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समुदाय की व्यवस्था उत्तम होने के लिए अर्थव्यवस्था ठीक करनी होती है। भारतीय समुदाय व्यवस्था के प्रमुख लक्षणों में एक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि व्यवसाय भी सम्पूर्ण परिवार मिलकर करता था। इससे अथर्जिन हेतु शिक्षा का केन्द्र घर ही होता था और शिक्षा हेतु पैसे खर्च नहीं करने पड़ते थे । साथ ही राज्य को अथर्जिन की शिक्षा देने हेतु आज की तरह बड़ा जंजाल नहीं खड़ा करना पड़ता था ।
 
समुदाय की व्यवस्था उत्तम होने के लिए अर्थव्यवस्था ठीक करनी होती है। भारतीय समुदाय व्यवस्था के प्रमुख लक्षणों में एक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि व्यवसाय भी सम्पूर्ण परिवार मिलकर करता था। इससे अथर्जिन हेतु शिक्षा का केन्द्र घर ही होता था और शिक्षा हेतु पैसे खर्च नहीं करने पड़ते थे । साथ ही राज्य को अथर्जिन की शिक्षा देने हेतु आज की तरह बड़ा जंजाल नहीं खड़ा करना पड़ता था ।
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आर्थिक स्वतन्त्रता, व्यवसाय में स्वामित्वभाव, आर्थिक सुरक्षा जैसे अति मूल्यवान तत्त्वों की रक्षा समुदायगत समाज व्यवस्था करने में होती है । आज कुटुम्ब को नहीं अपितु व्यक्ति को इकाई मानने के कारण मनुष्य के लिए आर्थिक क्षेत्र का व्यावहारिक तथा मानसिक संकट निर्माण हो गया है । समुदायगत व्यवस्था ठीक से बैठाने हेतु शिक्षा की विशेष व्यवस्था हमें करनी होगी।
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आर्थिक स्वतन्त्रता, व्यवसाय में स्वामित्वभाव, आर्थिक सुरक्षा जैसे अति मूल्यवान तत्वों की रक्षा समुदायगत समाज व्यवस्था करने में होती है । आज कुटुम्ब को नहीं अपितु व्यक्ति को इकाई मानने के कारण मनुष्य के लिए आर्थिक क्षेत्र का व्यावहारिक तथा मानसिक संकट निर्माण हो गया है । समुदायगत व्यवस्था ठीक से बैठाने हेतु शिक्षा की विशेष व्यवस्था हमें करनी होगी।
    
श्रेष्ठ समाज अथवा समुदाय के दो लक्षण होते हैं। एक होता है समृद्धि और दूसरा होता है संस्कृति। अर्थात्‌ जिस प्रकार समृद्धि हेतु अर्थकरी शिक्षा की उत्तम व्यवस्था चाहिए तथा उसकी उत्तम शिक्षा चाहिए उसी प्रकार व्यक्तियों को सुसंस्कृत बनाने की शिक्षा भी चाहिए। इस दृष्टि से व्यवसाय का दृष्टिकोण बदलना चाहिए । व्यवसाय केवल अथर्जिन के लिए ही नहीं होता। व्यवसाय के परिणामस्वरूप उपभोक्ता को आवश्यक वस्तु प्राप्त होती है। अत: उपभोक्ता का विचार करना, उसकी सेवा हेतु व्यवसाय करना यह भी महत्त्वपूर्ण पक्ष है। जब उपभोक्ता का विचार करके व्यवसाय किया जाता है तब उपभोक्ता की आवश्यकता, उसके लाभ और हानि, उत्पादन की गुणवत्ता आदि का भी ध्यान रखा जाता है। एक ही बात का विचार करने से दृष्टिकोण का मुद्दा समझ में आएगा। किसी भी उत्पादन का विज्ञापन किया जाता है तब उत्पादक अपने उत्पादन की भरपूर प्रशंसा करता है। ऐसा करने का एकमात्र कारण उपभोक्ता को उत्पादन की ओर आकर्षित कर उसे खरीदने के लिए बाध्य करना है। ऐसा करने की आवश्यकता क्यों होती है? केवल इसलिए कि हमने उत्पादित किया वह पदार्थ बिकना चाहिए । इस उद्देश्य से प्रेरित होकर जो नहीं हैं ऐसे गुण बढ़ाचढ़ाकर बताए जाते हैं और उपभोक्ता को चाहिए या नहीं इसका ध्यान कम रखा जाता है, अपना माल बिकना चाहिए इसका अधिक विचार किया जाता है । यह नीतिमत्ता नहीं है । तो भी यह आज भारी मात्रा में किया जाता है क्योंकि उत्पादन केवल अथर्जिन हेतु ही किया जाता है, उपभोक्ता की सेवा के लिए नहीं । विकसित और शिक्षित समाज में यह दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता होती है। समुदाय को सुसंस्कृत बनाने के लिए यह आवश्यक है।
 
श्रेष्ठ समाज अथवा समुदाय के दो लक्षण होते हैं। एक होता है समृद्धि और दूसरा होता है संस्कृति। अर्थात्‌ जिस प्रकार समृद्धि हेतु अर्थकरी शिक्षा की उत्तम व्यवस्था चाहिए तथा उसकी उत्तम शिक्षा चाहिए उसी प्रकार व्यक्तियों को सुसंस्कृत बनाने की शिक्षा भी चाहिए। इस दृष्टि से व्यवसाय का दृष्टिकोण बदलना चाहिए । व्यवसाय केवल अथर्जिन के लिए ही नहीं होता। व्यवसाय के परिणामस्वरूप उपभोक्ता को आवश्यक वस्तु प्राप्त होती है। अत: उपभोक्ता का विचार करना, उसकी सेवा हेतु व्यवसाय करना यह भी महत्त्वपूर्ण पक्ष है। जब उपभोक्ता का विचार करके व्यवसाय किया जाता है तब उपभोक्ता की आवश्यकता, उसके लाभ और हानि, उत्पादन की गुणवत्ता आदि का भी ध्यान रखा जाता है। एक ही बात का विचार करने से दृष्टिकोण का मुद्दा समझ में आएगा। किसी भी उत्पादन का विज्ञापन किया जाता है तब उत्पादक अपने उत्पादन की भरपूर प्रशंसा करता है। ऐसा करने का एकमात्र कारण उपभोक्ता को उत्पादन की ओर आकर्षित कर उसे खरीदने के लिए बाध्य करना है। ऐसा करने की आवश्यकता क्यों होती है? केवल इसलिए कि हमने उत्पादित किया वह पदार्थ बिकना चाहिए । इस उद्देश्य से प्रेरित होकर जो नहीं हैं ऐसे गुण बढ़ाचढ़ाकर बताए जाते हैं और उपभोक्ता को चाहिए या नहीं इसका ध्यान कम रखा जाता है, अपना माल बिकना चाहिए इसका अधिक विचार किया जाता है । यह नीतिमत्ता नहीं है । तो भी यह आज भारी मात्रा में किया जाता है क्योंकि उत्पादन केवल अथर्जिन हेतु ही किया जाता है, उपभोक्ता की सेवा के लिए नहीं । विकसित और शिक्षित समाज में यह दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता होती है। समुदाय को सुसंस्कृत बनाने के लिए यह आवश्यक है।
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== राष्ट्र ==
 
== राष्ट्र ==
हर व्यक्ति जिस प्रकार अपने परिवार और समुदाय का
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हर व्यक्ति जिस प्रकार अपने परिवार और समुदाय का सदस्य होता है उसी प्रकार वह एक राष्ट्र का अंश होता है । परिवार सामाजिक इकाई है, समुदाय मुख्य रूप से आर्थिक इकाई है और राष्ट्र सांस्कृतिक इकाई है । राष्ट्र एक ऐसी प्रजा का समूह है जिसकी एक भूमि होती है, उस भूमि के साथ उसका मातृवत सम्बन्ध होता है और जिसका एक जीवनदर्शन होता है । एक राष्ट्र के नाते वह विश्वसमुदाय का सदस्य होता है ।
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सदस्य होता है उसी प्रकार वह एक राष्ट्र का अंश होता है ।
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राष्ट्र की अपनी एक जीवनशैली होती है जो उसके जीवनदर्शन के आधार पर विकसित हुई होती है । राष्ट्र के हर सदस्य को उस जीवनशैली को अपनाना होता है । भारत एक राष्ट्र है और उसकी जीवनशैली की स्वाभाविक विशेषतायें इस प्रकार हैं:
 
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* हम इस सृष्टि को एक ही मानते हैं और सब एकात्म सम्बन्ध से जुड़े हैं ऐसा मानते हैं । इसलिए सबको अपना मानते हैं । जिन्हें अपना माना उसका हित चाहते हैं, उसके साथ प्रेम का व्यवहार करते हैं। जिसके लिए प्रेम होता है उसके लिए त्याग करने के लिए उद्यत होते हैं और उसकी सेवा भी करते हैं । हम किसी का शोषण नहीं करते। हम मानते हैं कि चराचर जगत के सभी पदार्थों की स्वतंत्र सत्ता है । इस कारण से सबका सम्मान करना चाहिए, सबकी स्वतन्त्रता की रक्षा करनी चाहिए। हमारे जीवन के निर्वाह हेतु हमें सबसे कुछ न कुछ लेना पड़ता है। इसके लिए हमें सबके प्रति कृतज्ञता का व्यवहार करना चाहिए। एकात्मता और सबकी स्वतंत्र सत्ता का स्वीकार करने के कारण हम संघर्ष में नहीं अपितु समन्वय में या सामंजस्य में मानते हैं। हम सहअस्तित्व में मानते हैं। हम सबका हित और सबका सुख चाहते हैं,सबके हित और सुख की रक्षा करते हैं।
परिवार सामाजिक इकाई है, समुदाय मुख्य रूप से आर्थिक
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* इस सृष्टि के सृजन के साथ साथ उसे धारण करने वाली अर्थात उसका नाश न होने देने वाली व्यवस्था भी बनी है। इस व्यवस्था के कुछ नियम हैं। इन सार्वभौम सनातन विश्वनियम का नाम धर्म है। सृष्टि के चालक, नियामक और नियंत्रक तत्व धर्म को हमने अपने जीवन का भी चालक, नियामक और नियंत्रक तत्व बनाया है । इसलिए हमारे हर व्यवहार, हर व्यवस्था, हर रचना का निकष धर्म है। जो कुछ भी धर्म के अविरोधी है वह स्वीकार्य है, जो भी धर्म के विरोधी है वह त्याज्य है। इसके परिणामस्वरूप हमारा भी नाश नहीं होता और हम किसीके नाश का कारण नहीं बनते।
 
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* कर्तव्य और अधिकार एक सिक्के के दो पहलू हैं। हम कर्तव्य के पहलू को सामने रखकर व्यवहार करते हैं । इसका अर्थ यह है कि हम दूसरों के अधिकार का विचार प्रथम करते हैं। इससे हमारे अधिकार की भी रक्षा अपने आप हो जाती है । हमारा व्यवहार आपसी लेनदेन से चलता है । लेनदेन के व्यवहार में हम देने की ही चिन्ता करते हैं लेने की नहीं । परिणामस्वरूप हमें भी जो चाहिए वह बिना चिन्ता किये मिल जाता है।
इकाई है और राष्ट्र सांस्कृतिक इकाई है । राष्ट्र एक ऐसी प्रजा
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* प्रेम, आनंद, सौन्दर्य, ज्ञान, सत्य जीवन के मूल आधार हैं । इसके अनुसार व्यवहार करने से किसी एक के नहीं अपितु सबके जीवन में सुख, शान्ति, सौहार्द, समृद्धि और सार्थकता आती है । किसी भी छोटे, क्षुद्र स्वार्थ के लिए इन्हें नहीं छोड़ना यही हमारा सिद्धांत है ।
 
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* हम स्वकेन्द्री नहीं हैं, परमात्मकेन्द्री हैं । हमारा अनुभव है कि स्वकेन्द्री होने से किसीको भी सुख नहीं मिलता, किसीका भी हित नहीं होता । स्वकेन्द्री होने से संघर्ष और हिंसा ही फैलते हैं जिसका परिणाम नाश ही है । हम श्रेष्ठ होना चाहते हैं, सर्वश्रेष्ठ नहीं ।
का समूह है जिसकी एक भूमि होती है, उस भूमि के साथ
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* हमारे राष्ट्रीय जीवन के ये आधारभूत तत्व हैं । यहबात सत्य है कि आज इनकी प्रतिष्ठा नहीं है । हम कदाचित इन्हें भूल गए हैं और इन्हें मानते भी नहीं हैं । हमारी सारी व्यवस्थायें और व्यवहार इनसे ठीक उल्टा हो रहा है । परन्तु यह विस्मृति है । युगों से हमारा राष्ट्र इन्हीं आधारों पर चलता आया है । हमारे शास्त्र और धर्मग्रन्थ इनकी ही महिमा बताते हैं । हमारे सन्त महात्मा इनका ही उपदेश देते हैं । हमारा इतिहास इनके ही उदाहरण प्रस्तुत करता है । हमारे अन्तर्मन में इनकी ही प्रतिष्ठा है। इसलिए ये आज ऊपर से दिखाई न देते हों तो भी नींव में तो हैं ही।
 
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* शिक्षा के द्वारा इनकी पुनः: प्रतिष्ठा होनी चाहिए । यही उसका मूल प्रयोजन है । शिक्षा की सार्थकता ही उसमें है कि वह धर्म सिखाती है । आज हमने शिक्षा के अभारतीय प्रतिमान की प्रतिष्ठा कर इन सनातन तत्वों को ही विस्मृत कर दिया है इसलिए सर्वत्र अव्यवस्था फैली हुई है । शिक्षा का भारतीय प्रतिमान लागू करने से इसका उपाय हो सकता है।
उसका मातृवत सम्बन्ध होता है और जिसका एक
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* और एक बात की स्पष्टता करने की आवश्यकता है । हमने राष्ट्र और देश इन दो संज्ञाओं को एक मान लिया है । ऐसा अँग्रेजी के नेशन शब्द के अनुवाद से हुआ है । वास्तव में देश एक सांविधानिक राजकीय भौगोलिक संकल्पना है जबकि राष्ट्र सांस्कृतिक, आध्यात्मिक। दोनों में कोई विरोध नहीं है । देश राज्यव्यवस्था है, राष्ट्र जीवनदर्शन है। राज्य संविधान के आधार पर चलता है, राष्ट्र धर्म के आधार पर। राष्ट्र राज्य का भी आधार है, राज्य का भी निकष है। हम राज्यव्यवस्था में नागरिक हैं, राष्ट्रव्यवस्था में राष्ट्रीय हैं। आज इस भेद को भी ध्यान में नहीं लिया जाता है इसलिए राष्ट्रीय बनाने की शिक्षा भी नहीं दी जाती है । भारतीय शिक्षा में इसका समावेश अनिवार्य रूप से होना चाहिए ।
 
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जीवनदर्शन होता है । एक राष्ट्र के नाते वह विश्वसमुदाय का
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सदस्य होता है ।
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जीवनदर्शन के आधार पर विकसित हुई होती है । राष्ट्र के हर
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सदस्य को उस जीवनशैली को अपनाना होता है ।
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भारत एक राष्ट्र है और उसकी जीवनशैली की
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स्वाभाविक विशेषतायें इस प्रकार हैं ...
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०. हम इस सृष्टि को एक ही मानते हैं और सब एकात्म
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सम्बन्ध से जुड़े हैं ऐसा मानते हैं । इसलिए सबको
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अपना मानते हैं । जिन्हें अपना माना उसका हित
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चाहते हैं, उसके साथ प्रेम का व्यवहार करते हैं ।
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जिसके लिए प्रेम होता है उसके लिए त्याग करने के
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लिए उद्यत होते हैं और उसकी सेवा भी करते हैं । हम
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किसीका शोषण नहीं करते ।
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हम मानते हैं कि चराचर जगत के सभी पदार्थों की
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स्वतंत्र सत्ता है । इस कारण से सबका सम्मान करना
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चाहिए, सबकी स्वतन्त्रता की रक्षा करनी चाहिए ।
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हमारे जीवन के निर्वाह हेतु हमें सबसे कुछ न कुछ
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लेना पड़ता है । इसके लिए हमें सबके प्रति कृतज्ञता
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का व्यवहार करना चाहिए । एकात्मता और सबकी
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स्वतंत्र सत्ता का स्वीकार करने के कारण हम संघर्ष में
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नहीं अपितु समन्वय में या सामंजस्य में मानते हैं । हम
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सहअस्तित्व में मानते हैं । हम सबका हित और
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सबका सुख चाहते हैं,सबके हित और सुख की रक्षा
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०. इस सृष्टि के सृजन के साथ साथ उसे धारण करने
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वाली अर्थात उसका नाश न होने देने वाली व्यवस्था
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भी बनी है । इस व्यवस्था के कुछ नियम हैं । इन
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सार्वभौम सनातन विश्वनियम का नाम धर्म है । सृष्टि के
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चालक, नियामक और नियंत्रक तत्त्व धर्म को हमने
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अपने जीवन का भी चालक, नियामक और नियंत्रक
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तत्त्व बनाया है । इसलिए हमारे हर व्यवहार, हर
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व्यवस्था, हर रचना का निकष धर्म है । जो कुछ भी
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धर्म के अविरोधी है वह स्वीकार्य है, जो भी धर्म के
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विरोधी है वह त्याज्य है । इसके परिणामस्वरूप हमारा
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भी नाश नहीं होता और हम किसीके नाश का कारण
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नहीं बनते ।
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© | कर्तव्य और अधिकार एक सिक्के के दो पहलू हैं । हम
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कर्तव्य के पहलू को सामने रखकर व्यवहार करते हैं ।
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इसका अर्थ यह है कि हम दूसरों के अधिकार का
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विचार प्रथम करते हैं । इससे हमारे अधिकार की भी
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रक्षा अपने आप हो जाती है । हमारा व्यवहार आपसी
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लेनदेन से चलता है । लेनदेन के व्यवहार में हम देने
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की ही चिन्ता करते हैं लेने की नहीं । परिणामस्वरूप
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हमें भी जो चाहिए वह बिना चिन्ता किये मिल जाता
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०"... प्रेम, आनंद, सौन्दर्य, ज्ञान, सत्य जीवन के मूल
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आधार हैं । इसके अनुसार व्यवहार करने से किसी
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एक के नहीं अपितु सबके जीवन में सुख, शान्ति,
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सौहार्द, समृद्धि और सार्थकता आती है । किसी भी
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छोटे, क्षुद्र स्वार्थ के लिए इन्हें नहीं छोड़ना यही हमारा
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सिद्धांत है ।
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मिलता, किसीका भी हित नहीं होता । स्वकेन्द्री होने
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से संघर्ष और हिंसा ही फैलते हैं जिसका परिणाम नाश
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ही है । हम श्रेष्ठ होना चाहते हैं
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सर्वश्रेष्ठ नहीं ।
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हमारे राष्ट्रीय जीवन के ये आधारभूत तत्त्व हैं । यह
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बात सत्य है कि आज इनकी प्रतिष्ठा नहीं है । हम कदाचित
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इन्हें भूल गए हैं और इन्हें मानते भी नहीं हैं । हमारी सारी
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व्यवस्थायें और व्यवहार इनसे ठीक उल्टा हो रहा है । परन्तु
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यह विस्मृति है । युगों से हमारा राष्ट्र इन्हीं आधारों पर चलता
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आया है । हमारे शास्त्र और धर्मग्रन्थ इनकी ही महिमा बताते
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हैं । हमारे सन्त महात्मा इनका ही उपदेश देते हैं । हमारा
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इतिहास इनके ही उदाहरण प्रस्तुत करता है । हमारे अन्तर्मन
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में इनकी ही प्रतिष्ठा है । इसलिए ये आज ऊपर से दिखाई न
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देते हों तो भी नींव में तो हैं ही ।
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शिक्षा के द्वारा इनकी पुनः: प्रतिष्ठा होनी चाहिए । यही
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उसका मूल प्रयोजन है । शिक्षा की सार्थकता ही उसमें है कि
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वह धर्म सिखाती है । आज हमने शिक्षा के अभारतीय
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प्रतिमान की प्रतिष्ठा कर इन सनातन तत्त्वों को ही विस्मृत
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कर दिया है इसलिए सर्वत्र अव्यवस्था फैली हुई है । शिक्षा
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का भारतीय प्रतिमान लागू करने से इसका उपाय हो सकता
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और एक बात की स्पष्टता करने की आवश्यकता है ।
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हमने राष्ट्र और देश इन दो संज्ञाओं को एक मान लिया है ।
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ऐसा अँग्रेजी के नेशन शब्द के अनुवाद से हुआ है । वास्तव
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में देश एक सांविधानिक राजकीय भौगोलिक संकल्पना है
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जबकि राष्ट्र सांस्कृतिक, आध्यात्मिक । दोनों में कोई विरोध
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नहीं है । देश राज्यव्यवस्था है, राष्ट्र जीवनदर्शन है । राज्य
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संविधान के आधार पर चलता है, राष्ट्र धर्म के आधार पर ।
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राष्ट्र राज्य का भी आधार है, राज्य का भी निकष है । हम
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राज्यव्यवस्था में नागरिक हैं, राष्ट्रव्यवस्था में राष्ट्रीय हैं ।
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आज इस भेद को भी ध्यान में नहीं लिया जाता है इसलिए
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राष्ट्रीय बनाने की शिक्षा भी नहीं दी जाती है । भारतीय शिक्षा
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में इसका समावेश अनिवार्य रूप से होना चाहिए ।
      
== विश्व ==
 
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