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# उत्पादन के सम्बन्ध में उत्पादनीय वस्तुओं की वरीयता निश्चित करना अत्यन्त आवश्यक है। उदाहरण के लिये अनाज और वस्त्र के उत्पादन को खिलौने के उत्पादन से ऊपर का स्थान देना चाहिये। व्यक्ति को अनाज के उत्पादन के लिए अधिक परिश्रम और कम अर्थार्जन होता हो और खिलौनों के उत्पादन में कम परिश्रम और अधिक अर्थार्जन होता हो तो भी अनाज के उत्पादन को खिलौनों के उत्पादन की अपेक्षा वरीयता देनी चाहिये और उसके उत्पादन की बाध्यता बनानी चाहिये। आज इसे अर्थार्जन की स्वतन्त्रता का मुद्दा बनाया जाता है न कि सामाजिक ज़िम्मेदारी का। सुसंस्कृत समाज ज़िम्मेदारी को प्रथम स्थान देता है और व्यक्तिगत लाभ को उसके आगे गौण मानता है।
 
# उत्पादन के सम्बन्ध में उत्पादनीय वस्तुओं की वरीयता निश्चित करना अत्यन्त आवश्यक है। उदाहरण के लिये अनाज और वस्त्र के उत्पादन को खिलौने के उत्पादन से ऊपर का स्थान देना चाहिये। व्यक्ति को अनाज के उत्पादन के लिए अधिक परिश्रम और कम अर्थार्जन होता हो और खिलौनों के उत्पादन में कम परिश्रम और अधिक अर्थार्जन होता हो तो भी अनाज के उत्पादन को खिलौनों के उत्पादन की अपेक्षा वरीयता देनी चाहिये और उसके उत्पादन की बाध्यता बनानी चाहिये। आज इसे अर्थार्जन की स्वतन्त्रता का मुद्दा बनाया जाता है न कि सामाजिक ज़िम्मेदारी का। सुसंस्कृत समाज ज़िम्मेदारी को प्रथम स्थान देता है और व्यक्तिगत लाभ को उसके आगे गौण मानता है।
 
# परिश्रम आधारित उत्पादन व्यवस्था में यंत्रों का स्थान आर्थिक और सांस्कृतिक विवेक के आधार पर निश्चित किया जाता है। मनुष्य का कष्ट कम करने में और काम को सुकर बनाने में यंत्रों का योगदान महत्वपूर्ण है। परन्तु वे मनुष्य के सहायक होने चाहिये, मनुष्य का स्थान लेने वाले और उसके काम के अवसर छीन लेने वाले नहीं। उदाहरण के लिये गरम वस्तु पकड़ने के लिये चिमटा, सामान का यातायात करने हेतु गाड़ी और उसे चलाने हेतु चक्र, कुएँ से पानी निकालने हेतु घिरनी जैसे यंत्र अत्यन्त उपकारक हैं परन्तु पेट्रोल, डिझेल, विद्युत की ऊर्जा से चलने वाले, एक साथ विपुल उत्पादन की बाध्यता निर्माण करने वाले, उत्पादन को केंद्रित बना देने वाले और अनेक लोगों की आर्थिक स्वतन्त्रता छीन लेने वाले यंत्र वास्तव में आसुरी शक्ति हैं। इन्हें त्याज्य मानना चाहिये। आज हम इसी आसुरी शक्ति के दमन का शिकार बने हुए हैं परन्तु उसे ही विकास का स्वरूप मान रहे हैं ।
 
# परिश्रम आधारित उत्पादन व्यवस्था में यंत्रों का स्थान आर्थिक और सांस्कृतिक विवेक के आधार पर निश्चित किया जाता है। मनुष्य का कष्ट कम करने में और काम को सुकर बनाने में यंत्रों का योगदान महत्वपूर्ण है। परन्तु वे मनुष्य के सहायक होने चाहिये, मनुष्य का स्थान लेने वाले और उसके काम के अवसर छीन लेने वाले नहीं। उदाहरण के लिये गरम वस्तु पकड़ने के लिये चिमटा, सामान का यातायात करने हेतु गाड़ी और उसे चलाने हेतु चक्र, कुएँ से पानी निकालने हेतु घिरनी जैसे यंत्र अत्यन्त उपकारक हैं परन्तु पेट्रोल, डिझेल, विद्युत की ऊर्जा से चलने वाले, एक साथ विपुल उत्पादन की बाध्यता निर्माण करने वाले, उत्पादन को केंद्रित बना देने वाले और अनेक लोगों की आर्थिक स्वतन्त्रता छीन लेने वाले यंत्र वास्तव में आसुरी शक्ति हैं। इन्हें त्याज्य मानना चाहिये। आज हम इसी आसुरी शक्ति के दमन का शिकार बने हुए हैं परन्तु उसे ही विकास का स्वरूप मान रहे हैं ।
# अर्थव्यवस्था एवम्‌ मनुष्यों की आर्थिक स्वतन्त्रता का मुद्दा अहम है। स्वतन्त्रता मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। आर्थिक स्वतन्त्रता उसका महत्वपूर्ण आयाम है। उसकी रक्षा होनी ही चाहिये। जो मनुष्य आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र नहीं है वह दीन हीन हो जाता है और ऐसे मनुष्यों की संख्या बढ़ने से संस्कृति की ही हानि होती है। इसलिए अर्थव्यवस्था ऐसी होनी चाहिये जिसमें उत्पादन केंद्रित न हो जाये, वितरण दुष्कर न हो जाये और वस्तुओं की प्राप्ति दुर्लभ न हो जाये। ये सारे समाज को दरिद्र बनाते हैं। इसलिए यंत्रों पर आधारित उत्पादन व्यवस्था पर सुविचारित नियंत्रण होना चाहिये ।
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# अर्थव्यवस्था एवम्‌ मनुष्यों की आर्थिक स्वतन्त्रता का मुद्दा अहम है। स्वतन्त्रता मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। आर्थिक स्वतन्त्रता उसका महत्वपूर्ण आयाम है। उसकी रक्षा होनी ही चाहिये। जो मनुष्य आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र नहीं है वह दीन हीन हो जाता है और ऐसे मनुष्यों की संख्या बढ़ने से संस्कृति की ही हानि होती है। अतः अर्थव्यवस्था ऐसी होनी चाहिये जिसमें उत्पादन केंद्रित न हो जाये, वितरण दुष्कर न हो जाये और वस्तुओं की प्राप्ति दुर्लभ न हो जाये। ये सारे समाज को दरिद्र बनाते हैं। अतः यंत्रों पर आधारित उत्पादन व्यवस्था पर सुविचारित नियंत्रण होना चाहिये ।
 
# वर्तमान में जिस प्रकार से यंत्रों का उपयोग होता है, उससे तीन प्रकार से हानि होती है। एक, पेट्रोलियम जैसे प्राकृतिक संसाधनों का विनाशकारी प्रयोग होने से पर्यावरण का संतुलन भयानक रूप से बिगड़ता है। पेट्रोल, डिझेल, विद्युत जैसी ऊर्जा का प्रयोग, लोहा, सिमेन्ट और प्लास्टिक जैसे पदार्थ बनाकर उनका अधिकाधिक उपयोग पर्यावरण के विनाश के साथ साथ मनुष्य के स्वास्थ्य का भी नाश करता है। उत्पादन के केन्द्रीकरण के कारण बेरोजगारी बढ़ती है और आर्थिक स्वतन्त्रता का नाश होता है। वर्तमान में ऐसी भीषण परिस्थिति निर्माण हो गई है कि बिना यंत्र के, बिना कारखाने के, बिना पेट्रोल, डिझेल या विद्युत के कुछ संभव है ऐसा हमें लगता ही नहीं है। इससे निर्माण होने वाले विषचक्र से बाहर निकलने के लिये भी समर्थ प्रयासों की आवश्यकता है।
 
# वर्तमान में जिस प्रकार से यंत्रों का उपयोग होता है, उससे तीन प्रकार से हानि होती है। एक, पेट्रोलियम जैसे प्राकृतिक संसाधनों का विनाशकारी प्रयोग होने से पर्यावरण का संतुलन भयानक रूप से बिगड़ता है। पेट्रोल, डिझेल, विद्युत जैसी ऊर्जा का प्रयोग, लोहा, सिमेन्ट और प्लास्टिक जैसे पदार्थ बनाकर उनका अधिकाधिक उपयोग पर्यावरण के विनाश के साथ साथ मनुष्य के स्वास्थ्य का भी नाश करता है। उत्पादन के केन्द्रीकरण के कारण बेरोजगारी बढ़ती है और आर्थिक स्वतन्त्रता का नाश होता है। वर्तमान में ऐसी भीषण परिस्थिति निर्माण हो गई है कि बिना यंत्र के, बिना कारखाने के, बिना पेट्रोल, डिझेल या विद्युत के कुछ संभव है ऐसा हमें लगता ही नहीं है। इससे निर्माण होने वाले विषचक्र से बाहर निकलने के लिये भी समर्थ प्रयासों की आवश्यकता है।
 
# पंचमहाभूत, वनस्पतिजगत और प्राणीजगत अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वास्तव में भौतिक समृद्धि का मूल आधार ये सब ही हैं। परमात्मा की कृपा से भारत को ये सारे संसाधन विपुल मात्रा में प्राप्त हुए हैं। भारत की भूमि उपजाऊ है और केवल भारत में ही वर्ष में तीन फसल ली जा सकें ऐसे भूखंड हैं। भारत की जलवायु शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य के लिये अधिक अनुकूल हैं। भारत में छः ऋतुएं नियमित रूप से होती हैं। हमारे अरण्य फल, फूल, औषधियों से भरे हुए हैं। तुलसी, नीम, गंगा, गोमाता भारत के ही भाग्य में हैं। भूमि, जल, वायु, अरण्य, पर्वत, तापमान आदि सब शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के रक्षक और पोषक हैं। कुल मिलाकर प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से भारत में समृद्ध होने की सारी संभावनायें हैं।
 
# पंचमहाभूत, वनस्पतिजगत और प्राणीजगत अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वास्तव में भौतिक समृद्धि का मूल आधार ये सब ही हैं। परमात्मा की कृपा से भारत को ये सारे संसाधन विपुल मात्रा में प्राप्त हुए हैं। भारत की भूमि उपजाऊ है और केवल भारत में ही वर्ष में तीन फसल ली जा सकें ऐसे भूखंड हैं। भारत की जलवायु शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य के लिये अधिक अनुकूल हैं। भारत में छः ऋतुएं नियमित रूप से होती हैं। हमारे अरण्य फल, फूल, औषधियों से भरे हुए हैं। तुलसी, नीम, गंगा, गोमाता भारत के ही भाग्य में हैं। भूमि, जल, वायु, अरण्य, पर्वत, तापमान आदि सब शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के रक्षक और पोषक हैं। कुल मिलाकर प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से भारत में समृद्ध होने की सारी संभावनायें हैं।

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