Difference between revisions of "शिक्षा सूत्र"
(लेख सम्पादित किया) |
(लेख सम्पादित किया) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
{{One source|date=March 2019}} | {{One source|date=March 2019}} | ||
− | + | यह लेख इस स्रोत से लिया गया है।<ref>भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १), | |
प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे | प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे | ||
</ref> | </ref> | ||
+ | # शिक्षा ज्ञान का व्यवस्थातन्त्र है। | ||
+ | # विद्या ज्ञान प्राप्त करने की कुशलता है। | ||
+ | # लोक में शिक्षा, विद्या और ज्ञान एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। | ||
+ | # ज्ञान ब्रह्म का स्वरूपलक्षण है। | ||
+ | # ज्ञान पवित्रतम सत्ता है। | ||
+ | # शिक्षा का अधिष्ठान अध्यात्म है। | ||
+ | # आत्मतत्व को अधिकृत करके जो भी रचना या व्यवस्था होती है वह आध्यात्मिक है । | ||
+ | # आत्मतत्व अव्यक्त है। | ||
+ | # अव्यक्त आत्मतत्व का व्यक्त रूप सृष्टि है। | ||
+ | # सृष्टि आत्मतत्व का विश्वरूप है । | ||
+ | # सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही उसकी धारणा के लिए धर्म की उत्पत्ति हुई है । | ||
+ | # धर्म विश्वनियम है । | ||
+ | # धर्म स्वभाव है । | ||
+ | # धर्म कर्तव्य है । | ||
+ | # धर्म नीति है । | ||
+ | # धर्म संप्रदाय भी है । | ||
+ | # विभिन्न संदर्भों में धर्म के विभिन्न रूप हैं । | ||
+ | # धर्म का अधिष्ठान अध्यात्म है । | ||
+ | # शिक्षा धर्मानुसारी होती है और धर्म सिखाती है । | ||
+ | # शिक्षा ज्ञानपरम्परा की वाहक है । | ||
+ | # एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होने से ज्ञान की परम्परा बनती है । | ||
+ | # गुरुकुल और कुटुंब दोनों केन्द्र ज्ञानपरम्परा के निर्वहण के केन्द्र हैं । | ||
+ | # क्रिया, संवेदन, विचार, विवेक, कर्तृत्वभोक्तृत्व, संस्कार और अनुभूति ज्ञान के ही विभिन्न स्वरूप हैं । | ||
+ | # ज्ञानार्जन के करणों से जुड़कर ही ज्ञान विभिन्न रूप धारण करता है । | ||
+ | # कर्मेन्द्रियों के साथ क्रिया, ज्ञानेन्द्रियों के साथ संवेदन, मन के साथ विचार, बुद्धि के साथ विवेक,अहंकार के साथ कर्तृत्वभोक्तृत्व, चित्त के साथ संस्कार एवं हृदय के साथ अनुभूति के रूप में ज्ञान व्यक्त होता है । | ||
+ | # जिस प्रकार अव्यक्त आत्मतत्व का व्यक्त स्वरूप ज्ञानार्जन के करण हैं उसी प्रकार आत्मस्वरूप ज्ञान के ये सब व्यक्त स्वरूप हैं । | ||
+ | # शिक्षा राष्ट्र की जीवनदृष्टि पर आधारित होती है और उस जीवनदृष्टि को पुष्ट करती है । | ||
+ | # राष्ट्र सांस्कृतिक इकाई है। वह भूमि, जन और जीवनदर्शन मिलकर बनता है । | ||
+ | # भारत की जीवनदृष्टि आध्यात्मिक है इसलिए भारतीय शिक्षा भी अध्यात्मनिष्ठ है । | ||
+ | # शिक्षा मनुष्य के जीवन के साथ सर्वभाव से जुड़ी हुई है । | ||
+ | # शिक्षा आजीवन चलती है । | ||
+ | # शिक्षा गर्भाधान से भी पूर्व से शुरू होकर अन्त्येष्टि तक चलती है । | ||
+ | # शिक्षा सर्वत्र चलती है । घर, विद्यालय और समाज शिक्षा के प्रमुख केन्द्र हैं । | ||
+ | # घर में व्यवहार की, विद्यालय में शास्त्रीय और समाज में प्रबोधनात्मक शिक्षा होती है । | ||
+ | # घर में मातापिता, विद्यालय में शिक्षक और समाज में धर्माचार्य शिक्षा के नियोजक हैं । | ||
+ | # शिक्षा चारों पुरुषार्थों, चारों आश्रमों, चारों वर्णों के लिए होती है । | ||
+ | # शिक्षा व्यक्ति और समाज दोनों के लिए होती है । | ||
+ | # शिक्षा जीवन की सभी अवस्थाओं के लिए होती है । | ||
+ | # गर्भ, शिशु, बाल, किशोर, तरुण, युवा, प्रौढ़ और वृद्ध जीवन की विभिन्न अवस्थायें हैं । | ||
+ | # शिक्षक और विद्यार्थी के मध्य जो विचार, भावना, जानकारी आदि का आदानप्रदान होता है वह शिक्षा है। | ||
+ | # शिक्षा देने वाला शिक्षक और शिक्षा लेने वाला विद्यार्थी है । | ||
+ | # गुरु, आचार्य, उपाध्याय आदि शिक्षक के विभिन्न रूप हैं । शिष्य, छात्र, अंतेवासी विद्यार्थी के विभिन्न रूप हैं । | ||
+ | # शिक्षक के कार्य को अध्यापन और विद्यार्थी के कार्य को अध्ययन कहा जाता है । दोनों मिलकर शिक्षा है । | ||
+ | # आचार्य पूर्वरूप है, अंतेवासी उत्तररूप है, दोनों में प्रवचन से सन्धान होता है और इससे विद्या निष्पन्न होती. है ऐसा उपनिषद कहते हैं । | ||
+ | शिक्षक और विद्यार्थी का संबंध मानस पिता और पुत्र | ||
+ | |||
+ | का होता है । | ||
+ | |||
+ | शिक्षा एक जीवन्त प्रक्रिया है, यान्त्रिक नहीं । | ||
+ | |||
+ | शिक्षक अध्यापन करता है और विद्यार्थी अध्ययन । | ||
+ | |||
+ | अध्यापन और अध्ययन एक ही क्रिया के दो पहलू हैं । | ||
+ | |||
+ | अध्ययन मूल क्रिया है और अध्यापन प्रेरक । | ||
+ | |||
+ | ज्ञानार्जन के करण कहते हैं । | ||
+ | |||
+ | करण दो प्रकार के होते हैं, बहि:करण और अन्त:करण । | ||
+ | |||
+ | कर्मन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियां बहि:करण हैं । | ||
+ | |||
+ | मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त अन्तःकरण हैं । | ||
+ | |||
+ | क्रिया और संवेदन बहि:करणों के विषय हैं । | ||
+ | |||
+ | विचार, विवेक, कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व तथा संस्कार | ||
+ | |||
+ | क्रमश: मन, बुद्धि,अहंकार और चित्त के विषय हैं । | ||
+ | |||
+ | आयु की अवस्था के अनुसार ज्ञानार्जन के करण सक्रिय | ||
+ | |||
+ | होते जाते हैं । | ||
+ | |||
+ | गर्भावस्था और शिशुअवस्था में चित्त, बालअवस्था में | ||
+ | |||
+ | इंद्रियाँ और मन का भावना पक्ष, किशोर अवस्था में | ||
+ | |||
+ | मन का विचार पक्ष तथा बुद्धि का निरीक्षण और परीक्षण | ||
+ | |||
+ | ५८, | ||
+ | |||
+ | ५९, | ||
+ | |||
+ | ६०, | ||
+ | |||
+ | ६१, | ||
+ | |||
+ | ६२. | ||
+ | |||
+ | qR. | ||
+ | |||
+ | &Y. | ||
+ | |||
+ | ६५, | ||
+ | |||
+ | ६६, | ||
+ | |||
+ | ay. | ||
+ | |||
+ | GC. | ||
+ | |||
+ | ६९, | ||
+ | |||
+ | ७१, | ||
+ | |||
+ | ७२, | ||
+ | |||
+ | ७३. | ||
+ | |||
+ | ७४, | ||
+ | |||
+ | ७५, | ||
+ | |||
+ | 83 | ||
+ | |||
+ | पक्ष, तरुण अवस्था में विवेक तथा | ||
+ | |||
+ | युवावस्था में अहंकार सक्रिय होता है । | ||
+ | |||
+ | युवावस्था तक पहुँचने पर ज्ञानार्जन के सभी करण सक्रिय | ||
+ | |||
+ | होते हैं । | ||
+ | |||
+ | सोलह वर्ष की आयु तक ज्ञानार्जन के करणों के विकास | ||
+ | |||
+ | की शिक्षा तथा सोलह वर्षों के बाद ज्ञानार्जन के करणों | ||
+ | |||
+ | से शिक्षा होती है । | ||
+ | |||
+ | करणों की क्षमता के अनुसार शिक्षा ग्रहण होती है । | ||
+ | |||
+ | आहार, विहार, योगाभ्यास, श्रम, सेवा, सत्संग, | ||
+ | |||
+ | स्वाध्याय आदि से करणों की क्षमता बढ़ती है । | ||
+ | |||
+ | सात्त्विक,पौष्टिक और स्वादिष्ट आहार सम्यक आहार | ||
+ | |||
+ | होता है । | ||
+ | |||
+ | दिनचर्या, कऋतुचर्या और जीवनचर्या विहार है । | ||
+ | |||
+ | यम नियम आदि अष्टांग योग का अभ्यास योगाभ्यास | ||
+ | |||
+ | है। | ||
+ | |||
+ | शरीर की शक्ति का भरपूर प्रयोग हो ऐसा कोई भी कार्य | ||
+ | |||
+ | श्रम है । | ||
+ | |||
+ | निःस्वार्थभाव से किसी दूसरे के लिए किया गया कोई | ||
+ | |||
+ | भी कार्य सेवा है । | ||
+ | |||
+ | सज्जनों का उपसेवन सत्संग है । | ||
+ | |||
+ | Aa Al पठन और उनके ऊपर मनन, चिन्तन | ||
+ | |||
+ | स्वाध्याय है । | ||
+ | |||
+ | ज्ञानार्जन के करणों का विकास करना व्यक्ति के विकास | ||
+ | |||
+ | का एक आयाम है । | ||
+ | |||
+ | .. व्यक्ति का समष्टि और सृष्टि के साथ समायोजन उसके | ||
+ | |||
+ | विकास का दूसरा आयाम है । | ||
+ | |||
+ | दोनों मिलकर समग्र विकास होता है । | ||
+ | |||
+ | अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय | ||
+ | |||
+ | आत्मा का विकास ही करणों का विकास है । | ||
+ | |||
+ | अन्नमयादि पंचात्मा ही पंचकोश हैं । | ||
+ | |||
+ | व्यक्ति का समष्टि के साथ समायोजन Hers, AAC, | ||
+ | |||
+ | राष्ट्र और विश्व ऐसे चार स्तरों पर होता 2 | | ||
+ | |||
+ | अन्नमय आत्मा शरीर है । बल, आरोग्य, कौशल, | ||
+ | |||
+ | तितिक्षा और लोच उसके विकास का स्वरूप है । | ||
+ | |||
+ | ............. page-30 ............. | ||
+ | |||
+ | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप | ||
+ | |||
+ | ७६, आहार, निद्रा, श्रम, काम और. ९८. चित्त की शुद्धि के अनुपात में ये गुण प्रकट होते हैं । | ||
+ | |||
+ | मनःशान्ति से उसका विकास होता है । ९९, अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनंदमय के परे | ||
+ | |||
+ | ७७. प्राणमय आत्मा प्राण है । एकाग्रता सन्तुलन और नियमन आत्मतत्व है । | ||
+ | |||
+ | उसके विकास का स्वरूप है । १००, उसका ही स्वरूप हृदय है । अनुभूति उसका विषय | ||
+ | |||
+ | ७८. आहार, निद्रा, भय और मैथुन उसकी चार वृत्तियाँ हैं । है। | ||
+ | |||
+ | ७९. प्राणायाम और शुद्ध वायु उसके विकास के कारक. १०१. आत्मतत्त्त . को... आत्मतत्त्त _ की... अनुभूति | ||
+ | |||
+ | तत्व हैं। आत्मतत्वरूपी हृदय में होती है । | ||
+ | |||
+ | ८०. मनोमय आत्मा मन है । विचार, भावना और इच्छा. ३१०२.शिक्षा का लक्ष्य यही अनुभूति है । | ||
+ | |||
+ | उसके स्वरूप हैं । १०३. एकात्मा की अनुभूति होने पर सर्वात्मा की अनुभूति | ||
+ | |||
+ | ८१. चंचलता, उत्तेजितता, द्ंद्रात्मकता और आसक्ति उसके होती है । | ||
+ | |||
+ | स्वभाव है । | ||
+ | |||
+ | १०४. एकात्मा की अनुभूति अहम ब्रह्मास्मि है, सर्वात्मा की | ||
+ | |||
+ | ८२. एकाग्रता, शान्ति, अनासक्ति और सद्धावना उसके सर्व खल्विद्म ब्रह्म । | ||
+ | |||
+ | विकास का स्वरूप है । १०५, प्राणी, वनस्पति और पंचमहाभूत सृष्टि है। | ||
+ | |||
+ | थक ae सेवा, a ree ” ~~ १०६, सृष्टि के प्रति एकात्मता, कृतज्ञता, दोहन और रक्षण | ||
+ | |||
+ | सात्तक आहार मन के नकास के कारक तत्व है । व्यक्ति के सृष्टि के साथ समायोजन के चरण हैं । | ||
+ | |||
+ | ८४. विज्ञानमय आत्मा बुद्धि है । | ||
+ | |||
+ | हर और १०७. ये TRIN ATE | | ||
+ | |||
+ | ८५. दर कुशाग्रता और विशालता बुद्धि के १०८. शिक्षा समाज के लिये होती है तब वह समाज को | ||
+ | |||
+ | विशेषण हैं । | ||
+ | |||
+ | श्रेष्ठ बनाती है । | ||
+ | |||
+ | ८६. विवेक बुद्धि के विकास का स्वरूप है | ९. समृद्ध और सुसंस्कृत समाज श्रेष्ठ समाज है । | ||
+ | |||
+ | ८७. . निरीक्षण, परीक्षण, तर्क, अनुमान, विश्लेषण, संश्लेषण १०९. संस्कृति र सुसस्कृत समा मा | ||
+ | |||
+ | बुद्धि के साधन हैं । ११०, के बिना समृद्धि आसुरी होती है और समृद्धि | ||
+ | |||
+ | ८८. अहंकार बुद्धि का एक और साथीदार है । के बिना संस्कृति की रक्षा नहीं हो सकती | | ||
+ | |||
+ | ८९. कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व अहंकार के लक्षण हैं । १११, श्रेष्ठ समाज में व्यक्ति, समष्टि और सृष्टि के गौरव, | ||
+ | |||
+ | ९०. आत्मनिष्ठ बुद्धि और अहंकार सदद्धि और दायित्वबोध सम्मान और स्वतन्त्रता की रक्षा होती है । | ||
+ | |||
+ | में परिणत होते हैं । ११२. शिक्षक शिक्षाक्षेत्र का अधिष्ठाता है । | ||
+ | |||
+ | ९१, आनंदमय आत्मा चित्त है । संस्कार ग्रहण करना उसका... ** रे: शिक्षा पर आए सारे संकटों को दूर करने का दायित्व | ||
+ | |||
+ | कार्य है। शिक्षक का होता है । | ||
+ | |||
+ | ९२. जन्मजान्मांतर, अनुबंश, संस्कृति और सन्निवेश के. ११४. शिक्षक की दुर्बलता से शिक्षा पर संकट आते हैं । | ||
+ | |||
+ | संस्कार होते हैं । ११५, परराष्ट्र की जीवनदृष्टि का आक्रमण और सत्ता तथा | ||
+ | |||
+ | ९३. चित्तशुद्धि करना चित्त के विकास का स्वरूप है । धन के ट्वारा शिक्षा की स्वायत्तता का हरण शिक्षा पर | ||
+ | |||
+ | ९४. सर्व प्रकार के संस्कारों का क्षय करना चित्तशुद्धि है । आए संकट हैं । | ||
+ | |||
+ | ९५. आहारशुद्धि और समाधि से चित्त शुद्ध होता है । १४१६, राष्ट्रनिष्ठा, ज्ञाननिष्ठा और विद्यार्थिनिष्ठा से शिक्षक इन | ||
+ | |||
+ | ९६, शुद्ध चित्त में आत्मतत्व प्रति्बिबित होता है । संकटों पर विजय प्राप्त कर सकता है । | ||
+ | |||
+ | ९७. शुद्ध चित्त में सहजता, प्रेम, सौंदर्यबोध, सृजनशीलता, ... १९७. राष्ट्र के जीवनदर्शन को जानना, मानना और उसके | ||
+ | |||
+ | आनंद का निवास है । अनुसार व्यवहार करना राष्ट्रनिष्ठा है । | ||
+ | |||
+ | gv | ||
+ | |||
+ | ............. page-31 ............. | ||
+ | |||
+ | पर्व १ : उपोद्धात | ||
+ | |||
+ | ११८, ज्ञान की पवित्रता, श्रेष्ठता और गुरुता की रक्षा करना... १३७. ज्ञान की समृद्धि की रक्षा करने हेतु | ||
+ | |||
+ | ज्ञाननिष्ठा है । श्रेष्ठतम विद्यार्थी को शिक्षक ने शिक्षक बनने की प्रेरणा | ||
+ | |||
+ | ११९, विद्यार्थी को जानना, उसके कल्याण हेतु प्रयास करना देनी चाहिए और उसे अपने से सवाया बनाना चाहिए | | ||
+ | |||
+ | और उसे अपने से सवाया बनाना विद्यार्थीनिष्ठा है । १३८. शिक्षक बनना उत्तम विद्यार्थी का भी लक्ष्य होना | ||
+ | |||
+ | १२०, आचार्यत्व शिक्षक का गुणलक्षण है । अपेक्षित है । | ||
+ | |||
+ | १२१. अपने आचरण से प्रेरित कर विद्यार्थी का जीवन... १३९. शिक्षक और विद्यार्थी मिलकर जहाँ अध्ययन करते हैं | ||
+ | |||
+ | बनाता है वह आचार्य है । वह स्थान विद्यालय है । | ||
+ | |||
+ | १२२. आचार्य का आचरण शाख्रनिष्ठ होता है । १४०. जब शिक्षक और विद्यार्थी स्वेच्छा, स्वतन्त्रता और | ||
+ | |||
+ | १२३. विद्यार्थी भी ज्ञाननिष्ठ, राष्ट्रनिष्ठ और आचार्यनिष्ठ होता स्वदायित्व से विद्यालय चलाते हैं तब शिक्षा स्वायत्त | ||
+ | |||
+ | है। होती है । | ||
+ | |||
+ | १२४. आचार्य की सेवा, अनुशासन, जिज्ञासा और विनय... १४१. शिक्षा की स्वायत्तता बनाये रखने का प्रमुख दायित्व | ||
+ | |||
+ | विद्यार्थी के गुणलक्षण हैं । शिक्षक का है, विद्यार्थी उसका सहभागी है और राज्य | ||
+ | |||
+ | १२५. अधीति, बोध, अभ्यास, प्रयोग और प्रसार अध्ययन तथा समाज उसके सहयोगी हैं । | ||
+ | |||
+ | की पंचपदी है । १४२. स्वायत्त शिक्षा ही राज्य और समाज का मार्गदर्शन करने | ||
+ | |||
+ | १२६. कर्मन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों से विषय को ग्रहण करना में समर्थ होती है । | ||
+ | |||
+ | अधीति है । १४३. जो राज्य और समाज शिक्षा को स्वायत्त नहीं रहने देते | ||
+ | |||
+ | १२७.मन और बुद्धि के द्वारा अधीत विषय को ग्रहण करना उस राज्य और समाज की दुर्गति होती है । | ||
+ | |||
+ | बोध है । १४४. जो शिक्षक स्वायत्तता का दायित्व नहीं लेता उस शिक्षक | ||
+ | |||
+ | १२८. जिसका बोध हुआ है उसे पुन: पुन: करना अभ्यास की राज्य और समाज से भी अधिक दुर्गति होती है । | ||
+ | |||
+ | है। १४५. राष्ट्र और विद्यार्थी दोनों को ध्यान में रखकर जो पढ़ाया | ||
+ | |||
+ | १२९, अभ्यास से बोध परिपक्क होता है । जाता है वह पाठ्यक्रम होता है । | ||
+ | |||
+ | १३०. परिपक्क बोध के अनुसार आचरण करना प्रयोग है । १४६, विद्यार्थी की अवस्था, रुचि, क्षमता और आवश्यकता | ||
+ | |||
+ | १३१, आचरण से विषय व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बनता के अनुसार जो भी पढ़ाना शिक्षक द्वारा निश्चित किया | ||
+ | |||
+ | है। जाता है वह विद्यार्थीसापेक्ष पाठ्यक्रम होता है । | ||
+ | |||
+ | १३२. स्वाध्याय और प्रवचन प्रसार के दो अंग हैं । १४७, राष्ट्र की स्थिति और आवश्यकता को ध्यान में रखकर | ||
+ | |||
+ | १३३. नित्य अध्ययन से विषय को परिष्कृत और समृद्ध करते जो पढ़ाना निश्चित होता है वह राष्ट्रसापेक्ष पाठ्यक्रम होता | ||
+ | |||
+ | रहना स्वाध्याय है । है। | ||
+ | |||
+ | १३४, अध्यापन और समाज के लिये ज्ञान का विनियोग ऐसे १४८. विद्यार्थीसापेक्ष पाठ्यक्रम राष्ट्र के अविरोधी होना चाहिए | ||
+ | |||
+ | प्रवचन के दो आयाम हैं । क्योंकि विद्यार्थी भी राष्ट्र का अंग ही है । | ||
+ | |||
+ | १३५, अध्यापन में विद्यार्थी भी साथ में जुड़ता है । तब विद्यार्थी १४९. सर्व प्रकार के शैक्षिक प्रयासों हेतु राष्ट्र सर्वोपरि है । | ||
+ | |||
+ | का वह अधीति पद है । १५०, भारत की जीवनदृष्टि विश्वात्मक है इसलिए राष्ट्रीय होकर | ||
+ | |||
+ | १३६. अधीति से प्रसार और प्रसार में फिर अधीति ऐसे ज्ञान शिक्षा विश्व का कल्याण साधने में समर्थ होती है । | ||
+ | |||
+ | की पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परा बनती है और ज्ञानप्रवाह १५१, सर्वकल्याणकारी शिक्षा राष्ट्र को चिरंजीवी बनाती है । | ||
+ | |||
+ | निरन्तर बहता है । भारत ऐसा ही राष्ट्र है । | ||
[[Category:भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप]] | [[Category:भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप]] | ||
==References== | ==References== |
Revision as of 15:47, 13 March 2019
This article relies largely or entirely upon a single source.March 2019) ( |
यह लेख इस स्रोत से लिया गया है।[1]
- शिक्षा ज्ञान का व्यवस्थातन्त्र है।
- विद्या ज्ञान प्राप्त करने की कुशलता है।
- लोक में शिक्षा, विद्या और ज्ञान एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं।
- ज्ञान ब्रह्म का स्वरूपलक्षण है।
- ज्ञान पवित्रतम सत्ता है।
- शिक्षा का अधिष्ठान अध्यात्म है।
- आत्मतत्व को अधिकृत करके जो भी रचना या व्यवस्था होती है वह आध्यात्मिक है ।
- आत्मतत्व अव्यक्त है।
- अव्यक्त आत्मतत्व का व्यक्त रूप सृष्टि है।
- सृष्टि आत्मतत्व का विश्वरूप है ।
- सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही उसकी धारणा के लिए धर्म की उत्पत्ति हुई है ।
- धर्म विश्वनियम है ।
- धर्म स्वभाव है ।
- धर्म कर्तव्य है ।
- धर्म नीति है ।
- धर्म संप्रदाय भी है ।
- विभिन्न संदर्भों में धर्म के विभिन्न रूप हैं ।
- धर्म का अधिष्ठान अध्यात्म है ।
- शिक्षा धर्मानुसारी होती है और धर्म सिखाती है ।
- शिक्षा ज्ञानपरम्परा की वाहक है ।
- एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होने से ज्ञान की परम्परा बनती है ।
- गुरुकुल और कुटुंब दोनों केन्द्र ज्ञानपरम्परा के निर्वहण के केन्द्र हैं ।
- क्रिया, संवेदन, विचार, विवेक, कर्तृत्वभोक्तृत्व, संस्कार और अनुभूति ज्ञान के ही विभिन्न स्वरूप हैं ।
- ज्ञानार्जन के करणों से जुड़कर ही ज्ञान विभिन्न रूप धारण करता है ।
- कर्मेन्द्रियों के साथ क्रिया, ज्ञानेन्द्रियों के साथ संवेदन, मन के साथ विचार, बुद्धि के साथ विवेक,अहंकार के साथ कर्तृत्वभोक्तृत्व, चित्त के साथ संस्कार एवं हृदय के साथ अनुभूति के रूप में ज्ञान व्यक्त होता है ।
- जिस प्रकार अव्यक्त आत्मतत्व का व्यक्त स्वरूप ज्ञानार्जन के करण हैं उसी प्रकार आत्मस्वरूप ज्ञान के ये सब व्यक्त स्वरूप हैं ।
- शिक्षा राष्ट्र की जीवनदृष्टि पर आधारित होती है और उस जीवनदृष्टि को पुष्ट करती है ।
- राष्ट्र सांस्कृतिक इकाई है। वह भूमि, जन और जीवनदर्शन मिलकर बनता है ।
- भारत की जीवनदृष्टि आध्यात्मिक है इसलिए भारतीय शिक्षा भी अध्यात्मनिष्ठ है ।
- शिक्षा मनुष्य के जीवन के साथ सर्वभाव से जुड़ी हुई है ।
- शिक्षा आजीवन चलती है ।
- शिक्षा गर्भाधान से भी पूर्व से शुरू होकर अन्त्येष्टि तक चलती है ।
- शिक्षा सर्वत्र चलती है । घर, विद्यालय और समाज शिक्षा के प्रमुख केन्द्र हैं ।
- घर में व्यवहार की, विद्यालय में शास्त्रीय और समाज में प्रबोधनात्मक शिक्षा होती है ।
- घर में मातापिता, विद्यालय में शिक्षक और समाज में धर्माचार्य शिक्षा के नियोजक हैं ।
- शिक्षा चारों पुरुषार्थों, चारों आश्रमों, चारों वर्णों के लिए होती है ।
- शिक्षा व्यक्ति और समाज दोनों के लिए होती है ।
- शिक्षा जीवन की सभी अवस्थाओं के लिए होती है ।
- गर्भ, शिशु, बाल, किशोर, तरुण, युवा, प्रौढ़ और वृद्ध जीवन की विभिन्न अवस्थायें हैं ।
- शिक्षक और विद्यार्थी के मध्य जो विचार, भावना, जानकारी आदि का आदानप्रदान होता है वह शिक्षा है।
- शिक्षा देने वाला शिक्षक और शिक्षा लेने वाला विद्यार्थी है ।
- गुरु, आचार्य, उपाध्याय आदि शिक्षक के विभिन्न रूप हैं । शिष्य, छात्र, अंतेवासी विद्यार्थी के विभिन्न रूप हैं ।
- शिक्षक के कार्य को अध्यापन और विद्यार्थी के कार्य को अध्ययन कहा जाता है । दोनों मिलकर शिक्षा है ।
- आचार्य पूर्वरूप है, अंतेवासी उत्तररूप है, दोनों में प्रवचन से सन्धान होता है और इससे विद्या निष्पन्न होती. है ऐसा उपनिषद कहते हैं ।
शिक्षक और विद्यार्थी का संबंध मानस पिता और पुत्र
का होता है ।
शिक्षा एक जीवन्त प्रक्रिया है, यान्त्रिक नहीं ।
शिक्षक अध्यापन करता है और विद्यार्थी अध्ययन ।
अध्यापन और अध्ययन एक ही क्रिया के दो पहलू हैं ।
अध्ययन मूल क्रिया है और अध्यापन प्रेरक ।
ज्ञानार्जन के करण कहते हैं ।
करण दो प्रकार के होते हैं, बहि:करण और अन्त:करण ।
कर्मन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियां बहि:करण हैं ।
मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त अन्तःकरण हैं ।
क्रिया और संवेदन बहि:करणों के विषय हैं ।
विचार, विवेक, कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व तथा संस्कार
क्रमश: मन, बुद्धि,अहंकार और चित्त के विषय हैं ।
आयु की अवस्था के अनुसार ज्ञानार्जन के करण सक्रिय
होते जाते हैं ।
गर्भावस्था और शिशुअवस्था में चित्त, बालअवस्था में
इंद्रियाँ और मन का भावना पक्ष, किशोर अवस्था में
मन का विचार पक्ष तथा बुद्धि का निरीक्षण और परीक्षण
५८,
५९,
६०,
६१,
६२.
qR.
&Y.
६५,
६६,
ay.
GC.
६९,
७१,
७२,
७३.
७४,
७५,
83
पक्ष, तरुण अवस्था में विवेक तथा
युवावस्था में अहंकार सक्रिय होता है ।
युवावस्था तक पहुँचने पर ज्ञानार्जन के सभी करण सक्रिय
होते हैं ।
सोलह वर्ष की आयु तक ज्ञानार्जन के करणों के विकास
की शिक्षा तथा सोलह वर्षों के बाद ज्ञानार्जन के करणों
से शिक्षा होती है ।
करणों की क्षमता के अनुसार शिक्षा ग्रहण होती है ।
आहार, विहार, योगाभ्यास, श्रम, सेवा, सत्संग,
स्वाध्याय आदि से करणों की क्षमता बढ़ती है ।
सात्त्विक,पौष्टिक और स्वादिष्ट आहार सम्यक आहार
होता है ।
दिनचर्या, कऋतुचर्या और जीवनचर्या विहार है ।
यम नियम आदि अष्टांग योग का अभ्यास योगाभ्यास
है।
शरीर की शक्ति का भरपूर प्रयोग हो ऐसा कोई भी कार्य
श्रम है ।
निःस्वार्थभाव से किसी दूसरे के लिए किया गया कोई
भी कार्य सेवा है ।
सज्जनों का उपसेवन सत्संग है ।
Aa Al पठन और उनके ऊपर मनन, चिन्तन
स्वाध्याय है ।
ज्ञानार्जन के करणों का विकास करना व्यक्ति के विकास
का एक आयाम है ।
.. व्यक्ति का समष्टि और सृष्टि के साथ समायोजन उसके
विकास का दूसरा आयाम है ।
दोनों मिलकर समग्र विकास होता है ।
अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय
आत्मा का विकास ही करणों का विकास है ।
अन्नमयादि पंचात्मा ही पंचकोश हैं ।
व्यक्ति का समष्टि के साथ समायोजन Hers, AAC,
राष्ट्र और विश्व ऐसे चार स्तरों पर होता 2 |
अन्नमय आत्मा शरीर है । बल, आरोग्य, कौशल,
तितिक्षा और लोच उसके विकास का स्वरूप है ।
............. page-30 .............
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
७६, आहार, निद्रा, श्रम, काम और. ९८. चित्त की शुद्धि के अनुपात में ये गुण प्रकट होते हैं ।
मनःशान्ति से उसका विकास होता है । ९९, अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनंदमय के परे
७७. प्राणमय आत्मा प्राण है । एकाग्रता सन्तुलन और नियमन आत्मतत्व है ।
उसके विकास का स्वरूप है । १००, उसका ही स्वरूप हृदय है । अनुभूति उसका विषय
७८. आहार, निद्रा, भय और मैथुन उसकी चार वृत्तियाँ हैं । है।
७९. प्राणायाम और शुद्ध वायु उसके विकास के कारक. १०१. आत्मतत्त्त . को... आत्मतत्त्त _ की... अनुभूति
तत्व हैं। आत्मतत्वरूपी हृदय में होती है ।
८०. मनोमय आत्मा मन है । विचार, भावना और इच्छा. ३१०२.शिक्षा का लक्ष्य यही अनुभूति है ।
उसके स्वरूप हैं । १०३. एकात्मा की अनुभूति होने पर सर्वात्मा की अनुभूति
८१. चंचलता, उत्तेजितता, द्ंद्रात्मकता और आसक्ति उसके होती है ।
स्वभाव है ।
१०४. एकात्मा की अनुभूति अहम ब्रह्मास्मि है, सर्वात्मा की
८२. एकाग्रता, शान्ति, अनासक्ति और सद्धावना उसके सर्व खल्विद्म ब्रह्म ।
विकास का स्वरूप है । १०५, प्राणी, वनस्पति और पंचमहाभूत सृष्टि है।
थक ae सेवा, a ree ” ~~ १०६, सृष्टि के प्रति एकात्मता, कृतज्ञता, दोहन और रक्षण
सात्तक आहार मन के नकास के कारक तत्व है । व्यक्ति के सृष्टि के साथ समायोजन के चरण हैं ।
८४. विज्ञानमय आत्मा बुद्धि है ।
हर और १०७. ये TRIN ATE |
८५. दर कुशाग्रता और विशालता बुद्धि के १०८. शिक्षा समाज के लिये होती है तब वह समाज को
विशेषण हैं ।
श्रेष्ठ बनाती है ।
८६. विवेक बुद्धि के विकास का स्वरूप है | ९. समृद्ध और सुसंस्कृत समाज श्रेष्ठ समाज है ।
८७. . निरीक्षण, परीक्षण, तर्क, अनुमान, विश्लेषण, संश्लेषण १०९. संस्कृति र सुसस्कृत समा मा
बुद्धि के साधन हैं । ११०, के बिना समृद्धि आसुरी होती है और समृद्धि
८८. अहंकार बुद्धि का एक और साथीदार है । के बिना संस्कृति की रक्षा नहीं हो सकती |
८९. कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व अहंकार के लक्षण हैं । १११, श्रेष्ठ समाज में व्यक्ति, समष्टि और सृष्टि के गौरव,
९०. आत्मनिष्ठ बुद्धि और अहंकार सदद्धि और दायित्वबोध सम्मान और स्वतन्त्रता की रक्षा होती है ।
में परिणत होते हैं । ११२. शिक्षक शिक्षाक्षेत्र का अधिष्ठाता है ।
९१, आनंदमय आत्मा चित्त है । संस्कार ग्रहण करना उसका... ** रे: शिक्षा पर आए सारे संकटों को दूर करने का दायित्व
कार्य है। शिक्षक का होता है ।
९२. जन्मजान्मांतर, अनुबंश, संस्कृति और सन्निवेश के. ११४. शिक्षक की दुर्बलता से शिक्षा पर संकट आते हैं ।
संस्कार होते हैं । ११५, परराष्ट्र की जीवनदृष्टि का आक्रमण और सत्ता तथा
९३. चित्तशुद्धि करना चित्त के विकास का स्वरूप है । धन के ट्वारा शिक्षा की स्वायत्तता का हरण शिक्षा पर
९४. सर्व प्रकार के संस्कारों का क्षय करना चित्तशुद्धि है । आए संकट हैं ।
९५. आहारशुद्धि और समाधि से चित्त शुद्ध होता है । १४१६, राष्ट्रनिष्ठा, ज्ञाननिष्ठा और विद्यार्थिनिष्ठा से शिक्षक इन
९६, शुद्ध चित्त में आत्मतत्व प्रति्बिबित होता है । संकटों पर विजय प्राप्त कर सकता है ।
९७. शुद्ध चित्त में सहजता, प्रेम, सौंदर्यबोध, सृजनशीलता, ... १९७. राष्ट्र के जीवनदर्शन को जानना, मानना और उसके
आनंद का निवास है । अनुसार व्यवहार करना राष्ट्रनिष्ठा है ।
gv
............. page-31 .............
पर्व १ : उपोद्धात
११८, ज्ञान की पवित्रता, श्रेष्ठता और गुरुता की रक्षा करना... १३७. ज्ञान की समृद्धि की रक्षा करने हेतु
ज्ञाननिष्ठा है । श्रेष्ठतम विद्यार्थी को शिक्षक ने शिक्षक बनने की प्रेरणा
११९, विद्यार्थी को जानना, उसके कल्याण हेतु प्रयास करना देनी चाहिए और उसे अपने से सवाया बनाना चाहिए |
और उसे अपने से सवाया बनाना विद्यार्थीनिष्ठा है । १३८. शिक्षक बनना उत्तम विद्यार्थी का भी लक्ष्य होना
१२०, आचार्यत्व शिक्षक का गुणलक्षण है । अपेक्षित है ।
१२१. अपने आचरण से प्रेरित कर विद्यार्थी का जीवन... १३९. शिक्षक और विद्यार्थी मिलकर जहाँ अध्ययन करते हैं
बनाता है वह आचार्य है । वह स्थान विद्यालय है ।
१२२. आचार्य का आचरण शाख्रनिष्ठ होता है । १४०. जब शिक्षक और विद्यार्थी स्वेच्छा, स्वतन्त्रता और
१२३. विद्यार्थी भी ज्ञाननिष्ठ, राष्ट्रनिष्ठ और आचार्यनिष्ठ होता स्वदायित्व से विद्यालय चलाते हैं तब शिक्षा स्वायत्त
है। होती है ।
१२४. आचार्य की सेवा, अनुशासन, जिज्ञासा और विनय... १४१. शिक्षा की स्वायत्तता बनाये रखने का प्रमुख दायित्व
विद्यार्थी के गुणलक्षण हैं । शिक्षक का है, विद्यार्थी उसका सहभागी है और राज्य
१२५. अधीति, बोध, अभ्यास, प्रयोग और प्रसार अध्ययन तथा समाज उसके सहयोगी हैं ।
की पंचपदी है । १४२. स्वायत्त शिक्षा ही राज्य और समाज का मार्गदर्शन करने
१२६. कर्मन्द्रियों और ज्ञानेन्द्रियों से विषय को ग्रहण करना में समर्थ होती है ।
अधीति है । १४३. जो राज्य और समाज शिक्षा को स्वायत्त नहीं रहने देते
१२७.मन और बुद्धि के द्वारा अधीत विषय को ग्रहण करना उस राज्य और समाज की दुर्गति होती है ।
बोध है । १४४. जो शिक्षक स्वायत्तता का दायित्व नहीं लेता उस शिक्षक
१२८. जिसका बोध हुआ है उसे पुन: पुन: करना अभ्यास की राज्य और समाज से भी अधिक दुर्गति होती है ।
है। १४५. राष्ट्र और विद्यार्थी दोनों को ध्यान में रखकर जो पढ़ाया
१२९, अभ्यास से बोध परिपक्क होता है । जाता है वह पाठ्यक्रम होता है ।
१३०. परिपक्क बोध के अनुसार आचरण करना प्रयोग है । १४६, विद्यार्थी की अवस्था, रुचि, क्षमता और आवश्यकता
१३१, आचरण से विषय व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बनता के अनुसार जो भी पढ़ाना शिक्षक द्वारा निश्चित किया
है। जाता है वह विद्यार्थीसापेक्ष पाठ्यक्रम होता है ।
१३२. स्वाध्याय और प्रवचन प्रसार के दो अंग हैं । १४७, राष्ट्र की स्थिति और आवश्यकता को ध्यान में रखकर
१३३. नित्य अध्ययन से विषय को परिष्कृत और समृद्ध करते जो पढ़ाना निश्चित होता है वह राष्ट्रसापेक्ष पाठ्यक्रम होता
रहना स्वाध्याय है । है।
१३४, अध्यापन और समाज के लिये ज्ञान का विनियोग ऐसे १४८. विद्यार्थीसापेक्ष पाठ्यक्रम राष्ट्र के अविरोधी होना चाहिए
प्रवचन के दो आयाम हैं । क्योंकि विद्यार्थी भी राष्ट्र का अंग ही है ।
१३५, अध्यापन में विद्यार्थी भी साथ में जुड़ता है । तब विद्यार्थी १४९. सर्व प्रकार के शैक्षिक प्रयासों हेतु राष्ट्र सर्वोपरि है ।
का वह अधीति पद है । १५०, भारत की जीवनदृष्टि विश्वात्मक है इसलिए राष्ट्रीय होकर
१३६. अधीति से प्रसार और प्रसार में फिर अधीति ऐसे ज्ञान शिक्षा विश्व का कल्याण साधने में समर्थ होती है ।
की पीढ़ी दर पीढ़ी परम्परा बनती है और ज्ञानप्रवाह १५१, सर्वकल्याणकारी शिक्षा राष्ट्र को चिरंजीवी बनाती है ।
निरन्तर बहता है । भारत ऐसा ही राष्ट्र है ।
References
- ↑ भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे