Difference between revisions of "काम पुरुषार्थ और शिक्षा"

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Revision as of 01:04, 21 July 2019

काम पुरुषार्थ[1]

आत्मतत्व के मन में संकल्प जगा 'एकोहम्‌ बहुस्याम' और इस सृष्टि का सृजन हुआ। सृष्टि का सृजन परमात्मा की इच्छाशक्ति का परिणाम है। यह इच्छाशक्ति मनुष्य के अन्तःकरण में काम बनकर निवास कर रही है । अर्थात्‌ काम मनुष्य के जीवन का केन्द्रवर्ती तत्व है। उसकी उपेक्षा करना असम्भव है।

काम का अर्थ है इच्छा। मनुष्य का मन इच्छाओं का आगर है। इच्छापूर्ति करना मनुष्य के मन का लक्ष्य है। इच्छापूर्ति करने के लिये मन अथक और अखण्ड प्रयास करता है। मन इंद्रियों का स्वामी है। इसलिये वह इंद्रियों को भी अपनी इच्छापूर्ति के काम में लगाता है। इंद्रियाँ अपने विषयों की ओर आकर्षित होती हैं। वे अपने स्वामी के लिये सदैव कार्यरत होती हैं। फूलों तथा अन्य पदार्थों की मधुर गन्ध को नासिका मन तक पहुँचाती हैं।

कान मधुर ध्वनियों को मन तक पहुँचाकर उसे सुख देते हैं। रसना विविध पदार्थों का स्वाद लेकर मन को सुख पहुँचाती है। त्वचा अनेक प्रकार के मुलायम स्पर्श के अनुभव से मन को सुख पहुँचाती है। आँखें अनेक सुन्दर दृश्यों को ग्रहण कर मन को सुख पहुँचाती हैं। मनुष्य के बाहर का जो विश्व है, उसके सारे सुखद अनुभव इंद्रियों के माध्यम से मन को प्राप्त होते हैं और मन उनका उपभोग करने में निरन्तर लगा रहता है।

परन्तु मन का यह सुख एकांगी नहीं है। सुन्दर अनुभवों के साथ असुन्दर अनुभव भी जुड़े हुए हैं। गन्ध यदि सुगन्ध है तो दुर्गन्ध भी है। स्वाद यदि मधुर है तो कटु भी है। दृश्य यदि सुन्दर है तो कुरूप भी है। ध्वनि यदि मधुर है तो कर्कश भी है। स्पर्श यदि मुलायम है तो कठोर भी है। इसके अनुभव मन तक पहुँचते हैं तो वे सुख के स्थान पर दुःख देते हैं। मन इनसे विमुख होने का अथवा इन्हें दूर रखने का भी प्रयास करता है। वह सदैव सुख चाहता है और दुःख से दूर रहना चाहता है। परन्तु ऐसा होता नहीं है। सुख है तो दुःख भी है ही। इसलिये मन का सुख प्राप्त करने की और दुःख से दूर रहने की छटपटाहट निरन्तर चलती रहती है।

इंद्रियों से प्राप्त होने वाले इन सुखों के अनुभवों से भी मन का कामसंसार बहुत विशाल है। काम, मन में लोभ, मोह, मद, मत्सर, क्रोध, आदि का रूप धारण कर के रहता है। (यहाँ काम का अर्थ जातीय सुख है )

लोभ से प्रेरित होकर वह परिग्रह करता है। वह आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करने में लगा रहता है। मोह से प्रेरित होकर वह पदार्थों में, व्यक्तियों में, अनुभवों में आसक्त होता है। आसक्ति के कारण वह हमेशा उनके संग में ही रहना चाहता है । संग से सुख मिलता है और दूर जाना हुआ तो दुःखी होता है । मद से प्रेरित होकर वह सौजन्य भूल जाता है और दूसरों से पारुश्यपूर्ण अर्थात्‌ कठोर व्यवहार करता है। लोगों को दुःख पहुँचाता है। मत्सर से प्रेरित होकर वह सुख पहुँचाने वाली वस्तुयें केवल अपने ही पास हो ऐसा चाहता है।

अपने पास नहीं है और दूसरे के पास है तो उसे दुःख होता है। अपने पास है और दूसरे के पास है तो भी उसे दुःख होता है। अपने पास है और दूसरे के पास नहीं है तो उसे सुख मिलता है। मन में कामसुख की इच्छा भी सदैव रहती है और वह विविध रूप धारण करती है। मन को सुख देने वाली बात यदि न हो तो वह दुःखी होता है और दुःख क्रोध में परिवर्तित होता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर मनुष्य के षड रिपु कहलाते हैं। वे सब मन में वास करते हैं और मनुष्य को अनेक प्रकार के क्रियाकलाप करने के लिये प्रेरित करते हैं। मन जिस सुख की इच्छा करता है उसके चलते मनुष्य को मान, यश, गौरव, कीर्ति आदि की अपेक्षा निरन्तर बनी रहती है। इन्हें प्राप्त करने हेतु भी वह निरन्तर प्रयास करता रहता है ।

मनुष्यों के ऐसे प्रयासों से संघर्ष होता है। संघर्ष हिंसा का रूप धारण करता है । हिंसा विनाश का कारण बनती है। हमारे आसपास के विश्व में हम संघर्ष, हिंसा और विनाश देख ही रहे हैं। इन सबका मूल काम ही है।

काम का एक अत्यंत मोहक और आकर्षक रूप भी है। ज्ञानेन्द्रियों को अनुभव में आने वाले शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध के जगत में मन अपना एक सुन्दर और मधुर संसार निर्माण करता है। निर्मिति के इस काम में वह कर्मेन्द्रियों और बुद्धि को भी लगाता है। अपनी आवश्यकताओं को वह सुख देने वाले अनेक रूपों में प्राप्त करना चाहता है। इस वैविध्य के लिये उसके पास कल्पनाशक्ति है। अन्न उसके शरीर के पोषण के लिये आवश्यक है परन्तु काम उस अन्न को विभिन्न स्वाद से युक्त असंख्य खाद्य पदार्थों के रूप में प्राप्त करता है। वस्त्र उसके शरीर की रक्षा हेतु आवश्यक है परन्तु काम अनेक रंगों और आकृतियों से तथा अनेक प्रकार के आकारों और प्रकारों से सुशोभित करता है। आवास उसकी सुरक्षा के लिये आवश्यक है परन्तु काम उस आवास को अनेक प्रकार के आकार और प्रकार प्रदान कर अनेक प्रकार के विलासों और सुविधाओं के अनुकूल बनाता है।

काम की इस प्रवृत्ति से ही अनेक प्रकार की कलाओं और कारीगरियों का विकास हुआ है। कला और कारीगरी के क्षेत्र में मनुष्य ने उत्कृष्टता प्राप्त की है और कालजयी कलाकृतियों का सृजन किया है। संगीत, चित्रकला, काव्य, शिल्प, स्थापत्य आदि के अद्भुत आविष्कार इस विश्व की शोभा बढ़ाते हैं। मनुष्य के देह को अनेक प्रकार के सौन्दर्य प्रसाधन और अनेक प्रकार के वस्त्रालंकार सुशोभित करते हैं ।

इसी में से अनेक प्रकार के शास्त्रों की रचना हुई है। अनेक प्रकार के उद्योगों का विकास हुआ है। अनेक प्रकार की शैलियों का विधान बना है। अनेक उत्सवों के आयोजन की परम्परा बनी है। दिनचर्या में, ऋतुचर्या में, जीवनचर्या में मनुष्य ने असंख्य प्रकार के आनन्द प्रमोद के आयोजनों को जोड़ दिया है उन सबका भी मूल प्रेरक तत्व काम ही है। मनुष्य इस आनन्दप्रमोद के संसार में इतना आकण्ठ डूब जाता है कि इसे ही अपना जीवनलक्ष्य मान लेता है। इन्हें प्राप्त करने का प्रयास करना ही उसे परम पुरुषार्थ लगता है। इसे प्राप्त कर लिया तो उसे जीवन सार्थक हो गया ऐसा लगता है।

यह सारा संसार काम का ही आविष्कार है। भगवान शंकराचार्य इसे मनोराज्य कहते हैं और उसे मिथ्या मानते हैं। इसमें जितना भी सुख है वह सुख का आभास है, अपने परिणाम में तो वह दुःख ही है। हमारे सामाजिक सम्बन्ध, हमारी विभिन्न व्यवस्थायें, हमारे सारे शास्त्र इस संसार के ही अन्तर्गत अपना व्यवहार करते हैं।

काम मन का रूप धारण कर हमारे अस्तित्व का अंग बना है। वह अत्यन्त बलवान है, जिद्दी है, आग्रही है, प्रभावी है। उसके ऊपर विजय पाना अत्यन्त कठिन है। उसके ऊपर विजय पाना है, ऐसा विचार भी हमारे मन में नहीं आता है। काम अपनी संतुष्टि के लिये इन्द्रियां, शरीर, बुद्धि आदि किसी की भी चिंता नहीं करता । स्वाद की संतुष्टि के लिये वह ऐसी कोई भी वस्तु खाने से परहेज नहीं करता जिससे स्वास्थ्य खराब हो । इंद्रियाँ उसके लिये उपभोग के माध्यम हैं तो भी वह उनकी सुरक्षा की चिंता किए बिना विषयों का सुख लेता रहता है । इस काम की संतुष्टि के लिये बुद्धि अपनी सारी शक्ति खर्च करती है। बुद्धि, कल्पनाशक्ति और इन्द्रियों की कुशलता का आविष्कार इतना चमत्कारिक होता है कि विश्व चकित हो जाता है ।

मनुष्य इस विश्व से अलग होना नहीं चाहता। जन्मजन्मांतर में भी वह यही सुख चाहता है। वास्तव में काम से प्रेरित होकर जो भी क्रियाकलाप हम करते हैं उसी से हमारा भाग्य बनता है, उसी से संस्कार बनते हैं। वे क्रियाकलाप हमारे कर्म होते हैं। उन कर्मों के फल होते हैं। उन कर्मफलों का भोग करने के लिये पुनर्जन्म होता है। कर्म, कर्मफल, फलों का भोग, उन्हें भोगते समय किए जाने वाले नए कर्म, इस प्रकार जन्मजन्मांतर की यात्रा चलती रहती है। सामान्य लोग जन्मजन्मांतर की यात्रा से मुक्त होना नहीं चाहते हैं। वे भोगों के लिये पुन: पुन: आना चाहते हैं। वे इसे बन्धन नहीं मानते। परन्तु अनुभवी और जानकार लोग इस संसार को, कामनामय और दुःखमय ही मानते हैं और उससे मुक्ति चाहते हैं।

क्या काम का यह संसार इतना हेय है ? क्या उसका तिरस्कार कर उसे छोड़ देना चाहिये ? क्या उसमें दुःख ही दुःख है ? यदि वह इतना तिरस्कार करने योग्य है तो उसे परमात्मा ने बनाया ही क्यों ?

इस सम्बन्ध में दो रास्ते हैं। एक है, काम का पूर्ण त्याग करना। "मुझे कुछ नहीं चाहिये" ऐसा संकल्प कर अपनी आवश्यकताओं को कम करते जाना और धीरे धीरे निःशेष करते जाना। ऐसा त्याग करने वाला भारत में संन्यासी कहलाता है। एक संन्यासी की न्यूनतम आवश्यकता केवल हाथ की अंजली में समाने वाली भिक्षा और वृक्ष के नीचे आश्रय 'करतल भिक्षा तरुतल वास' इतनी ही बताई जाती है। तपश्चर्या और संयम कर वह अपनी आवश्यकतायें कम करता है। वह अपने कुटुंब को छोड़ता है। वह अपने नाम और अन्य सारी पहचानों को छोड़ता है। परन्तु इस प्रकार सारे पदार्थों का त्याग करना सरल नहीं है। वह अत्यन्त कठिन है। साथ ही उसमें एक खतरा भी है । सारे पदार्थों का त्याग कर संन्यासी बन जाने के बाद भी कब काम हावी हो जाएगा यह कोई निश्चित नहीं कह सकता है। काम बड़ा बलवान होता है और बहुत चतुराई पूर्वक व्यक्ति को बांध लेता है। इसलिये संन्यास का मार्ग बहुत कठिन है।

दूसरा मार्ग है काम के संग का त्याग करना। इसे गीता कर्मफल का त्याग कहती है। आसक्ति कम करना, मोह कम करना, अपेक्षायें नहीं करना और निष्काम भाव से कर्म करना काम से मुक्ति का मार्ग है। इसमें काम का नहीं अपितु उसके बंधनों का त्याग करना है। काम से प्रेरित होकर जो कर्म किए जाते हैं उनका त्याग करना तो सम्भव नहीं है। एक संन्यासी को भी खाना, पीना, सोना तो होता ही है। संसार में हर व्यक्ति की अपनी एक भूमिका होती है। उस भूमिका ने अनेक कर्तव्यों का विधान बनाया है। इस कर्तव्य का पालन नहीं करने से बड़ी अव्यवस्था हो जाएगी। इसलिये कर्मों का त्याग करना ठीक नहीं है। कर्म करना ही चाहिये परन्तु उसके फल की अपेक्षा के बिना करना चाहिये। उदाहरण के लिये भोजन तो करना ही चाहिये परन्तु वह मन को स्वाद का सुख मिले इस हेतु से नहीं अपितु शरीर को पोषण दे और मन की भावनाओं को संस्कारित करें तथा सत्वशुद्धि प्राप्त करवाए, ऐसा होना चाहिये। भोजन बनाना चाहिये परन्तु वह किसी स्वार्थ या भय या विवशता से प्रेरित होकर नहीं अपितु भोजन करने वाला साक्षात्‌ भगवान है और उसके लिये भोजन बनाना उसकी और उसके माध्यम से परमात्मा की सेवा है, इस भाव से बनाना चाहिये। कर्तव्य कर्म को कभी भी नहीं छोड़ना, कर्तव्य कर्म करते समय दुःखी नहीं होना, कर्तव्य कर्म अकुशलतापूर्वक अथवा लापरवाही से नहीं करना ही निष्कामता की ओर ले जाता है। अनेक बार ऐसा होता है कि इन सारी सावधानियों के बाद भी कर्म अच्छा होता है परन्तु फल की अपेक्षा अवश्य रहती है। फल नहीं मिला तो कर्म करना भले ही न छोड़ें तो भी दुःख या शिकायत अवश्य निर्माण होती है। ऐसा होने से काम से मुक्ति नहीं मिलती और कामजनित दुःखों से भी मुक्ति नहीं मिलती।

निष्कामता साधने के लिये एक मार्ग विशेष उल्लेखनीय है और वह संसार के सभी क्रियाकलापों के लिये है। वह है काम का उन्नयन करना। उपभोग को पूजा में रूपांतरित करना उपभोग का उन्नयन है। भोजन को जठराग्नि में दी जाने वाली आहुति मानकर यज्ञ करना भोजन का उन्नयन है। मैथुन के सुख रूपी काम को प्रेम में रूपांतरित करना मैथुन का उन्नयन है। गर्भाधान को प्रार्थना में रूपांतरित करना गर्भाधान का उन्नयन है। सारी कलाओं को सौन्दर्यबोध के स्तर पर ले जाना और विलासिता से मुक्त करना कलासाधना का उन्नयन है। जीवन का लक्ष्य सुखोपभोग नहीं अपितु मोक्ष मानना जीवन का उन्नयन है।

आसक्ति को समर्पण में रूपांतरित करना आसक्ति का उन्नयन है। अर्थार्जन को समाज की सेवा में प्रयुक्त करना अर्थार्जन का उन्नयन है। हर क्रियाकलाप को अत्यन्त उत्कृष्टतापूर्वक करना यह प्रथम चरण है और इस प्रकार किए हुए क्रियाकलाप को उपासना, साधना, सेवा या पूजा में रूपांतरित करना हर क्रियाकलाप का उन्नयन है। काम जब प्रेम में रूपांतरित होता है तो शुद्ध होता है और व्यक्ति के विकास का साधन बनकर उसे मोक्ष की ओर ले जाता है।

काम का तिरस्कार करने की आवश्यकता नहीं। वह परमात्मा के व्यक्त होने के संकल्प का ही विश्वरूप है। वह अत्यन्त सामर्थ्यवान है। वह सांसारिक जीवन को समृद्ध और सुखद बनाता है। केवल इसका परिष्कार, इसका नियमन, इसका प्रेम में रूपान्तरण करना आवश्यक है।

काम का नियमन कौन कर सकता है?

एक ही वाक्य में कहा जाय तो काम का नियमन धर्म करता है।

श्री भगवान स्वयं कहते हैं[2]:

धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।7.11।।

अर्थात्‌ धर्म के अविरोधी काम भगवान की ही विभूति है। इसलिये काम का महत्व समझकर उसका उचित सम्मान करना चाहिये और उसके सामर्थ्य को समझ कर उसे नियमन में रखने के लिये प्रवृत्त होना चाहिये।

शिक्षा की भूमिका

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विकासोन्मुख और विकसित समाज का यह महत्वपूर्ण काम पुरुषार्थ अभ्युद्य का स्रोत है । सर्व प्रकार की... लक्षण है कि वह अपनी नई पीढ़ी को उचित समय पर ही भौतिक समृद्धि का क्षेत्र है। इसे व्यवस्थित करने हेतु काम पुरुषार्थ की शिक्षा दे । यह उचित समय frees शिक्षा का नियोजन होना चाहिये । काम पुरुषार्थ की शिक्षा... गर्भावस्‍था और शिशुअवस्था ही है । शिशु अवस्था में घर के आयाम इस प्रकार हैं ... का वातावरण और व्यवहार शिशु के मन को ठीक करने (१) जीवन में अनेक प्रकार से हम प्रवृत्त होते हैं। के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है । मानसिक शान्ति,

मन और शरीर हमेशा क्रियाशील रहते हैं । इन क्रियाओं के. तृप्ति, सन्तोष, उदारता, सख्यभाव आदि वातावरण और प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता होती है ।.. व्यवहार से ही ग्रहण किये जाते हैं। वे उपदेश से या स्वस्थ दृष्टिकोण का विकास करना शिक्षा का मुख्य काम... अनुशासन से नहीं सिखाये जाते । शिशु संगोपन इस विषय है। स्वस्थ दृष्टिकोण के विकास हेतु मन की शिक्षा. में बड़ा विषय है जिसका विचार स्वतन्त्र रूप से करना आवश्यक है । मन हमेशा उत्तेजना की अवस्था में रहता... चाहिये । बालक जब विद्यालय में जाता है तब वहाँ है, अशान्त रहता है । अशान्त मन को बातें सही ढंग से. विषयों की रचना, गतिविधियों का आयोजन मानसिक समज में नहीं आती हैं । अशान्त मन चिंताग्रस्त होता है। . स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिये । वह न तो किसी अनुभव का ठीक से आस्वाद ले सकता... उदाहरण के लिये आजकल सभी विद्यालयों में हर है, न ठीक से विचार कर पाता है । इसलिये मन को शांत. गतिविधि के साथ स्पर्धा जुड़ गई है। हर उपलब्धि के बनाने की शिक्षा देना अत्यन्त आवश्यक है। मन को. साथ स्पर्धा के आधार पर चयन की प्रक्रिया जुड़ी हुई है । शान्त बनाने के लिये बहुत छोटी आयु से प्रयास करने. स्पर्धा से संघर्ष और संघर्ष से हिंसा जन्म लेने वाली ही होते हैं । बालक जब माता की कोख में होता है तबसे . है । इससे काम ही भड़कने वाला है । दुर्दैव से स्पर्धा हमारे मधुर संगीत, शुभ विचार, प्रेमपूर्ण मनोभाव के संस्कार होने. समग्र जीवन, फिर चाहे व्यक्तिगत जीवन हो या सामाजिक, चाहिये । अच्छे भावों से युक्त लोरियाँ और कहानियाँ मन... का हिस्सा बन गई है । हमारी विचारप्रक्रिया का वह अंग को शान्त एवं उदार बनाने में बहुत सहयोग करती हैं ।. बन गई है । हमारे विकास के लिये वह उत्प्रसरेक का काम बालक जब कोख में होता है तब माता ने जो विचार किये करती है ऐसा हमें लगता है । इस विचार को बदलना हैं, जो आहार लिया है, बालक के विषय में जो कल्पनायें .. चाहिये । प्रारंभ विद्यालय से हो सकता है । विद्यालय से की हैं, बालक से जो अपेक्षायें की हैं;जिन लोगों का संग. स्पर्धा का तत्व पूर्ण रूप से निकाल देना चाहिये । छोटे किया है, उसका बालक के चरित्र पर गहरा प्रभाव होता... बच्चों में एकदूसरे को सहायता करने की प्रवृत्ति सहज रूप है । इसलिये हमारी परम्परा में गर्भवती की परिचर्या को. .. से होती है। बड़े होते होते हमारी व्यवस्थाओं के चलते बहुत महत्व दिया गया है । घर में अच्छे बालक का जन्म... वह नष्ट होती है और स्वार्थ, इंष्या, लोभ आदि बढ़ने हो इस दृष्टि से होने वाले माता पिता को सम्यक्‌ मार्गदर्शन. लगते हैं। पाठ्यपुस्तकों के पाठों की विषयवस्तु के दिया जाता रहा है, माता की शिक्षा का भी ध्यान रखा... माध्यम से तथा वार्तालाप के माध्यम से इन्हें पनपने से जाता रहा है और गर्भवती महिला की बहुत संभाल रखी... रोकना चाहिये । आजकल यह बात सर्वथा विस्मृत हो गई जाती रही है । जन्म लेने वाला शिशु केवल शारीरिक दृष्टि है परन्तु यह विस्मरण बहुत भारी पड़ने वाला है क्योंकि

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  1. यह विस्मरण हमें पशुता ही नहीं अपितु आसुरी वृत्ति की ओर ले जा रहा है। साथ ही संगीत मन को शान्त और सात्त्विक बनाने में बहुत उपयोगी होता है। आजकल जिस प्रकार का संगीत सुनाई देता है वैसा संगीत किसी काम का नहीं है। वह तो भड़काऊ संगीत है। भारतीय शास्त्रीय संगीत और भारतीय वाद्य मन को शान्त बनाने में बहुत सहायक होते हैं। इनका प्रयोग करना चाहिये ।
  2. मन को शान्त और सदगुणी बनाने में योग अत्यन्त उपयोगी है । विशेष रूप से यम, नियम, प्रत्याहार और ध्यान का विशेष महत्व है। आजकल योग विषय का भी विपर्यास हो गया है। योग को आसनों और शारीरिक व्यायाम का रूप दिया गया है, इसे एक चिकित्सा पद्धति बना दिया गया है और स्पर्धा का तथा प्रदर्शन का विषय बना दिया गया है। इस व्यवस्था को पूर्ण रूप से बदलना होगा। वातावरण में, व्यवस्था में और व्यवहार में सादगी, सुन्दरता, सात्विकता लाना आवश्यक है। यह मुद्दा गणवेश, बस्ता, बैठक व्यवस्था, भवनव्यवस्था आदि सभी आयामों को लागू है। साथ ही खानपान में सात्विकता अत्यन्त आवश्यक है । आजकल सात्विक भोजन बिना स्वाद का होता है, केवल बीमार लोग उसे खाते हैं ऐसा माना जाता है। बच्चों की खाने पीने की आदतों की ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया जाता है। बच्चे तो क्या बड़े भी आरोग्य और संस्कार दोनों के लिये अत्यन्त हानिकारक आहार पसन्द करते हैं। केवल आहार ही नहीं, दिनचर्या भी अस्तव्यस्त हो गई है। जिस समय जो काम करना चाहिये, जो काम जिस प्रकार से करना चाहिये उस समय पर और उस प्रकार से करने का कोई आग्रह नहीं होता। इस बात का घोर अआज्ञान है । केवल अज्ञान ही नहीं यह तो विपरीत ज्ञान है। इसे ठीक करना चाहिये ।
  3. मनोरंजन का क्षेत्र भीषण संकट निर्माण करने वाला बन गया है। फिल्म, धारावाहिक, नाच गाने के कार्यक्रम और विज्ञापन एक साथ मन के निम्नतर भावों को भड़काने वाले और वासनाओं को बढ़ाने वाले ही होते हैं। संयम को आवश्यक माना ही नहीं जाता है इसलिये उसकी शिक्षा भी किसी माध्यम से होती नहीं है। इस क्षेत्र पर आज साधु संतों, संन्यासियों, धर्माचार्यों, शिक्षकों या किसी भी समझदार लोगों का नियंत्रण या निर्देशन नहीं है। यह क्षेत्र केवल बाजार से निर्देशित होता है और कामोपभोग के लिये लोगों को भड़काकर पैसे बनाने का ही विचार करता है। इसका उपाय करने की आवश्यकता है।
  4. कामजीवन के स्वास्थ्य हेतु केवल त्याग औरसंयम ही नहीं है। आनंद प्रमोद के सारे क्रियाकलाप हैं। शिशुअवस्था से शुरू कर बड़ी आयु तक रसिकता, सौन्दर्यबोध, उच्च और संस्कारपूर्ण रुचि और आभिजात्य का विकास करना चाहिये। आज देखा जाता है कि नृत्य, गीत, खेल आदि का रस केवल अक्रिय श्रोता या दर्शक बनकर लिया जाता है। लोग गायन सुनते हैं, गाते नहीं हैं। नाटक या खेल देखते हैं, स्वयं खेलते नहीं हैं। नृत्य देखते हैं, करते नहीं। स्वादिष्ट आहार खाते हैं, बनाते नहीं हैं। ये जब भी वे गाते या नाचते हैं तब वह अत्यन्त कुरूप और भोंडा होता है। मनोरंजन के इन क्रियाकलापों में सक्रिय होने से ही सच्ची रसिकता का विकास होता है। कल्पनाशीलता और सृजनशीलता का भी विकास होता है। मन स्वच्छ और स्वस्थ होता है और काम का उन्नयन होता है। आहार, वस्त्र, अलंकार, संगीत, नृत्य, नाटक, पर्यटन आदि में संस्कारिता होनी चाहिये। इसकी शिक्षा, सम्पूर्ण शिक्षा का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह शिक्षा घर में भी देनी चाहिये और विद्यालय में भी। वास्तव में इसका मुख्य केन्द्र घर है परन्तु आज घर इस शिक्षा के लिये सक्षम नहीं होने के कारण विद्यालय को घर का भी मार्गदर्शन करने का दायित्व निभाने की आवश्यकता है ।
  5. कला और कारीगरी का रक्षण और संवर्धन करने की महती आवश्यकता है । इस दृष्टि से छात्रों को हाथ से काम करना सिखाना और हर काम को उत्तम पद्धति से कर उत्कृष्टता के स्तर तक ले जाना सिखाना चाहिये। शिक्षा केवल पढने लिखने की और लिखित परीक्षा की नहीं होती। वह हर स्तर पर प्रायोगिक होनी चाहिये।
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  7. इसके अनुकूल व्यवस्थाएँ कैसी होंगी, यह भी चाहिये । हर व्यक्ति के हाथ कुशल कारीगर होने चाहिये । शिक्षा का विषय है । महाविद्यालयीन शिक्षा का यह हर व्यक्ति का मन सेवाभाव से युक्त होना चाहिये ।.... महत्वपूर्ण विषय बनना चाहिये । चित्तशुद्धि के लिये सेवाभाव अत्यन्त आवश्यक है। (७) यौनशिक्षा भी तरुणों की शिक्षा का महत्वपूर्ण सृजनशीलता का विकास, उत्कृष्ट निर्माणशीलता, सेवाभाव, fee है । परन्तु यह सामूहिक शिक्षा का विषय नहीं है । सृजन से प्राप्त होने वाला आनन्द काम का उन्नयन करते... वह व्यक्तिगत शिक्षा का विषय है । वह शास्त्रीय रूप में हैं । इसका असर समाजजीवन पर भी पड़ता है । समाज में... विद्यालय में और व्यावहारिक रूप में परिवार में देने की एक प्रकार की शान्ति और सुरक्षा प्रस्थापित होती है । श्रेष्ठ. अनिवार्य व्यवस्था होनी चाहिये । इसके अभाव में ही समाज में संस्कारितापूर्ण समृद्धि होती है । काम gerd लोगों का कामजीवन भटक जाता है । समाज को निर्धन या दृ्रिद्र नहीं रहने देता । काम पुरुषार्थ (८) विवाह होने तक ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य समाज को आलसी भी नहीं रहने देता । परन्तु नियमन में... बनाना चाहिये । इसे नकारने वाला समाज अत्यन्त रखा गया काम, समाज को संस्कारित समृद्धि और उद्यम... असंस्कारी होता है । ब्रह्मचर्य पालन को सहज बनाने वाले को विनय से अलंकृत करता है । आहार विहार की चिन्ता करनी चाहिये । इसे आग्रहपूर्वक (६) स्त्रीपुरुष सम्बन्ध का क्षेत्र बहुत ध्यान देने योग्य. समाज की तथा छात्रों की मानसिकता में प्रतिष्ठित करना है। आज यह विशेष चिन्ता का विषय बन गया है।.. चाहिये । सामाजिक शिष्टाचार का यह एक महत्वपूर्ण अंग बलात्कार और अनाचार की मात्रा बढ़ गई है । feat .. बनना चाहिये । सुरक्षित नहीं हैं और पुरुष लज्जाहीन हो गए हैं । खियाँ भी (९) काम पुरुषार्थ के लिये शिक्षा कैसी हो इसका लजा का त्याग कर रही हैं। वसख्त्रालंकार, प्रसाधन, यहाँ अत्यन्त संक्षिप्त विवेचन किया गया है । इसके एक अंगविन्यास, वेषभूषा, बोलचाल आदि में मर्यादा नहीं. एक बिन्दु का अधिक विवेचन स्वतन्त्र रूप से करने की दिखाई देती है । उन्मुक्तता और स्वैराचार को ही स्वतन्त्रता... आवश्यकता है । शिक्षा में सर्वथा उपेक्षित यह विषय पुन: कहा जाता है । इस स्थिति में मर्यादापूर्ण व्यवहार सिखाने. स्थान प्राप्त करे इस दृष्टि से शिक्षाविदों और कि आवश्यकता है । ख्रियों के प्रति देखने का पुरुषों का... समाजहितर्चितकों को प्रयास करने चाहिये । धर्माचार्यों को दृष्टिकोण और पुरुषों के प्रति देखने का खियों का दृष्टिकोण. इस विषय को अपने उपदेश का विषय बनाना चाहिये । स्वस्थ बनाने की आवश्यकता है । समाज को टीवी चैनलों. कला, साहित्य, खेल आदि क्षेत्रों में भी इस विषय की के माध्यम से प्रस्तुत की जाने वाली सामग्री को नियंत्रित. चर्चा होनी चाहिये । सबसे मुख्य स्थान घर है। करने की आवश्यकता है । बालक बालिकाओं, किशोर. परिवारशिक्षा को एक स्वतन्त्र विषय बनाने से और उसमें किशोरियों, युवक युवतियों के परस्पर संपर्क को स्वस्थ इसे महत्वपूर्ण स्थान देने से कुछ परिणाम मिल सकता 2 | कैसे बनाया जाय इसकी शिक्षा उस उस स्तर के विद्यालयों. उच्चशिक्षा के क्षेत्र में अध्ययन और अनुसन्धान की योजना और घरों में आग्रहपूर्वक देनी चाहिये । आज इस विषय में... बनना भी आवश्यक है । लेखकों ने इस विषय को लेकर सर्वत्र उदासीनता दिखाई देती है। उसका त्याग करना... युगानुकूल स्वरूप का. साहित्य निर्माण करने की चाहिये । उसके स्थान पर विनय, सख्त्रीदाक्षिण्य (खियों के... आवश्यकता है । काम पुरुषार्थ ठीक होने से अर्थ पुरुषार्थ प्रति सम्मानजनक व्यवहार) मर्यादा आदि की शिक्षा छात्रों. भी ठीक होता है । काम और अर्थ ठीक होने से समृद्धि को प्राप्त होनी चाहिये । पतिपत्नी के सम्बन्धों को. प्राप्त होती है। सुख और आनन्द प्राप्त होते हैं। कामुकता से मुक्त कर एकात्मता की ओर विकसित करना. इहलौकिक जीवन अच्छा बनता है ।
  8. ####

References

  1. भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
  2. श्रीमद भगवदगीता 17.11