Difference between revisions of "नव साम्यवाद के लक्षण और स्वरूप"

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भारतीय संस्कृति के संदर्भ में भी यही प्रतिकार का तर्क लागू करना यह कम बुद्धि का लक्षण सिद्ध होगा क्यों कि सनातन भारतीय संस्कृति मूलतः 'वैविध्यपूर्ण' और बहुलवादी (pluralistic) है । इसलिये फुको तथा अन्य विचारकों के सांस्कृतिक क्रांति के विचार भारतीय समाज को तथा संस्कृति को 'सुधारणावादी'वृत्ति से लागू करने का मार्ग वैचारिक एवं बौद्धिक उलझनों का प्रारंभ करने वाला होगा।
 
भारतीय संस्कृति के संदर्भ में भी यही प्रतिकार का तर्क लागू करना यह कम बुद्धि का लक्षण सिद्ध होगा क्यों कि सनातन भारतीय संस्कृति मूलतः 'वैविध्यपूर्ण' और बहुलवादी (pluralistic) है । इसलिये फुको तथा अन्य विचारकों के सांस्कृतिक क्रांति के विचार भारतीय समाज को तथा संस्कृति को 'सुधारणावादी'वृत्ति से लागू करने का मार्ग वैचारिक एवं बौद्धिक उलझनों का प्रारंभ करने वाला होगा।
  
'''३. रेमंड विलिअम्स :''' वेल्श ब्रिटिश लेखक, माजी सैनिक (द्वितीय महायुद्ध): न्यू लेफ्ट से संबंधित एक अत्यंत प्रभावी विचारवान के रूप से प्रसिद्ध । संचार माध्यम एवं
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'''३. रेमंड विलिअम्स :''' वेल्श ब्रिटिश लेखक, माजी सैनिक (द्वितीय महायुद्ध): न्यू लेफ्ट से संबंधित एक अत्यंत प्रभावी विचारवान के रूप से प्रसिद्ध । संचार माध्यम एवं साहित्य का साम्यवादी वैचारिक क्रांति के साथ मेल बिठाने वाला तत्त्वज्ञ. उनका 'कल्चर एंड सोसाइटी' नामक संस्कृतिका विश्लेषण करनेवाला पुस्तक अत्यंत प्रसिद्ध था । उसका एक प्रमुख चिंतन इस प्रकार था : ।
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'संस्कृति का अस्तित्व तीन प्रकार से अनुभूत होता है। ये हैं आदर्श, मूल्यव्यवस्था, साहित्यिक और सामाजिक पद्धति। उसमें से किसी एक पद्धति का विश्लेषण याने संपूर्ण संस्कृति का आकलन यह निष्कर्ष गलत है । ये तीनों पद्धतियों के परस्पर सम्बन्धों के अभ्यास का अर्थ है 'संस्कृति जीवन का संपूर्ण मार्ग है' ऐसा प्रतिपादन (culture is a whole way of life) |
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उपरोक्त तीन पद्धतियों में से 'सामाजिक स्वरूप की संस्कृति वास्तविकता से सामीप्य रखनेवाली और प्रत्यक्ष जीवन की संस्कृति होने के कारण से उसके आकलन को विलिअम्स अधिक महत्त्व देता है।
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अनेक भारतीय बुद्धिवान लोग भारतीय समाज में भी विलिअम्स के लेखन का संदर्भ खोजने का प्रयास करते हैं और उसके द्वारा विलिअम्स के विचारों का मॉडेल भारतीय सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति को लागू करते हैं । परंतु ऐसा करते समय एक मूलभूत वास्तव वे भूल जाते हैं कि भारतीय समाज और संस्कृति किसी भी एक संप्रदाय अथवा विचार से नियंत्रित नहीं है। एकेश्वरवादी अब्राहमिक धर्म के अनुसार भारतीय संस्कृति 'धर्म' को संस्थागत (institutionalized religion) मानने की आग्रही नहीं है । इसलिये सांस्कृतिक नियंत्रण के प्रतिकार का तर्क हमारे यहां लागू नहीं होता है । और यदि ऐसा किया जाता है तो उसके परिणाम स्वरूप अनेक विध संभ्रम निर्माण होते हैं इतना सीधा तर्क ये लोग मानते नहीं हैं कारण इस प्रकार के बौद्धिक व्यायाम का प्रमुख उद्देश्य सामाजिक अथवा सांस्कृतिक तत्त्वज्ञान को जन्म देने का न होकर केवल उस प्रकार की बौद्धिकता का बुरखा ओढकर प्रत्यक्ष राजनीति करना और कम होती जा रही अपनी राजकीय उपयोगिता को उस प्रकार से शैक्षिक और सांस्कृतिक आधार दे कर सत्ता की राजनीति में सहभागी होने के लिये अपना स्थान निर्मित करते रहना यही एक शुद्ध राजकीय हेतु इसमें से साहित्य का साम्यवादी वैचारिक क्रांति के साथ मेल बिठाने वाला तत्त्वज्ञ. उनका 'कल्चर एंड सोसाइटी' नामक संस्कृतिका विश्लेषण करनेवाला पुस्तक अत्यंत प्रसिद्ध था । उसका एक प्रमुख चिंतन इस प्रकार था :
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'संस्कृति का अस्तित्व तीन प्रकार से अनुभूत होता है। ये हैं आदर्श, मूल्यव्यवस्था, साहित्यिक और सामाजिक पद्धति। उसमें से किसी एक पद्धति का विश्लेषण याने संपूर्ण संस्कृति का आकलन यह निष्कर्ष गलत है । ये तीनों पद्धतियों के परस्पर सम्बन्धों के अभ्यास का अर्थ है 'संस्कृति जीवन का संपूर्ण मार्ग हैं' ऐसा प्रतिपादन (culture is a whole way of life) |
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उपरोक्त तीन पद्धतियों में से 'सामाजिक स्वरूप की संस्कृति वास्तविकता से सामीप्य रखनेवाली और प्रत्यक्ष जीवन की संस्कृति होने के कारण से उसके आकलन को विलिअम्स अधिक महत्त्व देता है।
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अनेक भारतीय बुद्धिवान लोग भारतीय समाज में भी विलिअम्स के लेखन का संदर्भ खोजने का प्रयास करते हैं और उसके द्वारा विलिअम्स के विचारों का मॉडल भारतीय सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति को लागू करते हैं । परंतु ऐसा करते समय एक मूलभूत वास्तव वे भूल जाते हैं कि भारतीय समाज और संस्कृति किसी भी एक संप्रदाय अथवा विचार से नियंत्रित नहीं है। एकेश्वरवादी अब्राहमिक धर्म के अनुसार भारतीय संस्कृति 'धर्म' को संस्थागत (institutionalized religion) मानने की आग्रही नहीं है । इसलिये सांस्कृतिक नियंत्रण के प्रतिकार का तर्क हमारे यहां लागू नहीं होता है । और यदि ऐसा किया जाता है तो उसके परिणाम स्वरूप अनेक विध संभ्रम निर्माण होते हैं इतना सीधा तर्क ये लोग मानते नहीं हैं कारण इस प्रकार के बौद्धिक व्यायाम का प्रमुख उद्देश्य सामाजिक अथवा सांस्कृतिक तत्त्वज्ञान को जन्म देने का न होकर केवल उस प्रकार की बौद्धिकता का बुरखा ओढकर प्रत्यक्ष राजनीति करना और कम होती जा रही अपनी राजकीय उपयोगिता को उस प्रकार से शैक्षिक और सांस्कृतिक आधार दे कर सत्ता की राजनीति में सहभागी होने के लिये अपना स्थान निर्मित करते रहना यही एक शुद्ध राजकीय हेतु इसमें से
  
 
==References==
 
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Revision as of 07:27, 9 January 2020

अध्याय २३

प्रमन्न देशपांडे

सन १९५६ में हंगेरी में स्टालिन के सोवियेट शासन के विरोध में सशस्त्र आंदोलन हुआ था उसे असफल बनाने के लिये स्टालिन प्रणीत साम्यवाद ने अमानुष प्रकार के प्रयास किये थे । उसके परिणाम स्वरूप युरोप में एवं विश्वभर में भी साम्यवाद बहुत बदनाम हुआ । साम्यवाद के समर्थक रहे युरोपीय चिंतकों को उस कारण से साम्यवाद की प्रगति अवरुद्ध होने का भय था । साम्यवाद की प्रतिष्ठा को जो हानि पहँची थी उसके परिणाम स्वरूप युरोप में साम्यवादी आन्दोलन की हानि न हो इस विचार से जिसकी बदनामी हुई है वह साम्यवाद अलग है और हम उसके समर्थक नहीं हैं यह बात पश्चिमी जगत को दिखाने के लिये उन्हें कोई अलग प्रकार के साम्यवादी आन्दोलन की आवश्यकता प्रतीत हुई । कार्ल मार्क्स की समाजिक वर्ग व्यवस्था, मझदूर आन्दोलन, मझदूरों का सामाजिक क्रांति में सहभाग, मार्क्स प्रणीत सामाजिक न्याय इत्यादि साम्यवादी विचारों की अपेक्षा, किंबहुना 'शास्त्रीय मार्क्सवाद' (classical Marxism) (जो कई कारणों से राजकीय दृष्टि से असफल रहा था ) की अपेक्षा वे कुछ अलग और नया तर्क दे रहे हैं यह बात प्रथम युरोप को और बाद में शेष विश्व को दिखाने के लिये एवं पारंपरिक मार्क्सवाद को कालानुरूप बनाने के लिये, तत्कालीन समाज को सुसंगत हो सके ऐसा 'नया पर्याय वे विश्व को दे रहे हैं ऐसा आभास पैदा करने के लिये 'न्यू लेफ्ट' नाम से राजकीय ‘पर्याय की स्थापना की गई. सामान्य रूप से राजकीय एवं आर्थिक विषयों की (मार्क्स के मतानुसार संस्कृति और सामाजिक रिती और परंपरा जैसी सामाजिक संरचना का आधार आर्थिक व्यवस्था ही होती है) चर्चा करने वाले पारंपरिक मार्क्सवाद को प्रथम संस्कृति और दैनंदिन जीवन के विषय में विश्लेषणात्मक एवं आलोचनात्मक लेखन करने के लिये सक्षम बनाया गया । फिर उसी के आधार पर वर्तमान प्रस्थापित संस्कृति के मूलभूत विचारों पर 'सामाजिक नियंत्रण प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील समाज में से कुछ वंश, धर्म, सामाजिक संस्था, शिक्षा व्यवस्था, कुटुंब और विवाहसंस्था, कला, मनोरंजन क्षेत्र, स्त्री पुरुष संबंध, लैंगिकता, कानून व्यवस्था इत्यादि संस्कृति दर्शक विषयों पर आलोचनात्मक लेखन करने की एवं उसीके आधार पर 'सामाजिक, सांस्कृतिक, राजकीय क्रांति को सफल बनाने की सोच रखने वाले नव साम्यवादी पाश्चिमात्य बुद्धिवाद'का प्रारंभ इस 'न्यू लेफ्ट'के साथ हुआ । इस संगठन के कुछ घटक पारंपरिक मार्क्सवाद से अलग हो गये और मझदूर आन्दोलन तथा वर्ग संघर्ष से अपने आपको अलग कर उन्होंने 'संस्कृति से संबंधित विषयों पर विशेष आलोचना के साथ वैकल्पिक संस्कृति एवं समाज व्यवस्था निर्माण करने का कार्य प्रारंभ किया । तो कुछ घटक मझदूर आन्दोलन और वर्ग संघर्ष को अधिक आक्रमक और अराजक ऐसे 'माओवादी हिंसक मार्ग की और ले गये।

वैकल्पिक संस्कृति के पुरस्कर्ता रहे इन विचारकों (Stuart Hall, Raymond Williams, Richard Hoggart) ने सन १९६० से १९८० के दौरान इंग्लेंड के युवानों के विद्रोही एवं परंपरा को संपूर्णतः नकार देने वाले तत्कालीन सांस्कृतिक विद्रोह को तात्विक समर्थन दिया और हिप्पि संस्कृति, पंक सबकल्चर, टेडी बॉईझ, मॉड रॉकर्स, राम्गे, स्किनहेड्झ, पोप एवं अन्य संगीत का, वेशभूषा, केशभूषा, कला, व्यसनाधीनता तथा ऐसे ही अन्य पारंपरिक सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों के विरुद्ध विद्रोह घोषित करने वाले युथ कल्चर का ,प्रस्थापित दमनकारी संस्कृति के प्रतिकार के साधन के रूपमें जोरदार समर्थन किया ।

न्यू लेफ्ट के कुछ चिंतक और उनके लेखन के कुछ बिंदु इस प्रकार हैं:

१. हर्बर्ट माटुंज : न्यू लेफ्ट का जनक । जर्मन साम्यवादी विचारक । फ्रेंकफर्ट स्कूल ऑफ क्रिटिकल थियरी से संबंधित । संस्कृति, आधुनिक तंत्रज्ञान, मनोरंजन ये सब सामाजिक नियंत्रण के नये माध्यम हैं इस विचार को लेकर लेखन कार्य किया है।

२. मिशेल फको : फ्रेंच तत्त्वज्ञ । वर्तमान स्थिति में संपूर्ण विश्व के विद्यापीठों में इस प्रकार के ज्ञान का सब से बडा आकर्षण बिंदु' । व्यक्तिगत जीवन और लेखन पूर्ण रूप से अराजकता वादी । 'सत्ता और ज्ञान' (power and knowledge) इन के संबंध के विषय में किया गया सैद्धांतिक लेखन वर्तमान शिक्षा में विशेष रूप से समाविष्ट है । साम्यवाद का अनुनय करने वाले विश्व भर के विद्यार्थियों का प्रिय लेखक एवं तत्त्वज्ञ । धर्म, कुटुंब व्यवस्था, विवाहसंस्था, शिक्षा एवं राजकीय व्यवस्थाओं में निहित पारंपरिक नैतिक मूल्यों की विध्वंसक आलोचना कर के, परंपरा का अनुसरण कर जो कुछ भी समाज, नीति इत्यादि सिद्ध हुए हैं उन सब को तिरस्कृत कर, पराकाष्ठा का संघर्ष कर के सत्ता प्राप्त कर, 'सांस्कृतिक क्रांति' को सफल करने का संदेश देने वाला लेखन । बुद्धिशील एवं आन्दोलन तथा सशस्त्र क्रांति में प्रत्यक्ष सहभागी होने वालों को समान रूप से संमोहित कर सके ऐसा स्फोटक और मानवी संस्कृति और सभ्यता को पूर्ण रूप से नकार कर तथाकथित 'शोषित' लोगों की सहायता से पर्यायी संस्कृति, सभ्यता, राजकीय व्यवस्था तथा समाज का निर्माण करना यह व्यक्तिस्वातंत्र्यवादी युवा मानस को आदर्श और बुद्धिप्रमाण्यवादी लगने वाला लेखन ।

'नैतिकता को समाज का आदर्श बनाया जाने का अर्थ है बहुसंख्यकों के नैतिकता / अनैतिकता के निकष संपूर्ण समाज पर थोपना' ।

हम कौन हैं इसका शोध लेने का हमारा ध्येय नहीं है, किंबहुना हम जो हैं उसे नकारना ही हमारा ध्येय है ।

फको के एक शिक्षक अल्थुझर का भी इसी प्रकार का लेखन एक नयी विद्याशाखा के माध्यम से भाततके कई प्रमुख विद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा द्वारा उपलब्ध करवाया गया है। संस्कृति विषयक ज्ञान और क्या सामान्य है या नहीं है इसको नियंत्रित करनेवाले किसी भी समाज के बहुसंख्यक ही होते हैं

इसलिये बहसंख्यकों के सांस्कृतिक नियंत्रण का प्रतिकार करते रहना और 'सामान्य समजे जाने वाले जो भी व्यवहार, सामाजिक, सांस्कृतिक आविष्कार होंगे उनका 'विकल्प'निरंतर देते रहना ऐसे विचारों का पुरस्कार उन विद्याशाखाओं में फुको के लेखन का अध्ययन करने वाला प्रत्येक विद्यार्थी करता हुआ दिखाई देता है(इस विद्याशाखा के विषय में आगे बात होगी।

मिशेल फुको के संस्कृति विषयक आलोचनात्मक विचार प्रमुख रूप से उसने स्वयं जिसका अनुभव किया हुआ था वह एकेश्वरवादी प्रतिगामी कॅथोलिक इसाई संस्कृति, पराकोटि की पूंजीवादी औद्योगिक अर्थव्यवस्था और उसके सामाजिक, सांस्कृतिक नियंत्रक रीतिरिवाज के विरोध में होनेवाले प्रतिकार के परिणाम रूप हैं । एकेश्वरवादी, रूढीवादी कॅथोलिक सामाजिक रितिरिवाजों का विरोध करके ही व्यक्तिस्वातंत्र्य अबाधित रखना यह एकमेव मार्ग ही फुको तथा पाश्चिमात्य सांस्कृतिक उदारमतवाद के पुरस्कर्ता तत्त्वज्ञों को उपलब्ध था इसीलिये प्रत्येक संस्कृति मूलक आदर्शों का उसने विरोध किया ।

भारतीय संस्कृति के संदर्भ में भी यही प्रतिकार का तर्क लागू करना यह कम बुद्धि का लक्षण सिद्ध होगा क्यों कि सनातन भारतीय संस्कृति मूलतः 'वैविध्यपूर्ण' और बहुलवादी (pluralistic) है । इसलिये फुको तथा अन्य विचारकों के सांस्कृतिक क्रांति के विचार भारतीय समाज को तथा संस्कृति को 'सुधारणावादी'वृत्ति से लागू करने का मार्ग वैचारिक एवं बौद्धिक उलझनों का प्रारंभ करने वाला होगा।

३. रेमंड विलिअम्स : वेल्श ब्रिटिश लेखक, माजी सैनिक (द्वितीय महायुद्ध): न्यू लेफ्ट से संबंधित एक अत्यंत प्रभावी विचारवान के रूप से प्रसिद्ध । संचार माध्यम एवं साहित्य का साम्यवादी वैचारिक क्रांति के साथ मेल बिठाने वाला तत्त्वज्ञ. उनका 'कल्चर एंड सोसाइटी' नामक संस्कृतिका विश्लेषण करनेवाला पुस्तक अत्यंत प्रसिद्ध था । उसका एक प्रमुख चिंतन इस प्रकार था : ।

'संस्कृति का अस्तित्व तीन प्रकार से अनुभूत होता है। ये हैं आदर्श, मूल्यव्यवस्था, साहित्यिक और सामाजिक पद्धति। उसमें से किसी एक पद्धति का विश्लेषण याने संपूर्ण संस्कृति का आकलन यह निष्कर्ष गलत है । ये तीनों पद्धतियों के परस्पर सम्बन्धों के अभ्यास का अर्थ है 'संस्कृति जीवन का संपूर्ण मार्ग है' ऐसा प्रतिपादन (culture is a whole way of life) |

उपरोक्त तीन पद्धतियों में से 'सामाजिक स्वरूप की संस्कृति वास्तविकता से सामीप्य रखनेवाली और प्रत्यक्ष जीवन की संस्कृति होने के कारण से उसके आकलन को विलिअम्स अधिक महत्त्व देता है।

अनेक भारतीय बुद्धिवान लोग भारतीय समाज में भी विलिअम्स के लेखन का संदर्भ खोजने का प्रयास करते हैं और उसके द्वारा विलिअम्स के विचारों का मॉडेल भारतीय सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति को लागू करते हैं । परंतु ऐसा करते समय एक मूलभूत वास्तव वे भूल जाते हैं कि भारतीय समाज और संस्कृति किसी भी एक संप्रदाय अथवा विचार से नियंत्रित नहीं है। एकेश्वरवादी अब्राहमिक धर्म के अनुसार भारतीय संस्कृति 'धर्म' को संस्थागत (institutionalized religion) मानने की आग्रही नहीं है । इसलिये सांस्कृतिक नियंत्रण के प्रतिकार का तर्क हमारे यहां लागू नहीं होता है । और यदि ऐसा किया जाता है तो उसके परिणाम स्वरूप अनेक विध संभ्रम निर्माण होते हैं इतना सीधा तर्क ये लोग मानते नहीं हैं कारण इस प्रकार के बौद्धिक व्यायाम का प्रमुख उद्देश्य सामाजिक अथवा सांस्कृतिक तत्त्वज्ञान को जन्म देने का न होकर केवल उस प्रकार की बौद्धिकता का बुरखा ओढकर प्रत्यक्ष राजनीति करना और कम होती जा रही अपनी राजकीय उपयोगिता को उस प्रकार से शैक्षिक और सांस्कृतिक आधार दे कर सत्ता की राजनीति में सहभागी होने के लिये अपना स्थान निर्मित करते रहना यही एक शुद्ध राजकीय हेतु इसमें से साहित्य का साम्यवादी वैचारिक क्रांति के साथ मेल बिठाने वाला तत्त्वज्ञ. उनका 'कल्चर एंड सोसाइटी' नामक संस्कृतिका विश्लेषण करनेवाला पुस्तक अत्यंत प्रसिद्ध था । उसका एक प्रमुख चिंतन इस प्रकार था :

'संस्कृति का अस्तित्व तीन प्रकार से अनुभूत होता है। ये हैं आदर्श, मूल्यव्यवस्था, साहित्यिक और सामाजिक पद्धति। उसमें से किसी एक पद्धति का विश्लेषण याने संपूर्ण संस्कृति का आकलन यह निष्कर्ष गलत है । ये तीनों पद्धतियों के परस्पर सम्बन्धों के अभ्यास का अर्थ है 'संस्कृति जीवन का संपूर्ण मार्ग हैं' ऐसा प्रतिपादन (culture is a whole way of life) |

उपरोक्त तीन पद्धतियों में से 'सामाजिक स्वरूप की संस्कृति वास्तविकता से सामीप्य रखनेवाली और प्रत्यक्ष जीवन की संस्कृति होने के कारण से उसके आकलन को विलिअम्स अधिक महत्त्व देता है।

अनेक भारतीय बुद्धिवान लोग भारतीय समाज में भी विलिअम्स के लेखन का संदर्भ खोजने का प्रयास करते हैं और उसके द्वारा विलिअम्स के विचारों का मॉडल भारतीय सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति को लागू करते हैं । परंतु ऐसा करते समय एक मूलभूत वास्तव वे भूल जाते हैं कि भारतीय समाज और संस्कृति किसी भी एक संप्रदाय अथवा विचार से नियंत्रित नहीं है। एकेश्वरवादी अब्राहमिक धर्म के अनुसार भारतीय संस्कृति 'धर्म' को संस्थागत (institutionalized religion) मानने की आग्रही नहीं है । इसलिये सांस्कृतिक नियंत्रण के प्रतिकार का तर्क हमारे यहां लागू नहीं होता है । और यदि ऐसा किया जाता है तो उसके परिणाम स्वरूप अनेक विध संभ्रम निर्माण होते हैं इतना सीधा तर्क ये लोग मानते नहीं हैं कारण इस प्रकार के बौद्धिक व्यायाम का प्रमुख उद्देश्य सामाजिक अथवा सांस्कृतिक तत्त्वज्ञान को जन्म देने का न होकर केवल उस प्रकार की बौद्धिकता का बुरखा ओढकर प्रत्यक्ष राजनीति करना और कम होती जा रही अपनी राजकीय उपयोगिता को उस प्रकार से शैक्षिक और सांस्कृतिक आधार दे कर सत्ता की राजनीति में सहभागी होने के लिये अपना स्थान निर्मित करते रहना यही एक शुद्ध राजकीय हेतु इसमें से

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे