Difference between revisions of "Adiparva Adhyaya 128 (आदिपर्वणि अध्यायः १२८)"
Jump to navigation
Jump to search
(Created page with "वैशम्पायन उवाच ततस्ते कौरवाः सर्वे विना भीमं च पाण्डवाः। वृत्तक...") |
|||
Line 1: | Line 1: | ||
− | |||
− | |||
− | वृत्तक्रीडाविहारास्तु प्रतस्थुर्गजसाह्वयम्॥ 1-128-1 | + | वैशम्पायन उवाच |
− | + | ततस्ते कौरवाः सर्वे विना भीमं च पाण्डवाः। | |
− | रथैर्गजैस्तथा चाश्वैर्यानैश्चान्यैरनेकशः। | + | वृत्तक्रीडाविहारास्तु प्रतस्थुर्गजसाह्वयम्॥ 1-128-1 |
− | + | रथैर्गजैस्तथा चाश्वैर्यानैश्चान्यैरनेकशः। | |
− | ब्रुवन्तो भीमसेनस्तु यातो ह्यग्रत एव नः॥ 1-128-2 | + | ब्रुवन्तो भीमसेनस्तु यातो ह्यग्रत एव नः॥ 1-128-2 |
− | + | ततो दुर्योधनः पापस्तत्रापश्यन्वृकोदरम्। | |
− | ततो दुर्योधनः पापस्तत्रापश्यन्वृकोदरम्। | + | भ्रातृभिः सहितो हृष्टो नगरं प्रविवेश ह॥ 1-128-3 |
− | + | युधिष्ठिरस्तु धर्मात्मा ह्यविदन्पापमात्मनि। | |
− | भ्रातृभिः सहितो हृष्टो नगरं प्रविवेश ह॥ 1-128-3 | + | स्वेनानुमानेन परं साधुं समनुपश्यति॥ 1-128-4 |
− | + | सोऽभ्युपेत्य तदा पार्थो मातरं भ्रातृवत्सलः। | |
− | युधिष्ठिरस्तु धर्मात्मा ह्यविदन्पापमात्मनि। | + | अभिवाद्याब्रवीत्कुन्तीमम्ब भीम इहागतः॥ 1-128-5 |
− | + | क्व गतो भविता मातर्नेह पश्यामि तं शुभे। | |
− | स्वेनानुमानेन परं साधुं समनुपश्यति॥ 1-128-4 | + | उद्यानानि वनं चैव विचितानि समन्ततः॥ 1-128-6 |
− | + | तदर्थं न च तं वीरं दृष्टवन्तो वृकोदरम्। | |
− | सोऽभ्युपेत्य तदा पार्थो मातरं भ्रातृवत्सलः। | + | मन्यमानास्ततः सर्वे यातो नः पूर्वमेव सः॥ 1-128-7 |
− | + | आगताः स्म महाभागे व्याकुलेनान्तरात्मना। | |
− | अभिवाद्याब्रवीत्कुन्तीमम्ब भीम इहागतः॥ 1-128-5 | + | इहागम्य क्व नु गतस्त्वया वा प्रेषितः क्व नु॥ 1-128-8 |
− | + | कथयस्व महाबाहुं भीमसेनं यशस्विनि। | |
− | क्व गतो भविता मातर्नेह पश्यामि तं शुभे। | + | न हि मे शुध्यते भावस्तं वीरं प्रति शोभने॥ 1-128-9 |
− | + | यतः प्रसुप्तं मन्येऽहं भीमं नेति हतस्तु सः। | |
− | उद्यानानि वनं चैव विचितानि समन्ततः॥ 1-128-6 | + | इत्युक्ता च ततः कुन्ती धर्मराजेन धीमता॥ 1-128-10 |
− | + | हा हेति कृत्वा सम्भ्रान्ता प्रत्युवाच युधिष्ठिरम्। | |
− | तदर्थं न च तं वीरं दृष्टवन्तो वृकोदरम्। | + | न पुत्र भीमं पश्यामि न मामभ्येत्यसाविति॥ 1-128-11 |
− | + | शीघ्रमन्वेषणे यत्नं कुरु तस्यानुजैः सह। | |
− | मन्यमानास्ततः सर्वे यातो नः पूर्वमेव सः॥ 1-128-7 | + | इत्युक्त्वा तनयं ज्येष्ठं हृदयेन विदूयता॥ 1-128-12 |
− | + | क्षत्तारमानाय्य तदा कुन्ती वचनमब्रवीत्। | |
− | आगताः स्म महाभागे व्याकुलेनान्तरात्मना। | + | क्व गतो भगव[वा]न्क्षत्तर्भीमसेनो न दृश्यते॥ 1-128-13 |
− | + | उद्यानान्निर्गताः सर्वे भ्रातरो भ्रातृभिः सह। | |
− | इहागम्य क्व नु गतस्त्वया वा प्रेषितः क्व नु॥ 1-128-8 | + | तत्रैकस्तु महाबाहुर्भीमो नाभ्येति मामिह॥ 1-128-14 |
− | + | न च प्रीणयते चक्षुः सदा दुर्योधनस्य सः। | |
− | कथयस्व महाबाहुं भीमसेनं यशस्विनि। | + | क्रूरोऽसौ दुर्मतिः क्षुद्रो राज्यलुब्धोऽनपत्रपः॥ 1-128-15 |
− | + | निहन्यादपि तं वीरं जातमन्युः सुयोधनः। | |
− | न हि मे शुध्यते भावस्तं वीरं प्रति शोभने॥ 1-128-9 | + | तेन मे व्याकुलं चित्तं हृदयं दह्यतीव च॥ 1-128-16 |
− | + | विदुर उवाच | |
− | यतः प्रसुप्तं मन्येऽहं भीमं नेति हतस्तु सः। | + | मैवं वदस्व कल्याणि शेषसंरक्षणं कुरु। |
− | + | प्रत्यादिष्टो हि दुष्टात्मा शेषेऽपि प्रहरेत्तव॥ 1-128-17 | |
− | इत्युक्ता च ततः कुन्ती धर्मराजेन धीमता॥ 1-128-10 | + | दीर्घायुषस्तव सुता यथोवाच महामुनिः। |
− | + | आगमिष्यति ते पुत्रः प्रीतिं चोत्पादयिष्यति॥ 1-128-18 | |
− | हा हेति कृत्वा सम्भ्रान्ता प्रत्युवाच युधिष्ठिरम्। | + | वैशम्पायन उवाच |
− | + | एवमुक्त्वा ययौ विद्वान्विदुरः स्वं निवेशनम्। | |
− | न पुत्र भीमं पश्यामि न मामभ्येत्यसाविति॥ 1-128-11 | + | कुन्ती चिन्तापरा भूत्वा सहासीना सुतैर्गृहे॥ 1-128-19 |
− | + | ततोऽष्टमे तु दिवसे प्रत्यबुध्यत पाण्डवः। | |
− | शीघ्रमन्वेषणे यत्नं कुरु तस्यानुजैः सह। | + | तस्मिंस्तदा रसे जीर्णे सोऽप्रमेयबलो बली॥ 1-128-20 |
− | + | तं दृष्ट्वा प्रतिबुध्यन्तं पाण्डवं ते भुजङ्गमाः। | |
− | इत्युक्त्वा तनयं ज्येष्ठं हृदयेन विदूयता॥ 1-128-12 | + | सान्त्वयामासुरव्यग्रा वचनं चेदमब्रुवन्॥ 1-128-21 |
− | + | यत्ते पीतो महाबाहो रसोऽयं वीर्यसम्भृतः। | |
− | क्षत्तारमानाय्य तदा कुन्ती वचनमब्रवीत्। | + | तस्मान्नागायुतबलो रणेऽधृष्यो भविष्यसि॥ 1-128-22 |
− | + | गच्छाद्य त्वं च स्वगृहं स्नातो दिव्यजलेन हि [दिव्यैरिमैर्जलैः]। | |
− | क्व गतो भगव[वा]न्क्षत्तर्भीमसेनो न दृश्यते॥ 1-128-13 | + | भ्रातरस्तेऽनुतप्यन्ति त्वां विना कुरुपुङ्गव॥ 1-128-23 |
− | + | ततः स्नातो महाबाहुः शुचिः शुक्लाम्बरस्रजः। | |
− | उद्यानान्निर्गताः सर्वे भ्रातरो भ्रातृभिः सह। | + | ततो नागस्य भवने कृतकौतुकमङ्गलः॥ 1-128-24 |
− | + | ओषधीभिर्विषघ्नीभिः सुरभीभिर्विशेषतः। | |
− | तत्रैकस्तु महाबाहुर्भीमो नाभ्येति मामिह॥ 1-128-14 | + | भुक्तवान्परमान्नं च नागैर्दत्तं महाबलैः[लः]॥ 1-128-25 |
− | + | पूजितो भुजगैर्वीर आशीर्भि[भि]श्चाभिनन्दितः। | |
− | न च प्रीणयते चक्षुः सदा दुर्योधनस्य सः। | + | दिव्याभरणसञ्छन्नो नागानामन्त्र्य पाण्डवः॥ 1-128-26 |
− | + | उदतिष्ठत्प्रहृष्टात्मा नागलोकादरिन्दमः। | |
− | क्रूरोऽसौ दुर्मतिः क्षुद्रो राज्यलुब्धोऽनपत्रपः॥ 1-128-15 | + | उत्क्षिप्तः स तु नागेन जलाज्जलरुहेक्षणः॥ 1-128-27 |
− | + | तस्मिन्नेव वनोद्देशे स्थापितः कुरुनन्दनः। | |
− | निहन्यादपि तं वीरं जातमन्युः सुयोधनः। | + | ते चान्तर्दधिरे नागाः पाण्डवस्यैव पश्यतः॥ 1-128-28 |
− | + | तत उत्थाय कौन्तेयो भीमसेनो महाबलः। | |
− | तेन मे व्याकुलं चित्तं हृदयं दह्यतीव च॥ 1-128-16 | + | आजगाम महाबाहुर्मातुरन्तिकमञ्जसा॥ 1-128-29 |
− | + | ततोऽभिवाद्य जननीं ज्येष्ठं भ्रातरमेव च। | |
− | विदुर उवाच | + | कनीयसः समाघ्राय शिरःस्वरिविमर्दनः॥ 1-128-30 |
− | + | तैश्चापि सम्परिष्वक्तः सह मात्रा नरर्षभैः। | |
− | मैवं वदस्व कल्याणि शेषसंरक्षणं कुरु। | + | अन्योन्यगतसौहार्दाद्दिष्ट्या दिष्ट्येति चाब्रुवन्॥ 1-128-31 |
− | + | ततस्तत्सर्वमाचष्ट दुर्योधनविचेष्टितम्। | |
− | प्रत्यादिष्टो हि दुष्टात्मा शेषेऽपि प्रहरेत्तव॥ 1-128-17 | + | भ्रातॄणां भीमसेनश्च महाबलपराक्रमः॥ 1-128-32 |
− | + | नागलोके च यद्वृत्तं गुणदोषमशेषतः। | |
− | दीर्घायुषस्तव सुता यथोवाच महामुनिः। | + | तच्च सर्वमशेषेण कथयामास पाण्डवः॥ 1-128-33 |
− | + | ततो युधिष्ठिरो राजा भीममाह वचोऽर्थवत्। | |
− | आगमिष्यति ते पुत्रः प्रीतिं चोत्पादयिष्यति॥ 1-128-18 | + | तूष्णीं भव न ते जल्प[ल्प्य]मिदं कार्यं कथञ्चन॥ 1-128-34 |
− | + | इतः प्रभृति कौन्तेया रक्षतान्योन्य मादृताः। | |
− | वैशम्पायन उवाच | + | एवमुक्त्वा महाबाहुर्धर्मराजो युधिष्ठिरः॥ 1-128-35 |
− | + | भ्रातृभिः सहितः सर्वैरप्रमत्तोऽभवत्तदा। | |
− | एवमुक्त्वा ययौ विद्वान्विदुरः स्वं निवेशनम्। | + | कुमारान्क्रीडमानांस्तान्दृष्ट्वा राजाच[ति]दुर्मदान्॥ 1-128-36 |
− | + | (सारथिं चास्य दयितमपहस्तेन जघ्निवान्। | |
− | कुन्ती चिन्तापरा भूत्वा सहासीना सुतैर्गृहे॥ 1-128-19 | + | धर्मात्मा विदुरस्तेषां पार्थानां प्रददौ मतिम्॥ |
− | + | भोजने भीमसेनस्य पुनः प्राक्षेपयद्विषम्। | |
− | ततोऽष्टमे तु दिवसे प्रत्यबुध्यत पाण्डवः। | + | कालकूटं नवं तीक्ष्णं सम्भृतं लोमहर्षणम्॥ |
− | + | वैश्यापुत्रस्तदाचष्ट पार्थानां हितकाम्यया। | |
− | तस्मिंस्तदा रसे जीर्णे सोऽप्रमेयबलो बली॥ 1-128-20 | + | तच्चापि भुक्त्वाजरयदविकारं वृकोदरः॥ |
− | + | विकारं न ह्यजनयत्सुतीक्ष्णमपि तद्विषम्। | |
− | तं दृष्ट्वा प्रतिबुध्यन्तं पाण्डवं ते भुजङ्गमाः। | + | भीमसंहनने भीमे अजीर्यत वृकोदरे॥ |
− | + | एवं दुर्योधनः कर्णः शकुनिश्चापि सौबलः। | |
− | सान्त्वयामासुरव्यग्रा वचनं चेदमब्रुवन्॥ 1-128-21 | + | अनेकैरभ्युपायैस्ताञ्जिघांसन्ति स्म पाण्डवान्॥ 1-128-37 |
− | + | पाण्डवाश्चापि तत्सर्वं प्रत्यजानन्नमर्षिताः। | |
− | यत्ते पीतो महाबाहो रसोऽयं वीर्यसम्भृतः। | + | उद्भावनमकुर्वन्तो विदुरस्य मते स्थिताः॥ 1-128-38 |
− | + | गुरुं शिक्षार्थमन्विष्य गौतमे[मं] तान्न्यवेदयत्। | |
− | तस्मान्नागायुतबलो रणेऽधृष्यो भविष्यसि॥ 1-128-22 | + | शरस्तम्बे समुद्भूतं वेदशास्त्रार्थपारगम्॥ 1-128-39 |
− | + | (अधिजग्मुश्च कुरवो धनुर्वेदं कृपात्तु ते॥) | |
− | गच्छाद्य त्वं च स्वगृहं स्नातो दिव्यजलेन हि [दिव्यैरिमैर्जलैः]। | + | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि भीमप्रत्यागमने अष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 128॥ |
− | + | [[:Category:Bhimsen|''Bhimsen'']] [[:Category:Kunti|''Kunti'']] [[:Category:anxiety|''anxiety'']] [[:Category:Nagalok|''Nagalok'']] | |
− | भ्रातरस्तेऽनुतप्यन्ति त्वां विना कुरुपुङ्गव॥ 1-128-23 | + | [[:Category:arrival|''arrival'']] [[:Category:Duryodhana|''Duryodhana'']] [[:Category:mischief|''mischief'']] |
− | + | [[:Category:भीमसेन|''भीमसेन'']] [[:Category:कुन्ती|''कुन्ती'']] [[:Category:चिंता|''चिंता'']] [[:Category:नागलोक|''नागलोक'']] | |
− | ततः स्नातो महाबाहुः शुचिः शुक्लाम्बरस्रजः। | + | [[:Category:आगमन|''आगमन'']] [[:Category:दुर्योधन|''दुर्योधन'']] [[:Category:कुचेष्टा|''कुचेष्टा'']] |
− | |||
− | ततो नागस्य भवने कृतकौतुकमङ्गलः॥ 1-128-24 | ||
− | |||
− | ओषधीभिर्विषघ्नीभिः सुरभीभिर्विशेषतः। | ||
− | |||
− | भुक्तवान्परमान्नं च नागैर्दत्तं महाबलैः[लः]॥ 1-128-25 | ||
− | |||
− | पूजितो भुजगैर्वीर आशीर्भि[भि]श्चाभिनन्दितः। | ||
− | |||
− | दिव्याभरणसञ्छन्नो नागानामन्त्र्य पाण्डवः॥ 1-128-26 | ||
− | |||
− | उदतिष्ठत्प्रहृष्टात्मा नागलोकादरिन्दमः। | ||
− | |||
− | उत्क्षिप्तः स तु नागेन जलाज्जलरुहेक्षणः॥ 1-128-27 | ||
− | |||
− | तस्मिन्नेव वनोद्देशे स्थापितः कुरुनन्दनः। | ||
− | |||
− | ते चान्तर्दधिरे नागाः पाण्डवस्यैव पश्यतः॥ 1-128-28 | ||
− | |||
− | तत उत्थाय कौन्तेयो भीमसेनो महाबलः। | ||
− | |||
− | आजगाम महाबाहुर्मातुरन्तिकमञ्जसा॥ 1-128-29 | ||
− | |||
− | ततोऽभिवाद्य जननीं ज्येष्ठं भ्रातरमेव च। | ||
− | |||
− | कनीयसः समाघ्राय शिरःस्वरिविमर्दनः॥ 1-128-30 | ||
− | |||
− | तैश्चापि सम्परिष्वक्तः सह मात्रा नरर्षभैः। | ||
− | |||
− | अन्योन्यगतसौहार्दाद्दिष्ट्या दिष्ट्येति चाब्रुवन्॥ 1-128-31 | ||
− | |||
− | ततस्तत्सर्वमाचष्ट दुर्योधनविचेष्टितम्। | ||
− | |||
− | भ्रातॄणां भीमसेनश्च महाबलपराक्रमः॥ 1-128-32 | ||
− | |||
− | नागलोके च यद्वृत्तं गुणदोषमशेषतः। | ||
− | |||
− | तच्च सर्वमशेषेण कथयामास पाण्डवः॥ 1-128-33 | ||
− | |||
− | ततो युधिष्ठिरो राजा भीममाह वचोऽर्थवत्। | ||
− | |||
− | तूष्णीं भव न ते जल्प[ल्प्य]मिदं कार्यं कथञ्चन॥ 1-128-34 | ||
− | |||
− | इतः प्रभृति कौन्तेया रक्षतान्योन्य मादृताः। | ||
− | |||
− | एवमुक्त्वा महाबाहुर्धर्मराजो युधिष्ठिरः॥ 1-128-35 | ||
− | |||
− | भ्रातृभिः सहितः सर्वैरप्रमत्तोऽभवत्तदा। | ||
− | |||
− | कुमारान्क्रीडमानांस्तान्दृष्ट्वा राजाच[ति]दुर्मदान्॥ 1-128-36 | ||
− | |||
− | (सारथिं चास्य दयितमपहस्तेन जघ्निवान्। | ||
− | |||
− | धर्मात्मा विदुरस्तेषां पार्थानां प्रददौ मतिम्॥ | ||
− | |||
− | भोजने भीमसेनस्य पुनः प्राक्षेपयद्विषम्। | ||
− | |||
− | कालकूटं नवं तीक्ष्णं सम्भृतं लोमहर्षणम्॥ | ||
− | |||
− | वैश्यापुत्रस्तदाचष्ट पार्थानां हितकाम्यया। | ||
− | |||
− | तच्चापि भुक्त्वाजरयदविकारं वृकोदरः॥ | ||
− | |||
− | विकारं न ह्यजनयत्सुतीक्ष्णमपि तद्विषम्। | ||
− | |||
− | भीमसंहनने भीमे अजीर्यत वृकोदरे॥ | ||
− | |||
− | एवं दुर्योधनः कर्णः शकुनिश्चापि सौबलः। | ||
− | |||
− | अनेकैरभ्युपायैस्ताञ्जिघांसन्ति स्म पाण्डवान्॥ 1-128-37 | ||
− | |||
− | पाण्डवाश्चापि तत्सर्वं प्रत्यजानन्नमर्षिताः। | ||
− | |||
− | उद्भावनमकुर्वन्तो विदुरस्य मते स्थिताः॥ 1-128-38 | ||
− | |||
− | गुरुं शिक्षार्थमन्विष्य गौतमे[मं] तान्न्यवेदयत्। | ||
− | |||
− | शरस्तम्बे समुद्भूतं वेदशास्त्रार्थपारगम्॥ 1-128-39 | ||
− | |||
− | (अधिजग्मुश्च कुरवो धनुर्वेदं कृपात्तु ते॥) | ||
− | |||
− | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि भीमप्रत्यागमने अष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 128॥ |
Latest revision as of 21:11, 30 July 2019
वैशम्पायन उवाच ततस्ते कौरवाः सर्वे विना भीमं च पाण्डवाः। वृत्तक्रीडाविहारास्तु प्रतस्थुर्गजसाह्वयम्॥ 1-128-1 रथैर्गजैस्तथा चाश्वैर्यानैश्चान्यैरनेकशः। ब्रुवन्तो भीमसेनस्तु यातो ह्यग्रत एव नः॥ 1-128-2 ततो दुर्योधनः पापस्तत्रापश्यन्वृकोदरम्। भ्रातृभिः सहितो हृष्टो नगरं प्रविवेश ह॥ 1-128-3 युधिष्ठिरस्तु धर्मात्मा ह्यविदन्पापमात्मनि। स्वेनानुमानेन परं साधुं समनुपश्यति॥ 1-128-4 सोऽभ्युपेत्य तदा पार्थो मातरं भ्रातृवत्सलः। अभिवाद्याब्रवीत्कुन्तीमम्ब भीम इहागतः॥ 1-128-5 क्व गतो भविता मातर्नेह पश्यामि तं शुभे। उद्यानानि वनं चैव विचितानि समन्ततः॥ 1-128-6 तदर्थं न च तं वीरं दृष्टवन्तो वृकोदरम्। मन्यमानास्ततः सर्वे यातो नः पूर्वमेव सः॥ 1-128-7 आगताः स्म महाभागे व्याकुलेनान्तरात्मना। इहागम्य क्व नु गतस्त्वया वा प्रेषितः क्व नु॥ 1-128-8 कथयस्व महाबाहुं भीमसेनं यशस्विनि। न हि मे शुध्यते भावस्तं वीरं प्रति शोभने॥ 1-128-9 यतः प्रसुप्तं मन्येऽहं भीमं नेति हतस्तु सः। इत्युक्ता च ततः कुन्ती धर्मराजेन धीमता॥ 1-128-10 हा हेति कृत्वा सम्भ्रान्ता प्रत्युवाच युधिष्ठिरम्। न पुत्र भीमं पश्यामि न मामभ्येत्यसाविति॥ 1-128-11 शीघ्रमन्वेषणे यत्नं कुरु तस्यानुजैः सह। इत्युक्त्वा तनयं ज्येष्ठं हृदयेन विदूयता॥ 1-128-12 क्षत्तारमानाय्य तदा कुन्ती वचनमब्रवीत्। क्व गतो भगव[वा]न्क्षत्तर्भीमसेनो न दृश्यते॥ 1-128-13 उद्यानान्निर्गताः सर्वे भ्रातरो भ्रातृभिः सह। तत्रैकस्तु महाबाहुर्भीमो नाभ्येति मामिह॥ 1-128-14 न च प्रीणयते चक्षुः सदा दुर्योधनस्य सः। क्रूरोऽसौ दुर्मतिः क्षुद्रो राज्यलुब्धोऽनपत्रपः॥ 1-128-15 निहन्यादपि तं वीरं जातमन्युः सुयोधनः। तेन मे व्याकुलं चित्तं हृदयं दह्यतीव च॥ 1-128-16 विदुर उवाच मैवं वदस्व कल्याणि शेषसंरक्षणं कुरु। प्रत्यादिष्टो हि दुष्टात्मा शेषेऽपि प्रहरेत्तव॥ 1-128-17 दीर्घायुषस्तव सुता यथोवाच महामुनिः। आगमिष्यति ते पुत्रः प्रीतिं चोत्पादयिष्यति॥ 1-128-18 वैशम्पायन उवाच एवमुक्त्वा ययौ विद्वान्विदुरः स्वं निवेशनम्। कुन्ती चिन्तापरा भूत्वा सहासीना सुतैर्गृहे॥ 1-128-19 ततोऽष्टमे तु दिवसे प्रत्यबुध्यत पाण्डवः। तस्मिंस्तदा रसे जीर्णे सोऽप्रमेयबलो बली॥ 1-128-20 तं दृष्ट्वा प्रतिबुध्यन्तं पाण्डवं ते भुजङ्गमाः। सान्त्वयामासुरव्यग्रा वचनं चेदमब्रुवन्॥ 1-128-21 यत्ते पीतो महाबाहो रसोऽयं वीर्यसम्भृतः। तस्मान्नागायुतबलो रणेऽधृष्यो भविष्यसि॥ 1-128-22 गच्छाद्य त्वं च स्वगृहं स्नातो दिव्यजलेन हि [दिव्यैरिमैर्जलैः]। भ्रातरस्तेऽनुतप्यन्ति त्वां विना कुरुपुङ्गव॥ 1-128-23 ततः स्नातो महाबाहुः शुचिः शुक्लाम्बरस्रजः। ततो नागस्य भवने कृतकौतुकमङ्गलः॥ 1-128-24 ओषधीभिर्विषघ्नीभिः सुरभीभिर्विशेषतः। भुक्तवान्परमान्नं च नागैर्दत्तं महाबलैः[लः]॥ 1-128-25 पूजितो भुजगैर्वीर आशीर्भि[भि]श्चाभिनन्दितः। दिव्याभरणसञ्छन्नो नागानामन्त्र्य पाण्डवः॥ 1-128-26 उदतिष्ठत्प्रहृष्टात्मा नागलोकादरिन्दमः। उत्क्षिप्तः स तु नागेन जलाज्जलरुहेक्षणः॥ 1-128-27 तस्मिन्नेव वनोद्देशे स्थापितः कुरुनन्दनः। ते चान्तर्दधिरे नागाः पाण्डवस्यैव पश्यतः॥ 1-128-28 तत उत्थाय कौन्तेयो भीमसेनो महाबलः। आजगाम महाबाहुर्मातुरन्तिकमञ्जसा॥ 1-128-29 ततोऽभिवाद्य जननीं ज्येष्ठं भ्रातरमेव च। कनीयसः समाघ्राय शिरःस्वरिविमर्दनः॥ 1-128-30 तैश्चापि सम्परिष्वक्तः सह मात्रा नरर्षभैः। अन्योन्यगतसौहार्दाद्दिष्ट्या दिष्ट्येति चाब्रुवन्॥ 1-128-31 ततस्तत्सर्वमाचष्ट दुर्योधनविचेष्टितम्। भ्रातॄणां भीमसेनश्च महाबलपराक्रमः॥ 1-128-32 नागलोके च यद्वृत्तं गुणदोषमशेषतः। तच्च सर्वमशेषेण कथयामास पाण्डवः॥ 1-128-33 ततो युधिष्ठिरो राजा भीममाह वचोऽर्थवत्। तूष्णीं भव न ते जल्प[ल्प्य]मिदं कार्यं कथञ्चन॥ 1-128-34 इतः प्रभृति कौन्तेया रक्षतान्योन्य मादृताः। एवमुक्त्वा महाबाहुर्धर्मराजो युधिष्ठिरः॥ 1-128-35 भ्रातृभिः सहितः सर्वैरप्रमत्तोऽभवत्तदा। कुमारान्क्रीडमानांस्तान्दृष्ट्वा राजाच[ति]दुर्मदान्॥ 1-128-36 (सारथिं चास्य दयितमपहस्तेन जघ्निवान्। धर्मात्मा विदुरस्तेषां पार्थानां प्रददौ मतिम्॥ भोजने भीमसेनस्य पुनः प्राक्षेपयद्विषम्। कालकूटं नवं तीक्ष्णं सम्भृतं लोमहर्षणम्॥ वैश्यापुत्रस्तदाचष्ट पार्थानां हितकाम्यया। तच्चापि भुक्त्वाजरयदविकारं वृकोदरः॥ विकारं न ह्यजनयत्सुतीक्ष्णमपि तद्विषम्। भीमसंहनने भीमे अजीर्यत वृकोदरे॥ एवं दुर्योधनः कर्णः शकुनिश्चापि सौबलः। अनेकैरभ्युपायैस्ताञ्जिघांसन्ति स्म पाण्डवान्॥ 1-128-37 पाण्डवाश्चापि तत्सर्वं प्रत्यजानन्नमर्षिताः। उद्भावनमकुर्वन्तो विदुरस्य मते स्थिताः॥ 1-128-38 गुरुं शिक्षार्थमन्विष्य गौतमे[मं] तान्न्यवेदयत्। शरस्तम्बे समुद्भूतं वेदशास्त्रार्थपारगम्॥ 1-128-39 (अधिजग्मुश्च कुरवो धनुर्वेदं कृपात्तु ते॥) इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि भीमप्रत्यागमने अष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 128॥ Bhimsen Kunti anxiety Nagalok arrival Duryodhana mischief भीमसेन कुन्ती चिंता नागलोक आगमन दुर्योधन कुचेष्टा