रभाव हुआ है। सर्वसामान्य मनुष्य अपने आपको नौकर की हैसियत ।
से ही देखता है। उत्पादन की प्रक्रिया में उसे आनन्द नहीं मिलता, रस नहीं आता और उत्पादित वस्तु के प्रति उसे अपनत्व और प्रेम नहीं है। उसकी कल्पनाशीलता और सृजनशीलता नष्ट हो गई है क्योंकि वह काम उसका नहीं है। उत्पादन प्रक्रिया में आनन्द नहीं मिलने के कारण वह अन्य बातों में आनन्द ढूँढता है। नृत्य, गीत, नाटक, होटेल, प्रवास आदि सब आनन्द की खोज में से निकले हैं। उनका उपभोग कर सके इसलिये काम से मुक्ति चाहिये। सप्ताह में एक दिन या दो दिन की छुट्टी का प्रचलन इसी में से हुआ है। काम में आनन्द नहीं और आनन्द के लिये काम नहीं । सप्ताह के पाँच दिन मजदूर बनकर पैसा कमाना और दो दिन उन पैसों से उन्मुक्त होकर कामनापूर्ति करना, मौज मनाना, चैन करना ऐसे दो भागों में जीवन बँट गया है। विभाजन की यह प्रक्रिया सर्व क्षेत्रों में विशृंखलता को ही जन्म देती है। व्यक्तिगत और प्रजागत जीवन छितरा हुआ बन जाता है।
उत्पादनप्रक्रिया में जबसे इंधन की ऊर्जा से संचालित यन्त्रों का उपयोग होने लगा है तब से काम करने वाले मजदूर की कठिनाई और बढी है। अब वह केवल मालिक का ही नहीं तो यन्त्र का भी दास बन गया है। अब उत्पादन भी वह नहीं कर रहा है। नौकर के रूप में भी उसका काम यन्त्र को चलने में सहायक होना है। यन्त्र जैसी निर्जीव सत्ता के साथ उसे अनुकूलन करना पड़ता है। मनुष्य अपने आपको हीन अनुबव करने लगता है।
उत्पादन के क्षेत्र में यन्त्र ने केन्द्रीकरण कर दिया है। यन्त्र एक साथ अधिक उत्पादन करता है, तेज गति से उत्पादन करता है इसलिये उत्पादन का केन्द्रीकरण होना अपरिहार्य है। उत्पादन के साथ साथ मालिकी का भी केन्द्रीकरण होता है । मालिकों की संख्या कम और मालिकी का क्षेत्र बढता जाता है । साथ ही काम करनेवाले लोग भी अनावश्यक बन जाते हैं। बेरोजगारी का जनक भी यही है। इस व्यवस्था में अरबोंपति और खरबोंपति तो बनते हैं परन्तु वे गिनेचुने ही होते हैं, अरबों और खरबों बेरोजगार, बिना कामकाज के लोग भी साथ साथ पैदा होते हैं।
कामनापूर्ति के लिये ठोस भौतिक पदार्थों की आवश्यकता होती है। उनका उत्पादन केन्द्रीकृत हो जाने के कारण बेरोजगार लोगों की संख्या बढती है। उन्हें जीवित रहने के लिये और कामनाओं की पूर्ति के लिये पदार्थों की तो आवश्यकता रहती ही है। इसकी पूर्ति के लिये अनेक अनुत्पादक गतिविधियाँ शुरू होती हैं। इसमें से ही आज के अनेक महान शब्दों अथवा महान संकल्पनाओं का जन्म हुआ है। इनमें एक है मैनेजमेण्ट, दसरा है मनोरंजन उद्योग, शिक्षाउद्योग, स्वास्थ्यउद्योग आदि । घटनाओं और पदार्थों को ही नहीं तो मनुष्यों को मैनेज किया जाता है। लोग दो भागों में बँटे हैं, एक हैं मैनेज करने वाले और दूसरे हैं मैनेज होने वाले । मैनेज करनेवालों की भी एक श्रेणीबद्ध शृंखला बनती है - बडा मैनेजर और छोटा मैनेजर । मैनेजमेन्ट वर्तमान विश्वविद्यालयों का एक प्रतिष्ठित विषय है। संगीत, नृत्य, नाटक, काव्य आदि मनोरंजन उद्योग के पदार्थ बन गये हैं। उनका सारा मूल्य पैसे में रूपान्तरित हो गया है। सारी सृजनशीलता और कल्पनाशीलता पैसे के अधीन बन गई है । उसकी सार्थकता ही पैसे से है। शिक्षा ज्ञान की व्यवस्था नहीं रह गई है अपितु ज्ञान को अर्थ के अधीन बनाने की व्यवस्था है। विश्वविद्यालयों का दर्जा तय करने वालों में एक प्रमुख आयाम उसकी अर्थोत्पादकता भी है । सेवा भी अर्थ के अधीन एक पदार्थ है। अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा 'सर्विस सैक्टर - सेवा क्षेत्र' है जिसमें भौतिक पदार्थों को छोडकर अन्य सभी मार्गों से दूसरों का काम कर पैसा कमाया जाता है।
भारत की दृष्टि से यह अर्थव्यवस्था नहीं है, अनर्थ व्यवस्था है। यह अल्पबुद्धि, स्वार्थबुद्धि और दुष्टबुद्धि का लक्षण है। यह विनाशक है इसमें तो कोई सन्देह नहीं।
सबसे पहला तो अर्थ को राष्ट्रीय जीवन में सबसे प्रमुख स्थान देना और कामनाओं की सेवा में प्रस्तुत करना भारत की दृष्टि में घोर सांस्कृतिक अपराध है। अल्पबुद्धि इसलिये क्योंकि वह क्षणिक सुख देकर राष्ट्र के आयुष्य को रोगग्रस्त बनाकर जल्दी नष्ट कर देने वाला है । स्वार्थबुद्धि इसलिये कि वह केवल अपना ही विचार करता है और दूसरों का शोषण करने में उसे संकोच नहीं होता है। दुष्टबुद्धि इसलिये क्योंकि उसमें दया नहीं है और दूसरों को कष्ट पहुँचाना उसे अनुचित नहीं लगता । इससे तो संस्कृति पनप ही नहीं पाती और पनपी हुई संस्कृति नष्ट हो जाती हैं।
भारत की दृष्टि से बैंक, बीमा और सेवाक्षेत्र अर्थव्यवस्था के अत्यन्त विनाशक आयाम है क्योंकि ये छलनापूर्ण तों से चलते हैं, मानवीय गुणों को नष्ट करते हैं और एक आभासी व्यवस्था पैदा करते हैं जिसका कोई वास्तविक मूल्य नहीं है । सांस्कृतिक दृष्टि से तो ये अनर्थक हैं ही।
मनुष्य की श्रेष्ठता समाप्त कर उसे गुलाम बनाना, बुद्धि, कल्पना, सृजन की शक्तियों को निकृष्ट स्तर पर लाना, विश्व को आर्थिक, पर्यावरणीय और आरोग्यकीय संकट में डाल देना इतना ही नहीं तो विनाश के प्रति ले जाना ये पश्चिमी अर्थसंकल्पना के मानवता के प्रति अपराध है।
इस अर्थसंकल्पना के आधार पर पश्चिम ने अपनी विकास की संकल्पना को विश्व पर थोपा है। इसके आधार पर विश्व के देशों को विकसित और विकासशील ऐसी श्रेणियों में विभाजित किया है। इसी संकल्पना के आधार पर विश्व पर आधिपत्य जमाने का प्रयास किया है। शस्रों का, पेट्रोलियम का और मादक द्रव्यों का व्यापार उनके लिये समृद्धि की कुंजी है। युद्धों को प्रोत्साहन देना उन्हें लाभदायक लगता है। मादक द्रव्यों का सेवन उनके अपने लिये मजदूरी भी है और दूसरी ओर पैसा कमाने का सरल उपाय भी है।
भारत की सहज बुद्धि का कथन है, 'अर्थातुराणां न गुरुर्न बन्धुः' - जिनके ऊपर अर्थ सवार हो गया है उसके लिये कोई गुरु नहीं है, कोई स्वजन नहीं है। अर्थ से पीडित पश्चिम ने विश्व में अनात्मीयता का रोग फैला दिया
References
भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे